कभी हो गया मयस्सर न हुआ कभी मयस्सर By Qita << दुनिया से दर-गुज़र कि गुज... ग़म के साँचे में ढल सको त... >> कभी हो गया मयस्सर न हुआ कभी मयस्सर सर-ए-आम क्या कहूँ मैं कि ये रोज़ की हैं बातें कभी मैं ने कश लगाया कभी कश नहीं लगाया इसी कश्मकश में गुज़रीं मिरी ज़िंदगी की रातें Share on: