मौसम
By kanwal-pradeep-mahajanFebruary 27, 2024
शाम के सहमे हुए लम्हात
बंद सी बोझल फ़ज़ा
सब्ज़ पत्ते दरख़्तों पे
यूँ जैसे
सोग में आए बैठे हों
ऐसे चुप-चाप
किसी लर्ज़िश से बेगाने
सर-निगूँ जैसे
इक हुजूम-ए-गुनाह-गाराँ हो
दिन-भर के सफ़र से थक कर
सूरज
खो कर अपनी ताबानी
एक बे-जान से राही की तरह
लौटता है
अपने घर के आँगन में
गर्द से आलूद फ़ज़ा
दर्द से बोझल साँसें
रुक भी जाएँ अगर
तो कोई ज़ियाँ क्या होगा
बंद सी बोझल फ़ज़ा
सब्ज़ पत्ते दरख़्तों पे
यूँ जैसे
सोग में आए बैठे हों
ऐसे चुप-चाप
किसी लर्ज़िश से बेगाने
सर-निगूँ जैसे
इक हुजूम-ए-गुनाह-गाराँ हो
दिन-भर के सफ़र से थक कर
सूरज
खो कर अपनी ताबानी
एक बे-जान से राही की तरह
लौटता है
अपने घर के आँगन में
गर्द से आलूद फ़ज़ा
दर्द से बोझल साँसें
रुक भी जाएँ अगर
तो कोई ज़ियाँ क्या होगा
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