अंगूठी की मुसीबत

(1)
मैंने शाहिदा से कहा, तो मैं जा के अब कुंजियाँ ले आऊँ।

शाहिदा ने कहा, आख़िर तू क्यों अपनी शादी के लिए इतनी तड़प रही है? अच्छा जा।
मैं हँसती हुई चली गई। कमरे से बाहर निकली। दोपहर का वक़्त था और सन्नाटा छाया हुआ था। अम्माँ जान अपने कमरे में सो रही थीं और एक ख़ादिमा पंखा झल रही थी। मैं चुपके से बराबर वाले कमरे में पहुंची और मसहरी के तकिया के नीचे से कुंजी का गुच्छा लिया। सीधी कमरे पर वापस आई और शाहिदा से कहा, जल्दी चलो।

हम दोनों ने चुपके से चलते हुए कि कहीं कोई पैर की आहट न सुन ले ज़ीने की राह ली और अब्बा जान वाली छत पर दाख़िल हुई। वहां भी हस्ब-ए-तवक़्क़ो सन्नाटा पाया। सबसे पहले दौड़ कर मैंने दरवाज़ा बंद कर दिया जो बाहर ज़ीने से आने जाने के लिए था। उसके बाद ये दरवाज़ा भी बंद कर दिया जिससे हम दोनों दाख़िल हुए थे। सीधी अब्बा जान के कमरे में पहुंच कर उनकी अलमारी का ताला खोला। क्या देखती हूँ कि सामने बीच के तख़्ता पर तमाम ख़ुतूत और तस्वीरें रखी हैं।
वो देख! वो देख!, वो अच्छा है, शाहिदा ने कहा।

नहीं शुरू से देखो... इधर से। ये कह कर मैंने शुरू का बंडल खोला और उसमें से तस्वीर निकाली। ये एक प्रोफ़ेसर साहिब की तस्वीर थी जिनकी उम्र पैंतीस साल की होगी। ये निहायत ही उम्दा सूट पहने बड़ी शान से कुर्सी का तकिया पकड़े खड़े थे। कुर्सी पर उनका पाँच साल का बच्चा बैठा था। उनकी पहली बीवी मर चुकी थीं। अब मुझसे शादी करना चाहते थे। नाम और पता वग़ैरा सब तस्वीर की पुश्त पर मौजूद था।
ये ले ! शाहिदा ने कहा, पहली ही बिसमिल्लाह ग़लत।

मैंने तस्वीर को देखते हुए कहा, क्यों? क्या ये बुरा है ?
कम्बख़्त ये दूहा जो है, बहन इससे भूल के भी मत कीजियो। तू तो अपनी तरह कोई कँवारा ढूंढ। अरी ज़रा इस लौंडे को देख! अगर न तेरा ये नाक में दम कर दे और नथनों में तीर डाल दे तो मेरा नाम पलट कर रख दीजियो। देखती नहीं कि बस की गाँठ कितना शरीर है और फिर रातों को तेरी सौत ख़्वाब में अलग आकर गला दबाएगी।

तो तू पागल हो गई है। मैंने कहा, शाहिदा ढंग की बातें कर।
शाहिदा हंसते हुए बोली, मेरी बला से। कल की करती तो आज कर ले, मेरी दानिस्त में तो इस प्रोफ़ेसर को भी कोई ऐसी ही मिले तो ठीक रहे जो दो तीन मूज़ी बच्चे जहेज़ में लाए। और वो उसके छोकरे को मारते मारते अतू कर दें। चल रख उस को... दूसरी देख।

पहली तस्वीर पर ये रिमार्कस पास किए गए और इसको जूं का तूं रखकर दूसरी तस्वीर उठाई और शाहिदा से पूछा, ये कैसा है ?
शाहिदा ग़ौर से देखकर बोली, वैसे तो ठीक है मगर ज़रा काला है। कौन से दर्जे में पढ़ता है?

मैंने तस्वीर देख-भाल कर कहा, बी.ए. में पढ़ता है। काला तो ऐसा नहीं है।
शाहिदा ने कहा, हूँ! ये आख़िर तुझे क्या हो गया है, जिसे देखती है उसपे आशिक़ हुई जाती है। न काला देखती है न गोरा, न बूढ्ढा देखती है न जवान! मैंने ज़ोर से शाहिदा के चुटकी लेकर कहा।कम्बख़्त मैंने तुझे इसलिए बुलाया था कि तू मुझे तंग करे! ग़ौर से देख।

ग़ौर से तस्वीर देखकर और कुछ सोच कर शाहिदा बोली, न बहन ये हरगिज़ ठीक नहीं, मैं तो कह चुकी, आइन्दा तू जाने।
मैंने कहा, ख़त तो देख बड़े रईस का लड़का है। ये तस्वीर एक तालिब-इल्म की थी जो टेनिस का बल्ला लिये बैठा था। दो तीन तमगे लगाए हुए था और दो तीन जीते हुए कप सामने मेज़ पर रखे हुए थे।

शाहिदा बोली, वैसे तो लड़का बड़ा अच्छा है। उम्र में तेरे जोड़ का है। मगर अभी पढ़ता है और तेरा भी शौकत का सा हाल होगा कि दस रुपये माहवार जेब ख़र्च और खाने और कपड़े पर नौकर हो जाएगी और दिन रात सास ननदों की जूतीयां, ये तो झगड़ा है।
मैंने कहा, बी.ए. में पढ़ता है, साल दो साल में नौकर हो जाएगा।

टेनिस का जमादार हो रहा है, तू देख लीजियो दो तीन दफ़ा फ़ेल होगा और सास ननदें भी कहेंगी कि बीवी पढ़ने नहीं देती
और फिर दौड़ने धूपने का शौक़ीन, तुझे रपटा मारेगा। वैसे तो लड़का अच्छा है, सूरत भी भोली-भाली है और ऐसा है कि जब शरारत करे, उठा कर ताक़ पर बिठा दिया। मगर न बाबा में राय न दूँगी।

उस तस्वीर को भी रख दिया और अब दूसरा बंडल खोला और एक और तस्वीर निकली।
आख़ाह! ये मुआ पान का ग़ुलाम कहाँ से आया। शाहिदा ने हंसकर कहा, देख तो कम्बख़्त की डाढ़ी कैसी है और फिर मूँछें उसने ऐसी कतरवाई हैं कि जैसे सींग कटा कर बछड़ों में मिल जाये !

मैं भी हँसने लगी। ये एक मुअज़्ज़िज़ रईस आनरेरी मजिस्ट्रेट थे और उनकी उम्र भी ज़्यादा न थी। मगर मुझको ये ज़र्रा भर पसंद न आए।
ग़ौर से शाहिदा ने तस्वीर देखकर पहले तो उनकी नक़ल बनाई और फिर कहने लगी, ऐसे को भला कौन लड़की देगा? ना मालूम उसके कितनी लड़कियां और बीवियां होंगी। फेंक इसे।

ये तस्वीर भी रख दी गई और दूसरा बंडल खोल कर एक और तस्वीर ली। ये तो गबरू जवान है ? इससे तो फ़ौरन कर ले, शाहिदा तस्वीर देखकर बोली, ये है कौन! ज़रा देख।
मैंने देखकर बताया कि डाक्टर है।

बस-बस, ये ठीक, ख़ूब तेरी नब्ज़ टटोल टटोल के रोज़ थर्मामीटर लगाएगा। सूरत शक्ल ठीक है। शाहिदा ने हंसकर कहा, मेरा मियां भी ऐसा ही हट्टा कट्टा मोटा ताज़ा है।
मैंने हंसकर कहा, कम्बख़्त आख़िर तू ऐसी बातें कहाँ से सीख आई है, क्या तू ने अपने मियां को देखा है?

देखा तो नहीं मगर सुना है कि बहुत अच्छा है।
भद्दा सा होगा। शाहिदा ने चीं बचीं हो कर कहा, इतना तो मैं जानती हूँ कि जो कहीं तू उसे देख ले तो शायद लट्टू ही हो जाये।

मैंने अब डाक्टर साहिब की तस्वीर को ग़ौर से देखा और नुक्ता-चीनी शुरू की। ना इसलिए कि मुझे ये नापसंद थे, बल्कि महज़ इसलिए कि कुछ राय ज़नी हो सके। चुनांचे मैंने कहा, उनकी नाक ज़रा मोटी है।
सब ठीक है। शाहिदा ने कहा, ज़रा उस का ख़त देख।

मैंने देखा कि सिर्फ़ दो ख़त हैं। पढ़ने से मालूम हुआ कि उनकी पहली बीवी मौजूद हैं मगर पागल हो गई हैं।
फेंक फेंक उसे कम्बख़्त को फेंक। शाहिदा ने जल कर कहा, झूटा है कम्बख़्त कल को तुझे भी पागलख़ाना में डाल के तीसरी को तकेगा।

डाक्टर साहिब भी नामंज़ूर कर दिए गए और फिर एक और तस्वीर उठाई।
शाहिदा ने और मैंने ग़ौर से इस तस्वीर को देखा। ये तस्वीर एक नौ उम्र और ख़ूबसूरत जवान की थी। शाहिदा ने पसंद करते हुए कहा, ये तो ऐसा है कि मेरी भी राल टपकती पड़ रही है। देख तो कितना ख़ूबसूरत जवान है। बस इससे तू आँख मीच के कर ले और इसे गले का हार बना लीजियो।

हम दोनों ने ग़ौर से उस तस्वीर को देखा, हर तरह दोनों ने पसंद किया और पास कर दिया। शाहिदा ने इसके ख़त को देखने को कहा। ख़त जो पढ़ा तो मालूम हुआ कि ये हज़रत विलाएत में पढ़ते हैं।
अरे तौबा तौबा, छोड़ उसे। शाहिदा ने कहा।

मैंने कहा, क्यों। आख़िर कोई वजह?
वजह ये कि भला उसे वहां मेमें छोड़ेंगी। अजब नहीं कि एक-आध को साथ ले आए।

मैंने कहा, वाह इस से क्या होता है। अहमद भाई को देखो, पाँच साल विलाएत में रहे तो क्या हो गया।
शाहिदा तेज़ी से बोली, बड़े अहमद भाई अहमद भाई, रजिस्टर लेकर वहां की भावजों के नाम लिखना शुरू करेगी तो उम्र ख़त्म हो जाएगी और रजिस्टर तैयार न होगा। मैं तो ऐसा जुआ न खेलूं और न किसी को सलाह दूं। ये उधार का सा मुआमला ठीक नहीं।

ये तस्वीर भी नापसंद कर के रख दी गई और इसके बाद एक और निकाली। शाहिदा ने तस्वीर देकर कहा, ये तो अल्लाह रखे इस क़दर बारीक हैं कि सूई के नाका में से निकल जाऐंगे। इलावा उसके कोई आंधी बगूला आया तो ये उड़ उड़ा जाऐंगे और तू रांड हो जाएगी।
इसी तरह दो तीन तस्वीरें और देखी गईं कि असल तस्वीर आई और मेरे मुँह से निकल गया, अख़ाह।

मुझे दे। देखूं, देखूं। कह कर शाहिदा ने तस्वीर ले ली।
हम दोनों ने ग़ौर से इसको देखा। ये एक बड़ी सी तस्वीर थी। एक तो वो ख़ुद ही तस्वीर था और फिर इस क़दर साफ़ और उम्दा खींची हुई कि बाल बाल का अक्स मौजूद था। शाहिदा ने हंसकर कहा, उसे मत छोड़ियो। ऐसे में तो मैं दो कर लूं। ये आख़िर है कौन?

तस्वीर को उलट कर देखा जैसे दस्तख़त ऊपर थे ऐसे ही पुश्त पर थे मगर शहर का नाम लिखा हुआ था और बग़ैर ख़ुतूत के देखे हुए मुझे मालूम हो गया कि किसकी तस्वीर है। मैंने शाहिदा से कहा, ये वही है जिसका मैंने तुझसे उस रोज़ ज़िक्र किया था।
अच्छा ये बैरिस्टर साहिब हैं। शाहिदा ने पसंदीदगी के लहजे में कहा, सूरत शक्ल तो ख़ूब है, मगर इनकी कुछ चलती भी है या नहीं?

मैंने कहा, अभी क्या चलती होगी। अभी आए हुए दिन ही कितने हुए हैं।
तो फिर हवा खाते होंगे। शाहिदा ने हंसते हुए कहा, ख़ैर तू इस से ज़रूर कर ले। ख़ूब तुझे मोटरों पर सैर कराएगा, सिनेमा और थेटर दिखाएगा और जलसों में नचाएगा।

मैंने कहा, कुछ ग़रीब थोड़ी हैं। अभी तो बाप के सर खाते हैं।
शाहिदा ने चौंक कर कहा, अरी बात तो सुन।

मैंने कहा, क्यों।
शाहिदा बोली, सूरत शक्ल भी अच्छी है। ख़ूब गोरा चिट्टा है। बल्कि तुझसे भी अच्छा है और उम्र भी ठीक है। मगर ये तो बता कि कहीं कोई मेम-वेम तो नहीं पकड़ लाया है।

मैंने कहा, मुझे क्या मालूम। लेकिन अगर कोई साथ होती तो शादी क्यों करते।
ठीक ठीक। शाहिदा ने सर हिला कर कहा, बस अल्लाह का नाम लेकर फाँस, मैंने ख़त उठाए और शाहिदा दूसरी तस्वीरें देखने लगी। मैं ख़त पढ़ रही थी और वो हर एक तस्वीर का मुँह चिड़ा रही थी। मैंने ख़ुश हो कर उसको चुपके चुपके ख़त को कुछ हिस्सा सुनाया। शाहिदा सुनकर बोली, इल-लल्लाह! मैंने और आगे पढ़ा तो कहने लगी, वो मारा। ग़रज़ ख़त का सारा मज़मून सुनाया।

शाहिदा ने ख़त सुनकर कहा कि, ये तो सब मुआमला फिट है और चूल बैठ गई है। अब तू गुड़ तक़सीम कर दे।
फिर हम दोनों ने इस तस्वीर को ग़ौर से देखा। दोनों ने रह-रह कर पसंद किया। ये एक नौउम्र बैरिस्टर थे और ग़ैर-मामूली तौर पर ख़ूबसूरत मालूम होते थे और नाक नक़्शा सब बेऐब था। शाहिदा रह-रह कर तारीफ़ कर रही थी। डाढ़ी मूँछें सब साफ़ थीं और एक धारीदार सूट पहने हुए थे। हाथ में कोई किताब थी।

मैंने बैरिस्टर साहिब के दूसरे ख़त पढ़े, और मुझको कुल हालात मालूम हो गए। मालूम हुआ है कि बैरिस्टर साहिब बड़े अच्छे और रईस घराने के हैं और शादी का मुआमला तय हो गया है। आख़िरी ख़त से पता चलता था कि सिर्फ़ शादी की तारीख़ के मुआमले में कुछ तसफ़ीया होना बाक़ी है।
मैंने चाहा कि और दूसरे ख़त पढ़ूं और ख़सूसन आनरेरी मजिस्ट्रेट साहिब का मगर शाहिदा ने कहा, अब दूसरे ख़त न पढ़ने दूँगी। बस यही ठीक है। मैंने कहा, उनके ज़िक्र की भनक एक मर्तबा सुन चुकी हूँ। आख़िर देख तो लेने दे कि मुआमलात कहाँ तक पहुंच चुके हैं।

शाहिदा ने झटक कर कहा, चल रहने दे उस मूज़ी का ज़िक्र तक न कर, मैंने बहुत कुछ कोशिश की मगर उसने एक न सुनी। क़िस्सा मुख़्तसर जल्दी जल्दी सब चीज़ें जूं की तूं रख दीं, और अलमारी बंद कर के मैंने मर्दाना ज़ीना का दरवाज़ा खोला और शाहिदा के साथ चुपके से जैसे आई थी वैसे ही वापस हुई। जहां से कुंजी ली थी, इसी तरह रख दी। शाहिदा से देर तक बैरिस्टर साहिब की बातें होती रहीं। शाहिदा को मैंने इसीलिए बुलाया था। शाम को वो अपने घर चली गई मगर इतना कहती गई कि ख़ाला जान की बातों से भी पता चलता है कि तेरी शादी अब बिल्कुल तय हो गई और तू बहुत जल्द लटकाई जाएगी।
(2)

इस बात को महीना भर से ज़ाइद गुज़र चुका था। कभी तो अब्बा जान और अम्माँ जान की बातें चुपके से सुनकर उनके दिल का हाल मालूम करती थी और कभी ऊपर जा कर अलमारी से ख़ुतूत निकाल कर पढ़ती थी।
मैं दिल ही दिल में ख़ुश थी कि मुझसे ज़्यादा ख़ुशक़िस्मत भला कौन होगी कि यकलख़्त मालूम हुआ कि मुआमला तय हो कर बिगड़ रहा है।

आख़िरी ख़त से मालूम हुआ कि बैरिस्टर साहिब के वालिद साहिब चाहते हैं कि बस फ़ौरन ही निकाह और रुख़्सती सब हो जाये और अम्माँ जान कहती कि मैं पहले सिर्फ़ निस्बत की रस्म अदा करूँगी और फिर पूरे साल भर बाद निकाह और रुख़्सती करूँगी क्योंकि मेरा जहेज़ वग़ैरा कहती थीं कि इत्मिनान से तैयार करना है और फिर कहती थीं कि मेरी एक ही औलाद है। मैं तो देख-भाल के करूँगी। अगर लड़का ठीक न हुआ तो मंगनी तोड़ भी सकूँगी। ये सब बातें में चुपके से सुन चुकी थी। इधर तो ये ख़्यालात, उधर बैरिस्टर साहिब के वालिद साहिब को बेहद जल्दी थी। वो कहते थे कि अगर आप जल्दी नहीं कर सकते तो हम दूसरी जगह कर लेंगे। जहां सब मुआमलात तय हो चुके हैं। मुझे ये नहीं मालूम हो सका कि अब्बा जान ने इसका क्या जवाब दिया, और मैं तक में लगी हुई थी कि कोई मेरे दिल से पूछे कि मेरा क्या हाल हुआ। जब एक रोज़ चुपके से मैंने अब्बा जान और अम्माँ जान का तसफ़ीया सुन लिया। तय हो कर लिखा जा चुका था की अगर आपको ऐसी ही जल्दी है कि आप दूसरी जगह शादी किए लेते हैं तो बिसमिल्लाह। हमको लड़की भारी नहीं है, ये ख़त लिख दिया गया और फिर उन कम्बख़्त मजिस्ट्रेट की बात हुई कि मैं वहां झोंकी जाऊँगी। न मालूम ये आनरेरी मजिस्ट्रेट मुझको क्यों सख़्त नापसंद थे कि कुछ उनकी उम्र भी ऐसी न थी। मगर शाहिदा ने कुछ उनका हुल्या यानी डाढ़ी वग़ैरा कुछ ऐसा बना बना कर बयान किया कि मेरे दिल में उनके लिए ज़र्रा भर जगह न थी। मैं घंटों अपने कमरे में पड़ी सोचती रही।
इस बात को हफ़्ता भर भी न गुज़रा था कि मैंने एक रोज़ उसी तरह चुपके से अलमारी खोल कर बैरिस्टर साहिब के वालिद का एक ताज़ा ख़त पढ़ा। ऐसा मालूम होता था कि उन्होंने ये ख़त शायद अब्बा जान के आख़िरी ख़त मिलने से पहले लिखा था कि बैरिस्टर साहिब को ख़ुद किसी दूसरी जगह जाना है और रास्ता में यहां होते हुए जाऐंगे और अगर आपको शराइत मंज़ूर हुईं तो निस्बत भी क़रार दे दी जाएगी। उसी रोज़ उस ख़त का जवाब भी मैंने सुन लिया। उन्होंने लिख दिया था कि लड़के को तो मैं ख़ुद भी देखना चाहता था, ख़ाना बे-तकल्लुफ़ है। जब जी चाहे भेज दीजिए मगर उस का ख़याल दिल से निकाल दीजिए कि साल भर से पहले शादी कर दी जाए-अमाँ जान ने भी इस जवाब को पसंद किया और फिर उन्ही आनरेरी मजिस्ट्रेट साहिब के तज़किरा से मेरे कानों की तवाज़ो की गई।

इन सब बातों से मेरा ऐसा जी घबराया कि अम्माँ जान से मैंने शाहिदा के घर जाने की इजाज़त ली और ये सोच कर गई कि तीन चार रोज़ न आऊँगी।
शाहिदा के हाँ जो पहुंची तो उसने देखते ही मालूम कर लिया कि कुछ मुआमला दिगरगूं है। कहने लगी कि, क्या तेरे बैरिस्टर ने किसी और को घर में डाल लिया?

मैं इसका भला क्या जवाब देती। तमाम क़िस्सा शुरू से आख़ीर तक सुना दिया कि किस तरह वो जल्दी कर रहे हैं और चाहते हैं कि जल्द से जल्द शादी हो जाये। मगर अम्माँ जान राज़ी नहीं होतीं। ये सब सुनकर और मुझको रंजीदा देखकर वो शरीर बोली, ख़ूब! चट मंगनी पट ब्याह भला ऐसा कौन करेगा। मगर एक बात है। मैंने कहा, वो क्या?
वो बोली, वो तेरे लिए फड़क रहा है और ये फ़ाल अच्छी है।

मैंने जल कर कहा, ये तू फ़ाल निकाल रही है और मज़ाक़ कर रही है।
फिर क्या करूँ? शाहिदा ने कहा, (क्योंकि वाक़ई वो बेचारी कर ही क्या सकती है।)

मैंने कहा, कोई मश्वरा दो, सलाह दो, दोनों मिलकर सोचें।
पागल नहीं तू। शाहिदा ने मेरी बेवक़ूफ़ी पर कहा, दीवानी हुई है, मैं सलाह क्या दूं?

अच्छा मुझे पता बता दे। मैं बैरिस्टर साहिब को लिख भेजूँ कि इधर तू इस छोकरी पर निसार हो रहा है और उधर ये तेरे पीछे दीवानी हो रही है, आ के तुझे भगा ले जाये।
ख़ुदा की मार तेरे ऊपर और तेरी सलाह के ऊपर। मैंने कहा, क्या मैं इसीलिए आई थी? मैं जाती हूँ। ये कह कर मैं उठने लगी।

तेरे बैरिस्टर की ऐसी तैसी। शाहिदा ने हाथ पकड़ कर कहा, जाती कहाँ है शादी न ब्याह, मियां का रोना रोती है। तुझे क्या? कोई न कोई माँ का जाया आकर तुझे ले ही जाएगा। चल दूसरी बातें कर।
ये कह कर शाहिदा ने मुझे बिठा लिया और मैं भी हँसने लगी। दूसरी बातें होने लगीं। मगर यहां मेरे दिल को लगी हुई थी और परेशान भी थी। घूम फिर कर वही बातें होने लगीं। शाहिदा ने जो कुछ हमदर्दी मुम्किन थी वो की और दुआ मांगी और फिर आनरेरी मजिस्ट्रेट को ख़ूब कोसा। इसके इलावा वो बेचारी कर ही क्या सकती थी। ख़ुद नमाज़ के बाद दुआ मांगने का वादा किया और मुझसे भी कहा कि नमाज़ के बाद रोज़ाना दुआ मांगा कर। इससे ज़्यादा न वो कुछ कर सकती थी और न मैं।

मैं घर से कुछ ऐसी बेज़ार थी कि दो मर्तबा आदमी लेने आया और न गई। चौथे रोज़ मैंने शाहिदा से कहा कि, अब शायद ख़त का जवाब आ गया होगा और मैं खाना खा के ऐसे वक़्त जाऊँगी कि सब सोते हों ताकि बग़ैर इंतिज़ार किए हुए मुझे ख़त देखने का मौक़ा मिल जाये।
चलते वक़्त मैं ऐसे जा रही थी जैसे कोई शख़्स अपनी क़िस्मत का फ़ैसला सुनने के लिए जा रहा हो। मेरी हालत अजीब उम्मीद-ओ-बहम की थी। न मालूम उस ख़त में बैरिस्टर साहिब के वालिद ने इनकार क्या होगा या मंज़ूर कर लिया होगा कि हम साल भर बाद शादी पर रज़ामंद हैं। ये मैं बार-बार सोच रही थी। चलते वक़्त मैंने अपनी प्यारी सहेली के गले में हाथ डाल कर ज़ोर से दबाया। न मालूम क्यों मेरी आँखें नम हो गईं। शाहिदा ने मज़ाक़ को रुख़्सत करते हुए कहा, बहन ख़ुदा तुझे उस मूज़ी से बचाए। तू दुआ मांग अच्छा। मैंने चुपके से कहा, अच्छा।

(3)
शाहिदा के यहां से जो आई तो हस्ब-ए-तवक़्क़ो घर में सन्नाटा पाया। अम्माँ-जान सो रही थीं और अब्बा जान कचहरी जा चुके थे। मैंने चुपके से झांक कर इधर उधर देखा। कोई न था। आहिस्ता से दरवाज़ा बंद किया और दौड़ कर मर्दाना ज़ीने का दरवाज़ा भी बंद कर दिया और सीधी कमरे में पहुंची। वहां पहुंची तो शश्दर रह गई।

क्या देखती हूँ कि एक बड़ा सा चमड़े का ट्रंक खुला पड़ा है और पास की कुर्सी पर और ट्रंक में कपड़ों के ऊपर मुख़्तलिफ़ चीज़ों की एक दुकान सी लगी हुई है। मैंने दिल में कहा कि आख़िर ये कौन है, जो इस तरह सामान छोड़कर डाल गया है। क्या बताऊं मेरे सामने कैसी दुकान लगी हुई और क्या-क्या चीज़ें रखी थीं कि मैं सब भूल गई और उन्हें देखने लगी। तरह तरह की डिबियां और विलायती बक्स थे जो मैंने कभी न देखे थे। मैंने सबसे पेशतर झट से एक सुनहरा गोल डिब्बा उठा लिया। मैं उसको तारीफ़ की निगाह से देख रही थी। ये गिनी के सोने का डिब्बा था और उस पर सच्ची सीप का नफ़ीस काम हुआ था। ऊदी ऊदी कुन्दन की झलक भी थी। ढकना तो देखने ही से ताल्लुक़ रखता था। उस में मोती जड़े हुए थे और कई क़तारें नन्हे नन्हे समुंदरी घोंघों की इस ख़ूबसूरती से सोने में जड़ी हुई थीं कि मैं दंग रह गई। मैंने उसे खोल कर देखा तो एक छोटा सा पाउडर लगाने का पफ़ रखा हुआ था और उसके अंदर सुर्ख़-रंग का पाउडर रखा हुआ था। मैंने पफ़ निकाल कर उस के नर्म-नर्म रोएँ देखे जिन पर ग़ुबार की तरह पाउडर के महीन ज़र्रे गोया नाच रहे थे। ये देखने के लिए ये कितना नर्म है, मैंने उसको अपने गाल पर आहिस्ता-आहिस्ता फिराया और फिर उसको वापस उसी तरह रख दिया। मुझे ख़्याल भी न आया कि मरे गाल पर सुर्ख़ पाउडर जम गया। मैंने डिब्बा को रखा ही था कि मेरी नज़र एक थैली पर पड़ी। यह सब्ज़ मख़मल की थैली थी। जिस पर सुनहरी काम में मुख़्तलिफ़ तस्वीरें बनी हुई थीं। मैंने उसको उठाया तो मेरे ताज्जुब की कोई इंतिहा न रही। क्योंकि दरअसल ये विलायती रबड़ की थैली थी, जो मख़मल से भी ज़्यादा ख़ूबसूरत और नर्म थी, मैंने ग़ौर से सुनहरी काम को देखा। खोल कर जो देखा तो अंदर दो चांदी के बालों में करने के ब्रश थे और एक उन ही के जोड़ का कंघा था। मैंने उसको भी रख दिया और छोटी ख़ूबसूरत डिबियों को देखा। किसी में सेफ़्टी पिन था, किसी में ख़ूबसूरत सा बरोच था और किसी में फूल था। ग़रज़ तरह तरह के बरोच और ब्लाउज़ पिन वग़ैरा थे। दो तीन डिबियां उनमें ऐसी थीं जो अजीब शक्ल थीं। मसलन एक बिल्कुल किताब की तरह थी और एक क्रिकेट के बल्ले की तरह थी। उनमें बा'ज़ ऐसी भी थीं जो मुझसे किसी तरह भी न खुलीं। इलावा उनके सिगरेट केस, दिया-सलाई का बक्स वग़ैरा वग़ैरा। सब ऐसी कि बस उनको देखा ही करे।
मैं उनको देख ही रही थी कि एक मख़मल के डिब्बे का कोना ट्रंक में रेशमी रुमालों में मुझे दबा हुआ नज़र आया। मैंने उसको निकाला। खोल कर देखा तो अंदर बहुत से छोटे-छोटे नाख़ुन काटने और घिसने के औज़ार रखे हुए थे और ढकने में एक छोटा सा आईना लगा हुआ था। मैंने उसको जूं का तूं उसी जगह रखा तो मेरे हाथ एक और मख़मल का डिब्बा लगा। उसको जो मैंने निकाल कर खोला तो उसके अंदर से सब्ज़-रंग का एक फ़ाउंटेनपेन निकला। जिस पर सोने की जाली का ख़ौल चढ़ा हुआ था। मैंने उसको भी रख दिया। इधर-उधर देखने लगी कि एक छोटी से सुनहरी रंग की डिबिया पर नज़र पड़ी। उसको मैंने खोलना चाहा। मगर वो कम्बख़्त न खुलना थी न खुली। मैं इस को खोल ही रही थी कि एक लकड़ी के बक्स का कोना नज़र पड़ा। मैंने उसको फ़ौरन ट्रंक से निकाल कर देखा। ये एक भारी सा ख़ूबसूरत बक्स था। उसको जो मैंने खोला तो मैं दंग रह गई। उसके अंदर से एक साफ़-शफ़्फ़ाफ़ बिलौर का इत्रदान निकला जो कोई बालिशत भर लंबा और इसी मुनासबत से चौड़ा था। मैंने उसको निकाल कर ग़ौर से देखा और लकड़ी का बक्स जिसमें ये बंद था, अलग रख दिया, अजीब चीज़ थी। उसके अंदर की तमाम चीज़ें बाहर से नज़र आ रही थीं। उसके अंदर चौबीस छोटी छोटी इतर की क़लमें रखी हुई थीं। जिनके ख़ुशनुमा रंग रोशनी में बिलौर में से गुज़र कर अजीब बहार दिखा रहे थे। मैं उसको चारों तरफ़ से देखती रही और फिर खोलना चाहा। जहां-जहां भी जो बटन नज़र आए मैंने दबाए मगर ये न खुला। मैं उसको देख रही थी कि मेरी नज़र किसी तस्वीर के कोने पर पड़ी जो ट्रंक में ज़रा नीचे को रखी थी। मैंने तस्वीर को खींच कर निकाला कि उसके साथ साथ एक मख़मल की डिबिया रुमालों और टाइयों में लुढ़कती हुई चली आई और खुल गई।

क्या देखती हूँ कि उस में एक ख़ूबसूरत अँगूठी जगमग-जगमग कर रही है। फ़ौरन तस्वीर को छोड़कर मैंने उस डिबिया को उठाया और अँगूठी को निकाल कर देखा। बीच में उसके एक नीलगूं रंग था और इर्द-गिर्द सफ़ेद सफ़ेद हीरे जड़े थे। जिन पर निगाह न जमती थी। मैंने इस ख़ूबसूरत अँगूठी को ग़ौर से देखा और अपनी उंगलियों में डालना शुरू किया। किसी में तंग थी तो किसी में ढीली। मगर सीधे हाथ की छंगुली के पास वाली उंगली में मैंने उस को ज़ोर देकर किसी न किसी तरह तमाम पहन तो लिया और फिर हाथ ऊंचा कर के उसके नगीनों की दमक देखने लगी। मैं उसे देख-भाल कर डिबिया में रखने के लिए उतारने लगी तो मालूम हुआ कि फंस गई है। मेरे बाएं हाथ में वो बिल्लौर का इत्रदान बदस्तूर मौजूद था और मैं उसको रखने ही को हुई ताकि उंगली में फंसी हुई अँगूठी को उतारुं कि इका एकी मेरी नज़र उस तस्वीर पर पड़ी जो सामने रखी थी और जिसको मैं सबसे पेशतर देखना चाहती थी। उस पर हवा सा बारीक काग़ज़ था जिसकी सफ़ेदी में से तस्वीर के रंग झलक रहे थे। मैं इत्रदान तो रखना भूल गई और फ़ौरन ही सीधे हाथ से तस्वीर को उठा लिया और काग़ज़ हटा कर जो देखा तो मालूम हुआ कि ये सब सामान बैरिस्टर साहिब का है कि ये उन्ही की तस्वीर थी। ये किसी विलायती दुकान की बनी हुई थी और रंगीन थी। मैं बड़े ग़ौर से देख रही थी और दिल में कह रही थी कि अगर ये सही है तो वाक़ई बैरिस्टर साहिब ग़ैरमामूली तौर पर ख़ूबसूरत आदमी हैं। चेहरे का रंग हल्का गुलाबी था। स्याह बाल थे और आड़ी मांग निकली हुई थी। चेहरा, आँख, नाक, ग़रज़ हर चीज़ इस सफ़ाई से अपने रंग में मौजूद थी कि मैं सोच रही थी कि मैं ज़्यादा ख़ूबसूरत हूँ या ये। कोट की धारियाँ होशयार मुसव्विर ने अपने असली रंग में इस ख़ूबी से दिखाई थीं कि हर एक डोरा अपने रंग में साफ़ नज़र आ रहा था।
मैं उस तस्वीर को देखने में बिल्कुल मह्व थी कि देखते देखते हवा की रमक़ से वो कम्बख़्त बारीक सा काग़ज़ देखने में मुतहम्मिल होने लगा। मैंने तस्वीर को झटक कर अलग किया क्योंकि बायां हाथ घिरा हुआ था। उस में वही बिल्लौर का इत्रदान था फिर उसी तरह काग़ज़ उड़ कर आया और तस्वीर को ढक दिया। मैंने झटक कर अलग करना चाहा। मगर वो चिपक सा गया और अलैहदा न हुआ। तो मैंने मुँह से फूँका और जब भी वो न हटा तो मैंने उंह कर के बाएं हाथ की उंगली से जो काग़ज़ को हटाया तो वो बिललौर का इत्रदान भारी तो था ही हाथ से फिसल कर छूट पड़ा और छन से पुख़्ता फ़र्श पर गिर कर खेल खेल हो गया।

मैं धक से हो गई और चेहरा फ़क़ हो गया। तस्वीर को एक तरफ़ फेंक के एक दम से शिकस्ता इत्रदान के टुकड़े उठा कर मिलाने लगी कि एक नर्म आवाज़ बिल्कुल क़रीब से आई, तकलीफ़ न कीजिए, आप ही का था। आँख उठा कर जो देखा तो जीती-जागती असली तस्वीर बैरिस्टर साहिब की सामने खड़ी है! ताज्जुब! इस ताज्जुब ने मुझे सकते में डाल दिया कि इलाही ये किधर से आ गए। दो तीन सेकंड तो कुछ समझ में न आया कि क्या करूँ कि एक दम से मैंने टूटे हुए गुलदान के टुकड़े फेंक दिए और दोनों हाथों से मुँह छुपा कर झट से दरवाज़ा की आड़ में हो गई।
(4)

मेरी हालत भी उस वक़्त अजीब क़ाबिल-ए-रहम थी। बल्लियों दिल उछल रहा था ये पहला मौक़ा था जो मैं किसी नामुहरम और ग़ैर शख़्स के साथ इस तरह एक तन्हाई के मुक़ाम पर थी। इस पर तुर्रा ये कि ऐन चोरी करते पकड़ी गई। सारा ट्रंक कुरेद कुरेद कर फेंक दिया था और फिर इत्रदान तोड़ डाला और निहायत ही बेतकल्लुफ़ी से अँगूठी पहन रखी थी।
ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की नीचे थी। सारे बदन में एक सनसनी और रअशा सा था कि ज़रा होश बजा हुए तो फ़ौरन अँगूठी का ख़्याल आया। जल्दी जल्दी उसे उतारने लगी। तरह तरह से घुमाया। तरह तरह से उंगली को दबाया और अँगूठी को खींचा। मगर जल्दी में वो और भी न उतरी। जितनी देर लग रही थी, उतना ही और घबरा रही थी। पल पल भारी था, और मैं काँपते हुए हाथों से हर तरह अँगूठी उतारने को कोशिश कर रही थी। मगर वो न उतरती थी। ग़ुस्से में मैंने उंगली मरोड़ डाली। मगर क्या होता था। ग़रज़ मैं बेतरह अँगूठी उतारने की कोशिश कर रही थी कि इतने में बैरिस्टर साहिब ने कहा, शुक्र है कि अँगूठी आपको पसंद तो आ गई।

ये सुनकर मेरे तन-बदन में पसीना आ गया और मैं गोया कट मरी। मैंने दिल में कहा कि मैं मुँह छुपा कर जो भागी तो शायद अँगूठी उन्होंने देख ली। और वाक़िया भी दरअसल यही था। इस जुमले ने मेरे ऊपर गोया सितम ढाया। मैंने सुनकर और भी जल्दी जल्दी उसको उतारने की कोशिश की मगर वो अँगूठी कम्बख़्त ऐसी फंसी थी कि उतरने का नाम ही न लेती थी। मेरा दिल इंजन की तरह चल रहा था और मैं कटी जा रही थी और हैरान थी कि क्योंकर इस नामुराद अँगूठी को उतारुं।
इतने में बैरिस्टर साहिब आड़ से ही बोले, उसमें से अगर और कोई चीज़ पसंद हो तो वो भी ले लीजिए। मैंने ये सुनकर अपनी उंगली मरोड़ तो डाली कि ये ले तेरी ये सज़ा है, मगर भला इससे किया होता था? ग़रज़ मैं हैरान और ज़च होने के इलावा मारे शर्म के पानी पानी हुई जाती थी।

इतने में बैरिस्टर साहिब फिर बोले, चूँकि ये महज़ इत्तिफ़ाक़ की बात है कि मुझे अपनी मंसूबा बीवी से बातें करने का बल्कि मुलाक़ात करने का मौक़ा मिल गया है लिहाज़ा मैं इस ज़रीं मौक़े को किसी तरह हाथ से नहीं खो सकता।
ये कह कर वो दरवाज़े से निकल कर सामने आ खड़े हुए और मैं गोया घिर गई। मैं शर्म-ओ-हया से पानी पानी हो गई और मैंने सर झुका कर अपना मुँह दोनों हाथों से छिपा कर कोन में मोड़ लिया। किवाड़ में घुसी जाती थी। मेरी ये हालत-ए-ज़ार देखकर शायद बैरिस्टर साहिब ख़ुद शर्मा गए और उन्होंने कहा, मैं गुस्ताख़ी की माफ़ी चाहता हूँ मगर... ये कह कर सामने मसहरी से चादर खींच कर मेरे ऊपर डाल दी और ख़ुद कमरे से बाहर जा कर कहने लगे, आप मेहरबानी फ़रमा कर मसहरी पर बैठ जाईए और इत्मिनान रखिए कि मैं अंदर न आऊँगा। बशर्तिके आप मेरी चंद बातों के जवाब दें।

मैंने उसको ग़नीमत जाना और मसहरी पर चादर लपेट कर बैठ गई कि बैरिस्टर साहिब ने कहा, आप मेरी गुस्ताख़ी से ख़फ़ा तो नहीं हुईं?
मैं बदस्तूर ख़ामोश अँगूठी उतारने की कोशिश में लगी रही और कुछ न बोली बल्कि और तेज़ी से कोशिश करने लगी ताकि अँगूठी जल्द उतर जाये।

इतने में बैरिस्टर साहिब बोले, बोलिए साहिब जल्दी बोलिए। मैं फिर ख़ामोश रही तो उन्होंने कहा, आप जवाब नहीं देतीं तो फिर मैं हाज़िर होता हूँ।
मैं घबरा गई और मजबूरन मैंने दबी आवाज़ से कहा! जी नहीं, मैं बराबर अँगूठी उतारने की कोशिश में मशग़ूल थी।

बैरिस्टर साहिब ने कहा, शुक्रिया। ये अँगूठी आपको बहुत पसंद है?
या अल्लाह, मैंने तंग हो कर कहा, मुझे मौत दे। ये सुनकर मैं दरअसल दीवानावार उंगली को नोचने लगी। क्या कहूं मेरा क्या हाल था। मेरा बस न था कि उंगली काट कर फेंक दूं। मैंने उसका कुछ जवाब न दिया कि इतने में बैरिस्टर ने फिर तक़ाज़ा किया। मैं अपने आपको कोस रही थी और दिल में कह रही थी कि भला उसका क्या जवाब दूं। अगर कहती हूँ कि पसंद है तो शर्म आती है और अगर नापसंद कहती हूँ तो भला किस मुँह से कहूं। क्योंकि अंदेशा था कि कहीं वो ये न कहदें कि नापसंद है। तो फिर पहनी क्यों? मैं चुप रही और फिर कुछ न बोली।

इतने में बैरिस्टर साहिब ने कहा, शुक्र है इत्रदान तो आपको ऐसा पसंद आया कि आपने उसको बरत कर ख़त्म भी कर दिया। और गोया मेरी मेहनत वसूल हो गई, मगर अँगूठी के बारे में आप अपनी ज़बान से और कुछ कह दें ताकि मैं समझूं कि इसके भी दाम वसूल हो गए।
मैं ये सुनकर अब मारे ग़ुस्से और शर्म के रोने के क़रीब हो गई थी और तमाम ग़ुस्सा उंगली पर उतार रही थी, गोया उसने इत्रदान तोड़ा था। मैं इत्रदान तोड़ने पर सख़्त शर्मिंदा थी और मेरी ज़बान से कुछ भी न निकलता था।

जब मैं कुछ न बोली तो बैरिस्टर साहिब ने कहा, आप जवाब नहीं देतीं लिहाज़ा में हाज़िर होता हूँ।
मैं घबरा गई कि कहीं आ न जाएं और मैंने जल्दी से कहा, भला इस बात का मैं क्या जवाब दूं। मैं सख़्त शर्मिंदा हूँ कि आपका इत्रदान...

बात काट कर बैरिस्टर साहिब ने कहा, ख़ूब! वो इत्रदान तो आपका ही था। आपने तोड़ डाला, ख़ूब किया। मेरा ख़्याल है कि अँगूठी भी आपको पसंद है जो ख़ुशक़िस्मती से आपकी उंगली में बिल्कुल ठीक आई है और आप उसको अब तक अज़ राह-ए-इनायत पहने हुई हैं।
मैं अब क्या बताऊं कि ये सुनकर मेरा क्या हाल हुआ, मैं ने दिल में कहा, ख़ूब अँगूठी ठीक आई और ख़ूब पहने हुए हूँ। अँगूठी न हुई गले की फांसी हो गई। जो ऐसी ठीक आई कि उतरने का नाम ही नहीं लेती। मैंने दिल में ये भी सोचा कि अगर ये कम्बख़्त मेरी उंगली में न फंस गई होती तो काहे को मैं बेहया बनती और उन्हें ये कहने का मौक़ा मिलता कि आप पहने हुए हैं। ख़ुदा ही जानता है कि इस नामुराद अँगूठी को उतारने के लिए क्या-क्या जतन कर चुकी हूँ, और बराबर कर रही थी। मगर वो तो ऐसी फंसी थी कि उतरने का नाम ही न लेती थी। मैं फिर ख़ामोश रही और कुछ न बोली। मगर अँगूठी उतारने की बराबर कोशिश कर रही थी।

बैरिस्टर साहिब ने मेरी ख़ामोशी पर कहा, आप फिर जवाब से पहलू-तही कर रही हैं। पसंद है या नापसंद। इन दो जुमलों में से एक कह दीजिए।
मैंने फिर ग़ुस्से में उंगली को नोच डाला और क़िस्सा ख़त्म करने के लिए एक और ही लफ़्ज़ कह दिया, अच्छी है।

जी नहीं। बैरिस्टर साहिब ने कहा, अच्छी है और आपको पसंद नहीं तो किस काम की। इलावा इसके अच्छी तो ख़ुद दुकानदार ने कह कर दी थी, और मैं ये पूछता भी नहीं, आप बताईए कि आपको पसंद है या नापसंद, वर्ना फिर हाज़िर होने की इजाज़त दीजिए।
मैंने दिल में कहा ये क़तई घुस आएँगे और फिर झक मार कर कहना ही पड़ेगा, लिहाज़ा कह दिया, पसंद है। ये कह कर में दाँत पीस कर फिर उंगली नोचने लगी।

शुक्रिया। बैरिस्टर साहिब ने कहा, सद शुक्रिया। और अब आप जा सकती हैं। लेकिन एक अर्ज़ है और वो ये कि ये अँगूठी तो बेशक आपकी है और शायद आप उसको पहन कर उतारना भी नहीं चाहती हैं। लेकिन मुझको मजबूरन आपसे दरख़ास्त करना पड़ रही है कि शाम को मुझको चूँकि और चीज़ों के साथ उसको रस्मन भिजवाना है लिहाज़ा अगर ना

Don't have an account? Sign up

Forgot your password?

Error message here!

Error message here!

Hide Error message here!

Error message here!

OR
OR

Lost your password? Please enter your email address. You will receive a link to create a new password.

Error message here!

Back to log-in

Close