इंसान ने इंसान को ईज़ा पहुँचाने के लिए जो मुख़्तलिफ़ आले और तरीक़े इख़्तियार किए हैं उनमें सबसे ज़ियादा ख़तरनाक है टेलीफ़ोन साँप के काटे का मंत्र तो हो सकता है मगर टेलीफ़ोन के मारे को तो पानी भी नहीं मिलता। मुझे तो रात-भर इस कम्बख़्त के डर से नींद नहीं आती कि सुब्ह-सवेरे न जाने किस की मनहूस आवाज़ सुनाई देगी। दो ढ़ाई बजे आँख लग भी गई तो ख़्वाब में क्या देखता हूँ कि सारी दुनिया की घंटियाँ और घंटे-घड़ियाल बेक-वक़्त बजने शुरू’ हो गए। मंदिरों के पीतल के बड़े-बड़े घंटे, पुलिस के थाने का घड़ियाल, दरवाज़ों की बिजली वाली घंटियाँ, साईकलों की ट्रिंग-ट्रिंग, फ़ायर इंजनों की क्लिंग-क्लिंग। और जब आँख खुलती है तो मा’लूम होता है कि टेलीफ़ोन की घंटी बज रही है। इस ग़ैर वक़्त रात को किस का फ़ोन आया है? ज़रूर ट्रंक काल होगी। पल-भर में न जाने कितने वहम दिल धड़काते हैं। एक दोस्त मद्रास में बीमार है। एक रिश्तेदार लंदन और बंबई के दरमियान हवाई जहाज़ में है। भतीजे का मैट्रिक का नतीजा निकलने वाला है। मैं फ़ोन उठाकर कहता हूँ, “हैलो।” दूसरी तरफ़ से घबराई हुई आवाज़ आती है, “चुन्नी भाई, केम छो।” मैं कहता हूँ कि यहाँ न कोई चुन्नी भाई है न केम छो। मगर वो कहता है, “चुन्नी भाई। टाटा डलीज़ डार पर जा रहा है।” मैं कहता हूँ, “जाने दो।” वो गुजराती में गाली देकर कहता है, “कैसे जाने दें... ब्रिटिश इलेक्ट्रिक के सौदे में पहले ही घाटा खा चुके हैं।” मैं समझाता हूँ कि “देखो भाई मैं चुन्नी भाई नहीं हूँ।” “ओह!” उधर से आवाज़ आती है जैसे एक दम टावर में से हवा निकल गई हो, “तुम चुनी भाई नत्थी छो।” मैं पूछता हूँ, “आपको कौन नंबर चाहिए।” वो कहता है, “ऐट... सेवन... ऐट... सिक्स... सिक्स...” मैं कहता हूँ, “ये तो ऐट सिक्स। ऐट सेवन, सेवन है।”वो कहता है, डाँट कर, “तो पहले ही क्यों नहीं बोलते रोंग नंबर है।” मैं कहता हूँ, “अच्छा भई मेरा ही दोष है। अब क्षमा करो।”, और फ़ोन रख देता हूँ। और नींद को वापिस बुलाने के लिए भेड़ें गिनना शुरू’ कर देता हूँ। और फिर सुबह उठकर तो टेलीफ़ोन की घंटी बजने का सिलसिला ही शुरू’ हो जाता है, “आप मुझे नहीं जानते। आपके पुराने वतन पानीपत के क़रीब जो क़स्बा है रेवाड़ी, वहाँ से आया हूँ, फ़िल्म कंपनी में हीरो बनने...” “मुझे आपसे अपॉइंटमेंट मिनट चाहिए। अपनी कहानियाँ सुनाना चाहता हूँ।” “अगली इतवार को हमारी अंजुमन का सालाना जलसा और मुशायरा है, आपको आना ही है पड़ेगा... आपके नाम का ऐलान पहले ही कर चुके हैं...” “पर्चा प्रेस में रुका पड़ा है। सिर्फ़ आपके मज़मून के इंतिज़ार में...” “देखिए। आप मुझे नहीं जानते। लेकिन क्या आप मुझे कृपा करके राज कपूर का ऐडरेस दे सकते हैं?” कल सवेरे की बात है कि यही सिलसिला चल रहा था कि एक-बार फिर फ़ोन की घंटी बजी... मैंने हिम्मत करके फ़ोन उठाया, “हैलो...” मैंने कहा। हालाँकि टेलीफ़ोन की डायरेक्टरी हुक्म देती है कि “हैलो” मत कहो। “हैलो।”, दूसरी तरफ़ से बड़े ही यूरोपीयन अंदाज़ की आवाज़ आई। मैं समझा कोई अमरीकन या अंग्रेज़ बोल रहा है। फिर उसने अंग्रेज़ी में पूछा, “क्या मैं ख़्वाजा अहमद अब्बास से बात कर सकता हूँ।” मैंने अंग्रेज़ी ही में जवाब दिया, “मैं अब्बास ही बोल रहा हूँ। कहिए, कौन साहिब बोल रहे हैं।” दफ़अ’तन फ़ोन के दूसरे सिरे पर अंग्रेज़ी हिन्दुस्तानी में बदल गई मगर लहजा विलाएती रहा। जैसे कोई इंग्लिस्तान से पढ़ कर दस बरस बा’द हाल ही में लौटा हो। “क्यों भाई मेरी आवाज़ पहचान सकते हो?” मैं तकल्लुफ़न झूट बोला, “आवाज़ तो आपकी जानी बूझी मा’लूम होती है लेकिन मुआ’फ़ कीजियेगा उसने मेरी बात काट कर कहा बड़े बे-तकल्लुफ़ अंदाज़ में मगर लहजा वही वलाएती रहा। ऐसा लगता था जैसे कोई अंग्रेज़ी फ़ौज का करनैल हिन्दुस्तानी बोल रहा हो, “छोड़ो यार। तुम मेरी आवाज़ पूरे पच्चीस बरस बा’द सुन रहे हो। आख़िरी बार हम लखनऊ में मिले थे। उन्निस सौ छत्तीस में।” न जाने कैसे मेरे दिमाग़ में एक घंटी सी बजी। मैंने कहा, “बृजेन्द्र कुमार सिंह? बिरजू?” उधर से आवाज़, “राइट बिरजू।” “बिरजू, मैंने ख़ुशी से चिल्ला कर कहा... कहो भई इतने दिन कहाँ रहे, क्या करते रहे? आजकल क्या करते हो?” टेलीफ़ोन पर भी मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे दूसरी तरफ़ जवाब देने से पहले उसने एक लंबी ठंडी साँस ली हो। जब वो बोला तो उसकी आवाज़ बिल्कुल ही बदली हुई थी। जैसे एक दम किसी गहरी फ़िक्र में डूब गई हो, “ये सब एक लंबी कहानी है। क्या मैं तुमसे अभी मिलने आ सकता हूँ?” मैंने कहा, “मैं तो शहर से बहुत दूर जुहू में रहता हूँ। मगर हर-रोज़ दोपहर को मैं शहर आता ही हूँ। ऐसा क्यों न करें किसी रेस्तौरान में इकट्ठे लंच खाएँ। अब यहाँ बंबई में भी तुम्हारे लखनऊ की तरह एक मेफ़ैर (mayfair) रेस्तौरान खुल गया है। “मेफ़ैर?”, उसने रेस्तौरान का नाम ऐसे दुहराया जैसे दफ़अ’तन किसी ने उसकी चुटकी ले ली हो, “नहीं नहीं। मैं तुमसे किसी रेस्तौरान में नहीं मिलना चाहता। वहाँ बहुत लोग जमा होते हैं। हम इत्मीनान से बातें नहीं कर सकेंगे। “अच्छा” मैंने कहा, “तो तुम यहाँ ही आ जाओ। मैं तुम्हारा इंतिज़ार करूँगा। कितने बजे आओगे?” “जितनी देर टैक्सी को चर्चगेट से जुहू पहुँचने में टाइम लगेगा” “कोई चालीस पैंतालीस मिनट में अपने बरामदे में खड़ा मिलूँगा।” अगले पैंतालीस मिनट तक पच्चीस बरस पुरानी तस्वीरें मेरे दिमाग़ में उभरती रहीं। बिरजू। बृजेन्द्र। बृजेन्द्र कुमार सिंह। कुँवर बृजेन्द्र कुमार सिंह। बिरजू। हमारा यार बिरजू। बिरजू दी ब्रेज़ेंट। बिरजू जो ख़ूबसूरत था, कद्दावर था, ज़हीन था, टेनिस का चैंपियन था और यूनियन में बेहतरीन मुक़र्रर था। बिरजू जिसके पीछे दर्जनों लड़कियाँ दीवानी थीं। हाईकोर्ट के जज जस्टिस सर रमेश सक्सेना की बेटी आशा सक्सेना जो आई, टी कॉलेज में पढ़ती थी। डॉक्टर सतीश बनर्जी की लड़की करूणा जिसकी ख़ूबसूरत आँखें जेमिनी रॉय की किसी तस्वीर से चुराई हुई लगती थीं। प्रोफ़ेसर हामिद अली की छोटी बहन, सुरय्या माजिद अली जिसने करामत हुसैन गर्लज़ स्कूल का पर्दा-दार माहौल छोड़कर यूनीवर्सिटी में उसी साल दाख़िला लिया था और जो हर डिबेट और ड्रामे में यूनियन हॉल में सबसे आगे बैठती थी ताकि बिरजू को दिल भर कर देख सके। सरला माथुर जो हिन्दी में एम-ए कर रही थी और कवीता लिखती थी और जिसकी हर कवीता में बिरजू का रूप झलकता था। मोहना जसपाल सिंह जो निहायत ख़ूबसूरत थी और एक छोटे-मोटे जागीरदार की बेटी थी और जिसने सिर्फ़़ बिरजू की वज्ह से यूनीवर्सिटी में दाख़िला लिया था। सल्लू या टाॅमसन जो स्टेशन मास्टर की लड़की थी और रेलवे क्लब के हर डांस में बिरजू को दावत देने ख़ुद उसके हॉस्टल जाती थी। हालाँकि वहाँ लड़कीयों का दाख़िला ममनू था। बिरजू... वाक़ई वो कितना क़ाबिल रश्क नौजवान था। पहली बार जब मेरी मुलाक़ात उससे हुई तो वो अलीगढ़ यूनीवर्सिटी की ऑल इंडिया डिबेट में हिस्सा लेने लखनऊ यूनीवर्सिटी की तरफ़ से आया था। छब्बीस बरस बा’द भी मुझे उससे वो पहली मुलाक़ात अच्छी तरह याद थी। मैं अपनी यूनीवर्सिटी यूनियन की तरफ़ आने वाले मेहमानों का इस्तक़बाल करने स्टेशन गया। उस ट्रेन से लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस, कानपूर के कॉलिजों के डिबेटर आए थे। कुल मिलाकर वो सब शायद बारह या चौदह थे। लेकिन उन सब में एक सबसे नुमायाँ था। न सिर्फ़ इसलिए कि वो सबसे ज़ियादा कद्दावर था और बंद गले और पूरी आस्तीनों के स्वेटर में उसका कसरती बदन अपालो के बुत की तरह गट्ठा हुआ और सुडौल था बल्कि इसलिए भी कि उसके चेहरे पर एक अ’जीब मुस्कुराहट थी। और जब मैंने उससे हाथ मिलाया तो उसके शेक हैंड में बड़ा ख़ुलूस था और गर्म-जोशी थी जिससे मा’लूम होता था कि हम लोगों से मिलकर उसे वाक़ई बड़ी ख़ुशी हुई है। उसी एक पल ही में मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे हम दोनों बड़े पुराने दोस्त हूँ। और बरसों से एक दूसरे को जानते हूँ। फिर ऑल इंडिया डेबिट हुई। मौज़ू ज़ेर-ए-बहस ये था कि, “समाजी इन्क़िलाब के बग़ैर सयासी आज़ादी काफ़ी नहीं है।” मैं उस मौज़ू के ख़िलाफ़ बोला। अपनी तक़रीर में मैंने साम्राज्य के ख़िलाफ़ और क़ौमी आज़ादी की तहरीक की हिमायत में निहायत जज़्बाती तक़रीर की और उन लोगों को ख़ूब लताड़ा जो जंग-ए-आज़ादी की क़ुर्बानीयों और ख़तरों से बचने के लिए समाज सुधार के गोश-ए-आफ़ियत में पनाह ढूंडते हैं। मेरी तक़रीर ख़त्म हुई तो ख़ूब ज़ोर की तालियाँ बजीं और मैंने यही समझा कि मैंने मैदान मार लिया है। मेरे बा’द लखनऊ यूनीवर्सिटी के बृजेन्द्र कुमार सिंह का नाम पुकारा गया। अब वो सफ़ेद फ़लालीन की पतलून पर बंद गले का सियाह जोधपुरी कोट पहने हुए था। और इसमें कोई शक नहीं कि इस लिबास में वो बड़ा ही जच रहा था। अभी उसने तक़रीर शुरू’ नहीं की थी कि ऊपर गैलरी में जहाँ चक्कों के पीछे गर्ल्स कॉलेज की लड़कियाँ बैठी हुई थीं, दिलचस्पी की एक सरसराहाट सी दौड़ गई और चक्कों के बीच में से सियाह ख़ूबसूरत आँखें और रंगीन आँचल झिलमिलाने लगे। “मिस्टर प्रेसिडेंट” उसने निहायत शुस्ता अंग्रेज़ी लहजा में तक़रीर शुरू’ की। मुझसे पहले मेरे दोस्त ने जब अपनी तक़रीर ख़त्म की तो सबने पुरजोश तालियाँ बजाईं। मैंने भी तालियाँ बजाईं। वो तक़रीर वाक़ई लाजवाब थी। मेरे ख़याल में बेहतरीन तक़रीर के लिए इनआ’म मेरे इस दोस्त ही को मिलना चाहिए। इसलिए कि इतने कमज़ोर दलाइल को इतनी ख़ूबसूरती और इतने ज़ोर-ओ-शोर से पेश करना वाक़ई बड़ा कारनामा है। और इससे पहले कि मैं ये फ़ैसला कर सकूँ कि वो वाक़ई मेरी तारीफ़ कर रहा है या मज़ाक़ उड़ा रहा है। उसने मुड़ कर मेरी तरफ़ देखा और मुस्कराकर कहा, “मुझे यक़ीन है कि मेरे दोस्त एक बहुत कामयाब वकील साबित होंगे…”, और इस पर सारे हॉल में इतने ज़ोर का क़हक़हा पड़ा कि उसकी लहरों में मेरे तमाम ज़ोरदार दलाइल बह गए। उसे डीबेट में अव़्वल इन’आ’म मिला... मुझे दूसरा... वो तीन दिन अलीगढ़ ठहरा। पहले दिन वो मिस्टर बृजेन्द्र कुमार सिंह था। दूसरे दिन सिर्फ़ “बिरजू” रह गया। जब दिलों और दिमाग़ों की हम-आहंगी हो तो ग़ैरियत के फ़ासले कितनी जल्दी दूर हो जाते हैं। स्टेशन पर जब मैं उसे छोड़ने गया तो मैंने उससे पूछा था, “बिरजू ये बात कि समाजी इन्क़िलाब सियासी आज़ादी से ज़ियादा ज़रूरी है। तुमने ऐसी ही डिबेट की ख़ातिर इतने ज़ोर-ओ-शोर से कही या तुम वाक़ई इसमें ए’तिक़ाद रखते हो?” पच्चीस छब्बीस बरस के बा’द भी उसका जवाब मेरे कानों में गूँज रहा था। उसने कहा था, “सुनो मुल्कों और क़ौमों की आज़ादी ज़रूरी है लेकिन इतनी मुश्किल नहीं। समाजी इन्क़िलाब जो हमारे दिमाग़ों को सदीयों के तअस्सुबात और वहमों से आज़ाद करे वो मुश्किल काम है, और जब तक हमारे दिमाग़ आज़ाद नहीं होंगे हमारे मुल्क की सियासी आज़ादी ग़ैर-मुकम्मल रहेगी।” फिर उसने और बड़ी पते की बातें कही थीं, “फ़र्ज़ करो हिन्दोस्तान आज़ाद हो गया और हमारे-तुम्हारे दिमाग़ मज़हबी जुनून और फ़िर्कावाराना तअस्सुब और नफ़रत के बंधनों से आज़ाद न हुए तो ज़रा सोचो क्या होगा। इतने बरसों की ता’लीम और समाज सुधार की बातें करने के बा’द भी हम पढ़े-लिखे हिंदूओं में से कितने हैं जिन्होंने अपने ज़ेहनों को पूरी तरह ज़ात-पात के बंधनों से आज़ाद कर लिया है? तुम मुस्लमानों में कितने हैं जो सच-मुच शेख़, मुग़ल, पठान, जुलाहे, कुम्हार को बराबर समझते हैं?” मैंने उससे पूछा था, “और बिरजू तुम...? क्या तुम्हारा दिल और दिमाग़ इन बंधनों से आज़ाद है? क्या तुम बड़े ख़ानदान के राजपूत हो कर एक अछूत लड़की से ब्याह कर सकते हो? या किसी तवाइफ़-ज़ादी को अपनी पत्नी बना सकते हो?” उसने मेरी आँखों में आँखें डाल कर कहा था, “अगर मुझे उससे मुहब्बत हो तो ज़रूर कर सकता हूँ। और वक़्त आया तो करके दिखा दूँगा।” और फिर उसकी ट्रेन आगई और वो लखनऊ वापस चला गया। उसके बा’द हम एक और ऑल इंडिया डिबेट के सिलसिले में बनारस में मिले थे। और सारनाथ के खंडरों में साथ घूमे थे और बिरजू ने मुझे महात्मा बुद्ध के हालात-ए-ज़िंदगी सुनाए थे और कहा था, “अगर धर्म और मज़हब के ख़याल ही से मैं बेज़ार न हो गया होता तो ज़रूर बुद्ध मत इख़्तियार कर लेता...” “जानते हो महात्मा बुद्ध का देहांत कैसे हुआ?” उसने म्यूजियम में महात्मा बुद्ध की शांत और मुस्कुराती हुई मूर्ती के सामने खड़े हुए मुझसे कहा था, “वो एक ग़रीब अछूत के हाँ भीक मांगने गए और उस बेचारे के पास घर में सिर्फ़ सड़ा हुआ सुवर का गोश्त था। वही उसने झोली में डाल दिया। और ये जानते हुए कि वो गोश्त सड़कर ज़हरीला हो चुका था उन्होंने उसे खा लिया। जान दे दी मगर किसी ग़रीब अछूत का दिल नहीं तोड़ा...” फिर जब हम यही बातें सोचते हुए ताँगे में शहर वापस हो रहे थे, हमने दीवारों पर देवदास फ़िल्म के इश्तिहार लगे देखे थे और बिरजू ने कहा था, “और एक भाई देवदास थे कि पार्वती को तो मंजधार में छोड़ा ही था चंदराल का दिल भी तोड़ दिया। और शराब के समंदर में डूब गए। मगर समाज ने इंसनों के दरमियान जो खाइयाँ खोद रखी हैं उनको पार न कर सके।” मैंने कहा था, “देवदास कोई फ़र्ज़ी फ़िल्मी हीरो नहीं था। शरत बाबू ने एक मा’मूली इंसान का किरदार दिखाया है जो समाज के मुक़ाबले में हमारी-तुम्हारी तरह कमज़ोर था।” और उसने हँसकर कहा था, “तुम्हारी तरह कमज़ोर होगा। अगर ये सूरत-ए-हाल मुझे पेश आई तो मैं कमज़ोर साबित नहीं होंगा।” उस रात हमलोग बनारस से रुख़्सत हो रहे थे लेकिन हमारी ट्रेनें आधी रात के बा’द रवाना होने वाली थीं। मेरी ट्रेन डेढ़ बजे और बिरजू की ट्रेन पौने तीन बजे। डिबेट के लिए और जितने तालिब-ए-इल्म मुख़्तलिफ़ यूनीवर्सिटीयों से आए थे वो सब जा चुके थे। सिर्फ़ मैं और बिरजू रह गए थे और हमारी देख-भाल करने के लिए बनारस यूनीवर्सिटी का एक एम-ए का तालिब-ए-इल्म था गूंद सक्सेना। खाने के बा’द हम बातें कर रहे थे कि गूंद ने कहा, “रेल में तो अभी कई घंटे हैं चलिए आप लोगों को गाना सुनवा दें...” मैंने उस वक़्त तक भी किसी तवाइफ़ का गाना नहीं सुना था, मगर बनारस की गाने वालियों की बड़ी तारीफ़ सुनी थी कि पक्के गाने, दादरा और ठुमरी में उनका जवाब नहीं। सो मैंने कहा “ये अच्छा ख़याल है चलो बिरजू...” मगर उसने कहा, “छोड़ो जी, अच्छे ख़ासे यहाँ गपशप कर रहे हैं वहाँ कोई काली मोटी भद्दी बाई जी पान खा-खा के पक्का गाना सुनाएँगी और हमें बोर करेंगी...” इस पर गूंद बोला, “तुम लखनऊ वाले समझते हो कि लखनऊ के चौक के बाहर हुस्न कहीं है ही नहीं... अरे एक-बार लक्ष्मी को देख भी लोगे तो न जाने लखनऊ की कितनी रेलें निकल जाएँगी।” मगर बिरजू नहीं माना। “तुम्हारी लक्ष्मी बाई तुम बनारस वालों को मुबारक... और सच्ची बात ये है कि कोठे वालियों का गाना सुनने में अपने को कोई दिलचस्पी नहीं।” और मुझे कहने का मौक़ा मिल गया, “क्यों समाज सुधारक जी वेश्या के घर जाते हुए डर लगता है क्या...?” बिरजू को कहना ही पड़ा, “डर तो मुझे शैतान के घर जाते हुए भी नहीं लगता...” और सो हम लोग ताँगा लेकर लक्ष्मी के कोठे के लिए रवाना हो गए। इतने बरसों के बा’द भी लक्ष्मी की सूरत को मैं न भूला था। छोटा सा बोटा सा क़द, गदराया हुआ जिस्म, गोरी तो नहीं मगर सुनहरी रंगत, घने लंबे बाल जिनको दो चोटियों में गूँधा हुआ था। बड़ी-बड़ी आँखें और बोझल लंबी पलकें। लाली रंगे होंट जिन पर एक अ’जीब सी उदास सी मुस्कुराहट सी खेल रही थी। छोटी सी मगर बड़ी ख़ूबसूरत सी नाक जिसमें हीरा जड़ी एक छोटी सी नथुनी पड़ी हुई थी। गूंद ने मेरे कान में कहा, “इस नथुनी को उतारने के लिए एक जागीरदार साहिब पचास हज़ार तक पेश कर चुके हैं...” मुजरा शुरू’ हुआ। हमें मानना पड़ा लक्ष्मी जितनी ख़ूबसूरत है उतनी ही सुरीली उसकी आवाज़ है। ठुमरी के बा’द दादरा और दादरा के बा’द ग़ज़ल... गूंद की फ़र्माइश पर एक-आध फ़िल्मी गीत भी हुआ। महफ़िल में कितने ही लोग थे जो भूकी नज़रों से लक्ष्मी को घूर रहे थे। लेकिन मैंने देखा कि ख़ुद लक्ष्मी की निगाहें बिरजू के चेहरे पर जमी हुई हैं। आहिस्ता-आहिस्ता महफ़िल बिखरती गई। अपनी-अपनी जेबें ख़ाली करके लोग उठते गए। फिर सिर्फ़ हम लोग रह गए। मैंने घड़ी देखी। साढे़ बारह बज रहे थे। मैंने कहा, “मेरी गाड़ी का तो वक़्त हो गया। चलो भई गूंद...” गूंद मेरे साथ उठ खड़ा हुआ। लेकिन जब बिरजू ने उठना चाहा तो लक्ष्मी ने अपना मेहंदी लगा छोटा सा नर्म हाथ उसके सख़्त टेनिस खेलने वाले हाथ पर रख दिया, “आपको हमारी कसम कँवर साहिब लखनऊ की गाड़ी में तो अभी बहुत देर है...” बिरजू ने हैरान हो कर पहले मेरी तरफ़ देखा फिर गूंद की तरफ़। और फिर लक्ष्मी की तरफ़ जिसका हाथ अब तक उसके हाथ पर रखा था। मुझे ऐसा लगा कि वो हमारे साथ उठना भी चाहता है और लक्ष्मी को मायूस करना भी नहीं चाहता। मैंने अंग्रेज़ी में कहा। शाम की गुफ़्तगू का हवाला देते हुए this meat is poisond “इस गोश्त में ज़हर है।” बिरजू ने भी अंग्रेज़ी में जवाब दिया, “जानता हूँ। मगर किसी का दिल दुखाने से ज़हर खा लेना बेहतर है।” “चलो गूंद हम चलते हैं।” मैंने किसी क़द्र चिड़ कर कहा। मुझे ऐसा लग रहा था कि मेरा एक अज़ीज़ दोस्त एक गंदी नाली में गिर पड़ा है और वहाँ से निकलना नहीं चाहता। “अच्छा तो फिर अगले साल लखनऊ की डिबेट में मिलेंगे।” बिरजू ने मुझसे सुल्ह करने के लिए आवाज़ दी मगर मैंने कोई जवाब न दिया। बिरजू का जो ख़्याली मुजस्समा मैंने अपने मन में बनाया था इस लम्हे में वो चकनाचूर हो गया था। मुझे नहीं मा’लूम था कि समाजी इन्क़िलाब पर तक़रीर करने वाला बिरजू, महात्मा बुद्ध के पवित्र मार्ग पर चलने वाला बिरजू एक मा’मूली रंडी बाज़ निकलेगा। ग़ुस्से से भरा मैं ज़ीने से उतर ही रहा था कि आवाज़ आई “सुनिए” मुड़कर देखा तो लक्ष्मी थी। उसका चेहरा तमतमाया हुआ था और उसके लबों के किनारे काँप रहे थे, “मैंने आपके दोस्त को रोक लिया।” वो बोली, “उसके लिए मैं आपसे क्षमा माँगती हूँ।” मैंने कोई जवाब न दिया और मुड़कर जाने लगा। इस पर उसकी आवाज़ में तीर की सी तेज़ी थी, “जाने से पहले ये सुनते जाईए कि मैं अंग्रेज़ी समझती हूँ अगर मैं ज़हरीला गोश्त हूँ तो कभी ये भी सोचियेगा कि मेरे जीवन में ये बिस किसने घोला है।” मैं कोई जवाब न दे सका और वहाँ से चला आया। अगले बरस जब मैं लखनऊ ऑल इंडिया डिबेट के लिए गया तो मैं इस वाक़िया को तक़रीबन भूल चुका था। यूनीवर्सिटी के तालिब-ए-इल्मों का किसी तवाइफ़ के कोठे पर गाना सुनने जाना या वहाँ रात-भर के लिए भी ठहर जाना कोई ऐसा ग़ैर-मा’मूली सानिहा नहीं कि इस पर बरसों सोच बिचार की जाए। बिरजू का रवय्या उस वक़्त मुझे ज़रूर बुरा लगा था। मगर बा’द में मैंने ये सोच कर उसे मुआ’फ़ कर दिया था कि जवानी में एक-आध बार किसके पैर नहीं लड़खड़ाते। वो स्टेशन पर मुझे लेने आया था और अगले तीन दिन तक तक़रीबन वो हर वक़्त मेरे साथ ही रहा। वो बी-ए फर्स्ट डवीज़न में पास कर चुका था और अब एम-ए में पढ़ रहा था। कहने लगा, “मेरे माँ बाप तो चाहते हैं मैं आई,सी,एस उसके मुक़ाबले में शरीक हूँ। लेकिन मैं सरकारी नौकरी करना नहीं चाहता।” मैंने पूछा, “तब क्या करोगे?” बोला, “एम-ए करके किसी छोटे-मोटे कॉलेज में लेक्चरर हो जाऊँगा। या ऐल ऐल बी करके वकालत करूँगा। वर्ना तुम्हारी तरह मैं भी जर्नलिज़्म के मैदान में आ कूदूँगा।” उसने मुझे पूरे लखनऊ की सैर कराई। और इस बार मुझे अंदाज़ा हुआ कि वो लड़कीयों में कितना मक़बूल है। हम यूनीवर्सिटी यूनियन के कैफे में चाय पी रहे थे कि करूणा बनर्जी मिल गई और कहने लगी, “देखो मिस्टर बृजेन्द्र कुमार अमारे बंगाली कॉलेज के प्रोग्राम में ज़रूर आना। हम गुरूदेव का नाटक रक्तोकरोबी कर रहे हैं।” और जब बिरजू ने कहा, “करूणा मेरा आना तो मुश्किल है। ये मेरे दोस्त अलीगढ़ से आए हुए हैं। उनको लखनऊ की सैर करा रहा हूँ” तो वो बोली, “तो अपने फ्रेंड को भी ले आईए न प्लीज़।” और उसकी जेमिनी रॉय की तस्वीर जैसी बंगाली आँखों में प्यार ही प्यार भरा हुआ था। वहाँ से मुझे वो लाइब्रेरी दिखाने ले गया तो सरला माथुर से मुलाक़ात हो गई जो बिरजू को कवी सम्मेलन में मद’ऊ करने के लिए तलाश कर रही थी। वो बोली “बृजेन्द्र जी! ये मैंने एक नई कवीता लिखी है। उसे पढ़ कर बताईएगा कैसी है, मैं कवी सम्मेलन में भी पढ़ने वाली हूँ।” जब वो चली गई तो बिरजू ने कवीता मुझे दिखाई। उनवान था, “मेरे सपने” और दो ही सतरें सुनकर में जान गया कि इस बेचारी के सारे सपनों का मरकज़ बिरजू ही था। शाम को टेनिस क्लब में आशा सक्सेना से मुलाक़ात हुई जिन का इसरार था कि बिरजू टेनिस टूर्नामेंट में मिक्स्ड डबल्स के लिए उनका पार्टनर्स बन जाए और जिस अंदाज़ से वो उसे “पार्टनर पार्टनर” कह कर बुला रही थी, इससे साफ़ ज़ाहिर था कि उन्हें बिरजू को ज़िंदगी-भर का “पार्टनर” बनाने में भी कोई एतराज़ नहीं। मेफ़ैर रेस्तौरेंट में चाय पीने गीए तो वहाँ एक निहायत ख़ूबसूरत और स्मार्ट लड़की “हैलो बिरजू” कह कर दौड़ी और जब बिरजू ने उसका त’आरुफ़ कराया तो मा’लूम हुआ वो है मोहना जसपाल सिंह। मैंने देखा उसकी काजल लगी आँखों में बिरजू को देखते ही एक अ’जीब सी आग चमक उठी है और न जाने क्यों मुझे उन भूकी, सुलगती हुई आँखों से डर सा लगा। अगले दिन मैंने बिरजू से पूछा, “अरे यार तुम बड़े ख़ुश-क़िस्मत हो कि ये सब लड़कियाँ तुम पर मरती हैं। मगर अब तक ये न पता चला कि तुम किस से दिलचस्पी लेते हो। या सबसे ही फ्लर्ट करते हो?” वो बोला, “मैं जिसमें दिलचस्पी लेता हूँ वो कोई और है और उससे मैं बहुत जल्द शादी करने वाला हूँ। मैंने कहा, “अगर इन सब हसीन और स्मार्ट लड़कीयों को छोड़कर तुमने कोई और पसंद की है तो वो वाक़ई कोई ख़ास चीज़ होगी। हमें भी मिलाओ।” उसने मुस्करा कर कहा था, “ख़ास चीज़ तो है वो। इसीलिए मैंने उसे पर्दे में रख छोड़ा है।” मैंने कहा, “हम मुसाफ़िरों से क्या पर्दा। हम तुम्हारे रक़ीब नहीं हैं यार।” “तो फिर आज शाम को चार बजे मेफ़ैर रेस्तौरान में चाय पियो और उससे मिलो।” “कौन। मोहना?” नहीं मोहना तो बोर है। अगरचे मेरे माता पिता इससे मेरी शादी करना चाहते हैं। क्योंकि वो एक जागीरदार की बेटी है लेकिन जिससे मैं तुम्हें मिलाना चाहता हूँ वो कोई और ही है।” चार बजे मेफ़ैर में दाख़िल हुआ तो एक कोने की मेज़ पर बिरजू के पास सफ़ेद साड़ी में मलबूस एक लड़की बैठी है। मैं बिल्कुल क़रीब पहुँच गया तब भी उसकी सूरत न देख सका। “तुम उनसे मिल चुकी हो?” बिरजू ने कहा और सफ़ेद साड़ी वाली लड़की ने मुड़ कर मुझे देखा। वो लक्ष्मी थी। “नमस्ते!” उसने आँखें झुकाकर कहा। “नमस्ते!” मैंने निहायत बद-दिली से जवाब दिया और कुर्सी पर बैठ कर बैंड की धुन सुनने लगा। उस शाम को गोमती के किनारे घूमते हुए घंटों मैं और बिरजू इस मसले पर बातें करते रहे। मैंने कहा, “बिरजू तुम पागल हो गए हो कि मोहना जसपाल सिंह और आशा सक्सेना और करूणा बनर्जी और सरला माथुर जैसी ख़ूबसूरत पढ़ी लिखी बड़े ख़ानदानों की लड़कीयों को छोड़कर इस तवाइफ़ से शादी कर रहे हो।” “लक्ष्मी तवाइफ़ नहीं!” उसने ग़ुस्से से कहा। “तवाइफ़ न सही तवाइफ़-ज़ादी सही, मगर तुमने इसमें क्या देखा है जो सारी दुनिया की लड़कीयों को छोड़कर उसे पसंद किया है?” “वज्ह तो एक ही है, मेरे दोस्त। मैं इससे मुहब्बत करता हूँ और वो मुझसे मुहब्बत करती है। वो मेरी ख़ातिर अपने घरवालों को, अपने पेशे को, माज़ी को छोड़कर चली आई है। अगले महीने हम शादी करने वाले हैं।” “और तुम समझते हो कि तुम्हारे घर वाले तुम्हें इस हिमाक़त की इजाज़त दे देंगे” “मुझे उनकी इजाज़त नहीं चाहिए। ज़िंदगी के ऐसे फ़ैसलों के लिए किसी की इजाज़त नहीं चाहिए। माँ बाप की भी नहीं, दोस्तों की भी नहीं।” “शुक्रिया” मैंने बड़ी तल्ख़ी से कहा था, “तो फिर मुझे ये सब क्यों सुना रहे हो?” चलते-चलते रुक कर उसने मेरे कंधों पर हाथ रखकर कहा था, “तुम्हारी इजाज़त नहीं चाहिए, तुम्हारी मुहब्बत चाहिए। दोस्त जज बन कर अपने दोस्तों के आमाल की जांच पड़ताल नहीं करते, उनको अपनी दोस्ती और मुहब्बत की छाओं में पनाह देते हैं।' इस के बाद मेरा कुछ कहना बेकार था। मैंने सिर्फ इतना पूछा था, “तो अब तुम क्या करना चाहते हो?” उसने कहा था, “कल मैं अपने वतन जा रहा हूँ। अपने माँ बाप को इस फ़ैसले की इत्तिला देने। माता जी बीमार हैं इसलिए ख़त लिख कर उनको एक दम shok देने के बजाए ख़ुद जाकर उन्हें ज़बानी समझाना चाहता हूँ।” “और अगर वो लोग राज़ी न हुए तो?” “तो उनकी मर्ज़ी और इजाज़त के बग़ैर ये शादी होगी।” और उसके कहने के अंदाज़ में इतनी क़तईयत थी कि मैं ख़ामोश हो गया। अगले दिन हम इकट्ठे ही स्टेशन पर गए। पहले उसकी गाड़ी जाती थी उसके बाद मेरी। टिकट खिड़की पर जाकर जब उसने कहा, “एक फ़र्स्ट क्लास शाम-नगर” तो बाबू ने पूछा, “सिंगल या रिटर्न?” “रिटर्न” उसने बड़े ज़ोर से कहा। ''हमेशा वापसी का टिकट ही लेना चाहिए।” लक्ष्मी भी उसे छोड़ने स्टेशन पर आई थी। जब गार्ड ने सीटी दी और झंडी हिलाई और बिरजू अपने कम्पार्टमंट में सवार हुआ तो लक्ष्मी की आँखों में आँसू उमड आए थे। “अरी पगली। घबराओ नहीं।” बिरजू ने चलते-चलते चिल्ला कर कहा, “मैं तो परसों ही लौट आऊँगा। ये देख तीन दिन का रिटर्न टिकट।” रेल चल पड़ी थी और रेल में बिरजू था। बिरजू के हाथ में एक हरा वापसी का टिकट था। फिर रेल आगे जाके अपने धुएँ के बादल में खो गई। और अब न रेल थी न बिरजू और न वो वापसी का टिकट और अब प्लेटफार्म पर सिर्फ लक्ष्मी थी। लक्ष्मी की आँखों में आँसू थे और उन आँसूओं में प्रीतम से बिछड़ने का ग़म भी था और उससे जल्द फिर मिलने की आरज़ू और उम्मीद भी थी। मैं अलीगढ़ वापस चला आया। इम्तिहान की तैयारीयों में लग गया। चंद हफ़्ते मैंने बिरजू के ख़त का इंतिज़ार किया मगर कोई ख़त न आया। मैंने सोचा नई-नई शादी हुई है शायद हनीमून पर कहीं गए हों। फिर इम्तिहान के चक्कर में सब कुछ भुलाना पड़ा। इम्तिहान ख़त्म हुआ तो मुझे नौकरी के सिलसिले में बंबई आना पड़ा। नए-नए काम का ऐसा चक्कर पड़ा कि अलीगढ़, लखनऊ, बिरजू, लक्ष्मी सब पुरानी यादें बन कर खो गए। ४३ का सियासी हंगामा आया। ४६ में फ़साद और खून-ख़राबे हुए। ४७ में आज़ादी आई। मैं कई बार दुनिया के सफ़र को गया। ज़िंदगी में कितनी ही ख़ुशीयाँ और कितने ही ग़म आए और बगूलों की तरह गुज़र गए। कितनी ही कामयाबियों और उनसे भी ज़ियादा परेशानीयों और नाकामियों से दो-चार होना पड़ा फिर भी बिरजू और लक्ष्मी की याद एक सवालिया निशान बन कर मेरे दिल के एक कोने में दुबकी रही और इस सुबह जब टेलीफ़ोन की घंटी बजी, वो सवालिया निशान दिन-दहाड़े एक भूत बन कर मेरे सामने आन खड़ा हुआ। इस बार घंटी बजी तो वो टेलीफ़ोन की नहीं थी, दरवाज़े की थी। मैंने दरवाज़ा खोला। एक ढीली सी मलगिजी सी बुशशर्ट और पतलून पहने एक बूढ़ा सा आदमी खड़ा मोटे-मोटे शीशों के ऐनक से मुझे घूर रहा था। उसके हाथ में एक प्लास्टिक का पोर्टफोलियो था, जैसा इंशोरंस एजैंट रखते हैं। ऐन उसी वक़्त जब मैं और बिरजू जो पच्चीस बरस बा’द मिलने वाले थे ये बूढ़ा इंशोरंस एजैंट न जाने कहाँ से टपक पड़ा। “किया चाहिए?” मैंने क़द्रे दुरुश्ती से पूछा। झुर्रियों दार गहरे साँवले चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कुराहट नुमूदार हुई और उसने कहा, “क्यों भूल गए?” “बिरजू!” अगले लम्हे हम दोनों एक-दूसरे से बग़लगीर हो रहे थे। “मैं बहुत बदल गया हूँगा?” उसने बैठते हुए कहा, “तुमने भी नहीं पहचाना।” ये वाक़िया था कि पच्चीस बरस पहले के बिरजू और इस बूढ़े में कोई दौर की भी मुशाबहत न थी। मैंने सोचा ज़रूर बेचारा सख़्त बीमार रहा होगा। तभी तो उसके चेहरे और बाज़ुओं पर खाल इस तरह लटकी हुई है जैसे उसके ढीले कपड़े। मैंने उस को तसल्ली देते हुए कहा। पच्चीस बरस में हम सब ही बदल गए हैं। मुझे ही देखो चंदिया बिल्कुल साफ़ हो गई है। उसने कहा, “मैंने तुम्हारा नाम टेलीफ़ोन डायरेक्ट्री में तलाश किया। उम्मीद तो न थी तुम मिलोगे। सुना है अक्सर हिन्दोस्तान से बाहर रहते हो।” टेलीफ़ोन के ज़िक्र पर मैंने कहा, “मैं तो फ़ोन पर तुम्हारी आवाज़ सुनकर समझा था कोई अंग्रेज़ या अमरीकन है जिससे में कहीं सफ़र में मिला होंगा।” “और मेरा accent ? मैं भी तो कितने ही बरस इंग्लिस्तान में रहा हूँ। वैसे ही बात करने की आदत हो गई है।” न जाने क्यों ऐसा लग रहा था जैसे वो कोई बात कहना चाहता है और उसी बात को छुपाना भी चाहता है। कई किस्म के ख़यालात और ख़दशे मेरे दिमाग़ में आए। शायद उसकी नौकरी छुट गई है। बेकार है। शायद मदद मांगने आया है। शायद उसको शराब की लत पड़ गई है तब ही बहका-बहका सा लगता है और उसके हाथों की उंगलियाँ काँपती हैं शायद उसने कोई जुर्म किया है। इसलिए उसकी आँखें बेचैनी से इधर-उधर देख रही हैं। कुछ सेकंड तक हम दोनों एक-दूसरे के चेहरे में अपने माज़ी की तलाश करते रहे। फिर मैंने कहा, “क्यों बंबई अकेले ही आए हो। भाबी साथ नहीं हैं किया?” उसके जवाब ने मुझे चौंका दिया, “मैंने तलाक़ ले ली है।” लेकिन अब कम से कम उसकी परेशानी की वज्ह तो मा’लूम हो गई। इतने बरसों के शदीद इश्क़ के बा’द अगर तलाक़ की नौबत आई है तो इस हालत पर कोई तअज्जुब नहीं होना चाहिए था। मैंने कहा, “बड़ा अफ़सोस है बिरजू, लेकिन हुआ किया जो तलाक़ लेनी पड़ी? इस उ’म्र में मियाँ-बीवी को एक-दूसरे के सहारे की सबसे ज़ियादा ज़रूरत होती है।” “मियाँ बीवी!” उसने दोनों लफ़्ज़ों को किसी कड़वी दवा की तरह थूका। पहले दिन ही से हमारी शादी एक झूट थी। एक भयानक ग़लती थी। चौबीस बरस तक मैंने इस ग़लती से निबाह किया। इस झूट को सच्च करने की कोशिश की लेकिन मैं कामयाब न हुआ।” मेरी समझ में न आया कि क्या कहूँ इसलिए मैं ख़ामोश रहा। मेरे कुछ कहने की ज़रूरत भी न थी वो बेचारा मुझसे कोई सलाह मश्वरा करने के लिए नहीं अपने दिल का बुख़ार निकालने के लिए आया था। काँपती हुई उंगलीयों से उसने एक सिगार जलाया और मुँह से धुएँ का एक बादल उड़ाता हुआ बोला तुम सोच रहे होना कि मैं इतने बरस कहाँ ग़ायब रहा। शादी के फ़ौरन बा’द ही मैं बीवी को अपने माँ बाप के पास छोड़कर इंग्लिस्तान चला गया। आई सी ऐस का इम्तिहान दिया और बद-क़िस्मती से पास हो गया। “तो तुम आई सी ऐस में थे। और हमें कभी पता ही न चला?” “मैं किसी को बताना भी नहीं चाहता था। तुम लोग इन दिनों सरकारी नौकरीयों का बाईकॉट कर रहे थे। सत्याग्रह करके जेल जा रहे थे। मैं किस मुँह से तुम लोगों के सामने आता। इसलिए मैंने जान-बूझ कर ऐसे-ऐसे मुक़ाम चुने जहाँ किसी पुराने दोस्त से मुलाक़ात न हो। पहले कई साल फ्रंटियर में रहा फिर आसाम में। फिर कूर्ग में वहीं हमारा पहला लड़का पैदा हुआ...” कितनी ही देर वो धुएँ के बादलों में न जाने कैसी-कैसी तस्वीरें बनाता और बिगाड़ता रहा। फिर बोला, “मगर वो लड़का हमारा नहीं था। वो उसका लड़का था। जो मेरे एक चपरासी से पैदा हुआ था। जब मुझे ये मा’लूम हुआ तो तुम समझ सकते हो कि मेरी क्या हालत हुई होगी। चंद महीने तक तो मैं बिल्कुल पागल हो गया। शराब तो मैं पहले भी पीता था लेकिन अब मैंने अपनी ज़िल्लत को डुबोने के लिए अंधाधुंद पीना शुरू’ कर दिया। जब व्हिस्की से काम न चला तो कोकीन खाने लगा। तीन महीने पागलखाने में ईलाज कराया। और जब ईलाज करके हवास पर किसी क़द्र क़ाबू पाया और बाहर निकला तो नौकरी से इस्तीफ़ा देना पड़ा। ज़लील हो कर निकाले जाने से यही बेहतर था कि मैं ख़ुद ही बीमारी का बहा