सुना है आलम-ए-बाला में कोई कीमिया-गर था

फिर शाम का अंधेरा छा गया। किसी दूर दराज़ की सरज़मीन से, न जाने कहाँ से मेरे कानों में एक दबी हुई सी, छुपी हुई आवाज़ आहिस्ता-आहिस्ता गा रही थी,
चमक तारे से मांगी चांद से दाग़-ए-जिगर मांगा

उड़ाई तीरगी थोड़ी सी शब की ज़ुल्फ़-ए-बर्हम से
तड़प बिजली से पाई, हूर से पाकीज़गी पाई

हरारत ली नफ़स हाए मसीह-ए-इब्न-ए-मरियम से
ज़रा सी फिर रबूबियत से शान-ए-बेनियाज़ी ली

मुल्क से आ’जिज़ी, उफ़्तादगी तक़दीर-ए-शब्नम से
ख़िराम-ए-नाज़ पाया आफ़्ताबों ने, सितारों ने

चटक ग़ुंचों ने पाई, दाग़ पाए लाला-ज़ारों ने
कोई वायलिन के मद्धम सुरों पे ये गीत गाता रहा और फिर बहुत सी आवाज़ें प्यारी सी, जानी बूझी सी दूर पहाड़ों पर से उतरती, बादलों में से गुज़रती, चांद की किरनों पर नाचती हुई बिल्कुल मेरे नज़दीक आगईं। मेरे आस-पास पुराने नग़मे बिखेरने लगीं। मैं चुप-चाप ख़ामोश पड़ी थी। मैंने आँखें बंदकर लेनी चाहीं। मैंने सुना, वायलिन के तार लरज़ उठे... और फिर टूट गए।

“अमीना आपा!”
“हूँ।”

“अमीना आपा, अस्सलामु अ’लैकुम।”
“वाअ’लैकुम।”

“अमीना आपा, एक बात सुनिए।”
“क्या है भई?”

“ओफ़्फ़ो, भई अमीना आपा आप तो लिफ़्ट ही नहीं देतीं।”
“अरे भई क्या करूँ तुम्हारा...”

“बातें कीजीए, टॉफ़ी खाइए।”
“हुम।”

“अमीना आपा, हवाई जहाज़ में बैठिएगा?”
“ख़ुदा के लिए आसिफ़ मेरी जान पर रहम करो।”

“अमीना आपा वाक़ई’ इतना बेहतरीन फ्लाइंग फ़ोरटर्स आपके लिए कैनेडा से लाया हूँ।”
“आ... सिफ़... उल... लू...” ये मेरी आवाज़ थी।

अमीना आपा इंतिहाई बे-ज़ारी और फ़लसफ़े के आलम में सोफ़े पर उकड़ूं बैठी “हिन्दोस्तान का ग़िज़ाई बोहरान” पढ़ने में मशग़ूल थीं।
आसिफ़ ने मज़लूमियत के साथ मुझे देखा।

“चलो। मकीनो से तुम्हारा फ्लाइंग फ़ोरटर्स बनाएंगे... मेरा प्यारा बच्च...”
फिर हम अंधेरा पड़ने तक ड्रेसिंग रुम के दरीचे में बैठे मकीनो से तय्यारों के मॉडल बनाते रहे। “अमीना आपा अब तक ऐसी ही हैं।”

“तो क्या तुम्हारे दाग़-ए-मुफ़ारिक़त दे जाने के ग़म में तब्दील हो जातीं?”
“बहुत ऊंची जाती हैं भई... हिन्दोस्तान का ग़िज़ाई बोहरान... वो क्या होताहै शाहरुख?”

“डैश इट... मुझे नहीं मा’लूम अल्लाह, कौन अ’ज़ीमुश्शान चुग़द उनसे शादी करेगा?”
“ओफ़्फ़ो... बेहतरीन अमरीकी सिगरेट हैं... पियोगी?”

“चुप... अमीना आपा ने देख लिया तो कान पकड़ कर घर से बाहर निकाल देंगी।”
“बोर...”

फिर ये आवाज़ें भीगी रात की हवाओं के साथ नाचती हुई बहुत दूर हो गईं। मैंने सोने की कोशिश की। मेरी आँखों के आगे ख़्वाब का धुँदलका फैलता चला गया।
सर्व के दरख़्तों के पीछे से चांद आहिस्ता-आहिस्ता तुलूअ’ हो रहा था। वो बिल्कुल मा’मूली और हमेशा की सी ज़रा सुनहरी रात थी। हम उसी रोज़ 18, वारिस रोड से शिफ़्ट कर के इस लेन वाली कोठी में आए थे। उस रात हम अपने कमरे सजाने और सामान ठीक करने के बाद थक और उकता कर खाने के इंतिज़ार में ड्राइंगरूम के फ़र्श पर लोट लगा रहे थे। उ’स्मान एक नया रिकार्ड ख़रीद कर लाया था और उसे पच्चीसवीं मर्तबा बजा रहा था। मुझे अब तक याद है कि वो मलिका पुखराज का रिकार्ड था,

“जागें तमाम रात, जगाएँ तमाम रात।” मलिका पुखराज की आवाज़ पर हम बहन भाईयों की क़ौम बिलइत्तिफ़ाक़ मरती थी। उ’स्मान जमाहियाँ ले रहा था। सबीहा कुछ पढ़ रही थी और मैं कुशनों पर कुहनियाँ टेके और पैर ऊपर को उठाए क़ालीन पर लेटी लेटी बोर हो रही थी।
और उस वक़्त सामने के बरामदे के अंधेरे में कुछ अजनबी से बूटों की चाप सुनाई दी और एक हल्की सी सीटी बजी... हलो... कोई है... और जैसे समुंदर की मौजों के तरन्नुम के साथ रेवड़ी कोटन के ऑर्केस्ट्रा की धन गूंज उठी।

“अब इस वक़्त कौन हो सकता है?” उ’स्मान ने एक तवील जमाही लेकर रेडियो ग्राम का पट ज़ोर से बंद कर दिया और खिड़की में से बाहर झांक कर देखा।
“वही होगा कृपा राम का आदमी... इन्कम टैक्स के क़िस्से वाला।” मैंने राय ज़ाहिर की और इंतिहाई बोरियत (boredome) के एहसास से निढाल हो कर करवट बदल ली।

“हलो... अरे भई कोई है अंदर।” बाहर से फिर आवाज़ आई।
“ये कृपा राम का चपरासी क़तई नहीं हो सकता। उसकी तो कुछ चार्ल्स ब्वाइर की सी आवाज़ है।” सबीहा के कान खड़े हो गए।

“डूब जाओ तुम ख़ुदा करे।” मैं और भी ज़्यादा बोर हो कर सबीहा को खा जाने के मसले पर ग़ौर करने लगी।
बाहर अंधेर में उ’स्मान और उस आधी रात के मुलाक़ाती के दरमियान इंतिहाई अख़लाक़ और तकल्लुफ़ में डूबा हुआ मुकालमा ब ज़ुबान-ए-अंग्रेज़ी हो रहा था।

“हमारे यहां अचानक बिजली फ़ेल हो गई है। मैं ये मा’लूम करने आया था कि सारी लाईन ही बिगड़ गई है या सिर्फ हमारे यहां ही ख़राब हुई है।”
“हमारे यहां की बिजली तो बिल्कुल ठीक है। आप फ्यूज़ के तार ले जाएं।” फिर कुछ खटपट के बाद उ’स्मान ने हैट रैक की दराज़ में से तारों का लच्छा निकाल कर हम-साए साहिब की नज़र किया और वो बूटों की चाप बरामदे की सीढ़ियों पर से उतर के रविश की बजरी पर से होती हुई फाटक तक पहुंच कर लेन के अंधेरे में खो गई। अगस्त की रात का नारंजी चांद सर्व के दरख़्तों पर झिलमिला रहा था।

ये आसिफ़ था... आसिफ़ अनवर... तुम्हें याद है ज़ारा! मैंने एक दफ़ा तुम्हें लाहौर से लिखा था कि हमारी एक बेहद दिलचस्प ख़ानदान से दोस्ती हो गई है। हमारे हम-साए हैं बेचारे। बिल्कुल हमारे sort के लोग। अब की क्रिसमस में तुम देहरादून के बजाय लाहौर आ जाओ तो ख़ूब enjoy करें। हम सबने माहरुख़ की रियासत तक बैल गाड़ियों पर जाने की स्कीम बनाई है। ये आसिफ़ की तजवीज़ थी जिसे मम्मी आफ़त कहती थीं। उन ही दिनों माहरुख़ की नई-नई शादी मेडिकल कॉलेज के एक मोटे और बे इंतिहा दिलचस्प लड़के से हुई थी और उसने हम सबको हमसायों समेत अपने गांव मदऊ’ किया था।
अल्लाह... वो दिन... वो रातें!

हमारी और उनकी कोठियों के बीच में वारिस रोड की आख़िरी लेन और उसके दोनों तरफ़ बाग़ की नीची सी दीवार थी। हम उसी दीवार को फलाँग कर एक दूसरे के यहां जाया करते थे। अक्सर जाड़ों की धूप में अपनी अपनी छतों पर बैठ कर ग्रामोफोन बजाने का मुक़ाबला रहता। ख़तरे के मौक़ों पर इन बहन-भाईयों को आईने की चमक के ज़रीये एस.ओ.एस. के पैग़ाम भेजे जाते। ये मा’लूम हो कर कि ये लोग भी यू.पी. के हैं किस क़दर ख़ुशी हुई थी। सबसे बड़ी बहन ज़कीया, अमीना आपा के साथ एम.ए. कर रही थीं। शकीला और प्रवीन सबीहा के साथ सेक्रेड हार्ट में थीं।
आसिफ़ साहिब उनके इकलौते भाई थे। सबकी आँखों का तारा। मुतवक़्क़े’ थे कि हम लोग भी उन्हें आँख का तारा समझ कर हमेशा उनके fusses बर्दाश्त करेंगे। आप केमिस्ट्री में एम.एससी. फ़र्मा रहे थे। पेट्रोल के रंग तब्दील करने के तजरबों के बे-इंतिहा शौक़ीन थे। सीटी के साथ साथ वायलिन बेहतरीन बजाते थे। मुग़ालता था कि बेहद ख़ूबसूरत हैं। घर की बुज़ुर्ग ख़वातीनऔर बच्चों से दोस्ती कर ली थी। कार इतनी तेज़ चलाते थे कि हमेशा चालान होता रहता था। लाहौर के सारे चौराहों के पुलिस मैन आपसे अच्छी तरह वाक़िफ़ थे। माल पर पैदल जाती हुई अल्ट्रा मॉडर्न लड़कियों को कार में लिफ़्ट देने के तजुर्बों के बहुत क़ाइल थे। मुख़्तसर ये कि इंतिहाई दिलचस्प आदमी थे आप।

और अमीना आपा... उनका ये आ’लम कि हमसे तीन-चार साल पहले क्या पैदा हुई थीं कि क़ियामत आगई थी। सुबह से शाम तक हम सबको बोस करने पर मुस्तइद। बी.ए. उन्होंने अलीगढ़ से किया था। एम.ए. और बी.टी. के लिए हमारे यहां आगई थीं और हमारी जान के लिए मुस्तक़िल क़िस्म का कोर्ट मार्शल। मुझे वो शाम कितनी तफ़सील से अच्छी तरह याद है। जैसे ये बातें अभी-अभी कल ही हुई हैं।
सफ़ेद कश्मीरी ऊन का गोला सुलझाते हुए मैंने आवाज़ में रिक़्क़त पैदा कर के कहा था, “अमीना आपा!”

“फ़रमाईए, कोई नई बात?” अमीना आपा, प्यारी आज शाम को ओपन एअर में अज़्रा आपा का रक़्स है।”
“जी। शहर भर के सारे प्रोग्राम आपको ज़बानी याद होते हैं... और प्लाज़ा में आज कौन सा फ़िल्म हो रहा है?”

“अमीना आपा! हुँक... हूँ...”
“इरशाद?”

“अमीना आपा हमें ले चलो... उदयशंकर और अज़्रा आपा रोज़ रोज़ कहाँ नज़र आएँगे भला... ज़कीया बाजी और शकीला वकीला सब जा रही हैं।”
“आसिफ़ भी साथ होगा।”

“मजबूरन चलेगा। बेचारा। कार वही ड्राईव करता है... उनका ड्राईवर तो आजकल बीमार है।”
“कोई ज़रूरत नहीं।”

और मैं तक़रीबन रोते हुए जाकर अपने ड्रेसिंग रुम की खिड़की में ऊन सुलझाने में मस्रूफ़ हो गई।
शाम का अंधेरा फैलता जा रहा था। नीचे मोटर गैरज की तरफ़ जाने वाली सड़क पर से वो आता हुआ नज़र आया। खिड़की के पास पहुंच कर टार्च की रोशनी तेज़ी से चमका कर उसने आहिस्ता से कहा, “हलो,जुलियट!”

“ख़ूब... मा’फ़ फ़रमाईए, मैं कम अज़ कम आपके साथ तो सैर अटेंड करने को तैयार नहीं हूँ।”
“आह... ओह... वो देखो सरो के पीछे से चांद किस क़दर स्टाइल से झांक रहा है।”

“बुलवाऊँ अमीना आपा को!”
“पिटवाओगी!”

अंदर कमरे में से ग़रारे की सरसराहाट की आवाज़ सुनाई दी।
“चुप, आगईं अमीना आपा।” मैं ज़रा अंधेरे में झुक गई। अमीना आपा शायद गैलरी की तरफ़ जा चुकी थीं। वो देर तक नीचे खड़ा बातें करता रहा।

“कैसी ख़ालिस 12 बोर हैं तुम्हारी अमीना आपा।” वो बी.एससी. तक अलीगढ़ में पढ़ चुका था इसलिए हम आपस का ज़रूरी तबादला-ए-ख़्याल वहीं की ज़बान में करते थे।
“12... 22 बल्कि आग़ा ख़ानी बोर...” मैंने उसकी राय से इत्तिफ़ाक़ किया। और फिर हमें ज़ोर की हंसी आगई। सोचो तो, अमीना आपा आग़ा ख़ानी बोर हैं!

और चांद के साये में गीत गाती हुई शामें गुज़रती चली गईं। पिछली कोठी के हमारे कमरे की सिंघार कमरे की सिम्त वाले साइड रुम में वायलिन बजता और सबीहा पढ़ते-पढ़ते किताबों पर सर रखकर आँखें बंद कर लेती। सरो और चिनार के पत्तों की सरसराहाट में से छन्ती हुई उसके पसंदीदा गीतों की आवाज़ ख़्वाब में कहीं परियों के मुल्क से आती हुई मा’लूम होती, “सुना है आ’लम-ए-बाला में कोई कीमियागर था।”
और अमीना आपा झुंजला कर तेज़ी से टाइप करना शुरू कर देतीं।

एक मर्तबा उ’स्मान साहिब कैरम में हारते-हारते जोश में आकर गाने लगे, “सितारे झिलमिला उठते हैं जब मैं शब को रोता हूँ।”
“ओहो आप शब को रोते भी हैं। चच चच चच...” आसिफ़ बोले। बेचारा उ’स्मान झेंप गया। “वो देखिए, सितारे झिलमिला रहे हैं, अब आप रोना शुरू कर दीजिए।”

हम सब ऊपर खुली छत की मुंडेरों पर बैठे थे। ज़कीया बाजी और अमीना आपा एक तरफ़ को मुड़ी हुई कुछ इश्तिराकियत और हिन्दोस्तान के पोस्टवार मसाइल पर हमारी अ’क़्ल-ओ-फ़हम से बाला-ए-तर गुफ़्तगु कर रही थीं।
“आसिफ़! अगर तुम इतरा न जाओ तो तुमसे कुछ नग़मासराई की दरख़्वास्त की जाये।” शकीला ने कहा।

“वाअ’दा करता हूँ क़तई नहीं इतराऊंगा। बेहद उम्दा मूड हो रही है।” उसने जवाब दिया।
“वही आ’लम-ए-बाला वाला...” सबीहा ने कहा।

“वो जो तुम अलीगढ़ के किसी शाइ’र के तरन्नुम में पढ़ा करते हो, वही भई... मग़रिब में इक तारा चमका।” मैंने कहा।
“क्या कहिए मुझे क्या याद आया? आप तो सामने तशरीफ़ रखती हैं, मुझे उस वक़्त क्या ख़ाक याद आएगा?”

“शुरू हुई इतराहट।”
फिर हम देर तक इस से सुनते रहे,

मग़रिब में इक तारा चमका
क्या कहिए मुझे क्या याद आया

जब शाम का पर्चम लहराया
क्या कहिए मुझे क्या याद आया

फ़िज़ा ख़ामोश थी... दूर आसमान की नीलगूं बुलंदियों में चंद छोटे-छोटे रुपहले सितारे जगमगा कर धुँदलके में खो गए।
“क्या सच-मुच ये मद्धम तारे हमारी क़िस्मतों की अकेली राहों पर झिलमिलाते हैं।” सबीहा ने कुछ सोचते हुए, आहिस्ता-आहिस्ता, जैसे अपने आपसे पूछा।

“और क्या... किताबों में जो लिखा है। शेरो”... आसिफ़ ने फ़ौरन बड़ी मुस्तइद्दी से ज़रा आ’लिमाना अंदाज़ में कहना शुरू किया, क़ौल है कि वो इस क़दर tom boyish था और बा’ज़ दफ़ा हैरत होती थी कि ऐसे तिफ़लाना मिज़ाज का लड़का बड़ों के सामने और तकल्लुफ़ की सोसाइटी मैं किस तरह इतना संजीदा बन जाता है।
हम सब फिर चुप हो गए। ख़ामोश रात और खुली हुई फ़िज़ाओं की मौसीक़ी में ख़्वाबों की परियाँ सरगोशियाँ कर रही थीं, मुहब्बत... ज़िंदगी... मुहब्बत... ज़िंदगी... ओ बुलंद-ओ-बरतर ख़ुदावंद!

स्याह उफ़ुक़ के क़रीब एक बड़ा सा रोशन सितारा टूट कर एक लंबी सी चमकीली लकीर बनाता हुआ अंधेरे में ग़ायब हो गया। हम आसमान को देखने लगे।
“कोई बड़ा आदमी मर गया।” मैंने कहा।

“वाक़ई? अमीना आपा दी महात्मा गए।” आसिफ़ ने ज़रा ऊंची आवाज़ में कहा।
दूसरे लहज़े एक और नन्हा सा तारा टूटा।

“अरे उनके सेक्रेटरी भी...” उ’स्मान चिल्लाया।
उस रात बहुत से सितारे टूटे और हम सारी बातें छोड़ छाड़ कर आसमान को देखते रहे। और जो सितारा टूटता उसके साथ किसी बड़े लीडर को चिपका देते।

“सारी वर्किंग कमेटी ही सफ़र कर गई।” आख़िर में आसिफ़ इंतिहाईरंजीदा आवाज़ में बोले, “अमीना आपा ने हमारी बातें नहीं सुनें। वर्ना ख़ैरीयत नहीं थी। वो बेहद मशग़ूलियत से हमारे एक सोशलिस्ट क़िस्म के भाई और ज़कीया बाजी के साथ सियासियात पर तब्सिरा कर रही थीं, राजिंदर बाबू और डाक्टर ज़ाकिर हुसैन ने उस रोज़ यही कहा था।”
“वर्धा से लौटते में श्री चन्द्र शेखर जी ने मुझे भी यही बताया था कि अखंड भारतीय घास्य गेंद बल्ला भिड़ंत... सोशलिस्ट भाई ने कुछ कहना शुरू किया। ज़कीया बाजी बेहद आ’लिमाना और मुफ़क्किराना सूरत बनाए उनकी तरफ़ अ’क़ीदत के साथ मुतवज्जा थीं।

“अब यहां से भागना चाहिए।” आसिफ़ ने चुपके से कहा। और हम सब उन सियासतदानों को वहीं छत पर हिन्दोस्तान की क़िस्मत का फ़ैसला करते छोड़कर मुंडेरों पर से छलांगते हुए नीचे उतर आए।
दूसरे रोज़ सुबह की चाय की मेज़ पर उन्हीं सोशलिस्ट भाई ने, जो तीन चार दिन से बंबई से हमारे यहां आए हुए थे अपनी स्याह फ्रे़म की ऐ’नक में से, जो उनकी लंबी सी नाक पर बेहद इंटेलेक्चुअल अंदाज़ से रखी थी, ग़ौर से देखा। वो मुस्तक़िल तीन रोज़ से ख़ामोश क़िस्म का प्रोपेगंडा कर रहे थे कि हम लड़कियां उनसे वो सब किताबें और पम्फलेट ख़रीद लें जो उनके ज़बरदस्त चरमी बैग में बंद हमारे ज़ेहनों की सयासी तर्बीयत का इंतिज़ार कर रहे थे।

“शाहरुख आपा, अखंड भारतीय घास्य गेंद बल्ला भिड़ंत...” उ’स्मान ने चायदानी मेरी तरफ़ धकेलते हुए चुपके से कहा। मुझे और सबीहा को ज़ोर की हंसी आगई। अमीना आपा ने उ’स्मान की बात सुनकर हमें हंसते हुए देख लिया था। उन्होंने हम पर खा जाने वाली नज़रें डालीं और चाय बनाने में मम्मी की मदद करने लगीं। वो हमें सुधारने की तरफ़ से बिल्कुल ना उम्मीद हो चुकी थीं। ग़ुस्ल-ख़ाने में छोटा आ’रिफ़ नहाते हुए ज़ोर-ज़ोर से गा रहा था, “मग़रिब में इक तारा चमका... मग़रिब में इक तारा चमका...” और सोशलिस्ट भाई जल्दी-जल्दी संतरा खाने में मस्रूफ़ हो गए। दोपहर को ड्राइंगरूम के फ़र्श पर अमीना आपा और उनकी रफ़ीक़ों की एक मीटिंग हो रही थी जो सोशलिस्ट भाई के बंबई से आने के ए’ज़ाज़ में मुना’क़िद की गई थी। हमने शीशों में से झांक कर देखा। किस क़दर स्टाइल से वो सोशलिस्ट भाई पाइप का धुआँ उड़ा रहे थे।
उसी वक़्त आसिफ़ सीटी बजाता हुआ आ निकला, “या अल्लाह! कैसी कैसी मख़लूक़ तुमने नमुनतन अपने यहां जमा कर रखी है।” उसने घबरा कर कहा।

“चुप, जानते हो सोशलिस्ट भाई सबीहा से शादी करने की फ़िक्र में हैं।” मैंने बताया और आसिफ़ का हार्ट फ़ेल होते होते रह गया। शाम को बेहद तफ़सीलन अपने दोस्तों को हमने इस मीटिंग की कार्रवाई की रिपोर्ट सुनाई कि हमारे घर पर हिन्दोस्तान की कैसी-कैसी मुक़तदिर और आ’ला-ओ-अ’र्फ़ा हस्तियाँ आती हैं। आसिफ़ ने पूछा, “क्या वाक़ई सोशलिस्ट भाई वाली बात सच्च है? और क्या। तुमको कम अज़ कम ड्वेल तो लड़ना ही पड़ेगा।”
“और कौन कौन लोग थे ये।”

“तुम सबसे बारी-बारी ड्वेल लड़लो।”
“...को एक बार मैंने भी देखा था। ज़कीया बाजी! ख़ुदा की क़सम ये लंबी दाढ़ी।”

आरिफ़ ने अपनी मा’लूमात से इज़ाफ़ा करना चाहा। और एक साहिब हैं, अमीना आपा के ख़ास रफ़ीक़, जिनके साथ वो लखनऊ में प्रभात फेरियों के गीत लिखा करती थीं। वो यूं उचक उचक कर चलते हैं। उ’स्मान ने बाक़ायदा demonstrate कर के बताया।
“लखनऊ में रेडियो स्टेशन पर मैंने सलाम साहिब को देखा था। इस क़दर... बस क्या बताऊं... जो लड़की फ़िलबदीह उनको नज़र आती है उस पर एक नज़्म लिख डालते हैं।” सबीहा साहिबा ने इरशाद किया ताकि आसिफ़ और जले।

“फ़िलबदीह नज़र आती है? ज़रा अपनी उर्दू पर ग़ौर कीजिए।” मैंने जल कर आसिफ़ की हिमायत में कुछ और कहना चाहा लेकिन पीछे से शकीला की आवाज़ आई, “अरे ख़रगोशो! अमीना आपा इधर आ रही हैं। अपनी बिरादरी वालों के मुता’ल्लिक़ ऐसी बातें करते पाया तो जान की ख़ैर नहीं।” अमीना आपा और सोशलिस्ट भाई पाइप का धुआँ उड़ाते, हाथ में तीन चार तंबाकू के डिब्बे सँभाले वाक़ई’ लॉन की तरफ़ चले आरहे थे। हम सब भीगी बिल्लियों की तरह इधर उधर भाग गए।
कुछ अ’र्सा बाद सोशलिस्ट भाई बंबई वापस चले गए। बारिशों का मौसम शुरू हो चुका था। माह रुख के शौहर की जब मेडिकल कॉलेज में छुट्टियां हुईं तो वो चंद रोज़ के लिए अपनी ससुराल के गांव से हमारे यहां आगए। बड़े इंतिज़ाम से आसिफ़ से उसका पहली बार तआ’रुफ़ कराया गया। इस के गीचो से शौहर साहिब, जो डॉक्टरी के पांचवें साल में पढ़ते थे बेहद जले कि कैसे स्मार्ट और शानदार लड़के से उन लोगों की दोस्ती हुई है। माहरुख़ के आने पर हमने बहुत से प्रोग्राम बनाए थे लेकिन मुस्तक़िल बारिश होने लगी और हम कोई एक्टिविटी न कर पाए।

उस रोज़ सुबह जब मैं कॉलेज जाने के लिए मोटर ख़ाने में साईकल निकालने के लिए गई तो हमारे टमाटर या चुक़ंदर जैसी शक्ल वाले कश्मीरी चपरासी ने अपनी सुर्ख़ लंबी-लंबी मूँछें बेहद मुफ़क्किराना अंदाज़ में हिला कर कहा, “बी-बी जी आज तो कुछ बरसात का इरादा हो रहा है, मदरसे मत जाओ।”
मैं चिड़ गई। इंद्र माहरुख़ पच्चास मर्तबा कह चुकी थी कि “तुमको आज कॉलेज क़तई नहीं जाना चाहिए, ब्रिज खेलेंगे, नए रिकार्ड बजाएँगे और आसिफ़ को बुला कर बातें करेंगे।”

मैंने तक़रीबन चिल्ला कर कहा, “अली जो! तुम सीधे मेरी साईकल निकाल कर साफ़ करो। समझे। मैं ज़रूर जाऊँगी कॉलेज।”
“ज़रूर जाओ। और जो वहां पहुंच कर मा’लूम हुआ कि आज रेनी डे की छुट्टी है तो मुहतरमा भीगती हुई तशरीफ़ ले आईएगा। इतरा ही गईं बिल्कुल।” सबीहा ने ड्रेसिंग रुम की खिड़की में से झांक कर कहा।

“बी-बी, साहिब आते ही होंगे। मैं मोटर पर आपको पहुंचा दूँगा।” अली जो ने फिर मूँछें हिलाईं। मैंने कुछ जवाब नहीं दिया और उसके हाथ से साईकल लेकर तेज़ी से लेन में से निकल कर सड़क पर आगई। उसी वक़्त आसिफ़ अपने फाटक से बाहर निकला था। मुझे देखकर उसने अपनी साईकल मेरे साथ-साथ कर दी। ये पहला मौक़ा था कि घर के बाहर हमारा साथ हुआ था।
“हलो... आपकी थूथनी क्यों चढ़ी हुई है?”

“आपसे मतलब?”
“ओहो तो गोया आप ख़फ़गी फ़र्मा रही हैं। जुर्म! क्या सोशलिस्ट भाई आपके लिए भी पैग़ाम दे गए हैं?”

मैंने कोई जवाब न दिया। दोनों साईकलें बराबर चलती रहीं। वारिस रोड बिलकुल ख़ामोशऔर भीगी भीगी पड़ी थी। सूखे तालाब के नज़दीक किसी बदतमीज़ ने गा कर कहा, “ओय सावन के नज़्ज़ारे हैं...” और ग़ुस्से के मारे मेरा जी चाहा कि बस मर जाऊं।
अभी हम सड़क के मोड़ तक भी न पहुंचे थे कि बारिश का एक ज़ोरदार रेला आगया।

“आख़िर तुम जा कहाँ रही हो भई?”
“जहन्नुम में...” फिर तुम बोले। और मैं न जाने क्यों जेल रोड पर मुड़ गई। अभी मैं घर से बहुत दूर नहीं गई थी। दरख़्तों के झुण्ड में से अपनी कोठी की छत अब भी नज़र आरही थी लेकिन वापस जाकर शिकस्त का ए’तराफ़ करने की हिम्मत न पड़ी।

“शाहरुख घर वापस जाओ।”
“नहीं।”

“क्या सबीहा से सुबह-सुबह लड़ाई हुई है?”
आपको क्यों इतनी मेरी फ़िक्र पड़ी है। अपना रास्ता लीजिए आप।”

“और तुम्हें यूं बेच मंजधार में छोड़ जाऊं।”
“आप मेरी हिफ़ाज़त का हक़ कब से रखते हैं?”

“अच्छा मैं बताऊं बेहतरीन तरकीब। यहां पहाड़ी पर किसी साया-दार दरख़्त के नीचे रुक जाओ और जब बारिश कम हो जाएगी तो जाकर कह देना कि सिर्फ एक पीरियड अटेंड कर के आरही हूँ।”
“जी हाँ, और आप भी इस दरख़्त के नीचे तशरीफ़ रखें। इस नाज़ुक ख़्याली की दाद देती हूँ।”

“अच्छा तो इसी तरह बारिश में सड़कों के चक्कर लगाती रहिए। मेरा क्या है, निमोनिया होगा, मर जाओगी।” उसने वाक़ई जल कर कहा और अपनी साईकिल वारिस रोड की तरफ़ मोड़ ली।
“मर जाओ तुम ख़ुद...” मैंने ज़रा ज़ोर से कहा। वो काफ़ी दूर निकल गया था। फिर मैंने सोचा कि वाक़ई यूं लड़कों की तरह सड़कों पर चक्कर लगाना किस क़दर ज़बरदस्त हिमाक़त है। मैंने उसके क़रीब पहुंच कर कहा, “आसिफ़!” वो चुप रहा।

“आसिफ़ सुलह कर लो।”
“फिर लड़ोगी?”

“नहीं।”
“वाअ’दा फ़रमाईए।”

“वाअ’दा तो नहीं लेकिन कोशिश ज़रूर करूँगी।” मैंने अपना पसंदीदा और निहायत कार-आमद जुमला दुहराया।
“घर चलो वापस।” उसने हुक्म लगाया। मैंने इसी में आ’फ़ियत समझी क्योंकि अच्छी ख़ासी सर्दी महसूस होने लगी। चुनांचे मैंने ख़ामोशी से उसके साथ चलना शुरू कर दिया। अभी हम वारिस रोड के मोड़ पर ही थे कि क्या नज़र आया कि चली आरही हैं अमीना आपा कार में बैठी हुई ज़न्नाटे में। हमारे क़रीब पहुंच कर ज़ोर से ब्रेक लगा के उन्होंने कार रोक ली और साईकिल पर बैठे-बैठे मेरी रूह फ़िल-फ़ौर क़फ़स-ए-उंसरी से आ’लम-ए-बाला की तरफ़ परवाज़ कर गई। उन्होंने मुझे बिल्कुल सालिम खा जाने वाली नज़रों से देखा।

“आपा! मैं कॉलेज से आरही थी तो रस्ते में देखिए बारिश आगई।” मैंने अपनी आवाज़ बे-इंतिहा मरी हुई पाई।
“ओहो, आपका कॉलेज अब इतवार के रोज़ भी खुलता है।”

और इस वक़्त मुझे याद आया कि आज कमबख़्त इतवार था। भीगी बिल्ली की तरह मैं बेचारी उनके पास जा बैठी। ड्राईवर ने साईकिल पीछे बाँधी और हम चल दिए घर को। अमीना आपा ने अख़लाक़न भी आसिफ़ से न कहा कि तुम भी कार में आ जाओ। वो बेचारा भीगता भागता न जाने किधर को चला गया।
घर पहुंच कर इतने ज़ोर की डाँट पिलाई है अमीना आपा ने कि लुत्फ़ आगया। इस सानिहे के बाद कुछ अ’र्से के लिए आसिफ़ के साथ ब्रिज और कैरम मौक़ूफ़ वायलिन, सीटियाँ, टार्च और आईने की चमक के ज़रीये’ एस.ओ.एस. के पैग़ामात मुल्तवी... और मग़रिब में झिलमिलाते तारों के सारे रूमान का ख़ातिमा बिलख़ैर हो गया।

मेडिकल कॉलेज जब खुला तो माह रुख़ अपनी रियासत वापस चली गई। एक रोज़ हमने सुना कि आ’रिफ़ हमारी बद-मज़ाक़ी से ख़फ़ा हो कर मरी जा रहा है। दर असल वो ज़रूरी काम के लिए वहां जा रहा था। बहर हाल हमको उसका बेहद अफ़सोस था कि महज़ अमीना आपा की वजह से कैसा अच्छा और दिलचस्प दोस्त हमसे नाराज़ हो गया। मरी में उसके चचा रहते थे जिनकी भूरे बालों और सब्ज़ आँखों वाली ख़ूबसूरत लड़की से अक्सर उसकी मंगनी का तज़किरा किया जाता था। फिर उस रोज़ हमें कितनी ख़ुशी हुई है जब ये मा’लूम हुआ है कि अमीना आपा मुस्लिम गर्ल्ज़ कॉलेज में इकोनॉमिक्स की लेक्चरर हो कर अलीगढ़ जा रही हैं।
जाने वाली शाम वो बड़े सुकून के साथ आईने के सामने खड़ी स्टेशन जाने की तैयारी कर रही थीं। मैंने उनकी नज़र बचा कर खिड़की में से झांक कर देखा। वो सरो के दरख़्तों के उस पार अपने कमरे में लैम्प के सामने इंतिहाई इन्हिमाक से पढ़ने में मसरूफ़ था। उस वक़्त मैंने सोचा कि काश वो रूठा हुआ न होता तो हमेशा की तरह अमीना आपा पर कोई एक्टिविटी करते। सिंघार मेज़ पर से दस्ती आईना उठा कर उसकी चमक के ज़रीये एस.ओ.एस. का पैग़ाम भेजने की फ़िक्र कर रही थी कि अमीना आपा ने झट मेरे हाथ से आईना ले लिया और उसमें अपने बालों का जायज़ा लेने लगीं और मैं उनके अलीगढ़ पहुंचते ही किसी हद से ज़्यादा वहशत-ज़दा प्रोफ़ेसर के इश्क़ में मुब्तला होजाने के इन्हिमाक पर ग़ौर करने लगी। लेकिन ख़ुदा ऐसी तजवीज़ क़बूल कब करता है!

अमीना आपा जा रही थीं। मैंने चुपके से सबीहा से कहा कि वो बाग़ की पिछली दीवार पर एस. ओ.एस. (सबीहा, उ’स्मान, शाहरुख) का पैग़ाम लिख आए। सबीहा ने कोयले से लिख दिया, “मत जाओ।”
सुबह को उसके नीचे लिखा हुआ मिला, “ज़रूर जाऊंगा।”

और आसिफ़ भी चला गया। बड़ी जान जली। लेकिन क्या करते। उसके कुछ अ’र्से बाद सर्मा की छुट्टीयों में हम ज़ारा के पास देहरादून चले गए।
वहां एक रात ज़ारा अपनी एक दोस्त के साथ ओडियन से निकल कर बाहर अंधेरे में जब अपनी कार में बैठी और कहा कि ग़फ़ूर, प्रमीला बाबा को लिटन रोड पहुंचाते हुए अब सीधे घर चलो। सामने ड्राईवर की सीट पर से किसी साहिब ने मरी हुई आवाज़ में अ’र्ज़ किया कि “जी में ग़फ़ूर क़तई नहीं हूँ। मेरा नाम पायलट ऑफीसर आसिफ़ अनवर है। और मुझे आपसे मिलकर यक़ीन फ़रमाईए इंतिहाई क़लबी मसर्रत महसूस हुई है।” और कार स्टार्ट कर दी गई।

ज़ारा और प्रमीला ख़ौफ़ और ग़ुस्से से चिल्ला उठीं, “आप कौन हैं और हमारी कार में क्यों घुस गए? रोकिये फ़ौरन।”
“जी इत्तिफ़ाक़ से ये कार ख़ाकसार की है। देहरादून में ओडियन के सामने एक ही तरह की दो कारों का पार्क होजाना बहुत ज़्यादा ना-मुम्किनात में से नहीं है।”

“ख़त्म कीजिए अपनी तक़रीर और रोकिये मोटर।”
“प्रमीला बाबा को लिटन रोड पहुंचा दिया जाएगा। इस क़दर परेशान न होइए, कोहरा बहुत ज़्यादा है। रात बेहद सर्द है और हम आधे रस्ते आगए हैं।”

दोनों बच्चीयां बेचारी झुँझलाहट और ग़ुस्से के मारे कुछ और कह भी न पाई थीं कि चंद मिनटों में कार ज़न्नाटे से हमारी बरसाती में दाख़िल हो गई।
मा’लूम हुआ कि आप देहरादून में एयर फ़ोर्स के इंटरव्यू के बाद मेडिकल के लिए आए हुए हैं। ख़ूब आपको आड़े हाथों लिया गया। मम्मी ने डाँटा कि तुम हम सबसे रुख़्सत हुए बग़ैर ही इस तरह अचानक मरी चले गए। उसने बिगड़ कर कहा कि अमीना आपा ने क्यों शाहरुख को साईकिल पर बारिश में भीगने की वजह से डाँट पिलाई थी। सोशलिस्ट भाई मंतिक़ और जुग़राफ़ीए के किस नुक़्ते की रु से सबीहा से शादी करने की फ़िक्र में थे और माहरुख़ के मियां, क़िबला डाक्टर साहिब, किस लिए उससे जले जाते थे? मुख़्तसर ये कि हम लोगों में सुलह सफ़ाई हो गई और फिर पहले की तरह दोस्त बन गए।

फिर वही ब्रिज, कैरम, शरारतें और गाने। वही मग़रिब में एक तारा चमका। आतिश-दान की रोशन आग के सामने बैठे हुए हम सब इस सह्र अंगेज़ आवाज़ और वायलिन के नग़मे सुनते,
क्या कहिए मुझे क्या याद आया

क्या कहिए मुझे क्या याद आया
टीले की तरफ़ चरवाहे की बंसी की सदा हल्की हल्की

और शाम की देवी की चुनरी शानों से परे ढलकी ढलकी
मग़रिब में इक तारा चमका!

और फिर जो एक रोज़ मैंने आसिफ़ के अपने बहनोई बनने के इमकानात पर नज़र की तो मुझे ये ख़्याल बहुत ख़ासा पसंद आया। क्रिसमस की ता’तीलात में अमीना आपा भी अलीगढ़ से देहरादून आगई थीं। मम्मी तक पहुंचाने के लिए अमीना आपा के सामने ये तजवीज़ पेश कर देनी बेहद ज़रूरी थी। एक रात जब खाने के बाद अमीना आपा शशमाही इम्तिहान के पर्चे देख रही थीं, मैं दबे-पाँव उनके कमरे में पहुंची और इधर-उधर की बेमा’नी बातों के बाद ज़रा डरते हुए बोली, “अमीना आपा!”
“हूँ।”

“अमीना आपा। एक बात सुनिए।”
“फ़रमाईए।”

“अर... या’नी कि... अगर आसिफ़ की शादी कर दी जाये तो कैसा रहेगा?”
“बहुत अच्छा रहे।”

“मेरा मतलब है सबीहा के साथ।”
“आपकी बलंद नज़री की दाद देती हूँ। किस क़दर आ’ला ख़्यालात हैं।”

“लेकिन... लेकिन अमीना आपा आपको मा’लूम नहीं कि आसिफ़ और सबीहा एक दूसरे को पसंद करते हैं, या’नी दूसरे लफ़्ज़ों में ये कि मुहब्बत करते हैं एक दूसरे से।” मैंने ज़रा ऐसे mild तरीक़े से कहा आमेना आपा को दफ़अ’तन shock न हो जाए। अमीना आपा की उंगलियों से क़लम छूट गया और इस तरह देखने लगीं जैसे अब उन्हें क़ुर्ब-ए-क़यामत का बिल्कुल यक़ीन हो चला है।
“क्या कहा...? मुहब्बत! मुहब्बत! उफ़ किस क़दर। तबाहकुन, मुख़र्रिब उल-अख़लाक़ ख़्यालात हैं। मुहब्बत। या अल्लाह। मुझे नहीं मा’लूम था कि ऐसी वाहियात बातें भी तुम लोगों के दिमाग़ में घुस सकती हैं। मेरी सारी तर्बीयत...”

“लेकिन अमीना आपा देखिए तो इसमें मोज़ाइक़ा किया है? आसिफ़ नौकर भी हो गया है। एक दम से साढे़ छः सौ का स्टार्ट उसे मिल रहा है। वो बहुत अच्छा लड़का है। सबीहा भी बहुत अच्छी लड़की है। दोनों की कितनी अच्छी गुज़रेगी अगर उनकी शादी...”
“शादी... शादी... क्या इस लग़्वियत का ख़्याल किए बग़ैर तुम लोग रह ही नहीं सकते। तुम्हें दुनिया में बहुत काम करने हैं, तूफ़ानों से लड़ना है, मुल्क का मुस्तक़बिल सँवारना है।”

“पर अमीना आपा एक के बजाय दो इन्सान साथ साथ तूफ़ानों से ज़्यादा बेहतर तरीक़े पर लड़ सकते हैं। और आसिफ़ तो हवाई जहाज़ उड़ाने लगेगा!”
“चुप रहो... आसिफ़... हुँह... ये लड़का मुझे क़तई पसंद नहीं। तुम्हें मा’लूम होना चाहिए कि मुझे एक आँख नहीं भाता। कुछ बहुत अ’जीब सा शख़्स है। बच्चों की तरह हँसता है। लड़कियों में हद से ज़्यादा दिलचस्पी लेता है और ग़ज़ब ये कि कल शाम सबीहा को डार्लिंग कह कर पुकार रहा था... इंतिहा हो गई!”

अमीना आपा कुछ और लेक्चर पिलातीं इसलिए मैंने अपनी ख़ैरीयत इसी में देखी कि चुपके से उठकर चली आऊँ। अपने कमरे में आकर सोचने लगी, आसिफ़ मुझे क़तई पसंद नहीं। एक आँख नहीं भाता। लड़कियों में हद से ज़्यादा दिलचस्पी लेता है। तो क्या उसे लड़कियों की बजाय अलमारियों और चाय के चमचों में दिलचस्पी लेना चाहिए? अब क्या किया जाये?
आसिफ़ साहिब ट्रेनिंग के लिए अंबाले और फिर शायद पूना तशरीफ़ ले गए और बहुत जल्द निहायत आ’ला दर्जे के हवाबाज़ बन गए। इंतिहा से ज़्यादा daring और ख़तरे की उड़ानें करने में माहिर और पेश-पेश। हादिसों से कई बार बाल-बाल बचे। एक दफ़ा’ एक नई मशीन की टेस्ट फ़्लाईट के लिए एरोड्रोम से इस ज़न्नाटे से निकले कि ऊपर पहुंच कर मा’लूम हुआ सिर्फ़ इंजन आपके पास है और तय्यारे की बॉडी पीछे ज़मीन पर रह गई है। हम देहरादून ही में थे जब वो अंबाले से सहारनपुर होता हुआ देहरादून आया। रास्ते में डाइविंग के शौक़ में आप इस क़दर नीचे उतरे कि एक कोठी की छत पर लगे हुए एरियल हवाई जहाज़ के पहियों में उलझ कर साथ-साथ उड़ते चले गए। आस-पास की सारी कोठियों के तार इस तरह हिल गए जैसे ज़लज़ला आगया है और लोग गड़-गड़ाहट के शोर से परेशान हो कर बाहर निकल आए। वो कोठी एक अंग्रेज़ कर्नल की थी। आसिफ़ बहुत डरा कि कहीं वो आसिफ़ के अफ़सरों से उसकी शिकायत न कर दे लेकिन ऐ’न मौके़ पर उस बूढ़े कर्नल की लड़की, जिसकी ख़्वाबगाह के रोशनदानों के ऊपर से आप गुज़रे थे, आपके इश्क़ में मुब्तिला हो गई और मुआ’मला रफ़ा-दफ़ा हुआ।

पूना से आसिफ़ को एकदम कनाडा भेज दिया गया। समुंदर पार जाने से पहले वो हम सबसे रुख़्सत होने के लिए घर आया। पप्पा का तबादला लाहौर से हो चुका था और हम सब लखनऊ आगए थे। मम्मी और ख़ाला बेगम ने उसके बहुत सारे इमाम-ए-ज़ामन बाँधे और उ’स्मान और आ’रिफ़ ने ढेरों फूलों से लाद दिया। हमने उसकी पसंदीदा ड्रमर ब्वॉय टॉफ़ी का एक बड़ा सा डिब्बा उसके अटैची में रख दिया। चलते वक़्त उसने कहा, “शाहरुख प्यारी! अमीना आपा जब अलीगढ़ से आएं तो उनसे मेरा सलाम कह देना और अगर सोशलिस्ट भाई से सबीहा ने शादी कर ली तो याद रखना में चुपके से एक रोज़ आकर उनके घर पर बम गिरा जाऊँगा।”
हम बरामदे की सीढ़ियों पर से आहिस्ता-आहिस्ता उतर रहे थे।

“शाहरुख... सबीहा, डार्लिंग्स...”
“आसिफ़! हम हमेशा बेहतरीन दोस्त रहेंगे ना?”

“हमेशा...!”
“और तुम कनाडा से बहुत सारे पिक्चर पोस्टकार्ड भेजोगे?”

बहुत सारे।”
“और वहां जितने गाने सीखोगे उनकी ट्युनें लिख-लिख कर भेजा करोगे।”

“बिल्कुल।”
“और हवाई जहाज़ इतना नीचा नहीं उड़ाओगे कि लोगों के घरों के एरियल और अंग्रेज़ लड़कियों के दिल टूट जाएं।”

“क़तई नहीं।”
फिर वो चला गया। बहुत दिनों सम

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