वो मिरा वहम कि झोंका सा कोई सब्ज़-क़बा था जिसे देखा किसी चहकार की ख़ुनकी भी फ़ज़ा में जो बिखरती तो ये खुलता कि अभी खोज है आग़ाज़ अभी खोज है परवाज़ कभी यूँ भी तो होता है कि हो खोज यही राख की मुट्ठी में दबी अध-जली पत्ती वही मा'मूल-ए-शब-ओ-रोज़ कि बेदाद ही बेदाद है रन्दा जो लगातार रहे फेरता अपना तौबा हर ज़ाविया हमवार ब-हर ज़ाविया छिल छिल के गवारा कहीं हो जाए न बे-साख़्ता फ़रियाद ये धड़का सा बना रहता है दिल में वो तने टूट रहे हैं जो क़दम थे जो भरम थे कि कोई लफ़्ज़ न पाया न किसी लफ़्ज़ का मफ़्हूम जो पानी का बदल हो वो तने छान के ख़ामोश तहें ख़ाक की ख़ामोश तहें आँसू-ए-अफ़्लाक की लौट आए वहीं अपनी सिसकती हुई पैमूदा हदों में यही आसार फ़ज़ाओं के खुले-पन से मोज़ाहिम जो गुज़रगाह में सैलाब की होते तो किसी मोड़ पर मुड़ते हुए शबनम का नम-ओ-नर्म बिछौना उन्हें मिलता तो दो सद रेशा अनासिर वो गले बीज ज़रा देर को हो जाते वहीं ढेर मज़े में कफ़-ए-सैलाब में उलझे हुए ख़ाशाक में पोशीदा वो जुड़ जुड़ के बहम चैन से सोते कि अभी देर है एलान-ए-सहर होने में एलान-ए-सहर पहले सुने जो भी सहर-ख़ेज़ वो औरों को भी जाग उठने का पैमान-ए-फ़रामोश शुदा याद दिलाए यही कलियों के तबस्सुम में घुली याद-दहानी जो ठिठुर जाए समाअ'त तो समाअ'त के लिए एक अनोखी सा धमाका ये मिरा वहम शगूनी मिरी ज़ंजीर कोई अंधकार उतर आए जो पायाब गुमानों में तो पायाब गुमानों में उतर आती है गहराई यक़ीं सी कोई सय्याह सी सयारसी झलकार उतर आए जो ठहरे हुए पानी में तो ठहरे हुए पानी में रवानी की मुशाहिद मिरी आशुफ़्ता-निगाही वो कहाँ फिर भी मगर लहर तले लहर की ता'मीर कि दे जिस पे जिगर-ए-तिश्ना-तमन्ना भी गवाही जो वो इक सत्ह-ए-गराँ-माया है इक क़अर-ए-बला-ख़ेज़ उभरता हुआ मल्लाह उतरता हुआ अग़वाज़ जहाँ वहम नहीं ज़िंदा-ओ-ताबिंदा हक़ीक़त है दिल-आवेज़ कोई हीरे की कनी सी कि है तीनत में सिरिश्ता कभी आवाज़ की लौ बन गई आफ़ाक़-ब-आफ़ाक़ पलटती हुई औराक़ कभी छनती रही आँखों से पैहम सिफ़त-ए-अश्क तू बदलता हुआ रस्ता तह-ए-दरिया से दहकती हुई बालू में निकलता हुआ रस्ता जिसे देखा वो मिरा वहम नहीं मेरा यक़ीं था कोई बूटा जो खड़ा है तो यही काम है उस का कि ख़ज़ाने का पता पूछने वालों को बताए जो ख़लाओं का अक़ब है वो ख़ला कब है ख़ला कब जो वहाँ भी इसी कमली का किनारा हो किसी दौर के इम्काँ सा झलकता तो वहाँ भी वही फैलाव छलकता है चमकता है सहर-रंग धुँदलके में सियह-चश्म तजल्ली का ख़ुनुक-ताब तलाज़ुम तो जिगर-सोख़्तगान-ए-दो-जहाँ कौन है फिर खोज में सरगर्म ये तुम घेर के लाए गए तुम या वो नज़र मंज़िलत-आरा नज़र साहब-ए-कौसर है कि है गश्त में बेदार जिसे देखा वो इशारा सा कि हाँ जाैफ़-ए-अदम जाैफ़-ए-अदम में भी जो मुमकिन है ख़ुद-आराई के आलम में ये फ़ैज़ान का आलम तो ये हैरत का ठिकाना नहीं टूटे हुए आईनो ये जुड़ जाने की मंज़िल ये जिला पाने की जा है