जानवरों में गधा सबसे बेवक़ूफ़ समझा जाता है। जब हम किसी शख़्स को परले दर्जे का अहमक़ कहना चाहते हैं तो उसे गधा कहते हैं। गधा वाक़ई बेवक़ूफ़ है। या उसकी सादा-लौही और इंतिहा दर्जा की क़ुव्वत-ए-बर्दाशत ने उसे ये ख़िताब दिलवाया है, इसका तस्फ़िया नहीं हो सकता। गाय शरीफ़ जानवर है। मगर सींग मारती है। कुत्ता भी ग़रीब जानवर है लेकिन कभी-कभी उसे ग़ुस्सा भी आ जाता है। मगर गधे को कभी ग़ुस्सा नहीं आता जितना जी चाहे मार लो। चाहे जैसी ख़राब सड़ी हुई घास सामने डाल दो। उसके चेहरे पर नाराज़गी के आसार कभी नज़र न आएँगे। अप्रैल में शायद कभी कुलेल कर लेता हो। पर हमने उसे कभी ख़ुश होते नहीं देखा। उसके चेहरे पर एक मुस्तक़िल मायूसी छाई रहती है सुख-दुख, नफ़ा-नुक़्सान से कभी उसे शाद होते नहीं देखा। ऋषि-मुनियों की जिस क़दर खूबियाँ हैं, सब उसमें ब-दर्जा-ए-अतुम मौजूद हैं लेकिन आदमी उसे बेवक़ूफ़ कहता है। आला ख़सलतों की ऐसी तौहीन हमने और कहीं नहीं देखी। मुम्किन है दुनिया में सीधे पन के लिए जगह न हो। लेकिन गधे का एक भाई और भी है जो उससे कुछ कम ही गधा है और वो है बैल जिन मानों में हम गधे का लफ़्ज़ इस्तेमाल करते हैं कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो बैल को बेवक़ूफ़ों का सरदार कहने को तैयार हैं। मगर हमारा ख़याल ऐसा नहीं बैल कभी-कभी मारता है। कभी-कभी अड़ियल बैल भी देखने में आते हैं और कभी कई तरीक़ों से वो अपनी ना-पसंदीदगी और नाराज़गी का इज़हार कर देता है। लिहाज़ा उसका दर्जा गधे से नीचे है। झूरी काछी के पास दो बैल थे। एक का नाम था हीरा और दूसरे का मोती। दोनों देखने में ख़ूबसूरत, काम में चौकस, डीलडौल में ऊँचे। बहुत दिनों से एक साथ रहते रहते, दोनों में मुहब्बत हो गई थी। जिस वक़्त ये दोनों बैल हल या गाड़ी में जुते जाते और गर्दनें हिला-हिला कर चलते तो हर एक की यही कोशिश होती कि ज़्यादा बोझ मेरी ही गर्दन पर रहे। एक साथ नाँद में मुँह डालते। एक मुँह हटा लेता तो दूसरा भी हटा लेता और एक साथ ही बैठते। एक मर्तबा झूरी ने दोनों बैल चंद दिनों के लिए अपनी सुसराल भेजे। बैलों को क्या मालूम वो क्यों भेजे जा रहे हैं। समझे मालिक ने हमें बेच दिया। अगर उन बे-ज़बानों की ज़बान होती तो झूरी से पूछते, “तुमने हम-ग़रीबों को क्यों निकाल दिया? हमने कभी दाने-चारे की शिकायत नहीं की। तुमने जो कुछ खिलाया, सर झुका कर ख़ा लिया, फिर तुम ने हमें क्यों बेच दिया।” किसी वक़्त दोनों बैल नए गाँव जा पहुँचे। दिन भर के भूके थे, दोनों का दिल भारी हो रहा था। जिसे उन्होंने अपना घर समझा था, वो उनसे छूट गया था। जब गाँव में सोता पड़ गया, तो दोनों ने ज़ोर मार कर रस्से तुड़ा लिये और घर की तरफ़ चले। झूरी ने सुबह उठ कर देखा तो दोनों बैल चरनी पर खड़े थे। दोनों के घुटनों तक पाँव कीचड़ में भरे हुए थे। दोनों की आँखों में मुहब्बत की नाराज़गी झलक रही थी। झूरी उनको देखकर मुहब्बत से बावला हो गया और दौड़ कर उनके गले से लिपट गया। घर और गाँव के लड़के जमा हो गए और तालियाँ बजा-बजा कर उनका ख़ैर-मक़्दम करने लगे। कोई अपने घर से रोटियाँ लाया, कोई गुड़ और कोई भूसी। झूरी की बीवी ने बैलों को दरवाज़े पर देखा तो जल उठी, बोली, “कैसे नमक-हराम बैल हैं। एक दिन भी वहाँ काम न किया, भाग खड़े हुए।” झूरी अपने बैलों पर ये इल्ज़ाम बर्दाश्त न कर सका, बोला, “नमक-हराम क्यों हैं? चारा न दिया होगा, तो क्या करते।” औरत ने तुनक कर कहा, “बस तुम्हीं बैलों को खिलाना जानते हो, और तो सभी पानी पिला पिला कर रखते हैं।” दूसरे दिन झूरी का साला जिसका नाम गया था, झूरी के घर आया और बैलों को दुबारा ले गया। अब के उसने गाड़ी में जोता। शाम को घर पहुँच कर गया ने दोनों को मोटी रस्सियों से बाँधा और फिर वही ख़ुश्क भूसा डाल दिया। हीरा और मोती इस बरताव के आदी न थे। झूरी उन्हें फूल की छड़ी से भी न मारता था, यहाँ मार पड़ी, उस पर ख़ुश्क भूसा, नाँद की तरफ़ आँख भी न उठाई। दूसरे दिन गया ने बैलों को हल में जोता, मगर उन्होंने पाँव न उठाया। एक मर्तबा जब उस ज़ालिम ने हीरा की नाक पर डंडा जमाया, तो मोती ग़ुस्से के मारे आपे से बाहर हो गया, हल ले के भागा। गले में बड़ी-बड़ी रस्सियाँ न होतीं तो वो दोनों निकल गए होते। मोती तो बस ऐंठ कर रह गया। गया आ पहुँचा और दोनों को पकड़ कर ले चला। आज दोनों के सामने फिर वही ख़ुश्क भूसा लाया गया। दोनों चुप चाप खड़े रहे। उस वक़्त एक छोटी सी लड़की दो रोटियाँ लिए निकली और दोनों के मुँह में एक एक रोटी देकर चली गई। ये लड़की गया की थी। उस की माँ मर चुकी थी। सौतेली माँ उसे मारती रहती थी। इन बैलों से उसे हमदर्दी हो गई। दोनों दिन भर जोते जाते। उल्टे डंडे खाते, शाम को थान पर बाँध दिए जाते और रात को वही लड़की उन्हें एक एक रोटी दे जाती। एक-बार रात को जब लड़की रोटी देकर चली गई तो दोनों रस्सियाँ चबाने लगे, लेकिन मोटी रस्सी मुँह में न आती थी। बेचारे ज़ोर लगा कर रह जाते। इतने में घर का दरवाज़ा खुला और वही लड़की निकली। दोनों सर झुका कर उसका हाथ चाटने लगे। उसने उनकी पेशानी सहलाई और बोली, “खोल देती हूँ, भाग जाओ, नहीं तो ये लोग तुम्हें मार डालेंगे। आज घर में मश्वरा हो रहा है कि तुम्हारी नाक में नथ डाल दी जाये। उसने रस्से खोल दिए और फिर ख़ुद ही चिल्लाई, “ओ दादा! ओ दादा! दोनों फूफा वाले बैल भागे जा रहे हैं। दौड़ो... दौड़ो!” गया घबरा कर बाहर निकला, उसने बैलों का पीछा किया वो और तेज़ हो गए। गया ने जब उनको हाथ से निकलते देखा तो गाँव के कुछ और आदमियों को साथ लेने के लिए लौटा। फिर क्या था दोनों बैलों को भागने का मौक़ा मिल गया। सीधे दौड़े चले गए। रास्ते का ख़याल भी न रहा, बहुत दूर निकल गए, तब दोनों एक खेत के किनारे खड़े हो कर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए? दोनों भूक से बेहाल हो रहे थे। खेत में मटर खड़ी थी, चरने लगे। जब पेट भर गया तो दोनों उछलने कूदने लगे। देखते क्या हैं कि एक मोटा ताज़ा साँड झूमता चला आ रहा है। दोनों दोस्त जान हथेलियों पर लेकर आगे बढ़े। जूँ ही हीरा झपटा, मोती ने पीछे से हल्ला बोल दिया। साँड उसकी तरफ़ मुड़ा तो हीरा ने ढकेलना शुरू कर दिया। साँड ग़ुस्से से पीछे मुड़ा तो हीरा ने दूसरे पहलू में सींग रख दिए। बेचारा ज़ख़्मी हो कर भागा दोनों ने दूर तक तआक़ुब किया। जब सांड बे-दम हो कर गिर पड़ा, तब जाकर दोनों ने उसका पीछा छोड़ा। दोनों फ़तह के नशे में झूमते चले जा रहे थे। फिर मटर के खेत में घुस गए। अभी दो-चार ही मुँह मारे थे कि दो आदमी लाठी लेकर आ गए और दोनों बैलों को घेर लिया। दूसरे दिन दोनों दोस्त काँजी हाऊस में बंद थे। उनकी ज़िंदगी में पहला मौक़ा था कि खाने को तिनका भी न मिला। वहाँ कई भैंसें थीं, कई बकरियां, कई घोड़े, कई गधे, मगर चारा किसी के सामने न था। सब ज़मीन पर मुर्दे की तरह पड़े थे। रात को जब खाना न मिला तो हीरा बोला, “मुझे तो मालूम होता है कि जान निकल रही है। मोती ने कहा, “इतनी जल्दी हिम्मत न हारो भाई, यहाँ से भागने का कोई तरीक़ा सोचो।” बाड़े की दीवार कच्ची थी। हीरा ने अपने नुकीले सींग दीवार में गाड़ कर सुराख़ किया और फिर दौड़-दौड़ कर दीवार से टक्करें मारीं। टक्करों की आवाज़ सुन कर काँजी हाऊस का चौकीदार लालटेन लेकर निकला। उसने जो ये रंग देखा तो दोनों को कई डंडे रसीद किए और मोटी रस्सी से बाँध दिया हीरा और मोती ने फिर भी हिम्मत न हारी। फिर उसी तरह दीवार में सींग लगा कर ज़ोर करने लगे। आख़िर दीवार का कुछ हिस्सा गिर गया। दीवार का गिरना था कि जानवर उठ खड़े हुए, घोड़े, भेड़, बकरियां, भैंसें सब भाग निकले। हीरा, मोती रह गए सुबह होते होते मुंशियों, चौकीदारों और दूसरे मुलाज़मीन में खलबली मच गई। उसके बाद उन की ख़ूब मरम्मत हुई। अब और मोटी रस्सी से बाँध दिया गया। एक हफ़्ते तक दोनों बैल वहाँ बंधे पड़े रहे। ख़ुदा जाने काँजी हाऊस के आदमी कितने बे-दर्द थे, किसी ने बेचारों को एक तिनका भी न दिया। एक मर्तबा पानी दिखा देते थे। ये उनकी ख़ुराक थी। दोनों कमज़ोर हो गए। हड्डियाँ निकल आईं। एक दिन बाड़े के सामने डुगडुगी बजने लगी और दोपहर होते होते चालीस पच्चास आदमी जमा हो गए। तब दोनों बैल निकाले गए। लोग आकर उनकी सूरत देखते और चले जाते, उन कमज़ोर बैलों को कौन ख़रीदता! इतने में एक आदमी आया, जिसकी आँखें सुर्ख़ थीं, वो मुंशी जी से बातें करने लगा। उसकी शक्ल देखकर दोनों बैल काँप उठे। नीलाम हो जाने के बाद दोनों बैल उस आदमी के साथ चले। अचानक उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि ये रस्ता देखा हुआ है। हाँ! इधर ही से तो गया उनको अपने गाँव ले गया था, वही खेत, वही बाग़, वही गाँव, अब उनकी रफ़्तार तेज़ होने लगी। सारी तकान, सारी कमज़ोरी, सारी मायूसी रफ़ा हो गई। अरे! ये तो अपना खेत आ गया। ये अपना कुंआँ है, जहाँ हर-रोज़ पानी पिया करते थे। दोनों मस्त हो कर कुलेंलें करते हुए घर की तरफ़ दौड़े और अपने थान पर जाकर खड़े हो गए। वो आदमी भी पीछे-पीछे दौड़ा आया। झूरी दरवाज़े पर बैठा खाना खा रहा था, बैलों को देखते ही दौड़ा और उन्हें प्यार करने लगा। बैलों की आँखों से आँसू बहने लगे। उस आदमी ने आकर बैलों की रस्सियाँ पकड़ लीं। झूरी ने कहा, “ये बैल मेरे हैं। तुम्हारे कैसे हैं। मैंने नीलाम में लिये हैं।” वो आदमी ज़बरदस्ती बैलों को ले जाने के लिए आगे बढ़ा। उसी वक़्त मोती ने सींग चलाया, वो आदमी पीछे हटा। मोती ने तआक़ुब किया और उसे खदेड़ता हुआ गाँव के बाहर तक ले गया। गाँव वाले ये तमाशा देखते थे और हंसते थे। जब वो आदमी हार कर चला गया तो मोती अकड़ता हुआ लौट आया। ज़रा सी देर में नाँद में खली, भूसा, चोकर, दाना सब भर दिया गया। दोनों बैल खाने लगे। झूरी खड़ा उनकी तरफ़ देखता रहा और ख़ुश होता रहा, बीसियों लड़के तमाशा देख रहे थे। सारा गाँव मुस्कराता हुआ मालूम होता था। उसी वक़्त मालकिन ने आख़िर दोनों बैलों के माथे चूम लिये।