जश्न बपा है कुटियाओं में ऊँचे ऐवाँ काँप रहे हैं मज़दूरों के बिगड़े तेवर देख के सुल्ताँ काँप रहे हैं जागे हैं इफ़्लास के मारे उठे हैं बे-बस दुखियारे सीनों में तूफ़ाँ का तलातुम आँखों में बिजली के शरारे चौक चौक पर गली गली में सुर्ख़ फरेरे लहराते हैं मज़लूमों के बाग़ी लश्कर सैल-सिफ़त उमडे आते हैं शाही दरबारों के दर से फ़ौजी पहरे ख़त्म हुए हैं ज़ाती जागीरों के हक़ और मोहमल दा'वे ख़त्म हुए हैं शोर मचा है बाज़ारों में टूट गए दर ज़िंदानों के वापस माँग रही है दुनिया ग़सब-शुदा हक़ इंसानों के रुसवा-बाज़ारी ख़ातूनें हक़्क़-ए-निसाई माँग रही हैं सदियों की ख़ामोश ज़बानें सहर-ए-नवाई माँग रही हैं रौंदी कुचली आवाज़ों के शोर से धरती गूँज उठी है दुनिया के ईना-ए-नगर में हक़ की पहली गूँज उठी है जम्अ' हुए हैं चौराहों पर आ के भूके और गदागर एक लपकती आँधी बन कर एक भबकता शो'ला हो कर काँधों पर संगीन कुदालें होंटों पर बेबाक तराने दहक़ानों के दिल निकले हैं अपनी बिगड़ी आप बनाने आज पुरानी तदबीरों से आग के शो'ले थम न सकेंगे उभरे जज़्बे दब न सकेंगे उखड़े परचम जम न सकेंगे राज-महल के दरबानों से ये सरकश तूफ़ाँ न रुकेगा चंद किराए के तिनकों से सैल-ए-बे-पायाँ न रुकेगा काँप रहे हैं ज़ालिम सुल्ताँ टूट गए दिल जब्बारों के भाग रहे हैं ज़िल्ल-ए-इलाही मुँह उतरे हैं ग़द्दारों के एक नया सूरज चमका है एक अनोखी ज़ौ-बारी है ख़त्म हुई अफ़राद की शाही अब जम्हूर की सालारी है