हर तीसरे दिन, सह-पहर के वक़्त एक बेहद दुबला पुतला बूढ़ा, घुसे और जगह-जगह से चमकते हुए सियाह कोट पतलून में मलबूस, सियाह गोल टोपी ओढ़े, पतली कमानी वाली छोटे-छोटे शीशों की ऐ’नक लगाए, हाथ में छड़ी लिए बरसाती में दाख़िल होता और छड़ी को आहिस्ता-आहिस्ता बजरी पर खटखटाता। फ़क़ीरा बाहर आकर बाजी को आवाज़ देता, “बिटिया। चलिए। साइमन आ गए।” बूढ़ा बाहर ही से बाग़ की सड़क का चक्कर काट कर पहलू के बरामदे में पहुँचता। एक कोने में जाकर और जेब में से मैला सा रूमाल निकाल कर झुकता, फिर आहिस्ता से पुकारता, “रेशम... रेशम... रेशम...” रेशम दौड़ती हुई आती। बाजी बड़े आर्टिस्टिक अंदाज़ में सरोद कंधे से लगाए बरामदे में नुमूदार होतीं। तख़्त पर बैठ कर सरोद का सुर्ख़ बनारसी ग़िलाफ़ उतारतीं और सबक़ शुरू’ जाता। बारिश के बा’द जब बाग़ भीगा-भीगा सा होता और एक अनोखी सी ताज़गी और ख़ुशबू फ़िज़ा में तैरती तो बूढ़े को वापिस जाते वक़्त घास पर गिरी कोई ख़ूबानी मिल जाती। वो उसे उठा कर जेब में रख लेता। रेशम उसके पीछे-पीछे चलती। अक्सर रेशम शिकार की तलाश में झाड़ियों के अंदर ग़ायब हो जाती या किसी दरख़्त पर चढ़ जाती तो बूढ़ा सर उठा कर एक लम्हे के लिए दरख़्त की हिलती हुई शाख़ को देखता और फिर सर झुका कर फाटक से बाहर चला जाता। तीसरे रोज़ सह-पहर को फिर उसी तरह बजरी पर छड़ी खटखटाने की आवाज़ आती। ये मा’मूल बहुत दिनों से जारी था। जब से पड़ोस में मिसिज़ जोग माया चटर्जी कलकत्ते से आन कर रही थीं, इस मुहल्ले के बासियों को बड़ा सख़्त एहसास हुआ था कि उनकी ज़िंदगियों में कल्चर की बहुत कमी है। मौसीक़ी की हद तक उन सब के “गोल कमरों” में एक-एक ग्रामोफ़ोन रखा था। (अभी रेडियो आ’म नहीं हुए थे।) फ़्रेजडियर status symbol नहीं बना था। टेप रिकार्ड ईजाद नहीं हुए थे और समाजी रुत्बे की अ’लामात अभी सिर्फ़ कोठी, कार और बैरे पर मुश्तमिल थीं लेकिन जब मिसिज़ जोग माया चटर्जी के वहाँ सुब्ह शाम हारमोनियम की आवाज़ें बुलंद होने लगीं तो सर्वे आफ़ इंडिया के आ’ला अफ़्सर की बीवी मिसिज़ गोस्वामी ने महकमा-ए-जंगलात के आ’ला अफ़्सर की बीवी मिसिज़ फ़ारूक़ी से कहा... “बहन जी। हम लोग तो बहुत ही बैकवर्ड रह गए। इन बंगालियों को देखिए, हर चीज़ में आगे-आगे...” “और मैंने तो यहाँ तक सुना है कि इन लोगों में जब तक लड़की गाना बजाना न सीख ले उसका ब्याह नहीं होता”, मिल्ट्री एकेडेमी के आ’ला अफ़्सर की बीवी मिसिज़ जसवंत सिंह ने इज़हार-ए-ख़याल किया। “हम मुसलमानों में तो गाना बजाना मा’यूब समझा जाता है, मगर आजकल ज़माना दूसरा है। मैंने तो “उन” से कह दिया है। मैं अपनी हमीदा को हारमोनियम ज़रूर सिखाऊँगी।”, मिसिज़ फ़ारूक़ी ने जवाब दिया। और इस तरह रफ़्ता-रफ़्ता डालन वाला में आर्ट और कल्चर की हवा चल पड़ी। डाक्टर सिन्हा की लड़की ने नाच सीखना भी शुरू’ कर दिया, हफ़्ते में तीन बार एक मनहनी से डांस मास्टर उसके घर आते, उँगलियों में सुलगती हुई बीड़ी थामे, मुँह से अ’जीब-अ’जीब आवाज़ें निकालते जो “जी जी कत्ता तूम तरंग तका तन तन” वग़ैरह अलफ़ाज़ पर मुश्तमिल होतीं। वो तबला बजाते रहते और ऊषा सिन्हा के पाँव, तोड़ों की चक-फेरियाँ लेते-लेते घुँघरूओं की चोट से हो जाते। पड़ोस के एक नौजवान रईस सरदार अमरजीत सिंह ने वाइलन पर हाथ साफ़ करना शुरू’ किया। सरदार अमरजीत सिंह के वालिद ने डच ईस्ट इंडीज़ के दार-उल-सल्तनत बटाविया में जो अब जम्हूरिया इंडोनेशिया का दार-उल-सल्तनत जकार्ता कहलाता है, बिज़नेस कर के बहुत दौलत जमा’ की थी। सरदार अमरजीत सिंह एक शौक़ीन मिज़ाज रईस थे। जब वो ग्रामोफ़ोन पर बड़े इन्हिमाक से बब्बू का रिकार्ड, ख़िज़ाँ ने आके चमन को देना उजाड़ देना है मिरी खिली हुई कलियों को लूट लेना है बार-बार न बजाते तो दरीचे में खड़े हो कर वाइलन के तारों पर इसी इन्हिमाक से गज़ रगड़ा करते। वर्ना फेरी वाले बज़्ज़ाज़ों से रंग-बिरंगी छींटों की जारजत अपने साफ़ों के लिए ख़रीदते रहते, और ये बढ़िया-बढ़िया साफ़े बांध कर और दाढ़ी पर सियाह पट्टी नफ़ासत से चढ़ा कर मिसिज़ फ़लक नाज़ मरवारीद ख़ाँ से मुलाक़ात के लिए चले जाते और अपनी ज़ौजा सरदारनी बी-बी चरणजीत कौर से कह जाते कि वाइलन सीखने जा रहे हैं। इसी ज़माने में बाजी को सरोद का शौक़ पैदा हुआ। वो मौसम-ए-सर्मा गूना-गूँ वाक़िआ’त से पुर गुज़रा था। सबसे पहले तो रेशम की टांग ज़ख़्मी हुई। फिर मौत के कुँए में मोटर साईकल चलाने वाली मिस ज़ुहरा डर्बी ने आकर परेड ग्रांऊड पर अपने झंडे गाड़े। डायना बेक्ट क़त्ताला-ए-आ’लम हसीना लंदन कहलाई। डाक्टर मिस ज़ुबैदा सिद्दीक़ी को रात को दो बजे गधे की जसामत का कुत्ता नज़र आया। मिस्टर पीटर राबर्ट सरदार ख़ाँ हमारी ज़िंदगियों से ग़ायब हो गए। नेगस ने ख़ुदकुशी कर ली और फ़क़ीरा की भावज गौरय्या चिड़िया बन गई। चूँकि ये सब निहायत अहम वाक़िआ’त थे लिहाज़ा मैं सिलसिलेवार इनका तज़किरा करती हूँ। मेरी बहुत ख़ूबसूरत और प्यारी रिहाना बाजी ने, जो मेरी चचाज़ाद बहन थीं, इसी साल बी.ए. पास किया था और वो अलीगढ़ से चंद माह के लिए हमारे यहाँ आई हुई थीं। एक सुहानी सुब्ह बाजी सामने के बरामदे में खड़ी डाक्टर हौन की बीवी से बातों में मसरूफ़ थीं कि अचानक बरसाती की बजरी पर हल्की सी खट-खट हुई और एक नहीफ़ और मनहनी से बूढ़े ने बड़ी धीमी और मुलाइम आवाज़ में कहा, “मैंने सुना है यहाँ कोई लेडी सरोद सीखना चाहती हैं।” बाजी के सवालात पर उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा कि उनकी माहाना फ़ीस पाँच रुपये है और वो हफ़्ते में तीन बार एक घंटा सबक़ देंगे। वो कर्ज़न रोड पर पादरी स्काट की ख़ाली कोठी के शागिर्द पेशे में रहते हैं। उनके बीवी बच्चे सब मर चुके हैं और बरसों से उनका ज़रीआ’-ए-मआ’श सरोद है जिसके ज़रीए’ वो आठ दस रुपये महीना कमा लेते हैं। “लेकिन इस ख़्वाबीदा शहर में सरोद सीखने वाले ही कितने होंगे।”, बाजी ने पूछा। उन्होंने उसी धीमी आवाज़ में कहा, “कभी-कभी दो एक तालिब-ए-इ’ल्म मिल जाते हैं।” (इसके इ’लावा उन्होंने अपने मुतअ’ल्लिक़ कुछ नहीं बतलाया।) वो इंतिहाई ख़ुद्दार इंसान मा’लूम होते थे, उनका नाम साइमन था। पीर के रोज़ वो ट्यूशन के लिए आ गए। बाजी पिछले लॉन पर धूप में बैठी थीं। “मिस्टर साइमन को यहीं भेज दो”, उन्होंने फ़क़ीरा से कहा। बाजी की तरफ़ जाने के लिए फ़क़ीरा ने उनको अंदर बुलाया। उस रोज़ बड़ी सर्दी थी और मैं अपने कमरे में बैठी किसी सटर-पटर में महव थी। मेरे कमरे में से गुज़रते हुए ज़रा ठिटक कर साइमन ने चारों तरफ़ देखा। आतिश-दान में आग लहक रही थी। एक लहज़े के लिए उनके क़दम आतिश-दान की सिम्त बढ़े और उन्होंने आग की तरफ़ हथेलियाँ फैलाईं। मगर फिर जल्दी से फ़क़ीरा के पीछे-पीछे बाहर चले गए। रेशम ने उनसे बहुत जल्द दोस्ती कर ली। ये बड़े तअ’ज्जुब की बात थी। क्योंकि रेशम बे-इंतिहा मग़रूर, अक्ल-खुरी और अपने सियामी हुस्न पर हद से ज़ियादा नाज़ाँ थी। और बहुत कम लोगों को ख़ातिर में लाती थी। ज़ियादा-तर वो अपनी साटन के रेशमी झालरदार ग़िलाफ़ वाली टोकरी के गदेलों पर आराम करती रहती और खाने के वक़्त बड़ी मक्कारी से आँखें बंद कर के मेज़ के नीचे बैठ जाती। “इसकी सारी ख़ासियतें वैम्प (vamp) औरतों की सी हैं”, बाजी कहतीं। “औ’रत की ख़ासियत बिल्ली की ऐसी होती है, चुमकारो तो पंजे निकाल लेगी, बेरुख़ी बरतूँ तो ख़ुशामद शुरू’ कर देगी।” “और आदमी लोगों की ख़ासियत कैसी होती है बाजी?”, मैं पूछती, बाजी हँसने लगतीं और कहतीं, “ये अभी मुझे मा’लूम नहीं।” बाजी चेहरे पर दिल-फ़रेब और मुतमइन मुस्कुराहट लिए बाग़ में बैठी मुज़फ़्फ़र भाई के बेहद दिलचस्प ख़त पढ़ा करतीं, जो उनके नाम हर पाँचवें दिन बंबई से आते थे। जहाँ मुज़फ़्फ़र भाई इंजीनियरिंग पढ़ रहे थे। मुज़फ़्फ़र भाई मेरे और बाजी के चचाज़ाद भाई थे और बाजी से उनकी शादी तय हो चुकी थी। जितनी देर वो बाग़ में बैठतीं, ग़फ़ूर बेगम उनके नज़दीक घास पर पानदान खोले बैठी रहतीं। जब बाजी अंदर चली जातीं तो ग़फ़ूर बेगम शागिर्द पेशे की तरफ़ जाकर फ़क़ीरा भावज से बातें करने लगतीं या फिर अपनी नमाज़ की चौकी पर बैठतीं। ग़फ़ूर बेगम बाजी की बेहद वफ़ादार अन्ना थीं। उनके शौहर ने, जिनकी अलीगढ़ में मेरिस रोड के चौराहे पर साईकलों की दुकान थी, पिछले बरस एक नौजवान लड़की से निकाह कर लिया था, और तब से ग़फ़ूर बेगम अपना ज़ियादा वक़्त नमाज़-रोज़े में गुज़ारती थीं। साइमन के आते ही रेशम दबे-पाँव चलती हुई आकर खुर-खुर करने लगती और वो फ़ौरन जेब से रूमाल निकाल कर उसे कुछ खाने को देते। शाम के वक़्त जब फ़क़ीरा उनके लिए चाय की कश्ती लेकर बरामदे में जाता तो वो आधी चाय तश्तरी में डाल कर फ़र्श पर रख देते और रेशम फ़ौरन तश्तरी चाट जाती और फ़क़ीरा बड़बड़ाता, “हमारे हाथ से तो रानी साहिब दूध पीने में भी नख़रे करती हैं।” फ़क़ीरा एक हँसमुख गढ़वाली नौजवान था। दो साल क़ब्ल वो चीथडों में मलबूस, नहर की मुंडेर पर बैठा, ऊन और सिलाइयों से मोज़रे बुन रहा था। जो पहाड़ियों का आ’म दस्तूर है, तो सुख नंदन ख़ानसामाँ ने उससे पूछा था, “क्यूँ-बे नौकरी करेगा?”, और उसने खिलखिला कर हँसते हुए जवाब दिया था। “महीनों से भूकों मर रहा हूँ क्यों नहीं करूँगा?” तब से वो हमारे यहाँ “ऊपर का काम कर रहा था, और एक रोज़ उसने इत्तिला दी थी कि उसके दोनों बड़े भाईयों की मिट्टी हो गई है और वो अपनी भावज को लेने गढ़वाल जा रहा है। और चंद दिनों बा’द उसकी भावज जलधरा पहाड़ों से आकर शागिर्द पेशे में बस गई थी। जलधरा अधेड़ उ’म्र की एक गोरी-चिट्टी औ’रत थी, जिसके माथे, ठोढ़ी और कलाइयों पर नीले रंग के नक़्श-ओ-निगार गुदे हुए थे। वो नाक में सोने की लौंग और बड़ा सा बुलाक़ और कानों के बड़े-बड़े सुराख़ों में लाख के फूल पहनती थी और उसके गले में मलिका विक्टोरिया के रूपों की माला भी पड़ी थी। ये तीन गहने उसके तीनों मुशतर्का शौहरों की वाहिद जायदाद थे। उसके दोनों मुतवफ़्फ़ी शौहर मरते दम तक यात्रियों का सामान ढोते रहे थे और इत्तिफ़ाक़ से इकट्ठे ही एक पहाड़ी से गिर कर मर गए थे। जलधरा बड़े मीठे लहजे में बात करती थी और हर वक़्त स्वेटर बुनती रहती थी। उसे कंठ माला का पुराना मरज़ था। फ़क़ीरा उसके इ’लाज-मुआ’लिजे के लिए फ़िक्रमंद रहता था और उससे बेहद मुहब्बत करता था। जलधरा की आ’मद पर बाक़ी नौकरों की बीवियों ने आपस में चे-मी-गोइयाँ की थीं... “ये पहाड़ियों के हाँ कैसा बुरा रिवाज है एक लुगाई के दो-दो तीन-तीन ख़ाविंद...” और जब जलधरा का तज़किरा दोपहर को खाने की मेज़ पर हुआ था तो बाजी ने फ़ौरन द्रौपदी का हवाला दिया था और कहा था पहाड़ों में पोलीएंड्री का रिवाज महा-भारत के ज़माने से चला आता है और मुल्क के बहुत से हिस्सों का समाजी इर्तिक़ा एक ख़ास स्टेज पर पहुँच कर वहीं मुंजमिद हो चुका है और पहाड़ी इ’लाक़े भी इन्ही पसमांदा हिस्सों में से हैं। बाजी ने ये भी कहा कि पोलीएंड्री, जिसे उर्दू में “चंद शौहरी” कहते हैं, मादराना निज़ाम की यादगार है। और मुआ’शरे ने जब मादराना निज़ाम से पिदरी निज़ाम की तरफ़ तरक़्क़ी की तो इंसान भी कसीर-उल-अज़दवाजी की तरफ़ चला गया। और मादराना निज़ाम से भी पहले, हज़ारों साल क़ब्ल, तीन चार भाईयों के बजाए क़बीलों के पूरे-पूरे गिरोह एक ही औ’रत के साथ रहते थे और वेदों में इन क़बाइल का ज़िक्र मौजूद है। मैं मुँह खोले ये सब सुनती रही। बाजी बहुत काबिल थीं। बी.ए. में उन्हें फ़र्स्ट डिवीज़न मिला था और सारी अलीगढ़ यूनीवर्सिटी में अव्वल रही थीं। एक रोज़ मैं अपनी छोटी सी साईकल पर अपनी सहेलियों के हाँ जा रही थी। रेशम मेरे पीछे-पीछे भागती आ रही थी। इस ख़याल से कि वो सड़क पर आने वाली मोटरों से कुचल न जाए। मैं साईकल से उतरी, उसे ख़ूब डाँट कर सड़क पर से उठाया और बाड़ पर से अहाते के अंदर फेंक दिया और पैडल पर ज़ोर से पाँव मार कर तेज़ी से आगे निकल गई। लेकिन रेशम अहाते में कूदने के बजाए बाड़ के अंदर लगे हुए तेज़ नोकीले कांटों वाले तारों में उलझ गई। उसकी एक रान बुरी तरह ज़ख़्मी हुई। वो लहू-लुहान हो गई और उसने ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाना शुरू’ किया और उसी तरह तार से लटकी चीख़ती और कराहती रही। बहुत देर बा’द जब फ़क़ीरा उधर से गुज़रा जो झाड़ियों से मिर्चें और टमाटर तोड़ने उस तरफ़ आया था, तो उसने बड़ी मुश्किल से रेशम को बाड़ में से निकाला और अंदर ले गया। जब मैं कमला और विमला के घर से लौटी तो देखा कि सब के चेहरे उतरे हुए हैं। “तुम्हारी रेशम मर रही है”, बाजी ने कहा। उनकी आँखों में आँसू थे। “कमबख़्त जाने किस तरह जा कर बाड़ के तारों में उलझ गई। जने इस क़दर अहमक़ क्यों है? चिड़ियों की लालच में वहाँ जा घुसी होगी। अब बुरी तरह चिल्ला रही है। अभी डाक्टर साहब मरहम पट्टी कर के गए हैं।” मेरा दिल दहल गया। रेशम की इस ना-क़ाबिल-ए-बर्दाश्त तकलीफ़ की ज़िम्मेदार मैं थी। उसकी तकलीफ़ और मुम्किन मौत के सदमे के साथ इंतिहाई शदीद एहसास-ए-जुर्म ने मुझे सरासीमा कर दिया और मैं जा कर घर के पिछवाड़े घने दरख़्तों में छिप गई ताकि दुनिया की नज़रों से ओझल हो जाऊँ। कुछ फ़ासले पर खट-खट बुढ़िया की शक्ल वाली मिसिज़ वार ब्रूक के घर में से वायरलैस की आवाज़ आ रही थी। दूर शागिर्द पेशे के सामने फ़क़ीरा की भावज घास पर बैठी ग़फ़ूर बेगम से बातें कर रही थी। पिछले बरामदे में बाजी अब मुज़फ़्फ़र भाई को ख़त लिखने में महव हो चुकी थीं। बाजी की आ’दत थी कि दिन-भर में कोई भी ख़ास बात होती थी तो वो फ़ौरन मुज़फ़्फ़र भाई को तवील सा ख़त लिखती थीं। रेशम पट्टियों से बंधी उनके नज़दीक अपनी टोकरी में पड़ी थी। सारी दुनिया पुर-सुकून थी, सिर्फ़ मैं एक रु-पोश मुजरिम की तरह ऊंची-ऊंची घास में खड़ी सोच रही थी कि अब क्या करूँ। आख़िर मैं आहिस्ता-आहिस्ता अपने वालिद के कमरे की तरफ़ गई और दरीचे में से अंदर झाँका। वालिद आराम-कुर्सी पर बैठे कुछ पढ़ रहे थे। मैं अंदर गई और कुर्सी के पीछे जाकर खड़ी हो गई। “क्या बात है?”, बी-बी मेरी सिसकी की आवाज़ पर उन्होंने चौंक कर मुझे देखा। “रेशम को... रेशम को हमने बाड़ में फेंक दिया था।” “आपने फेंक दिया था?” “हम... हम कमला-विमला के हाँ जाने की जल्दी में थे। वो इतना मना’ करने के बावुजूद पीछे-पीछे आ रही थी। हमने उसे जल्दी से बाग़ के अंदर फेंक दिया।” इतना कह कर मैंने ज़ार-ओ-क़तार रोना शुरू’ कर दिया। रोने के बा’द दिल हल्का हुआ और जुर्म का थोड़ा सा प्रायश्चित भी हो गया, मगर रेशम की तकलीफ़ किसी तरह कम न हुई। शाम को साइमन सबक़ सिखाने के बा’द देर तक उसके पास बैठे उससे बातें करते रहे। रेशम की रोज़ाना मरहम पट्टी होती थी और हफ़्ते में एक दफ़ा उसे “घोड़ा हस्पताल” भेजा जाता था। उसकी रान पर से उसके घने और लंबे-लंबे सुरमई बाल मूंड दिए गए थे और ज़ख़्म की गहरी सुर्ख़ लकीरें दूर तक खिंची हुई थीं। काफ़ी दिनों के बा’द उसके ज़ख़्म भरे और उसने लंगड़ा कर चलना शुरू’ कर दिया। एक महीने बा’द वो आहिस्ता-आहिस्ता लंगड़ाती हुई साइमन को पहुँचाने फाटक तक गई और जब फ़क़ीरा बाज़ार से उसके लिए छिछड़े लेकर आता तो वो उसी तरह लंगड़ाती हुई कोने में रखे हुए अपने बर्तन तक भी जाने लगी। एक रोज़ सुब्ह के वक़्त मिस्टर जॉर्ज बैकेट बाड़ पर नुमूदार हुए और ज़रा झिजकते हुए उन्होंने मुझे अपनी तरफ़ बुलाया। “रेशम की तबीअ’त अब कैसी है?”, उन्होंने दरियाफ़्त किया। “मुझे मिस्टर साइमन ने बताया था कि वो बहुत ज़ख़्मी हो गई थी।” मिस्टर जॉर्ज बैकेट ने पहली बार इस मुहल्ले में किसी से बात की थी। मैंने रेशम की ख़ैरियत दरियाफ़्त करने के लिए उनका शुक्रिया अदा किया। और वो अपने चारख़ाना कोट की फटी हुई जेबों में अंगूठे ठूँस कर आगे चले गए। मिस्टर जॉर्ज बैकेट एक बेहद फ़ाक़ा-ज़दा ऐंग्लो इंडियन थे और पिलपिली साहब कहलाते थे। वो सड़क के सिरे पर एक ख़स्ता-हाल काई-आलूद काटेज में रहते थे और बाल्टी उठा कर सुब्ह को म्यूंसिपल्टी के नल पर ख़ुद पानी भरने जाया करते थे। उनकी एक लड़की थी जिसका नाम डायना था। वो परेड ग्रांऊड पर एक अंग्रेज़ी सिनेमा हाल में टिकट बेचती थी और ख़ुश-रंग फ़्राक पहने अक्सर सामने से साईकल पर गुज़रा करती थी, उसके पास सिर्फ़ चार फ़्राक थे जिन्हें वो धो-धो कर और बदल-बदल कर पहना करती थी और मिसिज़ गोस्वामी, मिसिज़ फ़ारूक़ी और मिसिज़ जसवंत सिंह का कहना था कि “सिनेमा हाल की नौकरी के उसे सिर्फ़ पच्चीस रूपल्ली मिलते हैं और कैसे ठाट के कपड़े पहनती है। उसे गोरे पैसे देते हैं।” लेकिन गोरे अगर उसे पैसे देते थे (ये मेरी समझ में न आता था कि उसे गोरे क्यों पैसे देते थे) तो उसका बूढ़ा बाप नल पर पानी भरने क्यों जाता था। ये पैंशन-याफ़्ता मुतमव्विल अंग्रेज़ों का मुहल्ला था जो पुर-फ़िज़ा ख़ूबसूरत कोठियों में ख़ामोशी से रहते थे। उनके इंतिहाई नफ़ासत से सजे हुए कमरों और बरामदों में लंदन इलस्ट्रेटेड न्यूज़, टेटलर, कन्ट्री लाईफ़ और पंच के अंबार मेज़ों पर रखे थे। और टाईम्स और डेली टेलीग्राफ़ के पुलिंदे समंदरी डाक से उनके नाम आते थे। उनकी बीवियाँ रोज़ाना सुब्ह को अपने-अपने “रुम” मैं बैठ कर बड़े एहतिमाम से “होम” ख़त लिखती थीं। और उनके “गोल कमरों मैं उनके बेटों की तस्वीरें रुपहले फ्रेमों में सजी थीं जो मशरिक़ी अफ़्रीक़ा और जुनूब मशरिक़ी एशिया में सल्तनत-ए-बर्तानिया के आफ़ताब को मज़ीद चमकाने में मसरूफ़ थे। ये लोग मुद्दतों से इस मुल्क में रहते आ रहे थे मगर “हाय” और “अब्दुल छोटा हाज़िरी मांगता” से ज़ियादा अलफ़ाज़ न जानते थे। ये इ’ज़्ज़त-पसंद अंग्रेज़ दिन-भर बाग़बानी या बर्ड वाचिंग (bird watching) या टिकट जमा’ करने में मसरूफ़ रहते थे। ये बड़े अ’जीब लोग थे। मिस्टर हार्ड कासल तिब्बती ज़बान और रस्म-ओ-रिवाज के माहिर थे। मिस्टर ग्रीन आसाम के खासी क़बाइल पर अथार्टी थे। कर्नल वाइटहैड जो शुमाली मग़रिबी सरहद के मा’रकों में अपनी एक टांग खो चुके थे और लकड़ी की टांग लगाते थे, ख़ुश-हाल ख़ाँ खटक पर उ’बूर रखते थे। मेजर शेल्टन एसटीस मैन में शिकार के मुतअ’ल्लिक़ मज़ामीन लिखा करते थे। और मिस्टर मार्च मैन को शतरंज का ख़ब्त था। मिस ड्रिंकवाटर प्लांचट पर रूहें बुलाती थीं और मिसिज़ वार बुरोक तस्वीरें बनाती थीं। मिसिज़ वार बुरोक एक ब्रीगेडियर की बेवा थीं और हमारे पिछवाड़े रहती थीं। उनकी बूढ़ी फौनिस कुँवारी बहन भी उनके साथ रहती थीं। उन दोनों की शक्लें लंबी चोंच वाले परिंदों की ऐसी थीं। और ये दोनों अपने तवील-ओ-अ’रीज़ ड्राइंगरूम के किसी कोने में बैठी आबी रंगों से हल्की-फुल्की तस्वीरें बनाया करती थीं। वो दोनों इतनी मुख़्तसर सी थीं कि फूलदार ग़िलाफ़ों से ढके हुए फ़र्नीचर और दूसरे साज़-ओ-सामान के जंगल में खो जाती थीं और पहली नज़र में बड़ी मुश्किल से नज़र आती थीं। डालन वाला की एक कोठी में “इंग्लिश स्टोर्ज़” था। जिसका मालिक एक पारसी था। मुहल्ले की सारी अंग्रेज़ और नेटो बीवियाँ यहाँ आकर ख़रीदारी करती थीं और स्कैंडल और ख़बरों का एक दूसरे से तबादला करती थीं। इस ख़ुश-हाल और मुतमइन अंग्रेज़ी मुहल्ले के वाहिद मुफ़लिस और ऐंग्लो इंडियन बासी बुझी-बुझी नीली आँखों वाले मिस्टर जॉर्ज बैकेट थे। मगर वो बड़ी आन-बान वाले ऐंग्लो इंडियन थे और ख़ुद को पक्का अंग्रेज़ समझते थे, इंग्लिस्तान “होम” कहते थे और चंद साल उधर जब शहंशाह जॉर्ज पंजुम के इंतिक़ाल पर कोलागढ़ में स्लो मार्च पर बड़ी भारी परेड हुई थी और गोरों के बैंड ने मौत का नग़्मा बजाया था तो मिस्टर जॉर्ज बैकेट भी बाज़ू पर सियाह मातमी पट्टी बांध कर कोलागढ़ गए थे और अंग्रेज़ों के मजमे’ में बैठे थे और उनकी लड़की डायना रोज़ ने अपने सुनहरे बालों और ख़ूबसूरत चेहरे को सियाह हैट और सियाह जाली से छुपाया था। और मिस्टर बैकेट बहुत दिनों तक सियाह मातमी पट्टी बाज़ू पर बाँधे रहे थे। लेकिन बच्चे बहुत बे-रहम होते हैं। डालन वाला के सारे हिन्दुस्तानी बच्चे मिस्टर जॉर्ज बैकेट को न सिर्फ़ पिलपिली साहब कहते थे बल्कि कमला और विमला के बड़े भाई स्वर्ण ने जो एक पंद्रह साला लड़का था और डौन पब्लिक स्कूल में पढ़ता था। मिस्टर बैकेट की लड़की डायना को चिढ़ाने की एक और तरकीब निकाली थी। कमला और विमला के वालिद एक बेहद दिलचस्प और ख़ुश-मिज़ाज इंसान थे। उन्होंने एक बहुत ही अनोखा अंग्रेज़ी रिकार्ड 1928 में इंग्लिस्तान से ख़रीदा था। ये एक इंतिहाई बे-तुका गीत था जिसका ऐंग्लो इंडियन उर्दू तर्जुमा भी साथ-साथ इसी धन में गाया गया था। न जाने किस मनचले अंग्रेज़ ने उसे तस्नीफ़ किया था। ये रिकार्ड अब स्वर्ण के क़ब्ज़े में था। और जब डायना साईकल पर उनके घर के सामने से गुज़रती तो स्वर्ण ग्रामोफ़ोन दरीचे में रखकर उसके भोंपू का रुख़ सड़क की तरफ़ कर देता और सूई रिकार्ड पर रखकर छिप जाता। मुंदरजा-ज़ैल बुलंद-पाया रूह-परवर गीत की आवाज़ बुलंद होती... there was a rich merchant in london did stay. who had for his daughter an uncommon liking? her name it was diana, she was sixteen years old, and had a large fortune in silver and gold. एक-बार एक सौदागर शहर लंदन में था जिसकी एक बेटी नाम डायना उसका नाम उसका डायना सोलह बरस का उ’म्र जिसके पास बहुत कपड़ा चांदी और सोना as diana was walking in the garden one day. her father came to her and thus did he say: go dress yourself up in gorgeous array, for you will have a husband both gallant and gay. एक दिन जब डायना बाग़ीचा में थी बाप आया बोला बेटी जाओ कपड़ा पहनो हो सफ़ा क्यों कि मैं तिरे वास्ते एक ख़ाविंद लाया o father, dear father i’ve made up my mind, to marry at present, i don’t feel inclined. and all my large fortune every day adore, if you let live me single a year or two more. अरे रे मोरा बाप तब बोली बेटी शादी का इरादा मैं नाहीं करती अगर एक दो बरस तकलीफ़ नाहीं देव आ आ अरे दौलत मैं छोड़ दूँ then gave the father a gallant reply: if you don”t be this young man”s bride, i”ll leave all your fortune to the fearest of things, and you should reap the benefit of single thing. तब बाप बोला अरे बच्चा बेटी उस शख़्स की जोरू तू नाहीं होती माल और अस्बाब तेरा कुर्की कर दियूँ और एक कच्ची दमड़ी भी तुझे दियूँ as wilikins was walking in the garden one day, he found his dear diana lying dead on the way. a cup so fearful that lay by her side. and wilikins doth fainteth with a cry in his eye एक दिन जब विलकिन हवा खाने को गया डायना का मुर्दा एक कोने में पाया एक बादशाह पियाला उसके कमर पर पड़ा और एक चिट्ठी जिसमें लिखा “ज़हर पी के मरा” जैसे ही रिकार्ड बजना शुरू’ होता, बेचारी डायना साईकल की रफ़्तार तेज़ कर देती और अपने सुनहरे बाल झटक कर ज़न्नाटे से आगे निकल जाती। इस मौसम-ए-सर्मा का दूसरा अहम वाक़िआ’ परेड ग्रांऊड में “दी ग्रेट ईस्ट इंडियन सर्कस ऐंड कार्निवल” की आ’मद था। उसके इश्तिहार लंगूरों और मसख़रों के लंबे जलूस के ज़रीए’ बाँटे गए थे। जिन पर लिखा था, “बीसवीं सदी का हैरत-नाक तमाशा, शेर दिल हसीना मिस ज़हर डर्बी, मौत के कुँए में, आज शब को...” सबसे पहले फ़क़ीरा सर्कस देखकर लौटा। वो अपनी भावज को भी खेल दिखाने ले गया था। और सुब्ह को उसने इत्तिला दी थी... “बेगम साहिब... बड़ी बिटिया... बी-बी... ज़नानी डेथ आफ़ वैल में ऐसे फटफटी चलाती है कि बस क्या बताऊँ... औ’रत है कि शेर की बच्ची... हरे राम... हरे राम...” दूसरे दिन स्कूल में कमला विमला ने मुझे बताया कि मिस ज़ुहरा डर्बी एक निहायत सनसनी-खेज़ ख़ातून है। और वो दोनों भी उसके दिलेराना कमालात ब-चश्म-ए-ख़ुद देखकर आई हैं। चूँकि मैं सर्कसों पर पहले ही से आ’शिक़ थी लिहाज़ा जल्द-अज़-जल्द बाजी के साथ परेड ग्रांऊड पहुँची। वहाँ तंबू के बाहर एक ऊंचे चोबी प्लेटफार्म पर एक मोटर साईकल घड़घड़ा रही थी और उसके पास मिस ज़ुहरा डर्बी कुर्सी पर फ़रोकश थी। उसने नीले रंग की चमकदार साटन का उस क़त्अ’ का लिबास पहन रखा था, जो मिस नादिया ने हंटर वाली फ़िल्म में पहना था। उसने चेहरे पर बहुत सा गुलाबी पाउडर लगा रखा था जो बिजली की रोशनी में नीला मा’लूम हो रहा था। और होंट ख़ूब गहरे सुर्ख़ रंगे हुए थे। उसके बराबर में एक बेहद ख़ौफ़नाक, बड़ी-बड़ी मूंछों वाला आदमी उसी तरह की रंग-बिरंगी “बिर्जीस” पहने, लंबे-लंबे पट्टे सजाए और गले में बड़ा सा सुर्ख़ आदमी रूमाल बाँधे बैठा था। मिस ज़ुहरा डर्बी के चेहरे पर बड़ी उकताहट थी और वो बड़ी बे-लुत्फ़ी से सिगरेट के कश लगा रही थी। इसके बा’द वो दोनों मौत के कुँए में दाख़िल हुए जिसकी तह में एक और मोटर साईकल रखी थी। ख़ौफ़नाक आदमी मोटर साईकल पर चढ़ा और मिस ज़ुहरा डर्बी सामने उसकी बाँहों में बैठ गई। और ख़ौफ़नाक आदमी ने कुँए के चक्कर लगाए। फिर वो उतर गया और मिस ज़ुहरा डर्बी ने तालियों के शोर में मोटर साईकल पर तन्हा कुँए के चक्कर लगाए और ऊपर आकर दोनों हाथ छोड़ दिए। और मोटर साईकल की तेज़-रफ़्तार की वज्ह से मौत का कुँआ ज़ोर-ज़ोर से हिलने लगा और मैं मिस ज़ुहरा डर्बी की इस हैरत-अंगेज़ बहादुरी को मस्हूर हो कर देखती रही। खेल के बा’द वो दुबारा उसी तरह चबूतरे पर जा बैठी और बे-तअ’ल्लुक़ी से सिगरेट पीना शुरू’ कर दिया। गोया कोई बात नहीं। ये वाक़िआ’ था कि मिस ज़ुहरा डर्बी जापानी छतरी सँभाल कर तार पर चलने वाली मेमों और शेर के पिंजरे में जाने वाली और ऊंचे-ऊंचे तारों और झूलों पर कमालात दिखाने वाली लड़कियों से भी ज़ियादा बहादुर थी। पिछले बरस वहाँ “अ’ज़ीमुश्शान ऑल इंडिया दंगल” आया था, जिसमें मिस हमीदा बानो पहलवान ने ऐ’लान किया था कि जो मर्द पहलवान उन्हें हरा देगा वो उससे शादी कर लेंगी। लेकिन ब-क़ौल फ़क़ीरा कोई माई का लाल उस शेर की बच्ची को न हरा सका था और उसी दंगल में प्रोफ़ैसर ताराबाई ने भी बड़ी ज़बरदस्त कुश्ती लड़ी थी और उन दोनों पहलवान ख़वातीन की तस्वीरें इश्तिहारों में छपी थीं जिनमें वो बनियान और नेकरें पहने ढेरों तमगे लगाए बड़ी शान-ओ-शौकत से कैमरे को घूर रही थीं...। ये कौन पुर-असरार हस्तियाँ होती हैं जो तार पर चलती हैं और मौत के कुँए में मोटर साईकल चलाती हैं और अखाड़े में कुश्ती लड़ती हैं। मैंने सबसे पूछा लेकिन किसी को भी उनके मुतअ’ल्लिक़ कुछ न मा’लूम था। “दी ग्रेट ईस्ट इंडियन सर्कस” अभी तमाशे ही दिखा रहा था कि एक रोज़ फ़क़ीरा पलटन बाज़ार से सौदा लेकर लौटा तो उसने एक बड़ी तहलका-ख़ेज़ ख़बर सुनाई कि मिस ज़ुहरा डर्बी के उ’श्शाक़, मास्टर गुलक़ंद और मास्टर मुछन्दर के दरमियान चक्कू चल गया। मास्टर मुछन्दर ने मिस ज़ुहरा डर्बी को भी चक्कू से घायल कर दिया और वो हस्पताल में पड़ी हैं और इससे भी तहलका-ख़ेज़ ख़बर, जो फ़क़ीरा ने चंद दिन बा’द म्यूंसिपल्टी के नल पर सुनी, ये थी कि पिलपिली साहिब की मसीह ने सर्कस में नौकरी कर ली। “डायना बैकेट ने...?”, बाजी ने दुहराया। “जी हाँ बड़ी बिटिया... पिलपिली साहिब की मसीह, सुना है कहती है कि उससे अपने बाप की ग़रीबी और तकलीफ़ अब नहीं देखी जाती और दुनिया वाले तो यूँ भी तंग करते हैं। ओडियन सिनेमा में उसे पच्चीस रुपये मिलते थे। सर्कस में पछत्तर रुपये मिलेंगे... ये तो सच है। वो ग़रीब तो बहुत थी बड़ी बिटिया...” “और गोरे जो उसको पैसे देते थे?”, मैंने पूछा। ग़फ़ूर बेगम ने मुझे घूर कर देखा और कहा, “जाओ। भाग जाओ यहाँ से।” लिहाज़ा मैं भाग गई और बाहर जाकर रेशम की टोकरी के पास बैठ के डायना बैकेट की बहादुरी के मुतअ’ल्लिक़ ग़ौर करने लगी। अब की बार जब लंगूरों और मसख़रों ने सर्कस के इश्तिहार बाँटे तो उन पर छपा था, “सर्कस के आ’शिक़ों को मुज़्दा परी-जमाल यूरोपियन दोशीज़ा के हैरत-अंगेज़ कमालात क़त्ताला-ए-आ’लम, हसीना लंदन मिस डायना रोज़ मौत के कुँए में आज शब को।” इन्ही दिनों सिनेमा का चर्चा हुआ। यूँ तो सिनेमा के इश्तिहार अ’र्से से लकड़ी के ठेलों पर चिपके सामने से गुज़रा करते थे। “साल-ए-रवाँ की बेहतरीन फ़िल्म “चैलेंज” जिसमें मिस सरदार अख़्तर काम करती हैं। परेड के सामने, प्लेडियम सिनेमा में, आज शब को।” और... “साल-ए-रवाँ की बेहतरीन फ़िल्म “दिल्ली ऐक्सप्रैस” जिसमें मिस सरदार अख़्तर काम करती हैं परेड के सामने, राक्सी सिनेमा में आज शब को।” और मुझे बड़ी परेशानी होती थी कि मिस सरदार अख़्तर दोनों जगहों पर ब-यक-वक़्त किस तरह “काम” करेंगी। लेकिन क़िस्मत ने एक दम यूँ पल्टा खाया कि बाजी और उनकी सहेलियों के साथ यके-बा’द-दीगरे तीन फ़िल्म देखने को मिलीं...। “अछूत कन्या” जिसके लिए मिसिज़ जोग माया चटर्जी ने बताया कि हमारे देश में बहुत ज़बरदस्त समाजी इन्क़िलाब आ गया है और गुरुदेव टैगोर की भांजी देव यक्का रानी अब फिल्मों में काम करती हैं और “जीवन लता” जिसमें सीता देवी नाज़ुक-नाज़ुक छोटी सी आवाज़ में गातीं... “मोहे प्रेम के झूले झुला दे कोई...” और “जीवन प्रभात” जिसे बाजी बड़े ज़ौक़-ओ-शौक़ से इसलिए देखने गईं कि उसमें ख़ुरशीद आपा “काम” कर रही थीं, जो अब रेनुका देवी कहलाती थी, जो इस ज़बरदस्त समाजी इन्क़िलाब का सबूत था। मिसिज़ जोग माया चटर्जी की बशारत के मुताबिक़ हिन्दोस्तान जिनके दरवाज़े पर खड़ा था और तभी मिसिज़ जोग माया चटर्जी की लड़कियों ने हारमोनियम पर फ़िल्मी गाने “निकालने” शुरू’ कर दिए। “बांके बिहारी भूल न जाना... पीतम प्यारी प्रीत निभाना...” और... “चोर चुरावे माल ख़ज़ाना, पिया नैनों की निन्दिया चुराए।” और... “तुम और मैं और मुन्ना प्यारा... घरवा होगा स्वर्ग हमारा...” ग़फ़ूर बेगम काम करते-करते इन आवाज़ों पर कान धरने के बा’द कमर हाथ पर रखकर कहतीं, “बड़े बूढ़े सच कह गए थे। क़ुर्ब-ए-क़यामत के आसार यही हैं कि गाय मेंगनां खाएगी और कुँवारियाँ अपने मुँह से बर माँगेंगी।”, इतने में मनोरमा चटर्जी की सुरीली आवाज़ बुलंद होती... “मोहे प्रेम के झूले झुला दे कोई।” “बे-हयाई तेरा आसरा...”, ग़फ़ूर बेगम काँप कर फ़रियाद करतीं और स्लीपर पाँव में डाल कर सटर-पटर करती अपने काम काज में मसरूफ़ हो जातीं। इन्ही दिनों फ़क़ीरा भी अपनी भावज को ये सारी फिल्में सैकेंड शो में दिखा लाया। मगर जिस रात जलधरा “चंडीदास” फ़िल्म देखकर लौटी, तो उसे बड़ा सख़्त बुख़ार चढ़ गया, और डाक्टर हौन ने सुब्ह को आकर उसे देखा और कहा कि उसका मरज़ तशवीश-नाक सूरत इख़्तियार कर चुका है। अब वो रोज़ ताँगे में लेट कर हस्पताल जाती और वापिस आकर धूप में घास पर कम्बल बिछा कर लेटी रहती। कुछ दिनों में उसकी हालत ज़रा बेहतर हो गई। और सुख नंदन ख़ानसामाँ की बीवी धनकलिया उससे ज़रा फ़ासले पर बैठ कर उसका दिल बहलाने के लिए पूरबी गीत गाया करती और उसे छेड़ छेड़कर अलापती... “नाज-ओ-अदा से सर्म-ओ-हया से बाले सय्याँ से सरमाए गई मैं तो...” और ग़फ़ूर बेगम जब जलधरा की ख़ैरियत पूछने जातीं तो वो मुस्कुरा कर कहती, “अन्ना जी... मेरा तो समय आ गया। अब थोड़े दिनों में प्रान निकल जाएँगे...” अब ग़फ़ूर बेगम उसका दिल रखने के लिए कहतीं, “अरी तू अभी बहुत जिएगी... और ए जलधरिया... ज़रा ये तो बता कि तूने फ़क़ीरा निगोड़े पर क्या जादू कर रखा है... ज़रा मुझे भी वो मंत्र बता दे, मुझ बद-बख़्ती को तो अपने घर वाले को राम करने का एक भी नुस्ख़ा न मिला... तू ही कोई टोटका बता दे। सुना है पहाड़ों पर जादू टोने बहुत होते हैं... फ़क़ीरा भी कैसा तेरा कलमा पढ़ता है... अरी तू तो उसकी माँ के बराबर है...!” और वो बड़ी अदा से हँस को जवाब देती..., “अन्ना जी। क्या तुमने सुना नहीं पुराने चावल कैसे होते हैं?” “पुराने चावल...?”, मैं दुहराती और ग़फ़ूर बेगम ज़रा घबरा कर मुझे देखतीं और जल्दी से कहतीं..., “बी-बी आप यहाँ क्या कर रही हैं? जाईए बड़ी बिटिया आपको बुला रही हैं।” लिहाज़ा मैं सर झुकाए बजरी की रंग-बिरंगी कंकरियाँ जूतों की नोक से ठुकराती-ठुकराती बाजी की तरफ़ चली जाती। मगर वो फ़लसफ़े की मोटी सी किताब के मुताले’ में या मुज़फ़्फ़र भाई का ख़त पढ़ने या उसका जवाब लिखने में मुसतग़रिक़ होतीं और मुझे कहीं और जान