रात-भर मेरे दरीचे के नीचे आज़रबायजानी तुर्की में क़व्वाली हुआ की। सुब्ह मुँह-अँधेरे आवाज़ें मद्धम पढ़ें और कोह-ए-क़ाफ़ के धुँदलके में गईं। जब सूरज निकला मैंने सराय के बाहर आकर आसमान पर रुख़ को तलाश किया। लेकिन रुख़ के बजाए एक फ़ाख़्ता अरारत की सिम्त से उड़ती हुई आई। फ़ाख़्ता की चोंच में एक अ’दद ख़त था। सेहन में आकर वो उस समावार पर बैठ गई जो अंगूरों की बेल के नीचे एक कोने में तिपाई पर रखा था। फ़ाख़्ता ने पुतलियाँ घुमा कर चारों तरफ़ देखा और मुझ पर उसकी नज़र पड़ी। वो फ़ुदक कर समावार से उतरी, लिफ़ाफ़ा मेरे नज़दीक गिराया और कोह-ए-अरारत की तरफ़ फिर से उड़ गई। सराय के मालिक ने बग़ैर दूध की चाय फ़िंजान में उंडेल कर मुझे दी और बोला, “हानम। शायद रुख़ ने आपको इत्तिला भेजी है कि उसने अपनी फ़्लाईट पोस्टपोन की।” “हो सकता है”, मैंने जवाब दिया। “लेकिन मेरा ख़याल ऐसा है कि ये उन दुखियारों में से किसी एक का ख़त है जो अपने लापता अज़ीजों की तलाश में सर-गर्दां हैं। कुछ अ’र्से से मुझे इस क़िस्म के पैग़ाम मशरिक़-ओ-मग़रिब दोनों तरफ़ से अक्सर मिला करते हैं।” “कोई तअ’ज्जुब नहीं क्योंकि जंगें हर सम्त जारी हैं।” सराय के सफ़ेद-रेश मालिक ने जो बिल्कुल टाल्स्टाय का हाजी मुराद मा’लूम होता था और रूसी बलाउज़ की चर्मी पेटी में एक अ’दद मुरस्सा नक़्ली पिस्तौल रखता था। इत्मीनान से हुक़्क़ा गुड़गड़ाते हुए दरियाफ़्त किया, “हानम। ये वाली जंग कौन सी थी?” मैंने फ़िंजान तख़्त के किनारे पर रखकर ख़त पढ़ा। तब मैंने तय किया कि वक़्त आ गया है कि तलाश शुरू’ करने के लिए बिल्कुल इब्तिदा की तरफ़ वापिस चला जाए। चुनाँचे मैंने अपना रोज़मर्रा का मास्क चेहरे से उतारा। हाजी मुराद को ख़ुदा-हाफ़िज़ कहा और अरारत की सिम्त चल पड़ी जो सामने जगमगा रहा था। लेकिन बहुत दूर था। मैं दिन-भर चला की। बहुत सी वादियाँ और मंज़िलें तय कीं। ऐ’न ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब के वक़्त सनोबरों में घिरा एक शफ़क़-रंग चश्मा नज़र आया। उसके किनारे एक नीली आँखों और सुर्ख़ दाढ़ी वाला फ़क़ीर मराक़बे में मशग़ूल था। मैंने ब-ग़ौर देखा। वो ख़्वाजा सब्ज़-पोश नहीं था बल्कि जैसा कि इन इ’लाक़ों का दस्तूर है। उस बुज़ुर्ग ने फ़ुल-बूट पहन रखे थे। उसकी सफ़ेद नम्दे की कुलाह और धारीदार चुग़े से ज़ाहिर होता था कि अगले वक़्तों का बैकताशी दरवेश है। अब मैंने देखा कि आफ़ताब और बद्र-ए-कामिल दोनों उफ़ुक़ पर मौजूद हैं। सनोबरों पर रात के परिंद नग़्मा-ज़न हुए। फिर सूरज और चाँद दोनों झील के पानियों में गिर गए। झील का रंग सियाह हो गया। उस बुज़ुर्ग ने आँखें खोल कर मुझे देखा और “याहू” का ना’रा बुलंद किया जो मुझे मा’लूम था कि बैकताशी फ़िरक़े के सलाम का तरीक़ा है। दफ़अ’तन उस पीर-मर्द ने बोलना शुरू’ किया। जैसे किसी ने एक ग़ैर-मुरई टेप रिकार्डर चला दिया हो। उसने कहा, “मैं उस अ’जीब रोशनी में सफ़र करता हूँ जो न ज़मीन की रोशनी है न आसमानों की। जो अनवार-ए-इलाही की सात रौशनियों से मिलकर बनी है। सुनो कि ज़िंदा अभी से मर चुके हैं और मुर्दे ज़िंदा हैं। खोपड़ियाँ चमकते ग़ारों में गा रही हैं। जब उनकी आवाज़ें समंदरों का शोर बन जाती हैं मैं अपने तकिए पर मुंतज़िर रहता हूँ। मैं रात-दिन ख़ौफ़ इलाही की चक्की पीसता हूँ और ख़ालिक़ की रज़ा-मंदी की चक्की में से दाना निकालता हूँ। ऐ हानम। आप क्या चाहती हैं?” “अफ़नदिम”, मैंने अ’र्ज़ की। “एक अजनबी औ’रत ने मुझे आपके पास भेजा है। वो यहाँ से हज़ारों मील दूर एक तूफ़ानी दरिया के किनारे रहती है और उसने लिखा है। दरियाओं की मौजें लौट-लौट आती हैं। लेकिन वक़्त नहीं लौटता। क्योंकि ज़ैन भी बोगस है। ख़िज़ाँ की हवाएँ चलीं। और जंगलों में ऊँचे दरख़्तों के पत्ते सुर्ख़ हो गए। शाख़ें खड़खड़ाईं और दलदलों में जंगली बतखें चला रही हैं दिमाग़ बाक़ी हैं और जिस्म ख़त्म हो गए। “अ’र्सा दो साल का हुआ मेरा शौहर ग़ायब हो गया। मैं बावरी सबसे पूछती फिरती हूँ कोई मुझे कुछ नहीं बताता। ख़ातून। आपको तुर्कों की सर-ज़मीन में शायद कोई वाक़िफ़-ए-असरार मिल जाए।” जिस वक़्त मैं ये ख़त पढ़ कर सुना रही थी शमशाद के दरख़्त के नज़दीक खड़े उस बुज़ुर्ग ने हाथ सामने बांध कर सर झुका रखा था। तब उस फ़क़ीर ने हाथ आस्तीनों से निकाले और नज़रें उठाईं और कहा, “मुल्क-ए-हंगरी में मेरे जद-अमजद हाजी गुल बाबा बैकताशी की दरगाह है। एक ज़माना था जब बुख़ारा और इस्तानबुल और अल्बानिया और रोमानिया से कलमा-गो उनके मज़ार पर अनवार की ज़ियारत के लिए पा-पियादा हंगरी जाया करते थे। ऐ हानम। अब मैं वहाँ जाता हूँ। और वापिस आकर तुम्हें इत्तिला देता हूँ।” दरवेश ने एक सनोबर के साये में खड़े हो कर आँखें बंद कर लीं। चंद लम्हों बा’द आँखें वा कीं और यूँ गोया हुआ। मैंने डैन्यूब के किनारे उस शिकस्ता दरगाह पर माज़ी और मुस्तक़बिल का नज़ारा किया। सुनो। जब मेरा परदादा हाजी अदनान आफ़ंदी एक कारवाँ के हमराह मुल्क ख़ता जाता था। यारक़ंद के नज़दीक उसे बैकताश क़ुली यानी बंदा ख़ुदा के सिलसिले का एक नौजवान फ़क़ीर मिला। उसने हाजी अ’दनान को पलट कर देखा और बोला, “आग़ा। फ़िक्र करो। फ़िक्र करो। मोहतात हो।” इसके बा’द वो शाहराह के किनारे आबाद एक नक़्श-बंदी ख़ानक़ाह के दरवाज़े में ग़ायब हुआ और उसी लम्हा दूसरी तरफ़ निकल गया और समरक़ंद-म्यज़ीयम में दाख़िल हो गया। अब वो समरक़ंद, अज़बक सोशलिस्ट सोवियत रीपब्लिक के अ’जाइब ख़ाने के एक गिलास केस में खड़ा है और उसकी आँखें कांच की हैं। हानम। मेरे साथ आईए।” दरवेश ने अपना असा सँभाला और झुका-झुका मेरे साये की मानिंद मेरे आगे-आगे लगा। हम झील दान के किनारे एक तकिए पर पहुँचे। ये तकिया एक चोबी इमारत थी जिसकी छत सुर्ख़-रंग की थी और चारों तरफ़ सेब के दरख़्त थे। उस क़लंदर ने कहा इस लफ़्ज़ के मा’ना हैं, “ख़ालिस सोने की रूह।” मुझे सीढ़ियों पर खड़ा छोड़ दिया और हवा के झोंके की मानिंद अंदर चला गया। जब वो देर तक बाहर न आया तो मुझे बहुत डर लगा। मैं दबे-पाँव दरीचे के नज़दीक पहुँची और अंदर झाँका। तो क्या देखती हूँ कि एक चौकोर कमरा है जिसका फ़र्श चोबी है और छत नीची जिसके शहतीर सियाह-रंग के हैं फ़र्श पर एक आज़रबायजानी ग़ालीचे पर दो बिल्कुल हम-शक्ल दरवेश आमने सामने ख़ामोश बैठे हैं। एक कोने में चीनी का एक फ़्रैंच स्टोव रखा है जिस पर गुलाब के फूल बने हैं। एक शहतीर से एक तम्बूरा आवेज़ाँ है और फ़र्श पर एक नै रखी है कि मौलाना जलालउद्दीन रूमी की रूहानी बाँसुरी की नुमाइंदा है। दोनों दरवेश चुप-चाप बैठे रहे। फिर उनमें से एक उठा और जुनूब की तरफ़ रुख़ किया जो मुझे मा’लूम था कि मदीना-ए-मुनव्वरा की सिम्त थी। दरवेश के अपने सफ़ेद पटके से कि आज़रबायजानी भेड़ों की ऊन से बना गया था। एक छोटा सा पत्थर निकाला, कि अल-मुस्तफ़ा अक्सर भूके रहने की वज्ह से अपने पेट से पत्थर बाँधे रहते थे। और बैकताशी फ़िरक़ा इस संत रसूल की पैरवी करते हैं। दर देश ने बैकताशी तरीक़त की एक रस्म शुरू’ की। उसने पटके की गिरह बाँधी और खोली और फिर बाँधी और खोली और दुहराया। “मैं शर को बाँधता और ख़ैर को खौलता हूँ। मैं जहालत को बाँधता और ख़ौफ़-ए-अल्लाह को खोलता हूँ। तमा’ को बाँधता और फ़य्याज़ी को खोलता हूँ। मैं इ’ज्ज़-ओ-इंकिसारी की दरांती से परहेज़-गारी की फ़सल काटता हूँ। मैं ख़ुद-आगही में बूढ़ा होता हूँ और सब्र के तनूर में अपनी रोटी पकाता हूँ।” तब मैं दरीचे से चंद क़दम पीछे हटी और आसमान की तरफ़ मुँह किया और एक और बैकताशी मुनाजात पढ़ी... “ऐ वो जिसका कोई नसब-नामा नहीं। ओ बैकताश जो ज़माने के साथ गर्दिश करता है जो शब-ए-तारीक में संग सियाह पर रेंगते च्यूँटे की आवाज़ सुन लेता है।” लेकिन अब मैंने बड़ी चालाकी से अपने पैग़ाम का इज़ाफ़ा कर दिया। “ओ बैकताश बस तू मज़लूमों की फ़रियाद ही नहीं सुनता।” लेकिन मेरी आवाज़ दरवेशों के वज़ीफ़े के शोर में डूब गई। वो अब चला रहे थे। “ओ नबी। जिस पर बादल हमेशा अपना साया किए रहते थे। अल-मुस्तफ़ा... दुनिया पर रहम फ़र्मा... रहम। रहम, करीम अल्लाह... याहू”, के बैकताशी ना’रों से कमरा गूंज उठा। दूसरे लम्हे वो दरवेश कि नाम उनका हाजी सलीम आफ़ंदी था, एक सुराही और कूज़ा हाथ में लिए बरामद हुए। “हानम। उस बदक़िस्मत औ’रत के लिए जो कुछ मैं कर सकता हूँ करूँगा। लेकिन अली मुर्तज़ा शाह-ए-विलाएत ने कहा है, जो कुछ लिखा गया है हमेशा मौजूद रहेगा।” तब मैंने एक बहुत ग़ैर-मुतअ’ल्लिक़ बात हाजी सलीम से कही। मैंने अ’र्ज़ किया। “अफ़न्दम। मेरे वतन में जो यहाँ से हज़ारों मील दूर है, हमारी आबाई हवेली में जो अब खन्डर हो चुकी है, एक तहख़ाना है। उस तहखाने में पुरानी किताबों के अंबार हैं। और एक पुराना शिकस्ता चीनी का फ़्रैंच स्टोव। जिस पर गुलाब के फूल बने हैं और इन्टेलेकचुवल चूहे उन किताबों को कतरने में मसरूफ़ हैं जो दौलत-ए-उस्मानिया और बर्तानिया और फ़्रांस और मिस्र और ईरान में किसी ज़माने में बड़े शौक़ से लिखी और छापी गईं... क़ुस्तुनतुनिया। 1872। लंदन। ई.सी. फ़ौर 1884 तहरान। सन 1892۔ क़ाहिरा। 1902 और एक निस्बतन जदीद किताब भी वहाँ पड़ी है। लंदन रसल स्कवायर। 1952। और एक दफ़ा’ का ज़िक्र है एक क़हर-आलूद सह-पहर में फ़िरंगियों के उस बुज़ुर्ग सूफ़ी से उनके फेबर ऐंड फेबर (faber and faber) रसल स्कवायर के दफ़्तर में मिली थी और उन्होंने मुझसे रक़्साँ दरवेशों के मुतअ’ल्लिक़ बातें कीं थीं। चूँकि आप ख़ुद इस हल्क़े से तअ’ल्लुक़ रखते हैं मुझे कोनिया के उस मरहूम सिलसिला के मुतअ’ल्लिक़ कुछ बताईए कि कोनिया भी अब महज़ एक टूरिस्ट अट्रैक्शन है।” दरवेश ने सर झुकाया और रोने लगे फिर आँसू आसतीन से पोंछे और ख़ुद भी एक क़तई’ ग़ैर मुतअ’ल्लिक़ बात कही। “हानम”, हाजी सलीम ने फ़रमाया, “मैं इसलिए रोता हूँ कि क़ानून-ए-ख़ुदावंदी के मुताबिक़ मेरा हमज़ाद जो अंदर बैठा है। मेरे मरने से ठीक चालीस दिन क़ब्ल मर जाएगा। उन चालीस दिनों में, मैं क्या करूँगा? क्योंकि वो मुझे ख़बरदार करता रहता है।” दफ़अ’तन हाजी सलीम फिर चिल्लाए, “मौला-ए-कायनात शाह-ए-नजफ़ ने फ़रमाया है। जो कुछ लिखा गया है, हमेशा रहेगा। “अफ़न्दिम”, मैंने अ’र्ज़ की। “ऊपर वालों की बातें तो में नहीं जानती मगर जो कुछ यहाँ लिखा जाता है अक्सर बेहद ख़तरनाक साबित होता है क्योंकि जैसा कि आपको इ’ल्म है। हर हर्फ़ का एक मुवक्किल मौजूद है।” दरवेश ने इस्बात में सर हिलाया। मैंने कहा, “जब उस साहिब-ए-ज़माँ ने हुक्म-नामे पर दस्तख़त किए तो उसके हुरूफ़ के ताक़तवर मुवक्किल उड़ कर यूरोप की सिम्त गए और उन्होंने तबाही फैला दी। दिमाग़ पाश-पाश हुए और जिस्मों के परख़च्चे उड़ गए... अफ़न्दिम। मैं उस अजनबी औ’रत को क्या जवाब दूँ?” “फ़िक्र करो। फिक्र करो। मोहतात हो। ख़बरदार रहो।” “उस अजनबी ख़ातून ने लिखा है कि उसके ख़ाविंद का नाम अबू-अल-मंसूर था। और वो तस्वीरें बनाता था।” “क्या वो अपनी खोपड़ी बचाने के लिए जंगल की सिम्त नहीं भागा?”, हाजी सलीम ने दरियाफ़्त किया। “जी नहीं। अजनबी औ’रत ने लिखा है कि वो एक तालाब के किनारे बैठा जंगली बतखों की तस्वीरें बनाता रहा।” “निहायत अहमक़ था।”, हाजी सलीम ने मुख़्तसरन कहा। “और हज़ारों लाखों इंसान जंगलों और दलदलों और सरहदों की तरफ़ भागे। और ज़मीन उनके पैरों तले से निकल चुकी थी और सरों पर तलवारों का साया था।” “कोई तलवार नहीं सिवा ज़ुल्फ़िक़ार अली के।”, हाजी सलीम ने बात काटी। मैं ख़ामोश हो गई। “क्या जब क़यामत आई शख़्स-ए-मज़्कूर तन्हा था?”, हाजी सलीम ने दरियाफ़्त किया। “जी नहीं। मर्ग-ए-अम्बोह के जश्न में शामिल था।” “ये कहाँ का ज़िक्र है?” “हर जगह का। मशरिक़, मग़रिब, शुमाल, जुनूब बैकताश का चेहरा हर-सम्त है।” हाजी सलीम ने ग़ौर से मुझे देखा। “हानम। क्या तुम उनमें से नहीं हो जो ईमान लाए?” मैंने बात जारी रखी। “और लाखों सरहदों की तरफ़ भागे। वो ब-हालत-ए-ख़मोशी मशरिक़ से मग़रिब की जानिब आए और इसी तरह सर झुकाए फिर वापिस लौट गए। तब मैंने बहुत सोचा कि ये सब क्यों हुआ। और मुझे याद आया। लिखा है, जो अपनी रूह का हज करे उस पर असरार मुनकशिफ़ हो जाते हैं। मैंने अपनी रूह का हज किया पर कुछ दरियाफ़्त न हुआ।” “हानम। शायद तुम्हारे क़ल्ब पर कुफ़्र की मुहर गहरी लगी है”, हाजी सलीम ने कहा और सुराही से थोड़ा सा पानी कूज़े में उंडेलते हुए एक बैकताशी दुआ पढ़ी... “कोई मा’बूद नहीं सिवाए अल्लाह के। और मुहम्मद उसका रसूल। और अली उसका दोस्त। और इमाम मेहदी आख़िर-ऊज़-ज़मा। और मूसा कलीमुल्लाह और ईसा रूहुल्लाह... हानम इस पानी में देखो...” “क्यों। क्या आपको जाम-ए-जमशेद मिल गया है?”, मैंने ज़रा झुँझला कर पूछा। “हानम। पानी में देखो।” मैंने देखा और कहा, “अफ़न्दिम। इसमें तो मुझे एक अ’दद घोड़ा-गाड़ी नज़र आती है। यानी स्टेज कोच। जो एक जापानी से पुल पर से गुज़र रही है।” फिर दफ़अ’तन मैंने रेडियो या टेलीविज़न के commentator की तरह जोश से कहना शुरू’ किया। “और इस गाड़ी में एक कठ-पुतली नोह मास्क पहने बैठी है... और कोचवान का चेहरा नहीं है... कोचवान का चेहरा नहीं है... और अब एक नाव जो वसीअ’ दरिया के धुँदलके में रवाँ है। और किनारे पर नाज़ुक से पहाड़ और बाँस के झुंड और बेद के पौदे और पहाड़ी के दामन में बाँस का झोंपड़ा। उसके बरामदे में एक मनहनी इंसान। बकरे की सी दाढ़ी... बैठा तस्वीर बना रहा है... अफ़न्दिम... ये सब तो कुछ ज़ैन सा मा’लूम होता है...” “ज़ैन भी दुरुस्त है। हानम, और ग़ौर से देखो नाव या बकतर-बंद गाड़ियाँ?” “अफ़न्दिम... अफ़न्दिम... आपके प्याले का पानी सुर्ख़ हो गया!” “करीमुल्लाह... याहू...”, हाजी सलीम ने ठंडी सांस लेकर आहिस्ता से दुहराया। कूज़ा उठा कर सर झुकाए सीढ़ियाँ उतरे, सेब के झुरमुट से गुज़रते झील के किनारे पहुँचे और दफ़अ’तन इस मश्शाक़ी और फुर्ती से कूज़ा दूर पानी में फेंक दिया जैसे क्रिकेट के खिलाड़ी गेंद फेंकते हैं। फिर वो तकिए पर वापिस आए और सीढ़ी पर बैठ कर कहना शुरू’ किया, “मैं ख़ौफ़-ए-इलाही की चक्की पीसता हूँ। और नफ़रत और ज़ुल्म को बाँधता हूँ। और मुहब्बत और दर्द-मंदी को खोलता हूँ। और ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब को बाँधता हूँ... ऐ हानम-ए-हिन्दी... क्या ये शख़्स अबू-अल-मंसूर एक इंसान था या एक अ’लामत?” “दोनों...”, मैंने जवाब दिया। हाजी सलीम ने सर झुका कर दुबारा रोना शुरू’ किया। “क्या मैं उस ख़ातून को लिख दूँ कि वो सब्र के तनूर में अपनी रोटी पकाती रहे?”, मैंने पूछा। “अफ़न्दिम। अब मैं शाहजहाँबाद वापिस जाती हूँ। आप भी इस्तानबुल लौट जाईए और वहाँ मुहल्ला पैराया तोपकापू में अपना तकिया मौलवी आबाद कीजिए या ख़ानक़ाह ओग़लू अलीपाशा।” “हानम। मेरे वापिस जाने के लिए अब कोई ठिकाना नहीं है। इस्तानबुल के दो सौ छप्पन तकिए निस्फ़ सदी होने आई एक साहिब-उल-ज़माँ के हुक्म से बंद कर दिए गए। चंद एक के मॉडल अ’जाइब-ख़ानों में रखे हैं। ये फ़क़ीर-हक़ीर भी एक ग्लास-केस में खड़ा है...”, हाजी सलीम ने कहा और आँसू बहाते रहे। दफ़अ’तन मैंने नोटिस किया कि हाजी सलीम की नीली आँखें कांच की थीं। “बहरहाल। अफ़न्दिम। आप जहाँ कहीं भी वापिस जाएँ उस बैकताश से कह दीजिएगा कि सारी दुनिया में, मशरिक़-ओ-मग़रिब शुमाल-ओ-जुनूब में, उसके क़ुलियों पर बहुत ज़ुल्म हुए और हो रहे हैं... और दुआ’ करते रहिए।” “हम बैकताशी महज़ दुआ’ नहीं करते। हानम। तुम नमाज़ पढ़ती हो? सीधी-सादी नमाज़? हम नमाज़ पढ़ने को दार-ए-मंसूर पर चढ़ना कहते हैं। मैं रोज़ दार-ए-मंसूर पर चढ़ता हूँ। और फ़ना होता हूँ। और ज़िंदा होता हूँ। चूँकि तुम ऐसा कभी न करोगी तुम्हें कुछ मा’लूम न होगा। मैं रोज़ाना ख़्वाहिशात को बाँधता और क़नाअ’त को खौलता हूँ। ख़ुदा साबिर है क्योंकि ही-ओ-क़य्यूम है। बंदा बे-सब्र है क्योंकि उसकी ज़िंदगी चंद रोज़ा है और वक़्त तेज़ी से गुज़रता जाता है।” तब मैंने ज़रा बे-अदबी से कहा, “अफ़न्दिम। आपको हस्पानिया के हाजी यूसुफ़ बैकताशी का नाम याद है? पंद्रहवीं सदी ईसवी में वो अलैहि-अल-रहमता उंदुलुस में मौजूद थे। जब मुसलमानों पर क़हर टूटा उनका और उनके मुरीदों का सब्र-ओ-रज़ा किसी काम न आया।” हाजी सलीम ने मेरी बात का मुतलक़ नोटिस न लिया और कहते रहे। “मैं अनवार-ए-इलाही की रोशनी में सफ़र करता हूँ। मैं निनावे अस्मा-ए-इलाही की रोशनी में चलता हूँ। हो, जो ब-रंग-ए-सुर्ख़ है। अ’हद, सब्ज़ और अ’ज़ीज़, जो सियाह है और वदूद, जिसकी ज़ात में रोशनी नहीं...” हाजी सलीम बैकताशी की गुफ़्तगू ख़त्म हुई... मुंगेर मुरई टेप रिकार्डर में से अ’जीब-ओ-ग़रीब आवाज़ें निकलने लगीं जैसे किसी ने उसे उल्टा चला दिया हो। क्यों कि वजूद मुतअ’द्दिद हिस्सों में मुनक़सिम है। हाजी सलीम सामने देखते अपना लबादा सरसराते तकिए के अंदर जाकर ग़ायब हो गए। दरवाज़ा बाहर से बंद था। उसमें ज़ंग-आलूद मोटा क़ुफ़्ल पड़ा था। मैंने अंगूर की बेलों से घिरे दरीचे में जाकर अंदर झाँका। हाजी सलीम और उनका हमज़ाद अपने-अपने हाथ सामने बाँधे गुम-सुम आमने सामने दो-ज़ानू बैठे थे। देखते-देखते वो दोनों पीले पुराने काग़ज़ों में तबदील हो गए। कोह-ए-अरारत की तरफ़ से हवा का एक तेज़ सर्द झोंका आया जिसमें दरीचे के शिकस्ता पट भड़ से खुल गए और वो दोनों दरवेश पुर्ज़ा-पुर्ज़ा हो कर कमरे में बिखर गए। बाहर आकर उनके पुर्ज़े फ़िज़ा में चक्कर काटने लगे और ख़स्ता फ़ालतू काग़ज़ों की तरह हवा में गए। रुख़ तुग़लकाबाद की सर-ज़मीन पर उतरा और अपने पंख फैला दिए। मैंने नीचे आकर शहर का रुख़ किया। राह में सोचा, तलाश यहाँ अज़-सर-ए-नौ शुरू’ करने से क़ब्ल अपने पुराने-धुराने मास्क की मरम्मत करवाना ज़रूरी है। गो मैं ज़ियादा मुद्दत-बा’द वापिस नहीं आई थी लेकिन शहर बदल गया था। तब इंद्रप्रस्थ की एक गली में मैंने एक रथबान से पूछा, “ओ भाई रथबान। जंबूद्वीप की ताज़ा-तरीन आजकल की राजधानी का रास्ता है?” उसने कहा “मा’लूम नहीं।”, और घोड़ों पर चाबुक लगा कर हवा हो गया। तब मैं और आगे बढ़ी और एक तो रानी शह-सवार से दरियाफ़्त किया, “ओ भाई शह-सवार अगर मैं तुग़लकाबाद पहुँच गई हूँ तो किसी ऐसे कारख़ाने का रास्ता बताओ जहाँ मैं अपने मास्क की मरम्मत करवा सकूँ।” शह-सवार ने जवाब दिया, “बी-बी सामने कतलक निगार ख़ानम का मक़बरा है। या’नी था। उसके ऊपर जो एयर कंडीशंड इ’मारत खड़ी है। उसके अंदर वो क़दीम ख़ातून जो रायडर हेगर्ड के नाविलों में she के नाम से ऐक्टिंग किया करती थी अब ब्यूटी पार्लर चलाती है।” लिहाज़ा में उस कारख़ाने पर पहुँची। उसके सामने ऐसा हुजूम था जैसे कोई मर गया हो। मैंने अंदर झाँका। हीरों से जगमगाती बहुत सी औरात एक क़तार में ख़ौफ़नाक मशीनों के नीचे सर दिए साकित-ओ-सामित बैठी थीं। और मज़ीद औरात इस तरह आ रही थीं जैसे फ़िरंगिस्तान में मुर्दे morticians के यहाँ आते हैं। दहशत-ज़दा हो कर मैं उल्टे पाँव बाहर निकली तो शाहजहाँबाद की एक गली में एक चुगी दाढ़ी वाले नौजवान ने मेरा रास्ता रोका और गोया हुआ... “ऐ इस क़दर confused नज़र आने वाली भारतीय महिला। मैं एक परदेसी मुसाफ़िर हूँ और मुझे भूक लगी है। किसी ऐसी जगह का पता बतला सकती हो जहाँ मैं दरियाई मछली और अच्छा भात खा सकूँ?” मैं उसे जामा मस्जिद के क़रीब एक भटियारखाने में ले गई जहाँ क़िले के चटोरे “सलातीन और शो’रा की आमद-ओ-रफ़्त रहती थी। देखा तो भटियारख़ाना सुनसान पड़ा था। मैं बहुत मायूस नज़र आई तो उस अजनबी नौजवान ने कहा, “बानो-ए-मुहतरम। आईए न्यू डेल्ही चलते हैं।” न्यू डेल्ही के एक mod रेस्तोराँ में चुगी दाढ़ी वाला यूँ दाख़िल हुआ जैसे बत्तख़ पानी में दाख़िल होती है। मैं फ़ौरन समझ गई कि ये शख़्स ना-मा’लूम आर्टिस्ट है। इस तआ’म-ख़ाने में मर्द और औ’रतें बिल्कुल यकसाँ नज़र आ रहे थे। बल्कि औ’रतें मर्द और मर्द लड़कियाँ मा’लूम होते थे कि ये unisex कहलाता है। परदेसी नौजवान ने दरीचे के क़रीब मेज़ पर बैठ कर दरियाई मछली मँगवाई और कहा कि गो वो अब हमारा दोस्त और हलीफ़ है। लेकिन अपना बिल ख़ुद अदा करेगा। तब मैंने उससे कहा, “ओ भाई परदेसी मेहमान। मैं तुम्हारी इस ख़ुद्दारी की क़द्र करती हूँ। लेकिन तुम यहाँ क्या कर रहे हो?” वो नौजवान दरीचे से बाहर देखता रहा जहाँ तुर्क बादशाहों के ख़स्ता मक़बरों में ग़रीब-ग़ुर्बा टाट के झोंपड़े डाले शाम का खाना पका रहे थे, क्योंकि बहर-हाल सब कुछ ज़ैन है और बैकताश का चेहरा हर तरफ़ है। अचानक उस नौजवान ने हाजी सलीम आफ़ंदी की आवाज़ में कहना शुरू’ किया, “कठपुतलियाँ सुतलियों से आवेज़ाँ स्टेज पर उतारी जाती हैं। तमाशा-गर एक सुतली ऊपर खींच लेता है। दूसरी कठ-पुतली नीचे उतार देता है।” “ये भी दुरुस्त है।”, मैंने हाजी सलीम आफ़ंदी की मानिंद जवाब दिया। फिर मैंने मुस्तइ’दी अजनबी औ’रत का ख़त पर्स में से निकाला और बोली, “ओ भाई मुसाफ़िर। ज़िंदा मर्दों के ख़्वाब देख रहे हैं। और मुर्दे ज़िंदों के। और तस्वीरों की तस्वीरें बाक़ी हैं चूँकि तुम तूफ़ानी दरियाओं की सिम्त से आए हो मुम्किन है तुमने मुसव्विर अबू-अल-मंसूर का नाम सुना हो।” मुसाफ़िर खाना खाता रहा। क्योंकि खाना पैदाइश और मौत और अज़ल और अबद के दरमियान सबसे बड़ी और अटल हक़ीक़त है। गो हमसे कहा गया था कि भूक को बाँधो और क़नाअ’त को खोलो। ताकि कुछ लोग बाक़ी लोगों से ज़ियादा खा सकें।” मैंने फिर दरियाफ़्त किया, “तुम यहाँ काहे की जुस्तजू में आए हो?” “क्या जुस्तजू ज़रूरी है?”, उसने कहा, “मैं यहाँ नैशनल स्कूल आफ़ ड्रामा में आपकी हुकूमत के स्कालरशिप पर फ़न-ए-तमाशागीरी सीखने आया हूँ जिस फ़न के आप लोग माहिर हैं।” “क्या तुम उन लोगों के क़बीले से हो जो नक़्ली चेहरे लगा कर ये ज़ाहिर करते हैं कि वो कोई और हैं? क्या तुम्हारे माँ बाप अदाकार हैं?” “मेरा बाप जंगली बतखों की तस्वीरें बनाता था।” “क्या अब भी वो ज़िंदों में शामिल है?”, मैंने बे-सब्री से पूछा। तब नौजवान ने उकता कर कहा, “शायद मेरी माँ ने आपको भी ख़त लिखा है। वो तरह-तरह के लोगों को ख़त लिख-लिख कर मेरे बाप की खोज में मसरूफ़ हैं और ये यक़ीन करने को हरगिज़ तैयार नहीं कि मेरे बाप को सुब्ह पाँच बजे तुलूअ’-ए-आफ़्ताब से क़ब्ल मकान से बाहर ले जाकर आ’लम-ए-बाला रवाना कर दिया गया था।” इसके बा’द उस शख़्स-ए-गुमनाम ने खाना ख़त्म किया। सुकून से ख़ुदा-हाफ़िज़ कहा और रेस्तोराँ से बाहर चला गया। मैंने दरीचे में से देखा। नई दिल्ली की सड़कें बारिश में भीग रही थीं। इतने में दूर से घोड़े की टापों की आवाज़ आई और एक घोड़ा-गाड़ी कतलक निगार ख़ानम के मक़बरे के पीछे से नमूदार हुई और सुनसान सड़क पर सामने से गुज़र गई। उस स्टेज कोच के अंदर एक कठ-पुतली नोह मास्क लगाए बैठी थी। कोचवान ने शोगन अ’हद का कीमोनो पहन रखा था। कोचवान ने पलट कर मुझे देखा। और उसका चेहरा नहीं था। मैंने जल्दी से अपने मास्क को छुआ। और मुझे ये ख़ौफ़नाक एहसास हुआ कि मैं ये महज़ ज़ाहिर ही नहीं करती कि मैं कोई और हूँ। मैं वाक़ई’ कोई और हूँ। और एक ऐसी नोह तमसील में शामिल हूँ जो किसी के समझ में नहीं आती। अ’ज़ीज़-ए-मन। आज से छः सौ बरस क़ब्ल हाजी गुल बाबा बैकताशी अलैहि-अल-रहमता ने ये मुअ’म्मा अपने मुरीदों के सामने रखा था जब वो नीले डैन्यूब के किनारे उसमानी मम्लिकत हंगरी में अपनी ख़ानक़ाह के अंदर बैठे हिकायात-ए-क़दीम-ओ-जदीद के ज़रीए’ दर्स दिया करते थे। “और इस मुक़ाम पर मेरा राग ख़त्म हुआ। ए दुनियाओ। अब रुख़्सत हो। और वापिस जाओ।” मौलाना जलालउद्दीन रूमी ने कहा और नै हाथ से रख दी।