ज़ब्त का ख़र्च
By shariq-kaifiFebruary 29, 2024
ज़ब्त को सोच कर ख़र्च करता हूँ मैं
हर किसी पर नहीं
हर जगह पर नहीं
इस लिए मेरी आँखें कभी ख़ुश्क होती नहीं
ऐसा लगता है हर बात पर
जैसे रोने को तैयार बैठा हूँ मैं
दोस्तों से हुई बद-ज़बानी पे भी
दुख-भरी दूसरों की कहानी पे भी
यूँ
कि मैं ज़ब्त को ख़र्च करना नहीं चाहता
छोटी-मोटी किसी बात पर
हाँ मगर
बड़े वाक़’ए जब हुए
यहाँ तक कि जब मेरे घर से जनाज़े उठे
तब किसी ने मिरी आँख में एक आँसू भी देखा नहीं
कोई ये सोचता है अगर
कि उस ने मुझे अपने ग़म में रुला कर
बड़ा मा'रका कोई सर कर लिया है
तो पागल है वो
हर किसी पर नहीं
हर जगह पर नहीं
इस लिए मेरी आँखें कभी ख़ुश्क होती नहीं
ऐसा लगता है हर बात पर
जैसे रोने को तैयार बैठा हूँ मैं
दोस्तों से हुई बद-ज़बानी पे भी
दुख-भरी दूसरों की कहानी पे भी
यूँ
कि मैं ज़ब्त को ख़र्च करना नहीं चाहता
छोटी-मोटी किसी बात पर
हाँ मगर
बड़े वाक़’ए जब हुए
यहाँ तक कि जब मेरे घर से जनाज़े उठे
तब किसी ने मिरी आँख में एक आँसू भी देखा नहीं
कोई ये सोचता है अगर
कि उस ने मुझे अपने ग़म में रुला कर
बड़ा मा'रका कोई सर कर लिया है
तो पागल है वो
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