स्वराज के लिए

मुझे सन् याद नहीं रहा लेकिन वही दिन थे। जब अमृतसर में हर तरफ़ “इन्क़लाब ज़िंदाबाद” के नारे गूंजते थे। उन नारों में, मुझे अच्छी तरह याद है, एक अ’जीब क़िस्म का जोश था... एक जवानी... एक अ’जीब क़िस्म की जवानी। बिल्कुल अमृतसर की गुजरियों की सी जो सर पर ऊपलों के टोकरे उठाए बाज़ारों को जैसे काटती हुई चलती हैं... ख़ूब दिन थे। फ़िज़ा में जो जलियांवाला बाग़ के ख़ूनीं हादिसे का उदास ख़ौफ़ समोया रहता था। उस वक़्त बिल्कुल मफ़क़ूद था। अब उसकी जगह एक बेख़ौफ तड़प ने ले ली थी। एक अंधाधुंद जस्त ने जो अपनी मंज़िल से नावाक़िफ़ थी।
लोग नारे लगाते थे, जलूस निकालते थे और सैंकड़ों की ता’दाद में धड़ाधड़ क़ैद हो रहे थे। गिरफ़्तार होना एक दिलचस्प शग़ल बिन गया था। सुबह क़ैद हुए, शाम छोड़ दिए गए। मुक़द्दमा चला, चंद महीनों की क़ैद हुई, वापस आए, एक नारा लगाया, फिर क़ैद हो गए।

ज़िंदगी से भरपूर दिन थे। एक नन्हा सा बुलबुला फटने पर भी एक बहुत बड़ा भंवर बन जाता था। किसी ने चौक में खड़े हो कर तक़रीर की और कहा, हड़ताल होनी चाहिए, चलिए जी हड़ताल हो गई... एक लहर उठी कि हर शख़्स को खादी पहननी चाहिए ताकि लंका शाइर के सारे कारख़ाने बंद हो जाएं... बिदेशी कपड़ों का बायकॉट शुरू हो गया और हर चौक में अलाव जलने लगे। लोग जोश में आकर खड़े खड़े वहीं कपड़े उतारते और अलाव में फेंकते जाते, कोई औरत अपने मकान के शहनशीन से अपनी नापसंदीदा साड़ी उछालती तो हुजूम तालियां पीट पीट कर अपने हाथ लाल कर लेता।
मुझे याद है कोतवाली के सामने टाउन हाल के पास एक अलाव जल रहा था... शेख़ू ने जो मेरा हम-जमाअ’त था, जोश में आकर अपना रेशमी कोट उतारा और बिदेशी कपड़ों की चिता में डाल दिया। तालियों का समुंदर बहने लगा क्योंकि शेख़ू एक बहुत बड़े “टोडी बच्चे” का लड़का था। उस ग़रीब का जोश और भी ज़्यादा बढ़ गया। अपनी बोस्की की क़मीज़ उतार वो भी शो’लों की नज़र करदी, लेकिन बाद में ख़याल आया कि उसके साथ सोने के बटन थे।

मैं शेख़ू का मज़ाक़ नहीं उड़ाता, मेरा हाल भी उन दिनों बहुत दिगरगूं था। जी चाहता था कि कहीं से पिस्तौल हाथ में आजाए तो एक दहशत पसंद पार्टी बनाई जाये। बाप गर्वनमेंट का पेंशनख़्वार था। इसका मुझे कभी ख़याल न आया। बस दिल-ओ-दिमाग़ में एक अ’जीब क़िस्म की खुद बुद रहती थी। बिल्कुल वैसी ही जैसी फ्लाश खेलने के दौरान में रहा करती है।
स्कूल से तो मुझे वैसे ही दिलचस्पी नहीं थी मगर उन दिनों तो ख़ासतौर पर मुझे पढ़ाई से नफ़रत हो गई थी... घर से किताबें लेकर निकलता और जलियांवाला बाग़ चला जाता। स्कूल का वक़्त ख़त्म होने तक वहां की सरगर्मियां देखता रहता या किसी दरख़्त के साये तले बैठ कर दूर मकानों की खिड़कियों में औरतों को देखता और सोचता कि ज़रूर उनमें से किसी को मुझसे इश्क़ हो जाएगा... ये ख़याल दिमाग़ में क्यों आता। इसके मुतअ’ल्लिक़ मैं कुछ कह नहीं सकता।

जलियांवाला बाग़ में ख़ूब रौनक़ थी। चारों तरफ़ तंबू और क़नातें फैली हुई थीं, जो ख़ेमा सब से बड़ा था, उसमें हर दूसरे तीसरे रोज़ एक डिक्टेटर बनाके बिठा दिया जाता था। जिसको तमाम वालंटियर सलामी देते थे। दो-तीन रोज़ या ज़्यादा से ज़्यादा दस-पंद्रह रोज़ तक ये डिक्टेटर खादी पोश औरतों और मर्दों की नमस्कारें एक मस्नूई संजीदगी के साथ वसूल करता। शहर के बनियों से लंगर ख़ाने के लिए आटा-चावल इकट्ठा करता और दही की लस्सी पी पी कर जो ख़ुदा मालूम जलियांवाला बाग़ में क्यों इस क़दर आम थी, एक दिन अचानक गिरफ़्तार हो जाता और किसी क़ैदख़ाने में चला जाता।
मेरा एक पुराना हम-जमाअ’त था। शहज़ादा ग़ुलाम अली, उससे मेरी दोस्ती का अंदाज़ा आपको इन बातों से हो सकता है कि हम इकट्ठे दो दफ़ा मैट्रिक के इम्तहान में फ़ेल हो चुके थे और एक दफ़ा हम दोनों घर से भाग कर बंबई गए। ख़याल था कि रूस जाऐंगे मगर पैसे ख़त्म होने पर जब फुटपाथों पर सोना पड़ा तो घर ख़त लिखे, माफियां मांगीं और वापस चले आए।

शहज़ादा ग़ुलाम अली ख़ूबसूरत जवान था। लंबा क़द, गोरा रंग जो कश्मीरियों का होता है। तीखी नाक, खलंडरी आँखें, चाल-ढाल में एक ख़ास शान थी जिसमें पेशावर ग़ुंडों की कजकुलाही की हल्की सी झलक भी थी।
जब वो मेरे साथ पढ़ता था तो शहज़ादा नहीं था, लेकिन जब शहर में इन्क़लाबी सरगर्मियों ने ज़ोर पकड़ा और उसने दस-पंद्रह जलसों और जलूसों में हिस्सा लिया तो नारों गेंदे के हारों, जोशीले गीतों और लेडी वालंटियर्ज़ से आज़ादाना गुफ़्तुगूओं ने उसे एक नीम रस इन्क़लाबी बना दिया। एक रोज़ उस ने पहली तक़रीर की। दूसरे रोज़ मैंने अख़बार देखे तो मालूम हुआ कि ग़ुलाम अली शहज़ादा बन गया है।

शहज़ादा बनते ही ग़ुलाम अली सारे अमृतसर में मशहूर हो गया। छोटा सा शहर है, वहां नेक नाम होते या बदनाम होते देर नहीं लगती। यूं तो अमृतसरी आम आदमीयों के मुआ’मले में बहुत हर्फ़गीर हैं। या’नी हर शख़्स दूसरों के ऐ’ब टटोलने और किरदारों में सुराख़ ढ़ूढ़ने की कोशिश करता रहता है। लेकिन सियासी और मज़हबी लीडरों के मुआ’मले में अमृतसरी बहुत चश्मपोशी से काम लेते हैं।
उनको दरअसल हर वक़्त एक तक़रीर या तहरीक की ज़रूरत रहती है। आप उन्हें नीली पोश बता दीजिए या स्याह पोश, एक ही लीडर चोले बदल बदल कर अमृतसर में काफ़ी देर तक ज़िंदा रह सकता है। लेकिन वो ज़माना कुछ और था। तमाम बड़े बड़े लीडर जेलों में थे और उनकी गद्दियां ख़ाली थीं। उस वक़्त लोगों को लीडरों की कोई इतनी ज़्यादा ज़रूरत न थी। लेकिन वो तहरीक जो कि शुरू हुई थी उसको अलबत्ता ऐसे आदमीयों की अशद ज़रूरत थी जो एक दो रोज़ खादी पहन कर जलियांवाला बाग़ के बड़े तंबू में बैठें। एक तक़रीर करें और गिरफ़्तार हो जाएं।

उन दिनों यूरोप में नई नई डिक्टेटरशिप शुरू हुई थी। हिटलर और मसोलीनी का बहुत इश्तिहार हो रहा था। ग़ालिबन इस असर के मातहत कांग्रस पार्टी ने डिक्टेटर बनाने शुरू कर दिए थे। जब शहज़ादा ग़ुलाम अली की बारी आई तो उससे पहले चालीस डिक्टेटर गिरफ़्तार हो चुके थे।
जूं ही मालूम हुआ कि इस तरह ग़ुलाम अली डिक्टेटर बन गया है तो में फ़ौरन जलियांवाला बाग़ में पहुंचा। बड़े ख़ेमे के बाहर वालंटियरों का पहरा था। मगर ग़ुलाम अली ने जब मुझे अंदर से देखा तो बुला लिया। ज़मीन पर एक गदेला था, जिस पर खादी की चांदनी बिछी थी। उस पर गाव तकियों का सहारा लिए शहज़ादा ग़ुलाम अली चंद खादीपोश बनियों से गुफ़्तुगू कर रहा था जो ग़ालिबन तरकारियों के मुतअ’ल्लिक़ थी। चंद मिनटों ही में उसने ये बातचीत ख़त्म की और चंद रज़ाकारों को अहकाम दे कर वह मेरी तरफ़ मुतवज्जा हुआ। उसकी ये ग़ैरमामूली संजीदगी देख कर मेरे गुदगुदी सी हो रही थी। जब रज़ाकार चले गए तो मैं हंस पड़ा।

“सुना बे शहज़ादे।”
मैं देर तक उससे मज़ाक़ करता रहा लेकिन मैंने महसूस किया कि ग़ुलाम अली में तबदीली पैदा हो गई है। ऐसी तबदीली जिससे वो बाख़बर है। चुनांचे उसने कई बार मुझसे यही कहा, “नहीं सआदत, मज़ाक़ न उड़ाओ। मैं जानता हूँ मेरा सर छोटा और ये इज़्ज़त जो मुझे मिली है बड़ी है... लेकिन मैं ये खुली टोपी ही पहने रहना चाहता हूँ।”

कुछ देर के बाद उसने मुझे दही की लस्सी का एक बहुत बड़ा गिलास पिलाया और मैं उससे ये वादा करके घर चला गया कि शाम को उसकी तक़रीर सुनने के लिए ज़रूर आऊँगा।
शाम को जलियांवाला बाग़ खचाखच भरा था। मैं चूँकि जल्दी आया था, इसलिए मुझे प्लेटफार्म के पास ही जगह मिल गई। ग़ुलाम अली तालियों के शोर के साथ नुमूदार हुआ... सफ़ेद बेदाग़ खादी के कपड़े पहने वो ख़ूबसूरत और पुरकशिश दिखाई दे रहा था। वो कजकुलाही की झलक जिसका मैं इस से पहले ज़िक्र कर चुका हूँ। उसकी इस कशिश में इज़ाफ़ा कर रही थी।

तक़रीबन एक घंटे तक वो बोलता रहा। इस दौरान में कई बारे रोंगटे खड़े हुए और एक दो दफ़ा तो मेरे जिस्म में बड़ी शिद्दत से ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि मैं बम की तरह फट जाऊं। उस वक़्त मैंने शायद यही ख़याल किया था कि यूं फट जाने से हिंदुस्तान आज़ाद हो जाएगा।
ख़ुदा मालूम कितने बरस गुज़र चुके हैं। बहते हुए एहसासात और वाक़ियात की नोक-पलक जो उस वक़्त थी, अब पूरी सेहत से बयान करना बहुत मुश्किल है। लेकिन ये कहानी लिखते हुए मैं जब ग़ुलाम अली की तक़रीर का तसव्वुर करता हूँ तो मुझे सिर्फ़ एक जवानी बोलती दिखाई देती है, जो सियासत से बिल्कुल पाक थी। उसमें एक ऐसे नौजवान की पुरख़ुलूस बेबाकी थी जो एक दम किसी राह चलती औरत को पकड़ले और कहे, “देखो मैं तुम्हें चाहता हूँ।” और दूसरे लम्हे क़ानून के पंजे में गिरफ़्तार हो जाये।

उस तक़रीर के बाद मुझे कई तक़रीरें सुनने का इत्तेफ़ाक़ हुआ है। मगर वो ख़ाम दीवानगी, वो सरफिरी जवानी, वो अल्हड़ जज़्बा, वो बेरेश-ओ-बुरूत ललकार जो मैंने शहज़ादा ग़ुलाम अली की आवाज़ में सुनी। अब उसकी हल्की सी गूंज भी मुझे कभी सुनाई नहीं दी। अब जो तक़रीरें सुनने में आती हैं, वो ठंडी संजीदगी, बूढ़ी सियासत और शायराना होशमन्दी में लिपटी होती हैं।
उस वक़्त दरअसल दोनों पार्टीयां खामकार थीं। हुकूमत भी और रिआ’या भी। दोनों नताइज से बेपर्वा, एक दूसरे से दस्त-ओ-गरीबां थे। हुकूमत क़ैद की अहमियत समझे बग़ैर लोगों को क़ैद कर रही थी और जो क़ैद होते थे, उनको भी क़ैदख़ानों में जाने से पहले क़ैद का मक़सद मालूम नहीं होता था।

एक धांदली थी मगर इस धांदली में एक आतिशीं इंतशार था। लोग शो’लों की तरह भड़कते थे, बुझते थे, फिर भड़कते थे। चुनांचे इस भड़कने और बुझने, बुझने और भड़कने ने गु़लामी की ख़्वाबीदा उदास और जमाइयों भरी फ़िज़ा में गर्म इर्तिआ’श पैदा कर दिया था।
शहज़ादा ग़ुलाम अली ने तक़रीर ख़त्म की तो सारा जलियांवाला बाग़ तालियों और नारों का दहकता हुआ अलाव बन गया। उसका चेहरा दमक रहा था। जब मैं उससे अलग जा कर मिला और मुबारकबाद देने के लिए उसका हाथ अपने हाथ में दबाया तो वो काँप रहा था। ये गर्म कपकपाहट उसके चमकीले चेहरे से भी नुमायां थी। वो किसी क़दर हांप रहा था। उसकी आँखों में पुरजोश जज़्बात की दमक के इलावा मुझे एक थकी हुई तलाश नज़र आई। वो किसी को ढूंढ रही थीं। एक दम उसने अपना हाथ मेरे हाथ से अलाहिदा किया और सामने चमेली की झाड़ी की तरफ़ बढ़ा।

वहां एक लड़की खड़ी थी। खादी की बेदाग़ साड़ी में मलबूस।
दूसरे रोज़ मुझे मालूम हुआ कि शहज़ादा ग़ुलाम अली इ’श्क़ में गिरफ़्तार है। वो उस लड़की से जिसे मैंने चमेली की झाड़ी के पास बाअदब खड़ी देखा था। मोहब्बत कर रहा था। ये मोहब्बत यकतरफ़ा नहीं थी क्योंकि निगार को भी उससे वालिहाना लगाव था।

निगार जैसा कि नाम से ज़ाहिर है एक मुसलमान लड़की थी। यतीम! ज़नाना हस्पताल में नर्स थी और शायद पहली मुसलमान लड़की थी जिसने अमृतसर में बेपर्दा होकर कांग्रेस की तहरीक में हिस्सा लिया।
कुछ खादी के लिबास ने कुछ कांग्रस की सरगर्मियों में हिस्सा लेने के बाइ’स और कुछ हस्पताल की फ़िज़ा ने निगार की इस्लामी ख़ू को, उस तीखी चीज़ को जो मुसलमान औरत की फ़ित्रत में नुमायां होती है थोड़ा सा घुसा दिया था जिससे वो ज़रा मुलाइम हो गई थी।

वो हसीन नहीं थी लेकिन अपनी जगह निस्वानियत का एक निहायत ही दीदा-चश्म मुनफ़रिद नमूना था। इन्किसार, ता’ज़ीम और परस्तिश का वो मिला-जुला जज़्बा जो आदर्श हिंदू औरत का ख़ास्सा है निगार में उसकी ख़फ़ीफ़ सी आमेज़िश ने एक रूह परवर रंग पैदा कर दिया था। उस वक़्त तो शायद ये कभी मेरे ज़ेहन में न आता। मगर ये लिखते वक़्त मैं निगार का तसव्वुर करता हूँ तो वो मुझे नमाज़ और आरती का दिलफ़रेब मजमूआ दिखाई देती है।
शहज़ादा ग़ुलाम अली की वो परस्तिश करती थी और वो भी उस पर दिल-ओ-जान से फ़िदा था। जब निगार के बारे में उससे गुफ़्तुगू हुई तो पता चला कि कांग्रेस तहरीक के दौरान में उन दोनों की मुलाक़ात हुई और थोड़े ही दिनों के मिलाप से वो एक दूसरे के हो गए।

ग़ुलाम अली का इरादा था कि क़ैद होने से पहले पहले वो निगार को अपनी बीवी बना ले। मुझे याद नहीं कि वो ऐसा क्यों करना चाहता था क्योंकि क़ैद से वापस आने पर भी वो उससे शादी कर सकता था। उन दिनों कोई इतनी लंबी क़ैद तो होती नहीं थी। कम से कम तीन महीने और ज़्यादा से ज़्यादा एक बरस। बा’ज़ों को तो पंद्रह-बीस रोज़ के बाद ही रिहा कर दिया जाता था ताकि दूसरे क़ैदियों के लिए जगह बन जाये। बहरहाल वो इस इरादे को निगार पर भी ज़ाहिर कर चुका था और वो बिल्कुल तैयार थी। अब सिर्फ़ दोनों को बाबा जी के पास जा कर उनका आशीर्वाद लेना था।
बाबा जी जैसा कि आप जानते होंगे बहुत ज़बरदस्त हस्ती थी। शहर से बाहर लखपती सर्राफ हरी राम की शानदारी कोठी में वो ठहरे हुए थे। यूं तो वो अक्सर अपने आश्रम में रहते जो उन्होंने पास के एक गांव में बना रखा था, मगर जब कभी अमृतसर आते तो हरी राम सर्राफ ही की कोठी में उतरते और उनके आते ही ये कोठी बाबा जी के शैदाइयों के लिए मुक़द्दस जगह बन जाती।

सारा दिन दर्शन करने वालों का तांता बंधा रहता। दिन ढले वो कोठी से बाहर कुछ फ़ासले पर आम के पेड़ों के झुंड में एक चोबी तख़्त पर बैठ कर लोगों को आम दर्शन देते, अपने आश्रम के लिए चंदा इकट्ठा करते। आख़िर में भजन वग़ैरा सुन कर हर रोज़ शाम को ये जलसा उनके हुक्म से बर्ख़ास्त हो जाता।
बाबा जी बहुत परहेज़गार, ख़ुदातरस, आ’लिम और ज़हीन आदमी थे। यही वजह है कि हिंदू, मुसलमान, सिख और अछूत सब उनके गर्वीदा थे और उन्हें अपना इमाम मानते थे।

सियासत से गो बाबाजी को बज़ाहिर कोई दिलचस्पी नहीं थी मगर ये एक खुला हुआ राज़ है कि पंजाब की हर सियासी तहरीक उन्ही के इशारे पर शुरू हुई और उन्ही के इशारे पर ख़त्म हुई।
गर्वनमेंट की निगाहों में वो एक उक़्दा-ए-ला-यनहल थे, एक सियासी चीसतां जिसे सरकार-ए-आलिया के बड़े बड़े मुदब्बिर भी न हल कर सकते थे। बाबा जी के पतले पतले होंटों की एक हल्की सी मुस्कुराहट के हज़ार मा’नी निकाले जाते थे मगर जब वो ख़ुद इस मुस्कुराहट का बिल्कुल ही नया मतलब वाज़ेह करते तो मरऊ’ब अ’वाम और ज़्यादा मरऊ’ब हो जाते।

ये जो अमृतसर में सिविल नाफ़रमानी की तहरीक जारी थी और लोग धड़ा धड़ क़ैद हो रहे थे। इसके अ’क़्ब में जैसा कि ज़ाहिर है बाबा जी ही का असर कारफ़रमा था। हर शाम लोगों को आम दर्शन देते वक़्त वो सारे पंजाब की तहरीक-ए-आज़ादी और गर्वनमेंट की नित नई सख़्तगीरियों के मुतअ’ल्लिक़ अपने पोपले मुँह से एक छोटा सा... एक मासूम सा जुमला निकाल दिया करते थे, जिसे फ़ौरन ही बड़े बड़े लीडर अपने गले में तावीज़ बना कर डाल लेते थे।
लोगों का बयान है कि उनकी आँखों में एक मक़नातीसी क़ुव्वत थी, उनकी आवाज़ में एक जादू था और उनका ठंडा दिमाग़... उनका वो मुस्कुराता होता दिमाग़ जिसको गंदी से गंदी गाली और ज़हरीली से ज़हरीली तन्ज़ भी एक लहज़े के हज़ारवें हिस्से के लिए बरहम नहीं कर सकती थी। हरीफ़ों के लिए बहुत ही उलझन का बाइ’स था।

अमृतसर में बाबा जी के सैंकड़ों जुलूस निकल चुके थे मगर जाने क्या बात है कि मैंने और तमाम लीडरों को देखा। एक सिर्फ़ उन ही को मैंने दूर से देखा न नज़दीक से। इसीलिए जब ग़ुलाम अली ने मुझसे उनके दर्शन करने और उनसे शादी की इजाज़त लेने के मुतअ’ल्लिक़ बातचीत की तो मैंने उस से कहा कि जब वो दोनों जाएं तो मुझे भी साथ लेते जाएं।
दूसरे ही रोज़ ग़ुलाम अली ने तांगे का इंतिज़ाम किया और हम सुबह सवेरे लाला हरी राम सर्राफ़ की आलीशान कोठी में पहुंच गए।

बाबा जी ग़ुसल और सुबह की दुआ से फ़ारिग़ हो कर एक ख़ूबसूरत पंडितानी से क़ौमी गीत सुन रहे थे। चीनी की बेदाग़ सफ़ेद टाइलों वाले फ़र्श पर आप खजूर के पत्तों की चटाई पर बैठे थे। गाव तकिया उनके पास ही पड़ा था, मगर उन्होंने उसका सहारा नहीं लिया था।
कमरे में सिवाए एक चटाई के जिसके ऊपर बाबा जी बैठे थे और फ़र्नीचर वग़ैरा नहीं था। एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक सफ़ेद टायलें चमक रही थीं। उनकी चमक ने क़ौमी गीत गाने वाली पंडितानी के हल्के पियाज़ी चेहरे को और भी ज़्यादा हसीन बना दिया था।

बाबा जी गो सत्तर बेहत्तर बरस के बुढढे थे मगर उनका जिस्म (वो सिर्फ़ गेरुवे रंग का छोटा सा तहमद बांधे थे) उम्र की झुर्रियों से बेनियाज़ था। जिल्द में एक अ’जीब क़िस्म की मलाहत थी। मुझे बाद में मालूम हुआ कि वो हर रोज़ अश्नान से पहले रोगन ज़ैतून अपने जिस्म पर मलवाते हैं।
शहज़ादा ग़ुलाम अली की तरफ़ देख कर वह मुस्कुराए, मुझे भी एक नज़र देखा और हम तीनों की बंदगी का जवाब उसी मुस्कुराहट को ज़रा तवील करके दिया और इशारा किया कि हम बैठ जाएं।

मैं अब ये तस्वीर अपने सामने लाता हूँ तो शऊर की ऐनक से ये मुझे दिलचस्प होने के इलावा बहुत ही फ़िक्रख़ेज़ दिखाई देती है। खजूर की चटाई पर एक नीम बरहना मुअ’म्मर जोगियों का आसन लगाए बैठा है। उसकी बैठक है, उसके गंजे सर से, उसकी अधखुली आँखों से, उसके साँवले मुलाइम जिस्म से, उसके चेहरे के हर ख़त से एक पुरसुकून इत्मिनान, एक बेफ़िक्र तयक़्क़ुन मुतरश्शेह था कि जिस मुक़ाम पर दुनिया ने उसे बिठा दिया है। अब बड़े से बड़ा ज़लज़ला भी उसे वहां से नहीं गिरा सकता।
उससे कुछ दूर वादी-ए-कश्मीर की एक नौख़ेज़ कली, झुकी हुई, कुछ उस बुज़ुर्ग की क़ुरबत के एहतिराम से, कुछ क़ौमी गीत के असर से कुछ अपनी शदीद जवानी से जो उसकी खुरदुरी सफ़ेद साड़ी से निकल कर क़ौमी गीत के इलावा अपनी जवानी का गीत भी गाना चाहती थी, जो उस बुज़ुर्ग की क़ुरबत का एहतराम करने के साथ साथ किसी ऐसी तंदुरुस्त और जवान हस्ती की भी ता’ज़ीम करने की ख़्वाहिशमंद थी जो उसकी नर्म कलाई पकड़ कर ज़िंदगी के दहकते हुए अलाव में कूद पड़े।

उसके हल्के प्याज़ी चेहरे से, उसकी बड़ी बड़ी स्याह मुतहर्रिक आँखों से, उसके खादी के खुरदरे ब्लाउज़ में ढके हुए मुतलातिम सीने से, उस मुअम्मर जोगी के ठोस तयक़्क़ुन और संगीन इत्मिनान के तक़ाबुल में एक ख़ामोश सदा थी कि आओ, जिस मुक़ाम पर मैं इस वक़्त हूँ, वहां से खींच कर मुझे या तो नीचे गिरा दो या इससे भी ऊपर ले जाओ।
उस तरफ़ हट कर हम तीन बैठे थे। मैं, निगार और शहज़ादा ग़ुलाम अली... मैं बिल्कुल चुग़द बना बैठा था। बाबा जी की शख़्सियत से भी मुतास्सिर था और इस पंडितानी के बेदाग हुस्न से भी। फ़र्श की चमकीली टाइलों ने भी मुझे मरऊ’ब किया था। कभी सोचता था कि ऐसी टाइलों वाली एक कोठी मुझे मिल जाये तो कितना अच्छा हो। फिर सोचता था कि ये पंडितानी मुझे और कुछ न करने दे, एक सिर्फ़ मुझे अपनी आँखें चूम लेने दे।

उसके तसव्वुर से बदन में थरथरी पैदा होती तो झट अपनी नौकरानी का ख़याल आता जिससे ताज़ा ताज़ा मुझे कुछ वो हुआ था। जी में आता कि इन सब को, यहां छोड़कर सीधा घर जाऊं... शायद नज़र बचा कर उसे ऊपर ग़ुसलख़ाने तक ले जाने में कामयाब हो सकूं, मगर जब बाबा जी पर नज़र पड़ती और कानों में क़ौमी गीत के पुरजोश अल्फ़ाज़ गूंजते तो एक दूसरी थरथरी बदन में पैदा होती और मैं सोचता कि कहीं से पिस्तौल हाथ आजाए तो सिविल लाईन में जा कर अंग्रेज़ों को मारना शुरू कर दूँ।
इस चुग़द के पास निगार और ग़ुलाम अली बैठे थे। दो मोहब्बत करने वाले दिल, जो तन्हा मोहब्बत में धड़कते धड़कते अब शायद कुछ उकता गए थे और जल्दी एक दूसरे में मोहब्बत के दूसरे रंग देखने के लिए मुदग़म होना चाहते थे। दूसरे अल्फ़ाज़ में वो बाबा जी से, अपने मुसल्लिमा सियासी रहनुमा से शादी की इजाज़त लेने आए थे और जैसा कि ज़ाहिर है उन दोनों के दिमाग़ में उस वक़्त क़ौमी गीत के बजाय उनकी अपनी ज़िंदगी का हसीनतरीन मगर अनसुना नग़्मा गूंज रहा था।

गीत ख़त्म हुआ। बाबा जी ने बड़े मुशफ़िक़ाना अंदाज़ से पंडितानी को हाथ के इशारे से आशीर्वाद दिया और मुस्कुराते हुए निगार और ग़ुलाम अली की तरफ़ मुतवज्जा हुए। मुझे भी उन्होंने एक नज़र देख लिया।
ग़ुलाम अली शायद तआ’रुफ़ के लिए अपना और निगार का नाम बताने वाला था मगर बाबा जी का हाफ़िज़ा बला का था। उन्होंने फ़ौरन ही अपनी मीठी आवाज़ में कहा, “शहज़ादे अभी तक तुम गिरफ़्तार नहीं हुए?”

ग़ुलाम अली ने हाथ जोड़ कर कहा, “जी नहीं।”
बाबा जी ने क़लमदान से एक पेंसिल निकाली और उससे खेलते हुए कहने लगे, “मगर मैं तो समझता हूँ, तुम गिरफ़्तार हो चुके हो।”

ग़ुलाम अली इसका मतलब न समझ सका। लेकिन बाबा जी ने फ़ौरन ही पंडितानी की तरफ़ देखा और निगार की तरफ़ इशारा करके कहा, “निगार ने हमारे शहज़ादे को गिरफ़्तार कर लिया है।”
निगार मह्जूब सी हो गई। ग़ुलाम अली का मुँह फरत-ए-हैरत से खुला का खुला रह गया और पंडितानी के प्याज़ी चेहरे पर एक दुआइया चमक सी आई। उसने निगार और ग़ुलाम अली को कुछ इस तरह देखा जैसे ये कह रही है, “बहुत अच्छा हुआ।”

बाबा जी एक बार फिर पंडितानी की तरफ़ मुतवज्जा हुए, “ये बच्चे मुझसे शादी की इजाज़त लेने आए हैं... तुम कब शादी कर रही हो कमल?”
तो उस पंडितानी का नाम कमल था। बाबा जी के अचानक सवाल से वो बौखला गई। उसका प्याज़ी चेहरा सुर्ख़ हो गया। काँपती हुई आवाज़ में उसने जवाब दिया, “मैं तो आपके आश्रम में जा रही हूँ।”

एक हल्की सी आह भी उन अल्फ़ाज़ में लिपट कर बाहर आई, जिसे बाबा जी के होशियार दिमाग़ ने फ़ौरन नोट किया। वो उसकी तरफ़ देख कर जोगियाना अंदाज़ में मुस्कुराए और ग़ुलाम अली और निगार से मुख़ातिब हो कर कहने लगे, “तो तुम दोनों फ़ैसला कर चुके हो।”
दोनों ने दबी ज़बान में जवाब दिया, “जी हाँ।”

बाबा जी ने अपनी सियासत भरी आँखों से उनको देखा, “इंसान जब फ़ैसले करता है तो कभी कभी उनको तबदील कर दिया करता है।”
पहली दफ़ा बाबा जी की बारोब मौजूदगी में ग़ुलाम अली ने उन्हें उसकी अल्हड़ और बेबाक जवानी ने कहा, “ये फ़ैसला अगर किसी वजह से तबदील हो जाये तो भी अपनी जगह पर अटल रहेगा।”

बाबा जी ने आँखें बंद करलीं और जिरह के अंदाज़ में पूछा, “क्यों?”
हैरत है कि ग़ुलाम अली बिल्कुल न घबराया। शायद इस दफ़ा निगार से जो उसे पुरख़ुलूस मोहब्बत थी वो बोल उठी, “बाबा जी हमने हिंदुस्तान को आज़ादी दिलाने का जो फ़ैसला किया है, वक़्त की मजबूरियां उसे तबदील करती रहीं। मगर जो फ़ैसला है वो तो अटल है।”

बाबा जी ने जैसा कि मेरा अब ख़याल है कि इस मौज़ू पर बहस करना मुनासिब ख़याल न किया चुनांचे वो मुस्कुरा दिए.. उस मुस्कुराहट का मतलब भी उनकी तमाम मुस्कुराहटों की तरह हर शख़्स ने बिल्कुल अलग अलग समझा। अगर बाबा जी से पूछा जाता तो मुझे यक़ीन है कि वो इसका मतलब हम सबसे बिल्कुल मुख़्तलिफ़ बयान करते।
ख़ैर... इस हज़ार पहलू मुस्कुराहट को अपने पतले होंटों पर ज़रा और फैलाते हुए उन्होंने निगार से कहा, “निगार तुम हमारे आश्रम में आ जाओ... शहज़ादा तो थोड़े दिनों में क़ैद हो जाएगा।”

निगार ने बड़े धीमे लहजे में जवाब, “जी अच्छा।”
इसके बाद बाबा जी ने शादी का मौज़ू बदल कर जलियांवाला बाग़ कैंप की सरगर्मियों का हाल पूछना शुरू कर दिया। बहुत देर तक ग़ुलाम अली, निगार और कमल गिरफ़्तारियों, रिहाइयों, दूध, लस्सी और तरकारियों के मुतअ’ल्लिक़ बातें करते रहे और जो मैं बिल्कुल चुग़द बना बैठा था। ये सोच रहा था कि बाबा जी ने शादी की इजाज़त देने में क्यों इतनी मीन-मेख़ की है। क्या वो ग़ुलाम अली और निगार की मोहब्बत को शक की नज़रों से देखते हैं? क्या उन्हें ग़ुलाम अली के ख़ुलूस पर शुबहा है?

निगार को उन्हों ने क्या आश्रम में आने की इसलिए दा’वत दी कि वहां रह कर वो अपने क़ैद होने वाले शौहर का ग़म भूल जाएगी? लेकिन बाबा जी के इस सवाल पर “कमल तुम कब शादी कर रही हो।” कमल ने क्यों कहा था कि मैं तो आपके आश्रम में जा रही हूँ?
आश्रम में क्या मर्द-औरत शादी नहीं करते? मेरा ज़ेहन अ’जब मख़मसे में गिरफ़्तार था। मगर इधर ये गुफ़्तुगू हो रही थी कि लेडी वालंटियर्ज़ क्या पाँच सौ रज़ाकारों के लिए चपातियां वक़्त पर तैयार कर लेती हैं? चूल्हे कितने हैं और तवे कितने बड़े हैं? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि एक बहुत बड़ा चूल्हा बना लिया जाये और उस पर इतना बड़ा तवा रखा जाये कि छः औरतें एक ही वक़्त में रोटियां पका सकें?

मैं ये सोच रहा था कि पंडितानी कमल क्या आश्रम में जा कर बाबाजी को बस क़ौमी गीत और भजन ही सुनाया करेगी। मैंने आश्रम के मर्द वालंटियर देखे थे। गो वो सबके सब वहां के क़वाइद के मुताबिक़ हर रोज़ अश्नान करते थे, सुबह उठकर दांतुन करते थे, बाहर खुली हवा में रहते थे। भजन गाते थे। मगर उनके कपड़ों से पसीने की बू फिर भी आती थी, उनमें अक्सर के दाँत बदबूदार थे और वो जो खुली फ़िज़ा में रहने से इंसान पर एक हश्शाश-बश्शाश निखार आता है, उनमें बिल्कुल मफ़क़ूद था।
झुके झुके से, दबे दबे से... ज़र्द चेहरे, धंसी हुई आँखें, मरऊ’ब जिस्म... गाय के निचुड़े हुए थनों की तरह बेहिस और बेजान... मैं इन आश्रम वालों को जलियांवाला बाग़ में कई बार देख चुका था। अब मैं ये सोच रहा था कि क्या यही मर्द जिनसे घास की बू आती है, इस पंडितानी को जो दूध, शहद और ज़ाफ़रान की बनी है, अपनी कीचड़ भरी आँखों से घूरेंगे। क्या यही मर्द जिनका मुँह इस क़दर मुतअ’फ़्फ़िन होता है, इस लोबान की महक में लिपटी हुई औरत से गुफ़्तुगू करेंगे?

लेकिन फिर मैंने सोचा कि नहीं हिंदुस्तान की आज़ादी शायद इन चीज़ों से बालातर है। मैं इन शायद को अपनी तमाम हुब्बुलवतनी और जज़्बा-ए-आज़ादी के बावजूद न समझ सका क्योंकि मुझे निगार का ख़याल आया जो बिल्कुल मेरे क़रीब बैठी थी और बाबा जी को बता रही थी कि शलजम बहुत देर में गलते हैं... कहाँ शलजम और कहाँ शादी जिसके लिए वो और ग़ुलाम अली इजाज़त लेने आए थे।
मैं निगार और आश्रम के मुतअ’ल्लिक़ सोचने लगा। आश्रम मैंने देखा नहीं था। मगर मुझे ऐसी जगहों से जिनको आश्रम, विद्याला, जमातख़ाना, तकिया, या दर्सगाह कहा जाये हमेशा से नफ़रत है। जाने क्यों?

मैंने कई अंध विद्यालों और अनाथ आश्रमों के लड़कों और उनके मुंतिज़मों को देखा है। सड़क में क़तार बांध कर चलते और भीक मांगते हुए। मैंने जमात ख़ाने और दर्सगाहें देखी हैं। टखनों से ऊंचा शरई पाएजामा, बचपन ही में माथे पर महराब, जो बड़े हैं उनके चेहरे पर घनी दाढ़ी... जो नौख़ेज़ हैं उनके गालों और ठुड्डी पर निहायत ही बदनुमा मोटे और महीन बाल... नमाज़ पढ़ते जा रहे हैं लेकिन हर एक के चेहरे पर हैवानियत... एक अधूरी हैवानियत मुसल्ले पर बैठी नज़र आती है।
निगार औरत थी। मुसलमान, हिंदू, सिख या ईसाई औरत नहीं... वो सिर्फ़ औरत थी, नहीं औरत की दुआ थी जो अपने चाहने वाले के लिए या जिसे वो ख़ुद चाहती है सिदक़-ए-दिल से मांगती है।

मेरी समझ में नहीं आता था कि ये बाबा जी के आश्रम में जहां हर रोज़ क़वाइद के मुताबिक़ दुआ मांगी जाती है। ये औरत जो ख़ुद एक दुआ है। कैसे अपने हाथ उठा सकेगी।
मैं अब सोचता हूँ तो बाबाजी, निगार, ग़ुलाम अली, वो ख़ूबसूरत पंडितानी और अमृतसर की सारी फ़िज़ा जो तहरीक-ए-आज़ादी के रुमान आफ़रीन कैफ़ में लिपटी हुई थी, एक ख़्वाब सा मालूम होता है। ऐसा ख़्वाब जो एक बार देखने के बाद जी चाहता है आदमी फिर देखे।

बाबा जी का आश्रम मैंने अब भी नहीं देखा मगर जो नफ़रत मुझे इससे पहले थी अब भी है।
वो जगह जहां फ़ित्रत के ख़िलाफ़ उसूल बना कर इंसानों को एक लकीर पर चलाया जाये मेरी नज़रों में कोई वक़अ’त नहीं रखती। आज़ादी हासिल करना बिल्कुल ठीक है! इसके हुसूल के लिए आदमी मर जाये, मैं इसको समझ सकता हूँ, लेकिन इसके लिए अगर उस ग़रीब को तरकारी की तरह ठंडा और बेज़रर बना दिया जाये तो यही मेरी समझ से बिल्कुल बालातर है।

झोंपड़ों में रहना, तन आसानियों से परहेज़ करना, ख़ुदा की हम्द गाना, क़ौमी नारे मारना... ये सब ठीक है मगर ये क्या कि इंसान की उस हिस्स को जिसे तलब-ए-हुस्न कहते हैं आहिस्ता आहिस्ता मुर्दा कर दिया जाये। वो इंसान क्या जिसमें ख़ूबसूरत और हंगामों की तड़प न रहे। ऐसे आश्रमों, मदरसों, विद्यालों और मूलियों के खेत में क्या फ़र्क़ है।
देर तक बाबा जी, ग़ुलाम अली और निगार से जलियांवाला बाग़ की जुमला सरगर्मियों के मुतअ’ल्लिक़ गुफ़्तुगू करते रहे। आख़िर में उन्होंने उस जोड़े को जो कि ज़ाहिर है कि अपने आने का मक़सद भूल नहीं गया था। कहा कि वो दूसरे रोज़ शाम को जलियांवाला बाग़ आयेंगे और उन दोनों को मियां-बीवी बना देंगे।

ग़ुलाम अली और निगार बहुत ख़ुश हुए। इससे बढ़ कर उनकी ख़ुशनसीबी और क्या हो सकती थी कि बाबा जी ख़ुद शादी की रस्म अदा करेंगे। ग़ुलाम अली जैसा कि उसने मुझे बहुत बाद में बताया, इस क़दर ख़ुश हुआ था कि फ़ौरन ही उसे इस बात का एहसास होने लगा था कि शायद जो कुछ उसने सुना है ग़लत है। क्योंकि बाबा जी के मुनहनी हाथों की ख़फ़ीफ़ सी जुंबिश भी एक तारीख़ी हादिसा बन जाती थी।
इतनी बड़ी हस्ती एक मामूली आदमी की ख़ातिर जो महज़ इत्तिफ़ाक़ से कांग्रेस का डिक्टेटर बन गया है। चल के जलियांवाला बाग़ जाये और उसकी शादी में दिलचस्पी ले। ये हिंदुस्तान के तमाम अख़बारों के पहले सफ़े की जली सुर्ख़ी थी।

ग़ुलाम अली का ख़याल था बाबा जी नहीं आयेंगे क्योंकि वो बहुत मसरूफ़ आदमी हैं लेकिन उसका ये ख़याल जिसका इज़हार दरअसल उसने नफ़्सियाती नुक़्त-ए-निगाह से सिर्फ़ इसलिए किया था कि वो ज़रूर आएं, उसकी ख़्वाहिश के मुताबिक़ ग़लत साबित हुआ।
शाम के छः बजे जलियांवाला बाग़ में जब रात की रानी की झाड़ियां अपनी ख़ुशबू के झोंके फैलाने की तैयारियां कर रही थीं और मुतअद्दिद रज़ाकार दूल्हा-दुल्हन के लिए एक छोटा तंबू नस्ब करके उसे चमेली, गेंदे और गुलाब के फूलों से सजा रहे थे। बाबा जी उस क़ौमी गीत गाने वाली पंडितानी, अपने सेक्रेटरी और लाला हरी राम सर्राफ के हमराह लाठी टेकते हुए आए। उसकी आमद की इत्तिला जलियांवाला बाग़ में सिर्फ़ उसी वक़्त पहुंची, जब सदर दरवाज़े पर लाला हरी राम की हरी मोटर रुकी।

मैं भी वहीं था। लेडी वालंटियर्ज़ एक दूसरे तंबू में निगार को दुल्हन बना रही थीं। ग़ुलाम अली ने कोई ख़ास एहतिमाम नहीं किया था। सारा दिन वो शहर के कांग्रेसी बनियों से रज़ाकारों के खाने पीने की ज़रूरियात के मुतअ’ल्लिक़ गुफ़्तुगू करता रहा था। इससे फ़ारिग़ हो कर उसने चंद लम्हात के लिए निगार से तख़लिए में कुछ बातचीत की थी। इसके बाद जैसा कि मैं जानता हूँ, उसने अपने मातहत अफ़िसरों से सिर्फ़ इतना कहा था कि शादी की रस्म अदा होने के साथ ही वो और निगार दोनों झंडा ऊंचा करेंगे।
जब ग़ुलाम अली को बाबा जी की आमद की इत्तिला पहुंची तो वो कुंए के पास खड़ा था। मैं ग़ालिबन उससे ये कह रहा था, “ग़ुलाम अली तुम जानते हो ये कुँआं, जब गोली चलती थी लाशों से लबालब भर गया था... आज सब इसका पानी पीते हैं... इस बाग़ के जितने फूल हैं, इसके पानी ने सींचे हैं। मगर लोग आते हैं और इन्हें तोड़ कर ले जाते हैं... पानी के किसी घूँट में लहू का नमक नहीं होता। फूल की किसी पत्ती में ख़ून की लाली नहीं होती... ये क्या बात है?”

मुझे अच्छी तरह याद है मैंने ये कह कर अपने सामने, उस मकान की खिड़की की तरफ़ देखा जिसमें कहा जाता है कि एक नौ उम्र लड़की बैठी तमाशा देख रही थी और जनरल डायर की गोली का निशाना बन गई थी। उसके सीने से निकले हुए ख़ून की लकीर चूने की उम्र रसीदा दीवार पर धुँदली हो रही थी।
अब ख़ून कुछ इस क़दर अर्ज़ां हो गया कि उसके बहने-बहाने का वो असर ही नहीं होता। मुझे याद है कि जलियांवाला बाग़ के ख़ूनीं हादिसे के छः-सात महीने बाद जब मैं तीसरी या चौथी जमा’त में पढ़ता था, हमारा मास्टर सारी क्लास को एक दफ़ा इस बाग़ में ले गया। उस वक़्त ये बाग़ बाग़ नहीं था। उजाड़, सुनसान और ऊंची नीची ख़ुश्क ज़मीन का एक टुकड़ा था जिसमें हर क़दम पर मिट्टी के छोटे बड़े ढेले ठोकरें खाते थे। मुझे याद है मिट्टी का एक छोटा सा ढेला जिस पर जाने पान की पीक के धब्बे या क्या था, हमारे मास्टर ने उठा लिया था और हमसे कहा था, देखो इस पर अभी तक हमारे शहीदों का ख़ून लग

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