तमाज़त

By nashir-naqviJune 17, 2022
मैं अपनी उम्र की आधी सदी गुज़ार आया
यहीं से फ़िक्र में संजीदगी उभरती है
ये उम्र एक दोराहा है ज़िंदगी के लिए
उभर सी आती हैं तब्दीलियाँ ख़यालों में


बिखरने लगती है चाँदी भी सर के बालों में
ये और बात कि आधी सदी गुज़ार आया
ये और बात कि सब कुछ बदल गया है मगर
तुम्हारा रूप वो ही है जो कल था आँखों में


तुम्हारे हुस्न-ए-तबस्सुम से प्यार है अब भी
वो दिल-गुदाज़ सा इक इंतिज़ार है अब भी
हसीन चेहरों में तुम को तलाश करता हूँ
तख़य्युलात में रुख़्सार की तमाज़त है


तुम्हारे आरिज़-ए-ख़ुश-रंग की शफ़क़ बन कर
मैं ख़्वाब ख़्वाब कई हिज्र ले के आया था
सुलगते लम्हे थे और गेसुओं का साया था
तुम्हें तो बिछड़े हुए कितने साल बीत गए


मगर ये गुज़रे हुए माह-ओ-साल अच्छे हैं
तुम्हें जो देखा नहीं इतनी देर से मैं ने
तो आज सोच रहा हूँ कि ये भी अच्छा है
ये हिज्र मेरे तुम्हारे लिए ग़नीमत है


मिरे ख़याल की किस तरह शान रह पातीं
न तुम बिछड़तीं तो कैसे जवान रह पातीं
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