पेशावर की सैर

By abul-fitrat-meer-zaidiSeptember 2, 2024
हर एक दिलरुबा मिला
हर एक बा-वफ़ा मिला
जिसे था पास-ए-दोस्ती
वही उठा बढ़ा मिला


नशिस्त जिस की दूर थी
क़रीब आ गया मिला
पेशावर आने का मुझे
सही जो लुत्फ़ था मिला


हँसी मिली ख़ुशी मिली
ख़ुदी मिली ख़ुदा मिला
रक़ीब था खिचा खिचा
हबीब था घुला मिला


नज़र नज़र अदा अदा
मैं देखता चला गया
गुलों में ज़िंदगी मिली
चमन में दिलकशी मिली


ख़ुशी गले लगी मिली
मिली हँसी ख़ुशी मिली
चमन चमन रविश रविश
बहार हुस्न की मिली


कहीं बनावटें मिलीं
कहीं पे सादगी मिली
कहीं पे ज़ुल्मतें मिलीं
कहीं पे रौशनी मिली


नज़र किसी निगाह से
कभी हटी कभी मिली
न था कोई जो टोकता
मैं देखता चला गया


हर एक सम्त ख़ान हैं
शकील हैं जवान हैं
न नून हैं न नान हैं
ये सब के सब पठान हैं


जिहाद इन की शान है
जिहाद की ये शान हैं
ये ग़ाज़ियों के हैं पिसर
मुजाहिदों की जान हैं


ये सब ख़ुदा-परस्त हैं
ख़ुदी के तर्जुमान हैं
बड़ी बड़ी हवेलियाँ
बड़े बड़े निशान हैं


नज़ारा-हा-ए-दिलरुबा
मैं देखता चला गया
'अजीब चीज़ है यहाँ
हसीन रात का समाँ


निगाह जिस तरफ़ करो
चमक रही हैं बिजलियाँ
हसीन लोग चार-सू
सड़क पे हैं रवाँ-दवाँ


'इमारतों के सामने
झुका हुआ है आसमाँ
कि देखने की चीज़ हैं
इधर उधर यहाँ वहाँ


सेकेटरियों की मोटरें
कमिश्नरों की कोठियाँ
बहार थी निखार था
मैं देखता चला गया


ये ख़ुश-लिबास लड़कियाँ
हसीं हसीं जवाँ जवाँ
हुसूल-ए-‘इल्म के लिए
क़दम क़दम रवाँ-दवाँ


ख़ुशी से दिल महक उठे
नज़र पड़ी जहाँ-जहाँ
खुली हुई किताब में
शराफ़तों की दास्ताँ


हक़ीक़तें सिमट गईं
ठहर के दम लिया जहाँ
शराब की मिसाल हैं
शबाब की ये सुर्ख़ियाँ


ये इंक़लाब की अदा
मैं देखता चला गया
हकीम भी हैं पीर भी
अमीर भी कबीर भी


असेंबली में जल्वा-गर
बड़े बड़े वज़ीर भी
कि जिन के वोटरों में हैं
अक़ील भी कसीर भी


उन्हीं के दम से आज है
ये शह्र-ए-बे-नज़ीर भी
हमारे लीडरों में हैं
शहीर भी बसीर भी


मुक़ीम इस मक़ाम पर
हैं एक दो सफ़ीर भी
यूँही बस इत्तिफ़ाक़ था
मैं देखता चला गया


ग़रीब लोग बा-वफ़ा
अमीन-ए-ग़ैरत-ओ-हया
धनी हैं अपनी बात के
नहीं है ख़ौफ़ जान का


मसर्रतों की बात कर
मुसीबतों का ज़िक्र क्या
कभी जो वक़्त आ पड़ा
बुरा भला गुज़र गया


दही क़दीम बात है
न कुछ घटा न कुछ बढ़ा
कि शुक्र जिन की शान है
शिकायतों से उन को क्या


फटा हुआ लिबास था
मैं देखता चला गया
ये शा'इरों की बज़्म है
कि 'अर्सा-गाह-ए-रज़्म है


तरह तरह की बोलियाँ
अलग अलग हैं टोलियाँ
सुख़न में कोई फ़र्द है
किसी का रंग ज़र्द है


हैं इन में शहसवार भी
बुज़ुर्ग-ए-बा-वक़ार भी
सभी में ये कमाल है
हर इक जगह ये हाल है


मरीज़ हो कि हो मरज़
मुझे किसी से क्या ग़रज़
मुशा’एरा ज़रूर था
मैं देखता चला गया


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