CHILDREN'S STORIES SHAYARI

ENCHANTING SHAYARIS ON CHILDREN'S STORIES

Discover a delightful collection of shayaris inspired by enchanting children's stories. Let these verses capture the innocence and magic that resonate in tales meant for children, expressed through poetic words.

एक लकड़हारा था। वो लकड़ियाँ बेच कर अपना पेट पालता था। एक दिन लकड़हारे की कुलहाड़ी खो गई। उसके पास इतने पैसे न थे कि दूसरी कुलहाड़ी ख़रीद लेता। उसने सारे जंगल में कुलहाड़ी ढूँढी लेकिन कहीं न मिली। थक-हार कर वो रोने लगा। अचानक दरख़्तों के पीछे से एक जिन निकला। उसने कहा
“क्या बात है मियाँ लकड़हारे? तुम रो क्यों रहे हो?”
“मेरी कुलहाड़ी खो गई है। ख़ुदा के लिए कहीं से ढूँढ कर ला दो।” लकड़हारे ने कहा।
जिन एक दम ग़ायब हो गया और थोड़ी देर बाद एक सोने की कुलहाड़ी लेकर वापस आया। उसने लकड़हारे से कहा


“लो
मैं तुम्हारी कुलहाड़ी ढूँढ लाया हूँ।”
“ये मेरी कुलहाड़ी नहीं है। वो तो लोहे की थी।” लकड़हारा बोला।
जिन फिर ग़ायब हो गया और अब वो चाँदी की कुलहाड़ी लेकर आया। उसने कहा


“लो
ये तुम्हारी कुलहाड़ी है।”
“नहीं
ये नहीं है।” लकड़हारे ने कहा।


अब जिन फिर ग़ायब हो गया और इस दफ़ा वो लोहे की कुलहाड़ी ले कर आया। कुलहाड़ी देखते ही लकड़हारा ख़ुशी से चीख़ा
“हाँ हाँ
यही है मेरी कुलहाड़ी। अल्लाह तेरा शुक्र है।”
जिन बोला


“तुम बहुत ईमानदार हो। मैं ये तीनों कुलहाड़ी तुम्हें देता हूँ। ये तुम्हारा ईनाम है।” लकड़हारे ने कुलहाड़ियाँ ले लीं और ख़ुशी-ख़ुशी घर चला गया।

- किश्वर-नाहीद


दो लड़कियाँ समुंद्र के किनारे टहल रही थीं। एक लड़की चिल्लाई
“वो देखो सामने सीपी पड़ी है।” ये सुनकर दूसरी लड़की आगे बढ़ी और उसने सीपी उठा ली।
पहली लड़की बोली
“तुम ये सीपी नहीं ले सकतीं। ये मैंने पहले देखी थी


इसलिए इस पर मेरा हक़ है।”
“लेकिन उठाई तो मैंने है
इसलिए ये सीपी मेरी है।” दूसरी लड़की ने कहा...
दोनों लड़ने लगीं। एक ने थप्पड़ मारा। दूसरी ने लात टिकाई। अभी वो लड़ ही रही थीं कि उधर से एक आदमी गुज़रा। कहने लगा


“क्या बात है? क्यों लड़ती हो?”
“देखिए
आप ही इन्साफ़ कीजिए। ये सीपी मैंने देखी थी। इसलिए ये मेरी है।” पहली लड़की बोली...
“लेकिन उठाई तो मैंने थी।” दूसरी जल्दी से बोली।


उस आदमी ने कहा
“मुझे सीपी दिखाओ मैं अभी फ़ैसला किए देता हूँ।”
लड़की ने सीपी उसको दे दी। उसने सीपी के दो टुकड़े किए तो उसके अंदर से मोती निकला। उसने मोती अपनी जेब में रख लिया और बोला
“देखो भई


एक लड़की ने सीपी को देखा
दूसरी ने उठा लिया। इसलिए इस पर दोनों का हक़ है। लो
एक टुकड़ा तुम ले लो और एक तुम।”
ये कह कर वो आदमी हँसता हुआ चला गया। लड़कियाँ हाथ मलती रह गईं।


- किश्वर-नाहीद


किसी बादशाह की सिर्फ़ एक ही बेटी थी। वो बहुत ज़िद्दी थी। एक दिन सुबह को वो बाग़ में टहलने के लिए गई तो उसने फूल-पत्तियों पर शबनम के क़तरे चमकते हुए देखे। शबनम के ये क़तरे उन हीरों से ज़्यादा चमकदार और ख़ूबसूरत थे जो शहज़ादी के पास थे।
शहज़ादी सीधी महल में वापिस आई और बादशाह से कहने लगी
“मुझे शबनम का एक ताज बनवा दीजिए। जब तक मुझे ताज नहीं मिलेगा मैं न कुछ खाऊँगी न पियूँगी।”
ये कह कर शहज़ादी ने अपना कमरा बंद कर लिया और चादर ओढ़ कर पलंग पर लेट गई।


बादशाह जानता था कि शबनम के क़तरों से ताज नहीं बनाया जा सकता। फिर भी उसने शहज़ादी की ज़िद पूरी करने के लिए शहर के तमाम सुनारों को बुला भेजा और उनसे कहा कि तीन दिन के अंदर-अंदर शबनम के क़तरों का ताज बना कर पेश करो वर्ना तुम्हें सख़्त सज़ा दी जाएगी। बेचारे सुनार हैरान परेशान कि शबनम का ताज किस तरह बनाएँ।
उन सुनारों में एक बूढ़ा सुनार बहुत अक़्ल-मंद था। सोचते-सोचते उसके दिमाग़ में एक तरकीब आई। वो दूसरे दिन सुबह को महल के दरवाज़े पर गया और सिपाहियों से कहा कि वो शहज़ादी का ताज बनाने आया है। सिपाहियों से कहा कि वो शहज़ादी का ताज बनाने आया है। सिपाही उसे शहज़ादी के पास ले गए। बूढ़े सुनार ने शहज़ादी को झुक कर सलाम किया और बोला
“हुज़ूर
मैं आपका ताज बनाने के लिए आया हूँ


लेकिन मेरी एक छोटी सी शर्त है।”
“कहो
क्या कहना चाहते हो?” शहज़ादी ने कहा।
सुनार बोला


“आप बाग़ में चल कर मुझे शबनम के वो क़तरे दे दीजिए जिनका आप ताज बनवाना चाहती हैं। जो क़तरे आप पसंद कर के मुझे देंगी मैं फ़ौरन उनका ताज बना दूँगा।”
शहज़ादी सुनार के साथ बाग़ में गई। फूलों और पत्तों पर शबनम के क़तरे जगमगा रहे थे। लेकिन शहज़ादी ने जिस क़तरे को भी छुआ वो उसकी उंगलियों पर पानी की तरह बह गया।
तब शहज़ादी ने खिसियानी हो कर बूढ़े सुनार से माफ़ी माँगी और अह्द किया कि वो अब कभी ऐसी ज़िद नहीं करेगी।
(चीनी कहानी)


- किश्वर-नाहीद


ایک بہت ہی پیارا سا بونا جنگل میں رہتا تھا۔ اس کے باغ میں ایک چھوٹی سی چڑیا رہتی تھی، جو روز صبح ہونے کے لئے گانا گاتی تھی، گانے سے خوش ہو کر بونا چڑیا کو روٹی کے ٹکڑے ڈالتا تھا۔ بونے کا نام منگو تھا وہ چڑیا سے روز گانا سنتا تھا۔
ایک دن بہت ہی عجیب واقعہ پیش آیا ہوا یوں کہ منگو خریداری کر کے گھر واپس جا رہا تھا تو ایک کالے بونے نے اسے پکڑ کر بوری میں بند کردیا اور اسے اپنے گھر لے گیا۔ جب اسے بوری سے باہر نکالا گیا تو وہ ایک قلعے نما گھر میں تھا۔ کالے بونے نے اسے بتایا کہ وہ آج سے بونے کا باورچی ہے۔ مجھے جام سے بھرے ہوئے کیک اور بادام پستے والی چاکلیٹس پسند ہیں۔ میرے لیے یہ چیزیں ابھی بناؤ۔ بے چارا منگو سارا دن کیک اور چاکلیٹس بناتا رہتا، کیوں کہ کالے بونے کو اس کے علاوہ کچھ بھی پسند نہ تھا۔ وہ سارا دن مصروف رہتا۔ وہ اکثر سوچتا کہ یہ کالا بونا کون ہے؟
’’آپ کون ہیں ماسٹر؟‘‘ ایک دن منگونے اس سے پوچھا۔ کالے بونے نے کہا ’’اگر تم میرا نام بوجھ لو تو میں تمہیں جانے دوں گا، لیکن تم کبھی یہ جان نہیں پاؤگے!‘‘
منگو نے ایک آہ بھری، کیوں کہ وہ جانتا تھا کہ وہ کالے بونے کا اصل نام کبھی نہیں جان پائےگا، کیوں کہ اسے باہر جانے کی اجازت بھی نہیں تھی کہ وہ دوسرے بونوں ہی سے کچھ معلوم کر سکتا۔ اس نے کچھ تکے لگائے۔


ایک دن کالا بونا باہر گیا۔ اس نے دروازہ بند کر دیا اور وہ تالا لگاکر چلا گیا۔ منگو جانتا تھا کہ وہ باہر نہیں جا سکتا، کیوں کہ وہ پہلے بھی کوشش کر چکا ہے، مگر ناکام رہا تھا۔ وہ ایک قیدی بن چکا تھا۔ اس نے ایک آہ بھری اور پھر جلدی جلدی کام کرنے لگا۔ اسے کام کرتے کچھ ہی دیر گزری تھی کہ اس نے اپنی چڑیا کے گانے کی آواز سنی وہ وہی گانا گا رہی تھی، جو منگو کو پسند تھا۔ منگونے کھڑکی سے باہر دیکھا، چڑیا ایک درخت پر بیٹھی تھی۔ ’’پیاری چڑیا! وہ چلایا، میں یہاں ہوں۔ اوہ کیا تم مجھے تلاش کر رہی تھیں؟ کیا تم نے اپنی روٹی کے ٹکڑے یاد کیے؟ میں یہاں قید ہوں۔ میں یہاں سے اس وقت ہی نکل سکتا ہوں، جب میں کالے بونے کا نام معلوم کر لوں، جس نے مجھے یہاں قید کیا ہوا ہے‘‘۔ اسی وقت کالا بونا واپس آ گیا۔ منگو بھاگ کر تندور کے پاس چلا گیا۔ چڑیا کچھ منٹ تک وہاں بیٹھی گانا گاتی رہی اور پھر اڑ گئی۔
چڑیا ناخوش تھی۔ وہ پیارے منگو سے بہت مانوس تھی، کیوں کہ وہ اس سے پیار کرتا تھا اور گانا بھی شوق سے سنتا تھا۔ اب صرف چڑیا ہی تھی جو منگو کو باہر نکالنے کی کوشش کر سکتی تھی مگر کیسے؟
چڑیا نے سوچا کہ وہ کالے بونے کا پیچھا کرےگی اور دیکھےگی کہ وہ کہاں جاتا ہے۔ اگلے دن جب کالا بونا قلعے سے باہر نکلا تو وہ اس کے پپیچھے ہولی۔ آخر کار بونا ایک گھر پر رکا، چڑیا یہ دیکھ کر حیران رہ گئی کہ گھر کا دروازہ ایک بلی نے کھولا، جس کا رنگ کالا اور آنکھیں سبز تھیں۔ چڑیا سوچنے لگی کہ دیکھوں کہ یہ کالی بلی کب بونے کو پکارےگی۔ کالا بونا کچھ دیر وہاں رکا اور پھر چلا گیا۔ چڑیا بھی جانے والی تھی کہ اس نے بلی کو گاتے سنا۔ وہ اون بن رہی تھی اور گاتی بھی جارہی تھی۔ وہ گانا بہت عجیب تھا۔
پہلا انگور کا دوسرا سیب کا


دوسرا انار کا تیسرا ٹماٹر کا
تیسرا جامن کا چوتھا لیچی کا
چوتھا نارنگی کا چوتھا خوبانی کا
پہلا میرا دوسران ان کا تیسرا ہمارا


دوسرا آم کا اور تیسرا آڑو کا
کھیلوگے تو بن جائےگا کام
ہو سکتا ہے مل جائے اس کا نام
کالی بلی یہ گانا گاتی جارہی تھی اور چڑیا سنتی رہی۔ یہاں تک کہ اسے بھی یہ گانا یاد ہو گیا۔ چڑیا اڑکر قلعے کے پاس جا پہنچی۔ اس نے دیکھا کہ منگو کالے بونے کے لیے کھانا سجا رہا ہے اور اس سےباتیں بھی کر رہا ہے۔


اگلے دن چڑیا کالے بونے کے جانے کا انتظار کرنے لگی اور جب وہ چلا گیا تو اس نے گانا شروع کیا، منگو اس کی آواز سن کر کھڑکی کے پاس آیا اور جب اس نے یہ عجیب گانا سنا تو حیران رہ گیا کہ آج چڑیا دوسرا گانا کیوں گا رہی ہے۔ منگو سمجھ گیا کہ چڑیا گانا گا کر اس کی مدد کرنا چاہتی ہے۔
منگو جلدی سے ایک پینسل اور کاغذ لے آیا اور گانا سن کر لکھنے لگا اور سمجھنے کی کوشش کرنے لگا کہ اس گانے میں کیا نام چھپا ہے۔ الفاظ کچھ یوں تھے۔ پہلا انگور کا۔ الف، دوسرا سیب کا، ی، دوسرا انار کا۔ ن، تیسرا ٹماٹر کا۔ الف، تیسرا جامن کا۔ م، چوتھا لیچی کا۔ ی، چوتھا نارنگی کا۔ ن، چوتھا ہی خوبانی کا۔ الف، پہلا میرا یعنی۔ م، دوسرا ان کا۔ ن، تیسرا ہمارا۔ الف، دوسرا آم کا۔ م اور تیسرا آڑو کا۔و!‘‘
اس نے حروف کو لفظ کی شکل میں لکھا اور پھر اسے پڑھنے کی کوشش کی۔
اینا، مینا، منا مو!


’’تو یہ ہے کالے بونے کا نام! وہ خوشی سے چلایا’’میں نے کبھی یہ نام سوچا بھی نہیں تھا۔ چڑیا جلدی سے اڑ گئی، کیوں کہ اس نے کالے بونے کی آواز سن لی تھی۔ وہ اندر داخل ہوا اور یہ دیکھ کر آگ بگولہ ہوگیا کہ منگو کیک بنانے کی بجائے میز پر بیٹھا کچھ لکھ رہا ہے۔
’’یہ سب کیا ہے؟‘‘ دہ دھاڑا۔
’’کیا تمہارا نام بھوری بلی ہے؟‘‘ منگو نے جان بوجھ کر پوچھا ’’نہیں نہیں‘‘ کالا بونا بولا’’جاکر کام کرو‘‘۔ کالا بونا پوری قوت سے چیخا اور کہا ’’میرے کیک کہاں ہیں؟‘‘ کیا تمہارا نام ’’اینا، مینا، منا، مو‘‘ ہو سکتا ہے؟‘‘ منگو خوشی سے چیخا۔
کالے بونے نے منگو کو گھورا اور ڈر سے پیلا ہو گیا، تمہیں کیسے معلوم ہوا؟ اس نے ڈرتے ہوئے پوچھا۔ تمہیں میرا راز معلوم ہوگیا ہے تم فوراً یہاں سے چلے جاؤ۔ منگو خوشی سے باہر بھاگا۔


وہ سارے راستے کودتا پھلانگتا، اپنے گھر پہنچا۔ اس نے اپنے باغ کے دروازے پرچڑیا کو اپنا منتظر پایا۔ منگو نے چڑیا کا بہت شکریہ ادا کیا کہ یہ رہائی صرف اس کی وجہ سے ملی ہے۔ اب منگو کی دوستی چڑیا سے مزید گہری ہو گئی اور وہ روز اس کا گانا سنتا اور اسے روٹیاں بھی کھلاتا۔

- نامعلوم


एक दफ़ा एक गीदड़ खाने की तलाश में मारा-मारा फिर रहा था। वो दिन भी उसके लिए कितना मनहूस था। उसे दिन भर भूका ही रहना पड़ा। वो भूका और थका हारा चलता रहा। रास्ता नापता रहा। बिल-आख़िर लग-भग दिन ढले वो एक शह्र में पहुँचा। उसे ये भी एहसास था कि एक गीदड़ के लिए शह्र में चलना-फिरना ख़तरे से ख़ाली नहीं है। लेकिन भूक की शिद्दत की वजह से ये ख़तरा मोल लेने पर मजबूर था।
“मुझे ब-हर-हाल खाने के लिए कुछ न कुछ हासिल करना है।” उसने अपने दिल में कहा...
“लेकिन ख़ुदा करे कि किसी आदमी या कुत्ते से दो-चार होना न पड़े।”
अचानक उसने ख़तरे की बू महसूस की। कुत्ते भौंक रहे थे। वो जानता था कि वो उसके पीछे लग जाएँगे।


वो डर कर भागा। लेकिन कुत्तों ने उसे देख लिया और उसके पीछे दौड़ पड़े। कुत्तों से पीछा छुड़ाने के लिए गीदड़ तेज़ भागने लगा लेकिन कुत्ते उसके क़रीब पहुँच गए। गीदड़ जल्दी से एक मकान में घुस गया। ये मकान एक रंगरेज़ का था। मकान के सहन में नीले रंग से भरा हुआ एक टब रखा हुआ था। गीदड़ को कुत्तों ने ढ़ूढ़ने की लाख कोशिश की मगर उसका कहीं पता नहीं चला। कुत्ते हार कर वापस चले गए। गीदड़ उस वक़्त तक टब में छिपा रहा जब तक कुत्तों के चले जाने का उसको यक़ीन न हो गया। फिर वो आहिस्ता-आहिस्ता टब से बाहर निकल आया। वो परेशान था कि अब वो क्या करे। उसने सोचा कि इससे पहले कि कोई आदमी या कुत्ता देख ले जंगल वापस चाहिए।
वो जल्दी-जल्दी जंगल वापस आया। जिन जानवरों ने उसे देखा
डर कर भागे। आज तक उन्होंने उसके जैसा जानवर नहीं देखा था।
गीदड़ भाँप गया कि सभी जानवर उससे डर रहे हैं। बस फिर क्या था। उसके दिमाग़ में एक तरकीब आई। वो चीख़-चीख़ कर जानवरों को पुकारने लगा


“ठहरो! दम लो! कहाँ जाते हो? यहाँ आओ! मेरी बात सुनो!”
सारे जानवर रुक कर गीदड़ को ताकने लगे। उसके पास जाते हुए वो अब भी डर रहे थे। गीदड़ फिर चिल्ला कर बोला
“आओ मेरे पास आओ। अपने सभी दोस्तों को बुला लाओ। मुझे तुम सबसे एक ज़रूरी बात कहना है।”
एक-एक कर के सभी जानवर नीले गीदड़ के पास पहुँचे। चीते


हाथी
बंदर
ख़रगोश
हिरन। ग़रज़ सभी जंगली जानवर उसके चारों तरफ़ खड़े हो गए।


चालाक गीदड़ ने कहा कि
“मुझसे डरो नहीं। मैं तुम्हें कोई नुक़्सान नहीं पहुँचाऊँगा। ख़ुदा ने मुझे तुम्हारा बादशाह बना कर भेजा है। मैं एक बादशाह की तरह सबकी हिफ़ाज़त करूँगा।
सब जानवरों ने उसकी बात का यक़ीन कर लिया और उसके सामने सर झुका कर बोले
“हमें आपकी बादशाहत क़ुबूल है। हम उस ख़ुदा के भी शुक्र-गुज़ार हैं जिसने आपको हमारी हिफ़ाज़त का ज़िम्मेदारी सौंप दी है। हम आपके हुक्म के मुंतज़िर हैं।”


नीले गीदड़ ने कहा
“तुम्हें अपने बादशाह की अच्छी तरह देख-भाल करनी होगी। तुम मुझे ऐसे खाने खिलाया करो जो बादशाह खाता है।”
“ज़रूर हुज़ूर-ए-वाला।” सभी जानवरों ने एक ही आवाज़ में कहा।
“हम दिल-ओ-जान से अपने बादशाह की ख़िदमत करेंगे। फ़रमाईए इसके इलावा हमें और क्या करना होगा?”


“तुम्हें अपने बादशाह का वफ़ादार रहना है।” नीले गीदड़ ने जवाब दिया।
“तभी तुम्हारा बादशाह तुम्हें दुश्मनों से महफ़ूज़ रख सकता है।”
गीदड़ की इस बात ने सभी जानवरों की तसल्ली कर दी। वो उसके लिए क़िस्म-क़िस्म के मज़ेदार खाने लाने लगे और उसकी ख़ातिर-मुदारात करने लगे। गीदड़ अब बादशाह की तरह रहने लगा। सब जानवर रोज़ाना उसकी ख़िदमत में हाज़िर हो कर उसे सलाम करते। अपनी मुश्किलें उसे बताते। बादशाह उनकी बातों को सुनता और उनकी मुश्किलों का हल बताता।
एक दिन जब बादशाह दरबार में बैठा था तो दूर से कुछ शोर सुनाई दिया। ये गीदड़ के ग़ोल की आवाज़ थी। अब अपने भाईयों की आवाज़ सुनी तो बहुत ख़ुश हुआ और ख़ुशी के आँसुओं से उसकी आँखें भर आईं। उसे अपनी बादशाहत का भी ख़याल न रहा और अपना सर उठा कर उसने भी गीदड़ों की तरह बोलना शुरू कर दिया। उसका बोलना था कि जानवरों पर उसकी असलीयत खुल गई। उन्हें मालूम हो गया कि ये रंगा हुआ सियार है। इसने उन्हें धोके में रखा है। सब जानवर मारे ग़ुस्से के उसे फाड़ खाने के लिए इस पर चढ़ दौड़े। लेकिन गीदड़ ने तो पहले ही से भागना शुरू कर दिया था। वो भागता गया तेज़ और तेज़ और आख़िर-ए-कार सबकी पहुँच से बाहर हो गया और इस तरह उसकी जान बची।


- साहिर-होशियारपुरी


शमा
नन्ही मुनी प्यारी सी लड़की थी। ख़ूबसूरत गोल गोल आँखें
सेब जैसे होंट और अनार की तरह उसका सुर्ख़ रंग था। वो आँखें झपक कर बातें करती। उसका चेहरा हर वक़्त मुस्कुराता रहता था। हंसते हंसते उसका बुरा हाल हो जाता और उसकी अक्सर हिचकी बंध जाती। इस मौक़ा पर उसकी अम्मी उसे मिस्री की एक डली देतीं। शमा उसे मुँह में डाल कर चूसने लगती और साथ साथ अपनी अम्मी से मीठी मीठी बातें भी करती।
शमा की ज़बान मोटी थी। वो लफ़्ज़ आसानी से ना बोल सकती थी। वो लफ़्ज़ आसानी से ना बोल सकती थी। इसलिए सब उसे तोतली शहज़ादी कहते थे। वो तुत


बुत
ज़बान में बातें करती
तो हर एक को उस पर बे-इख़्तियार प्यार जाता। उसकी सहेलियाँ कहतीं ‘‘शमा तुम बड़ी ख़ुश-क़िस्मत हो तुम्हें तो खाने को मिस्री की डलियां मिलती रहती हैं।’’ शमा ये सुनकर फूली ना समाती और अपनी तोतली ज़बान में पहाड़े दोहराना शुरू कर देती
‘‘अत्त दूनी दूनी


दो दूनी चार तिन दूनी तय
ताल दूनी अथ’’ वो तीसरी जमात में पढ़ती थी
मगर उसे सब पहाड़े याद थे। अंग्रेज़ी की नज़्में भी उसे आती थीं। वो अपनी मैना को ये नज़्में सुनाती और दिल ही दिल में बहुत ख़ुश होती। उनका घर एक पहाड़ी पर था एक शाम वो अपनी गुड़िया के साथ सैर के लिए बाहर निकली
तो दरख़्त की ओट में एक बोना छिपा हुआ था तोतली शहज़ादी को देखते ही वो सामने आगया


उस के सर पर एक हैट था
जिस पर चिड़ियों का घोंसला बना हुआ था। उसे देखकर तोतली शहज़ादी की हंसी निकल गई। हंसते हंसते उसे हिचकी आगई और वो लोट-पोट हो कर ज़मीन पर गिर गई। बौना दौड़ा दौड़ा उस के पास आगया
तोतली शहज़ादी अभी तक हंस रही थी। बौने ने ये हाल देखा तो उसकी भी हंसी निकल गई। वो शहज़ादी से कुछ पूछना चाहता था कि उसे भी हिचकी आगई
शहज़ादी ने मिस्री की डली मुँह में डाली और बौने से पूछा


‘‘त्यूँ (क्यों) मियाँ बौने तुम्हें भी हंसी के साथ हितकी आती है।’’
बौने ने ‘‘हाँ’’ कहते हुए अपना सर हिलाया।
शहज़ादी ने उसे भी मिस्री की एक डली निकाल कर दी
उसे चूसते ही बौने मियाँ ठीक हो गए और शहज़ादी से पूछने लगे। ‘‘ये तो बड़ी अच्छी चीज़ है। मेरे पाँच दोस्तों को भी इसी तरह हिचकी आजाती है। तुम उन सबको ये चीज़ खिला दो।’’


शहज़ादी ने कहा ‘‘क्यों नहीं। कल शाम को इसी वक़्त तुम अपने दोस्तों के साथ बाग़ में आजाना।’’ बौना ये सुनकर उछला और ख़ुशी ख़ुशी अपने मकान की तरफ़ चल दिया। ये सब बौने मिट्टी के एक कच्चे मकान में रहते थे।
घर जाकर बौने ने अपने साथियों को ख़ुश-ख़बरी सुनाई और कहा कि कल शाम को उनकी शहज़ादी के यहाँ दावत है। उधर तोतली शहज़ादी ने महीने में जो पैसे जमा किए हुए थे
उनकी मिस्री ख़रीदी। उसकी अम्मी ने इस पार्टी के लिए शहद का तोहफ़ा दिया और शहज़ादी दावत के इंतिज़ाम में मसरूफ़ हो गई।
उसने अपनी गुड़िया की शादी के लिए एक मुन्ना सा टी सेट ख़रीद रखा था। गुड़िया से इजाज़त लेकर उसने ये टी सेट उठाया और शाम से पहले पहले बाग़ में चली आई। ख़ूबसूरत घास पर उसने दुस्तरख़्वान बिछाया। उस वक़्त तक सब बौने वहाँ पहुँच चुके थे। उन्होंने ख़ूबसूरत टोपियाँ पहन रखी थीं। एक बौने के हाथ में बाँसुरी थी


जब कि दूसरों के हाथों में रंग बिरंग गुब्बारे उड़ रहे थे। वो सारे दस्तर-ख़्वान के पास बैठ गए और खाना शुरू करना चाहते थे। तब तोतली शहज़ादी ने कहा कि दावत से पहले सब बारी बारी हँसें
ताकि हंसते हंसते हर एक को हिचकी बंध जाये और दावत का ख़ूब मज़ा आजाए। इस सवाल पर एक बौना मुँह बिसूर कर बैठ गया
उस के चेहरे को देखकर सबकी हंसी निकल गई। उस के बाद शहज़ादी ने ताली बजाई और सब ठीक हो कर बैठ गए। शहज़ादी ने हर एक के सामने एक एक कप रखा। उस में थोड़ा थोड़ा सा शहद डाला और साथ साथ मिस्री की एक एक डली दी
जिसे मुँह में डालते ही सबकी हिचकी जाती रही।


फिर उन्होंने शहद खाया और नीबू मिला पानी पिया। उसका ज़ाएक़ा उन्हें बहुत अच्छा लगा। शहज़ादी ने बौनों से कहा कि अम्मी कहती हैं ‘‘मिस्री डली तूसने से हितकी ख़त्म हो दाती है।’’ (मिस्री की डली चूसने से हिचकी ख़त्म हो जाती है) ये वाक़ई ईलाज था। दावत के बाद एक बौने ने क़रीब की नदी के पानी से सारे कप धोए और उन्हें साफ़ कर के शहज़ादी को दे दिए। शहज़ादी ने उसका शुक्रिया अदा किया और घर वापस चली आई। गुड़िया का टी सेट दुबारा डिब्बे में बंद किया और अपने कमरे में सोने के लिए चली गई। रात को उसने बड़ा ही ख़ूबसूरत ख़्वाब देखा। एक बौना बारीक सी तार पर नाच रहा था और बाक़ी बौने तालियाँ बजा रहे थे और ख़ुश हो रहे थे। इस मंज़र को देखकर शहज़ादी की हंसी निकल गई। उस की आँख खुली तो अम्मी क़रीब ही खड़ी थीं। सुब्ह होने वाली थी। अम्मी ने पूछा ‘‘तू ख़्वाब में क्यों हंस रही थी?’’
तोतली शहज़ादी कोई जवाब देने की बजाय हँसने लगी और फिर ख़ुद ही उसने अम्मी को सारा ख़्वाब सुना दिया। अम्मी बोलीं ‘‘ये ख़्वाब तुमने सुब्ह के वक़्त देखा है। ऐसे ख़्वाब सच्चे ही होते हैं।’’ शहज़ादी ने कहा। ‘‘वो तैसे (कैसे)?’’
अम्मी ने कहा ‘‘ऐसे
जैसे कि तुम फ़रफ़र बोल रही हो


और तुम्हें हिचकी नहीं आरही।’’
शहज़ादी ने मासूम नज़रों के साथ अम्मी की तरफ़ देखा। और अम्मी फ़ौरन समझ गईं। डिब्बे से मिस्री की डली निकाल कर शहज़ादी को दी और कहा ‘‘अब तुम्हें कभी हिचकी नहीं आएगी’’
‘‘मदर अम्मी मिस्री की दली?’’ (मगर अम्मी मिस्री की डली) और अम्मी उस का मतलब समझ गईं और बोलीं ‘‘हाँ हाँ मिस्री तुम्हें खाने को मिलती रहेगी
तुम्हारे हिस्से की नहीं


गुड़िया के हिस्से की।’’ अम्मी का जवाब सुनकर शहज़ादी बहुत ही ख़ुश हुई।
दूसरे दिन शाम को उसे वही बौना मिला। उसने शहज़ादी को अपने घर आने की दावत दी। इस दावत को उसने क़बूल कर लिया और इतवार के दिन बौनों के घर चली गई। बौनों ने शहज़ादी के लिए मीठा शरबत तय्यार किया और तोस मक्खन भी शहज़ादी को खिलाया। उसके बाद बौनों ने उसे गुलाब का फूल दिया और कहा के इसे पानी में भिगो कर खा लो।’’
शहज़ादी ने ऐसा ही किया और उस फूल की पत्तियाँ पानी में भिगो भिगो कर खानी शुरू कर दीं। वो रोज़ाना एक पत्ती खाती
जिससे उसकी तोतली ज़बान ठीक होती चली गई।


शहज़ादी ने बौनों से पूछा कि मैं तो अब अच्छी तरह से बातें कर सकती हूँ। तुम्हें किस ने बताया है
कि गुलाब के फूल की पत्तियाँ खाने से तोतली ज़बान ठीक हो जाती है।
इस सवाल पर सब बौने खिल-खिला कर हँसने लगे। उन्होंने बताया कि लुक़्मान हकीम ने ये ईलाज अपनी एक किताब में लिखा है। शहज़ादी ने बौनों की हिचकी की आदत दूर की
उन्होंने उसकी तुत


बुत
ज़बान को सही कर दिया। शम्मा आजकल कॉलेज में पढ़ रही है अब उसे कोई भी तोतली शहज़ादी नहीं कहता।

- एम-एस-नाज़


साक़िब बहुत ही मेहनती लड़का था। वो अपने स्कूल का काम दिल लगा कर करता और शाम को अपने ग़रीब बाप का हाथ बटाने के लिए दुकान पर बैठ जाता। उसने एक ख़ूबसूरत मैना पाल रखी थी। ये मैना उस से बड़ी मीठी मीठी
प्यारी प्यारी बातें करती। साक़िब अपनी भोली मैना से कहता ‘‘मैं तुम्हें एक ना एक दिन दुनिया की सैर कराऊँगा साक़िब के दिल की ख़्वाहिश थी कि घर और दुकान के अलावा दुनिया की और चीज़ें भी उसे देखने को मिलें। आख़िर एक दिन इसी इरादे से वो अपनी मैना को साथ लेकर निकल खड़ा हुआ। उसने थोड़ा सा पनीर भी ले लिया
ताकि सफ़र के दौरान काम आजाए। वो अपनी मैना के पिंजरे को उठाए दूर बहुत दूर तक निकल गया शाम हुई
तो साक़िब को रात गुज़ारने का ख़्याल आया। उसने पहाड़ पर एक झोंपड़ी देखी। वो बड़ी मुश्किल से पहाड़ की चोटी पर पहुंचा। जूं ही वो झोंपड़ी में दाख़िल हुआ


उस की मुलाक़ात एक भूत से हो गई। ये झोंपड़ी उसी भूत की थी।
साक़िब को नए नए दोस्त बनाने का बहुत शौक़ था। उस ने दोस्ताना लहजे में इस लंबे तड़ंगे भूत से कहा ‘‘आदाब अर्ज़ करता हूँ। मैं ज़रा सैर को निकला हूँ
आईए आप भी मेरे साथ चलिए।’’ भूत गरजदार आवाज़ में बोला चल-बे ओ
कमज़ोर और दुबले पतले इन्सान


मैं क्यों तुम्हारे साथ जाऊँ।’’
साक़िब ने कहा: ‘‘मैं देखने में दुबला पतला ज़रूर हूँ
मगर इतना भी कमज़ोर नहीं
जितना तुम समझ रहे हो।’’


इस पर भूत हंसा उस ने एक भारी पत्थर उठाया और अपने बड़े बड़े हाथों में पकड़ कर इस ज़ोर से भींचा कि उस में से पानी निकलने लगा। फिर उस ने साक़िब से सवाल किया।
‘‘ क्यूँ-बे चियूंटे
तू भी ऐसा कर सकता है?’’
साक़िब हंस पड़ा और बोला ‘‘वाह भला ये भी कोई मुश्किल काम है। खोदा पहाड़ निकला चूहा’’ इस के बाद साक़िब ने अपने थैले में से पनीर निकाला और उसे आहिस्ता से दबाया


तो उस में से काफ़ी से ज़्यादा छाछ बहने लगी। उसने भूत से पूछा। ‘‘तुम्हारे इतने बड़े पत्थर से तो मनों पानी निकल सकता था
पर निकला सिर्फ़ तीन चार बूदें
मेरे इस छोटे से टुकड़े को देखो कितना पानी निकला है।’’
भूत ये सुन कर ताव में आगया। उसने एक वैसा ही पत्थर उठाया और इतना ऊँचा फेंका कि नज़रों से ओझल होने के बहुत देर बाद वापस ज़मीन पर पहुँचा।


साक़िब फिर हंसा और कहने लगा।
‘‘ये तो मेरे बाएं हाथ का करतब है। देखना मेरा कमाल भी
ऐसी चीज़ हवा में छोड़ूँगा कि बस आसमान पर ही पहुंच जाएगी और ज़मीन पर वापस नहीं आएगी।
ये कह कर उस ने पिंजरे से मैना निकाली और उसे हवा में छोड़ दिया


मैना अपनी आज़ादी पर इतनी ख़ुश हुई कि ऊपर ही ऊपर उड़ती चली गई और नज़रों से ग़ायब हो गई। भूत ये देखकर बहुत शर्मिंदा हुआ और बोला ‘‘चलो आज से मैं तुम्हारा दोस्त हूँ’’ फिर उस ने साक़िब को रात झोंपड़ी ही में रखा। तरह तरह के खानों से उसकी ख़ातिर-तवाज़ो की और जाते दफ़ा तोहफ़े भी दिए।
साक़िब अपनी कामियाबी पर फूले ना समा रहा था। वो फ़ख़्र से सीना फुलाता हुआ बादशाह के पास पहुंचा और बोला।
‘‘जहांपनाह कब से मैं इस कोशिश में था कि आपके नियाज़ हासिल हूँ। कोई मेरे लायक़ ख़िदमत हो तो हुक्म कीजिए।’’
बादशाह ने हैरानगी से साक़िब को सर से लेकर पांव तक देखा और कहा


‘‘तुम अभी अध-मूए हो
हमारे किस काम आसकते हो?’’
साक़िब ने जवाब दिया।
‘‘आप कोई हुक्म तो दीजिए।’’


बादशाह ने कहा कि इस मुल्क में दो जिन्नो ने लोगों को तंग कर रखा है। अगर तुम उन जिन्नो के सर काट के ले आओ
तो आधी सलतनत तुम्हारी और मैं अपनी बेटी की शादी भी तुमसे कर दूँगा। साक़िब ने थोड़ी देर के लिए कुछ सोचा और फिर बोला मैं ये काम ज़रूर करूँगा।
बादशाह ने कहा ‘‘तुम्हें जितनी फ़ौज चाहिए
ले जा सकते हो?’’


साक़िब ने कहा। ‘‘नहीं नहीं
मुझे फ़ौज की ज़रूरत नहीं
फ़ौज की ज़रूरत सिर्फ़ जिन्नों के सर उठाने के लिए पड़ेगी।
ये वा’दा कर के साक़िब अपने दोस्त भूत के पास आया। भूत ने कहा कि जिन्नो के सर लाना कोई मुश्किल काम नहीं


बस कोई तरकीब सोचना होगी। इस के बाद साक़िब और भूत दोनों उस क़िले में पहुंचे
जहां जिन्न रहते थे। भूत ने साक़िब को अपने कंधे पर उठा लिया और हवा में उड़ता हुआ
क़िले के बाग़ में चला आया। दोनों जिन बरगद के दरख़्त के नीचे सोए हुए थे। साक़िब ने भूत के कहने पर कंकरियां जेब में डाल लीं। भूत ने बड़ी बड़ी ईंटें उठा लीं और दोनों एक दरख़्त पर चढ़ गए। साक़िब ने हौले हौले एक एक कर के जिन्नों को कंकरियां मारना शुरू कीं। जिन्नो ने मक्खियां समझ कर कोई परवाह ना की। उस के बाद भूत ने अपना काम दिखाया। उस ने बड़ी बड़ी ईंटें उठा कर जिन्नों पर बरसाना शुरू कर दीं। एक जिन्न समझा कि दूसरा जिन्न बार-बार हाथ मार कर उसे सता रहा है। उधर दूसरे जिन्न को भी यही ग़लतफ़हमी होती। दोनों जिन्न अब हड़बड़ा कर उठ बैठे और ग़ुर्रा ग़ुर्रा कर आपस में गुत्थम-गुत्था हो गए। दरख़्तों से हथियार का काम लिया। इसी मार-धाड़ में बुरी तरह ज़ख़्मी हुए और मर गए। भूत और साक़िब ख़ुशी से नाचते हुए दरख़्त से नीचे उतरे और तलवार से दोनों जिन्नों के सर तन से जुदा कर दिए। साक़िब भागा भागा बादशाह के महल में पहुंचा और फ़ौज की इमदाद तलब की।
फ़ौज ने जिन्नों के सरों को एक बहुत बड़ी तोप पर रखा और उसे घसीट कर शाही महल तक लाया गया। बादशाह ये मंज़र देखकर दंग रह गया। उस ने साक़िब को आधी सलतनत देने की पेशकश की


लेकिन बेटी के साथ शादी करने के वा’दे से मुकर गया। वो चाहता था कि किसी ख़ूबसूरत शहज़ादे से अपनी बेटी की शादी करे। साक़िब का दिल टूट गया। उस ने आधी सलतनत को ठुकरा दिया और अपने दोस्त भूत के साथ झोंपड़ी में रहने लगा उसे शहज़ादी की याद हर वक़त सताती रहती थी।
उधर बादशाह की बेटी को जब ये मालूम हुआ
तो वो बीमार रहने लगी। बादशाह ने बहतेरे ईलाज कराए
मगर उसे आराम ना आया। आख़िर-कार उस ने अपनी बेटी को एक मैना ख़रीद दी। ये मैना हरवक़त उस का दिल बहलाने की कोशिश करती। नुजूमियों ने बादशाह को बताया कि शहज़ादी की शादी साक़िब से कर दी जाये तो वो ठीक हो सकती है


वर्ना नहीं। बादशाह की समझ में ये बात आ गई। उस ने साक़िब का पता करवाया
लेकिन कामियाबी ना हुई।
एक दिन मैना ने शहज़ादी से कहा कि मैं साक़िब को तलाश करती हूँ। वो उड़ती हुई भूत की झोंपड़ी पर आ बैठी साक़िब ने देखा
ये वही मैना थी


जो उसने हवा में छोड़ी थी। मैना ने साक़िब को शहज़ादी का पैग़ाम दिया। और कहा कि बादशाह ने भी तुम्हें याद किया है। साक़िब ये सुन कर सीधा बादशाह के महल में आया। उस के बाद शहज़ादी से उस की शादी हो गई।
बादशाह ने उसे सब्र और बहादुरी के इनाम में आधी तो क्या
सारी सलतनत दे दी।

- एम-एस-नाज़


محاوروں کی دنیا عجیب وغریب ہے، ہمارے شاعروں کی طرح جنھیں کہنا کچھ ہوتا ہے اور کہتے کچھ ہیں۔ یہی وجہ ہے کہ ’محاوروں کو جملوں میں استعمال کیجئے‘، اس سوال میں وہ طلبا بری طرح فیل ہوتے ہیں جو ’عید کے چاند کو‘ واقعی عید کا چاند سمجھتے ہیں۔ جب انھیں اس محاورے کا صحیح مفہوم معلوم ہوتا ہے کہ اس سے مراد وہ شخص ہے جو کبھی کبھار یا ایک مدت بعد دکھائی دے تو بیچارے حیران ہو کر اپنا سر اتنی دیر تک کھجاتے ہیں، کہ عید کا چاند دکھائی دے جائے۔
جو لوگ محاوروں میں الفاظ ہی کو سب کچھ سمجھ لیتے ہیں، محاوروں کے استعمال میں اکثر ٹھوکر کھاتے ہیں۔ وہ نیم کے پیڑ اور حکیم صاحب کو اپنی جان کے لئے خطرہ سمجھتے ہیں۔ ’باغ باغ ہونا‘ ہو تو گارڈن کی سیر کو نکل جاتے ہیں۔ فلش کا استعمال کر کے اپنے کئے کرائے پر پانی پھیر دیتے ہیں۔ کوئی سو جائے تو کہتے ہیں ’’اس کی آنکھ بند ہو گئی۔‘‘
خاص طور پر سیر کے لئے جاتے ہیں تاکہ واپسی پر کھانا کھانے کے بعد انھیں یقین ہو جائے کہ انھوں نے سیر ہو کر کھانا کھایا ہے۔ پھول کے پودے لگا کر خوش ہوتے ہیں کہ ہم گل کھلا رہے ہیں۔ کل ایک صاحب جو دیواروں پر پیلا رنگ لگا رہے تھے، اپنے رنگین ہاتھوں کو دیکھ کر خوش ہو نے لگے کہ لیجئے جناب! آج ہمارے بھی ہاتھ پیلے ہو گئے۔
اسی قسم کا ایک اور محاورہ ہے، ’سر آنکھوں پر‘، اس کے معنی ہیں دل و جان سے یا بڑی خوشی سے۔ اسی طرح ‘سر آنکھوں پر بٹھانا‘، یہ محاورہ کسی کی آؤ بھگت کرنے کے لئے استعمال کیا جاتا ہے۔ اس محاورہ میں نہ سر سے سروکار ہے نہ آنکھوں سے۔ اگر کوئی شخص یہ خوش خبری سنائے کہ وہ مہمان بن کر آپ کے گھر آرہا ہے تو بظاہر یہ کہنے کا رواج ہے۔ ’’ضرور تشریف لائے، آپ کی آمد سرآنکھوں پر‘‘ یہ اور بات کہ آپ کا دل اندر ہی اندر درج ذیل تراکیب کا ورد کر رہا ہوگا۔ برے پھنے ، ہوگیا ستّیا ناس، گئے کام سے، آگئی شامت، بن گیا گھر والوں کا کچوم، اب تو ہو گئے دیوالیہ، یہ مصیبت میرے ہی گلے پڑنی تھی، جل تو جلال تو آئی بلا کو ٹال تو وغیرہ وغیرہ۔ پھر آپ کا ذہن اس بن بلائے مہمان سے بچنے کی تراکیب سوچنے لگے گا۔


کل ہی کی بات لیجئے، ہمارے دوست نقیب مجتبی نے جب یہ خبر ہمیں سنائی کہ ’’کوئی صاحب آپ سے ملنے کے لئے آرہے ہیں تو ہم نے کہا، ’’خوش آمدید، ان کا آنا سر آنکھوں پر۔‘‘ یہ سن کر انھوں نے یہ فقرہ چست کیا، ’’مگر وہ بیٹھیں گے کسی ایک ہی پر۔‘‘
اب ہم انھیں کیسے سمجھا ئیں کہ وہ صاحب ہمارے کرایہ دار ہیں ہمارے گھر کی بالائی منزل پر (یعنی ہمارے سر پر ) کرائے سے رہتے ہیں۔ اور ہم ہر ماہ کرایہ کے انتظار میں ان کی راہوں میں آنکھیں بچھائے رہتے ہیں۔ ’سر آنکھوں پر‘، کا ایک مفہوم یہ بھی ہو سکتا ہے کہ آنے والے صاحب یا تو سر ہو کر رہیں گے یا آنکھوں کی ٹھنڈک بنیں گے۔
کسی کو آنکھوں پر بٹھانے یا اس کے راستے میں آنکھیں بچھانے کا خیال خالص شاعرانہ ہے۔ دیگر محاوروں کی طرح اسے بھی عملی شکل دینے کی کوشش کی گئی تو سارا مزہ کرکرا ہو جائے گا ۔ محاورے تو بس زبان کا چٹخارہ ہیں، مزہ لینے کے لئے۔ یہ صابن کے جھاگ سے بنے بلبوں کی طرح ہیں اک ذرا چھوا اور غایب۔ عام طور پر دسترخوان پر یہ شعر لکھا ہوا دکھائی دیتا ہے۔
اے بادِ صبا کچھ تو نے سنا مہمان جو آنے والے ہیں


کلیاں نہ بچھانا راہوں میں ہم پلکیں بچھانے والے ہیں
کسی کو دیکھ کر مارے حیرت کے آنکھیں کتنی ہی کیوں نہ پھیل جائیں وہ اس قدر وسیع نہیں ہوسکتیں کہ ان پر کوئی تشریف فرما ہو سکے۔ ’سر آنکھوں پر‘ اس محاورہ کو عملی نقطہ نظر سے دیکھیں تو خالق حقیقی نے یہ کام پہلے ہی کر رکھا ہے۔ اس سے ظاہر ہے کہ سر کا مرتبہ آنکھوں سے بلند ہے۔ آنکھیں دھو کہ کھا سکتی ہیں مگر عقل جس کا ٹھکانہ سر ہے، اس دھوکہ کو بھانپ لیتی ہے اور اپنے بچاؤ کا راستہ نکال لیتی ہے۔
سر کی جگہ اگر آنکھیں ہوا کرتیں تو ہم دن میں آسمان بادل پرندے اور دهنگ دیکھا کرتے، رات میں ستارے گنتے۔ زندگی ایک سفر ہے اور انسان ٹھہرا مسافر ۔ اسی لئے خدا نے آنکھیں ہمارے سر پر اس انداز سے فٹ کی ہیں کہ ہم منزلوں پر نظر جمائیں ، راستے کی اونچ نیچ پر نظر رکھیں اور چلتے رہیں۔ آنکھیں سر کے پیچھے اس لئے نہیں لگا ئیں کہ جو گزر گیا اس کا ماتم فضول ہے۔ ہر وقت اپنے ماضی میں کھوئے رہنا کوئی اچھی بات نہیں ۔ گاہے بگاہے پیچھے مڑ کر دیکھ لینا مفید ثابت ہو سکتا ہے۔ اسی لئے گردن میں مڑنے کی صلاحیت رکھ دی گئی ہے۔ ’ سر تسلیم خم کر دینا‘ یعنی اپنے پورے وجود کو جھکا دینا ہے۔ سر جو پورے جسم کا کنٹرول روم ہے جھک جائے تو یہ بہت بڑی بات ہے۔ ہمارے سر کو جو بلند مرتبہ عطا کیا گیا ہے اس کے پیش نظر اس کے لئے یہی مناسب ہے کہ وہ جھکے تو بس اپنے بنانے والے کے آگے۔ ہر کس و ناکس کے آگے ماتھا ٹیکنے والے یوں بھی سب کی نظروں سے گر جاتے ہیں، اسی لئے آن بان سے جینے والے خدا کے سوا کسی کے آگے سر جھکانے کے بجائے اسے کٹانا پسند کرتے ہیں۔ سر واقعی ہے ہی ایسی چیز!

- محمد-اسد-اللہ


काफ़ी दिनों की बात है। एक शहर में दो भाई रहते थे। उनका क़द एक जैसा था
अलबत्ता रंगत एक जैसी नहीं थी। एक गोरा चिट्टा था और दूसरा साँवले रंग का।
गोरे भाई का नाम अश्फ़ाक़ और साँवले भाई का नाम शफ़ीक़ था। दोनों भाईयों की आदात में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ था। अश्फ़ाक़ बहुत मेहनती और वक़्त का पाबंद था। जब कि शफ़ीक़ बहुत सुस्त था। अश्फ़ाक़ में अख़्लाक़ी खूबियाँ भी थीं। वो किसी के एहसान पर उसका शुक्रिया अदा करना ना भूलता था
और शफ़ीक़ अक्सर ऐसी बातों से कन्नी कतराता था। अश्फ़ाक़ उसे इस आदत पर टोकता और कहता कि ‘‘जब लोग तुम्हारे साथ ख़ुशअख़्लाक़ी से पेश आते हैं


तो तुम्हारा भी फ़र्ज़ है कि उन लोगों का शुक्रिया अदा करो।’’
शफ़ीक़ इस पर झुँझला कर रह जाता और कहता
‘‘बस-बस चुप रहो। मैं शुक्रिया अदा कर दिया करूँगा’’
और फिर आदत के मुताबिक़ भूल जाता। अम्मी भी शफ़ीक़ को उसकी आदत पर झिड़क देतीं


मगर वो ख़ामोश रहता और कभी कभी फ़क़त इतना कह देता।
‘‘अम्मी
मेरे पास वक़्त नहीं होता कौन लोगों का शुक्रिया अदा करता रहे।’’
ईद से चंद रोज़ पहले अश्फ़ाक़ और शफ़ीक़ को दोस्तों और रिश्तेदारों की तरफ़ से तोहफ़े वसूल हुए। उन्हें एक ही जैसे तहाइफ़ के पार्सल वसूल हुए


क्योंकि उनके दादा दादी और चचा दूसरे शहर में रहते थे।
चचा ने उन्हें एक एक नन्ही मुन्नी रेल-गाड़ी
आंटी ने उन्हें एक एक लड्डू और दादा और दादी अम्मां ने उन्हें टॉफ़ियों और मिठाईयों के पैकेट भेजे।
अम्मी ये तहाइफ़ देखकर बहुत ख़ुश हुईं और कहा।


‘‘अश्फ़ाक़ और शफ़ीक़
तुम दोनों बहुत ख़ुश-क़िस्मत हो। तुम्हें इतने ढेर सारे खिलौने और तोहफ़े मिले हैं
तुम्हें चाहिए कि उन्हें सँभाल कर रखो।’’
अश्फ़ाक़ ने कहा ‘‘अम्मी मैंने तो पिछली ईद के तोहफ़े भी सँभाल कर रखे हुए हैं।’’


अम्मी ने मुस्कुराते हुए कहा।
‘‘मगर मैं तुम्हें नहीं कह रही। मैं तो शफ़ीक़ से कह रही हूँ जो अपने खिलौने जल्द ही तोड़ देता है।’’
थोड़ी देर के बाद अम्मी ने कहा
‘‘तुम दोनों भाईयों का फ़र्ज़ है कि जिस जिसने तुम्हें तोहफ़े इरसाल किए हैं


उन्हें तुम शुक्रिये के ख़त लिखो।’’
शफ़ीक़ फ़ौरन बोल पड़ा ’’अम्मी
शुक्रिये के ख़त लिखने का फ़ायदा?’’
ये बात सुनकर अम्मी ने कहा।


‘‘बेटे शुक्रिया अदा करने से इन्सान के अख़्लाक़ का पता चलता है। शुक्रिया के ख़त लिखने का एक फ़ायदा तो ये होता है कि दूसरे आदमी को इल्म हो जाता है कि उसके भेजे हुए तोहफ़े तुम्हें मिल गए हैं और दूसरे ये कि तुम बड़े बा-अख़्लाक़ हो।’’
अम्मी की बात सुनकर शफ़ीक़ ला-जवाब हो गया। फिर दोनों भाई ये वा’दा कर के चले गए कि वो ईद के तोहफ़े भेजने वालों को शुक्रिया के ख़त लिखेंगे
शाम हो चुकी थी। खाना तय्यार होने में अभी एक घंटा बाक़ी था। अश्फ़ाक़ ने सोचा
‘‘क्यों ना इस वक़्त शुक्रिया के ख़त ही लिख दिए जाएँ।’’


वो अपने कमरे में चला गया और तोहफ़े भेजने वालों को ख़त लिखने लगा। सबसे पहले उसने चचा को शुक्रिये का ख़त लिखा। फिर आंटी को और आख़िर में दादा और दादी अम्मां को प्यार और मोहब्बत भरे ख़त लिखे वो ख़त लिख ही रहा था कि शफ़ीक़ कमरे में आगया। अश्फ़ाक़ ने उस से कहा
‘‘तुम भी ख़त लिख दो।’’
शफ़ीक़ भन्ना के बोला।
‘‘मैं इस वक़्त बैडमिंटन खेलने जा रहा हूँ। शुक्रिये के ख़त वापसी पर लिखूँगा’’


शफ़ीक़ खेल कर वापस आया तो बहुत थका हुआ था। उसने खाना खाया और बिस्तर पर लेट गया। उसे जल्दी ही नींद आगई। दूसरे दिन सुब्ह उठा
तो अश्फ़ाक़ के लिखे हुए ख़त अम्मी के सामने पड़े थे। अम्मी ने शफ़ीक़ की तरफ़ देखा तो वो जान छुड़ाने के अंदाज़ में बोलाः
‘‘अम्मी
मैं ये ख़त स्कूल से वापसी पर ज़रूर लिख दूँगा’’


स्कूल से छुट्टी के बाद शफ़ीक़ कुछ देर के लिए सो गया। फिर जागा
तो सह-पहर बीत रही थी। वो मुँह हाथ धोकर खेलने के लिए ग्रांऊड में चला गया और इस रात भी बड़े मज़े से सौ रहा।
अम्मी ने अश्फ़ाक़ के लिखे हुए ख़त पोस्ट करवा दिए थे। अगले दिन ये ख़त चचा
आंटी


दादा और दादी अम्मां को वसूल हो गए। वो ये ख़त पढ़ कर बहुत ख़ुश हुए। एक बात की उन्हें हैरानी भी थी कि शफ़ीक़ ने उन्हें कोई ख़त नहीं लिखा था। उधर शफ़ीक़ ये ख़त लिखने भूल गया था
क्योंकि कि वो वक़्त पर काम का आदी नहीं था।
इसी दौरान अश्फ़ाक़ और शफ़ीक़ की साल गिरह का दिन आगया। 22 मार्च की सुब्ह ठंडी ठंडी हवा चल रही थी। अश्फ़ाक़ और शफ़ीक़ रात की पार्टी के मुंतज़िर थे कि किसी ने दरवाज़े पर दस्तक दी। शफ़ीक़ ने बढ़कर दरवाज़ा खोला
तो सामने डाकिया खड़ा था उसने शफ़ीक़ से कहा।


‘‘अश्फ़ाक़ के नाम तोहफ़ों के कुछ पार्सल आए हैं।’’
‘‘क्या मेरा भी कोई तोहफ़ा आया है?’’
शफ़ीक़ ने धड़कते दल के साथ सवाल किया
और डाकिए के इनकार पर वो ख़ामोशी से अंदर चला गया और अश्फ़ाक़ को भेज दिया। डाकिए ने अश्फ़ाक़ को सालगिरा की मुबारकबाद दी और कहा।


‘‘क्या इस बार अकेले आपकी सालगिरा मनाई जा रही है?’’
अश्फ़ाक़ ने कहा। ‘‘नहीं तो।’’
डाकिए ने कहा। ‘‘आज सिर्फ़ आपके नाम तोहफ़े आए हैं।’’ ये कह कर डाकिए ने सारे पार्सल अश्फ़ाक़ के हाथों में थमा दिए। अश्फ़ाक़ ख़ुशी से फूले नहीं समा रहा था। वो तोहफ़े लेकर सीधा अम्मी के पास आया और कहने लगा। ‘‘मेरे नाम बहुत से तोहफ़े आए हैं।’’
अम्मी ने पूछा ‘‘शफ़ीक़ के लिए कोई तोहफ़ा नहीं आया?’’


अश्फ़ाक़ ने जवाब दिया।
‘‘अम्मी
सब पार्सलों पर तो मेरा नाम लिखा हुआ है। मैं उन्हें खोल कर देखता हूँ शायद उनमें शफ़ीक़ के लिए भी तोहफ़े रखे गए हूँ।’’
अश्फ़ाक़ ने जो पार्सल खोले


तो कोई भी तोहफ़ा शफ़ीक़ के लिए नहीं था। इन तहाइफ़ के साथ साथ एक ख़त भी था
जिसमें लिखा था
कि तुम्हारी तरफ़ से शुक्रिये का ख़त मिला। तुम बहुत अच्छे लड़के हो। इस बार अपनी सालगिरा पर ये तोहफ़े क़ुबूल करो।’’
ये अलफ़ाज़ सुनकर शफ़ीक़ की आँखों में आँसू आगए। अम्मी ने उसे याद दिलाया और कहा। ‘‘तुमने शुक्रिये के ख़त नहीं लिखे थे। मुम्किन है चचा


आंटी
दादा और दादी अम्मां ने सोचा हो कि तुम्हें उनके तोहफ़े पसंद नहीं आए।’’
‘‘नहीं नहीं अम्मी
ये बात नहीं।’’ शफ़ीक़ ने कहा और चुपके से अपने कमरे में चला आया और सबको शुक्रिया के ख़तों में लिखा और ख़त देर से लिखने की माफ़ी भी मांगी।


चंद रोज़ बाद उसे भी वैसे ही ख़ूबसूरत तोहफ़े वसूल हुए। ये तोहफ़े शफ़ीक़ ने अम्मी को दिखाये और इस रोज़ दोनों भाईयों की सालगिरा दुबारा मनाई गई।
उनकी अम्मी ने दावत के वक़्त मेहमानों से कहाः
‘‘आज से शफ़ीक़ और अश्फ़ाक़ दोनों अच्छे बच्चे बन गए हैं।’’

- एम-एस-नाज़


रात का वक़्त था। अंधेरा फैल चुका था कि हवेली के दरवाज़े पर किसी ने ज़ोर-ज़ोर से दस्तक दी। एक बुज़ुर्ग ने दरवाज़ा खोला तो बाहर एक नौजवान बेहोश पड़ा था। बुज़ुर्ग ने उसे उठाया और नरम-ओ-गुदगुदे बिस्तर पर लाकर लिटा दिया। नौजवान को होश आया तो उस के सामने सफ़ेद दाढ़ी वाले एक बुज़ुर्ग बैठे थे। उन्होंने मोहब्बत और शफ़क़त भरे लहजे में सवाल किया।
‘‘क्यों बेटा
तुम किस मुसीबत में फंसे हुए हो?’’
नौजवान ने लजाजत से बुज़ुर्ग के दोनों हाथ थाम लिए और कहा ''ख़ुदा के लिए मुझे अपनी पनाह में ले लीजिए।''


बुज़ुर्ग ने कुछ और पूछना मुनासिब ना समझा और कहाः
’’वो सामने वाला कमरा ख़ाली है। तुम शौक़ से उस में रहो। तुम मेरे मेहमान हो और मैं तुम्हारी पूरी पूरी हिफ़ाज़त करूँगा।''
नौजवान यहाँ आराम से रहने लगा। बुज़ुर्ग रोज़ाना सुब्ह-सवेरे उसे खाना देकर कहीं बाहर चले जाते और शाम होते थके-हारे परेशान हालत में वापस आजाते। उनके चेहरे की धूल से ऐसा लगता जैसे कोई शिकारी दिन-भर शिकार की तलाश में घूम फिर कर रात को मायूस घर लौटा हो।
नौजवान को ये मालूम ना था कि बुज़ुर्ग हर-रोज़ कहाँ जाते हैं।


एक रोज़ रात को बुज़ुर्ग अकेले बैठे थे। नौजवान उनके क़रीब पहुंचा और कहने लगा। ''आपने मुझे मेहमान बना कर और मेरी हिफ़ाज़त का वादा कर के मुझ पर बेहद एहसान किया है। मेरा दिल चाहता है कि आपकी इस मेहरबानी के सिले में आपके किसी काम आऊँ। आप हर-रोज़ सुब्ह-सवेरे कहाँ जाते हैं और शाम को परेशान और ग़मगीं क्यों वापस आते हैं? ''
ये सुनकर बुज़ुर्ग की आँखों में आँसू आगए। उन्होंने कहाः
’’बेटे
ये कहानी बड़ी दर्दनाक है। तुम उसे ना ही सुनो तो अच्छा है।''


नौजवान ने इसरार किया। ''नहीं बाबा
मैं आपकी कहानी ज़रूर सुनूँगा''
बुज़ुर्ग बोलेः अच्छा तुम ज़िद करते हो तो सुनो। इस शहर के गवर्नर का नाम इब्राहीम है। उसने मेरे इकलौते भाई को जान से मार डाला है। मेरा भाई बेगुनाह था। मैं इब्राहीम के ख़ून का प्यासा हूँ। वो गवर्नरी छोड़कर भाग गया है। पुलिस उसकी तलाश में छापे मार रही है। ख़लीफ़ा ने उसकी गिरफ़्तारी का इनाम चालीस हज़ार दिरहम मुक़र्रर कर रखा है लोग कहते हैं कि वो इसी शहर में कहीं छुपा हुआ है। मैं हर-रोज़ उसे ढ़ूढ़ने निकलता हूँ। मगर वो मेरे हाथ नहीं आता। एक-बार उसे पकड़ लूं
तो इनाम भी पाऊँ


और अपने भाई के ख़ून का बदला भी चुकाऊँ।''
ये सुनते ही नौजवान पर जैसे बिजली गिर पड़ी। वो सोचने लगा
मैं साँप से बचने के लिए गोया शेर के भट्ट में पहुँच गया हूँ मेरे मेज़बान ने मेरी जान बचाई है। मेरी ख़ातिर-तवाज़ो की है। मैं उसका शुक्रगुज़ार हूँ
मगर अब नज़र आ रहा है कि मैं ज़्यादा दिन अपनी जान नहीं बचा सकूँगा। इस के बाद नौजवान ने दिल में ठान ली कि अपनी कमबख़्त ज़िंदगी को बचाने की और कोशिश ना करूँगा। वो कई महीनों से अपनी जान बचाने के लिए मारा मारा फिर रहा था। पुलिस उसे तलाश करती हुई एक गाँव में पहुँचती


तो वो दूसरे गाँव में भाग जाता। अब उसके सामने कोई और रास्ता ना था कि वो पुलिस से बचने के लिए गाँव से निकल कर शहर चला जाये। क्योंकि शहर में लोग बहुत ज़्यादा होते हैं और इतने लोगों की आबादी में उसे पहचाने जाने का डर बहुत कम था।
एक रात वो छुपता छुपाता उसी हवेली के सामने पहुंच गया
जहाँ ये बुज़ुर्ग रहते थे। इसी बुज़ुर्ग के भाई को उसने नाहक़ क़त्ल करा दिया था आज वो उसी बुज़ुर्ग के सामने बैठा उनकी दर्दनाक कहानी सुन रहा था। बुज़ुर्ग की ज़बानी ये कहानी सुनकर नौजवान दिल कड़ा कर के बोल उठा।
’’मेरे बुज़ुर्ग


मैं ही गवर्नर इब्राहीम हूँ। मैंने ही आपके भाई का ख़ून किया है।''
बुज़ुर्ग ये सुनकर मुस्कुराए और बोले ‘‘मालूम होता है
तुम इस जवानी के आलम में ज़िंदगी से मायूस हो चुके हो जभी तुम अपने आपको इब्राहीम ज़ाहिर कर रहे हो।''
नौजवान ने कहा। ''नहीं नहीं बाबा


मैं अस्ली इब्राहीम हूँ। यक़ीन ना आए तो बे-शक पुलिस को बुला लीजिए।''
बुज़ुर्ग बोले ''तुम इस वक़्त मेरे मेहमान हो और मेरी पनाह में हो। इस्लाम का हुक्म है कि अपने मेहमान की हिफ़ाज़त करो और उसे कोई तकलीफ़ ना आने दो। इसलिए बेहतर है कि अब तुम रुपयों की ये थैली ले लो और यहाँ से चले जाओ
कहीं ऐसा ना हो कि मेरा ख़ून खौलने लगे और मैं इंतिक़ाम के जज़बे में तुम्हें क़त्ल कर दूँ या ख़लीफ़ा के हवाले कर दूँ।''
इस के बाद बुज़ुर्ग ने रुपयों की थैली पेश करते हुए नौजवान से कहा। ''तुम जितनी जल्दी हो सके यहाँ से चले जाओ।''


नौजवान ने कहा। ''बाबा
अब मैं यहाँ से नहीं जाऊँगा। आप बहुत नेक और रहम-दिल इन्सान हैं। मुझसे ग़लती हो गई कि मैंने आपके भाई का ख़ून किया। इस्लाम में ख़ून की सज़ा ख़ून ही है। मैं ज़्यादा देर ज़िंदा नहीं रहना चाहता। आप मुझे पकड़ कर ख़लीफ़ा के सामने पेश कर दें। मैं चाहता हूँ कि मुझे जल्द से जल्द फांसी के तख़्ते पर लटका दिया जाये।''
बुज़ुर्ग का दिल ये बातें सुनकर रहम के जज़बे से भर गया। उन्होंने कहा ''इस्लाम में उस शख़्स की बड़ाई और तारीफ़ बयान की गई है
जो रहम-दिल और नेक हो और अपने दुश्मन को माफ़ कर दे।''


बुज़ुर्ग की इस बात पर नौजवान की आँखों में आँसू आगए। वो उनकी तरफ़ इल्तिजा भरी नज़रों से देख रहा था कि बुज़ुर्ग फ़ौरन बोल उठे। ''जाओ मैंने तुम्हें माफ़ कर दिया।''
नौजवान ये सुनकर बुज़ुर्ग से लिपट गया। उन्होंने उसे प्यार से थपकी दी और फिर उसे साथ लेकर ख़लीफ़ा के महल की तरफ़ चल पड़े। शाम हो चुकी थी। जब वो ख़लीफ़ा के महल में पहुंचे
उस वक़्त ख़लीफ़ा महल के चमन में अपने वज़ीरों के साथ टहल रहा था। इब्राहीम के चेहरे को देखते ही उसे ग़ुस्सा आगया
मगर बुज़ुर्ग ने सर झुकाते हुए सलाम किया और कहने लगे। ''हुज़ूर


मैंने अपने भाई के क़ातिल को माफ़ कर दिया है।'' इस के बाद इब्राहीम ने आगे बढ़कर ख़लीफ़-ए-वक़्त के हाथ चूम लिए और उन से वादा किया कि आइंदा ज़िंदगी में वो कभी किसी पर ज़ुल्म नहीं करेगा। ख़लीफ़-ए-वक़्त ने बुज़ुर्ग के कहने पर इब्राहीम को माफ़ कर दिया और उसे दुबारा कूफ़े शहर का गवर्नर बना दिया। कहते हैं कि गवर्नर इब्राहीम ने बाक़ी सारी उम्र अल्लाह की याद में गुज़ारी
और ग़रीबों की बड़ी ख़िदमत की।
जानते हो बच्चो उस ख़लीफ़ा का क्या नाम था? उस का नाम था ''सफ़्फ़ाह'' वो बग़दाद का ख़लीफ़ा था
जो कहा करता था कि ग़रीबों से इन्साफ़ करो। इन्साफ़ का हमेशा बोल-बाला होता है।


प्यारे बच्चो!
अगर हम भी ऐसी नेक बातों पर अमल करें
तो दुनिया हमको कभी ना भूलेगी।

- एम-एस-नाज़


जाजी का अस्ली नाम तो किसी को मालूम नहीं
अलबत्ता सब उसे पेटू मियां कहते थे। पेटू भी ऐसे कि सारा बावरीचीख़ाना चट कर के भी शोर मचाते थे। ‘‘हाय मैं कई दिनों से भूका हूँ और कमज़ोर हो रहा हूँ
कोई भी मुझ ग़रीब पर तरस नहीं खाता।’’ और अम्मी झट से उस के आगे मुख़्तलिफ़ चीज़ें रख देतीं मगर वो ज़िद कर के कहते। ‘‘मैं तो चीनी खाऊंगा खा’’ खा के पेटू मियां तो फूल कर कुप्पा हो चुके थे। उनकी डेढ़ मन वज़नी तोंद तो चीनी की बोरी मालूम होती थी। फिर लिबास में नैकर पहन लेते और सर पर पठानों जैसी टोपी। अक्सर देखा गया कि उनकी जेब में चोरी के बिस्कुट होते और वो ठिठुरती सर्दी में कोट पहने बड़े मज़े से कुलफ़ी
खोए


मलाई
वाली खा रहे होते। क़रीब से आम पापड़ बेचने वाला गुज़र रहा होता
तो उसे भी आवाज़ देकर ठहरा लेते और फिर सब कुछ खा पी के भी बावर्चीख़ाने में आ धमकते और कहते ‘‘हाय अम्मी
बड़ी सख़्त भूक लगी हुई है। बस चीनी का एक पराठा पक्का दीजिए ना!’’ मज़े की बात तो ये थी कि चीनी का पराठा भी चीनी के साथ खाते और साथ साथ मीठा शर्बत पीते जाते।


पेटू मियां की उम्र 13 साल थी। वो आठवीं जमात में पढ़ते थे। घर से स्कूल जाते और हफ़्ते में दो एक-बार स्कूल जाने की बजाय रास्ते ही में नौ दो ग्यारह हो जाते। बल्लू और काका को साथ लेते और सीधे बाग़ में
ग़ुलेल से चिड़ियों का शिकार करने पहुंच जाते। बेचारी चिड़ियों को भून भून कर खाने में उन्हें ख़ुदा जाने क्या लुत्फ़ आता था।
पेटू मियां को अपने नाम से बहुत चिड़ थी। जब कोई उन्हें पेटू मियां कह कर बुलाता
उस से नाराज़ हो जाते और बाज़-औक़ात लड़ने झगड़ने और मरने मारने पर उतर आते। फिर ख़ुद ही रोते हुए अम्मी के पास चले आते और कहते ‘‘मैं तो सिर्फ़ आठ दस रोटियाँ


बिस्कुट के तीन चार डिब्बे
टॉफ़ियों का एक अदद पैकेट और ज़्यादा से ज़्यादा सालन की आधी देगची खाता हूँ। इस के बावजूद सब मुझे पेटू कह कर छेड़ते हैं।’’ अम्मी
पेटू मियां का प्यार से मुँह चूमने लगतीं और कहतीं। ‘‘बड़े गंदे हैं वो लोग
जो मेरे लाल को पेटू कह कर छेड़ते हैं। वो तो मेरे जाजी को नज़र लगा देंगे।’’


अम्मी के इस प्यार पर पेटू मियां मासूम नज़रों से सवाल करते। ‘‘बड़ी भूक लगी हुई
अम्मी
बस चीनी का एक पराठा पका दीजिए।’’ और इस तरह दिन में उन्हें कई बार चीनी का पराठा खाने को मिल जाता। अब्बा जान उन्हें मना करते कि चीनी ज़्यादा ना खाया करो
बीमार हो जाओगे। मगर पेटू मियां सुनी अन-सुनी कर देते और जवाब में कहते


‘‘चीन के लोग भी तो चीनी खाते हैं
वो क्यों बीमार नहीं होते?’’ ज़्यादा खाने की वजह से पेटू मियां को क्लास में बैठे-बैठे नींद आजाती। वो ख़र्राटे लेने लगते तो सारे लड़के हँसने लगते। मास्टर जी की भी हंसी निकल आती और पेटू मियां घर आकर अम्मी
अब्बू से कहते कि स्कूल के लड़के उनक़ा मज़ाक़ उड़ाते हैं। अम्मी ने एक दिन कहा कि तुम दिन-ब-दिन मोटे होते जा रहे हो
खेला कूदा करो


ठीक हो जाओगे। पेटू मियां की समझ में ये बात तो आ गई
मगर उन्होंने बार-बार खाने की आदत को तर्क ना किया और वो पेटू के पेटू रहे।
एक इतवार
पेटू मियां के अब्बा ने घर में अपने दोस्तों को एक दावत पर बुलाया। वो हफ़्ते की रात ही मिठाई ले आए थे। ये मिठाई बावर्चीख़ाने की अलमारी में रखी हुई थी। पेटू मियां को इस का इल्म हो गया। रात के वक़्त जब सब मीठी नींद सोए हुए थे


पेटू मियां आराम से बिस्तर से उठे और सीधे बावर्चीख़ाने में पहुंच गए। बत्ती भी ना जलाई कि कहीं चोरी ना पकड़ी जाये। उन्होंने जल्दी जल्दी में पहले बर्फ़ी पर हाथ साफ़ किए
फिर लड्डू और बालूशाही खाए। इसी दौरान में साबुन का एक टुकड़ा भी हाथ लग गया। पेटू मियां उसे बर्फ़ी समझ कर निगल गए। जब उन्हें तसल्ली हो गई कि किलो भर मिठाई चट हो गई है
तो चुपके से दुबारा बिस्तर पर आकर लेट गए। अभी आँख ना लगी थी कि उनकी तबीयत ख़राब होने लगी। पेट में कुछ दर्द महसूस होने लगा। और फिर एक ऐसी क़ै आई कि घर के सब लोग जाग पड़े। अब्बा बावर्चीख़ाने से हाज़मे का चूर्ण लेने गए
तो मिठाई का डिब्बा ख़ाली पड़ा था। वो सारी बात समझ गए। पेटू मियां के पास आकर पूछने लगे


तो उन्होंने साफ़ साफ़ कह दिया कि मैंने मिठाई खाई है। पेटू मियां हाज़मे के चूर्ण से ठीक ना हो सके
रात-भर उनकी तबीयत ख़राब रही। सुब्ह होते ही डाक्टर को बुलाया गया
तो पता चला कि पेटू मियां कहीं अंधेरे में मिठाई के साथ साबुन भी खा गए हैं। पेटू मियां ने ये सुना तो ज़ोर ज़ोर से चिल्लाना शुरू कर दिया। ‘‘मुझे बचाओ
मैं कभी चोरी की मिठाई ना खाऊंगा’’ इस के बाद उन्होंने अल्लाह से दुआ मांगी। उन्हें चंद रोज़ में आराम आगया


और उन्होंने चोरी से तौबा कर ली। फिर एक रोज़ पेटू मियां दोस्तों के साथ चिड़ियों के शिकार को गए
तो एक मदारी का भालू रस्सी तुड़वा कर बाग़ में पहुंच गया। पेटू मियां के कुछ दोस्त तो भाग गए और बाक़ी दरख़्त पर चढ़ गए। अब पेटू मियां की शामत आगई। वो दरख़्त पर चढ़ ना सके। उनसे दौड़ा भी ना जा रहा था। वो हाँपते काँपते एक झाड़ी के पीछे छुप गए। इतने में लोगों का शोर सुनाई दिया। ‘‘दौड़ो
पकड़ो
जाने ना पाए।’’ फिर बंदूक़ चलने की आवाज़ आई।


पेटू मियां ने झाड़ी की ओट से झाँका
तो भालू ज़ख़्मी हो कर ज़मीन पर पड़ा तड़प रहा था। पेटू मियां अकड़ फ़ूं दिखाते हुए झाड़ी से बाहर निकले। उस वक़्त तक बहुत से लोग वहाँ पहुँच चुके थे।
‘‘जान बची
सो लाखों पाए’’ पेटू मियां ने अल्लाह का फिर शुक्र अदा किया। घर आकर नमाज़ें पढ़ीं और लगे दुआएँ करने


‘‘या मौला
मेरे मोटे पेट पर रहम कर’’ अम्मी
पेटू मियां की ज़बानी ये दुआ सुनकर ठहर गईं और बोलीं ‘‘तुम अगर वादा करो कि कम खाया करोगे
तो तुम्हारी दुआ ज़रूर क़ुबूल होगी।’’


पेटू मियां ने मुसल्ले पर बैठ कर वादा किया कि वो आइन्दा से बद-परहेज़ी नहीं करेंगे।
वो दिन और आज का दिन
पेटू मियां स्कूल से कभी नहीं भागे और ना ही चिड़ियों का शिकार करने जाते हैं
कम खाते हैं और कम बोलते हैं


झूट नहीं बोलते और ना ही स्कूल से छुट्टी करते हैं। सुब्ह-सवेरे उठते हैं। नमाज़ पढ़ते हैं और ये दुआ ज़रूर मांगते हैं कि ‘‘अल्लाह मियां मेरे पेट को छोटा कर दे।’’
सुना है कि पेटू मियां की दुआ अभी तक क़ुबूल नहीं हुई।
इन दिनों पेटू मियां हरवक़्त ये नज़्म गाते रहते हैं।
तौबा तौबा दुहाई


मैं नहीं हूँ पेटू भाई
हर दम चरना काम था मेरा
अब खाता हूँ बस दूध मलाई
लेकिन फिर भी हाल वही है


ढंग वही है चाल वही है
पेटू मियां वैसे के वैसे ही हैं। आजकल उन्हें ये ग़म खाए जा रहा है कि मैं मोटा हूँ। इसी ग़म में वो और भी मोटे होते जा रहे हैं।

- एम-एस-नाज़


अमजद बहुत प्यारा गोल मटोल सा लड़का था। वो पांचवीं जमात में पढ़ता था। अपना सबक़ फ़रफ़र सुनाता तो उस्ताद बहुत ख़ुश होते। घर में अपनी अम्मी के कामों में मदद करता तो वो ख़ुश हो कर उसे अपने सीने से चिमटा लेतीं। शाम को उस के अब्बा जान घर आते तो वो दौड़ कर उनसे लिपट जाता।
ग़रज़ हर कोई उस से प्यार करता था। क्योंकि वो माँ बाप का कहना मानता था। उनका अदब करता था।
एक दिन वो बाग़ की सैर करने गया। जिस वक़्त वो बाग़ में पहुंचा
दूर दूर तक कोई आदमी ना था। हर तरफ़ फूल खिले थे। हल्की हल्की हवा चल रही थी


अचानक हवा का एक तेज़ झोंका उसके चेहरे से टकराया। फिर परों के फड़फड़ाने की आवाज़ आई। जैसे कोई बड़ा सा परिंदा फ़ड़फ़ड़ाता हो। अमजद डर गया। उसने चारों तरफ़ देखा लेकिन कोई परिंदा उसे नज़र ना आया। अभी वो हैरान ही हो रहा था कि एक बारीक सी आवाज़ सुनाई दी।
‘‘प्यारे प्यारे मुन्ने। तुम हैरान हो कर चारों तरफ़ क्या देख रहे हो?’’
अमजद ने घबरा कर चारों तरफ़ देखा लेकिन दूर और नज़दीक उसे कोई नज़र ना आया
आवाज़ फिर आई ‘‘तुम बहुत अच्छे हो और बहुत प्यारे हो क्योंकि तुम्हारी आदतें बहुत अच्छी हैं।’’


अमजद डरने लगा कि ये आवाज़ें कहाँ से आरही हैं। आख़िर उसने हिम्मत कर के पूछा।
‘‘तुम कौन हो
मुझे तो यहां कोई भी दिखाई नहीं दे रहा है।’’
‘‘मैं तुम्हारी दोस्त हूँ। तुम अपने माँ बाप का कहना मानते हो


स्कूल का काम वक़्त पर करते हो। किसी को दुख नहीं देते
किसी को तंग नहीं करते। गंदे बच्चों के साथ नहीं खेलते। तुम अमजद हो ना।
‘‘हाँ
मैं अमजद हूँ मगर तुम कौन हो?।’’


‘‘मैं। मैं एक परी हूँ। ये सब्ज़परी है।’’
सब्ज़परी ‘‘अमजद ने हैरान हो कर कहा’’
‘‘हाँ मुझसे डरने की ज़रूरत नहीं’’
‘‘मगर तुम मुझे नज़र क्यों नहीं आतीं?’’


‘‘ऐसा हो सकता है
लेकिन तुम्हें इस के लिए एक वादा करना होगा और वो ये कि तुम किसी से मेरा ज़िक्र नहीं करोगे’’
‘‘मैं वादा करता हूँ।’’
इसी वक़्त फिर हवा का एक तेज़ झोंका उस के चेहरे से टकराया। पैरों की फड़ फड़ाहट सुनाई दी। दूसरे ही लम्हे सब्ज़परी उड़ती हुई उस के पास आकर रुक गई। उस का सारा जिस्म सब्ज़ था


सिर्फ़ बाल काले थे।
‘‘तो तुम हो सब्ज़परी’’ अमजद ने कहा
हाँ और मैं तुम्हारी दोस्त हूँ
‘‘क्या तुम मुझे हर-रोज़ इस जगह मिलने आया करोगी?’’


‘‘हाँ और तुम्हारे लिए अच्छे अच्छे फल भी लाया करूँगी’’ परी ने कहा
‘‘इस की क्या ज़रूरत है
अब्बा जान मुझे हर-रोज़ फल ला कर देते हैं।’’
‘‘परस्तान में फलों के लाखों दरख़्त हैं। वो तुम्हारे हाँ के फलों से ज़्यादा मज़ेदार होंगे’’


अच्छा। फिर तो मैं ज़रूर खाऊंगा
और मैं तो तुम्हारे लिए आज भी लाई हूँ। ये देखो।’’
अमजद ने परी के हाथ में दो सेब देखे। ये बिलकुल सुर्ख़ थे। अमजद ने उनमें से एक लेकर कहा
‘‘एक तुम खाओ’’


दोनों सेब खाने लगे
‘‘परी बाजी
ये सेब तो वाक़ई बहुत मज़े का है।’’ अमजद ख़ुश हो कर बोला
‘‘कल मैं तुम्हें परस्तान का केला ख़िलाऊँगी। अच्छा अब मैं चलती हूँ।’’


हवा का झोंका अमजद के चेहरे से टकराया और परी ग़ायब हो गई
दूसरे दिन वो ठीक वक़्त पर बाग़ में पहुंच गया। आज यहां कुछ और लोग भी टहल रहे थे। उसने सोचा
शायद उन लोगों की मौजूदगी में परी ना आए। लेकिन जूंही वो इस दरख़्त के नीचे पहुंचा
हवा का झोंका आया और परी उस की आँखों के सामने थी।


परी बाजी ये दूसरे लोग तुम्हें देख लेंगे। अमजद ने घबरा कर कहा
‘‘मैं उन्हें नज़र नहीं आऊँगी’’
‘‘अच्छा। ये तो बड़े मज़े की बात है’’
‘‘मैं तुम्हारे लिए दो केले लाई हूँ।’’


अमजद ने देखा
उस के हाथ में दो लंबे लंबे सब्ज़-रंग के केले थे। दोनों ने एक एक केला खाया
दिन यूंही गुज़रते रहे। वो हर-रोज़ परी से मिलता रहा। एक दिन वो परी से मिलने के लिए घर से निकला। कुछ दूर ही चला होगा कि सड़क पर एक बूढ़ी औरत खड़ी दिखाई दी। इस के पैरों के पास एक गठरी पड़ी थी।
‘‘बेटा ज़रा ये गठरी तो उठा कर मेरे घर पहुंचा दो’’ वो बोली


अमजद रुक गया। उसने बूढ़िया को ग़ौर से देखा। वो बुरी तरह हांप रही थी। अमजद को उस पर रहम आगया। वो गठरी उठाने के लिए झुका ही था कि उसे सब्ज़परी का ख़्याल आगया
उसने सोचा अगर मुझे देर हो गई तो परी चली जाएगी और मैं मज़ेदार आड़ू खाने से रह जाऊँगा। आज परी ने आड़ू लाने का वा‘दा किया था।
वो बूढ़िया से बोला ‘‘बूढ़ी अम्मां मुझे एक ज़रूरी काम है
इसलिए मैं तुम्हारी मदद नहीं कर सकता।’’ ये कह कर वो आगे बढ़ गया। बाग़ में वो सीधा उस दरख़्त के नीचे आया लेकिन आज ना कोई हवा का झोंका आया


ना परों की आवाज़ उस के कानों में आई। वो घबरा गया
परेशान हो कर बोला ‘‘परी बाज़ी आज तुम कहाँ हो। देखो तुम्हारा दोस्त आगया है। वो तुम्हें पुकार रहा है।’’ उसने ख़ामोश हो कर इधर उधर देखा। परी का दूर दूर तक पता ना था। दो तीन मर्तबा उसने परी को पुकारा
लेकिन कोई भी जवाब ना मिला। अब तो उसकी मायूसी की कोई हद ना रही। काफ़ी देर तक इंतिज़ार करने के बाद भी जब परी ना आई तो वो उदास हो गया और घर लौट आया
सारी रात उसे नींद ना आई। वो सोचता रहा। आज परी क्यों नहीं आई। मैंने तो उस के मुतअल्लिक़ किसी को बताया भी नहीं। कहीं वो बीमार ना हो गई हो शायद उसे बुख़ार हो गया हो। या फिर नज़ला ज़ुकाम ना हो गया हो। हो सकता है उसे ठंड लग गई हो और निमोनिया हो गया हो।


रात-भर वो सोचता रहा फिर ना जाने कब उस की आँख लग गई। दूसरे दिन वो फिर मुक़र्ररा वक़्त पर बाग़ में पहुंच गया
लेकिन परी उस दिन भी ना आई। फिर तीन दिन इसी तरह गुज़र गए। चौथे दिन उस की आँखों में आँसू झिलमिला उठे और वो हमेशा हमेशा के लिए मायूस हो गया।
ऐ’न उसी वक़्त हवा का एक तेज़ झोंका उस के चेहरे से टकराया
परों की आवाज़ आई। वो ख़ुश हो गया। इस का चेहरा खिल उठा। दूसरे ही लम्हे परी उस की आँखों के सामने थी।


‘‘परी बाजी तुम चार दिन कहाँ रहीं।’’ उसने शिकायत भरे लहजे में कहा
‘‘मैं तुमसे नाराज़ हूँ।’’ परी बोली
‘‘क्यों परी बाजी मैंने तो किसी से आपका ज़िक्र तक नहीं किया।’’
‘‘ये ठीक है


लेकिन क्या तुम जानते हो
इस दुनिया में सबसे बड़ी नेकी क्या है। दूसरी के काम आना। इस दुनिया के सरदार प्यारे नबी हज़रत मोहमम्मद भी दूसरों के काम आया करते थे। वो बूढ़ी औरतों का बोझ ख़ुद उठा लिया करते थे
और तुम ... तुमने चंद आड़ूओं की ख़ातिर उस बूढ़ी औरत की मदद नहीं की।’’
‘‘ओह!’’ अमजद के मुँह से निकला। अब उसे परी के ना आने की वजह मालूम हुई


‘‘जब मैंने देखा कि तुमने बूढ़ी औरत की मदद नहीं की तो मैं तुमसे नाराज़ हो गई और इसलिए तुम्हारे पास नहीं आई।’’
‘‘परी बाजी मुझे माफ़ कर दो मुझसे बड़ी भूल हुई। अब ऐसी ग़लती मुझसे कभी नहीं होगी। मैं हमेशा दूसरों के काम आऊँगा। ग़रीबों
यतीमों और बूढ़ों के काम आऊँगा’’
अमजद बोला


‘‘शाबाश अब हम फिर दोस्त हैं। मैं तुम्हें बताऊं
वो बूढ़िया मैं ही थी और तुम्हारा इम्तिहान लेना चाहती थी।’’
अमजद सब्ज़परी की बात सुनकर हैरान रह गया।

- इशतियाक़-अहमद


بارش کی پہلی پھوار کے ساتھ ہی سارا ماحول بدل گیا تھا۔ کل سے اسکول کھل جائیں گے اس احساس سے گھر کے تمام بچوں میں ایک عجیب سی امنگ پیدا کر دی تھی۔ بازاروں میں ہر طرف خریداروں کی چہل پہل تھی جن میں اکثر بچے اور ان کے والدین تھے۔ سب کتابوں اور یونیفارم کی خریداری میں مصروف تھے۔
شگفتہ شام ڈھلے شہر کے سپر مارکیٹ سے اسکول کے لئے ضروری چیزیں خرید کر اپنے والد کے ساتھ لوٹی تو اسے دیکھتے ہی اس کا چھوٹا بھائی مزمل دوڑ پڑا اور اس کے لئے خریدی گئی چیزوں سے بھرا بیگ دیکھ کر خوش ہو گیا۔ اس نے تمام کتابیں کاپیاں اور یونیفارم دیکھ کر اطمینان کر لیا۔ جب اس کی نظر شگفتہ کے بیگ پر پڑی تو اسے فوراً محسوس ہوا کہ اس کا بیگ باجی کے بیگ سے چھوٹا ہے۔ شگفتہ کو اس نے یہ بات بتائی تو وہ اسے سمجھانے لگی کہ میری کتابیں اور بیاضیں بھی تو تم سے زیادہ ہیں۔ تمہارا بیگ چھوٹا ضرور ہے پھر بھی میرے بیگ سے زیادہ مہنگا اور خوبصورت بھی تو ہے۔ یہ سن کر مزمل خاموش ہو گیا۔
شگفتہ نے جب اپنے بیگ کا جائز ولیا تو سر پر ہاتھ مار کر بولی: ’افوہ! خاص چیز تو رہ ہی گئی، کمپاس بکس چھوٹ گیا نا!‘
’کیا دکان پر رہ گیا؟‘


’نہیں، مجھے یاد ہی نہیں رہا۔ اسی دوران مزمل نے اپنا بیگ کھولا تو اچھل پڑا ’ارے واہ کمپاس بکس‘
’یہ تمہارے بیگ میں کیسے آگیا، مگر ہم نے یہ خریدا تو نہیں تھا۔‘ شگفتہ کچھ سوچتی ہوئی ’بولی اچھا،۔۔۔ یہ گفٹ ہے جہاں سے یہ خریدا گیا ہے، اس دکاندار نے کہا تو تھا کہ اس کے ساتھ اس کے اندر کوئی گفٹ بھی ہو گا۔ ہم وہاں دیکھنا بھول گئے تھے۔۔۔۔ مگر یہ تمہارے کسی کام کا نہیں۔۔۔ مزّمل یہ تم مجھے دے دو۔‘
نہیں یہ میرے بیگ میں نکلا ہے میرا ہے، میں کیوں دوں؟ مزمل اڑ گیا اور اسی بات پر ان دونوں میں چھینا جھپٹی شروع ہوگئی اور نوبت مار پیٹ تک پہنچ گئی۔
امی نے دونوں کو سمجھانے کی لاکھ کوشش کی مگر مزّمل ماننے کو تیار نہ تھا۔


تھک ہار کرامی نے شگفتہ سے کہا، ’بیٹی! تم بڑی ہو سمجھدار ہو، یہ تو نالائق ہے۔ تم ہی مان جاؤ، کل بازار سے نیا کمپاس بکس خرید لینا۔
بات خریدنے کی نہیں ہے امی جب گھر میں ایک چیز موجود ہے اور وہ کسی کے کسی کام کی نہیں، تو دوسری خریدنا کیا فضول خرچی نہیں ہے۔‘
’وہ تو ہے مگر اس لڑکے کی بے عقلی کا علاج بھی تو نہیں۔‘ یہ سن کر شگفتہ خاموش ہوگئی۔
رات گئے جب سب سونے کے لئے بستر پر لیٹے تو امی نے انہیں ایک کہانی سنائی۔


ایک چھوٹا سا گاؤں تھا۔ اس میں دولوگ بہت مشہور تھے۔ عبدالرحمن اور شیخ رحیم۔ دونوں بڑے نیک اور پار سا تھے۔ سب ان کی عزت کیا کرتے تھے۔ ان دونوں کا زیادہ تر وقت اپنے گھر اور کاروبار کے علاوہ مسجد میں گزرتا تھا۔ ایک مرتبہ عبدالرحمن کو کسی کام کے لئے روپیوں کی ضرورت پیش آئی اور وہ رقم جٹانے کے لئے اسے اپنا کھیت بیچنا پڑا۔ شیخ رحیم مالی اعتبار سے آسودہ حال تھا۔ اس نے وہ کھیت مناسب داموں میں خرید لیا۔ چند دنوں بعد جب شیخ رحیم نے سوچا اس کھیت میں پیڑ لگانے چاہئے۔ جب اس نے وہاں موجود کنویں کو دیکھا تو وہ بالکل سوکھا ہوا تھا۔ شیخ رحیم نے مزدوروں کو بلوایا اور ایک نیا کنواں کھودنے کا حکم دیا۔ کنواں کھودنے کا کام جاری تھا کہ ایک دن مزدوروں نے عبدالرحیم کو بتایا زمین میں کوئی سخت چیز نکل آئی ہے اسے کھود کر باہر نکالا گیا تو سب کی آنکھیں پھٹی کی پھٹی رہ گئیں۔ یہ ایک بہت بڑا صندوق تھا جو سونے کے زیورات سے بھرا ہوا تھا۔ خزانہ نکلنے پر مزدوروں نے عبدالرحیم کو مبارک باد دی اور کہا ’اس میں ہمارا بھی حصہ ہونا چاہئے۔‘
عبدالرحیم نے اس صندوق کو دیکھا تو پریشان ہو گیا۔ بہت دیر تک سوچتا رہا اور پھر کہا۔ یہ خزانہ ہمارا نہیں ہے، ہم نے عبدالرحمن سے صرف زمین خریدی ہے۔ یہ کھیت اس کا تھا اس لیے یہ صندوق بھی اسی کا ہے ہمیں اسے لوٹا دینا چاہیے۔
اس نے اپنے غلام کو عبدالرحمن کے گھر بھیج کر اسے کھیت میں بلوایا اور پورا ماجرا کہہ سنایا، پھر صندوق اس کے حوالے کرتے ہوئے کہا بھائی یہ تمہاری امانت ہے، لے جاؤ۔ عبدالرحمن نے کہا، ’میں نے تمہیں کھیت بیچ دیا تھا اس کے بعد اس کھیت میں موجود ہر چیز تمہاری ہے۔ اس صندوق پر میرا کوئی حق نہیں۔‘
دونوں وہ صندوق ایک دوسرے کے حوالے کرنے کی کوشش کرتے رہے۔ جب بات نہ بنی تو معاملہ اس بستی کے قاضی کے پاس گیا ۔ قاضی صاحب بھی اس عجیب و غریب مقدمہ کو سن کر حیران تھے اور خوش بھی ہوئے یہ سوچ کر کہ ان کی بستی میں ایسے نیک اور بے غرض انسان موجود ہیں جن کے دل میں دولت کا ذرا بھی لالچ نہیں۔ قاضی صاحب نے بہت غور و خوص کے بعد عبد الرحمن سے پوچھا تمہارے کتنے بچے ہیں؟


’میری ایک ہی لڑکی ہے۔‘
کیا عمر ہے اس کی؟
’ یہی کوئی بیس سال۔‘
’کیا اس کی شادی ہو چکی ہے؟‘


’نہیں میں اس کے لئے مناسب رشتے کی تلاش میں ہوں، میں نے یہ کھیت اس لئے بیچا تھا، تا کہ اس کی شادی کا سامان کر سکوں۔‘
پھر قاضی صاحب نے عبدالرحیم سے سوال کیا۔ آپ کی کتنی اولادیں ہیں؟
عبدالرحیم نے جواب دیا، ’میرا ایک بیٹا ہے،
کیا عمر ہے اس کی، کیا اس کی شادی ہو چکی ہے؟‘


’جی نہیں یہی کوئی پچیس سال کا ہوگا، ابھی اس کی شادی نہیں ہوئی ہے۔‘
’پھر تو معاملہ بہت آسان ہے، عبدالرحمن صاحب آپ اپنی بیٹی کا نکاح عبدالرحیم صاحب کے بیٹے سے کر دیں اور یہ خزانہ ان دونوں کو دے دیں۔‘ آپ دونوں کا مسئلہ بھی حل ہوجائے گا اور یہ دولت بھی آپ دونوں ہی کے گھر میں رہے گی۔
عبدالرحمن نے اسے قبول کر لیا۔
قاضی صاحب کے اس فیصلے کو سن کر بستی کے لوگ ایک بار پھر ان کی عقلمندی کے قائل ہو گئے۔


شگفتہ اور مزمل کو یہ کہانی بہت پسند آئی۔ اسی کہانی کے بارے میں سوچتے سوچتے دونوں نیند کی آغوش میں پہنچ گئے۔
اگلی صبح جب شگفتہ نے اسکول جانے سے پہلے اپنا بیگ نکالا اور کتابیں رکھنے لگی تو اس نے دیکھا۔ اس میں کمپاس بکس رکھا ہوا تھا۔ مزمل اسی کمرے میں اپنے کھلونوں سے کھیل رہا تھا۔ شگفتہ اس کے لئے رنگ برنگے پلاسٹک کے بلا کس کا سیٹ لائی تھی، انھیں جوڑ کر وہ ایک گھر بنارہا تھا۔
’مزمل! یہ کمپاس بکس یہاں تم نے رکھا ہے؟‘ شگفتہ نے اس پوچھا
’ہاں‘۔۔۔۔ گفٹ ہے۔ آپ کے لئے‘


’مزّمل کے چہرے پر معصوم سی مسکراہٹ تھی۔
شگفتہ نے آگے بڑھ کر اسے ’میرا پیارا بھائی‘ کہہ کر گلے لگا لیا۔

- محمد-اسد-اللہ


شاکر اور انور گہرے دوست تھے۔ دونوں تیسری جماعت میں پڑھتے تھے۔ ساتھ اسکول جاتے اور ساتھ واپس آتے۔ ساتھ ہی اسکول کا کام کرتے اور رات کے وقت گلی کے بچوں کے ساتھ آنکھ مچولی کھیلتے۔ شاکر کے والد شیخ صاحب اور انور کے والد ملک صاحب دونوں ان کی دوستی سے بہت خوش تھے، اور اس دوستی نے ان کو بھی دوست بنا دیا تھا۔ ان کی دوستی سے پہلے شیخ صاحب اور ملک صاحب ایک دوسرے کے دوست نہیں تھے۔ دونوں کےگھر ایک ہی گلی میں تھے۔
رات کا وقت تھا۔ سب بچے آنکھ مچولی کھیل رہے تھے ۔ شاکر انور کی آنکھیں بند کیے بیٹھا تھا۔
جب سب بچے چُھپ گئے تو وہ بھی اسے آنکھیں بند کیے رہنے کا کہہ کر وہاں سے اُٹھا اور انور کے گھر میں چھپ گیا۔ انور نے آنکھیں کھول کر دیکھا اور پوری گلی میں بچوں کو تلاش کرتا پھرا۔ پھر اپنے گھر میں گھس گیا اور شاکر کو پکڑ لیا۔ ساتھ ہی اُس نے شور مچا دیا۔ چور پکڑا گیا، چور پکڑا گیا، سب بچے اپنی جگہوں سے نکل آئے۔ شاکر نے غصے میں آکر کہا:
’’تم نے ضرور آنکھیں کھول کر دیکھ لیا ہوگا، ورنہ میں نہ پکڑا جاتا؟‘‘


’’نہیں میں نے نہیں دیکھا۔ تمہیں چور بننا پڑے گا۔‘‘
’’میں چور نہیں بنوں گا۔‘‘ شاکر نے انور کو دھکا دیا۔ بس پھر کیا تھا، دونوں جھگڑ پڑے، انور نے اُس کے منہ پر ایک مُکّا دے مارا، شاکر نے اس کی ٹھوڑی پر جوابی حملہ کیا۔ اب تو ان میں باقاعد لڑائی ہونے لگی ۔ کسی نے اُنھیں الگ کرنے کی کوشش نہیں کی۔
اچانک انور نیچے گر گیا، شاکر اس کے اوپر سوار ہوگیا۔ عین اسی وقت انور کے والد ملک صاحب کسی کام سے گھر سے باہر نکلے۔ اُنھوں نے شاکر کو انور پر سوار دیکھا تو ان کی طرف لپکے اور شاکر کو پکڑ کر اس کے تین چار تھپڑ جما دیئے جب وہ اس کے تھپڑ مار رہے تھے، شیخ صاحب بھی کسی کام سے گھر سے نکلے۔ انھوں نے اپنے بیٹے کو پٹتے دیکھا تو ملک صاحب پر جھپٹ پڑے۔ دونوں میں پہلے تو تُو تُو مَیں مَیں ہوئی پھر مُکّا ڈکی ہونے لگی۔ محلے کے لوگ بھی اُن کی طرف دوڑے اور بڑی مشکل سے دونوں کو الگ الگ کیا ۔ دونوں کے چہرے غصے سے سرخ ہو رہے تھے۔
اِس واقعے کو تین دن گزر گئے۔ تین دن سے نہ شاکر نے انور سے کوئی بات کی تھی، نہ انور نے شاکر سے۔ وہ دونوں اپنے اپنے گھر نکلتے اور دُور دُور چلتے ہوئے اسکول پہنچ جاتے۔ اِسی طرح اُن کی واپسی ہوتی۔ رات کو دونوں الگ الگ کھیلتے۔


تین دن گزرنے پر اُن دونوں سے ہی نہ رہا گیا۔ وُہ اسکول جانے کے لیے گھروں سے نکلے تو بار بار ایک دوسرے کی طرف دیکھنے لگے۔ پہلے دونوں کے درمیان فاصلہ بہت زیادہ تھا، آہستہ آہستہ وہ ایک دوسرے سے نزدیک ہوتے چلے گئے۔ یہاں تک کہ دونوں ساتھ ساتھ چلنے لگے۔ دونوں کچھ دیر خاموشی سے چلتے رہے، آخر شاکر سے رہا نہ گیا،
بولا :
’’مجھے معاف کر دو دوست، غلطی میری ہی تھی۔‘‘
’’نہیں تو۔ غلطی تو میری تھی، میں نے آنکھیں کھول کر تمھیں چھپتے ہوئے دیکھ لیا تھا۔‘‘


’’خیر کوئی بات نہیں کھیل میں ایسا ہو ہی جاتا ہے۔ اس بات پر ہمیں لڑنا نہیں چاہیے تھا ہم نے بہت برا کیا۔‘‘
اور اس سے بُرا یہ ہوا کہ ہمارے والد آپس میں لڑ پڑے۔‘‘
’’ہاں! ہماری وجہ سے ان میں بھی لڑائی ہوگئی۔‘‘
تو آؤ ہم گلے مل جائیں، شاید وہ بھی اسی طرح گلے مل جائیں۔‘‘


دونوں نے اپنے اپنے بستے زمین پر رکھ دیے اور ہاتھ پھیلا کر ایک دوسرے کی طرف دوڑے پھر دونوں نے ایک دوسرے کو بھینچ لیا۔ اسکول جانے والے لڑکوں نے اس منظر کو بڑی حیرت سے دیکھا۔ ان کا خیال تھا کہ اب ان دنوں میں کبھی صلح نہیں ہوگی۔
دونوں اسکول سے واپس آئے۔ کھانا کھا کر دونوں اپنے اپنے گھر سے نکلے اور مل کر اسکول کا کام کرنے لگے۔ رات ہوئی تو وہ کھیلنے کے لئے نکل آئے لڑکوں نے ان کی صلح پر تالیاں بجائیں۔ سب نے آنکھ مچولی کھیلنے کا پروگرام بنایا۔ ہوتے ہوتے انور کو چور بننا پڑا اور شاکر کو اس کی آنکھیں بند کرنی پڑیں۔ وہی تین دن پہلے کا منظر تھا۔ لڑکے جلدی جلدی چھپ گئے۔ پھر شاکر کی باری آئی، اس نے انور سے کہا:
’’اب تم اپنی آنکھیں بند کرلو۔ میں چھپ جاتا ہوں اور دیکھو، اس دن کی طرح آنکھیں کھول کر نہ دیکھ لینا۔‘‘ انور اس کی بات سن کر ہنس پڑا اور بولا:
’’نہیں میرے دوست، اب ایسی غلطی کبھی نہیں کروں گا۔‘‘


انور نے اپنی آنکھیں بند کر لیں۔ شاکر جاکر ایک اندھیرے کونے میں چھپ گیا۔ اب انور نے اپنی آنکھوں پر سے ہاتھ ہٹانے اور چور کی تلاش میں لگ گیا۔ اتفاق کی بات کہ وہ سیدھا اسی کونے کی طرف گیا جہاں شاکر چھپا بیٹھا تھا۔ اس نے اندھیرے میں اسے دونوں ہاتھوں سے پکڑا اور چلانے لگا۔
’’میں نے چور پکڑ لیا، میں نے چور پکڑ لیا۔‘‘
تمام بچے اپنی اپنی جگہوں سے نکل آئے۔ اب جو شاکر روشنی میں آیا۔ تو انور اسے دیکھ کر چونک اٹھا۔ اس کے وہم و گمان میں بھی نہ تھا کہ یہ شاکر ہوگا۔ اس نے کہا:
’’خدا کی قسم شاکر، میں نے تمہیں چھپتے ہوئے نہیں دیکھا تھا۔ یقین کرو۔‘‘


’’مجھے تم پر یقین ہے دوست، میں چور بننے کے لیے تیار ہوں۔‘‘ شاکر نے مسکرا کر کہا۔
’’میرا اچھا دوست۔‘‘ انو رکے منہ سے نکلا، اور دونوں ایک بار پھر ایک دوسرے کے گلے سے لگ گئے۔ ان کی آنکھوں میں آنسو آگئے۔ لڑکوں نے تالیاں بجا بجا کر خوشی کا اظہار کیا۔
عین اس وقت جب کہ وہ دونوں گلے مل رہے تھے، شیخ صاحب اور ملک صاحب اپنے اپنے گھر سے نکل رہے تھے۔ انہوں نے یہ عجیب و غریب منظر حیران ہو کر دیکھا۔ انہوں نے دیکھا کہ ان کے بچے جو تین دن پہلے بری طرح لڑ رہے تھے، اس وقت گرم جوشی سے ایک دوسرے سے گلے مل رہے تھے۔ دونوں کی آنکھیں کھلی کی کھلی رہ گئیں۔ دونوں نے ایک دوسرے کی طرف دیکھا۔ اسی وقت لڑکوں کی نظر بھی ان پر پڑی۔ وہ دم بخود ہو کر دونوں کو دیکھنے لگے۔ شیخ صاحب اور ملک صاحب ابھی تک ایک دوسرے کو غور سے دیکھ رہے تھے۔ پھر ان کے قدم ایک دوسرے کی طرف اٹھنے لگے۔ دیکھتے ہی دیکھتے وہ بالکل نزدیک آگئے۔ اور پھر لڑکوں نے ایک اور عجیب منظر دیکھا۔ شیخ صاحب اور ملک صاحب ایک دوسرے سے لپٹ گئے۔ لڑکوں نے ایک بار پھر تالیاں بجائیں۔
’’ہمیں بچوں کی طرح لڑنا نہیں چاہئے تھا۔‘‘ ملک صاحب بولے۔


’’ہاں! ہم سے بڑی غلطی ہوئی۔‘‘
رسول کریمؐ نے فرمایا۔ ’’مسلمان کو اپنے بھائی سے تین دن سے زیادہ ناراض نہ رہنا چاہئے۔‘‘

- نامعلوم


بچپن ہماری زندگی کا یقینا سنہرا دور ہے۔ اس کی حسین یادیں تا عمر ہمارے دل و دماغ کے نہاں خانوں میں جگمگاتی رہتی ہیں۔ انگریزی کے مشہور شاعر جان ملٹن نے اسے ’’جنت گمشدہ‘‘ یعنی کھوئی ہوئی جنت کہا ہے۔ جب بھی ہم اپنے بچپن کے بارے میں سوچتے ہیں تو جی چاہتا ہے کہ کاش ہم ایک بار پھر چھوٹے سے بچے بن جائیں۔ بچپن میں ہم گھر بھر کے دلارے اور سب کی آنکھ کے تارے تھے ہر کوئی ہمیں لاڈ پیار کیا کرتا تھا۔ بچپن کی سیانی یادیں اس قدر دلکش ہوا کرتی ہیں کہ انھیں یاد کر کے شاعر بے اختیار پکار اٹھتا ہے۔
یادِ ماضی عذاب ہے یارب
چھین لے مجھ سے حافظہ میرا
میں جب بھی اپنے بچپن کے بارے میں سوچتا ہوں تو اپنے والدین کی وہ بے لوث محبت اور شفقت یاد آتی ہے۔ نانا نانی، دادا دادی کا دلار اور ان کا ہمارے لیے فکرمند رہنا۔ ہماری تعلیم و تربیت اور کھانے پینے کی دیکھ بھال کرنا، بھائی بہنوں کا ستانا، اسکول کے کاموں میں ہماری مدد کرنا، سب یاد آتا ہے اور یاد آتے ہیں، بچپن کے وہ سارے دوست جن کے ساتھ ہم گھنٹوں کھیلا کرتے تھے۔ بچپن کے کھیل اس قدر دلچسپ ہوا کرتے تھے کہ دوستوں کے ساتھ یا میدان میں کھیلتے ہوئے ان میں مگن ہو کر کھانا پینا اور اپنے گھر جانا بھی بھول جاتے تھے۔ بچپن ہر قسم کی فکر، دشمنی کینہ، کیپٹ اور برائیوں سے پاک ہوا کرتا ہے اسی لیے تو بچوں کو فرشتہ کہا جاتا ہے۔


ہمارا گھر جس جگہ واقع تھا۔ اس کے قریب ایک ندی اور وسیع میدان تھا جس کے پیچھے گھنا جنگل تھا۔ میدان میں ہم طرح طرح کے کھیل کھیلا کرتے اور کبھی اپنے دوستوں کے ساتھ جنگل میں نکل جاتے، جہاں بیریوں کی جھاڑیاں اور املی کے بڑے بڑے پیڑ تھے۔ جنگل سے املی اور بیر چنتے اور دوسرے پھل پھول جمع کر لاتے۔ اکثر وہاں ہمیں اتنی دیر ہو جاتی کہ واپسی پر گھر میں امی کی ڈانٹ سننی پڑتی۔ امی کی ڈانٹ تو اور بھی کئی باتوں پر کھاتے رہے مگر اصل ڈر لگتا تھا ابو کی ڈانٹ سے اسکول نہ جانے اور نماز نہ پڑھنے پر تو یاد ہے کبھی مار بھی پڑی تھی۔
مجھے یاد ہے کہ ایک دن جب ہم بیر کی تلاش میں جھاڑیوں میں گھوم رہے تھے۔ میرے ساتھ میرے دوست امجد، اسلم اور ماجد بھی تھے۔ امجد اچانک سانپ سانپ کہہ کر چیخ پڑا۔ یہ سنتے ہی ہمارے پیروں تلے کی زمین نکل گئی اور جب ہم سب نے قریب ہی زمین پر ایک بڑا کالا سانپ رینگتا ہوا دیکھا تو بدحواس ہو کر سب وہاں سے بھاگ کھڑے ہوئے۔ گھر پہنچنے تک پیچھے مڑکر بھی نہ دیکھا۔ اس کے بعد کئی دنوں تک جنگل جانے کی کسی کی ہمت نہیں ہوئی۔
اسی طرح ایک مرتبہ عید کی خریداری کے لیے امی اور ابو کے ساتھ بازار گئے تھے۔ شاپنگ کرتے کرتے امی اور ا بو آگے نکل گئے اور میں ایک دکان پر کھلونے دیکھنے میں کھویا رہا۔ جب ہوش آیا تو گھبر کر ادھر ادھر ڈھونڈتا رہا۔ بہت دیر تک روتا ہوا بھٹکتا رہا۔ آخر قریب کی ایک مسجد سے جب اعلان ہوا تو کچھ لوگ مجھے وہاں پہنچا آئے جہاں امی اور ابو میرا بےچینی سے انتظار کر رہے تھے۔
بچپن کی یادوں میں دوستوں کے ساتھ ہونے والی لڑائیاں بھی ہم کبھی نہ بھول پائیں گے۔ اسکول میں نئے نئے دوست بن گئے تھے۔ ان کے ساتھ خوب شرارتیں کرتے۔ ذراسی بات پر کٹّی کر بیٹھتے لیکن زیادہ دنوں تک اس حالت میں دوست سے دور رہنا مشکل ہو جاتا اور کسی نہ کسی بہانے سے دوستی کر بیٹھتے۔ بچپن ان تمام برائیوں سے دور تھا جو انسان سے خوشیاں چھین لیتی ہیں۔ ہمارے دلوں میں کسی کے لیے برائی نہ تھی ۔ بچپن ایسی ہی معصوم یادوں سے عبارت ہے۔ اسی لئے ہر شخص کے دل میں کبھی نہ کبھی یہ خیال ضرور آتا ہے کہ کاش اس کے بچپن کے وہ سہانے دل کسی طرح لوٹ آئیں۔ لیکن یہ کسی بھی طرح ممکن نہیں۔


اب بھی بچپن کے دوست یاد آتے ہیں۔ ان کے ساتھ گزارے ہوئے لمحات یاد آتے ہیں تو ان کے چھن جانے کا افسوس ہوتا ہے ایسا محسوس ہوتا ہے جیسے ہم سے ہمارا بچپن نہیں کوئی قیمتی سرمایہ چھن گیا ہو۔ کاش پھر سے لوٹ آئیں بچپن کے وہ سہانے دن!

- محمد-اسد-اللہ


घर के कबाड़ ख़ाने में बिल्लियों की कान्फ़्रैंस हो रही थी। तमाम बिल्लियां इस तरह एक गोल दायरे में बैठी थीं जैसे किसी गोल मेज़ कान्फ़्रैंस में शिरकत कर रही हूँ। बैठने से पहले उन सबने अपनी अपनी दुम से अपनी जगह भी साफ़ की थी। लक्कड़ी की एक टूटी कुर्सी पर उस वक़्त एक बूढ़ी बिल्ली बैठी थी। ये बी हज्जन थी। तमाम बिल्लियां उसे इसी नाम से पुकारती थीं क्योंकि उसके मुतअल्लिक़ मशहूर था कि नौ सौ चूहे खाने के बाद हज को गई थी।
अचानक उसने अपना बाज़ू उठा कर मुक्के की शक्ल में लहराया और बुलंद आवाज़ में बोली ‘‘ये तो तुम सबको मालूम ही है कि हम यहाँ किस लिए जमा हुए हैं। इस घर के रहने वाले अब हम पर ज़ुल्म करने लगे हैं किसी की दुम पर पाँव रख देते हैं तो किसी पर लकड़ी या पत्थर उठा मारते हैं। एक ज़माना था जब इस घर पर चूहों की हुकूमत थी। हर तरफ़ चूहे ही चूहे थे। बावर्चीख़ाने के हर कोने में चूहे
घर की अलमारियों में चूहे
खाने पीने की चीज़ों में चूहे। यहाँ तक कि सोते वक़्त उन लोगों के बिस्तरों में घुस कर चूहे लिहाफ़ों के मज़े भी लिया करते थे। आख़िर जब घर वाले बिलकुल ही तंग आगए तो उन्होंने एक बिल्ली पालने की सोची। इस काम पर मुन्ने मियां को लगाया गया। मुन्ने मियां एक गली में से गुज़रे। उस गली में एक टूटा फूटा मकान था जिसमें मैं अपनी माँ के साथ रहती थी। मुन्ने मियां की नज़र मुझ पर पड़ी तो झट मुझे उठा लिया। मैं बहुत घबराई मगर क्या कर सकती थी। अभी बहुत छोटी थी ना पंजे मार सकती थी ना भाग सकती थी। मुन्ने मियां मुझे इस घर में ले आए और मैंने यहाँ चूहों का एक लश्कर-ए-अज़ीम देखा। इतनी बड़ी फ़ौज को देखकर मैं घबरा गई क्योंकि अभी तो मैं दूध पीती बची थी। मैं भला क्या चूहे खाती। फिर भी इतना हुआ कि मेरी आवाज़ सुनकर चूहे इधर से उधर भाग जाते और बिलों में से मुँह निकाल निकाल कर मुझे देखते रहते। रफ़्ता-रफ़्ता मैं बड़ी होती गई और चूहों का शिकार करने लगी। अब तो चूहे मुझसे ख़ूब डरने लगे। एक दिन क्या हुआ


मुझे देखकर बिल्ली के दो तीन बच्चे और इस घर में आकर रहने लगे। अब तो रोज़-ब-रोज़ हमारी तादाद बढ़ने लगी और चूहों की तादाद कम होने अब हम इस घर मैं ख़ूब उछल कूद मचाने लगे। हमारी तादाद बढ़ती ही चली गई। पहले-पहल तो घर के लोग ख़ुश होते रहे क्योंकि चूहे ग़ायब होते जा रहे थे और उनको हमारी वजह से बहुत सुकून हो गया था। जब हमारी तादाद बहुत ज़्यादा हो गई तो हमने रहने के लिए इस कबाड़ ख़ाने को चुन लिया। रात को यहां रहने लगे और दिन में सारे घर में उछलते कूदते फिरते। दिन यूंही गुज़रते रहे। हमारी तादाद बढ़ रही थी। आख़िर एक दिन हमने चूहों की फ़ौज का मुकम्मल तौर पर सफ़ाया कर दिया
अब घर में कोई चूहा बाक़ी ना बचा था।
जिस दिन इस घर का आख़िरी चूहा भी हमारी ख़ुराक बन गया तो हमने इस घर के उसी कमरे में जश्न मनाया इस जश्न में हमने अपने बच्चों की आपस में शादियां कर दीं उस दिन हमारी ख़ुशी का कोई ठिकाना ना रहा। फिर ऐसा कि हमारी तादाद और भी बढ़ गई और अब ये इज़ाफ़ा ही हमारे लिए मुसीबत बन गया है। घर वाले खाने की तमाम चीज़ें तालों में रखते हैं हमें कुछ खाने को नहीं देते। अगर कभी इत्तिफ़ाक़ से खाने की कोई चीज़ हम में से किसी के हाथ लग जाये तो उसे लकड़ियों से पीटा जाता है या दुम से पकड़ कर हवा में झुलाया जाता है। इन घर वालों के इस ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आज हम सब यहां इकट्ठे हुए हैं। पिछले दिनों हमने फ़ैसला किया था कि अगर ये लोग हमें खाने को कुछ नहीं देते तो ना सही हम ख़ुद खाने की चीज़ें हासिल करेंगे। इस फ़ैसले के बाद हम घर की चीज़ों पर टूट पड़े थे और ख़ूब जी भर कर चीज़ें खा ली थी
लेकिन नतीजा क्या निकला। किसी की टांग तोड़ दी गई तो किसी को बोरी में बंद कर के दरिया पार छोड़ दिया गया। मिस भूरी तुम खड़ी हो जाओ और सबको चल के दिखाओ'


एक भूरी बिल्ली उठ खड़ी हुई और उन सबको चल कर दिखाया। उसकी एक टांग टूटी हुई थी और वो बुरी तरह लंगड़ा रही थी।
‘‘उस का क़ुसूर सिर्फ़ इतना था कि उसने दूध की देगची में से दो तीन घूँट दूध पी लिया था। उसी वक़्त मुन्ने मियां इधर आ निकले। उन्होंने लकड़ी उठाई और उसकी टांगों पर दे मारी। कितने एहसान फ़रामोश हैं ये इन्सान और उनके बच्चे ये हमारे इस एहसान को बिलकुल ही भूल गए हैं
जो हमने चूहों को खा कर उन पर किया है
ये वो दिन भूल गए जब इस घर में हर तरफ़ चूहे ही चूहे होते थे और उनकी रातों की नींद हराम हो चुकी थी। सोते में चूहे उनके ऊपर उछलते कूदते थे। आज हमने उन्हें उनसे छुटकारा दिला दिया है तो उन्होंने हमसे आँखें फेर लीं आख़िर किस लिए। सिर्फ़ इस लिए कि हमारे बच्चे बहुत हो गए हैं


लेकिन ख़ुद उनके कितने बच्चे हैं। सारे घर में बच्चे ही बच्चे भरे पड़े हैं। आख़िर हमें भी बच्चों से उतनी ही मोहब्बत है जितनी कि उन्हें। फिर ये क्यों हमारी जान के दुश्मन बन गए हैं और क्या तुम सबको मालूम है कि घर वालों ने हमारे ख़िलाफ़ एक ही तरकीब सोची है।’’ बी हज्जन ये कह कर ख़ामोश हो गई और तमाम बिल्लियों को ग़ौर से देखने लगी। वो सब एक साथ बोल उठीं
‘‘नई तरकीब
आख़िर वो क्या है और हमें उसका पता क्यों नहीं चला।’’
‘‘ये कल रात की बात है


तुम सबको तो सोने की पड़ी रहती है
सिर्फ़ मैं जाग कर अल्लाह अल्लाह कर रही थी कि मेरे कानों में मुन्ने के अब्बा की आवाज़ पड़ी वो कह रहे थे इन बिल्लियों ने तो नाक में दम कर रखा है। अब हम घर में शिकारी कुत्ता पालेंगे जो इन सब बिल्लियों को भगा देगा या चट कर जाएगा।
‘‘क्या?’’ सब बिल्लियां ख़ौफ़ से चिल्ला उठीं। उनकी आँखों में ख़ौफ़ समा गया और वो थर-थर काँपने लगीं
‘‘काँपने और डरने से कुछ नहीं होगा। मैं तो कहती हूँ


इस से पहले कि इस घर में कुत्ता आए
घर की सारी चीज़ों को दरहम-बरहम कर दो
उलट-पलट दो। हर तरफ़ तबाही मचा दो। तुम्हारे साथ आज तक जो ना-इंसाफ़ियां हुई हैं और हो रही हैं
उनका इंतिक़ाम लो।’’


‘‘लेकिन इस का क्या फ़ायदा।’’ एक अक़लमंद बिल्ले ने कहा। ''हमने इस घर का बरसों नमक खाया है
हम नमकहरामी नहीं करेंगे’’
‘‘हाँ हाँ
हम नमकहरामी नहीं करेंगे’’


‘‘तो फिर इस घर से निकलने के लिए तय्यार हो जाओ।’’ बी हज्जन ने कहा
‘‘हाँ हम इस घर से चले जाऐंगे लेकिन नमकहरामी नहीं करेंगे’’
इसी वक़्त घर में कुत्ते के भूँकने की आवाज़ आई। आवाज़ उसी तरफ़ बढ़ती आ रही थी। उनके रंग उड़ गए वो सब थर-थर काँपने लगीं
‘‘लो


आख़िर वो कुत्ता ले ही आए।’’
अचानक दरवाज़ा खुला और एक ख़ौफ़नाक शक्ल का कुत्ता उनकी तरफ़ झपटा। तमाम बिल्लियां बदहवासी के आलम में इधर भागने लगीं। वो दीवार फलाँग कर गली में कूद रही थीं। सबसे आख़िर में बी हज्जन दीवार पर चढ़ने में कामियाब हुई। वो मुन्ने से बोली जो कुत्ते की ज़ंजीर थामे हुए था ‘‘मुन्ने मियां हम तो जा रहे हैं
लेकिन एक दिन आएगा जब तुम्हें इस बुरे सुलूक का अफ़्सोस होगा।’’ अच्छा ख़ुदा-हाफ़िज़

- इशतियाक़-अहमद


राजमहल होटल शहर का सबसे बड़ा और आलीशान होटल था। उसके हर फ़र्श पर बड़े क़ीमती क़ालीन बिछे थे और छतों में ख़ुशनुमा फ़ानूस लटके हुए थे। मेज़ कुर्सियाँ और खाने पीने के बर्तन भी बड़े साफ़ सुथरे और आला दर्जे के थे। हर-रोज़ चार से पाँच बजे के दरमियान वहाँ शहर के बड़े अमीर लोग चाय पीने आते थे। क्योंकि ग़रीब लोग तो इस होटल में जा ही नहीं सकते थे। इस होटल के बड़े हाल में जहाँ बड़े लोग बैठ कर चाय पीते थे। ग़ुल मचाना मना था
और ना बदतमीज़ी की कोई बात करने की इजाज़त थी। क्योंकि बड़े लोग ना तो ग़ुल मचाने को अच्छा समझते थे और ना किसी क़िस्म की बदतमीज़ी को।
इस होटल में बहुत से बैरे मुलाज़िम थे जो अलग़ू के नीचे काम करते थे क्योंकि वो इन सबसे बड़ा बैरा था।
एक दिन जबकि होटल के बड़े हाल में बड़े लोग चाय पीने के लिए जमा थे। बैरे बड़ी जल्दी में इधर उधर आ जा रहे थे। मेहमानों से आर्डर ले रहे थे। चाय और उस के साथ खाने पीने की चीज़ें मेज़ों पर लगा रहे थे और अलग़ू एक तरफ़ देख रहा था कि कोई बैरा अपना काम सुस्ती से तो नहीं कर रहा। मगर वो सब अपना अपना काम ठीक ठीक कर रहे थे। अचानक एक तरफ़ से शोर सुनाई दिया और एक बुड़ी ही भोंडी आवाज़ आई।


’’ए बैरा क्या मेरे लिए चाय नहीं लाओगे?''
सब हैरान हो कर इधर देखने लगे कि ये कौन है जो महफ़िल के आदाब से भी वाक़िफ़ नहीं। जो ये भी नहीं जानता
कि तहज़ीब वाले लोगों में बैठ कर ऐसे नहीं किसी को बुलाया करते। और फिर ये देखकर कि वो कौन है
सब के पांव में डर से जूते ढीले पड़ गए। काँपते हुए हर कोई अपनी अपनी कुर्सी में दुबक गया। मर्द भी और औरतें भी। अलग़ू आँखें झपकते हुए बड़े ग़ौर से उधर देख रहा था। कि ख़ुदा की ज़मीन पर ये क्या है


ये कौन है? खिड़की के क़रीब मेज़ पर एक ख़ौफ़नाक कुत्ता बैठा था और सफ़ेद रूमाल उसकी गर्दन से बंधा था जो कोई चीज़ खाते वक़्त इस्तिमाल करते हैं। अलग़ू ग़ुस्से में खिड़की की तरफ़ बढ़ा और पूछाः
’’तुम कौन हो?''
’’ओह
आदाब अर्ज़। मुझे ख़ुशी है कि तुमको मेरा भी कुछ ख़्याल आया। अब मैं चाय का आर्डर दे सकूँगा कुत्ते ने कहा।


’’मैं पूछता हूँ तुम कौन हो?' अलग़ू ने फिर वही सवाल किया।
’’ओह भई अजीब सवाल है। क्या तुम नहीं जानते
मैं टिंकू हूँ। कुत्तों की नुमाइश में दोबार ख़ूबसूरती का इनाम ले चुका हूँ। इस शहर का हर शख़्स मुझको जानता है। तुम नहीं जानते तो तुम्हें ख़ुदा समझे।''
’’समझ गया।'' अलग़ू ने मुस्कुरा कर कहा। ''मैं ये मालूम करना चाहता हूँ टिंकू साहब यहाँ क्यों तशरीफ़ लाए हैं? ''


’’दोपहर की चाय में हमेशा किसी अच्छी जगह पीना पसंद करता हूँ। आज इतवार है
मैंने सोचा चलो आज इस शहर के सबसे बड़े होटल राजमहल में चल कर चाय पीते हैं। यहां चला आया। अब तुम जल्दी से चाय लाओ। हाँ
बड़ी तेज़ सी और गर्मगर्म टिंकू ने कहाः
अलग़ू उसकी बातें सुनकर फिर मुस्कुराया कहने लगा। ''टिंकू साहब


आप यहाँ से तशरीफ़ ले जाएं।''
’’क्या मतलब? '' टिंकू ने बड़े ग़ौर से अलग़ू को देखते हुए कहा।
’’मतलब ये है कि यहाँ बड़े लोग चाय पीने आते हैं। एक दम बड़े लोग। जरनैल
करनैल


लाखों पति
करोड़ पति
नवाब
राजे


महाराजे। तुम ऐसे चपड़क़नाती को तो इस होटल में घुसने की इजाज़त नहीं है। तुम यहाँ चाय पीना चाहते हो। अक़्ल का ईलाज करवाओ''
’’देखो जी ज़बान सँभाल कर बात करो।''
टिंकू ने गरज कर कहाः
’’आज तक कभी किसी ने मेरी इस तरह हतक नहीं की। तुमने मुझे ऐरा ग़ैरा नत्थू खेरा समझा है। जबकि सब लोग मुझे बड़ा मुअज़्ज़ज़ समझते हैं। जहाँ तक हूँ लोग मेरे साथ इज़्ज़त से पेश आते हैं। मैं तुमको बताए देता हूँ


अगर तुम मेरे लिए चाय ना लाए तो अच्छा ना होगा।''
’’क्या अच्छा ना होगा।'' अलग़ू ने ज़रा तुंद लहजा में कहा।
’’क्या करोगे तुम? ''
’’मैं इस क़दर ज़ोर से भोंकना शुरू कर दूंगा कि तुम देखोगे फिर क्या होगा।'' टिंकू ने कहा


अलग़ू हैरान और परेशान था कि वो ऐसे मेहमान का क्या करे। अजीब मेहमान था। इस से पहले तो ऐसा कोई मेहमान इस होटल में ना आया था।
अलग़ू मुंह में बड़बड़ाता हुआ एक तरफ़ निकल गया। वो अब टिंकू से कोई बात ना करना चाहता था।
ये कैसे हो सकता था कि वो एक कुत्ते के आर्डर देने पर इस को चाय पेश करे।
टिंकू ने जब देखा कि इस का मज़ाक़ उड़ाया गया है और इस के आर्डर देने पर भी इस को चाय पेश नहीं की गई तो वो मेज़ पर अगली पिछली टांगें जोड़ कर लाऊड स्पीकर की तरह बैठ गया। और अपना पूरा मुँह खोल दिया


’’बू--- वो--- वुफ़---!
अचानक हॉल मैं कानों का बहरा कर देने वाली आवाज़ गूँजी। जैसे दिल गरजता है।
हॉल की दीवारें काँप गईं। छत से लटकता फ़ानूस झूलने लगा। जैसे भूंचाल आगया हो।
चाय पीते बड़े लोग परेशान हो गए। ये क्या बदतमीज़ी है। ऐसी गड़बड़ इस से पहले कभी इस होटल में ना हुई थी।


एक मेम साहब अपना एक शीशे वाला चशमा आँख पर से उतारते हुए दरवाज़े की तरफ़ भागीं
एक बहुत मोटे साहब ने दोनों हाथ अपने कानों पर रख लिए कि गरज से उस के कान के पर्दे ना फट जाएं
’’बू--- वो--- वुफ़---!
टिंकू फिर गरजा


’’मेरे लिए मक्खन वाले तोस लाओ---उफ़---उफ़---केक पीस भी लाओ---भौं-भौं---उफ़--- अफ़--- चॉकलेट बिस्कुट भी ---उफ़---उफ़---फ़ुल सीट चाय--- चार उबले हुए अंडे---उफ़---बू---वो---उफ़---समोसे अगर हूँ तो वो भी ले आओ---उफ़---उफ़---अंगूर भी लाओ भौं-भौं---सैफ भी
मगर खट्टे ना हूँ। अगर मेरे दाँत खट्टे हुए
तो मैं काटना शुरू करदूंगा। फिर ना कहना मैंने काट खाया। भौं-भौं।। अफ़---उफ़---बू---वो---उफ़---उफ़---!!''
ख़ुदा की पनाह। टिंकू बुरी तरह भौंके जा रहा था। जैसे बादल गरज रहा हो


हॉल में भगदर् मच गई। बड़े लोग परेशान हो गए। अगर इतने में अलग़ू और दूसरे बैरे ना आजाते
तो हाल में क़ियामत आजाती। उन्होंने तश्तरियों में वो सारी चीज़ें उठाई हुई थीं
जिनका टिंकू ने आर्डर दिया था।
’’भई टिंकू साहब


ख़ुदा के लिए अब चुप हो जाओ ये लाऊड स्पीकर बंद करो। ये देखो तुम्हारी पसंद की सब चीज़ें हाज़िर हैं।''
’’हो---हो---उफ़---उफ़---उफ़---!' टिंकू को हंसी आगई
सब चीज़ें उस के सामने मेज़ पर लगा दी गईं
और फिर टिंकू मज़े मज़े से खाने लगा


- आग़ा-अशरफ़


جی میاں کا قد بہت ہی چھوٹا تھا ۔ رہتے بھی تھے وہ ایک چھوٹے سے گاؤں میں۔ ان کے مختصر قد کی وجہ سے بہت دنوں تک چھوٹے چھوٹے بچے ان کے ساتھ مزے سے کھیلتے رہے ۔ وقت کے ساتھ وہ بچے بڑے ہو گئے تو بچوں کی دوسری کھیپ ان کی دوست بن گئی ۔ پھر وہ بھی بڑے ہو گئے مگر جی میاں جوں کے توں رہے۔ ان کے لئے جیسے وقت رک سا گیا تھا۔ شریف لوگ انھیں دیکھتے اور مسکرا کر رہ جاتے شریر بچے اپنی شرارتوں سے باز نہ آتے، ان کا مذاق اڑاتے۔ جی میاں کبھی تو اس مذاق کو بھی مذاق میں اڑاتے اور اکثر مزہ لیتے۔ ان کی دلچسپ باتیں اور انوکھی ادا میں دیکھ کر لوگ لوٹ پوٹ ہو جاتے ۔ قد ان کا بھلے ہی چھوٹا سا تھا مگر دماغ بڑا پایا تھا۔ اسی مناسبت سے اس کا گھر یعنی جی میاں کا سر اچھا خاصہ بڑا تھا۔ ذرا سے بدن پر مٹکے جیسا سر دیکھ کر ہی دیکھنے والوں کی ہنسی چھوٹ جاتی تھی۔
ایک وقت ایسا بھی آیا کہ سب کو ہنسانے والے جی میاں کی آنکھوں میں آنسو آ گئے۔ اچانک ان کے والد چل بسے۔ ابھی ان کے آنسو تھمے بھی نہ تھے کہ ان کی والدہ اللہ کو پیاری ہو گئیں۔ جی میاں اس بھری پری دنیا میں اکیلے رہ گئے ۔ ماں باپ نے اپنے جیتے جی کبھی انھیں کسی پریشانی کا منہ نہ دیکھنے دیا۔
والدین کے انتقال کے بعد جی میاں کو دال آٹے کا بھاؤ معلوم ہونے لگا۔ جی میاں کے والد درزی تھے۔ بیٹے کو یہ کام آتا نہ تھا۔ جب پریشانیاں بڑھنے لگیں تو ایک دن جی میاں نے اپنے پڑوسی جمّن میاں سے کہا، ’’چچا ! اب تو گھر میں کچھ بھی نہیں بچا۔ بابا جو روپیہ پیسہ چھوڑ کر گئے تھے سب اٹھ گیا۔ اب ہم سوچ رہے ہیں کچھ محنت مزدوری کر کے اپنا گزارا کریں۔ ہو سکے تو ہمیں کوئی اچھا سا کام دلا دو۔ شیخ جمّن نے کہا تم کام کرو گے؟‘ اور پھر وہ خوب ہنسا۔ لگاتار دو دنوں تک ہنستا ہی رہا۔
اب تک لوگ جی میاں کے عجیب وغریب ڈیل ڈول کو دیکھ ہنستے مسکراتے تھے مگر جی میاں کا دل ہی کچھ ایسا تھا کہ انھوں نے کسی کی ہنسی کا بھی برا نہیں مانا مگر آج شیخ جمن کی ہنسی سے ان کے دل پر جیسے چھریاں چل گئیں۔ وہ جانتے تھے شیخ ان کے قد پر نہیں ان کی بے بسی پر ہنس رہا ہے۔


دو دن بعد شیخ جمّن نے اپنی بے لگام ہنسی کو روکا اور کہنے لگا ’’میاں چھٹکے! تم کیا کام کرو گئے؟ اتنے سے آدمی کو کون کام دے گا؟ اور کرو گے کیا آخر؟
’’میں اپنے بابا کی طرح کپڑے سیا کروں گا۔‘‘جی میاں نے بڑے اعتماد کے ساتھ کہا۔
’’ہا۔ ہا۔ ہا کپڑے! لوگ سلوائیں گے تم سے کپڑے؟ ارے وہ تمہیں پاجامہ سینے کو دیں گے اور تم نیکرسی دو گے، شیروانی سینے بیٹھو گے اور جیکٹ بنا دو گے۔
’’اچھا تو میں محنت مزدوری کروں گا۔‘‘


’لوگ ٹوکروں میں مٹی اٹھا ئیں گے تم کٹوروں میں اٹھانا۔‘
جمّن میاں کی کٹیلی با تین سن کر جی میاں مایوس ہو کر وہاں سے چل دئے۔ پھر ایک دکاندار سے پوچھا: ’’کیا تم مجھے اپنی دکان میں نوکر رکھو گے؟‘‘
دکاندار نے انھیں سر سے پیر تک حیرت سے دیکھا اور کہا ’’کیا تمہیں میری دکان سرکس دکھائی دیتی ہے۔‘‘
جی میاں کا دل ٹوٹ گیا۔ انھیں محسوس ہوا کہ وہ اس دنیا میں ایک فالتو قسم کی چیز ہیں۔ ایسی بے کار زندگی سے تو بہتر ہے کہ آدمی مرجائے ۔ یہ سوچ کر جی میاں گاؤں سے باہر گئے جہاں سے ریلوے لائین گذرتی تھی۔ وہ ریل کی پٹری پر لیٹ گئے کہ آج خود کو ختم ہی کر لیں گے۔ اس دن ٹرین بھی لیٹ تھی۔ گھنٹہ بھر وہیں پڑے رہے ریل نہیں آئی۔ اسی دوران ایک بوڑھا فقیر ادھر سے گذرا۔ اس نے انھیں اس حال میں دیکھا تو پوچھا، ’’میاں جی یہاں کیوں پڑے ہو؟‘‘


جی میاں نے اسے اپنے جی کا حال کہہ سنایا۔ بوڑھے فقیر نے انھیں یہ کہہ کر ڈھارس بندھائی، ’دیکھو! یہ دنیا خدا نے بنائی ہے اور اس کا چھوٹے سے چھوٹا ذرہ بھی بے کار
نہیں تم تو آدمی ہو، جو ساری مخلوقات سے بہتر اور اعلیٰ ہے، تم کیسے بے کار ہو سکتے ہو۔ خدا نے تمہارے اندر بھی کوئی ایسی چیز ضرور رکھی ہے جس سے دنیا والوں کو فائدہ پہنچے گا۔ اس گاؤں والوں نے تمہاری قدر نہیں کی تو کیا ہوا۔ دیکھو ادھر آگے ایک بہت بڑا جنگل ہے، اس کے پار ایک بستی ہے تم وہاں جاؤ، شاید تمہیں وہاں کوئی کام مل جائے۔
اس بوڑھے کی باتیں سن کر جی میاں کے اندر ہمت پیدا ہوئی اور وہ خدا کا نام لے کر جنگل کے پار بستی کی طرف چل پڑے۔ جنگل بہت ہی گھنا تھا۔ پرندوں اور جانوروں کی آوازیں آرہی تھیں۔ پیڑوں پر پھل جھول رہے تھے۔ جی میاں چلتے چلتے تھک گئے۔ بھوک بھی لگنے لگی تھی۔ کچھ پیڑوں پر چڑھ کر انھوں نے پھل توڑے اور پیٹ کی آگ بجھائی۔ کچھ دیر آرام کیا۔ پھر آگے بڑھے تھوڑی دور جانے پر انھوں نے دیکھا کہ جنگل کے درمیان ایک پنجرہ رکھا ہے۔ آس پاس کچھ رسیاں اور سامان بکھرا ہوا ہے۔
پنجرہ کے قریب پہنچے تو ایک زوردار دھاڑسن کر اچھل پڑے۔ پنجرہ میں ایک شیر بند تھا۔ جی میاں کو دیکھ کر لگا زور زور سے دھاڑنے ۔ پھر جی میاں نے ایک عجیب وغریب سی آواز سنی۔ جیسے کوئی ان سے کہہ رہا ہو۔ جی میاں نے ادھر ادھر دیکھا۔ کوئی نہ تھا۔ جلد ہی پتہ چل گیا کہ یہ شیر کی آواز تھی اور پنجرہ سے آرہی تھی۔ شیر ان سے کہہ رہا تھا۔


’اے بھائی مجھے پنجرہ سے نکالو، اے بھائی مجھے پنجرہ سے نکالو۔‘
’ارے تم بولتے بھی ہو؟‘ جی میاں نے شیر سے پوچھا۔
’ہاں بھائی کیا کروں، ایسی مصیبت آپڑی ہے کہ بولنا پڑ رہا ہے، خدا کے لئے مجھے اس پنجره سے نکالو، میں زندگی بھر تمہارا احسان نہیں بھولوں گا۔ شیر اپنے دونوں پنجے جوڑ کر ان کے آگے گڑ گڑایا۔
’مگر یہ تو بتاؤ تم اس پنجرہ میں بند کیسے ہوئے؟‘ جی میاں نے پوچھا۔


شیر بولا: ’’ارے کیا بتاؤں، ادھر سرکس والے آئے تھے۔ انھوں نے مجھے پکڑ کر اس پنجرہ میں بند کر دیا اور دوسرے جانور ڈھونڈ نے جنگل میں چلے گئے۔ اب وہ واپس آئیں گے اور مجھے اپنے ساتھ شہر لے جائیں گے اور ہنر دکھا کر سرکس میں نچوائیں گے۔ مجھ پر رحم کرو یہ دروازہ کھول کر مجھے آزاد کر دو۔‘‘
’نا میاں شیر‘ میں تمہیں باہر نہیں نکال سکتا۔ مجھے اپنی امی کی سنائی ہوئی دو کہانی اچھی طرح یاد ہے۔ اس کہانی میں بھی ایک شیر ایک گڑھے میں اسی طرح پھنسا تھا اور ایک آدمی سے بڑی منت سماجت کی تھی کہ مجھے اس گڑھے سے باہر نکالو، میں تمہارا احسان زندگی بھر نہیں بھولوں گا اور اس آدمی نے جب اس شیر کو باہر نکالا تو پتہ ہے اس شیر نے کیا کیا؟ اسی آدمی کو کھانے دوڑا۔ میں تمہیں باہر نکال کر مصیبت مول لینا نہیں چاہتا۔‘ جی میاں نے اپنا فیصلہ سنا دیا تو شیر گڑ گڑایا۔ ’بھائی معاف کرنا جس شیر کی تم بات کر رہے ہو، در اصل وہ میرے پردادا کے نگڑ دادا تھے میں ان کی اولاد ضرور ہوں مگر احسان فراموش نہیں ہوں۔ میری بات پر بھروسہ رکھو میں پنجرہ سے باہر نکلتے ہی دم دبا کر چپ چاپ چلا جاؤں گا۔‘‘
جی میاں سیدھے سادے آدمی تھے، شیر کی میٹھی میٹھی باتوں میں آگئے اور پنجرہ کا دروازہ کھول دیا۔ شیر باہر آیا اور پنجے جھاڑ کر انگڑائی لی اور دھاڑنا شروع کر دیا۔ ’میں تو اب تمہیں کھاؤں گا‘ جی میاں نے حیران ہو کر کہا، ’مگر تم نے تو وعدہ کیا تھا کہ میرا احسان کبھی نہ بھولو گئے۔‘
شیر نے کہا: ’’مجھے اس قدر بھوک لگی ہے کہ کوئی وعدہ یاد نہیں ۔ ان دونوں میں تکرار ہونے لگی، اسی دوران ایک لومڑی وہاں سے گذر رہی تھی۔ رک کر بولی: ’’تم لوگ اس طرح کیوں لڑ رہے ہو۔‘‘


جی میاں نے لومڑی کو اپنی پوری کہانی سنادی اور کہا، اب یہ شیر میاں، مجھے کھاناچاہتے ہیں۔‘
’’ مگر ایک بات بتاؤ، اتنے سے پنجرے میں اتنا بڑا شیر آخر سمایا کیسے؟‘‘ لومڑی کا یہ جملہ سن کر شیر اچھل پڑا۔ ’اے مکار لومڑی! مجھے الو سمجھتی ہے؟ مجھے اچھی طرح یاد ہے وہ کہانی تمہاری نانی کی پرنانی کی نگڑ نانی نے بھی اسی طرح میرے دادا کے پردادا کے نگڑ دادا کو پنجرہ میں گھسنے کے لئے کہا تھا اور پھر پنجرہ کا دروازہ بند کر دیا تھا، میں اس پنجرہ میں اب بالکل نہیں جاؤں گا۔ اس پر جی میاں نے آگے بڑھ کر کہا ’خیر کوئی بات نہیں، تم نہ سہی، میں ہی اس پنجرہ میں جا کر لومڑی کو دکھا دیتا ہوں، چلے گا؟‘
’ہاں، یہ چلے گا۔ آخر تم نے مجھ پر احسان کیا ہے، تمہاری اتنی بات تو ماننی پڑے گی۔ یہ سنتے ہی جی میاں پنجرے میں داخل ہوئے اور فوراً اندر سے زنجیر چڑھادی۔ اب شیر کی سمجھ میں جی میاں کی چالاکی آئی۔ وہ دہاڑنے لگا۔ جی میاں نے کہا، ’’شیر جی اب تم میرا کچھ نہیں بگاڑ سکتے۔ اب میں اس پنجرے میں محفوظ ہوں۔“
یہ دیکھ کر لومڑی بولی ارے میں تو سمجھتی تھی لومڑی ہی اس دنیا کا سب سے چالاک جانور ہے مگر اب پتہ چلا انسان سے کوئی نہیں جیت سکتا۔“


شیر آگ بگولہ ہو کر بولا، بدمعاش لومڑی! تم ہی بیچ میں آکر کباب میں ہڈی بنی ہ، میں تیرا خون پی جاؤں گا۔ اور شیر اس پر جھپٹا مگر لومڑی پھرتی سے بچ نکلی اور شیر اس کے پیچھے ہولیا۔
بہت دیر بعد سرکس والے آئے اور پنجرہ میں شیر کی جگہ ایک بونے کو بیٹھا ہوا دیکھ کر حیران ہوئے۔ ہنسے بھی اور افسوس بھی کرنے لگے کہ شیر ہاتھ سے نکل گیا۔
ان میں سے ایک بولا شیر نہیں ملا تو کیا ہوا ہماری سرکس میں ایک بونے جوکر کی جگہ تو خالی ہے، چلو اسی کو اٹھا کر لے چلتے ہیں، ’بھاگتے بھوت کی لنگوٹی ہی سہی‘، شیر نہیں جوکر ہی سہی۔
سب کو یہ خیال پسند آیا۔ پھر یہ ہوا کہ سرکس والے جی میاں کو اپنے ساتھ لے گئے۔ اور اس طرح جی میاں کو اچھی بھلی نوکری مل گئی اور سرکس کو ایک بونا جوکر، تنخواہ ملنے لگی، جی میاں خوش ہوئے، جس نئے شہر میں گئے مشہور ہوئے۔ اب وہ جہاں جاتے ہیں موج اڑاتے ہیں۔ کیا پتہ کسی دن آپ کے شہر میں بھی آدھمکیں اور آپ ان کی مزیدار حرکتیں دیکھ کر لوٹ پوٹ ہو جائیں۔


- محمد-اسد-اللہ


یہ ان دنوں کی بات ہے جب میں چھٹی کلاس میں تھا اس سال اسکول شروع ہوا تو ہماری کلاس میں ایک نئے لڑکے کا داخلہ ہوا۔ نام تھا اسکا جنید۔ مجھے میرے دوست عامر نے بتایا کہ جنید کے والد ڈبلیو سی ایل میں ملازم ہیں اور ابھی ابھی ان کا بھوپال سے یہاں ٹرانسفر ہوا ہے۔
جنید بہت ہی دبلا پتلا تھا۔ لگتا تھا ذرا پھونک ماریں گے تو اڑ جائے گا۔ رنگ سانولا، آنکھیں نیپالی لوگوں جیسی چھوٹی چھوٹی سی، بال گھنگرالے، پتہ نہیں کیوں پہلی مرتبہ اسے دیکھ کر مجھے لگا جیسے میں کسی چوہے کو دیکھ رہا ہوں۔ وہ تمام طلباء سے ذرا الگ قسم کا تھا۔ اسکے دبلے پن کے باوجود ایسا محسوس نہیں ہوتا تھا کہ وہ کمزور ہے۔ کسی حد تک گٹھا ہوا بدن، چوہے جیسی چستی پھرتی اس میں تھی۔ ایک تو وہ اجنبی اور حلیہ سب سے جدا لڑکوں نے اسے آڑے ہاتھوں لیا اور ستانا شروع کر دیا۔
پہلے ہی دن جب وہ سیڑھوں کے پاس کھڑا تھا میری کلاس کے سارے لڑکے جو وہاں سے گزر رہے تھے، جاتے جاتے اس کے سر پر ٹپّو مارتے جارہے تھے۔ دوسرے دن چھٹی کے دوران وہ باہر نکلا تو اس کی پیٹھ پر کاغذ کا پرزہ چپکا ہوا تھا جس پر لکھا تھا ’نیپالی چوہا‘۔
سبھی جانتے تھے کہ یہ حرکت اسامہ کی تھی۔ اسامہ ہماری کلاس کا سب سے زیادہ شریر بلکہ خطرناک طالب علم تھا۔ پوری کلاس پر اپنی دھاک جمائے ہوئے تھا۔ جہاں کسی نے اس کی مرضی کے خلاف کوئی کام کیا تو وہ اس کا دشمن بن جاتا تھا۔ ہم سب گھبرا گئے کہ اب اس نے نہ جانے کیوں جنید کو اپنا نشانہ بنالیا تھا۔ شاید نیا طالب علم دیکھ کر اسے نئی شرارت سوجھی تھی۔ اسامہ خوب موٹا تازہ تھا اسے دیکھ کر ایسا لگتا تھا جیسے کسی نے بڑے سے تکئے میں خوب ٹھونس ٹھونس کر روئی بھر دی ہو۔ البتہ وقت پڑے تو تیزی سے بھا گنا اس کے بس کی بات نہ تھی۔ سومو پہلوانوں جیسا دکھائی دیتا تھا۔ طاقت تو کچھ زیادہ نہ تھی بسں اپنے موٹاپے اور شرارتوں کے بل پر سب کو ڈراتا رہتا تھا۔


دو چار دن گزرے ہوں گے کہ اسکول اسیمبلی میں پیش درس کے بعد اعلان کیا گیا کہ کل کسی لڑکے کا بیگ گم ہوگیا ہے، کسی کو نظر آئے تو آفس میں اطلاع دے۔ اس دن چھٹی کے دوران چند بچوں نے چپراسی کو بتایا کہ اسکول کے کنارے ایک درخت کی شاخوں پر کسی کا بیگ لٹکا ہوا ہے۔ چپراسی نے چڑھ کر اسے نکالا تو پتہ چلا وہ جنید ہی کا کھویا ہوا بستہ تھا۔ دھیرے دھیرے جنید کے ساتھ شرارتوں کا سلسلہ بڑھتا ہی جارہا تھا۔ جنید یہ سب چپ چاپ سہتا رہا، اس کی طرف سے اس سلسلہ میں کوئی جوابی کاروائی نہیں ہوئی اس کا نتیجہ یہ ہوا کہ اب چھوٹے چھوٹے بچے بھی اس بہتی گنگا میں ہاتھ دھونے لگے۔
ان دنوں، اسامہ جواب تک صرف اپنی کلاس کے لڑکوں سے لڑتا رہتا تھا، بڑی کلاس کے طلباء سے بھی الجھنے لگا تھا۔ اس کی شکایتیں بار بار اساتذہ تک پہنچتی تھیں۔ اسے دیکھ کر دوسرے لڑکے بھی لڑائی جھگڑے کرنے لگے تھے۔ کئی ٹیچرس یہ سوچتے تھے کہ ایسی گندی مچھلی کو جو سارا تالاب گندہ کر سکتی ہے نکال باہر کرنا چاہئے لیکن اسامہ کے والد اس شہر کے نامی گرامی لوگوں میں تھے اسکول مینجمنٹ سے ان کے بڑے اچھے تعلقات تھے اس لئے اس پر ہاتھ ڈالنا اتنا آسان نہ تھا۔ ٹیچرس بھی امیر باپ کی اس بگڑی اولاد کے آگے مجبور تھے پھر بھی کبھی چاہتے تھے کے اسکول کے ماحول میں رہ کر وہ سدھر جائے اس لئے گاہے لگاہے اسے سمجھاتے رہتے تھے۔
ایک ہفتہ بعد ایک دن جب ہم اسکول سے اپنے گھروں کو لوٹ رہے تھے، راستے میں کئی لڑکے کھڑے نظر آئے۔ ان کے تیور کچھ اس قسم کے تھے گویا وہ کسی کا انتظار کر رہے تھے اور اس کی پٹائی کرنا چاہتے تھے۔ ہم لوگ تھوڑی دیر وہاں رکے اس کے بعد ساری گڑبڑ شروع ہوگئی شاید ان بدمعاش لڑکوں کو ان کا شکار مل گیا تھا۔ سب مل کر اسے پیٹنے لگے ان کے ہاتھوں میں ہاکی اسٹکس اور بیلٹ تھے۔ وہ سب مل کر اسکول کے کسی لڑکے کی پٹائی کر رہے تھے۔ یہ منظر اتنا بھیانک تھا کہ طلبا کی وہاں رکنے کی ہمت ہی نہ ہوئی۔
دوسرے دن جب ہم اسکول پہنچے تو پتہ چلا اسامہ کی حرکتوں سے پریشان بڑی کلاس کے طلباء نے جب کئی بار ٹیچرس سے اس کی شکایت کی اور اسکول کی طرف سے کوئی کاروائی نہ ہوئی تو انھوں نے خود ہی اسے سبق سکھانے کا ارادہ کیا۔ اس شام اسے سب نے مل کر گھیرا اور بری طرح پیٹ دیا۔ پٹائی کر کے بڑی کلاس کے لڑکے چلے گئے تو وہاں کوئی بھی نہ تھا۔ مارے ڈر کے سارے لڑکے غائب ہوچکے تھے۔ سوائے جنید کے جو یہ سارا تماشا دیکھ رہا تھا۔ اسامہ خون میں لت پت تھا اور اٹھنے کے قابل بھی نہ تھا۔ سب کے جانے کے بعد جنید نے اسے کسی طرح اٹھا کر اس کے گھر پہنچایا۔


دو تین دن بعد جب اسامہ اسکول آیا تو اس کے ہاتھ پاؤں پر پٹیاں بندھی تھیں اور سر پر چوٹ کے نشانات تھے۔ اسکول کے پی۔ ٹی۔ آئی انیس سرکا پیریڈ تھا۔ کوئی اجنبی شاید کسی اسٹوڈنٹ کے والد ان سے ملنے آئے تھے۔ دیر تک کلاس سے باہر دروازے پر کھڑے ان سے باتیں کرتے رہے اور پھر انیس سر انھیں کلاس میں لے کر آئے اور طلبا سے مخاطب ہو کر کہنے لگے، یہ شیخ اکرام صاحب ہیں، ہماری کلاس میں جو جنید ہیں ان کے والد، یہ آپ لوگوں سے کچھ کہنا چاہتے ہیں۔ اس کے بعد جنید کے والد نے نرم لہجے میں طلبا سے کہنا شروع کیا۔ ’بچو! میرا بیٹا جنید آپ کے ساتھ پڑھتا ہے ہم لوگ اس شہر میں نئے آئے ہیں۔ مجھے کئی دنوں سے یہ شکایت مل رہی ہے کہ آپ لوگوں میں سے کچھ لڑکے اسے پریشان کر رہے ہیں اور وہ خاموشی کے ساتھ برداشت کر رہا ہے۔ اس کا مطلب یہ ہر گز نہیں کہ وہ آپ سے ڈرتا ہے اور اسے بدمعاش لڑکوں سے نمٹنا نہیں آتا۔ میں آپ کو بتا دوں کہ وہ کراٹے کا ماہر ہے اور بچوں کے کراٹے کے مقابلوں میں نیشنل چیمپین ہے اور کراٹے کے مقابلوں میں کئی انعامات حاصل کر چکا ہے۔ اس کی کراٹے کلاس میں اسے یہ سکھایا جاتا ہے کہ اپنی طاقت کا غلط استعمال نہ کریں اور نہ بدلہ لیں۔ اسی لئے وہ خاموش ہے لیکن تمہاری زیادتیاں حد سے بڑھنے لگیں اور وہ شروع ہوگیا تو تم مشکل میں پڑ جاؤ گے، اس لئے بہتر ہے اسے ستانا چھوڑ دو۔ یہ کہہ کر وہ چلے گئے۔
اسامہ نے اپنے سر پر بندھی پٹیوں کے نیچے سوجھی ہوئی آنکھیں پھاڑ کر ڈری ڈری نظروں سے جیند کو دیکھا وہ اپنے ڈیسک پر اس طرح خاموش اور مطمئن بیٹھا تھا جیسے کچھ
ہوا ہی نہ ہو۔
اسامہ کی نظروں میں ڈر بھی تھا شکر گذاری بھی اور حیرت بھی جیسے دنیا کا آٹھواں


عجوبہ اس کے سامنے ہو۔

- محمد-اسد-اللہ


दादी अम्मां सोने से पहले सब बच्चों को कहानी सुनाया करती थीं। हमारे घर में उनकी कहानी सुनने के लिए मुहल्ले के दूसरे बच्चे भी आ जाते। हर-रोज़ रात को हम उनसे कहानी सुनते। उनकी कहानी बहुत मज़े-दार होतीं। हम उन्हें मज़े ले-ले कर सुनते। आख़िर में दादी अम्मां कहानी ख़त्म कर के सबको दुआएं देतीं।
इस रात भी सब बच्चे उनके गिर्द जमा थे। दादी अम्मां ने कहानी इस तरह शुरू की।
नन्हे-मुन्ने फूल जैसे नाज़ुक बचोगे कहानियाँ तो तुमने ना जाने कितनी सुनी होंगी। उनमें जिन्नों
देवओं


भूतों परियों
बादशाहों और शहज़ादों
सभी किस्म की कहानियाँ तुमने सुनी होंगी
लेकिन आज मैं जो कहानी सुनाने वाली हूँ


वो ना किसी जिन्न देव की है
ना बादशाह या शहज़ादे की
बल्कि आज की कहानी एक औरत और उसके बेटे की है।
‘‘भला ये क्या कहानी हो सकती है दादी अम्मां!’’ एक बच्चे ने हैरान हो कर कहा। दादी अम्मां मुस्कुराईं और फिर कहने लगीं।


‘‘पहले सुन तो लो। हाँ तो उस औरत का एक छोटा सा बेटा था। अभी उसकी उम्र चार साल की थी कि उस औरत का ख़ाविंद बस के नीचे आकर मर गया। वो बहुत ग़रीब आदमी था। उस के मरने के बाद घर में कुछ भी ना था। आख़िर उस ने मोहल्ले के घरों में काम करना शुरू कर दिया। लोगों के बरतन धोए
कपड़े धोए
सिलाई का काम किया और इस तरह वो इतने पैसे कमाने के काबिल हो गई कि अपनी और अपने बच्चे की गुज़र बसर कर सके। इनही हालात में बच्चा छः साल का हो गया तो उसने उसे स्कूल में दाख़िल करा दिया। बच्चा बहुत ज़हीन था। क्लास में उसने नुमायाँ मुक़ाम हासिल कर लिया। पहली जमात में अव़्वल आया तो माँ की ख़ुशी का कोई ठिकाना ना रहा। बच्चा दिल लगा कर पढ़ता रहा। उसने दिन रात मेहनत की। हर साल जमात में अव़्वल आता रहा। दरअसल उसे इस बात का बहुत दुख था कि उसकी माँ को लोगों के घरों में काम करना पड़ता है। वो सोचा करता कि वो पढ़ लिख कर एक दिन बड़ा आदमी बनेगा और अपनी माँ की ख़िदमत करेगा। सारी उम्र उसे कोई काम ना करने देगा।
दिन गुज़रते गए। आख़िर उसने दसवीं जमात का इम्तिहान पास कर लिया। इस बार उसने अपनी मेहनत की कि माँ फ़िक्र-मंद हो गई कि कहीं वो बीमार ना हो जाए। लेकिन वो मेहनत करने से बाज़ ना आया। नतीजा निकला तो अख़बार के पहले सफ़े पर उसकी तस्वीर छपी। वो ज़िला भर में अव़्वल आया था।


माँ की ख़ुशी का क्या पूछना। उस दिन दोनों ख़ुशी के मारे सो ना सके। मुहल्ले वाले तमाम दिन मुबारकबाद देने आते रहे। रात को बेटे ने प्यार भरे लहजे में कहा। ''अम्मी जान अब मैं आगे नहीं पढूँगा’’ माँ उसकी बात सुनकर चौंक उठी। उसने कहा। ''बेटा ये तुम क्या कह रहे हो। अगर पढ़ोगे नहीं तो बड़े आदमी कैसे बनोगे। अभी तो तुम्हें बहुत पढ़ना है।’’
‘‘लेकिन अम्मी जान मैं आपको काम करते नहीं देख सकता। इसलिए मैं कोई मुलाज़मत ढूंढ लेता हूँ।’’
‘‘बेटा तुम मेरी उम्मीदों पर पानी ना फेरो। इस ख़्याल को फ़ौरन दिल से निकाल दो। मुझे तुम्हारी इस बात से बहुत तकलीफ़ पहुंची है। आइन्दा ऐसी बात ना कहना।’’
बच्चे ने माँ की बात सुनकर ख़ामोशी इख़्तियार कर ली और कॉलेज में दाख़िल हो गया। अब वो पहले से भी ज़्यादा मेहनत करने लगा। उसकी माँ भी पहले की निसबत ज़्यादा घरों में काम करने लगी। क्योंकि अब उसे बेटे की कॉलेज की फ़ीस अदा करनी पड़ती थी और इस के दूसरे अख़राजात भी। करना ख़ुदा का किया हुआ। वो हर साल अच्छे नंबरों से पास होता चला गया। यहाँ तक कि आला तालीम हासिल करके फ़ारिग़ हो गया। अब चूँकि उसने हर साल नुमायाँ कामयाबी हासिल की थी और मैट्रिक में तो ज़िला भर में अव़्वल आया था। इसलिए उसे फ़ौरन ही एक सरकारी दफ़्तर में मुलाज़मत मिल गई। जिस दिन उसे मुलाज़मत मिली


वो दौड़ता हुआ घर में दाख़िल हुआ और अपनी माँ से लिपट गया और उसे उठा कर चक्कर लगाने लगा।
‘‘बस अम्मी आज के बाद आप किसी घर में काम नहीं करेंगी’’
‘‘ठीक है बेटा इस दिन के इंतिज़ार में तो मेरी सारी जवानी गुज़र गई। अब ख़ुदा के फ़ज़ल से तुम किसी काबिल हो गए हो तो मुझे क्या ज़रूरत है कि दूसरों के घरों में काम करूँ। अब तो में अपने बेटे के लिए चांद सी दुल्हन लाऊँगी।’’
माँ ने उसी दिन से बेटे के लिए रिश्ता तलाश करना शुरू कर दिया। बहुत जल्द वो अपने मक़सद में कामयाब हो गई और उसने अपने बेटे की शादी कर दी। शादी के छः साल बाद मलिक की सरहदों पर जंग छिड़ गई। उस वक़्त तक उस के बेटे के हाँ तीन बच्चे पैदा हो चुके थे। ये दो लड़के और एक लड़की थे। दुश्मन मुल्क ने ऐलान के बग़ैर हमारे मुल्क पर हमला किया था। इसलिए सब ग़ुस्से में आगए। हज़ारों शहरी जंग की तर्बीयत लेने के लिए। उनमें उस औरत का बेटा भी था। वो भी किसी से पीछे रहना नहीं चाहता था। तर्बीयत लेने लगा। एक दिन उसे भी पिछले मोर्चों पर भेज दिया गया। माँ ने उसे ख़ुशी ख़ुशी रुख़स्त किया। जब वो लड़ाई पर जा रहा था तो उस के बच्चे इस से लिपट लिपट गए। इस की बीवी की आँखों में आँसू आगए। जंग पिंदर दिन तक जारी रही। पंद्रहवीं दिन शहर के महाज़ पर कुछ ज़्यादा ही ज़ोर था। तोप का एक गोला पिछले मोर्चों पर आकर गिरा और कुछ दूसरे लोगों के साथ उस औरत का बेटा भी शहीद हो गया। उस की लाश घर लाई गई तो बच्चे उस से लिपट कर रोने लगे। बीवी धाड़ें मार मार कर रोने लगी। एक माँ थी जिसने आँख से एक आँसू भी ना निकलने दिया। बस वो लाश को तकती रही।


एक-बार फिर वही दूसरों के घरों के काम थे और वो थी। पहले वो अपने बेटे के लिए काम करती थी। अब अपने पोतों के लिए और बेटे की बीवी के लिए। बचोगे जानते हो अब वो अपने पोतों को क्या नसीहत करती है। वो उन्हें ख़ूब पढ़ने लिखने की नसीहत करती है
ताकि वो एक दिन बड़े अफ़्सर बन सकें और अगर मलिक को उनकी ज़रूरत पड़ जाये तो इस की ख़ातिर अपने ख़ून का आख़िरी क़तरा तक बहादें। इतना कह कर दादी अम्मां ख़ामोश हो गईं
सब बच्चे टुकुर टुकुर उनके मुँह की तरफ़ देखने लगे
‘‘आगे सुनाईए ना दादी अम्माँ।’’


‘‘बस बच्चो। कहानी तो ख़त्म हो गई।’’
क्या। कहानी ख़त्म हो गई!'
‘‘हाँ बच्चो कहानी ख़त्म भी हो गई और नहीं भी हुई। ख़त्म इस तरह कि उस का बेटा शहीद हो गया और अभी ख़त्म इस तरह नहीं हुई कि अब वो अपने बेटे के बेटों को पढ़ा रही है। जब वो बड़े हो जाएंगे तो हो सकता है कि किसी दिन फिर जंग छिड़ जाये और उन्हें अपनी जानें क़ुर्बान करने का मौक़ा मिल जाये। इस तरह भला ये कहानी ख़त्म कैसे हो सकती है। उस के पोते ज़िंदा हैं और वो एक-बार फिर उन्हें वतन के लिए तय्यार कर रही है। मुझसे वाअदा करो बच्चो कि तुम भी अपने वतन की हर तरह ख़िदमत करोगे
उस के लिए जान तक दोगे।'


‘‘दादी अम्मां हम वाअदा करते हैं।’’ सबने यक ज़बान हो कर कहा
‘‘दादी अम्मां आपने ये तो बताया ही नहीं कि वो औरत कौन है
कहाँ रहती है
उसका क्या नाम है।’’


अचानक दादी अम्मां की आँखों से आँसू टप टप गिरने लगे
फिर वो रोते-रोते मुस्कुराएँ और बोलीं ‘‘प्यारे प्यारे बचोगे वो औरत में ही हूँ। मेरा ही बेटा शहीद हुआ था और अब मैं तुम तीनों को पाल रही हूँ।’’ उन्होंने मेरी
मेरे छोटे भाई और बहन की तरफ़ इशारा करके कहा
बच्चे हैरान हो कर हमें देखने लगे


- इशतियाक़-अहमद


दो चोर एक घर में घुसे। आधी रात का वक़्त था। घर में मिट्टी के तेल का दिया जल रहा था। वो घर एक बूढ़िया का था जिसका इस दुनिया में कोई भी अज़ीज़ रिश्तेदार नहीं था। वो अकेली थी और कमाने के क़ाबिल भी नहीं थी। महल्ले के लोग सुब्ह शाम उस को खाना दे जाया करते थे। वो इस में से खाती और ख़ुदा का शुक्र अदा करके इबादत में मसरूफ़ हो जाती।
इस दिन भी वो इशा की नमाज़ पढ़ने के बाद काफ़ी देर तक अल्लाह अल्लाह करने के बाद सोई थी कि घर में दो चोर घुस आए। एक चोर का पैर बूढ़िया की चारपाई से जो टकराया तो इस की आँख खुल गई।
उसने दोनों चोरों को देख लिया लेकिन बेफ़िक्र हो कर लेटी रही। उसे फ़िक्र होता भी क्यों
घर में था ही क्या जिसके चोरी चले जाने का डर होता। दिल ही दिल में हसंती रही और चोरों को देखती रही। जो इधर उधर नक़दी या ज़ेवर तलाश करते फिर रहे थे। आख़िर जब चोर तलाश करते करते थक गए और मायूस हो कर लौटने लगे तो बूढ़िया बोल उठी।


‘‘क्यों कुछ नहीं मिला’’
दोनों चोर बूढ़िया की आवाज़ सुनकर चौंक उठे। उनका ख़्याल था कि बूढ़िया सो रही है।
‘‘तुम चोर हो ना बूढ़िया फिर बोली। उसके बूढ़े चेहरे पर मुस्कुराहट थी।
‘‘हाँ माँ हम चोर हैं।’’ उनमें से एक ने कहा।


‘‘तो फिर तुम्हारी माँ तीन दिन से भूकी है। तुम्हें इस घर से क्या मिल सकता है।’’ बूढ़िया ने कुछ सोच कर कहा। हालाँकि वो तीन दिन से भूकी हरगिज़ नहीं थी। उसने तो रात को सोने से पहले भी ख़ूब पेट भर कर खाया था।
‘‘क्या कहा--- तुम तीन दिन से भूकी हो।’’ दूसरे चोर ने हैरान हो कर कहा।
‘‘हाँ मैं इस दुनिया में अकेली हूँ। मेरा कोई नहीं
फिर भला मैं खाऊं कहाँ से


तुम्हारी तरह चोरी भी नहीं कर सकती। महल्ले के लोग तरस खा कर कुछ दे देते हैं तो खा लेती हूँ। तीन दिन से किसी महल्ले वाले ने भी नहीं पूछा
अब तुम ही कहो
मैं खाऊं तो कहाँ से खाऊं।’’
‘‘ओह--- माँ ये बात है।’’


पहला चोर बोला। वो बहुत रहमदिल था। उसने दूसरे से कहा।
‘‘चलो हम कहीं से माँ के लिए कुछ खाने को लाएं।’’
‘‘हाँ चलो।’’ दूसरा बोला
दोनों कुछ कहे बग़ैर बूढ़िया के घर से निकल कर चले गए। बूढ़िया उनके जाने के बाद मुस्कुराई और चारपाई पर लेट गई उसे यक़ीन था कि दोनों चोर ज़रूर वापस आएँगे।


उसका ख़्याल ठीक ही निकला। दो घंटे बाद दोनों चोर फिर बूढ़िया के घर में दाख़िल हुए। वो अभी जाग रही थी उन्हें देखते ही उठ बैठी।
‘‘तुम आ गए बेटा।’’
‘‘हाँ माँ
हम आ गए और ख़ाली हाथ नहीं आए। तुम्हारे लिए खाने की बहुत सारी चीज़ें लाए हैं।’’


‘‘जीते रहो। तुम कितने अच्छे हो
काश मेरा भी तुम्हारे जैसा कोई बेटा होता।’’ बूढ़िया ने कहा।
‘‘हम भी तो तुम्हारे बेटे ही हैं माँ!’’ एक चोर ने कहा।
‘‘ख़ुदा तुम्हें हमेशा ख़ुश रखे।’’


‘‘अच्छा अब ये खाने पीने की चीज़ें लो और ख़ूब पेट भर कर खाओ--- अब तुम फ़िक्र ना किया करना। हम हर-रोज़ तुम्हें खाने की चीज़ें दे जाया करेंगे।
दूसरे चोर ने कहा
‘‘अच्छा मगर बेटा---ये सब चीज़ें तुम लाए कहाँ से हो।’’
‘‘क्यों माँ तुमने ये बात क्यों पूछी।’’ एक चोर हैरान हो कर बोला।


‘‘बस यूंही। भला इतनी रात गए ये चीज़ें तुम्हें कहाँ से मिल गईं।’’
‘‘माँ सच्ची बात तो ये है कि हम ये चीज़ें चुरा कर लाए हैं।’’ दूसरा चोर बोल उठा
‘‘क्या कहा। चुरा कर लाए हो।’’
बूढ़िया ने चौंक कर कहा।


‘‘हाँ हमारा तो पेशा ही यही है।’’
‘‘तब फिर मैं ये चीज़ें नहीं खाऊँगी बूढ़िया ने कहा।
‘‘क्यों क्यों।’’ दोनों चोर हैरान हो कर बोले।
‘‘इसलिए कि ये चोरी की चीज़ें हैं और मैं चोरी का माल नहीं खाऊँगी


चोरी का माल खाना हराम खाना है।’’
‘‘लेकिन माँ तुम तीन दिन से भूकी हो।’’ चोर ने याद दिलाया।
‘‘ये ठीक है कि मैं तीन दिन से भूकी हूँ
लेकिन इस के बावजूद मैं चोरी का माल नहीं खाऊँगी। चाहे भूक से मेरी जान ही क्यों ना निकल जाये।’’


दोनों चोर हैरान रह गए आख़िर एक ने कहा
‘‘फिर तो तुम्हें सुब्ह तक भूका रहना पड़ेगा’’
‘‘क्या मतलब। तुम क्या कहना चाहते हो। बूढ़िया ने पूछा
‘‘सुब्ह हम तुम्हारे लिए मेहनत मज़दूरी करके कुछ खाने के लिए ले आएँगे। लेकिन इस वक़्त नहीं ला सकते।’’


‘‘तुम मेरे लिए इतनी तकलीफ़ क्यों करोगे। जाओ जाकर चोरियां करो
खाओ पियो।’’
‘‘नहीं माँ हम तुम्हें भूका नहीं रहने देंगे’’
दोनों चोर बूढ़िया के घर में ज़मीन पर पड़ कर सो रहे। सुब्ह हुई तो दोनों घर से निकल गए दोपहर तक वो मेहनत मज़दूरी करते रहे


फिर उन्होंने खाने की कुछ चीज़ें खरीदीं और बूढ़िया के घर आए। उन्होंने चीज़ें उस के सामने रख दीं।
‘‘लो माँ ये चीज़ें हम ख़रीद कर लाए हैं और ख़रीद कर भी चोरी के पैसों से नहीं लाए बल्कि मेहनत मज़दूरी कर के लाए हैं।’’ एक चोर ने कहा।
‘‘तुमने ख़ुद भी अभी तक कुछ खाया या नहीं।’’ बूढ़िया ने पूछा
‘‘नहीं माँ। भला ये कैसे हो सकता है कि जवान बेटों की माँ घर में भूकी बैठी हो और वो ख़ुद मज़े करते फिरें। हमने खाने को हाथ तक नहीं लगाया।’’


‘‘तो फिर पहले तुम इस में से खाओ।’’
बूढ़िया ने कहा
‘‘ये कैसे हो सकता है माँ!’’
‘‘मैं जो कहती हूँ। चलो खाओ।’’


दोनों ने चंद लुक़्मे खाए
‘‘ये खाना तुम्हें कैसा लगा।’’ बूढ़िया ने पूछा
‘‘बहुत ही मज़ेदार ख़ुदा की क़सम आज तक हमने इस से ज़्यादा मज़े का खाना नहीं खाया।’’ एक ने हैरान हो कर कहा।
‘‘ये इसलिए कि ये हलाल की कमाई का खाना है


तुम आज तक हराम की कमाई का खाना खाते रहे हो। वा’दा करो कि आइन्दा कभी चोरी नहीं करोगे।’’
‘‘हम वा’दा करते हैं माँ कि कभी चोरी नहीं करेंगे।
तीनों एक दूसरे से लिपट गए।

- अज्ञात


जब मैं अपने उस्तादों का तसव्वुर करता हूँ तो मेरे ज़ह्न के पर्दे पर कुछ ऐसे लोग उभरते हैं जो बहुत दिलचस्प
मेहरबान
पढ़े लिखे और ज़हीन हैं और साथ ही मेरे मोहसिन भी हैं। उनमें से कुछ का ख़्याल कर के मुझे हंसी भी आती है और उन पर प्यार भी आता है। अब मैं बारी-बारी उनका ज़िक्र करूँगा।
जब मैं बाग़ हालार स्कूल (कराची) में के. जी. क्लास में पढ़ता था तो मिस निगहत हमारी उस्तानी थीं। मार-पीट के बजाय बहुत प्यार से पढ़ाती थीं। सफ़ाई-पसंद इतनी थीं कि गंदगी देख कर उन्हें ग़ुस्सा आ जाता था और किसी बच्चे के गंदे कपड़े या बढ़े हुए नाख़ुन देख कर उसकी हल्की-फुल्की पिटाई भी कर देती थीं। मुझे अब तक याद है कि एक दफ़ा मेरे नाख़ुन बढ़े हुए थे और उनमें मैल जमा था। मिस निगहत ने मेरे नाख़ुनों पर पैमाने से (जिसे आप स्केल या फट्टा कहते हैं।) मारा। चोट हल्की थी लेकिन उस दिन मैं बहुत रोया। लेकिन मिस निगहत ने गंदे और बढ़े हुए नाख़ुनों के जो नुक़्सान बताए वो मुझे अब तक याद हैं और अब मैं जब भी अपने बढ़े हुए नाख़ुन देखता हूँ तो मुझे मिस निगहत याद आ जाती हैं और मैं फ़ौरन नाख़ुन काटने बैठ जाता हूँ।


पहली जमात में पहुँचा तो मिस सरदार हमारी उस्तानी थीं
लेकिन वो जल्द ही चली गईं और उनकी जगह मिस नसीम आईं जो उस्तानी कम और जल्लाद ज़्यादा थीं। बच्चों की इस तरह धुनाई करती थीं जैसे धुनिया रूई धुनता है। ऐसी सख़्त मार-पीट करती थीं कि इन्सान को पढ़ाई से
स्कूल से और किताबों से हमेशा के लिए नफ़रत हो जाए। जो उस्ताद और उस्तानियाँ ये तहरीर पढ़ रहे हैं उनसे मैं दरख़्वास्त करता हूँ कि बच्चों को मार-पीट कर न पढ़ाया करें। बहुत ज़रूरी हो तो डाँट-डपट कर लिया करें।
इस तहरीर को पढ़ने वाले जो बच्चे और बच्चियाँ बड़े हो कर उस्ताद और उस्तानियाँ बनें वो भी याद रखें कि मार-पीट से बच्चे पढ़ते नहीं बल्कि पढ़ाई से भागते हैं। बच्चों को ता'लीम से बेज़ार करने में पिटाई का बड़ा हाथ होता है। हाँ कभी-कभार मुँह का ज़ायक़ा बदलने के लिए एक-आध हल्का-फुलका थप्पड़ पड़ जाए तो कोई हर्ज नहीं


लेकिन अच्छे बच्चों को इसकी कभी ज़रूरत नहीं पड़ती।
उसके बा'द की जमातों में पढ़ाने वाले जो उस्ताद मुझे याद आते हैं
उनमें से एक ज़िया साहब हैं जो छटी जमात में हमें उर्दू पढ़ाते थे। अगर-चे ज़िया साहब हर वक़्त अपने साथ एक लचकीला बेद रखते थे लेकिन उसका इस्ति'माल कम ही करते थे। उन्होंने मेरी उर्दू का तलफ़्फ़ुज़ सही करने में बहुत मदद दी। उन्होंने उर्दू सिखाते और पढ़ाते हुए कई काम की बातें बताईं जिनसे मैंने बा'द में भी फ़ायदा उठाया। ज़िया साहब होमवर्क के तौर पर एक सफ़हा रोज़ाना ख़ुश-ख़त लिखने को कहते थे। उनका कहना था कि कुछ भी लिक्खो
इबारत कहीं से भी उतारो


चाहे किसी अख़बार से या रिसाले से या किताब से और चाहो तो कोई कहानी ही लिख लाओ मगर लिक्खो ज़रूर और लिक्खो भी साफ़-साफ़ और ख़ूबसूरत।
मैं किताब से कोई इबारत उतारने के बजाय अक्सर दिल से क़िस्से कहानियाँ बना कर लिख कर ले जाया करता था। शायद यहीं से मुझे कहानियाँ लिखने का चसका पड़ गया। कहानियाँ पढ़ने की लत तो पहले से थी ही। ज़िया साहब के लिए आज भी दिल से दुआ निकलती है। उनका सिखाया-पढ़ाया बहुत काम आया।
सातवीं जमात में जनाब तय्यब अब्बासी मिले जो हमें अरबी पढ़ाया करते थे। बच्चों से बड़ी मुहब्बत करते थे। बहुत मज़हबी आदमी थे। हुज़ूर-ए-अकरम सललल्लाहु अलइहि वसल्लम की हदीसें भी सुनाया करते थे। बच्चों की शाज़-ओ-नादिर ही पिटाई की होगी। क्लास बहुत शोर मचाती तो झूट-मूट ग़ुस्से से कहते
“क्या हो रहा है भई?”


और बच्चे इतने शरीर थे कि उनका नर्म सुलूक देख कर और शेर हो जाते और उन्हें बार-बार “क्या हो रहा है भई” कहना पड़ता। अब्बासी साहब का मुहब्बत भरा बरताव अब भी बहुत याद आता है।
आठवीं जमात में मैंने बाग़ हालार स्कूल छोड़ कर सीफ़ीह स्कूल में दाख़िला ले लिया। यहाँ जिस उस्ताद ने मेरे दिल-ओ-दिमाग़ पर क़ब्ज़ा जमा लिया वो सय्यद मुहम्मद ताहिर साहब थे। आप हमें उर्दू पढ़ाते थे। न सिर्फ़ उनके पढ़ाने का अंदाज़ बहुत उम्दा था बल्कि वो ख़ुश-मिज़ाज भी थे। क़हक़हा बहुत बुलंद आवाज़ में लगाते थे और देर तक हंसते रहते थे। हत्ता कि स्कूल की राह-दारियों में
स्टाफ़ रुम में या किसी जमात के कमरे में होते तो भी उनके क़हक़हे से पता चल जाता था कि ताहिर साहब यहीं कहीं हैं। उनकी दिलचस्प बातों पर पूरी क्लास दिल खोल कर क़हक़हे लगाया करती थी।
चुनाँचे हमारा उर्दू का पीरियड सबसे मज़े-दार होता था और लगता ही नहीं था कि पड़ाई हो रही है


लेकिन पढ़ाई साथ-साथ होती जाती थी। ताहिर साहब को सैकड़ों बल्कि हज़ारों शे'र याद थे। मौक़े के लिहाज़ से ग़ज़ब का शे’र पढ़ते थे। इससे मेरा शे’र-ओ-शायरी का शौक़ बहुत बढ़ गया। वो जमात में तालिब-ए-इल्मों से शे’र सुनाने की फ़र्माइश करते। अगर कोई लड़का अच्छा शे’र पढ़ता तो बहुत दाद देते और हौसला-अफ़ज़ाई करते। चुनाँचे मैंने इधर-उधर से किताबें ले कर बड़े-बड़े शायर
मसलन ग़ालिब
इक़बाल और मीर वग़ैरा के बे-शुमार शे’र एक कापी में लिख लिए और याद कर लिए
बल्कि बहुत से शे’र तो लिखने के दौरान ही याद हो गए। फिर तो ये होने लगा कि ताहिर साहब एक शे’र सुनाते और एक मैं सुनाता और पूरी क्लास “वाह-वा” कर के दाद के डोंगरे बरसाती।


ताहिर साहब ने हमें तीन साल तक यानी आठवीं
नौवीं और दसवीं में उर्दू पढ़ाई और हक़ ये है कि उर्दू पढ़ाने का हक़ अदा कर दिया औरों का तो मैं नहीं कह सकता
लेकिन मेरे अंदर उन्होंने उर्दू ज़बान और उर्दू शे’र-ओ-अदब का एक ऐसा ज़ौक़ और मुताले का ऐसा शौक़ पैदा कर दिया जिसने आगे चल कर मेरी पढ़ाई और ज़िंदगी पर बहुत गहरा असर डाला। अल्लाह उन्हें ख़ुश रखे।
उन्हीं तीन सालों में शब्बीर साहब से भी रब्त-ज़ब्त रहा। अगर-चे साईंस के आदमी थे और अलजेब्रा और तबी'आत यानी फिज़िक्स पढ़ाते थे


लेकिन शायरी से और अदब से उन्हें भी बड़ा लगाओ था। इसी तरह हमारे एक उस्ताद अहमद साहब थे। वो ख़ुद शायर थे और कुछ दिनों तक मैं उनसे (शायरी पर) इस्लाह भी लेता रहा।
तीसरी-चौथी जमात में मैंने रिसाले
कहानियाँ और नॉवल इस तरह चाटना शुरू कर दिए जैसे वो क़ुलफ़ी या खट्टा-मीठा चूरन हो। उसी दौर में मैंने हमदर्द नौनिहाल पढ़ना शुरू कर दिया और ये मेरे मन को ऐसा भाया कि आज तक इसे नहीं छोड़ सका बल्कि अब तो मेरा बेटा सज्जाद भी इसे पढ़ता है। हर माह जब अख़बार वाला हमदर्द नौनिहाल का ताज़ा शुमारा दे जाता है तो दोनों बाप-बेटे इस कोशिश में होते हैं कि इसे पहले मैं पढ़ लूँ और अब तो सज्जाद की अम्मी जान मोहतरमा भी इस दौड़ में शरीक हो गई हैं।
हमदर्द नौनिहाल से मैंने बहुत कुछ सीखा। इससे मैंने उर्दू सीखी (उर्दू मेरी मादरी ज़बान नहीं है।) हमदर्द नौनिहाल से मैंने कहानियाँ और मज़मून लिखना सीखा। बे-शुमार मा'लूमात और अक़्ल की बातें इसने मुझे सिखाईं। दर-हक़ीक़त हमदर्द नौनिहाल भी मेरे उस्तादों में शामिल है। ये मेरा मोहसिन है और ये बात मैं जनाब हकीम मुहम्मद सईद साहब या जनाब मसऊद अहमद बरकाती साहब को ख़ुश करने के लिए नहीं लिख रहा। ये सच्ची बात है। अपने उस्तादों के साथ नौनिहाल के लिए भी दिल से दुआ निकलती है। कितने ख़ुश-नसीब हैं पाकिस्तानी बच्चे कि उनके मुल्क से एक निहायत उम्दा रिसाला उनकी सही तर्बियत और रहनुमाई के लिए निकलता है।


भई अपने उस्तादों का ये ज़िक्र कुछ तवील होता जा रहा है
इसलिए में इसे ख़त्म करता हूँ लेकिन ठहरिए... ओफ़्फ़ो भई हद हो गई। उस्तादों का ये ज़िक्र इलयास साहब के बग़ैर भला कैसे मुकम्मल हो सकता है? उन्होंने हमें साल डेढ़ साल अंग्रेज़ी पढ़ाई। आठवीं में और कुछ अर्से नौवीं में। अंग्रेज़ी पढ़ाई क्या थी बस घोल कर पिला दी थी। अंग्रेज़ी ग्रामर की बा'ज़ चीज़ें उन्होंने जिस तरह हंसा-हंसा कर और मज़ाक़ ही मज़ाक़ में पढ़ा दीं वो इतने काम की निकलीं कि वहीं से सही माअनों में अंग्रेज़ी हमारी समझ में आने लगी और ये बुनियादी बातें शायद कोई और इस तरह न बता पाए। अल्लाह जाने इलयास साहब अब कहाँ हैं? लेकिन वो जहाँ कहीं भी हों अल्लाह-तआला उन्हें ख़ुश रखे और दुनिया-ओ-आख़िरत की ने'मतों से माला-माल करे। आमीन...
उन्होंने और ताहिर साहब ने हमें निहायत उम्दा तरीक़े पर अंग्रेज़ी और उर्दू पढ़ा कर बहुत बड़ा एहसान किया।
बल्कि दर-हक़ीक़त मेरे तमाम उस्ताद मेरे मोहसिन हैं


चाहे वो स्कूल के ज़माने के हों
कॉलेज के हों या यूनीवर्सिटी के। उन्होंने मुझ पर बड़ा एहसान किया। मुझे इल्म की दौलत से माला-माल किया। मुझे उस वक़्त अक़्ल और ता'लीम दी जब मैं कुछ भी नहीं जानता था।

- रऊफ़-पारेख


बच्चो हर मुल्क और हर क़ौम में कुछ कहानियाँ ऐसी मशहूर रहती हैं जो उस मुल्क के वासियों या क़ौम के अफ़राद के ज़हनों में पुश्त-हा-पुश्त से चली आती हैं
साईंस की बढ़ती हुई तरक़्क़ी भी अवाम के ज़ह्न से वो हिकायतें नहीं निकाल सकती।
ऐसी हिकायतों को “लोक कहानी” कहते हैं
आज मैं तुमको वियतनाम की एक लोक कहानी सुनाता हूँ


अब ये लोक कहानी एक अलामत के तौर पर इस्तिमाल होती है।
वाक़िया यूँ बयान किया जाता है कि बहुत ज़माने पहले वियतनाम में एक जज़बाती लड़की थी
बचपन ही में उसकी माँ मर चुकी थी
उसकी परवरिश महल्ले की एक बूढ़ी औरत कर रही थी। उसका बाप ताजिर था। इसलिए ज़्यादा-तर घर से बाहर ही रहता था। माँ के मर जाने और बाप के साथ न रहने की वजह से वो कुछ बे-पर्वा


अल्हड़ और शोख़ हो गई थी। उसका बाप साल भर में सिर्फ़ चंद दिनों के लिए मौसम-ए-बहार में घर आता था। उसकी लड़की अब कुछ होश-गोश की हो गई थी और दिन-भर कपड़े बुनती रहती थी
शाम को वो दरिया की लहरों पर ख़ाली-अल-ज़ह्न हो कर निगाह डाला करती थी।
एक रोज़ जब वो मकान के दरवाज़े पर खड़ी हुई थी तो उसे बाग़ में पत्ते खड़कने की आवाज़ आई
उसने देखा कि उसके बाप का सफ़ेद घोड़ा अस्तबल से निकल आया है


घोड़े को देख कर लड़की को बाप की याद आ गई
घोड़े के पास पहुँच कर यूँ ही बे-पर्वाई से बोली कि “अगर तुम मेरे वालिद को ढूँढ कर उन्हें मेरे पास ले आओगे तो मैं तुमसे शादी कर लूँगी।”
इसके बाद ही घोड़ा एक तरफ़ रवाना हो गया और वो मुसलसल तीन दिन और तीन रात जंगलों और पहाड़ों में चलता रहा
फिर वो एक पहाड़ी के क़रीब सराय के पास जा कर रुका और ज़ोर से हिन-हिनाया


एक ताजिर(जो हक़ीक़तन लड़की का बाप था और सराय में बैठा शराब पी रहा था।) घोड़े की आवाज़ सुनते ही प्याला फेंक कर बाहर आया। घोड़े को देख कर उसे ये अंदेशा हुआ कि घर में कुछ न कुछ हादिसा हुआ है। अपने मालिक को देख कर घोड़ा ख़ुशी से दुम हिलाने और हिन-हिनानी लगा। इसके बाद मालिक के साथ ही वो घर की तरफ़ चल पड़ा।
घोड़े के साथ बाप को देख कर लड़की की ख़ुशी की कोई इंतिहा न रही मगर वो इस अरसे में ये भूल गई कि उसने घोड़े से क्या वादा किया था।
घोड़ा उसी रोज़ से बीमार पड़ गया और अस्तबल में पड़ा रहा। वो न तो खाता था और न ही उसे नींद आती थी
वो अपनी ग़मगीं और उदास आँखों से अस्तबल में बैठा-बैठा लड़की के तमाम हरकात-ओ-सकनात को देखता था।


जब कभी लड़की पास से गुज़रती तो घोड़ा ख़ास अंदाज़ से आह भरता। लेकिन लड़की के दिल में उसका कोई असर न होता था।
जब घोड़े की हालत दिन-ब-दिन ख़राब होने लगी तो लड़की के बाप ने अपनी बेटी से उसके बारे में पूछ-गछ की
लड़की ने पूरा वाक़िया उसे बता दिया। वाक़िया सुन कर बाप सख़्त हैरत-ज़दा और परेशान हुआ
उस ग़रीब जानवर का कुछ ख़्याल किए बग़ैर उसने अपना तीर कमान सँभाला और घोड़े को मार दिया। उसने घोड़े का चमड़ा निकलवा कर पास की झाड़ी पर रख दिया। उसके बाद ताजिर अपने सफ़र पर ये कह कर रवाना हो गया कि वो घोड़े के चमड़े को रोज़ धूप में सुखाया करे ताकि कुछ दिनों के बाद वो काम का हो जाए।


एक दोपहर जबकि लड़की घर में कपड़े बुन रही थी एक तूफ़ान आया
वो चमड़ा उठाने के लिए झाड़ी की तरफ़ बेज़ारी से ये कहती हुई दौड़ी कि “नापाक चीज़! तुम्हारी वजह से मुझे परेशानी होती है मेरा तो जी चाहता कि तुझको तालाब में फेंक दूँ।”
जैसे ही उसने आख़िरी अलफ़ाज़ अदा किए चमड़ा ख़ुद-ब-ख़ुद उठ कर और इस लड़की को लपेट कर आसमान की तरफ़ उड़ गया... कुछ वक़फ़े के बाद वो बेर के दरख़्तों के पास रेशम के एक कोइए की शक्ल में उतरा जिसके अंदर रेशम का कीड़ा था।
ये कहानी वियतनाम में अब भी याद की जाती है। देहातों में जब रेशम का कोइया नज़र आता है तो लोग अपने बच्चों को बताते हैं कि अव्वल-अव्वल ये घोड़े का चमड़ा था और इसके बीच में रेशम का कीड़ा वही शोख़


अलहड़ा और बेपर्वा लड़की थी।

- अलीमुल्लाह-हाली