मरहूम

By manoj-azharNovember 5, 2020
कभी तस्वीर से बाहर निकल कर बोल भी उट्ठो
हमेशा एक सा चेहरा लिए क्यूँ तकते रहते हो
ज़रा होंटों को जुम्बिश और लफ़्ज़ों को रिहाई दो
अकेला पड़ गया हूँ मैं ज़रा मेरी सफ़ाई दो


माँ अक्सर मेरी खाँसी पर तुम्हारा धोखा खाती है
ये बड़ की मेरी इक आदत तुम्हारी सी बताती है
तुम्हारी याद आती है
कभी पूछो कि इतनी रात को क्यूँ घर मैं आता हूँ


कभी डाँटो कि मैं इस तरह क्यूँ पैसे उड़ाता हूँ
जिन्हें तुम टोकते थे मैं वो सारे काम करता हूँ
तुम्हारा नाम करने से रहा बदनाम करता हूँ
मैं इक होटल में सिगरेट पी रहा हूँ तुम दिखाई दो


मैं रूठा हूँ मेरा कांधा छुओ
फिर मुस्कुराओ और खाने पर बुला लो
मुझे डर लग रहा है आज
मुझ को अपने बिस्तर पर सुला लो


मैं इस मेले में चल कर थक गया हूँ
अपने काँधे पर बिठा लो
क़दम फिर लड़खड़ाते हैं
मुझे उँगली दो गिरता हूँ सँभालो


मुझे सर-दर्द है सर छू के
अपने लम्स की उम्दा दवाई दो
मैं फिर से पास हो कर आ गया हूँ थपथपाओ
तू आख़िर मेरा बेटा है कहो माँ को चिढ़ाओ


मुझे फिर से उसी हलवाई की ला कर मिठाई दो
सुनो अब लोग अक्सर पूछते हैं
किस के बेटे हो
तुम्हारा नाम लेता हूँ


तो वो 'मरहूम' कहते हैं
मगर नादान हैं वो
बाप भी मरहूम होता है
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