naqsh fariyaadi hai kis ki shoKHi-e-tahrir ka
By mirza-ghalibSeptember 25, 2023
naqsh fariyaadi hai kis ki shokhi-e-tahrir ka
kaghzi hai pairahan har paikar-e-taswir ka
for favours from whose playful hand
does the word aspire
each one's an abject supplicant in paper-like attire
explanation
दीवान-ए-ग़ालिब का पहला शेर ग़ालिब के फ़िक्रो फ़न और नज़रिया-ए-हयात का इक तआरुफ़ है। शेर के कलीदी अलफ़ाज़ काग़ज़ी पैरहन
फ़र्यादी
पैकर-ए-तस्वीर और शोख़ी-ए-तहरीर हैं। अपने इस शेर की वज़ाहत में ग़ालिब ने कहा नक़्श किस की शोख़ी-ए-तहरीर का फ़र्यादी है कि जो सूरत-ए-तस्वीर है। इस का पैरहन काग़ज़ ये है। यानी हस्ती अगरचे मिस्ल तसवीर एतबार-ए-महज़ हो
मूजिब-ए-रंज-ओ-आज़ार है' शारहीन के मुताबिक़ ये शेर इन्सान की महरूमियों और उसकी अपनी बे-सबाती के ख़िलाफ़ एहतिजाज है।
शेर के कलीदी अलफ़ाज़ पर नज़र डालें तो काग़ज़ी पैरहन और फ़र्यादी उस क़दीम ईरानी रस्म की तरफ़ इशारा करते हैं
जिसमें दाद-ख़ाह शाही दरबार में काग़ज़ का लिबास पहन कर हाज़िर होता था। शेर में मानी-ख़ेज़ सवाल किया गया है कि हर नक़्श जो पैकर-ए-तस्वीर है और जिसका लिबास काग़ज़ी है किस की शोख़ी-ए-तहरीर का फ़र्यादी है?। पहले मिसरे में किस की शोख़ी-ए-तहरीर का टुकड़ा शेर की जान है। उसे कुरेदते जाएँ तो और मानी की तहें खुलती जाएँगी। पहला मतलब तो वही है कि कातिब-ए-अव्वल सृष्टि के रचनाकार ने जो सबकी तक़दीरें लिखने वाला है
अपनी शोख़ी-ए-तहरीर से ये कैसी लीला रचाई कि हर शख़्स रंज
महरूमी और मजबूरी का शिकार अपनी हालत के लिए फ़र्यादी है। इस मफ़हूम के लिए जो बातें फ़र्ज़ की गई हैं
वो ये हैं कि इन्सान की हस्ती बस इक अक्स है किसी अस्ल का (इसी लिए उसे नक़्श कहा) और तस्वीर काग़ज़ पर होती है
गोया उस का लिबास काग़ज़ी है
और लिबास काग़ज़ी है तो शायद वो फ़र्यादी है। तो ये फ़र्याद किस की शोख़ी-ए-तहरीर का है। इस सवाल का जवाब ही सवाल को शेर बनाता है। अब सोचने की बात ये है कि काग़ज़ पर ग़ालिब की अपनी तहरीर भी है और वो इशारों इशारों में क़ारी को तवज्जा दिला रहे हैं कि मेरा हर शेर इक फ़र्याद है
जिसे मैंने अपनी शोख़ी-ए-तहरीर से चीख़-ओ-पुकार बनने से रोक रखा है। क़ारी से ग़ालिब का तक़ाज़ा है कि ग़ौर करो कि ये मेरे सिवा किस के बस की बात थी कि वो हर पैकर-ए-तस्वीर (शेर) की फ़र्याद को भी अपनी शोख़ी-ए-तहरीर से हसीन-ओ-दिलकश बना दे। इस शेर में ग़ालिब ने अपनी कायनात-ए-फ़न और नज़रिया-ए-हयात की इक झलक पेश की है जो शोख़ी और अफ़्सुर्दगी की इक मुसलसल कशाकश से इबारत है।
mohammad azam
kaghzi hai pairahan har paikar-e-taswir ka
for favours from whose playful hand
does the word aspire
each one's an abject supplicant in paper-like attire
explanation
दीवान-ए-ग़ालिब का पहला शेर ग़ालिब के फ़िक्रो फ़न और नज़रिया-ए-हयात का इक तआरुफ़ है। शेर के कलीदी अलफ़ाज़ काग़ज़ी पैरहन
फ़र्यादी
पैकर-ए-तस्वीर और शोख़ी-ए-तहरीर हैं। अपने इस शेर की वज़ाहत में ग़ालिब ने कहा नक़्श किस की शोख़ी-ए-तहरीर का फ़र्यादी है कि जो सूरत-ए-तस्वीर है। इस का पैरहन काग़ज़ ये है। यानी हस्ती अगरचे मिस्ल तसवीर एतबार-ए-महज़ हो
मूजिब-ए-रंज-ओ-आज़ार है' शारहीन के मुताबिक़ ये शेर इन्सान की महरूमियों और उसकी अपनी बे-सबाती के ख़िलाफ़ एहतिजाज है।
शेर के कलीदी अलफ़ाज़ पर नज़र डालें तो काग़ज़ी पैरहन और फ़र्यादी उस क़दीम ईरानी रस्म की तरफ़ इशारा करते हैं
जिसमें दाद-ख़ाह शाही दरबार में काग़ज़ का लिबास पहन कर हाज़िर होता था। शेर में मानी-ख़ेज़ सवाल किया गया है कि हर नक़्श जो पैकर-ए-तस्वीर है और जिसका लिबास काग़ज़ी है किस की शोख़ी-ए-तहरीर का फ़र्यादी है?। पहले मिसरे में किस की शोख़ी-ए-तहरीर का टुकड़ा शेर की जान है। उसे कुरेदते जाएँ तो और मानी की तहें खुलती जाएँगी। पहला मतलब तो वही है कि कातिब-ए-अव्वल सृष्टि के रचनाकार ने जो सबकी तक़दीरें लिखने वाला है
अपनी शोख़ी-ए-तहरीर से ये कैसी लीला रचाई कि हर शख़्स रंज
महरूमी और मजबूरी का शिकार अपनी हालत के लिए फ़र्यादी है। इस मफ़हूम के लिए जो बातें फ़र्ज़ की गई हैं
वो ये हैं कि इन्सान की हस्ती बस इक अक्स है किसी अस्ल का (इसी लिए उसे नक़्श कहा) और तस्वीर काग़ज़ पर होती है
गोया उस का लिबास काग़ज़ी है
और लिबास काग़ज़ी है तो शायद वो फ़र्यादी है। तो ये फ़र्याद किस की शोख़ी-ए-तहरीर का है। इस सवाल का जवाब ही सवाल को शेर बनाता है। अब सोचने की बात ये है कि काग़ज़ पर ग़ालिब की अपनी तहरीर भी है और वो इशारों इशारों में क़ारी को तवज्जा दिला रहे हैं कि मेरा हर शेर इक फ़र्याद है
जिसे मैंने अपनी शोख़ी-ए-तहरीर से चीख़-ओ-पुकार बनने से रोक रखा है। क़ारी से ग़ालिब का तक़ाज़ा है कि ग़ौर करो कि ये मेरे सिवा किस के बस की बात थी कि वो हर पैकर-ए-तस्वीर (शेर) की फ़र्याद को भी अपनी शोख़ी-ए-तहरीर से हसीन-ओ-दिलकश बना दे। इस शेर में ग़ालिब ने अपनी कायनात-ए-फ़न और नज़रिया-ए-हयात की इक झलक पेश की है जो शोख़ी और अफ़्सुर्दगी की इक मुसलसल कशाकश से इबारत है।
mohammad azam
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