(1) वो आदमी जिसके ज़मीर में कांटा है (एक ग़ैर मुल्की कौंसिल के मकतूब जो उसने अपने अफ़्सर आला को कलकत्ता से रवाना किए) 8 अगस्त 1943 –कलाइव स्ट्रीट, मून शाईन ला। जनाब-ए-वाला। कलकत्ता, हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा शहर है। हावड़ा पुल हिन्दोस्तान का सबसे अ’जीब-ओ-ग़रीब पुल है। बंगाली क़ौम हिन्दोस्तान की सबसे ज़हीन क़ौम है। कलकत्ता यूनीवर्सिटी हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी यूनीवर्सिटी है। कलकत्ता का सोना गाची हिन्दोस्तान में तवाइफ़ों का सबसे बड़ा बाज़ार है। कलकत्ता का सुंदर बन चीतों की सबसे बड़ी शिकार गाह है। कलकत्ता जूट का सबसे बड़ा मर्कज़ है। कलकत्ता की सबसे बढ़िया मिठाई का नाम ‘रशोगुल्ला’ है। कहते हैं एक तवाइफ़ ने ईजाद किया था। लेकिन शोमई क़िस्मत से वो उसे पेटैंट न करा सकी, क्योंकि इन दिनों हिन्दुस्तान में कोई ऐसा क़ानून मौजूद न था। इसीलिए वो तवाइफ़ अपनी ज़िंदगी के आख़िरी अय्याम में भीक मांगते मरी। एक अलग पार्सल में हुज़ूर पुरनूर की ज़याफ़त तबा के लिए दो सौ ‘रोशो गुल्ले’ भेज रहा हूँ। अगर उन्हें क़ीमे के साथ खाया जाये तो बहुत मज़ा देते हैं। मैंने ख़ुद तजुर्बा किया है। मैं हूँ जनाब का अदना तरीन ख़ादिम एफ़.बी.पटाख़ा कौंसिल ममलकत सांडोघास बराए कलकत्ता 9 अगस्त कलाइव स्टरीट जनाब-ए-वाला। हुज़ूर पुरनूर की मंझली बेटी ने मुझसे सपेरे की बीन की फ़र्माइश की थी। आज शाम बाज़ार में मुझे एक सपेरा मिल गया। पच्चीस डालर देकर मैंने एक ख़ूबसूरत बीन ख़रीद ली है। ये बीन इस्फ़ंज की तरह हल्की और सुबुक इंदाम है। ये एक हिन्दुस्तानी फल से जिसे ‘लौकी’ कहते हैं, तैयार की जाती है। ये बीन बिल्कुल हाथ की बनी हुई है और इसे तैयार करते वक़्त किसी मशीन से काम नहीं लिया गया। मैंने इस बीन पर पालिश कराया और उसे सागवान के एक ख़ुशनुमा बक्स में बंद कर के हुज़ूर पुर-नूर की मंझली बेटी एडिथ के लिए बतौर तोहफ़ा इरसाल कर रहा हूँ। मैं हूँ जनाब का ख़ादिम एफ़.बी. पटाख़ा 10 अगस्त कलकत्ता में हमारे मुल्क की तरह राशनिंग नहीं है। ग़िज़ा के मुआ’मले में हर शख़्स को मुकम्मल शख़्सी आज़ादी है। वो बाज़ार से जितना अनाज चाहे ख़रीद ले कल ममलिकत टली के कौंसिल ने मुझे खाने पर मदऊ’ किया। छब्बीस क़िस्म के गोश्त के सालन थे। सब्ज़ियों और मीठी चीज़ों के दो दर्जन कोर्स तैयार किये गये थे। (निहायत उम्दा शराब थी) हमारे हाँ जैसा कि हुज़ूर अच्छी तरह जानते हैं प्याज़ तक की राशनिंग है. इस लिहाज़ से कलकत्ता के बाशिंदे बड़े ख़ुश-क़िस्मत हैं। खाने पर एक हिन्दुस्तानी इंजिनियर भी मदऊ’ थे। ये इंजिनियर हमारे मुल्क का ता’लीम याफ़ता है। बातों-बातों में उसने ज़िक्र किया कि कलकत्ता में क़हत पड़ा हुआ है। इस पर टली का कौंसिल क़हक़हा मार कर हँसने लगा और मुझे भी उस हंसी में शरीक होना पड़ा। दरअसल ये पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानी भी बड़े जाहिल होते हैं। किताबी इल्म से क़त-ए-नज़र उन्हें अपने मुल्क की सही हालत का कोई अंदाज़ा नहीं। हिन्दोस्तान की दो तिहाई आबादी दिन रात ग़ल्ला और बच्चे पैदा करने में मसरूफ़ रहती है। इसलिए यहां पर ग़ल्ले और बच्चों की कमी कभी नहीं होने पाती, बल्कि जंग से पेशतर तो बहुत सा ग़ल्ला दिसावर को जाता था और बच्चे क़ुली बना कर जुनूबी अफ़्रीक़ा भेज दिये जाते थे। अब एक अ’र्से से क़ुलियों का बाहर भेजना बंद कर दिया गया है और हिन्दुस्तानी सूबों को ‘होम रूल’ दे दिया गया है। मुझे ये हिन्दुस्तानी इंजिनियर तो कोई एजिटेटर क़िस्म का ख़तरनाक आदमी मा’लूम होता था। उसके चले जाने के बाद मैंने मोसीसियो झ़ां झां त्रेप टली के कौंसिल से उसका तज़्किरा छेड़ा तो मोसियो झ़ां झां त्रेप टली ने बड़े ग़ौर-ओ-ख़ौज़ के बाद ये राय दी कि हिन्दुस्तानी अपने मुल्क पर हुकूमत की क़तअन अहलियत नहीं रखता। चूँकि मोसियो झ़ां झां त्रेप की हुकूमत को बैन-उल-अक़वामी मुआ’मलात में एक ख़ास मर्तबा हासिल है। इसलिए मैं उनकी राय वक़ीअ’ समझता हूँ। मैं हूँ जनाब का ख़ादिम एफ़.बी.पी. 11 अगस्त आज सुबह बोलपोर से वापस आया हूँ। वहां डाक्टर टैगोर का शांति निकेतन देखा। कहने को तो ये एक यूनीवर्सिटी है। लेकिन पढ़ाई का ये आलम है कि तालिब इल्मों को बैठने के लिए एक बेंच नहीं। उस्ताद और तालिब-इल्म सब ही दरख़्तों के नीचे आलती-पालती मारे बैठे रहते हैं और ख़ुदा जाने कुछ पढ़ते भी हैं या यूँही ऊँघते हैं। मैं वहां से बहुत जल्द आया क्योंकि धूप बहुत तेज़ थी और ऊपर दरख़्तों की शाख़ों पर चिड़ियां शोर मचा रही थीं। फ़.ब.प. 12 अगस्त आज चीनी कौंसिल के हाँ लंच पर फिर किसी ने कहा कि कलकत्ता में सख़्त क़हत पड़ा हुआ है। लेकिन वसूक़ से कुछ न कह सका कि असल माजरा किया है। हम सब लोग हुकूमत बंगाल के ऐ’लान का इंतिज़ार कर रहे हैं। ऐ’लान के जारी होते ही हुज़ूर को मज़ीद हालात से मुत्तला करूँगा। बैग में हुज़ूर पुरनूर की मंझली बेटी एडिथ के लिए एक जूती भी इर्साल कर रहा हूँ। ये जूती सब्ज़-रंग के साँप की जिल्द से बनाई गई है। सब्ज़-रंग के साँप बर्मा में बहुत होते हैं, उम्मीद है कि जब बर्मा दुबारा हुकूमत इंग्लिशिया की अ’मलदारी में आ जाएगा तो उन जूतों की तिजारत को बहुत फ़रोग़ हासिल हो सकेगा। मैं हूँ जनाब का वग़ैरा वग़ैरा एफ़.बी.पी. 13 अगस्त आज हमारे सिफ़ारत ख़ाने के बाहर दो औरतों की लाशें पाई गई हैं। हड्डियों का ढांचा मा’लूम होती थीं। शायद ‘सुखिया’ की बीमारी में मुब्तला थीं इधर बंगाल में और ग़ालिबन सारे हिन्दोस्तान में सुखिया की बीमारी फैली हुई है। इस आ’रिज़े में इन्सान घुलता जाता है और आख़िर में सूख कर हड्डियों का ढांचा हो कर मर जाता है। ये बड़ी ख़ौफ़नाक बीमारी है लेकिन अभी तक इसका कोई शाफ़ी ईलाज दरियाफ्त नहीं हुआ। कुनैन कसरत से मुफ़्त तक़सीम की जा रही है। लेकिन कुनैन मैग्नीशिया या किसी और मग़रिबी दवा से इस आ’रिज़े की शिद्दत में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। दरअसल एशियाई बीमारियों को नौईयत मग़रिबी अमराज़ से मुख़्तलिफ़ है। बहुत मुख़्तलिफ़ है, ये इख्तिलाफ़ इस मफ़रुज़े का बदीही सबूत है कि एशियाई और मग़रिबी दो मुख़्तलिफ़ इन्सान हैं। हुज़ूर पुरनूर की रफीक़ा-ए-हयात के बासठवीं जन्म-दिन की ख़ुशी में बुध का एक मरमर का बुत इर्साल कर रहा हूँ। इसे मैंने पांसो डालर में ख़रीदा है। ये महाराजा बन्धूसार के ज़माने का है और मुक़द्दस राहिब ख़ाने की ज़ीनत था। हुज़ूर पुरनूर की रफीक़ा-ए-हयात के मुलाक़ातियों के कमरे में ख़ूब सजेगा। मुकर्रर अ’र्ज़ है कि सिफ़ारत ख़ाने के बाहर पड़ी हुई लाशों में एक बच्चा भी था जो अपनी मुर्दा माँ से दूध चूसने की नाकाम कोशिश कर रहा था। मैंने उसे हस्पताल भिजवा दिया है। हुज़ूर पुरनूर का ग़ुलाम एफ़.बी.पी 14 अगस्त डाक्टर ने बच्चे को हस्पताल में दाख़िल करने से इनकार कर दिया है। बच्चा अभी सिफ़ारत ख़ाना में है। समझ में नहीं आता क्या करूँ। हुज़ूर पुरनूर की हिदायत का इंतिज़ार है। टली के कौंसिल ने मश्वरा दिया है कि इस बच्चे को जहां से पाया था, वहीं छोड़ दूं। लेकिन मैंने ये मुनासिब न समझा कि अपने हुकूमत के सदर से मश्वरा किए बग़ैर कोई ऐसा इक़दामकरूँ जिसके सियासी नताइज भी न जाने कितने मोहलिक साबित हों। एफ़.बी.पी 16 अगस्त आज सिफ़ारत ख़ाने के बाहर फिर लाशें पाई गईं। ये सब लोग उसी बीमारी का शिकार मालूम होते थे जिसका मैं अपने गुज़िश्ता मकतूबात में ज़िक्र कर चुका हूँ। मैंने बच्चे को इन्ही लाशों में चुपके से रख दिया है और पुलिस को टेलीफ़ोन कर दिया है कि वो उन्हें स्फार ख़ाने की सीढ़ियों से उठाने का बंदोबस्त करे। उम्मीद है आज शाम तक सब लाशें उठ जाएँगी। एफ़.बी.पी 17 अगस्त कलकत्ता के अंग्रेज़ी अख़बार ‘स्टेट्समैन’ ने अपने इफ़्तिताहिया में आज इस अमर का ऐलान किया है कि कलकत्ता में सख़्त क़हत फैला हुआ है। ये अख़बार चंद रोज़ से क़हत ज़दगान की तसावीर भी शाये कर रहा है। अभी तक वसूक़ से नहीं कहा जा सकता कि ये फ़ोटो असली हैं या नक़ली। बज़ाहिर तो ये फ़ोटो सुखिया की बीमारी के प्राणियों के मा’लूम होते हैं। लेकिन तमाम ग़ैर मुल्की कौंसिल अपनी राय ‘महफ़ूज़’ रख रहे हैं। एफ़.बी.पी 20 अगस्त सुखिया की बीमारी के मरीज़ों को अब हस्पताल में दाख़िल करने की इजाज़त मिल गई है। कहा जाता है कि सिर्फ़ कलकत्ता में रोज़ दो ढाई सौ आदमी इस बीमारी का शिकार हो जाते हैं। और अब ये बीमारी एक वबा की सूरत इख़्तियार कर गई है। डाक्टर लोग बहुत परेशान हैं क्योंकि कुनैन खिलाने से कोई फ़ायदा नहीं होता। मर्ज़ में किसी तरह की कमी नहीं होती। हाज़मे का मिक्सचर मैग्नीशिया मिक्सचर और टिंक्चर आयोडीन पूरा ब्रिटिश फार्माकोपिया बेकार है। चंद मरीज़ों का ख़ून लेकर मग़रिबी साईंसदानों के पास बग़रज़ तहक़ीक़ भेजा जा रहा है और ऐन-मुमकिन है कि किसी ग़ैरमा’मूली मग़रिबी एक्सपर्ट की ख़िदमात भी हासिल की जायें या एक रॉयल कमीशन बिठा दिया जाये जो चार पाँच साल में अच्छी तरह छानबीन कर के इस अमर के मुता’ल्लिक़ अपनी रिपोर्ट हुकूमत को पेश करे । अल-ग़रज़ उन ग़रीब मरीज़ों को बचाने के लिए हर मुम्किन कोशिश की जा रही है। शद-ओ-मद के साथ ऐलान किया गया है कि सारे बंगाल में क़हत का दौर-दौरा है और हज़ारों आदमी हर हफ़्ते ग़िज़ा की कमी की वजह से मर जाते हैं। लेकिन हमारी नौकरानी (जो ख़ुद बंगालन है) का ख़्याल है कि ये अख़बारची झूट बोलते हैं। जब वो बाज़ार में चीज़ें ख़रीदने जाती है तो उसे हर चीज़ मिल जाती है। दाम बे-शक बढ़ गये हैं। लेकिन ये महंगाई तो जंग की वजह से नागुज़ीर है। एफ़.बी.पी. 25 अगस्त आज सियासी हलक़ों ने क़हत की तर्दीद कर दी है। बंगाल असैंबली ने जिसमें हिन्दुस्तानी मेम्बरों और वुज़रा की कसरत है। आज ऐलान कर दिया है कि कलकत्ता और बंगाल का इलाक़ा ‘क़हतज़दा इलाक़ा’ क़रार नहीं दिया जा सकता। इसका ये मतलब भी है कि बंगाल में फ़िलहाल राशनिंग न होगा। ये ख़बर सुनकर ग़ैर मुल्की कौंसिलों के दिल में इत्मिनान की एक लहर दौड़ गई। अगर बंगाल क़हतज़दा इलाक़ा क़रार दे दिया जाता तो ज़रूर राशनिंग का फ़िल-फ़ौर नफ़ाज़ न होता और मेरा मतलब है कि अगर राशनिंग का नफ़ाज़ होता तो उसका असर हम लोगों पर भी पड़ता। मोसियोसी ग़ल जो फ़्रैंच कौंसिल में कल ही मुझसे कह रहे थे कि ऐन-मुमकिन है कि राशनिंग हो जाये। इसलिए तुम अभी से शराब का बंदोबस्त कर लो। मैं चन्दर नगर से फ़्रांसीसी शराब मंगवाने का इरादा कर रहा हूँ। सुना है कि चन्दर नगर में कई सौ साल पुरानी शराब भी दस्तयाब होती है। बल्कि अक्सर शराबें तो इन्क़िलाब-ए-फ़्रांस से भी पहले की हैं। अगर हुज़ूर पुरनूर मुत्तला फ़रमाएं तो चंद बोतलें चखने के लिए भेज दूं। फ.ब.प 28 अगस्त कल एक अ’जीब वाक़िया पेश आया। मैंने न्यूमार्केट से अपनी सबसे छोटी बहन के लिए चंद खिलौने ख़रीदे। उनमें एक फ़ेनी की गुड़िया बहुत ही हसीन थी और मारिया को बहुत पसंद थी। मैंने डेढ़ डॉलर देकर वो गुड़िया भी ख़रीद ली और मारिया को उंगली से लगाए बाहर आगया। कार में बैठने को था कि एक अधेड़ उम्र की बंगाली औरत ने मेरा कोट पकड़ कर मुझे बंगाली ज़बान में कुछ कहा। मैंने उससे अपना दामन छुड़ा लिया और कार में बैठ कर अपने बंगाली शोफ़र से पूछा, “ये क्या चाहती है?” ड्राईवर बंगाली औरत से बात करने लगा। उस औरत ने जवाब देते हुए अपनी लड़की की तरफ़ इशारा किया जिसे वो अपने शाने से लगाए खड़ी थी। बड़ी-बड़ी मोटी आँखों वाली ज़र्द-ज़र्द बच्ची बिल्कुल चीनी की गुड़िया मा’लूम होती थी और मारिया की तरफ़ घूर घूर कर देख रही थी। फिर बंगाली औरत ने तेज़ी से कुछ कहा। बंगाली ड्राईवर ने उसी सुरअ’त से जवाब दिया। “क्या कहती है ये?” मैंने पूछा। ड्राईवर ने उस औरत की हथेली पर चंद सिक्के रखे और कार आगे बढ़ाई। कार चलाते-चलाते बोला, “हुज़ूर ये अपनी बच्ची को बेचना चाहती थी, डेढ़ रुपये में।” “डेढ़ रुपये में, या’नी निस्फ़ डॉलर में?” मैंने हैरान हो कर पूछा। “अरे निस्फ़ डॉलर में तो चीनी की गुड़िया भी नहीं आती?” “आजकल निस्फ़ डॉलर में बल्कि इससे भी कम क़ीमत पर एक बंगाली बच्ची मिल सकती है...!” मैं हैरत से अपने ड्राईवर को तकता रह गया। उस वक़्त मुझे अपने वतन की तारीख़ का वो बाब याद आया। जब हमारे आबा-ओ-अजदाद अफ़्रीक़ा से हब्शियों को ज़बरदस्ती जहाज़ में लाद कर अपने मुल्क में ले आते थे और मंडियों में ग़ुलामों की ख़रीद-ओ-फ़रोख़त करते थे। उन दिनों एक मा’मूली से मा’मूली हब्शी भी पच्चीस-तीस डालर से कम में न बिकता था। ओफ़्फ़ो, किस क़दर ग़लती हुई। हमारे बुज़ुर्ग अगर अफ़्रीक़ा के बजाय हिन्दुस्तान का रुख करते तो बहुत सस्ते दामों ग़ुलाम हासिल कर सकते थे। हब्शियों के बजाय अगर वो हिंदुस्तानियों की तिजारत करते तो लाखों डॉलर की बचत हो जाती। एक हिन्दुस्तानी लड़की सिर्फ़ निस्फ़ डॉलर में! और हिन्दोस्तान की भी आबादी चालीस करोड़ है। गोया बीस करोड़ डॉलर में हम पूरे हिन्दुस्तान की आबादी को ख़रीद सकते थे। ज़रा ख़्याल तो फ़रमाईए कि बीस करोड़ डॉलर होते ही कितने हैं। इससे ज़्यादा रक़म तो हमारे वतन में एक यूनीवर्सिटी क़ायम करने में सर्फ़ हो जाती है। अगर हुज़ूर पुरनूर की मंझली बेटी को ये पसंद हो तो मैं एक दर्जन बंगाली लड़कियां ख़रीद कर बज़रीया हवाई जहाज़ पार्सल कर दूं! तब शोफ़र ने बताया कि आजकल ‘सोना गाची’ जहां कलकत्ता की तवाइफ़ें रहती हैं। इस क़िस्म की बुरदाफ़रोशी का अड्डा है। सैकड़ों की तादाद में लड़कियां शब-ओ-रोज़ फ़रोख़्त की जा रही हैं। लड़कियों के वालदैन फ़रोख़्त करते हैं और रंडियां खरीदती हैं। आम नर्ख़ सवा रुपया है। लेकिन अगर बच्ची क़बूलसूरत हो तो चार पाँच बल्कि दस रुपये भी मिल जाते हैं। चावल आजकल बाज़ार में साठ सत्तर रुपये फ़ी मन मिलता है। इस हिसाब से अगर एक कुन्बा अपनी दो बच्चियां भी फ़रोख़्त कर दे तो कम अज़ कम आठ दस दिन और ज़िंदगी का धंदा किया जा सकता है और औसतन बंगाली कुन्बे में लड़कियों की तादाद दो से ज़्यादा होती है। कल मेयर आफ़ कलकत्ता ने शाम के खाने पर मदऊ’ किया है। वहां यक़ीनन बहुत ही दिलचस्प बातें सुनने में आयेंगी । फ. ब.प 29 अगस्त मेयर आफ़ कलकत्ता का ख़्याल है कि बंगाल में शदीद क़हत है और हालत बेहद ख़तरनाकहै। उसने मुझसे अपील की कि मैं अपनी हुकूमत को बंगाल की मदद के लिए आमादा करूँ। मैंने उसे अपनी हुकूमत की हमदर्दी का यक़ीन दिलाया। लेकिन ये अमर भी इस पर वाज़िह कर दिया कि ये क़हत हिन्दोस्तान का अंदरूनी मसला है और हमारी हुकूमत किसी दूसरी क़ौम के मुआ’मलात में दख़ल देना नहीं चाहती। हम सच्चे जमहूरीयत पसंद हैं और कोई सच्चा जमहूरीया आपकी आज़ादी को सल्ब करना नहीं चाहता। हर हिन्दुस्तानी को जीने या मरने का इख़्तियार है। ये एक शख़्सी या ज़्यादा से ज़्यादा एक क़ौमी मसला है और इस की नौईयत बैन-उल-अक़वामी नहीं। इस मौक़ा पर मोसियो झ़ां झां त्रेप भी बहस में शामिल हो गये और कहने लगे। जब आपकी असैंबली ने बंगाल को क़हतज़दा इलाक़ा famine area ही नहीं क़रार दिया तो इस सूरत में आप दूसरी हुकूमतों से मदद क्योंकर तलब कर सकते हैं। इस पर मेयर आफ़ कलकत्ता ख़ामोश हो गये और रस गुल्ले खाने लगे। फ.ब.प 30 अगस्त मिस्टर एमरी ने जो बर्तानवी वज़ीर हिंद हैं। हाऊस आफ़ कॉमन्ज़ में एक बयान देते हुए फ़रमाया कि हिन्दुस्तान में आबादी का तनासुब ग़िज़ाई ए’तबार से हौसलाशिकन है। हिन्दुस्तान की आबादी में डेढ़ सौ गुना इज़ाफ़ा हुआ है। दर हाल ये कि ज़मीनी पैदावार बहुत कम बढ़ी है। इस पर तुर्रा ये कि हिन्दुस्तानी बहुत खाते हैं। ये तो हुज़ूर मैंने भी आज़माया है कि हिन्दुस्तानी लोग दिन में दोबार बल्कि अक्सर हालतों में सिर्फ़ एक-बार खाना खाते हैं। लेकिन इस क़दर खाते हैं कि हम मग़रिबी लोग दिन में पाँच बार भी इस क़दर नहीं खा सकते। मोसियो झ़ां झां त्रेप का ख़्याल है कि बंगाल में शरह अमवात के बढ़ने की सबसे बड़ी वजह यहां के लोगों का पेटू पन है। ये लोग इतना खाते हैं कि अक्सर हालतों में तो पेट फट जाता है और वो जहन्नुम वासिल हो जाते हैं। चुनांचे मिसल मशहूर है कि हिन्दुस्तानी कभी मुँहफट नहीं होता लेकिन पेट फट ज़रूर होता है बल्कि अक्सर हालतों में तली फट भी पाया। नीज़ ये अमर भी क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि हिंदुस्तानियों और चूहों की शरह पैदाइश दुनिया में सबसे ज़्यादा है और अक्सर हालतों में इन दोनों में इम्तियाज़ करना बहुत मुश्किल हो जाता है। वो जितनी जल्दी पैदा होते हैं उतनी जल्दी मर जाते हैं। अगर चूहों को प्लेग होती है तो हिंदुस्तानियों को सुखिया बल्कि उ’मूमन प्लेग और सुखिया दोनों लाहक़ हो जाती हैं। बहर हाल जब तक चूहे अपने बिल में रहें और दुनिया को परेशान न करें, हमें उनके निजी मुआ’मलात में दख़ल देने का कोई हक़ नहीं। ग़िज़ाई महकमे के मैंबर हालात की जांच पड़ताल के लिए तशरीफ़ लाये हैं। बंगाली हलक़ों में ये उम्मीद ज़ाहिर की जा रही है कि ऑनरेबेल मैंबर पर अब ये वाज़ह हो जाएगा कि बंगाल में वाक़ई क़हत है और शरह अमवात के बढ़ने का सबब बंगालियों कि अनारकिस्टाना हरकात नहीं बल्कि ग़िज़ाई बोहरान है। फ.ब.प 20 सितंबर ऑनरेबल मैंबर तहक़ीक़ात के बाद वापस चले गये हैं। सुना है, वहां हुज़ूर वायसराय बहादुर से मुलाक़ात करेंगे और अपनी तजावीज़ उनके सामने रखेंगे। 25 सितंबर लंदन के अंग्रेज़ी अख़बारों की इत्तिला के मुताबिक़ हर-रोज़ कलकत्ता की गलियों और सड़कों, फ़ुटपाथों पर लोग मर जाते हैं। बहरहाल ये सब अख़बारी इत्तिलाएं हैं। सरकारी तौर पर इस बात का कोई सबूत नहीं कि बंगाल में क़हत है। सब परेशान हैं। चीनी कौंसिल कल मुझसे कह रहा था कि वो बंगाल के फ़ाक़ा कशों के लिए एक इमदादी फ़ंड खोलना चाहता है। लेकिन उसकी समझ में नहीं आता कि वो क्या करे और क्या न करे। कोई कहता है कि क़हत है कोई कहता है क़हत नहीं है। मैंने उसे समझाया, बेवक़ूफ़ न बनो। इस वक़्त तक हमारे पास मुसद्दिक़ा इत्तिला यही है कि ग़िज़ाई बोहरान इसलिए है कि हिन्दुस्तानी बहुत ज़्यादा खाते हैं। अब तुम उन लोगों के लिए एक इमदादी फ़ंड खोल कर गोया उनके पेटूपन को और शह दोगे। ये हिमाक़त नहीं तो और क्या है। लेकिन चीनी कौंसिल मेरी तशरीहात से ग़ैर मुतमइन मा’लूम होता था। फ.ब.प 28 सितंबर दिल्ली में ग़िज़ाई मसले पर ग़ौर करने के लिए एक कान्फ़्रैंस बुलाई जा रही है। आज फिर यहां कई सौ लोग सुखिया से मर गये। ये भी ख़बर आई है कि मुख़्तलिफ़ सुबाई हुकूमतों ने रिआ’या में अनाज तक़सीम करने की जो स्कीम बनाई है। उससे इन्होंने कई लाख रुपये का मुनाफ़ा हासिल किया है। इस में बंगाल की हुकूमत भी शामिल है। फ.ब.प 20 अक्तूबर कल ग्रांड होटल में ‘यौम-ए-बंगाल’ मनाया गया। कलकत्ता के यूरोपियन उमरा-ओ- शुरफ़ा के इ’लावा हुक्काम आला, शहर के बड़े सेठ और महाराजे भी इस दिलचस्प तफ़रीह में शरीक थे। डांस का इंतिज़ाम खासतौर पर अच्छा था। मैंने मिसिज़ ज्योलेट त्रेप के साथ दो मर्तबा डांस किया (मिसिज़ त्रेप के मुँह से लहसुन की बू आती थी। न जाने क्यों? मिसिज़ त्रेप से मा’लूम हुआ कि इस सहन माहताबी के मौक़ा पर यौम-ए-बंगाल के सिलसिले में नौ लाख रुपया इकट्ठा हुआ है। मिसिज़ त्रेप बार-बार चांद की ख़ूबसूरत और रात की स्याह मुलाइमत का ज़िक्र कर रही थीं और उनके मुँह से लहसुन के भपारे उठ रहे थे। जब मुझे उनके साथ दुबारा डांस करना पड़ा तो मेरा जी चाहता था कि उनके मुँह पर लाईसोल या फ़ीनाइल छिड़क कर डांस करूँ। लेकिन फिर ख़्याल आया कि मिसिज़ ज्योलेट त्रेप मोसियो झां झां त्रेप की बावक़ार बीवी हैं और मोसियो झ़ां झां त्रेप की हुकूमत को बैन-उल-अक़वामी मुआ’मलात में एक क़ाबिल-ए-रश्क मर्तबा हासिल है। हिन्दुस्तानी ख़वातीन में मिस स्नेह से तआ’रुफ़ हुआ। बड़ी क़बूलसूरत है और बेहद अच्छा नाचती है। फ.ब.प 26अक्तूबर मिस्टर मुंशी हुकूमत बंबई के एक साबिक़ वज़ीर का अंदाज़ा है कि बंगाली में हर हफ़्ते क़रीबन एक लाख अफ़राद क़हत का शिकार हो रहे हैं। लेकिन ये सरकारी इत्तिला नहीं है। कौंसिल ख़ाने के बाहर आज फिर चंद लाशें पाई गईं। शोफ़र ने बताया कि ये एक पूरा ख़ानदान था जो देहात से रोटी की तलाश में कलकत्ता आया था। परसों भी इसी तरह मैंने एक मुग़न्नी की लाश देखी थी। एक हाथ में वो अपनी सितार पकड़े हुए था और दूसरे हाथ में लकड़ी का एक झुनझुना, समझ नहीं आया। इसका क्या मतलब था। बेचारे चूहे किस तरह चुप-चाप मर जाते हैं और ज़बान से उफ़ तक भी नहीं करते। मैंने हिंदुस्तानियों से ज़्यादा शरीफ़ चूहे दुनिया में और कहीं नहीं देखे। अगर अम्न पसंदी के लिए नोबल प्राइज़ किसी क़ौम को मिल सकता है तो वो हिन्दुस्तानी हैं। या’नी लाखों की तादाद में भूके मर जाते हैं लेकिन ज़बान पर एक कलमा-ए-शिकायत नहीं लाएँगे। सिर्फ़ बे-रूह, बे-नूर आँखों से आसमान की तरफ़ ताकते हैं। गोया कह रहे हों, अन्न-दाता, अन्न-दाता।! कल रात फिर मुझे उस मुग़न्नी की ख़ामोश शिकायत से मा’मूर, जामिद-ओ-साकित पथरीली बे-नूर सी निगाहें परेशान करती रहीं। फ.ब.प 5 नवंबर नए हुज़ूर वायसराय बहादुर तशरीफ़ लाये हैं। सुना है कि उन्होंने फ़ौज को क़हतज़दा लोगों की इमदाद पर मा’मूर किया है और जो लोग कलकत्ता के गली कुचों में मरने के आ’दी हो चुके हैं। उनके लिए बाहर मुज़ाफ़ात में मर्कज़ खोल दिये गये हैं। जहां उनकी आसाइश के लिए सब सामान बहम पहुंचाया जाएगा। फ.ब.प 10 नवंबर मोसियो झ़ां झां त्रेप का ख़्याल है कि ये ऐन-मुमकिन है कि बंगाल में वाक़ई क़हत हो और सुखिया बीमारी की इत्तिलाएं ग़लत हों। ग़ैर मुल्की कौंसिल ख़ानों में इस रिमार्क से हलचल मच गई है। ममलिकत गोबिया, लोबिया और मटरस्लोवकिया को कौंसिलों का ख़्याल है कि मोसियो झ़ां झां त्रेप का ये जुमला किसी आने वाली ख़ौफ़नाक जंग का पेश-ख़ेमा है। योरोपी और एशियाई मुल्कों से भागे हुए लोगों में आजकल हिन्दुस्तान में मुक़ीम हैं । वायसराय की स्कीम के मुता’ल्लिक़ मुख़्तलिफ़ शुबहात पैदा हुए हैं। वो लोग सोच रहे हैं। अगर बंगाल वाक़ई क़हतज़दा इलाक़ा क़रार दे दिया गया तो उनके अलाउंस का क्या बनेगा? वो लोग कहाँ जायेंगे? मैं हुज़ूर पुरनूर की तवज्जा उस सियासी उलझन की तरफ़ दिलाना चाहता हूँ, वायसराय बहादुर के ऐलान से पैदा हो गई है। मग़रिब के मुल्कों के रिफ्यूजियों के हुक़ूक़ की हिफ़ाज़त के लिए क्या हमें सीना-सिपर हो कर न लड़ना चाहिए। मग़रिबी तहज़ीब कल्चर और तमद्दुन के क्या तक़ाज़े हैं। आज़ादी और जमहूरीयत को बरक़रार रखने के लिए हमें क्या क़दम उठाना चाहिए। मैं इस सिलसिले में हुज़ूर पुरनूर के अहकाम का मुंतज़िर हूँ। फ.ब.प 25 नवंबर मोसियो झ़ां झां त्रेप का ख़्याल है कि बंगाल में क़हत नहीं है। मोसियो फां फां फुंग चीनी कौंसिल का ख़्याल है कि बंगाल में क़हत है। मैं शर्मिंदा हूँ कि हुज़ूर ने मुझे जिस काम के लिए कलकत्ता के कौंसिल ख़ाने में तयनात किया था वो काम मैं गुज़िश्ता तीन माह में भी पूरा न कर सका। मेरे पास इस अमर की एक भी मुसद्दिक़ा इत्तिला नहीं है कि बंगाल में क़हत है या नहीं है। तीन माह की मुसलसल काविश के बाद भी मुझे ये मा’लूम न हो सका कि सही डिप्लोमैटिक पोज़ीशन क्या है। मैं इस सवाल का जवाब देने से क़ासिर हूँ, शर्मिंदाहूँ। माफ़ी चाहता हूँ। नीज़ अ’र्ज़ है कि हुज़ूर पुरनूर की मंझली बेटी को मुझसे और मुझे हुज़ूर पुरनूर की मंझली बेटी से इश्क़ है। इसलिए क्या ये बेहतर न होगा कि हुज़ूर पुरनूर मुझे कलकत्ता के सिफ़ारत ख़ाने से वापस बुला लें और मेरी शादी अपनी बेटी मतलब है... हुज़ूर पुरनूर की मंझली बेटी से कर दें और हुज़ूर पुरनूर मुझे किसी मुमताज़ सिफ़ारत ख़ाने में सफ़ीर-ए-आला का मर्तबा बख़्श दें? इस नवाज़िश के लिए मैं हुज़ूर पुरनूर का ता क़यामत शुक्रगुज़ार हूँगा। एडिथ के लिए एक नीलम की अँगूठी इर्साल कर रहा हूँ। उसे महाराजा अशोक की बेटी पहना करती थी। मैं हूँ जनाब का हक़ीर तरीन ख़ादिम एफ़.बी.पटाखा कौंसिल ममलिकत सांडोघास बराए कलकत्ता (२) वो आदमी जो मर चुका है सुबह नाशते पर जब उसने अख़बार खोला तो उसने बंगाल के फ़ाक़ाकशों की तसावीर देखीं जो सड़कों पर, दरख़्तों के नीचे, गलियों में, खेतों में बाज़ारों में, घरों में हज़ारों की तादाद में मर रहे थे। आमलेट खातेखाते उसने सोचा कि इन ग़रीबों की इमदाद किस तरह मुम्किनहै। ये ग़रीब जो नाउम्मीदी की मंज़िल से आगे जा चुके हैं और मौत की बोहरानी कैफ़ियत से हमकनार हैं। उन्हें ज़िंदगी की तरफ़ वापस लाना, ज़िंदगी की सऊ’बतों से दुबारा आश्ना करना, उनसे हमदर्दी नहीं दुश्मनी होगी। उसने जल्दी में अख़बार का वर्क़ उल्टा और तोस पर मुरब्बा लगा कर खाने लगा तोस नर्म-गर्म और कुरकुरा था और मुरब्बे की मिठास और उसकी हल्की सी तुर्शी ने उसके ज़ायक़े को और भी निखार दिया था। जैसे ग़ाज़े का ग़ुबार औरत के हुस्न को निखार देता है। यकायक उसे स्नेह का ख़्याल आया। स्नेह अभी तक न आई थी। गो उसने वा’दा किया था कि वो सुबह के नाशते पर उसके साथ मौजूद होगी। सो रही होगी बेचारी अब क्या वक़्त होगा। उसने अपनी सोने की घड़ी से पूछा जो उसकी गोरी कलाई में जिस पर स्याह बालों की एक हल्की सी रेशमीं लाईन थी। एक स्याह रेशमी फीते से बंधी थी। घड़ी, क़मीज़ के बटन और टाई का पिन, यही तीन ज़ेवर मर्द पहन सकता है और औरतों को देखिए कि जिस्म को ज़ेवर से ढक लेती। कान के लिए ज़ेवर, पांव के लिए ज़ेवर, कमर के लिए ज़ेवर, नाक के लिए ज़ेवर, सर के लिए ज़ेवर, गले के लिए ज़ेवर, बाहोँ के लिए ज़ेवर और मर्द बेचारे के लिए सिर्फ़ तीन ज़ेवर बल्कि दो ही समझिए क्योंकि टाई का पिन अब फ़ैशन से बाहर होता जा रहा है। न जाने मर्दों को ज़्यादा ज़ेवर पहनने से क्यों मना किया गया है। यही सोचते-सोचते वो दलिया खाने लगा। दलिये से इलायची की महक उठ रही थी। उसके नथुने, उसके पाकीज़ा तअ’त्तुर से मुसफ्फ़ा हो गये और यकायक उसके नथनों में गुज़िश्ता रात के इत्र की ख़ुशबू ताज़ा हो गई। वो इत्र जो स्नेह ने अपनी साड़ी, अपने बालों में लगा रखा था। गुज़िश्ता रात का दिलफ़रेब रक़्स उसकी आँखों के आगे घूमता गया। ग्रांड होटल में नाच हमेशा अच्छा होता है। उसका और स्नेह का जोड़ा कितना अच्छा है। सारे हाल की निगाहें उन पर जमी हुई थीं। दोनों कानों में गोल गोल तिलाई आवेज़े पहने हुए थी जो उसकी लवों को छुपा रहे थे। होंटों पर जवानी का तबस्सुम और मैक्सफैक्टर की लाली का मो’जिज़ा और सीने के सुमन ज़ारों पर मोतियों की माला चमकती, दमकती, लचकती नागिन की तरह सौ बल खाती हुई। रम्बा नाच कोई स्नेह से सीखे, उसके जिस्म की रवानी और रेशमी बनारसी साड़ी का पुरशोर बहाव जैसे समुंदर की लहरें चाँदनी-रात में साहिल से अठखेलियाँ कर रही हों। लहर आगे आती है। साहिल को छू कर वापस चली जाती है। मद्धम सी सरसराहाट पैदा होती है और चली जाती है। शोर मद्धम हो जाता है। शोर क़रीब आ जाता है। आहिस्ता-आहिस्ता लहर चांदनी में नहाए हुए साहिल को चूम रही है। स्नेह के लब नीम-वा थे जिनमें दाँतों की लड़ी सपेद मोतियों की माला की तरह लरज़ती नज़र आती थी... यकायक वहां की बिजली बुझ गई और वो स्नेह से होंट से होंट मिलाए, जिस्म से जिस्म लगाए आँखें बंद किए रक़्स के ताल पर नाचते रहे। उन सुरों की मद्धम सी रवानी, वो रसीला मीठा तमोन रवाँ-दवाँ, रवाँ-दवाँ मौत की सी पाकीज़गी। नींद और ख़ुमार और नशा जैसे जिस्म न हो, जैसे ज़िंदगी न हो, जैसे तू न हो, जैसे में न हूँ, सिर्फ़ एक बोसा हो। सिर्फ़ एक गीत हो। इक लहर हो। रवाँ-दवाँ, रवाँ-दवाँ... उसने सेब के क़त्ले किए और कांटे से उठा कर खाने लगा। प्याली में चाय उंडेलते हुए उसने सोचा स्नेह का जिस्म कितना ख़ूबसूरत है। उसकी रूह कितनी हसीन है। उसका दिमाग़ किस क़दर खोखला है। उसे पुरमग़्ज़ औरतें बिलकुल पसंद न थीं। जब देखो इश्तिराकीयत, साम्राजियत और मार्क्सियत पर बहस कर रही हैं। आज़ादी तालीम-ए-निस्वाँ, नौकरी, ये नई औरत, औरत नहीं फ़लसफ़े की किताब है। भई ऐसी औरत से मिलने या शादी करने की बजाय तो यही बेहतर है कि आदमी अरस्तू पढ़ा करे। उसने बेक़रार हो कर एक-बार फिर घड़ी पर निगाह डाली। स्नेह अभी तक न आती थी। चर्चिल और स्टालिन और रूज़वेल्ट तहरान में दुनिया का नक़्शा बदल रहे थे और बंगाल में लाखों आदमी भूक से मर रहे थे। दुनिया को अतलांतिक चार्टर दिया जा रहा था और बंगाल में चावल का एक दाना भी न था। उसे हिन्दोस्तान की ग़ुर्बत पर इतना तरस आया कि उसकी आँखों में आँसू भर आये। हम ग़रीब हैं बेबस हैं नादार हैं। मजबूर हैं। हमारे घर का वही हाल है जो मीर के घर का हाल था। जिसका ज़िक्र इन्होंने चौथी जमात में पढ़ा था और जो हर वक़्त फ़र्याद करता रहता था। जिसकी दीवारें सिली सिली और गिरी हुई थीं और जिसकी छत हमेशा टपक-टपक कर रोती रहती थी। उसने सोचा हिन्दुस्तान भी हमेशा रोता रहता है। कभी रोटी नहीं मिलती, कभी कपड़ा नहीं मिलता। कभी बारिश नहीं होती। कभी वबा फैल जाती है। अब बंगाल के बेटों को देखो, हड्डियों के ढाँचे आँखों में अबदी अफ़्सुर्दगी, लबों पर भिकारी की सदा, रोटी, चावल का एक दाना, यकायक चाय का घूँट उसे अपने हलक़ में तल्ख़ महसूस हुआ और उसने सोचा कि वो ज़रूर अपने हम वतनों की मदद करेगा। वो चंदा इकट्ठा करेगा। दौरा, जलसे, वालंटियर, चंदा, अनाज और ज़िंदगी की एक लहर मुल्क में इस सिरे से दूसरे सिरे तक फैल जाएगी। बर्क़ी रौ की तरह। यकायक उसने अपना नाम जली सुर्ख़ीयों में देखा। मुल्क का हर अख़बार उसकी ख़िदमात को सराह रहा था और ख़ुद, इस अख़बार में जिसे वो अब पढ़ रहा था। उसे अपनी तस्वीर झाँकती नज़र आई, खद्दर का लिबास और जवाहर लाल जैकेट और हाँ वैसी ही ख़ूबसूरत मुस्कुराहट, हाँ बस ये ठीक है। उसने बैरे को आवाज़ दी उसे एक और आमलेट लाने को कहा। आज से वो अपनी ज़िंदगी बदल डालेगा। अपनी हयात का हर लम्हा उन भूके नंगे, प्यासे, मरते हुए हम वतनों की ख़िदमत में सर्फ़ कर देगा। वो अपनी जान भी उनके लिए क़ुर्बान कर देगा। यकायक उसने अपने आपको फांसी की कोठरी में बंद देखा, वो फांसी के तख़्ते की तरफ़ ले जाया जा रहा था। उसके गले में फांसी का फंदा था। जल्लाद ने चेहरे पर ग़लाफ़ उढ़ा दिया और उसने उस खुरदुरे मोटे ग़लाफ़ के अंदर से चिल्ला कर कहा, “मैं मर रहा हूँ। अपने भूके प्यासे नंगे वतन के लिए”, ये सोच कर उसकी आँखों में आँसू फिर भर आये और दो एक ग़र्म-गर्म नमकीन बूँदें चाय की प्याली में भी गिर पड़ीं और उसने रूमाल से अपने आँसू पोंछ डाले। यकायक एक कार पोर्च में रुकी और मोटर का पट खोल कर स्नेह मुस्कुराती हुई सीढ़ियों पर चढ़ती हुई ,दरवाज़ा खोल कर अंदर आती हुई, उसे हेलो कहती हुई। उसने गले में बाँहें डाल कर उसके रुख़्सार को फूल की तरह अपने इत्र-बेज़ होंटों से चूमती हुई नज़र आई, बिजली, गर्मी, रोशनी, मसर्रत सब कुछ एक तबस्सुम में था और फिर ज़हर, स्नेह की आँखों में ज़हर था। उसकी ज़ुल्फ़ों में ज़हर था। उसकी मद्धम हल्की सांस की हर जुंबिश में ज़हर था। वो अजंता की तस्वीर थी, जिसके ख़द-ओ-ख़ाल तसव्वुर ने ज़हर से उभारे थे। उसने पूछा, “नाशता करोगी?” “नहीं, मैं नाशता कर के आई हूँ”, फिर स्नेह ने उसकी पलकों में आँसू छलकते देख बोली, “तुम आज उदास क्यों हो?” वो बोला, “कुछ नहीं। यूंही बंगाल के फ़ाक़ा कशों का हाल पढ़ रहा था। स्नेह, हमें बंगाल के लिए कुछ करना चाहिए।” “door darlings” स्नेह ने आह भर कर और जेबी आईने की मदद से अपने होंटों की सुर्ख़ी ठीक करते हुए कहा, “हम लोग उनके लिए क्या कर सकते हैं। मासिवा इसके कि उनकी रूहों क