फ़ारस रोड से आप उस तरफ़ गली में चले जाइए जो सफ़ेद गली कहलाती है तो उसके आख़िरी सिरे पर आपको चंद होटल मिलेंगे। यूँ तो बंबई में क़दम क़दम पर होटल और रेस्तोराँ होते हैं मगर ये रेस्तोराँ इस लिहाज़ से बहुत दिलचस्प और मुनफ़रिद हैं कि ये उस इलाक़े में वाक़े हैं जहाँ भांत भांत की लौंडियां बस्ती हैं। एक ज़माना गुज़र चुका है। बस आप यही समझिए कि बीस बरस के क़रीब, जब मैं उन रेस्तोरानों में चाय पिया करता था और खाना खाया करता था। सफ़ेद गली से आगे निकल कर “प्ले-हाऊस” आता है। उधर दिन भर हाव-हू रहती है। सिनेमा के शो दिन भर चलते रहते थे। चम्पियाँ होती थीं। सिनेमा घर ग़ालिबन चार थे। उनके बाहर घंटियां बजा बजा कर बड़े समाअत-पाश तरीक़े पर लोगों को मदऊ करते, “आओ आओ... दो आने में फस्ट क्लास खेल... दो आने में!” बा'ज़ औक़ात ये घंटियां बजाने वाले ज़बरदस्ती लोगों को अंदर धकेल देते थे। बाहर कुर्सीयों पर चम्पी कराने वाले बैठे होते थे जिनकी खोपड़ियों की मरम्मत बड़े साइंटिफ़िक तरीक़े पर की जाती थी। मालिश अच्छी चीज़ है, लेकिन मेरी समझ में नहीं आता कि बंबई के रहने वाले इसके इतने गिरवीदा क्यूँ हैं। दिन को और रात को, हर वक़्त उन्हें तेल मालिश की ज़रूरत महसूस होती। आप अगर चाहें तो रात के तीन बजे बड़ी आसानी से तेल मालिशिया बुला सकते हैं। यूँ भी सारी रात, आप ख़्वाह बंबई के किसी कोने में हों, ये आवाज़ आप यक़ीनन सुनते रहेंगे। “पी... पी... पी...” ये ‘पी’ चम्पी का मुख़फ़्फ़फ़ है। फ़ारस रोड यूँ तो एक सड़क का नाम है लेकिन दरअस्ल ये उस पूरे इलाक़े से मंसूब है जहां बेसवाएँ बस्ती हैं। ये बहुत बड़ा इलाक़ा है। इसमें कई गलियां हैं जिनके मुख़्तलिफ़ नाम हैं, लेकिन सहूलत के तौर पर इसकी हर गली को फ़ारस रोड या सफ़ेद गली कहा जाता है। इसमें सैंकड़ों जंगला लगी दुकानें हैं जिनमें मुख़्तलिफ़ रंग-ओ-सिन की औरतें बैठ कर अपना जिस्म बेचती हैं। मुख़्तलिफ़ दामों पर, आठ आने से आठ रुपये तक, आठ रुपये से सौ रुपये तक... हर दाम की औरत आपको इस इलाक़े में मिल सकती है। यहूदी, पंजाबी, मरहटी, कश्मीरी, गुजराती, बंगाली, ऐंग्लो इंडियन, फ़्रांसीसी, चीनी, जापानी ग़र्ज़ ये कि हर क़िस्म की औरत आपको यहां से दस्तियाब हो सकती है... ये औरतें कैसी होती हैं... माफ़ कीजिएगा, इसके मुतअल्लिक़ आप मुझसे कुछ न पूछिए... बस औरतें होती हैं और उनको गाहक मिल ही जाते हैं। इस इलाक़े में बहुत से चीनी भी आबाद हैं। मालूम नहीं ये क्या कारोबार करते हैं, मगर रहते इसी इलाक़े में हैं। बा'ज़ तो रेस्तोराँ चलाते हैं जिनके बाहर बोर्डों पर ऊपर नीचे कीड़े मकोड़ों की शक्ल में कुछ लिखा होता है... मालूम नहीं क्या? इस इलाक़े में बिजनेस मैन और हर क़ौम के लोग आबाद हैं। एक गली है जिसका नाम अरब सेन है। वहां के लोग उसे अरब गली कहते हैं। उस ज़माने में जिसकी मैं बात कर रहा हूँ, उस गली में ग़ालिबन बीस-पच्चीस अरब रहते थे जो ख़ुद को मोतियों के व्यापारी कहते थे। बाक़ी आबादी पंजाबियों और रामपुरियों पर मुश्तमिल थी। उस गली में मुझे एक कमरा मिल गया था जिसमें सूरज की रोशनी का दाख़िला बंद था, हर वक़्त बिजली का बल्ब रोशन रहता था। उसका किराया साढे़ नौ रुपये माहवार था। आपका अगर बंबई में क़याम नहीं रहा तो शायद आप मुश्किल से यक़ीन करें कि वहां किसी को किसी और से सरोकार नहीं होता। अगर आप अपनी खोली में मर रहे हैं तो आपको कोई नहीं पूछेगा। आपके पड़ोस में क़त्ल हो जाये, मजाल है जो आपको उसकी ख़बर हो जाये। मगर वहां अरब गली में सिर्फ़ एक शख़्स ऐसा था जिसको अड़ोस-पड़ोस के हर शख़्स से दिलचस्पी थी। उसका नाम मम्मद भाई था। मम्मद भाई रामपुर का रहने वाला था। अव्वल दर्जे का फकेत, गतके और बनोट के फ़न में यकता। मैं जब अरब गली में आया तो होटलों में उसका नाम अक्सर सुनने में आया, लेकिन एक अर्से तक उससे मुलाक़ात न हो सकी। मैं सुब्ह-सवेरे अपनी खोली से निकल जाता था और बहुत रात गए लौटता था। लेकिन मुझे मम्मद भाई से मिलने का बहुत इश्तियाक़ था क्यूँकि उसके मुतअल्लिक़ अरब गली में बेशुमार दास्तानें मशहूर थीं कि बीस-पच्चीस आदमी अगर लाठियों से मुसल्लह हो कर उस पर टूट पड़ें तो वो उसका बाल तक बाका नहीं कर सकते। एक मिनट के अंदर-अंदर वो सबको चित कर देता है और ये कि उस जैसा छुरी मार सारी बंबई में नहीं मिल सकता। ऐसे छुरी मारता है कि जिसके लगती है उसे पता भी नहीं चलता। सौ क़दम बगै़र एहसास के चलता रहता है और आख़िर एक दम ढेर हो जाता है। लोग कहते हैं कि ये उसके हाथ की सफ़ाई है। उसके हाथ की सफ़ाई देखने का मुझे इश्तियाक़ नहीं था लेकिन यूँ उसके मुतअल्लिक़ और बातें सुन सुन कर मेरे दिल में ये ख़्वाहिश ज़रूर पैदा हो चुकी थी कि मैं उसे देखूँ। उससे बातें न करूँ लेकिन क़रीब से देख लूँ कि वो कैसा है। उस तमाम इलाक़े पर उसकी शख़्सियत छाई हुई थी। वो बहुत बड़ा दादा यानी बदमाश था। लेकिन उसके बावजूद लोग कहते थे कि उसने किसी की बहू-बेटी की तरफ़ आँख उठा कर भी नहीं देखा। लंगोट का बहुत पक्का है। ग़रीबों के दुख दर्द का शरीक है। अरब गली... सिर्फ़ अरब गली ही नहीं, आस पास जितनी गलियाँ थीं, उनमें जितनी नादार औरतें थी, सब मम्मद भाई को जानती थीं क्यूँकि वो अक्सर उनकी माली इमदाद करता रहता था। लेकिन वो ख़ुद उनके पास कभी नहीं जाता था। अपने किसी ख़ुर्द-साल शागिर्द को भेज देता था और उनकी ख़ैरियत दरयाफ़्त कर लिया करता था। मुझे मालूम नहीं उसकी आमदनी के क्या ज़राए थे। अच्छा खाता था, अच्छा पहनता था। उसके पास एक छोटा सा ताँगा था जिसमें बड़ा तंदुरुस्त टट्टू जुता होता था, उसको वो ख़ुद चलाता था। साथ दो या तीन शागिर्द होते थे, बड़े बाअदब... भिंडी बाज़ार का एक चक्कर लगाया किसी दरगाह में हो कर वो उस तांगे में वापस अरब गली आ जाता था और किसी ईरानी के होटल में बैठ कर अपने शागिर्दों के साथ गतके और बनोट की बातों में मसरूफ़ हो जाता था। मेरी खोली के साथ ही एक और खोली थी जिसमें मारवाड़ का एक मुसलमान रक्कास रहता था। उसने मुझे मम्मद भाई की सैंकड़ों कहानियां सुनाईं। उसने मुझे बताया कि मम्मद भाई एक लाख रुपये का आदमी है। उसको एक मर्तबा हैज़ा हो गया था। मम्मद भाई को पता चला तो उसने फ़ारस रोड के तमाम डाक्टर उसकी खोली में इकट्ठे कर दिए और उनसे कहा, “देखो, अगर आशिक़ हुसैन को कुछ हो गया तो मैं सब का सफ़ाया कर दूँगा।” आशिक़ हुसैन ने बड़े अक़ीदतमंदाना लहजे में मुझसे कहा, “मंटो साहब! मम्मद भाई फ़रिश्ता है... फ़रिश्ता... जब उसने डाक्टरों को धमकी दी तो वो सब काँपने लगे। ऐसा लग के इलाज किया कि मैं दो दिन में ठीक ठाक हो गया।” मम्मद भाई के मुतअल्लिक़ मैं अरब गली के गंदे और वाहियात रेस्तोरानों में और भी बहुत कुछ सुन चुका था। एक शख़्स ने जो ग़ालिबन उसका शागिर्द था और ख़ुद को बहुत बड़ा फकेत समझता था, मुझसे ये कहा था कि मम्मद दादा अपने नेफ़े में एक ऐसा आबदार ख़ंजर उड़स के रखता है जो उस्तुरे की तरह शेव भी कर सकता है और ये ख़ंजर नियाम में नहीं होता, खुला रहता है। बिल्कुल नंगा, और वो भी उसके पेट के साथ। उसकी नोक इतनी तीखी है कि अगर बातें करते हुए, झुकते हुए उससे ज़रा सी ग़लती हो जाये तो मम्मद भाई का एक दम काम तमाम हो के रह जाये। ज़ाहिर है कि उसको देखने और उससे मिलने का इश्तियाक़ दिन ब दिन मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में बढ़ता गया। मालूम नहीं मैंने अपने तसव्वुर में उसकी शक्ल-ओ-सूरत का क्या नक़्शा तैयार किया था, बहरहाल इतनी मुद्दत के बाद मुझे सिर्फ़ इतना याद है कि मैं एक क़वी हैकल इंसान को अपनी आँखों के सामने देखता था जिसका नाम मम्मद भाई था। उस क़िस्म का आदमी जौहर को लैस साइकलों पर इश्तिहार के तौर पर दिया जाता है। मैं सुबह सवेरे अपने काम पर निकल जाता था और रात को दस बजे के क़रीब खाने-वाने से फ़ारिग़ हो कर वापस आ कर फ़ौरन सो जाता था। इस दौरान में मम्मद भाई से कैसे मुलाक़ात हो सकती थी। मैंने कई मर्तबा सोचा कि काम पर न जाऊं और सारा दिन अरब गली में गुज़ार कर मम्मद भाई को देखने की कोशिश करूं, मगर अफ़्सोस कि मैं ऐसा न कर सका इसलिए कि मेरी मुलाज़िमत ही बड़ी वाहियात क़िस्म की थी। मम्मद भाई से मुलाक़ात करने की सोच ही रहा था कि अचानक एंफ्लूएंज़ा ने मुझ पर ज़बरदस्त हमला किया। ऐसा हमला कि मैं बौखला गया। ख़तरा था कि ये बिगड़ कर निमोनिया में तबदील हो जाएगा, क्यूँकि अरब गली के एक डाक्टर ने यही कहा था। मैं बिल्कुल तन-ए-तनहा था। मेरे साथ जो एक आदमी रहता था, उसको पूना में नौकरी मिल गई थी, इसलिए उसकी रिफ़ाक़त भी नसीब नहीं थी। मैं बुख़ार में फुंका जा रहा था। इस क़दर प्यास थी कि जो पानी खोली में रखा था, वो मेरे लिए ना-काफ़ी था और दोस्त-यार कोई पास नहीं था जो मेरी देख भाल करता। मैं बहुत सख़्त जान हूँ, देख-भाल की मुझे उमूमन ज़रूरत महसूस नहीं हुआ करती। मगर मालूम नहीं कि वो किस क़िस्म का बुख़ार था। एंफ्लूएंज़ा था, मलेरिया था या और क्या था। लेकिन उसने मेरी रीढ़ की हड्डी तोड़ दी। मैं बिलबिलाने लगा। मेरे दिल में पहली मर्तबा ख़्वाहिश पैदा हुई कि मेरे पास कोई हो जो मुझे दिलासा दे। दिलासा न दे तो कम-अज़-कम एक सेकेंड के लिए अपनी शक्ल दिखा के चला जाये ताकि मुझे ये ख़ुशगवार एहसास हो कि मुझे पूछने वाला भी कोई है। दो दिन तक मैं बिस्तर में पड़ा तकलीफ़ भरी करवटें लेता रहा, मगर कोई न आया... आना भी किसे था... मेरी जान-पहचान के आदमी ही कितने थे... दो-तीन या चार... और वो इतनी दूर रहते थे कि उनको मेरी मौत का इल्म भी नहीं हो सकता था... और फिर यहां बंबई में कौन किसको पूछता है... कोई मरे या जिए... उनकी बला से। मेरी बहुत बुरी हालत थी। आशिक़ हुसैन डांसर की बीवी बीमार थी इसलिए वो अपने वतन जा चुका था। ये मुझे होटल के छोकरे ने बताया था। अब मैं किसको बुलाता... बड़ी निढाल हालत में था और सोच रहा था कि ख़ुद नीचे उतरूँ और किसी डाक्टर के पास जाऊं कि दरवाज़े पर दस्तक हुई। मैं ने ख़याल किया कि होटल का छोकरा जिसे बंबई की ज़बान में बाहर वाला कहते हैं, होगा। बड़ी मरियल आवाज़ में कहा, “आ जाओ!” दरवाज़ा खुला और एक छरेरे बदन का आदमी, जिसकी मूंछें मुझे सबसे पहले दिखाई दीं, अंदर दाख़िल हुआ। उसकी मूंछें ही सब कुछ थीं। मेरा मतलब ये है कि अगर उसकी मूंछें न होतीं तो बहुत मुम्किन है कि वो कुछ भी न होता। उसकी मूंछों ही से ऐसा मालूम होता था कि उसके सारे वजूद को ज़िंदगी बख़्श रखी है। वो अंदर आया और अपनी क़ैसर विलियम जैसी मूंछों को एक उंगली से ठीक करते हुए मेरी खाट के क़रीब आया। उसके पीछे पीछे तीन-चार आदमी थे, अजीब-ओ-ग़रीब वज़ा क़ता के। मैं बहुत हैरान था कि ये कौन हैं और मेरे पास क्यूँ आए हैं। क़ैसर विलियम जैसी मूंछों और छरेरे बदन वाले ने मुझसे बड़ी नर्म-ओ-नाज़ुक आवाज़ में कहा, “वमटो साहब! आपने हद कर दी। साला मुझे इत्तिला क्यूँ न दी?” मंटो का वमटो बन जाना मेरे लिए कोई नई बात नहीं थी। इसके अलावा मैं इस मूड में भी नहीं था कि मैं उसकी इस्लाह करता। मैंने अपनी नहीफ़ आवाज़ में उसकी मूंछों से सिर्फ़ इतना कहा, “आप कौन हैं?” उसने मुख़्तसर सा जवाब दिया, “मम्मद भाई!” मैं उठ कर बैठ गया, “मम्मद भाई... तो... तो आप मम्मद भाई हैं... मशहूर दादा!” मैंने ये कह तो दिया। लेकिन फ़ौरन मुझे अपने बेंडेपन का एहसास हुआ और रुक गया। मम्मद भाई ने छोटी उंगली से अपनी मूंछों के करख़्त बाल ज़रा ऊपर किए और मुस्कुराया, “हाँ वमटो भाई... मैं मम्मद हूँ... यहां का मशहूर दादा... मुझे बाहर वाले से मालूम हुआ कि तुम बीमार हो... साला ये भी कोई बात है कि तुमने मुझे ख़बर न की। मम्मद भाई का मस्तक फिर जाता है, जब कोई ऐसी बात होती है।” मैं जवाब में कुछ कहने वाला था कि उसने अपने साथियों में से एक से मुख़ातिब हो कर कहा, “अरे... क्या नाम है तेरा... जा भाग के जा, और क्या नाम है उस डाक्टर का... समझ गए न उससे कह कि मम्मद भाई तुझे बुलाता है... एक दम जल्दी आ... एक दम सब काम छोड़ दे और जल्दी आ... और देख साले से कहना, सब दवाएं लेता आए।” मम्मद भाई ने जिसको हुक्म दिया था, वो एक दम चला गया। मैं सोच रहा था। मैं उसको देख रहा था... वो तमाम दास्तानें मेरे बुख़ार आलूद दिमाग़ में चल फिर रही थीं। जो मैं उसके मुतअल्लिक़ लोगों से सुन चुका था... लेकिन गड-मड सूरत में। क्यूँकि बार बार उसको देखने की वजह से उसकी मूंछें सब पर छा जाती थीं। बड़ी ख़ौफ़नाक, मगर बड़ी ख़ूबसूरत मूंछें थीं। लेकिन ऐसा महसूस होता था कि उस चेहरे को जिसके ख़द-ओ-ख़ाल बड़े मुलायम और नर्म-ओ-नाज़क हैं, सिर्फ़ ख़ौफ़नाक बनाने के लिए ये मूंछें रखी गई हैं। मैंने अपने बुख़ार आलूद दिमाग़ में ये सोचा कि ये शख़्स दरहक़ीक़त इतना ख़ौफ़नाक नहीं जितना उसने ख़ुद को ज़ाहिर कर रखा है। खोली में कुर्सी नहीं। मैंने मम्मद भाई से कहा वो मेरी चारपाई पर बैठ जाये। मगर उसने इनकार कर दिया और बड़े रूखे से लहजे में कहा, ठीक है... हम खड़े रहेंगे।” फिर उसने टहलते हुए हालाँकि उस खोली में उस अय्याशी की कोई गुंजाइश नहीं थी, कुर्ते का दामन उठा कर पाजामे के नेफ़े से एक ख़ंजर निकाला... मैं समझा चांदी का है। इस क़दर लश्क रहा था कि मैं आपसे क्या कहूं। ये ख़ंजर निकाल कर पहले उसने अपनी कलाई पर फेरा। जो बाल उसकी ज़द में आए, सब साफ़ हो गए। उसने इस पर अपने इत्मिनान का इज़हार किया और नाख़ुन तराशने लगा। उसकी आमद ही से मेरा बुख़ार कई दर्जे नीचे उतर गया था। मैंने अब किसी क़दर होशमंद हालत में उससे कहा, “मम्मद भाई... ये छुरी तुम इस तरह अपने... नेफ़े में यानी बिल्कुल अपने पेट के साथ रखते हो इतनी तेज़ है, क्या तुम्हें ख़ौफ़ महसूस नहीं होता?” मम्मद ने ख़ंजर से अपने नाख़ुन की एक क़ाश बड़ी सफ़ाई से उड़ाते हुए जवाब दिया, “वमटो भाई... ये छुरी दूसरों के लिए है। ये अच्छी तरह जानती है। साली, अपनी चीज़ है, मुझे नुक़्सान कैसे पहुंचाएगी?” छुरी से जो रिश्ता उसने क़ायम किया था वो कुछ ऐसा ही था जैसे कोई माँ या बाप कहे कि ये मेरा बेटा है, या बेटी है। उसका हाथ मुझ पर कैसे उठ सकता है। डॉक्टर आ गया... उसका नाम पिंटू था और मैं वमटो... उसने मम्मद भाई को अपने क्रिस्चियन अंदाज़ में सलाम किया और पूछा कि मुआमला क्या है। जो मुआमला था, वो मम्मद भाई ने बयान कर दिया। मुख़्तसर, लेकिन कड़े अल्फ़ाज़ में, जिनमें तहक्कुम था कि देखो अगर तुमने वमटो भाई का इलाज अच्छी तरह न किया तो तुम्हारी ख़ैर नहीं। डॉक्टर पिंटू ने फ़रमांबर्दार लड़के की तरह अपना काम किया। मेरी नब्ज़ देखी... स्टेथिस्कोप लगा मेरे सीने और पीठ का मुआइना किया, ब्लड प्रेशर देखा। मुझ से मेरी बीमारी की तमाम तफ़्सील पूछी। इसके बाद उसने मुझसे नहीं, मम्मद भाई से कहा, “कोई फ़िक्र की बात नहीं है... मलेरिया है... मैं इंजेक्शन लगा देता हूँ।” मम्मद भाई मुझसे कुछ फ़ासले पर खड़ा था। उसने डॉक्टर पिंटू की बात सुनी और ख़ंजर से अपनी कलाई के बाल उड़ाते हुए कहा, “मैं कुछ नहीं जानता। इंजेक्शन देना है तो दे, लेकिन अगर इसे कुछ हो गया तो...” डॉक्टर पिंटू काँप गया, “नहीं मम्मद भाई... सब ठीक हो जाएगा।” मम्मद भाई ने ख़ंजर अपने नेफ़े में उड़स लिया, “तो ठीक है।” “तो मैं इंजेक्शन लगाता हूँ।” डॉक्टर ने अपना बैग खोला और सिरिंज निकाली... “ठहरो... ठहरो...” मम्मद भाई घबरा गया था। डाक्टर ने सिरिंज फ़ौरन बैग में वापस रख दी और मिमयाते हुए मम्मद भाई से मुख़ातिब हुआ। “क्यों?” “बस... मैं किसी के सुई लगते नहीं देख सकता।” ये कह कर वो खोली से बाहर चला गया। उसके साथ ही उसके साथी भी चले गए। डॉक्टर पिंटू ने मेरे कुनैन का इंजेक्शन का लगाया। बड़े सलीक़े से, वर्ना मलेरिया का ये इंजेक्शन बड़ा तक्लीफ़दह होता है। जब वो फ़ारिग़ हुआ तो मैंने उससे फ़ीस पूछी, “उसने कहा दस रुपये!” मैं तकिए के नीचे से अपना बटूवा निकाल रहा था कि मम्मद भाई अंदर आ गया। उस वक़्त मैं दस रुपये का नोट डॉक्टर पिंटू को दे रहा था। मम्मद भाई ने ग़ज़ब आलूद निगाहों से मुझे और डाक्टर को देखा और गरज कर कहा, “ये क्या हो रहा है?” मैं ने कहा, “फ़ीस दे रहा हूँ।” मम्मद भाई डाक्टर पिंटू से मुख़ातिब हुआ, “साले ये फ़ीस कैसी ले रहे हो?” डॉक्टर पिंटू बौखला गया, “मैं कब ले रहा हूँ... ये दे रहे थे!” “साला... हमसे फ़ीस लेते हो... वापस करो ये नोट!” मम्मद भाई के लहजे में उसके ख़ंजर ऐसी तेज़ी थी। डाक्टर पिंटो ने मुझे नोट वापस कर दिया और बैग बंद कर के मम्मद भाई से माज़रत तलब करते हुए चला गया। मम्मद भाई ने एक उंगली से अपनी कांटों ऐसी मूंछों को ताव दिया और मुस्कुराया, “वमटो भाई... ये भी कोई बात है कि इस इलाक़े का डाक्टर तुमसे फीस ले... तुम्हारी कसम, अपनी मूंछें मुंडवा देता अगर इस साले ने फ़ीस ली होती... यहां सब तुम्हारे ग़ुलाम हैं।” थोड़े से तवक्कुफ़ के बाद मैंने उससे पूछा, “मम्मद भाई! तुम मुझे कैसे जानते हो?” मम्मद भाई की मूंछें थरथराईं, “मम्मद भाई किसे नहीं जानता... हम यहाँ के बादशाह हैं प्यारे... अपनी रिआया का ख़याल रखते हैं। हमारी सी आई डी है। वो हमें बताती रहती है... कौन आया है, कौन गया है, कौन अच्छी हालत में है, कौन बुरी हालत में... तुम्हारे मुतअल्लिक़ हम सब कुछ जानते हैं।” मैंने अज़राह-ए-तफ़न्नुन पूछा, “क्या जानते हैं आप?” “साला... हम क्या नहीं जानते... तुम अमृतसर का रहने वाला है... कश्मीरी है... यहां अख़बारों में काम करता है... तुमने बिसमिल्लाह होटल के दस रुपये देने हैं, इसीलिए तुम उधर से नहीं गुज़रते। भिंडी बाज़ार में एक पान वाला तुम्हारी जान को रोता है। उससे तुम बीस रुपये दस आने के सिगरेट लेकर फूंक चुके हो।” मैं पानी पानी हो गया। मम्मद भाई ने अपनी करख़्त मूंछों पर एक उंगली फेरी और मुस्कुरा कर कहा, “वमटो भाई! कुछ फ़िक्र न करो। तुम्हारे सब क़र्ज़ चुका दिए गए हैं। अब तुम नए सिरे से मुआमला शुरू कर सकते हो। मैंने उन सालों से कह दिया है कि ख़बरदार! अगर वमटो भाई को तुम ने तंग किया... और मम्मद भाई तुमसे कहता है कि इंशाअल्लाह कोई तुम्हें तंग नहीं करेगा।” मेरी समझ में नहीं आता था कि उससे क्या कहूं। बीमार था, कुनैन का टीका लग चुका था। जिसके बाइस कानों में शाएं शाएं हो रही थी। इसके अलावा मैं उसके ख़ुलूस के नीचे इतना दब चुका था कि अगर मुझे कोई निकालने की कोशिश करता तो उसे बहुत मेहनत करनी पड़ती... मैं सिर्फ़ इतना कह सका, “मम्मद भाई! ख़ुदा तुम्हें ज़िंदा रखे... तुम ख़ुश रहो।” मम्मद भाई ने अपनी मूंछों के बाल ज़रा ऊपर किए और कुछ कहे बगै़र चला गया। डाक्टर पिंटू हर रोज़ सुब्ह शाम आता रहा। मैंने उससे कई मर्तबा फ़ीस का ज़िक्र किया मगर उसने कानों को हाथ लगा कर कहा, “नहीं, मिस्टर मंटो! मम्मद भाई का मुआमला है मैं एक डेढ़िया भी नहीं ले सकता।” मैंने सोचा ये मम्मद भाई कोई बहुत बड़ा आदमी है। यानी ख़ौफ़नाक क़िस्म का जिससे डॉक्टर पिंटू जो बड़ा ख़सीस क़िस्म का आदमी है, डरता है और मुझसे फ़ीस लेने की जुरअत नहीं करता। हालाँकि वो अपनी जेब से इंजेक्शनों पर ख़र्च कर रहा है। बीमारी के दौरान में मम्मद भाई भी बिला नागा आता रहा। कभी सुब्ह आता, कभी शाम को, अपने छः सात शागिर्दों के साथ और मुझे हर मुम्किन तरीक़े से ढारस देता था कि मामूली मलेरिया है, तुम डाक्टर पिंटू के इलाज से इंशाअल्लाह बहुत जल्द ठीक हो जाओगे। पंद्रह रोज़ के बाद मैं ठीक ठाक हो गया। इस दौरान में मम्मद भाई के हर ख़द-ओ-ख़ाल को अच्छी तरह देख चुका था। जैसा कि मैं इससे पेशतर कह चुका हूँ, वो छरेरे बदन का आदमी था। उम्र यही पच्चीस-तीस के दरमियान होगी। पतली पतली बांहें, टांगें भी ऐसी ही थीं। हाथ बला के फुर्तीले थे। उनसे जब वो छोटा तेज़ धार चाक़ू किसी दुश्मन पर फेंकता था तो वो सीधा उसके दिल में खुबता था। ये मुझे अरब के गली ने बताया था। उसके मुतअल्लिक़ बेशुमार बातें मशहूर थीं, उसने किसी को क़त्ल किया था, मैं उसके मुतअल्लिक़ वसूक़ से कुछ नहीं कह सकता। छुरी मार वो अव्वल दर्जे का था। बनोट और गतके का माहिर। यूं सब कहते थे कि वो सैंकड़ों क़त्ल कर चुका है, मगर मैं ये अब भी मानने को तैयार नहीं। लेकिन जब मैं उसके ख़ंजर के मुतअल्लिक़ सोचता हूँ तो मेरे तन-बदन पर झुरझुरी सी तारी हो जाती है। ये ख़ौफ़नाक हथियार वो क्यूँ हर वक़्त अपनी शलवार के नेफ़े में उड़से रहता है। मैं जब अच्छा हो गया तो एक दिन अरब गली के एक थर्ड क्लास चीनी रेस्तोराँ में उससे मेरी मुलाक़ात हुई। वो अपना वही ख़ौफ़नाक ख़ंजर निकाल कर अपने नाख़ुन काट रहा था। मैंने उससे पूछा, “मम्मद भाई... आज कल बंदूक़-पिस्तौल का ज़माना है... तुम ये ख़ंजर क्यूँ लिए फिरते हो?” मम्मद भाई ने अपनी करख़्त मूंछों पर एक उंगली फेरी और कहा, “वमटो भाई! बंदूक़-पिस्तौल में कोई मज़ा नहीं। उन्हें कोई बच्चा भी चला सकता। घोड़ा दबाया और ठाह... उसमें क्या मज़ा है... ये चीज़... ये ख़ंजर... ये छुरी... ये चाक़ू... मज़ा आता है ना, ख़ुदा की क़सम... ये वो है...तुम क्या कहा करते हो... हाँ... आर्ट.. इसमें आर्ट होता है मेरी जान... जिसको चाक़ू या छुरी चलाने का आर्ट न आता हो वो एक दम कंडम है। “पिस्तौल क्या है... खिलौना है जो नुक़्सान पहुंचा सकता है... पर उसमें क्या लुत्फ़ आता है... कुछ भी नहीं... तुम ये ख़ंजर देखो... इसकी तेज़ धार देखो।” ये कहते हुए उसने अंगूठे पर लब लगाया और उसकी धार पर फेरा। “इससे कोई धमाका नहीं होता... बस, यूँ पेट के अंदर दाख़िल कर दो... इस सफ़ाई से कि उस साले को मालूम तक न हो... बंदूक़, पिस्तौल सब बकवास है।” मम्मद भाई से अब हर रोज़ किसी न किसी वक़्त मुलाक़ात हो जाती थी। मैं उसका ममनून-ए-एहसान था... लेकिन जब मैं उसका ज़िक्र किया करता तो वो नाराज़ हो जाता। कहता था कि मैंने तुम पर कोई एहसान नहीं किया, ये तो मेरा फ़र्ज़ था। जब मैंने कुछ तफ़्तीश की तो मुझे मालूम हुआ कि फ़ारस रोड के इलाक़े का वो एक क़िस्म का हाकिम है। ऐसा हाकिम जो हर शख़्स की ख़बरगीरी करता था। कोई बीमार हो, किसी के कोई तकलीफ़ हो, मम्मद भाई उसके पास पहुंच जाता था और ये उसकी सी आई डी का काम था जो उसको हर चीज़ से बाख़बर रखती थी। वो दादा था यानी एक ख़तरनाक ग़ुंडा। लेकिन मेरी समझ में अब भी नहीं आता कि वो किस लिहाज़ से ग़ुंडा था। ख़ुदा वाहिद शाहिद है कि मैंने उसमें कोई ग़ुंडापन नहीं देखा। एक सिर्फ़ उसकी मूंछें थीं जो उसको हैबतनाक बनाए रखती थीं। लेकिन उसको उनसे प्यार था। वो उनकी इस तरह परवरिश करता था जिस तरह कोई अपने बच्चे की करे। उसकी मूंछों का एक एक बाल खड़ा था, जैसे ख़ार-पुश्त का... मुझे किसी ने बताया कि मम्मद भाई हर रोज़ अपनी मूंछों को बालाई खिलाता है। जब खाना खाता है तो सालन भरी उंगलियों से अपनी मूंछें ज़रूर मरोड़ता है कि बुज़ुर्गों के कहने के मुताबिक़ यूँ बालों में ताक़त आती है। मैं उससे पेशतर ग़ालिबन कई मर्तबा कह चुका हूँ कि उसकी मूंछें बड़ी ख़ौफ़नाक थीं। दरअस्ल मूंछों का नाम ही मम्मद भाई था... या उस ख़ंजर का जो उसकी तंग घेरे की शलवार के नेफ़े में हर वक़्त मौजूद रहता था। मुझे उन दोनों चीज़ों से डर लगता था, न मालूम क्यों? मम्मद भाई यूँ तो उस इलाक़े का बहुत बड़ा दादा था, लेकिन वो सबका हमदर्द था। मालूम नहीं उसकी आमदनी के क्या ज़राए थे, पर वो हर हाजतमंद की बरवक़्त मदद करता था। उस इलाक़े की तमाम रंडियाँ उसको अपना पीर मानती थी। चूँकि वो एक माना हुआ ग़ुंडा था, इसलिए लाज़िम था कि उसका तअल्लुक़ वहां की किसी तवाइफ़ से होता, मगर मुझे मालूम हुआ कि इस क़िस्म के सिलसिले से उसका दूर का भी तअल्लुक़ नहीं रहा था। मेरी उसकी बड़ी दोस्ती हो गई थी। अनपढ़ था, लेकिन जाने क्यूँ वो मेरी इतनी इज़्ज़त करता था कि अरब गली के तमाम आदमी रश्क करते थे। एक दिन सुब्ह-सवेरे, दफ़्तर जाते वक़्त मैंने चीनी के होटल में किसी से सुना कि मम्मद भाई गिरफ़्तार कर लिया गया है। मुझे बहुत ताज्जुब हुआ, इसलिए कि तमाम थाने वाले उसके दोस्त थे। क्या वजह हो सकती थी... मैंने उसके आदमी से पूछा कि क्या बात हुई जो मम्मद भाई गिरफ़्तार हो गया। उसने मुझसे कहा कि इसी अरब गली में एक औरत रहती है, जिसका नाम शीरीं बाई है। उसकी एक जवान लड़की है, उसको कल एक आदमी ने ख़राब कर दिया। यानी उसकी इस्मतदरी कर दी। शीरीं बाई रोती हुई मम्मद भाई के पास आई और उससे कहा तुम यहाँ के दादा हो। मेरी बेटी से फ़लाँ आदमी ने ये बुरा किया है... ला'नत है तुम पर कि तुम घर में बैठे हो। मम्मद भाई ने ये मोटी गाली उस बुढ़िया को दी और कहा, “तुम चाहती क्या हो?” उसने कहा, “मैं चाहती हूँ कि तुम उस हरामज़ादे का पेट चाक कर दो।” मम्मद भाई उस वक़्त होटल में सेस पाव के साथ क़ीमा खा रहा था। ये सुन कर उसने अपने नेफ़े में से ख़ंजर निकाला। उसपर अंगूठा फेर कर उसकी धार देखी और बुढ़िया से कहा, “जा... तेरा काम हो जाएगा।” और उसका काम हो गया... दूसरे मअनों में जिस आदमी ने उस बुढ़िया की लड़की की इस्मतदरी की थी, आध घंटे के अंदर अंदर उसका काम तमाम हो गया। मम्मद भाई गिरफ़्तार तो हो गया था, मगर उसने काम इतनी होशियारी और चाबुक-दस्ती से किया था कि उसके ख़िलाफ़ कोई शहादत नहीं थी। इसके अलावा अगर कोई ऐनी शाहिद मौजूद भी होता तो वो कभी अदालत में बयान न देता। नतीजा ये हुआ कि उसको ज़मानत पर रिहा कर दिया गया। दो दिन हवालात में रहा था, मगर उसको वहां कोई तकलीफ़ न थी। पुलिस के सिपाही, इन्सपेक्टर, सब इन्सपेक्टर सब उसको जानते थे। लेकिन जब वो ज़मानत पर रिहा हो कर बाहर आया तो मैंने महसूस किया कि उसे अपनी ज़िंदगी का सबसे बड़ा धचका पहुंचा है। उसकी मूंछें जो ख़ौफ़नाक तौर पर ऊपर को उठी होती थीं अब किसी क़दर झुकी हुई थीं। चीनी के होटल में उससे मेरी मुलाक़ात हुई। उसके कपड़े जो हमेशा उजले होते थे, मैले थे। मैंने उससे क़त्ल के मुतअल्लिक़ कोई बात न की लेकिन उसने ख़ुद कहा, “वमटो साहब! मुझे इस बात का अफ़सोस है कि साला देर से मरा... छुरी मारने में मुझसे ग़लती हो गई, हाथ टेढ़ा पड़ा... लेकिन वो भी उस साले का क़ुसूर था... एक दम मुड़ गया और इस वजह से सारा मुआमला कंडम हो गया... लेकिन मर गया... ज़रा तकलीफ़ के साथ, जिसका मुझे अफ़्सोस है।” आप ख़ुद सोच सकते हैं कि मेरा रद्द-ए-अमल क्या होगा। यानी उसको अफ़सोस था कि वो उसे ब-तरीक़-ए-अहसन क़त्ल न कर सका, और ये कि मरने में उसे ज़रा तकलीफ़ हुई है। मुक़द्दमा चलना था... और मम्मद भाई उससे बहुत घबराता था। उसने अपनी ज़िंदगी में अदालत की शक्ल कभी नहीं देखी थी। मालूम नहीं उसने इससे पहले भी क़त्ल किए थे कि नहीं लेकिन जहाँ तक मेरी मा'लूमात का ता'ल्लुक़ नहीं वो मजिस्ट्रेट, वकील और गवाह के मुतअल्लिक़ कुछ नहीं जानता था, इसलिए कि उसका साबक़ा उन लोगों से कभी पड़ा नहीं था। वो बहुत फ़िक्रमंद था। पुलिस ने जब केस पेश करना चाहा और तारीख़ मुक़र्रर हो गई तो मम्मद भाई बहुत परेशान हो गया। अदालत में मजिस्ट्रेट के सामने कैसे हाज़िर हुआ जाता है, इसके मुतअल्लिक़ उसको क़तअन मालूम नहीं था। बार बार वो अपनी करख़्त मूंछों पर उंगलियां फेरता और मुझसे कहता था, “वमटो साहिब! मैं मर जाऊंगा पर कोर्ट नहीं जाऊंगा... साली, मालूम नहीं कैसी जगह है।” अरब गली में उसके कई दोस्त थे। उन्होंने उसको ढारस दी कि मुआमला संगीन नहीं है। कोई गवाह मौजूद नहीं, एक सिर्फ़ उसकी मूंछें हैं जो मजिस्ट्रेट के दिल में उसके ख़िलाफ़ यक़ीनी तौर पर कोई मुख़ालिफ़ जज़्बा पैदा कर सकती हैं। जैसा कि मैं इससे पेशतर कह चुका हूँ कि उसकी सिर्फ़ मूंछें ही थीं जो उसको ख़ौफ़नाक बनाती थीं... अगर ये न होतीं तो वो हरगिज़ हरगिज़ दादा दिखाई न देता। उसने बहुत ग़ौर किया। उसकी ज़मानत थाने ही में हो गई थी। अब उसे अदालत में पेश होना था। मजिस्ट्रेट से वो बहुत घबराता था। ईरानी के होटल में जब मेरी मुलाक़ात हुई तो मैंने महसूस किया कि वो बहुत परेशान है। उसको अपनी मूंछों के मुतअल्लिक़ बड़ी फ़िक्र थी। वो सोचता था कि उनके साथ अगर वो अदालत में पेश हुआ तो बहुत मुम्किन है उसको सज़ा हो जाये। आप समझते हैं कि ये कहानी है, मगर ये वाक़िया है कि वो बहुत परेशान था। उसके तमाम शागिर्द हैरान थे, इसलिए कि वो कभी हैरान-ओ-परेशान नहीं हुआ था। उसको मूंछों की फ़िक्र थी क्यूँकि उसके बा'ज़ क़रीबी दोस्तों ने उससे कहा था, “मम्मद भाई... कोर्ट में जाना है तो इन मूंछों के साथ कभी न जाना... मजिस्ट्रेट तुमको अंदर कर देगा।” और वो सोचता था... हर वक़्त सोचता था कि उसकी मूंछों ने उस आदमी को क़त्ल किया है या उसने... लेकिन किसी नतीजे पर पहुंच नहीं सकता था। उसने अपना ख़ंजर मालूम नहीं जो पहली मर्तबा ख़ून आशना था या इससे पहले कई मर्तबा हो चुका था, अपने नेफ़े से निकाला और होटल के बाहर गली में फेंक दिया। मैंने हैरत भरे लहजे में उस से पूछा, “मम्मद भाई... ये क्या?” “कुछ नहीं वमटो भाई, बहुत घोटाला हो गया है। कोर्ट में जाना है... यार दोस्त कहते हैं कि तुम्हारी मूंछें देख कर वो ज़रूर तुमको सज़ा देगा... अब बोलो, मैं क्या करूं?” मैं क्या बोल सकता था। मैंने उसकी मूंछों की तरफ़ देखा जो वाक़ई बड़ी ख़ौफ़नाक थीं। मैंने उससे सिर्फ़ इतना कहा, “मम्मद भाई! बात तो ठीक है... तुम्हारी मूंछें मजिस्ट्रेट के फ़ैसले पर ज़रूर असर अंदाज़ होंगी... सच पूछो तो जो कुछ होगा, तुम्हारे ख़िलाफ़ नहीं... मूंछों के ख़िलाफ़ होगा।” “तो मैं मुंडवा दूँ?” मम्मद भाई ने अपनी चहेती मूंछों पर बड़े प्यार से उंगली फेरी। मैंने उससे पूछा, “तुम्हारा क्या ख़याल है?” “मेरा ख़याल है जो कुछ भी हो, वो तुम न पूछो... लेकिन यहाँ हर शख़्स का यही ख़याल है कि मैं इन्हें मुंडवा दूँ ताकि वो साला मजिस्ट्रेट मेहरबान हो जाये, तो मुंडवा दूँ वमटो भाई?” मैंने कुछ तवक्कुफ़ के बाद उससे कहा, “हाँ, अगर तुम मुनासिब समझते हो तो मुंडवा दो... अदालत का सवाल है और तुम्हारी मूंछें वाक़ई बड़ी ख़ौफ़नाक हैं।” दूसरे दिन मम्मद भाई ने अपनी मूंछें... अपनी जान से अज़ीज़ मूंछें मुंडवा डालीं। क्यूँकि उसकी इज़्ज़त ख़तरे में थी... लेकिन सिर्फ़ दूसरे के मशवरे पर। मिस्टर एफ़.एच. टैग की अदालत में उसका मुक़द्दमा पेश हुआ। मूंछों के बगै़र मम्मद भाई पेश हुआ। मैं भी वहां मौजूद था। उसके ख़िलाफ़ कोई शहादत मौजूद नहीं थी, लेकिन मजिस्ट्रेट साहब ने उसको ख़तरनाक गुंडा क़रार देते हुए तड़ी पार यानी सूबा बदर कर दिया। उसको सिर्फ़ एक दिन मिला था जिसमें उसे अपना तमाम हिसाब किताब तय कर के बंबई छोड़ देना था। अदालत से बाहर निकल कर उसने मुझ से कोई बात न की। उसकी छोटी-बड़ी उंगलियां बार बार बालाई होंट की तरफ़ बढ़ती थीं... मगर वहां कोई बाल ही नहीं था। शाम को जब उसे बंबई छोड़कर कहीं और जाना था, मेरी उसकी मुलाक़ात ईरानी के होटल में हुई। उसके दस-बीस शागिर्द आस-पास कुर्सीयों पर बैठे चाय पी रहे थे। जब मैं उससे मिला तो उसने मुझ से कोई बात न की... मूंछों के बगै़र वो बहुत शरीफ़ आदमी दिखाई दे रहा था। लेकिन मैंने महसूस किया कि वो बहुत मग़्मूम है। उसके पास कुर्सी पर बैठ कर मैंने उससे कहा, “क्या बात है मम्मद भाई?” उसने जवाब में एक बहुत बड़ी गाली ख़ुदा मालूम किसको दी और कहा, “साला, अब मम्मद भाई ही नहीं रहा।” मुझे मालूम था कि वो सूबा बदर किया जा चुका है। “कोई बात नहीं मम्मद भाई! यहाँ नहीं तो किसी और जगह सही!” उसने तमाम जगहों को बेशुमार गालियां दीं, “साला... अपुन को ये ग़म नहीं... यहाँ रहें या किसी और जगह रहें... ये साला मूंछें क्यूँ मुंडवाईं?” फिर उसने उन लोगों को जिन्होंने उसको मूंछें मुंडवाने का मशवरा दिया था, एक करोड़ गालियां दीं और कहा, “साला अगर मुझे तड़ी पार ही होना था तो मूंछों के साथ