जिला-वतन

सुंदर लाला। सजे दुलाला। नाचे सिरी हरी कीर्तन में...
नाचे सिरी हरी कीर्तन में...

नाचे...
चौखट पर उकड़ूँ बैठी राम-रखी निहायत इनहिमाक से चावल साफ़ कर रही थी। उसके गाने की आवाज़ देर तक नीचे ग़मों वाली सुनसान गली में गूँजा की। फिर डॉक्टर आफ़ताब राय सद्र-ए-आ'ला के चबूतरे की ओर से बड़े फाटक की सिम्त आते दिखलाई पड़े।

“बंदगी भय्यन साहिब…”, राम-रखी ने घूँघट और ज़ियादा तवील करके आवाज़ लगाई।
“बंदगी... बंदगी…”, डॉक्टर आफ़ताब राय ने ज़ीने पर पहुँचते हुए बे-ख़याली से जवाब दिया।

“राजी-खुसी हो भय्यन साहिब…”, राम-रखी ने अख़लाक़न दरियाफ़्त किया।
“और क्या... मुझे क्या हुआ है जो राज़ी-ख़ुशी न हूँगा। ये सूप हटा बीच में से”, उन्होंने झुँझला कर कहा।

“भय्यन साहिब नाज फटक रही थी।”
“तो नाज फटकने के लिए तुझे गाड़ी भर रास्ता चाहिए। चल हटा सब चीज़...”

डॉक्टर आफ़ताब राय ने दुनिया-भर की डिग्रियाँ तो ले डाली थीं। लेकिन हालत ये थी कि ज़री-ज़री सी बात पर बच्चों की तरह ख़फ़ा हो जाया करते थे। राम-रखी पर बरसते हुए वो ऊपर आए और मूँढे पर पैर टिका कर उन्होंने अपनी बहन को आवाज़ दी... जीजी... जी-ई-ई... जी-ई-ई-ई... (छोरा है अब तलक मोरा भय्यन... हेम-किरन प्यार से कहा करतीं)
दालान के आगे खुली छत पर नीम की डालियाँ मुंडेर पर झुकी पछुवा हवा में सरसरा रही थीं। शाम की गहरी कैफ़ीयत मौसम की उदासी के साथ-साथ सारे में बिखरी थी। दिन-भर नीचे महुवा के बाग़ में शहद की मक्खियाँ भिनभिनाया करतीं। और हर चीज़ पर ग़ुनूदगी ऐसी छाई रहती। आम अब पीले हो चले थे। “ठकुराइन बगिया” में सुब्ह से लेकर रात गए तक रूँ-रूँ करता रहट चला करता।

“आवत हिन भय्यन साहिब...” हेम-किरन ने दालान का पीतल के नक़्श-ओ-निगार वाला किवाड़ खोलते हुए ग़ल्ले के गोदाम में से बाहर आकर जवाब दिया। और कुंजियों का गुच्छा सारी के पल्लू में बाँध कर छन से पुश्त पर फेंकती हुई सहंची में आ गईं।
“जय राम जी की भय्यन साहिब…”, रसोइये, ने चौके में से आवाज़ लगाई... “कटहल की तरकारी खइयो भय्यन साहिब...?”

“हाँ। हाँ ज़रूर खेबा भाई…”, डॉक्टर आफ़ताब राय मूँढे पर से हट कर टहलते हुए तुलसी के चबूतरे के पास आ गए।
सहंची में रंग-बिरंगी मूर्तियाँ और गोल पत्थर सालग-राम से लेकर बजरंग बली महराज तक सेंदूर से लिपी-पुती और गंगाजल से नहाई धोई क़रीने से सजी थीं। हेम-किरन थीं तो बड़ी सख़्त राम भगत, लेकिन बाक़ी के सभी देवी देवताओं से समझौता रखती थीं कि न जाने कौन किस समय आड़े आ जाए। सबसे बनाए रखनी चाहिए। अभी सरीन रमाकांत खेल के मैदान से लौटेंगे।

आठ बजे खेमा कत्थक के तोड़े सीख कर जमुना महराज के हाँ से वापिस आएगी। फिर चौके में खाना परोसा जाएगा। (पीतल के बर्तन ठंडी चाँदनी में झिलमिलाएँगे। नीचे आँगन में राम-रखी कोई कजरी शुरू’ कर देगी) यहाँ पर बिल-आख़िर अम्न था। और सुकून।
अब खेम नीचे पक्के गलियारे में से चलती हुई ऊपर आ रही थी। ठकुराइन की बगिया में से अभी उसने कर वंदे और कमरखें और मकवा तोड़ कर जल्दी-जल्दी मुँह में ठूँसे थे। धाकर दाधी नाकत ता... धाकर दा... अरे बाप रे! उसने मुंडेर पर से ऊपर झाँक कर दमयंती से कहा…, “मामा आए हैं। भाग जा वर्ना मामा मुझे मारेंगे कि हर समय खेलती है।” दमयंती भाग गई।

खेम छत पर आई। लंबे से ढीले ढाले फ़्राक में मलबूस, जिस पर मोतियों से ख़ूब तितलियाँ और फूल-पत्ते बने थे, ख़ूब खींच कर बालों की मेंढियां गूँधे, हाथों में छन-छन चूड़ियाँ बजाती खेमवती राय-ज़ादा अपने इतने प्यारे और इतने सुंदर मामा को देखकर बेहद ख़ुश हुई।
“नमस्ते मामा...अभी किताबें लाती हूँ बस ज़रा मुँह हाथ धो आऊँ...”

“चल चुड़ैल... बहाने-बाज़... सबक़ सुना पहले…”, डॉक्टर आफ़ताब राय ने प्यार से कहा (लेकिन ये कुछ तजुर्बा उन्हें था कि अपने से कम-उ'म्र लोगों से और कुन्बे बिरादरी वालों से ये घर गृहस्ती और लाड प्यार के मकालमे वो ज़ियादा कामयाबी से अदा न कर पाते थे)
“तुझे तो मैं इंटरमीडियेट में भी हिसाब दिलाऊँगा। देखती जा…”

(उन्होंने फिर मामा बनने की सई की।)
“अरे बाप रे…”, खेम ने मस्नूई ख़ौफ़ का इज़हार किया

“और तू ने चूड़ियाँ तो बड़ी ख़ूबसूरत ख़रीदी हैं री...”
“ही ही ही... मामा..”, खेम ने दिली मसर्रत से अपनी चूड़ियों को देखा।

“और तूू सारी भी तो पहना कर कि फ़्राक ही पहने फिरेगी... बावली सी...” (उन्होंने अपनी बुजु़र्गी का एहसास ख़ुद अपने ऊपर तारी करना चाहा।)
“जी मामा…”, खेम के ज़हन में वो सारियाँ झमाझम करती कौंद गईं जो माँ के संदूक़ों में ठुँसी थीं। वो तो ख़ुदा से चाहती थी कि कल की पहनती आज ही वो सारियाँ पहन डाले। मगर हेम-किरन ही पर अंग्रेज़ियत सवार थी। एक तो वो ये नहीं भूली थीं कि थीं तो वो जौनपूर के उस ठेठ, दक़ियानूसी सरयू इस्तिवा घराने की बिटिया... पर उनका ब्याह हुआ था इलाहाबाद के इतने फ़ैशनेबुल कुन्बे में जिसके सारे अफ़राद सिविल लाईन्ज़ में रहते थे। और जूते पहने-पहने खाना खाते थे। और मुसलमानों के साथ बैठ कर चाय पानी पीते थे। और विधवा हुए उनको अब सात बरस होने को आए थे और तब से वो मैके ही में रहती थीं। लेकिन मुहल्ले पर उनका रौ'ब था। क्यों कि वो इलाहाबाद के राय-ज़ादों की बहू थीं...

दूसरे ये कि ये फ़्राक का फ़ैशन डॉक्टर सेन गुप्ता के हाँ से चला था। डॉक्टर सेन गुप्ता ज़िले के सिविल हस्पताल के अस्सिटैंट सर्जन थे। और हस्पताल से मुलहिक़ उनके पीले रंग के उजाड़ से मकान के सामने उनकी पाँचों बेटियाँ रंग-बिरंगे फ़्राक पहने दिन-भर ऊधम मचाया करतीं।
शाम होती तो आगे आगे डॉक्टर सेन गुप्ता धोती का पल्ला निहायत नफ़ासत से एक उँगली में सँभाले, ज़रा पीछे उनकी बीबी सुर्ख़ किनारे वाली सफ़ेद साड़ी पहने, फिर पाँचों की पाँचों लड़कियाँ सीधे-सीधे बाल कंधों पर बिखराए चली जा रही हैं, हवा-ख़ोरी करने। उफ़्फ़ोह। क्या ठिकाना था भला। बस हर बंगाली घराने में ये लड़कियों की फ़ौज देख लो।

हेम-किरन को डॉक्टर सेन गुप्ता से बड़ी हम-दर्दी थी। खेम की इन सबसे बहुत घुटती थी। ख़ुसूसन मोंदेरा से, और स्कूल के ड्रामे के दिनों में तो बस खेम और मोंदेरा ही सब पर छाई रहतीं। क्या-क्या ड्रामे महादेवी कन्या पाठशाला ने न कर डाले... ‘नल दमयंती’ और ‘शकुन्तला हरीशचंद्र’, और ‘राज रानी मेरा...’ और ऊपर से डांस अलग... गरबा भी हो रहा है कि आर तेरे गंगा पार जमुना बीच में ठाड़े हैं नंद लाल... और आपका ख़ुदा भला करे राधा कृष्णा डांस भी लीजिए कि मैं तो गिरधर आगे नाचूँगी।
जी हाँ और वो गगरी वाला नाच भी मौजूद है कि चलो-चलो सुखी सुखियारी री चलो पनघट भरवा पानी... और साथ-साथ मोंदेरा सेन गुप्ता है कि फ़र्राटे से हारमोनियम बजा रही है।

ऐसे होने को तो मुसलमानों का भी एक स्कूल था। अंजुमन इस्लाम गर्ल्ज़ स्कूल। वहाँ ये सब ठाठ कहाँ। बस बारह वफ़ात की बारह वफ़ात मीलाद शरीफ़ हो जाया करता। उसमें खड़े हो कर लड़कियों ने ख़ासी बे-सुरी आवाज़ों में पढ़ दिया, “तुम ही फ़ख़्र-ए-अंबिया हो । या-नबी सलाम अलेक... चलिए क़िस्सा ख़त्म” एक मर्तबा एक सर-फिरी हैड मिस्ट्रेस ने जो नई-नई लखनऊ से आई थी। ‘रूप मति बहादुर’ ख़वातीन के सालाना जलसे में सटे्ज करवा दिया तो जनाब-ए-आली लोगों ने स्कूल के फाटक पर पिक्टिंग कर डाली। और रोज़नामा सदा-ए-हक़ ने पहले सफ़्हे पर जली हुरूफ़ में शाया किया, “मिल्लत-ए-इस्लामिया की ग़ैरत का जनाज़ा-गर्ल्ज़ स्कूल के स्टेज पर निकल गया।
मुसलमानो तुमको ख़ुदा के आगे भी जवाब देना होगा - बिनात-ए-इस्लाम को रक़्स-ओ-सरोद की ता'लीम। स्कूल को बंद करो।

(ये सब क़िस्से खेम की मुसलमान सहेली किशोरी उसे सुनाया करती थी जो पड़ोस में रहती थी। सद्र-ए-आ'ला के चबूतरे के आगे वाले मकान में वो इस्लामिया गर्ल्ज़ स्कूल में पढ़ती थी। उसका बड़ा भाई असग़र अब्बास, सरीन और रमाकांत के साथ हाकी खेलने आया करता था। वैसे पढ़ते वो लोग भी अलग-अलग थे। सरीन और रमाकांत डी.ए.वी. कॉलेज में थे। असग़र अब्बास फ़ैज़ इस्लाम किंग जॉर्ज इंटर में।)
“क्यों री। एफ़.ए. करने कहाँ जाएगी। जुलाई आ रही है। बनारस जाएगी या लखनऊ...?” डॉक्टर आफ़ताब राय ने चौके में बैठते हुए सवाल किया।

अब ये एक ऐसा टेढ़ा और अचानक सवाल था जिसका जवाब देने के लिए खेमवती हरगिज़ तैयार न थी। दोनों जगहों से मुतअ'ल्लिक़ उसे काफ़ी इन्फ़र्मेशन हासिल थी। लेकिन दो टूक फ़ैसला वो फ़िलहाल किसी एक के हक़ में न कर सकती थी। बनारस में एक तो ये कि चूड़ियाँ बहुत उ'म्दा मिलती थीं। लेकिन लखनऊ को भी बहुत सी बातों में फ़ौक़ियत हासिल थी। मसलन सिनेमा थे। और दस सिनेमाओं का एक सिनेमा तो ख़ुद महिला विद्यालय था। जहाँ उसे भेजने का तज़किरा मामा ने किया था। पर्दा ग़ालिबन उसे बहर-सूरत हर जगह करना था। ताँगे पर पर्दा यहाँ भी हेम-किरन अपने और इसके लिए बँधवाती थीं। और मामा जो इतना बड़ा डंडा लिए सर पर थे।
ये मामा उसके आज तक पल्ले न पड़े। विलाएत से अन-गिनत डिग्रियाँ ले आए थे। यूनीवर्सिटी में प्रोफ़ैसरी करते थे। तारीख़ पर किताबें लिखते थे। फ़ारसी में शे'र कहते थे। चूँ-चूँ का मुरब्बा थे खेम मामा।

रहे रमाकांत और सरीन। तो रमाकांत तो शाइ'र आदमी था। सारे मक़ामी मुशाइरों में जाकर दो-ग़ज़ले सह-ग़ज़ले पढ़ डालता। और हज़रत नाशाद जौनपूरी के नाम-ए-नामी से याद किया जाता। सरीन उसके बर-अ'क्स बिल्कुल इंजीनियर था। इस साल वो भी इंटर कर के बनारस इंजीनियरिंग कॉलेज चला जाएगा। बाक़ी के सारे कुन्बे बिरादरी के बहन भाई यूँही बकवास थे। इस सिलसिले में उसकी गोइआँ किशोरी या'नी किशवर-आरा बेगम के बड़े ठाठ थे। उसके बे-शुमार रिश्ते के भाई थे और सब एक से एक सूरमा। यहाँ किसी के सूरमापने का सवाल ही पैदा न होता था। किसी ने आज तक उससे ये न कहा कि चल खेम तुझे सर्कस या नौटंकी ही दिखला दें... (नौटंकी के दिनों में रसोइया तक लहक-लहक कर गाता... अब यही है मैंने ठानी... लाऊँगा नौटंकी रानी…)
कहाँ किशोरी के माजिद भाई हैं तो उसके लिए लखनऊ से चूड़ियाँ लिए चले आते हैं। इकराम भाई हैं तो किशोरी उनके लिए झपाझप पुल-ओवर बन रही है। अशफ़ाक़ भाई हैं तो किशोरी को बैठे अंग्रेज़ी शाइ'री पढ़ा रहे हैं। उन भाइयों और खेम के भाइयों में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ था। कहाँ की चूड़ियाँ और पुल ओवर। यहाँ तो जूतियों में दाल बटती थी।

हेम-किरन को घर के काम-धंदों ही से फ़ुर्सत न मिलती। आफ़ताब राय उनके लिए बड़ा सहारा थे। वो हर तीसरे चौथे महीने लखनऊ से आकर मिल जाते। रहने वाले उनके भय्यन साहिब जौनपूर ही के थे। पर यहाँ उनकी किसी से मुलाक़ात न थी। ‘ज़िले के रसा और मक़ामी शहर’ में उनका शुमार था। पर आपका ख़याल अगर ये है कि डॉक्टर आफ़ताब राय जौनपूर के उन मोअ'ज़्ज़िज़ीन के साथ अपना वक़्त ख़राब करेंगे तो आप ग़लती पर हैं। हुक्काम से उनकी कभी न बनी। इंटेलेकचुवल आदमी थे। उन सिविल सर्विस और पुलिस वालों से क्या दिमाग़-सोज़ी करते।
जगननाथ जैन आई.सी.एस. जब नया-नया हाकिम-ए-ज़िला' हो कर आया तो उसने कई बार उनको क्लब में बुला भेजा। पर ये हरगिज़ न गए। रईस-उद्दीन काज़मी डिस्ट्रिक्ट ऐंड सैशन जज ने दावत की। उसमें भी न पहुँचे। और तो और विलाएत वापिस जाते वक़्त मिस्टर चार्ल्स मार्टिन ने कवी्न विक्टोरिया गर्वनमैंट इंटर कॉलेज की प्रिंसिपलशिप पेश की।

लेकिन खेम के मामा ने उसे भी रद्द कर दिया। यूँ तो ख़ैर कांग्रेसी होना कोई ख़ास बात नहीं। शहर और क़स्बा जात का हर हिंदू जो सरकारी मुलाज़िम न था घर पर तिरंगा लगाता था और हर मुसलमान के अपने दसियों मश्ग़ले थे। अहरार पार्टी थी, शीया कान्फ़्रैंस थी, डिस्ट्रिक्ट कांग्रेस कमेटी में मुसलमान भरे हुए थे। मुस्लिम लीग का तो ख़ैर उस वक़्त किसी ने नाम भी न सुना था, पर बहुत से मुसलमान अगर इंसाफ़ की पूछिए तो कुछ भी न थे, या शाइ'री करते थे। या मजलिसें थे।
तो कहने का मतलब ये कि कोई ऐसी तशवीश-नाक बात न थी। पर डॉक्टर आफ़ताब राय की ज़ियादा-तर लोगों से कभी न पटी। अरे साहिब यहाँ तक सुना गया है कि त्रिपुरा कांग्रेस के मौक़े पर उन्होंने सबको खरी-खरी सुना दी। गो ये रावी को याद नहीं कि उन्होंने क्या कहा था।

ज़िले’ की सोसाइटी जनाना सर पर मुश्तमिल थी। उन्हें से डॉक्टर आफ़ताब राय कोसों दूर भागते थे। वस्त शहर में महाजनों, साहूकारों और ज़मीन-दारों की ऊँची हवेलियाँ थीं। ये लोग सरकारी फंडों में हज़ारों रुपया चंदा देते। स्कूल खुलवाते, मुजरे और मुशायरे और दंगल करवाते। जलसे-जुलूस और सर-फुटव्वल भी उन्ही की ज़ेर-ए-सर-परस्ती मुनअ'क़िद होते। हिंदू-मुसलमानों का मुआ'शरा बिल्कुल एक सा था। वही तीज त्योहार। मैले-ठैले। मुहर्रम, राम-लीला, बाले मियाँ की बरात। फिर वही मुक़द्दमे-बाज़ियाँ। मुवक्किल,-गवाह, पेश-कार, सुमन, अदालतें, साहिब लोगों के लिए डालियाँ।
शहर के बाहर ज़िले’ का हस्पताल था। लक़-ओ-दक़ हरी घास के मैदानों में बिखरी हुई उदास पीले रंग की इमारतें। कच्चे अहाते। नीम के दरख़्तों की छाँड में आउट-डोर, मरीज़ों के हुजूम। गर्द-आलूद यक्कों के अड्डे। सड़क के किनारे बैठे हुए दो-दो आने में ख़त लिख कर देने वाले बहुत बूढ़े और शिकस्ता-हाल मुंशी जो धागों वाली ऐ'नकें लगाए धुँदली आँखों से राह-गीरों को देखते। फिर गलियाँ थीं जिनके ग़मों के फ़र्श पर पानी बहता था।

सियाही-माइल दीवारों पर कोयले से इश्तिहार लिखे थे। हकीम मा'र्का धागा ख़रीदिए। परी ब्रांड बैट्री पियो। एक पैसा बाप से लो... चाय जाकर माँ को दो... आ गया। आ गया। आ गया... साल-ए-रवाँ का सनसनी-ख़ेज़ फ़िल्म ‘राजा’ आ गया, जिसमें मिस माधुरी काम करती है।
फिर साया-दार सड़कों के परे आम और मौलसिरी में छिपी हुई हुक्काम ज़िले’ की बड़ी-बड़ी कोठियाँ थीं। अंग्रेज़ी कल्ब था। जिसमें बे-अंदाज़ा ख़ुनकी होती। चुप-चाप और साये की तरह चलते हुए मुअद्दब और शाइस्ता ‘बैरे’ अंग्रेज़ और काले साहिब लोगों के लिए ठंडे पानी की बोतलें और बर्फ़ की बालटियाँ लाकर घास पर रखते, नीले पर्दों की क़नातों के पीछे टेनिस की गेंदें सब्ज़े पर लुढ़कती रहतीं।

और सिवल लाईन्ज़ की इस दुनिया में ऊपर से आई कँवल कुमारी जैन जगननाथ जैन, आई.सी.एस. की बालों कटी बीवी जिसने लखनऊ के मशहूर अंग्रेज़ी कॉलेज इज़ाबिला थौबर्न में पढ़ा था और जो गेंद-बल्ला खेलती थी। कल्ब में बड़ी चहल-पहल हो गई।
गिनती की कुल तीन तो मेमें ही थीं कल्ब में। कवी्न विक्टोरिया गर्वनमैंट इंटर कॉलेज के अंग्रेज़ प्रिंसिपल की मैम एक। ज़नाना हस्पताल की बड़ी डाक्टरनी मैम मिस मिककंज़ी दो। और ए.पी. मिशन गर्ल्ज़ हाई स्कूल की बड़ी उस्तानी मिस सालफ़रड जूचुन चुनैया मैम कहलाती थी कि नौकरों पर चिल्लाती बहुत थी। इन तीन के अ'लावा डाक्टरनी मैम की छोटी बहन मिस औली मिककंज़ी थी। जो अपनी बहन से मिलने नैनीताल से आई हुई थी और ज़िले’ के ग़ैर शादी-शुदा हुक्काम के साथ टेनिस खेलना उसका ख़ास मशग़ला था और उसमें ऐसा कुछ उसका जी लगा था कि अब वापिस जाने का नाम न लेती थी।

शाम होते ही वो क्लब में आन मौजूद होती और वे मिस्टर सक्सेना और वे मिस्टर फ़रहत अ'ली। और वे मिस्टर पांडे। सभी तो उसके चारों तरफ़ खड़े दाँत नखो से हँस रहे हैं।
इस एक मिसया ने भाई लोगों को तिगुनी का नाच नचा रखा था। बाक़ी-मांदा हज़रात भी कहते थे कि मियाँ क्या मज़ाइक़ा है। जौनपूर ऐसी डल जगह पर मिस मिककंज़ी का दम ही ग़नीमत जानो। अब ग़ौर करने का मुक़ाम है कि मिस शबीरा हिमायत अ'ली जो दूसरी लेडी डॉक्टर थीं उनका तो नाम सुनकर ही जी बैठ जाता था। मगर वो ख़ुद बे-चारी बड़ी स्पोर्टिंग आदमी थीं। बराबर जी-दारी से टेनिस खेलने आया करतीं।

लखनऊ के किंग जार्ज की पढ़ी हुई थीं। लंदन जा कर एक ठो डिप्लोमा भी मार लाई थीं, लेकिन क्या मजाल जो कभी बद-दिमाग़ी दिखला जावें। लोग कहते थे साहिब बड़ी शरीफ़ डाक्टरनी है। बिल्कुल गाय समझिए, गाय। जी हाँ अब ये दूसरी बात है कि आप ये तवक़्क़ो' करें कि हर लेडी डॉक्टर अफ़्सानों और नावेलों की रिवायत के मुताबिक़ बिल्कुल हूर-शमाइल मह-वश परी-पैकर हो। अच्छी आदमी का बच्चा थीं। बल्कि एक मर्तबा तो डिस्ट्रिक्ट जज मिस्टर काज़मी की बेगम साहिब ने मिस्टर फ़रहत अ'ली से तजवीज़ भी की थी कि भैया आज़ादी का ज़माना है, मिस शबीरा ही से ब्याह कर लो। ये जो साल के साल छुट्टियों में तुम्हारी अम्माँ तुम्हें लड़कियाँ देखने के लिए नैनीताल-मसूरी भेजा करती हैं। इस दर्द-ए-सर से भी नजात मिलेगी और क्या।
रावी कहता है कि फ़रहत अ'ली ने जो उन दिनों बड़े मा'र्के का सपरिंटेंडेंट पुलिस लगा हुआ था। बेगम काज़मी के सामने कान पकड़ कर उठक-बैठक की थी। और थर-थर काँपा था। और दस्त-बस्ता यूँ गोया हुआ था कि आइंदा वो मिस शबीरा हिमायत से जो गुफ़्तगू करेगा । वो सिर्फ़ चार जुमलों पर मुश्तमिल होगी। आदाब अर्ज़। आप अच्छी तरह से हैं? जी हाँ में बिल्कुल अच्छी तरह हूँ। शुक्रिया, अर्ज़।

मुसीबत ये थी कि जहाँ किसी शामत के मारे ने किसी ग़ैर मुंसलिक ख़ातून मोहतरम से सोशल गुफ़्तगू के दौरान मैं इन चार जुमलों से तजावुज़ किया तो बस समझ लीजिए एक्टीविटी हो गई।
तो ग़रज़ ये कि रावी दरिया को यूँ कूज़े में बंद करता है कि कँवल कुमारी के मियाँ का तक़र्रुर उस जगह पर हुआ (अंग्रेज़ हाकिमों की इस्तिलाह में सूबे का ज़िला' स्टेशन कहलाता था) और नए हाकिम ज़िले’ के ए'ज़ाज़ में कँवर निरंजन दास रईस-ए-आ'ज़म जौनपूर ने (कि ये सारा का सारा एक नाम था) अपने बाग़ में बड़ी धूम की दावत की। चबूतरे पर ज़र-तार शामियाना ताना गया। रात गए तक जलसा रहा।

बीबियों के लिए अंदर अलाहिदा दावत थी। मिसरानियों ने क्या-क्या खाने न बनाए। मुसलमान मेहमानों के लिए बावले डिप्टियों के वहाँ से बावर्ची बुलवाए गए थे (बावले डिप्टियों का एक ख़ानदान था। जिसमें अ'र्सा हुआ एक डिप्टी साहिब का दिमाग़ चल गया था। इसके बा'द से वो पूरा ख़ानदान बावले डिप्टियों का घराना था)
कहार आवाज़ लगाते। अजी बावले डिप्टियों के हाँ से सवारियाँ आई हैं उतरवालो। मोहरियों से कहा जाता, अरे बावले डिप्टियों के हाँ न्योता देती आना री राम-रखी झाड़ू पीटी।

हेम-किरन ऐसे तो कहीं आती जाती न थीं। पर रानी निरंजन दास की ज़बरदस्ती पर वो भी दावत में आ गई थीं। कलैक्टर की बीवी, से मिलने के लिए अ'माइदीन-ए-शहर की बीवियों ने क्या-क्या जोड़े न पहने थे। लेकिन जब ख़ुद कँवल कुमारी को देखा तो पता चला कि ये तो पूरी मेम है। ग़ज़ब ख़ुदा का हाथों में चूड़ियाँ तक न थीं। नाक की कील तो गई चूल्हे भाड़ में, हल्के नीले रंग की साड़ी सी पहने, गाव-तकिए से ज़रा हट कर बैठी, वो सबसे मुस्कुरा मुस्कुरा-कर बातें करती रही।
“ए लू बिटिया तुमने तो सुहाग की निशानी ही को झाड़ू पीटे फ़ैशन की भेंट कर दिया।”

सद्र-ए-आ'ला की बेगम ने नाक पे उँगली रखकर उससे कहा, “ए हाँ सच तो है। क्या डंडा ऐसे हाथ लिए बैठी हो। दूर पारछाईं फ़ोएं देखे ही से हौल आता है!”, बेगम काज़मी ने भी साद किया।
खेम की तो बहर-हाल आज ई'द थी। उसने तेज़ जामुनी रंग की बनारसी सारी बाँधी थी। पाँव में राम-झूल पहने थे। सोने की करधनी और दूसरे सारे गहने पाते अलाहिदा कुन्दन का छपका तो किशोरी भी पहन आई थी। लेकिन किशोरी की अम्माँ (जो मुहल्ले में बड़ी भावज के नाम से याद की जाती थीं) बिन ब्याही लड़कियों के ज़ियादा सिंगार पट्टार की क़तई’ क़ाइल न थीं।

उनके यहाँ तो लड़कियाँ बालियाँ माँग तक बालों में न काढ़ सकती थीं। पर अब ज़माने की हवा के ज़ेर-ए-असर नई पौद की लड़कियों ने सीधी और आड़ी माँगें काढ़नी शुरू’ कर दी थीं। खेम दूर से बैठी कँवल कुमारी को देखती रहीं। कितनी सुंदर है और फिर एम.ए. पास। एम.ए. पास लड़की खेम और किशोरी की नज़रों में बिल्कुल देवी-देवता का दर्जा रखती थी।
कँवल कुमारी जैन सारी मेहमान बीबियों से हँस हँसकर सख़्त ख़ुश-अख़्लाक़ी से गुफ़्तगू करने में मसरूफ़ थी (और सारी हाज़िरात महफ़िल ने उसी वक़्त फ़ैसला कर लिया था कि ये लड़की साबिक़ कलैक्टर की बीवी उस चुड़ैल मिसिज़ भार्गवा से कहीं ज़ियादा अच्छी और मिलनसार है, रानी बिटिया है बिल्कुल)

दालान के गमलों की ओट में खेम और किशोरी बैठी थीं। और मिनट-मिनट पर हँसी के मारे लोट-पोट हुई जाती थीं। अब एक बात हो तो बतलाई जाए। दसियों थीं। मसलन मोटी मिसरानी की चाल ही देख लो। और ऊपर से कँवर निरंजन दास साहिब-ए-ख़ाना की स्टेट के मैनेजर साहिब लाला गणेश महाशय बार-बार ड्योढ़ी में आन कर ललकारते, “जी पर्दा कर लो कहार अंदर आ रहे हैं।” तो उनके हल्क़ में से ऐसी आवाज़ निकलती जैसे हारमोनियम के पर्दों को बरसाती हवा मार गई हो।
अब के से जब मामा लखनऊ से घर आए तो खेम ने दावत की। सारी दास्तान उनके गोश गुज़ार कर दी। कँवल कुमारी ऐसी। और कँवल कुमारी वैसी। मामा चुपके बैठे रहे।

खेम जब रात का खाना खा कर सोने चली गई। और सारे घर में ख़ामोशी छा गई तो डॉक्टर आफ़ताब राय छत की मुंडेर पर आ खड़े हो गए। बाग़ अब सुनसान पड़े थे। गर्मियों का मौसम निकलता जा रहा था। और गुलाबी जाड़े शुरू’ होने वाले थे। पुरवाई हवा आहिस्ता-आहिस्ता बह रही थी। नीचे ठकुराइन की बगिया वाली गली के बराबर से मुसलमानों का मुहल्ला शुरू’ होता था, उसके बा'द बाज़ार था। जिसमें मद्धम गैस और लालटैन की रौशनियाँ झिलमिला रही थीं। फिर पुलिस लाईन्ज़ के मैदान थे। उसके बा'द कचहरी और लाईन्ज़।
सिवल लाईन्ज़ में हाकिम ज़िले’ की बड़ी कोठी थी। जिस पर यूनियन जैक झुटपुटे की नीम-तारीकी में बड़े सुकून से लहरा रहा था। सारे शहर में ये थकी हुई ख़ामोशी छाई थी। सामने सुलतान हुसैन शर्क़ी के ऊँचे फाटक और मस्जिदों के बुलंद मीनार रात के आसमान के नीचे सदियों से इसी तरह साकित और सामित खड़े थे। ज़िंदगी में बे-कैफ़ी थी और उदासी, और ज़िल्लत थी और शदीद गु़लामी का एहसास था।

उ'म्र-भर आफ़ताब राय ने यूँही सोचा था कि अब वो और कुछ न करेंगे। लेकिन दुनिया मौजूद थी। वो काम भी करते खाना भी खाते। साल में चार दफ़ा’ जौनपूर आकर जीजी से दिमाग़-सोज़ी भी करते। ज़िंदगी के भारीपन के बावजूद गाड़ी थी कि चले जा थी।
कँवल कुमारी उस मंज़र के परे मौलसिरी के झुंड के दूसरी तरफ़ यूनियन जैक के साये में बिराजती थी। बहुत से लोग हैं कि जो रास्ता सोचा इख़्तियार कर लिया। आराम से उस पर चलते चले गए। यहाँ किसी रास्ते का तअ'य्युन ही न हो पाता था। एक के बा'द एक सब इधर-उधर निकल गए थे। आफ़ताब राय वहीं के वहीं थे।

“कँवल कुमारी...? लाहौल वला-कू...”
जब वो यूनीवर्सिटी से डाक्टरेट के लिए विलाएत जा रहे थे तो कँवल ने उनसे कहा था, “आफ़ताब बहादुर तुमको अपने ऊपर बड़ा मान है। पर वो मान एक रोज़ टूट जाएगा। जब में भी कहीं चली जाऊँगी।”

“तुम कहाँ चली जाओगी...?”
“उफ़्फ़ोह... लड़कियाँ कहाँ चली जाती हैं...?”

“गोया तुम्हारा मतलब है कि तुम ब्याह कर लोगी।”
“मैं ख़ुद थोड़ा ही ब्याह करती फिरूँगी। अरे अ'क़्ल-मंद दास मेरा ब्याह कर दिया जाएगा।”, उसने झुँझला कर जवाब दिया था।

“अरे जाओ…”, आफ़ताब राय ख़ूब हँसते थे, “मैं इस झांसे में आने वाला नहीं हूँ। तुम लड़कियों की पसंद भी क्या शय है। तुम जैसी मॉडरन लड़कियाँ आख़िर में पसंद उसी को करती हैं जो उनके समाजी और मआ'शी मे'यार पर पूरा उतरता है। बाक़ी सब बकवास है। पसंद इज़ाफ़ी चीज़ है तुम्हारे लिए...”
“हाँ... बिल्कुल इज़ाफ़ी चीज़ है। आफ़ताब बहादुर..”, वो ग़ुस्से के मारे बिल्कुल ख़ामोश हो गई थी।

वो चाँद बाग़ में थी। आप बादशाह बाग़ में बड़ी धूम धाम से बिराजते थे। यूनियन की प्रेज़ीडेंटी करते थे। तक़रीरें बघारते थे। एक मिनट निचले न बैठते थे ताकि कँवल नोटिस न भी लेती हो तो ले। वो ए.पी. सेन रोड पर रहती थी और साईकल पर रोज़ चाँद बाग़ आया करती थी। लखनऊ की बड़ी नुमाइश हुई तो वो भी अपने कुन्बे के साथ म्यूज़िक कान्फ़्रैंस में गई। वहाँ यूनीवर्सिटी वालों ने सहगल को अपने मुहासिरे में ले रखा था। जिस गाने की यूनीवर्सिटी और चाँद बाग़ का मजमा फ़र्माइश करता। वही सहगल को बार-बार गाना पड़ता। भाई आफ़ताब भी शोर मचाने में पेश-पेश। लेकिन अगली सफ़ में कँवल को बैठा देखकर फ़ौरन सिटपिटा कर चुप हो गए और संजीदगी से दोस्तों से बोले कि यार छोड़ो क्या हुल्लड़ मचा रखा है। इस पर इ'ज़्ज़त ने अ'सकरी बिलग्रामी से कहा। (आज उन दोनों प्यारे दोस्तों को मरे भी उतना अ'र्सा हो गया था, मुंडेर पर खड़े हुए आफ़ताब राय को ख़याल आया।)
“उस्ताद ये अपना आफ़ताब जो है ये, इस लौंडिया पर अच्छा इम्प्रैशन डालने की फ़िक्र में ग़लताँ-ओ-पेचाँ है। अब ख़ुदा-वंद ताला ही इस पर रहम करे...”

“बी.ए. के बा'द तुम क्या करोगी?”, एक रोज़ आफ़ताब राय ने कँवल से सवाल किया।
“मुझे कुछ पता नहीं…”, कँवल ने कहा था। इसमें गोया ये इशारा था कि मुझे तो कुछ पता नहीं तुम ही कोई प्रोग्राम बनाओ।

लेकिन कुछ अ'रसे बा'द वो सीधे-सीधे विलाएत निकल लिए। क्योंकि ग़ालिबन उनकी ज़िंदगी उनके लिए, उनके घर वालों के लिए कँवल के वजूद से कहीं ज़ियादा अहम थी। फिर उनकी आइडियोलोजी थी (यार क्या बकवास लगा रखी है। इ'ज़्ज़त ने डपट कर कहा था।)
पर एक रोज़, लंदन में, जब वो सैंट हाऊस की लाइब्रेरी से घर की ओर जा रहे थे तो राह में उन्हें महीपाल नज़र आया जिसने दूर से आवाज़ लगाई…, “चाय पीने चलो तो एक वाक़िआ’-ए-फ़ाजि'अ गोश गुज़ार करूँ। कँवल कुमार का जगननाथ जैन से ब्याह हो गया। वही जो सन पैंतीस के बीच का है..।”

लड़कियों की अ'जब बेहूदा क़ौम है। उस रोज़ आफ़ताब राय इस नतीजे पर पहुँचे।
“उनको समझना हमारे-तुम्हारे बस का रोग नहीं। मियाँ वो जो बड़ी इंटेलेक्चुअल की सास बनी फिरती थी, हो गई होगी। अब ग्लैड... जगननाथ जैन माई फुट... कौन था ये उल्लू... मैंने कभी देखा है उसे...?” महीपाल के कमरे में पहुँच कर आतिश-दान सुलगाते हुए उन्होंने सवाल किया।

महीपाल राय-ज़ादा खिड़की में झुका बाहर सड़क को देख रहा था। जहाँ ठेले वाले को कोकनी दिन-भर गला फाड़ कर चिल्लाते रहने के बा'द अब अपने-अपने तर्कारियों के ठेले ढकेलते हुए सर झुकाए आहिस्ता-आहिस्ता चल रहे थे। शाम का धुंदलका सारे आसमान में बिखर गया था। ज़िंदगी बड़ी उदास है। उसने ख़याल किया था। हाँ। उसने आफ़ताब राय से कहा था मैंने उसे पटने में देखा था। काला सा आदमी है। ऐ'नक लगाता है। कुछ-कुछ लोमड़ी से मिलती-जुलती उसकी शक्ल है।
“बे-वक़ूफ़ भी है...?”, आफ़ताब राय ने पूछा था।

“ख़ासा बे-वक़ूफ़ है…”, महीपाल राय-ज़ादा ने जवाब दिया था।
“फिर कँवल उसके साथ ख़ुश कैसे रह सकेगी?”, आफ़ताब राय ने महीपाल से मुतालिबा किया।

“मियाँ आफ़ताब बहादुर…”, महीपाल ने मुड़ कर उनको मुख़ातिब किया…, “ये जितनी लड़कियाँ हैं ना... जो अफ़लातून ज़माँ बनी फिरती हैं। ये बेवक़ूफ़ों के साथ ही ख़ुश रहती हैं। आया अक़्ल में तुम्हारी...?”
“क्या बकवास है…”, आफ़ताब राय ने आज़ुर्दगी से कहा।

अब महीपाल राय-ज़ादा को सरीहन ग़ुस्सा आ गया।
उसने झुँझला कर कहा था…, “तो मियाँ तुमको रोका किसने था उससे ब्याह करने को, जो अब मुझे बोर कर रहे हो। क्या वो तुमसे ख़ुद आकर कहती कि मियाँ आफ़ताब बहादुर मैं तुमसे ब्याह करना चाहती हूँ। ईं...? और फ़र्ज़ करो अगर वो ख़ुद से ही इंकार कर देती तो क्या क़यामत आ जाती । मियाँ लड़की थी या हवा। क्या मारती वो तुमको भाड़ू लेकर... क्या करती...? तुमने लेकिन कह के ही नहीं दिया । ख़ैर चलो... ख़ैरियत गुज़र गई। अच्छा ही हुआ। कहाँ का झगड़ा मोल लेते बेकार में। क्यों कि मेरा मक़ूला है। (उसने उँगली उठा कर आ'लिमाना अंदाज़ कहा) कि शादी के एक साल बा'द सब शादियाँ एक सी हो जाती हैं... तुमको तो जगननाथ जैन का शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि उसने तुमको एक बार-ए-अ'ज़ीम से सुबुक-दोश किया। बल्कि वो तुम्हारे हक़ में बिल्कुल दाफ़े'-ए-बलिय्यात साबित हुआ...”

“बेहूदा हैं आप इंतिहा से ज़ियादा…”, आफ़ताब राय ने झुँझला कर कहा था।
लखनऊ लौट कर एक रोज़ आफ़ताब राय इत्तिफ़ाक़न ए.पी. सेन रोड पर से गुज़रे। सामने कँवल के बाप की सुर्ख़ रंग की बड़ी सी कोठी थी। जिसकी बरसाती पर कासनी फूलों की बेल फैली थी। यहाँ एक ज़माने में कितना ऊधम मचता। कँवल के सारे बहन भाइयों ने मिलकर अपना ऑर्केस्ट्रा बना रखा था। कोई बाँसुरी बजाता। कोई जल-तरंग। कँवल तबला बजाती, एक भाई वाइलेन का उस्ताद था। सब मिलकर जय जयवंती शुरू’ कर देते। मोरे मंदिर अब लूँ नहीं आए... कैसी चूक भई मो से आली... फिर अर्चना बनर्जी आ जाती और कोयल ऐसी आवाज़ में गाती... आमी पौहोड़ी झोरना मुकर-मुकर बोजोए... बोजोए हो... इतवार को दिन-भर बैडमिंटन खेला जाता, हर समय तो आफ़ताब राय उन लोगों के यहाँ मौजूद रहते थे। और जब एक रोज़ ख़ुद ही चुपके से विलाएत खिसक लिए तो उन लोगों का क्या क़ुसूर। वो लड़की को बैंक के सेफ़ डिपाज़िट में तो उनके ख़याल से रखने से रहे और जगननाथ जैन ऐसा रिश्ता तो भाई क़िस्मत वालों ही को है।

फिर एक रोज़ अमीनाबाद में उन्होंने कँवल को देखा। वो कार से उतर कर अपनी ससुराल वालों के साथ पार्क के मंदिर की ओर जा रही थी और सुर्ख़ साड़ी में मलबूस थी और आलता उसके पैरों में था। (आली री साईं के मंदिर दिया बार आऊँ। कर आऊँ सोला श्रृंगार... वो गर्मियों की शाम थी। अमीनाबाद जगमगा रहा था। हवा में मोतिया और ख़स की महक थी। और मंदिर का घंटा यकसानियत से बजे जा रहा था)
अब आफ़ताब राय यूनीवर्सिटी में तारीख़ पढ़ाते थे। साथियों की महफ़िल में ख़ूब ऊधम मचाते, टेनिस खेलते और सूफ़ीइज़्म की तारीख़ पर एक मक़ाला लिख रहे थे। मैं वो नहीं हूँ जो मैं हूँ। मैं वो हूँ जो मैं नहीं हूँ। हर चीज़ बाक़ी सारी चीज़ें हैं। भगवान कृष्ण जब अर्जुन से कहते हैं, “ऊपरंस अर्जना...(अरे जा बे, अ'सकरी डाँट बताता। “अगर तुम इस चक्कर में हो कि तुम भी प्रोफ़ैसर डी.पी. मुखर्जी की तरह महागुरू बन के बैठ जाओगे तो तुम ग़लती पर हो। डॉक्टर आफ़ताब राय, तुम्हारा तो हम मारते-मारते हुलिया ठीक कर देंगे।” महीपाल इज़ाफ़ा करता।)

जौनपूर आकर वो खेम को देखते कि तन-दही से कचालू खा रही है। कथक सीख रही है। जल भरने चली री गोइआँ आँ-आँ गाती फिर रही है। ये भी कँवल कुमारी की क़ौम है।
“अरी ओ बावली... बता तो क्या करने वाली है…”, वो सवाल करते।

“पता नहीं मामा…”, वो मा'सूमियत से जवाब देती।
“पता नहीं की बच्ची…”, वो दिल में कहते थे।

छत की मुंडेर पर टहलते-टहलते आफ़ताब राय नीम की डालियों के नीचे आ गए। सामने बहुत दूर सिविल लाईन्ज़ के दरख़्तों में छपी हुई हाकिम-ए-ज़िला' की कोठी में गैस की रौशनियाँ झिलमिला रही थीं। पुरवाई हवा बहे जा रही थी। ये चाँद-रात थी और मुसलमानों के महलों की तरफ़ से मुहर्रम के नक़्क़ारों की आवाज़ें बुलंद होना शुरू’ हो गई थीं।
मुहर्रम आ गया... आफ़ताब राय को ख़याल आया... शायद अब के से फिर सर-फुटव्वल हो। बहुत दिनों से नहीं हुई थी। उन्होंने सोचा।

वैसे अंग्रेज़ की पालिसी ये थी कि जिन ज़िलों में मुसलमानों की अक्सरीयत थी। वहाँ हिंदू अफ़सरों को तैनात किया जाता था। और जहाँ हिंदू ज़ियादा होते थे। वहाँ मुसलमान हाकिमों को भेजा जाता था ताकि तवाज़ुन क़ाएम रहे। ये दूसरी बात थी कि सूबे की छः करोड़ आबादी का सिर्फ़ 13 फ़ीसदी हिस्सा मुसलमान थे। लेकिन इतनी शदीद अक़ल्लीयत में होने के बावजूद तहज़ीबी और समाजी तौर पर मुसलमान ही सारे सूबे पर छाए हुए थे। जौनपूर, लखनऊ, आगरा, अलीगढ़, बरेली, मुरादाबाद, शाहजहाँपूर, वग़ैरह जैसे ज़िलों में तो मुसलमानों की धाक बैठी ही हुई थी। लेकिन बाक़ी के सारे ख़ित्तों में भी उनका बोल-बाला था। सूबे की तहज़ीब, से मुराद वो कल्चर था जिस पर मुसलमानों का रंग ग़ालिब था। गली गली, मुहल्ले मुहल्ले, गाँव- गाँव, लाखों मस्जिदें और इमामबाड़े मौजूद थे। मकतब मदरसे, दरगाहें,

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