सोने की कुलहाड़ी

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एक लकड़हारा था। वो लकड़ियाँ बेच कर अपना पेट पालता था। एक दिन लकड़हारे की कुलहाड़ी खो गई। उसके पास इतने पैसे न थे कि दूसरी कुलहाड़ी ख़रीद लेता। उसने सारे जंगल में कुलहाड़ी ढूँढी लेकिन कहीं न मिली। थक-हार कर वो रोने लगा। अचानक दरख़्तों के पीछे से एक जिन निकला। उसने कहा, “क्या बात है मियाँ लकड़हारे? तुम रो क्यों रहे हो?”
“मेरी कुलहाड़ी खो गई है। ख़ुदा के लिए कहीं से ढूँढ कर ला दो।” लकड़हारे ने कहा।

जिन एक दम ग़ायब हो गया और थोड़ी देर बाद एक सोने की कुलहाड़ी लेकर वापस आया। उसने लकड़हारे से कहा, “लो, मैं तुम्हारी कुलहाड़ी ढूँढ लाया हूँ।”
“ये मेरी कुलहाड़ी नहीं है। वो तो लोहे की थी।” लकड़हारा बोला। [...]

लड़ाई का नतीजा

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दो लड़कियाँ समुंद्र के किनारे टहल रही थीं। एक लड़की चिल्लाई, “वो देखो सामने सीपी पड़ी है।” ये सुनकर दूसरी लड़की आगे बढ़ी और उसने सीपी उठा ली।
पहली लड़की बोली, “तुम ये सीपी नहीं ले सकतीं। ये मैंने पहले देखी थी, इसलिए इस पर मेरा हक़ है।”

“लेकिन उठाई तो मैंने है, इसलिए ये सीपी मेरी है।” दूसरी लड़की ने कहा...
दोनों लड़ने लगीं। एक ने थप्पड़ मारा। दूसरी ने लात टिकाई। अभी वो लड़ ही रही थीं कि उधर से एक आदमी गुज़रा। कहने लगा, “क्या बात है? क्यों लड़ती हो?” [...]

शबनम का ताज

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किसी बादशाह की सिर्फ़ एक ही बेटी थी। वो बहुत ज़िद्दी थी। एक दिन सुबह को वो बाग़ में टहलने के लिए गई तो उसने फूल-पत्तियों पर शबनम के क़तरे चमकते हुए देखे। शबनम के ये क़तरे उन हीरों से ज़्यादा चमकदार और ख़ूबसूरत थे जो शहज़ादी के पास थे।
शहज़ादी सीधी महल में वापिस आई और बादशाह से कहने लगी, “मुझे शबनम का एक ताज बनवा दीजिए। जब तक मुझे ताज नहीं मिलेगा मैं न कुछ खाऊँगी न पियूँगी।”

ये कह कर शहज़ादी ने अपना कमरा बंद कर लिया और चादर ओढ़ कर पलंग पर लेट गई।
बादशाह जानता था कि शबनम के क़तरों से ताज नहीं बनाया जा सकता। फिर भी उसने शहज़ादी की ज़िद पूरी करने के लिए शहर के तमाम सुनारों को बुला भेजा और उनसे कहा कि तीन दिन के अंदर-अंदर शबनम के क़तरों का ताज बना कर पेश करो वर्ना तुम्हें सख़्त सज़ा दी जाएगी। बेचारे सुनार हैरान परेशान कि शबनम का ताज किस तरह बनाएँ। [...]

میرا نام کیا ہے؟

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ایک بہت ہی پیارا سا بونا جنگل میں رہتا تھا۔ اس کے باغ میں ایک چھوٹی سی چڑیا رہتی تھی، جو روز صبح ہونے کے لئے گانا گاتی تھی، گانے سے خوش ہو کر بونا چڑیا کو روٹی کے ٹکڑے ڈالتا تھا۔ بونے کا نام منگو تھا وہ چڑیا سے روز گانا سنتا تھا۔
ایک دن بہت ہی عجیب واقعہ پیش آیا ہوا یوں کہ منگو خریداری کر کے گھر واپس جا رہا تھا تو ایک کالے بونے نے اسے پکڑ کر بوری میں بند کردیا اور اسے اپنے گھر لے گیا۔ جب اسے بوری سے باہر نکالا گیا تو وہ ایک قلعے نما گھر میں تھا۔ کالے بونے نے اسے بتایا کہ وہ آج سے بونے کا باورچی ہے۔ مجھے جام سے بھرے ہوئے کیک اور بادام پستے والی چاکلیٹس پسند ہیں۔ میرے لیے یہ چیزیں ابھی بناؤ۔ بے چارا منگو سارا دن کیک اور چاکلیٹس بناتا رہتا، کیوں کہ کالے بونے کو اس کے علاوہ کچھ بھی پسند نہ تھا۔ وہ سارا دن مصروف رہتا۔ وہ اکثر سوچتا کہ یہ کالا بونا کون ہے؟

’’آپ کون ہیں ماسٹر؟‘‘ ایک دن منگونے اس سے پوچھا۔ کالے بونے نے کہا ’’اگر تم میرا نام بوجھ لو تو میں تمہیں جانے دوں گا، لیکن تم کبھی یہ جان نہیں پاؤگے!‘‘
منگو نے ایک آہ بھری، کیوں کہ وہ جانتا تھا کہ وہ کالے بونے کا اصل نام کبھی نہیں جان پائےگا، کیوں کہ اسے باہر جانے کی اجازت بھی نہیں تھی کہ وہ دوسرے بونوں ہی سے کچھ معلوم کر سکتا۔ اس نے کچھ تکے لگائے۔ [...]

नीला गीदड़

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एक दफ़ा एक गीदड़ खाने की तलाश में मारा-मारा फिर रहा था। वो दिन भी उसके लिए कितना मनहूस था। उसे दिन भर भूका ही रहना पड़ा। वो भूका और थका हारा चलता रहा। रास्ता नापता रहा। बिल-आख़िर लग-भग दिन ढले वो एक शह्र में पहुँचा। उसे ये भी एहसास था कि एक गीदड़ के लिए शह्र में चलना-फिरना ख़तरे से ख़ाली नहीं है। लेकिन भूक की शिद्दत की वजह से ये ख़तरा मोल लेने पर मजबूर था।
“मुझे ब-हर-हाल खाने के लिए कुछ न कुछ हासिल करना है।” उसने अपने दिल में कहा...

“लेकिन ख़ुदा करे कि किसी आदमी या कुत्ते से दो-चार होना न पड़े।”
अचानक उसने ख़तरे की बू महसूस की। कुत्ते भौंक रहे थे। वो जानता था कि वो उसके पीछे लग जाएँगे। [...]

तोतली शहज़ादी

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शमा, नन्ही मुनी प्यारी सी लड़की थी। ख़ूबसूरत गोल गोल आँखें, सेब जैसे होंट और अनार की तरह उसका सुर्ख़ रंग था। वो आँखें झपक कर बातें करती। उसका चेहरा हर वक़्त मुस्कुराता रहता था। हंसते हंसते उसका बुरा हाल हो जाता और उसकी अक्सर हिचकी बंध जाती। इस मौक़ा पर उसकी अम्मी उसे मिस्री की एक डली देतीं। शमा उसे मुँह में डाल कर चूसने लगती और साथ साथ अपनी अम्मी से मीठी मीठी बातें भी करती।
शमा की ज़बान मोटी थी। वो लफ़्ज़ आसानी से ना बोल सकती थी। वो लफ़्ज़ आसानी से ना बोल सकती थी। इसलिए सब उसे तोतली शहज़ादी कहते थे। वो तुत, बुत, ज़बान में बातें करती, तो हर एक को उस पर बे-इख़्तियार प्यार जाता। उसकी सहेलियाँ कहतीं ‘‘शमा तुम बड़ी ख़ुश-क़िस्मत हो तुम्हें तो खाने को मिस्री की डलियां मिलती रहती हैं।’’ शमा ये सुनकर फूली ना समाती और अपनी तोतली ज़बान में पहाड़े दोहराना शुरू कर देती

‘‘अत्त दूनी दूनी, दो दूनी चार तिन दूनी तय, ताल दूनी अथ’’ वो तीसरी जमात में पढ़ती थी, मगर उसे सब पहाड़े याद थे। अंग्रेज़ी की नज़्में भी उसे आती थीं। वो अपनी मैना को ये नज़्में सुनाती और दिल ही दिल में बहुत ख़ुश होती। उनका घर एक पहाड़ी पर था एक शाम वो अपनी गुड़िया के साथ सैर के लिए बाहर निकली, तो दरख़्त की ओट में एक बोना छिपा हुआ था तोतली शहज़ादी को देखते ही वो सामने आगया, उस के सर पर एक हैट था, जिस पर चिड़ियों का घोंसला बना हुआ था। उसे देखकर तोतली शहज़ादी की हंसी निकल गई। हंसते हंसते उसे हिचकी आगई और वो लोट-पोट हो कर ज़मीन पर गिर गई। बौना दौड़ा दौड़ा उस के पास आगया, तोतली शहज़ादी अभी तक हंस रही थी। बौने ने ये हाल देखा तो उसकी भी हंसी निकल गई। वो शहज़ादी से कुछ पूछना चाहता था कि उसे भी हिचकी आगई
शहज़ादी ने मिस्री की डली मुँह में डाली और बौने से पूछा [...]

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