HEARTWARMING STORIES SHAYARI

FEEL THE MAGIC OF EMOTIVE EXPRESSIONS

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ट्रेन मग़रिबी जर्मनी की सरहद में दाख़िल हो चुकी थी। हद-ए-नज़र तक लाला के तख़्ते लहलहा रहे थे। देहात की शफ़्फ़ाफ़ सड़कों पर से कारें ज़न्नाटे से गुज़रती जाती थीं। नदियों में बतखें तैर रही थीं। ट्रेन के एक डिब्बे में पाँच मुसाफ़िर चुप-चाप बैठे थे।
एक बूढ़ा जो खिड़की से सर टिकाए बाहर देख रहा था। एक फ़र्बा औ’रत जो शायद उसकी बेटी थी और उसकी तरफ़ से बहुत फ़िक्रमंद नज़र आती थी। ग़ालिबन वो बीमार था। सीट के दूसरे सिरे पर एक ख़ुश शक्ल तवील-उल-क़ामत शख़्स
चालीस साल के लगभग उ’म्र
मुतबस्सिम पुर-सुकून चेहरा एक फ़्रैंच किताब के मुताले’ में मुनहमिक था। मुक़ाबिल की कुर्सी पर एक नौजवान लड़की जो वज़्अ’ क़त्अ’ से अमरीकन मा’लूम होती थी


एक बा-तस्वीर रिसाले की वरक़-गर्दानी कर रही थी और कभी-कभी नज़रें उठा कर सामने वाले पुर-कशिश शख़्स को देख लेती थी। पाँचवें मुसाफ़िर का चेहरा अख़बार से छिपा था। अख़बार किसी अदक़ अजनबी ज़बान में था। शायद नार्देजियन या हंगेरियन
या हो सकता है आईसलैंडिक। इस दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जो आईसलैंडिक में बातें करते हैं। पढ़ते लिखते और शे’र कहते हैं। दुनिया अ’जाइब से ख़ाली नहीं।
अमरीकन-नुमा लड़की ने जो ख़ालिस अमरीकन तजस्सुस से ये जानना चाहती थी कि ये कौन सी ज़बान है
उस ख़ूबसूरत आदमी को अख़बार पढ़ने वाले नौजवान से बातें करते सुना। वो भी किसी अजनबी ज़बान में बोल रहा था। लेकिन वो ज़बान ज़रा मानूस सी मा’लूम हुई। लड़की ने क़यास किया कि ये शख़्स ईरानी या तुर्क है। वो अपने शहर टोरांटो में चंद ईरानी तलबा’ से मिल चुकी थी। चलो ये तो पता चल गया कि ये फ़ैबूलस गाय (fabulous guy) पर्शियन है। (उसने अंग्रेज़ी में सोचा। मैं आपको उर्दू में बता रही हूँ क्योंकि अफ़साना ब-ज़बान-ए-उर्दू है।)


अचानक बूढ़े ने जो अंग्रेज़ था
आहिस्ता से कहा
“दुनिया वाक़ई’ ख़ासी ख़ूबसूरत है।”
ये एक क़तई बर्तानवी अंडर-स्टेटमेंट था। लड़की को मा’लूम था कि दुनिया बे-इंतिहा ख़ूबसूरत है। बूढ़े की बेटी कैनेडियन लड़की को देखकर ख़फ़ीफ़ सी उदासी से मुस्कुराई। बाप की टांगों पर कम्बल फैला कर मादराना शफ़क़त से कहा


“डैड। अब आराम करो।”
उसने जवाब दिया
“ऐडना। मैं ये मनाज़िर देखना चाहता हूँ।”
उसकी बेटी ने रसान से कहा


“अच्छा इसके बा’द ज़रा सो जाओ।”
इसके बा’द वो आकर कैनेडियन लड़की के पास बैठ गई। गो अंग्रेज़ थी मगर शायद अपना दुख बाँटना चाहती थी।
“मेरा नाम ऐडना हंट है। ये मेरे वालिद हैं प्रोफ़ैसर चाल्स हंट।”
उसने आहिस्ता से कहा।


“तमारा फील्डिंग टोरांटो। कैनेडा।”
“कैंब्रिज। इंगलैंड। डैड वहाँ पीटर हाऊस में रियाज़ी पढ़ाते थे।”
“बीमार हैं?”
“सर्तान... और उन्हें बता दिया गया है।”


ऐडना ने सरगोशी में जवाब दिया।
“ओह। आई ऐम सो सौरी।”
तमारा फील्डिंग ने कहा। ख़ामोशी छा गई। किसी अजनबी के ज़ाती अलम में दफ़अ’तन दाख़िल हो जाने से बड़ी ख़जालत होती है।
“अगर तुमको ये मा’लूम हो जाए।”


ऐडना ने आहिस्ता-आहिस्ता कहा
“कि ये दुनिया बहुत जल्द फ़ुलाँ मुद्दत के बा’द और हमेशा के लिए छोड़नी है तो जाने कैसा लगता होगा।”
“इस मुआ’मले में इंसान को बहुत साबिर और फ़लसफ़ी हो जाना चाहिए”
तमारा ने कहा और ख़फ़ीफ़ सी हँसी।


“हालाँकि ये भी बेकार है।”
“आप ठीक कहती हैं जैसे मैं इस वक़्त ख़ुद साबिर और फ़लसफ़ी बनने की कोशिश कर रही हूँ।”
तमारा ने कहा।
ऐडना ने सवालिया नज़रों से उसे देखा गो ब-हैसियत एक वज़्अ-दार अंग्रेज़ ख़ातून वो किसी से ज़ाती सवाल करना न चाहती थी।


इस बे-तकल्लुफ़ कैनेडियन लड़की ने बात जारी रखी।
“मैं जर्मनी आना न चाहती थी। इस मुल्क से बहुत ख़ौफ़नाक यादें वाबस्ता हैं। मेरी वालिदा के दो मामूँ एक ख़ाला उनके बच्चे। सब के सब। मेरी मम्मी आज भी किसी फ़ैक्ट्री की चिमनी से धुआँ निकलता देखती हैं तो मुँह फेर लेती हैं।”
“ओह!”
“हालाँकि ये मेरी पैदाइश से बहुत पहले के वाक़िआ’त हैं।”


“ओह। मैं तुम्हारे क्रिस्चन नाम से समझी तुम रूसी-नज़ाद हो। हालाँकि तुम्हारा ख़ानदानी नाम ख़ालिस ऐंग्लो-सैक्सन है।”
“मेरे नाना रूसी थे। मेरे वालिद का असल नाम डेवीड ग्रीनबर्ग था। कैनेडा जाकर तअस्सुब से बचने के लिए बदल कर फील्डिंग कर लिया लेकिन मैं...”
उसने ज़रा जोश से कहा
“मैं अपने बाप की तरह बुज़दिल नहीं। मैं अपना पूरा नाम इस तरह लिखती हूँ। तमारा ग्रीनबर्ग फील्डिंग।”


“वाक़ई?”
बर्तानवी ख़ातून ने कहा
“कितनी दिलचस्प बात है।”
“औलाद-ए-आदम का शजरा बहुत गुंजलक है”


तमारा ने ग़ैर-इरादी तौर पर ज़रा ऊंची आवाज़ में कहा। क्योंकि वो इस वज्ह से हमेशा मुतहय्यर रहती थी। सामने वाले दिल-कश आदमी ने उसका फ़िक़रा सुना और सर उठा कर उसे देखा और मुस्कुराया। गोया कहता हो
“मैं तुम्हारी बात समझता हूँ।”
लड़की दिल ही दिल में उसकी मशकूर हुई और उसे देखकर ख़ुद भी मुसकुराई
अब ग़ालिबन मैं इस अजनबी पर आ’शिक़ होती जा रही हूँ।


बर्तानवी ख़ातून ने भी ये अंदाज़ा लगा लिया कि वो दोनों एक दूसरे को दिलचस्पी से देख रहे हैं। एक जगह पर दो इंसान एक दूसरे की तरफ़ खिंचें तो समझ लीजिए कि इस अंडर-करंट को हाज़िरीन फ़ौरन महसूस कर लेंगे। क्यों कि औलाद-ए-आदम की बाहम कशिश का अ’जब घपला है।
बूढ़ा प्रोफ़ैसर आँखें खोल कर फिर खिड़की के बाहर देखने लगा।
“मेरे नाना... जब करीमिया से भागे इन्क़िलाब के वक़्त तो अपने साथ सिर्फ़ क़ुरआन लेकर भागे थे।”
तमारा ने आहिस्ता से कहा।


“कोरान...?”
ऐडना ने तअ’ज्जुब से दुहराया
“हाँ। वो मोज़्लिम थे और मेरी नानी मम्मी को बताती थीं
वो अक्सर कहा करते थे कि क़ुरआन में लिखा है


दुनिया बहुत ख़ूबसूरत है। इस में ख़ुशी से रहो और दूसरों को भी ख़ुश रहने दो। और शायद मोज़्लिम प्रौफ़ेट ने कहा था कि इससे बेहतर दुनिया नहीं हो सकती।”
सिगरेट सुलगाने के लिए तमारा ने हस्ब-ए-मा’मूल लाइटर की तलाश में बैग खंगालना शुरू’ किया।
ईरानी-नुमा शख़्स ने फ़ौरन आगे झुक कर अपना लाइटर जलाया। फिर इजाज़त चाह कर तमारा के पास बैठ गया।
ऐडना हंट दूसरी तरफ़ सरक गई। ईरानी-नुमा शख़्स खिड़की के बाहर गुज़रते हुए सुहाने मंज़र देखने में महव हो गया। तमारा ने उससे आहिस्ता से कहा


“ये बुज़ुर्ग सर्तान में मुब्तिला हैं। जिन लोगों को ये मा’लूम हो जाता है कि चंद रोज़ बा’द दुनिया से जाने वाले हैं उन्हें जाने कैसा लगता होगा। ये ख़याल कि हम बहुत जल्द मा’दूम हो जाएँगे। ये दुनिया फिर कभी नज़र न आएगी।”
ईरानी नुमा शख़्स दर्द-मंदी से मुस्कुराया
“जिस इंसान को ये मा’लूम हो कि वो अ’न-क़रीब मौत के मुँह में जाने वाला है। वो सख़्त दिल हो जाता है।”
“वाक़ई?”


हम-सफ़र ने अपना नाम बताया। दक़तूर शरीफ़यान। तबरेज़ यूनीवर्सिटी। शो’बा-ए-तारीख़। कार्ड दिया। उस पर नाम के बहुत से नीले हुरूफ़ छपे थे। लड़की ने बशाशत से दरियाफ़्त किया
“एन.आई.क्यू. या’नी नो आई.क्यू?”
“नुसरतउद्दीन इमाम क़ुली।”
लड़की ने अपना नाम बताने की ज़रूरत न समझी। उसे मा’लूम था कि ये इस नुसरतउद्दीन इमाम क़ुली से उसकी पहली और आख़िरी मुलाक़ात हरगिज़ नहीं है।


एक क़स्बे के स्टेशन पर ट्रेन रुकी। अख़बार पढ़ने वाला लड़का उसी जगह सुरअ’त से उतर गया। दक़तूर शरीफ़यान भी लपक कर बाहर गए। बारिश शुरू’ हो चुकी थी। दरख़्त और फूल और घास पानी में जगमगा रहे थे। इक्का-दुक्का मुसाफ़िर बरसातियाँ ओढ़े प्लेटफार्म पर चुप-चाप खड़े थे। चंद लम्हों बा’द ईरानी प्रोफ़ैसर लंबे-लंबे डग भरता कम्पार्टमेंट में वापिस आया। उसके हाथ में लाला के गुल-दस्ते थे जो उसने बड़े अख़्लाक़ से झुक कर दोनों ख़वातीन को पेश किए और अपनी जगह पर बैठ गया।
आध घंटा गुज़र गया। बूढ़ा सो चुका था। दूसरे कोने में उसकी फ़र्बा बेटी अपनी बाँहों पर सर रखकर ऊँघ रही थी। दफ़अ’तन ईरानी दक़तूर ने कैनेडियन लड़की से कहा
“तमारा ख़ानम। कहाँ तक मेरे साथ रहोगी?”
वो इस सवाल का मतलब समझी और उसे आज तक किसी ने तमारा ख़ानम कह कर मुख़ातिब न किया था। दर-अस्ल वो अपने घर और कॉलेज में टिम कहलाती थी। कहाँ ना-मा’क़ूल टिम और कहाँ तमारा ख़ानम। जैसे सरोद बज रहा हो या उ’मर ख़य्याम का मिसरा। तमारा ख़ानम की ईरान से वाक़फ़ियत महज़ ऐडवर्ड फ़िटनर जेरल्ड तक महदूद थी। उसने उसी कैफ़ियत में कहा


“जहाँ तक मुम्किन हो।”
बहर-हाल वो दोनों एक ही जगह जा रहे थे। तमारा ने ईरानी प्रोफ़ैसर के सूटकेस पर चिपका हुआ लेबल पढ़ लिया था।
“तुम वहाँ पढ़ने जा रही हो या सैर करने?”
“पढ़ने। बायो-कैमिस्ट्री। मुझे एक स्कालरशिप मिला है। तुम ज़ाहिर है पढ़ाने जा रहे होगे।”


“सिर्फ़ चंद रोज़ के लिए। मेरी दानिश-गाह ने एक ज़रूरी काम से भेजा है।”
ट्रेन क़रून-ए-वुस्ता के एक ख़्वाबीदा यूनीवर्सिटी टाउन में दाख़िल हुई।
दूसरे रोज़ वो वा’दे के मुताबिक़ एक कैफ़ेटेरिया में मिले। काउंटर से खाना लेने के बा’द एक दरीचे वाली मेज़ पर जा बैठे। दरीचे के ऐ’न नीचे ख़ुश-मंज़र नदी बह रही थी। दूसरे किनारे पर एक काई-आलूद गोथिक गिरजा खड़ा था। सियाह गाऊन पहने अंडर-ग्रैजूएट नदी के पुल पर से गुज़र थे।
“बड़ा ख़ूबसूरत शहर है।”


तमारा ने बे-साख़्ता कहा।
हालाँकि वो जर्मनी की किसी चीज़ की ता’रीफ़ करना न चाहती थी। दक़तूर नुसरतउद्दीन एक पर मज़ाक़ और ख़ुश-दिल शख़्स था। वो इधर-उधर की बातें कर के उसे हँसाता रहा। तमारा ने उसे ये बताने की ज़रूरत न समझी कि वो जर्मनी से क्यों मुतनफ़्फ़िर थी। अचानक नुसरतउद्दीन ने ख़ालिस तहरानी लहजे में उससे कहा

“ख़ानम जून”


“हूँ...? जून का मतलब?”
“ज़िंदगी!”
“वंडरफुल। यानी मैं तुम्हारी ज़िंदगी हूँ!”
उसने बे-पर्वाई से हाथ हिलाया


“हाहा! मेरी ज़िंदगी! सुनो ख़ानम जून। एक दिलचस्प बात बताऊँ। तुम मुझे बिल्कुल मेरी दादी जैसी लगती हो।”
“बहुत ख़ूब। आपसे ज़ियादा बा-अख़्लाक़ शख़्स पूरे यूरोप में न होगा। एक चौबीस साला लड़की को आप अपनी दादी बनाए दे रहे हैं!”
“वल्लाह... किसी रोज़ तुम्हें उनकी तस्वीर दिखलाऊँगा।”
दूसरी शाम वो उसके होस्टल के कमरे में आया। तमारा अब तक अपने सूटकेस बंद कर के सामान तर्तीब से नहीं जमा सकी थी। सारे कमरे में चीज़ें बिखरी हुई थीं।


“बहुत फूहड़ लड़की हो। कोई समझदार आदमी तुमसे शादी न करेगा।”
उसने आतिश-दान के सामने चमड़े की आराम-कुर्सी पर बैठते हुए कहा।
तमारा ने जल्दी-जल्दी कुछ सामान उठा कर एक तरफ़ रखा।
“लोग-बाग मुझसे अभी से जलने लगे हैं कि मैंने आते ही कैम्पस की सबसे ख़ूबसूरत लड़की छांट ली।”


“छांट ली! अ’रब शुयूख़ की तरह आप भी हरम रखते हैं!”
तमारा ने मसनूई’ ग़ुस्से से कहा।
वो ज़ोर से हँसा और कुर्सी की पुश्त पर सर टिका दिया। दरीचे के बाहर सनोबर के पत्ते सरसराए।
“वो भी अ’जीब अय्याश बुज़दिल ज़ालिम क़ौम है।”


तमारा ने मज़ीद इज़हार-ए-ख़याल किया और एक अलमारी का पट ज़ोर से बंद कर दिया। अलमारी के क़द-ए-आदम आईने में प्रोफ़ैसर का दिल-नवाज़ प्रोफ़ाइल नज़र आया और उस पर मज़ीद आ’शिक़ हुई।
“तुम बिल्कुल ठीक कहती हो। ख़ानम जून। हम ईरानियों की भी अरबों से कभी नहीं पटी। हम तो उन्हें कॉकरोच खाने वाला कहते हैं।”
नुसरत ने मुस्कुरा कर पाइप जलाया।
“कॉकरोच खाते हैं?”


तमारा ने हैरत से पूछा और मुँह बनाया
“वहशी
बदो
मशरिक़ी


मुआ’फ़ करना। मेरा मतलब है तुम तो उनसे बहुत मुख़्तलिफ़ हो। ईरानी तो मिडल ईस्ट के फ़्रैंच मैन कहलाते हैं।”
उसने ज़रा ख़जालत से इज़ाफ़ा किया।
“दुरुस्त। मुतशक्किरम। मुतशक्किरम!”
“तर्जुमा करो।”


“जी
थैंक्स।”
उसने नाक में बोलने वाले अमरीकन लहजे में कहा।
वो ख़ूब खिलखिला कर हँसी।


“तुम बहुत अच्छे अदाकार हो। कम से कम टीवी स्टार तो बन सकते हो।”
“वाक़ई? बहुत जल्द तुम मुझे टीवी स्क्रीन पर देख लोगी।”
“क्या तुमने कभी ऐक्टिंग की है?”
“बहुत। कॉलेज में हमेशा रोमियो ये ख़ाकसार ही बना करता था और फ़रहाद।”


“फ़रहाद कौन?”
“थे एक साहिब। आग़ा फ़रहाद बेग।”
उसने निज़ामी के चंद अशआ’र पढ़े। उनका तर्जुमा किया। फिर प्रोफ़ैसर वाले अंदाज़ में जैसे क्लास को पढ़ाता हो
उस रास्ते का नक़्शा समझाया जिधर से आरमीनिया की शहज़ादी शीरीं उसके अपने वतन आज़रबाईजान से गुज़रती ख़ुसरव के दार-उल-सल्तनत पहुँची थी। बाद-अज़ाँ कोह-ए-बे-सुतूँ का जुग़राफ़िया उस कैनेडियन दानिश-जू को ज़हन-नशीं कराया।


हफ़्ते की शाम को पहली बार दक़तूर शरीफ़यान की क़याम-गाह पर उसके हमराह गई। कैम्पस से ख़ासी दूर सनोबरों के झुरमुट में छिपी एक पुरानी इ’मारत की दूसरी मंज़िल पर उसका दो कमरों का अपार्टमेंट था। कमरे में दाख़िल हो कर नुसरतउद्दीन ने लैम्प जलाया। तमारा ने कोट उतार कर कुर्सी पर रखते हुए चारों तरफ़ देखा। फ़ारसी किताबें और रिसाले सारे में बे-तरतीबी से फैले हुए थे।
तमारा को मा’लूम था अब वो हज़ारों बार दुहराया हुआ ड्रामा दुहराया जाएगा। वो रेडियो-ग्राम पर रिकार्ड लगाएगा। फिर उससे पूछेगा उसे कौन सी शराब पसंद है। ऐ’न उस वक़्त सारे मग़रिब के अनगिनत कमरों में यही ड्रामा खेला जा रहा होगा। और वो इस ड्रामे में इस आदमी के साथ हिस्सा लेते हुए नाख़ुश न थी। नुसरत ने क़ीमती फ़्रांसीसी शराब और दो गिलास साईड बोर्ड से निकाले और सोफ़े की तरफ़ आया। फिर उसने झुक कर कहा
“तमारा ख़ानम अब वक़्त आ गया है कि तुमको अपनी दादी मिलवाऊँ।”
वो सुर्ख़ हो गई


“मा’लूम है हमारे यहाँ मग़रिब में इस जुमले के क्या मअ’नी होते हैं?”
“मा’लूम है।”
उसने ज़रा बे-पर्वाई से कहा। लेकिन उसके लहजे की ख़फ़ीफ़ सी बे-पर्वाई को तमारा ने शिद्दत से महसूस किया। अब नुसरतउद्दीन ने अलमारी में से एक छोटा सा एल्बम निकाला और एक वरक़ उलट कर उसे पेश किया। एक बेहद हसीन लड़की पिछली सदी के ख़ावर-मियाना की पोशाक में मलबूस एक फ़्रैंच वज़्अ’ की कुर्सी पर बैठी थी। पस-ए-मंज़र में संगतरे के दरख़्त थे
“दादी अम्माँ। और ये। हमारा संगतरों का बाग़ था।”


तमारा ने देखा दादी में उससे बहुत हल्की सी मुशाबहत ज़रूर मौजूद थी उसने दूसरा सफ़्हा पलटना चाहा। नुसरतउद्दीन ने फ़ौरन बड़ी मुलाइम से एल्बम उसके हाथ से ले लिया
“तमारा ख़ानम वक़्त ज़ाए’ न करो। वक़्त बहुत कम है।”
तमारा ने सैंडिल उतार कर पाँव सोफ़े पर रख लिए वो उसके क़रीब बैठ गया। उसके पाँव पर हाथ रखकर बोला
“इतने नाज़ुक छोटे-छोटे पैर। तुम ज़रूर किसी शाही ख़ानदान से हो।”


“हूँ तो सही शायद।”
“कौन सा? हर मेजिस्टी आ’ला हज़रत तुम्हारे वालिद या चचा या दादा उस वक़्त स्विटज़रलैंड के कौन से क़स्बे में पनाह-गुज़ीं हैं?”
“मेरे वालिद टोरांटो में एक गारमेन्ट फ़ैक्ट्री के मालिक हैं।”
तमारा ने नहीं देखा कि एक हल्का सा साया दक़तूर शरीफ़यान के चेहरे पर से गुज़र गया।


“लेकिन मेरे नाना ग़ालिबन ख़वानीन करीमिया के ख़ानदान से तअ’ल्लुक़ रखते थे।”
“ओहो। ख़वानीन करीमिया... हाजी सलीम गिराई। क़रादौलत गिराई। जानी बेग गिराई। महमूद गिराई कौन से गिराई?”
“नुसरत मुझे मा’लूम है तुम तारीख़ के उस्ताद हो। रो’ब मत झाड़ो। मुझे पता नहीं कौन से गिराई। मैंने तो ये नाम भी इस वक़्त तुमसे सुने हैं।”
“और मौसूफ़ तुम्हारे नाना बालश्वेक इन्क़िलाब से भाग कर पैरिस आए।”


“हाँ। वही पुरानी कहानी। पैरिस आए और एक रेस्तोराँ में नौकर हो गए और रेस्तोराँ के मालिक की ख़ूबसूरत लड़की रोज़लीन से शादी कर ली। और रोज़लीन के अब्बा बहुत ख़फ़ा हुए क्योंकि उनकी दूसरी लड़कियों ने यहाँ जर्मनी में अपने हम मज़हबों से ब्याह किए थे।”
वो दफ़अ’तन चुप हो गई। अब उसके चेहरे पर से एक हल्का सा साया गुज़रा जिसे नुसरतउद्दीन इमाम क़ुली ने देखा।
चंद लम्हों बा’द तमारा ने फिर कहना शुरू’ किया। रोज़लीन के वालिद वाक़ई’ बहुत ख़फ़ा थे। जब रोज़लीन उनसे फ़ख़्रिया कहतीं कि उन्होंने एक रूसी शहज़ादे से शादी की है तो वो गरज कर जवाब देते आजकल हर चपड़-क़नात
कोचवान साईस


ख़ाकरूब जो रूस से भाग कर यहाँ आ रहा है
अपने आपको ड्यूक और काऊंट से कम नहीं बताता। तुम्हारा तातारी ख़ाविंद भी करीमिया के किसी ख़ान का चोबदार रहा होगा। नाना बेचारे का तीन साल बा’द ही इंतिक़ाल हो गया। दर-अस्ल शायद जिला-वतनी का अलम उन्हें खा गया।”
अब शरीफ़यान के चेहरे पर से एक और साया गुज़रा जिसे तमारा ने नहीं देखा।
“मेरी मम्मी उनकी इकलौती औलाद थीं। दूसरी जंग-ए-अ’ज़ीम के ज़माने में मम्मी ने एक पोलिश रिफ्यूजी से शादी कर ली। वो दोनों आज़ाद फ़्रांसीसी फ़ौज में इकट्ठे लड़े थे। जंग के बा’द वो फ़्रांस से हिजरत कर के अमरीका आ गए। जब मैं पैदा हुई तो मम्मी ने मेरा नाम अपनी एक नादीदा मरहूमा फूफी के नाम पर तमारा रखा। वो फूफी रूसी ख़ाना-जंगी में मारी गई थीं। हमारे ख़ानदान में नुसरतउद्दीन ऐसा लगता है कि हर नस्ल ने दोनों तरफ़ सिवाए ख़ौफ़नाक क़िस्म की अम्वात के कुछ नहीं देखा।”


“हाँ बा’ज़ ख़ानदान और बा’ज़ नस्लें ऐसी भी होती हैं...”
नुसरतउद्दीन ने आहिस्ता से कहा। फिर पूछा
“फ़िलहाल तुम्हारी क़ौमियत क्या है?”
“कैनेडियन।”


ईरानी प्रोफ़ैसर ने शराब गिलासों में उंडेली और मुस्कुरा कर कहा
“तुम्हारे नाना और मेरी दादी के नाम।”
उन्होंने गिलास टकराए।
दूसरा हफ़्ता। सूरज ग़ुरूब हो रहा था। वो दोनों एक रेस्तोराँ की तरफ़ जाते हुए बाज़ार में से गुज़रे। अचानक वो खिलौनों की एक दूकान के सामने ठिटक गया और खिड़कियों में सजी गुड़ियों को बड़े प्यार से देखने लगा।


“तुम्हारे बहुत सारे भांजे भतीजे हैं नुसरतउद्दीन?”
तमारा ने दरियाफ़्त किया।
वो उसकी तरफ़ मुड़ा और सादगी से कहा
“मेरे पाँच अदद बच्चे और एक अ’दद उनकी माँ मेरी महबूब बीवी है। मेरी सबसे बड़ी लड़की अठारह साल की है। उसकी शादी होने वाली है। और उसका मंगेतर। मेरे बड़े भाई का लड़का। वो दर-अस्ल टेस्ट पायलट है। इसलिए कुछ पता नहीं। बहुत ख़तरनाक ज़िंदगी है उस बेचारे की।”


वो एक दम ख़ामोश हो गया।
उस वक़्त तमारा को मा’लूम हुआ जब किसी पर फ़ालिज गिरता हो तो कैसा लगता होगा... उसने आहिस्ता से ख़ुद्दार आवाज़ में जिससे ज़ाहिर न हो कि शाकी है
कहा
“तुमने कभी बताया नहीं।”


“तुमने कभी पूछा नहीं।”
उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया। अचानक तमारा ने उसे पहली बार देखा। वो एक संगी इंसान था। कोह-ए-बे-सुतून के पत्थरों से तरशा हुआ मुजस्समा।
एक हफ़्ता और गुज़र गया। तमारा उससे उसी तरह मिला की वो उसे मग़रिब की permissive सोसाइटी की एक आवारा लड़की समझता है तो समझा करे। वो तो उस पर सच्चे दिल से आ’शिक़ थी। उस पर जान देती थी। एक रात नदी के किनारे बेंच पर बैठे हुए नुसरतउद्दीन ने तमारा से कहा
“हलो ख़्वांद ख़ातून।”


“कौन?”
“अलाउद्दीन कैकुबाद दुवुम की मलिका।”
कभी वो उसे तर्कान ख़ातून कह कर पुकारता। मलिक शाह सलजूक़ी की बेगम। कभी उसे शहज़ादी साक़ी बेग कहता
“क्योंकि तुम्हारे अंदर कम-अज़-कम पंद्रह फ़ीसद तातारी ख़ून तो है ही। और सुनो। फ़र्ज़ करो...”


नदी के किनारे उसी रात उसने कहा
“अगर तुम्हारे नाना करीमिया ही में रह गए होते। वहीं किसी ख़ान-ज़ादी से शादी कर ली होती और तुम्हारी अम्माँ फ़र्ज़ करो हमारे किसी ओग़्लो पाशा से ब्याह कर तबरेज़ आ जातीं तो तुम मेरी गुलचहर ख़ानम हो सकती थीं।”
दफ़अ’तन वो फूट-फूटकर रोने लगी। तारीख़। नस्ल। ख़ून। किसका क्या क़ुसूर है? वो बहुत बे-रहम था। नुसरतउद्दीन उसके रोने से मुतअ’ल्लिक़ न घबराया। नर्मी से कहा
“चलो बी-बी जून। घर चलें।”


“घर?”
उसने सर उठाकर कहा
“मेरा घर कहाँ है?”
“तुम्हारा घर टोरोंटो में है। तुमने कभी मुझसे नहीं पूछा कि मेरा घर कहाँ है।”


नुसरतउद्दीन ने ज़रा तल्ख़ी से कहा।
वो रोती रही लेकिन अचानक दिल में उम्मीद की मद्धम सी शम्अ’ रौशन हुई। ये ज़रूर अपनी बीवी से नाख़ुश है। उसकी अज़दवाजी ज़िंदगी पुर-सुकून नहीं। इसी वज्ह से कह रहा है
“मेरा घर कहाँ है?”
उन तमाम मग़रिबी लड़कियों की तरह जो मशरिक़ी नौजवानों से मुआ’शक़े के दौरान उनकी ज़बान सीखने की कोशिश करती हैं


तमारा बड़े इश्तियाक़ से फ़ारसी के चंद फ़िक़रे याद करने में मसरूफ़ थी। एक रोज़ कैफ़ेटेरिया में उसने कहा
“आग़ा इसके सिवा कोई चारा नहीं कि जब हम बूढ़े हो जाएँ तब मिलें।”
“हाँ इसके सिवा कोई चारा नहीं।”
“आज से बीस साल बा’द जब तुम मूर्खों की किसी कान्फ़्रैंस की सदारत के लिए मौंट्रियाल आओ। या यू


एन. में ईरानी सफ़ीर हो कर न्यूयार्क पहुँचो।”
“और तुम किसी अमरीकन करोड़पति की फ़र्बा बेवा हो।”
“हाँ। और टेफ़्नी में हमारी अचानक मुड़भेड़ हो जाए। जहाँ तुम अपनी नवासी की मंगनी की अँगूठी ख़रीदने आए हो। और तुम सोचो मैंने इस बूढ़ी मोटी औ’रत को पहले कहीं देखा है। फ़ारसी में बूढ़ी औ’रत को क्या कहते हैं?”
“पीरा-ज़न।”


“और अ’रबी में?”
“मुझे अ’रबी नहीं आती। तुर्की और फ़्रैंच में अलबत्ता बता सकता हूँ।”
“सुनो नुसरतउद्दीन। एक बात सुनो। आज सुब्ह मैंने एक अ’जीब ख़ौफ़नाक वा’दा अपने आपसे किया है।”
“क्या?”


“जब में उस अमरीकन करोड़-पति से शादी करूँगी...”
“जो ब-वज्ह-उल-सर तुम्हें जल्द बेवा कर जाएगा।”
“हाँ। लेकिन उससे क़ब्ल एक-बार। सिर्फ़ एक-बार। तुम जहाँ कहीं भी होगे। तबरेज़। अस्फ़हान। शीराज़। मैं वहाँ पहुँच कर अपने उस ना-मा’क़ूल शौहर के साथ ज़रूर बे-वफ़ाई करूँगी। ज़रूर बिल-ज़रूर।”
नुसरत ने शफ़क़त से उसके सर पर हाथ फेरा


“बा’ज़ मर्तबा तुम मुझे अपनी दादी की तस्वीर मा’लूम होती हो। बा’ज़ दफ़ा मेरी लड़की की। वो भी तुम्हारी तरह
तुम्हारी तरह अपने इब्न-ए-अ’म को इस शिद्दत से चाहती है।”
वो फिर मलूल नज़र आया।
“आग़ा! तुम मुझे भी अपनी बिंत-ए-अ’म समझो।”


“तुम मेरी बिंत-ए-अ’म हो तो सही।”
“क्योंकि हम सब औलाद-ए-आदम हैं। है ना?”
“औलाद-ए-आदम। औलाद-ए-इबराहीम। आल-ए-याफ़िस। आल-ए-इसहाक़। आल-ए-इस्माईल। मैं इंसान के शजरा-ए-नसब के इस घपले पर मज़ीद रोशनी डाल सकता था तमारा ख़ानम लेकिन अब खाना शुरू’ करो।”
वो रेस्तोराँ की दीवार पर लगे हुए आईने में उसका प्रोफ़ाइल देखने लगी और बोली


“मैंने आज तक ऐसी ख़ूबसूरत नाक नहीं देखी।”
“मैंने भी नहीं देखी।”
शरीफ़यान ने कहा।
“आग़ा! तुम में नर्गिसियत भी है?”


तमारा ने पूछा।
“है”
वो शरारत से मुस्कुराया।
उस वक़्त अचानक तमारा को एक क़दीम फ़्रांसीसी दुआ’ याद आई जो ब्रिटनी के माही-गीर समंदर में अपनी कश्ती ले जाने से पहले पढ़ते थे।


अ’रब-ए-अ’ज़ीम। मेरी हिफ़ाज़त करना
मेरी नाव इतनी सी है
और तेरा समंदर इतना बड़ा है
उसने दिल में दुहराया



अ’रब-ए-अ’ज़ीम। इसकी हिफ़ाज़त करना
इसकी नाव इतनी छोटी सी है
और तेरा समंदर...


“आग़ा। एक बात बताओ।”
“हूँ।”
“तुमने आज का अख़बार पढ़ा? तुम्हारे मुल्क के बहुत से दानिश-जू और दानिश्वर शहनशाह के ख़िलाफ़ हैं। उन्होंने बर्लिन में कल बड़ा भारी जलूस निकाला।”
“पढ़ा।”


“तुम तो जिला-वतन ईरानी नहीं हो?”
“नहीं। मेरा सियासत से कोई तअ’ल्लुक़ नहीं। तमारा ख़ानम मैं लड़के पढ़ाता हूँ।”
“अच्छा। शुक्र है। देखो
किसी ख़तरे में न पड़ना। हर तरफ़ आजकल दुनिया में ख़तरा ही ख़तरा है। अपना ख़याल रखो।”


“अच्छा।”
इस रात वो हस्ब-ए-मा’मूल नदी के किनारे बैठे थे।
तमारा ने कहा
“जब हम अपने-अपने देस वापिस जाएँगे मैं कितनी बातें याद करूँगी। तुमको ख़ैर मेरा ख़याल भी न आएगा। तुम मशरिक़ी लोगों की आ’दत है। यूरोप अमरीका आकर लड़कियों के साथ तफ़रीह की और वापिस चले गए। बताओ मेरा ख़याल कभी आएगा?”


वो मुस्कुरा कर चुप-चाप पाइप पीता रहा।
“तुम नुसरतउद्दीन इमाम क़ुली मेरा दिल रखने के लिए इतना भी नहीं कह सकते कि कम-अज़-कम साल के साल एक अ’दद न्यूयर्ज़ कार्ड ही भेज दिया करोगे। अब तक मेरा पता भी नोट बुक में नहीं लिखा।”
उसने नुसरत के कोट की जेब से नोट बुक ढूंढ कर निकाली। टी का सफ़ा पलट कर अपना नाम और पता लिखा और बोली



“वा’दा करो। यहाँ से जाकर मुझे ख़त लिखोगे?”
“मैं ग़लत वा’दे कभी नहीं करता।”
वो उठ खड़ी हुई और ज़रा ख़फ़गी से आगे-आगे चलने लगी। नुसरत ने चुपके से जेब में से नोट बुक निकाली। वो सफ़्हा अ’लैहिदा किया जिस पर तमारा ने अपना पता लिखा था। बारीक-बारीक पुर्ज़े कर के उनकी गोली बनाई और नदी में फेंक दी।
सुब्ह-सवेरे छः बजे तमारा की आँख खुल गई। उसने तकिए से ज़रा सा सर उठा कर दरीचे के बाहर देखा। सुब्ह की रोशनी नुक़रई पानी की मानिंद सनोबरों पर फैल रही थी। चंद लम्हों बा’द उसने आँखें बंद कीं और फिर सो गई। सवा आठ के क़रीब जब वो बिस्तर से उठी


नुसरत मेज़ पर नाश्ता चुनने में मसरूफ़ हो गया था।
फ़ोन की घंटी बजी। तमारा ने करवट बदल कर काहिली से हाथ बढ़ाया। टेलीफ़ोन पलंग के सिरहाने किताबों के अंबार पर रखा था। उसने ज़रा सा सरक कर रिसीवर उठाया और “उल्लू” कहे बग़ैर नुसरत को इशारे से बुलाया। वो लपक कर आया और रिसीवर हाथ में लेकर किसी से फ़्रैंच में बातें करने लगा। गुफ़्तगू ख़त्म करने के बा’द नुसरत ने झुक कर उससे कहा
“ख़ानम जून। अब उठो।”
उसने सुस्ती से क्लाक पर नज़र डाली और मिनट की सूई को आहिस्ता-आहिस्ता फिसलते देखती रही। नुसरत बावर्चीख़ाने में गया। क़हवे की कश्ती लाकर गोल मेज़ पर रखी। तमारा को आवाज़ दी और दरीचे के क़रीब खड़े हो कर क़हवा पीने में मसरूफ़ हो गया। उसके एक हाथ में तोस था और दूसरे में प्याली। और वो ज़रा जल्दी-जल्दी तोस खाता जा रहा था। सफ़ेद जाली के पर्दे के मुक़ाबिल उसके प्रोफ़ाइल ने बेहद ग़ज़ब ढाया। तमारा छलांग लगा कर पलंग से उत्तरी और उसके क़रीब जाकर बड़े लाड से कहा


“आज इतनी जल्दी क्या है। तुम हमेशा देर से काम पर जाते हो।”
“साढ़े नौ बजे वाइस चांसलर से अप्वाइंटमेंट है।”
उसने क्लाक पर नज़र डाल कर जवाब दिया। “झटपट तैयार हो कर नाश्ता कर लो। तुम्हें रास्ते में उतारता जाऊँगा।”
ठीक पौने नौ पर वो दोनों इ’मारत से बाहर निकले। सनोबरों के झुंड में से गुज़रते सड़क की तरफ़ रवाना हो गए। रात बारिश हुई थी और बड़ी सुहानी हवा चल रही थी। घास में खिले ज़र्द फूलों की वुसअ’त में लहरें सी उठ रही थीं। वो दस मिनट तक सड़क के किनारे टैक्सी के इंतिज़ार में खड़े रहे। इतने में एक बस आती नज़र आई। नुसरत ने आँखें चुंधिया कर उसका नंबर पढ़ा और तमारा से बोला


“ये तुम्हारे होस्टल की तरफ़ नहीं जाती। तुम दूसरी बस में चली जाना मैं इसे पकड़ता हूँ।” उसने हाथ उठा कर बस रोकी। तमारा की तरफ़ पलट कर कहा
“ख़ुदा-हाफ़िज़” और लपक कर बस में सवार हो गया।
शाम को क्लास से वापिस आकर तमारा ने हस्ब-ए-मा’मूल उसे फ़ोन किया। घंटी बजी वो शायद अब तक वापिस न आया था।
दूसरी सुब्ह इतवार था। वो काफ़ी देर में सो कर उठी। उसकी जर्मन रुममेट बाहर जा चुकी थी। उसने उठकर हस्ब-ए-मा’मूल दरवाज़े के नीचे पड़े हुए संडे ऐडिशन उठाए। सबसे ऊपर वाले अख़बार की शह-सुर्ख़ी में वो ख़ौफ़नाक ख़बर छपी थी। उसकी तस्वीर भी शाए’ हुई थी। वो दक़तूर नुसरतउद्दीन इमाम क़ुली शरीफ़यान प्रोफ़ैसर-ए-तारीख़-ए-दानिश-गाह-ए-तबरेज़ नहीं था। वो ईरानी भी नहीं था। लेकिन अख़बार में उसका जो नाम छपा था वो भी ग़ालिबन उसका अस्ल नाम न था। उसके साथ दूसरी तस्वीर उस दुबले-पतले नौजवान की थी जो ट्रेन में सारा वक़्त अख़बार पढ़ता रहा था और ख़ामोशी से एक क़स्बे के स्टेशन पर उतर गया था।


नज़दीक के एक शहर के एयरपोर्ट में एक तय्यारे पर दस्ती बमों और मशीन-गनों से हमला करते हुए वो तीन मारे गए थे। नुसरतउद्दीन ने हमला करने के बा’द सबसे पहले दस्ती बम से ख़ुद को हलाक किया था। हँसी ख़ुशी अपनी मर्ज़ी से हमेशा के लिए मा’दूम हो गया था।
वो दिन-भर नीम-ग़शी के आ’लम में पलंग पर पड़ी रही। मुतवातिर और मुसलसल उसके दिमाग़ में तरह-तरह की तस्वीरें घूमती रहीं। जैसे इंसान को सरसाम या हाई ब्लड प्रैशर के हमले के दौरान अनोखे नज़्ज़ारे दिखलाई पड़ते हैं। रंग बिरंगे मोतियों की झालरें। समंदर
बे-तुकी शक्लें
आग और आवाज़ें। वो clareaudience का शिकार भी हो चुकी थी। क्योंकि उसके कान में साफ़ आवाज़ें इस तरह आया कीं जैसे कोई बराबर बैठा बातें कर रहा हो। और ट्रेन की गड़गड़ाहट। मैंने तुम्हारी बात सुनी थी। जिस शख़्स को ये मा’लूम हो कि अ’न-क़रीब मौत के मुँह में जाने वाला है वो सख़्त दिल हो जाता है। ये हमारा संगतरों का बाग़ था। तुमने कभी मुझसे न पूछा मेरा घर कहाँ है।


वंडरफुल। मैं तुम्हारी ज़िंदगी हाहा। मेरी ज़िंदगी। जान-ए-मन। चलो वक़्त नहीं है। वक़्त बहुत कम है। क़रबून। वक़्त ज़ाए’ न करो। मेरी लड़की का मंगेतर। बहुत ख़तरनाक ज़िंदगी है उस बेचारे की। मुझे अ’रबी नहीं आती है। हलो तर्कान ख़ातून। मैं ग़लत वा’दे कभी नहीं करता। ऐसे वा’दे कभी नहीं करता जो निभा न सकूँ। तुम मेरी बिंत-ए-अ’म हो तो सही। आल-ए-इसहाक़। आल-ए-इस्माईल। मैं बनी-आदम के शजरे के इस घपले पर मज़ीद रोशनी डाल सकता हूँ। लेकिन तमारा ख़ानम खाना शुरू’ करो। देखो नुसरत ख़तरे में न पड़ना। हर तरफ़ दुनिया में ख़तरा ही ख़तरा है। अपना ख़याल रखो। अच्छा रखूँगा। शहज़ादी बेग।
अंधेरा पड़े पाला उसकी रुम मेट कमरे में आई। रोशनी जला कर तमारा की तरफ़ देखे बग़ैर बे-ध्यानी से मैकानिकी अंदाज़ में हाथ बढ़ा कर टेलीविज़न का स्विच आन किया और गुनगुनाती हुई बालकनी में चली गई। तमारा करवट बदल कर फटी-फटी आँखों से बर्फ़ीली नीली स्क्रीन देखने लगी।
कुछ देर बा’द न्यूज़रील शुरू’ हुई। अचानक उसका क्लोज़-अप सामने आया। आधा चेहरा। आधा दस्ती बम से उड़ चुका था। सिर्फ़ प्रोफ़ाइल बाक़ी था। दिमाग़ भी उड़ चुका था। एयरपोर्ट के चमकीले शफ़्फ़ाफ़ फ़र्श पर उसका भेजा बिखरा पड़ा था। और अंतड़ियाँ। सियाह जमा हुआ ख़ून। कटा हुआ हाथ। कारतूस की पेटी। गोश्त और हड्डियों का मुख़्तसर-सा मलग़ूबा। तुम बहुत अच्छे अदाकार हो। कम-अज़-कम टीवी स्टार तो बन सकते हो। वाक़ई? जल्द तुम मुझे टीवी स्क्रीन पर देख लोगी।
कैमरा पीछे हटा। लाला का एक गुलदस्ता जो भगदड़ में किसी मुसाफ़िर के हाथ से छुट कर गिर गया था। बराबर में। नुसरतउद्दीन का कटा हुआ हाथ लाला के फूल उसके ख़ून में लत-पत। फिर उसका आधा चेहरा। फिर गोश्त का मलग़ूबा। उस मलग़ूबे को इतने क़रीब देखकर तमारा को उबकाई सी आई। वो चकरा कर उठी और ग़ुस्ल-ख़ाने की तरफ़ भागना चाहा। उसकी हैबत-ज़दा चीख़ सुनकर पाला उसकी रुम मेट बालकनी से लपकी हुई आई। तमारा ने देखा पाला का चेहरा नीला और सफ़ेद था। पाला ने फ़ौरन टेलीविज़न बंद किया और उसे फ़र्श पर से उठाने के लिए झुकी।


पाला के सर पर सफ़ेद स्कार्फ़ बंधा था। जैसे नर्स ऑप्रेशन टेबल पर सर्तान के मरीज़ को लिटाती हो। या उसे एक ट्राली पर बिठाकर गैस चैंबर के अंदर ले जाया जा रहा था। और बराबर की भट्टी में इंसान ज़िंदा जलाए जा रहे थे उनका सियाह धुआँ चिमनियों में से निकल कर आसमान की नीलाहट में घुलता जा था।
अब वो एक नीले हाल में थी। दीवारें
फ़र्श
छत बर्फ़ की तरह नीली और सर्द। कमरे के बा’द कमरे। गैलरियाँ। सब नीले। एक कमरे में सफ़ेद आतिश-दान के पास एक नीले चेहरे वाली औ’रत खड़ी थी। शक्ल से सैंटर्ल यूरोपियन मा’लूम होती थी। पूरा सरापा ऐसा नीला जैसे रंगीन तस्वीर का नीला प्रूफ़ जो अभी प्रैस से तैयार हो कर न निकला हो। एक और हाल। उसके वस्त में क़ालीन बाफ़ी का करघा। करघे पर अधबुना क़ालीन। उस पर “शजर-ए-हयात” का अधूरा नमूना।


“ये शजर-ए-हयात क्या चीज़ है नुसरतउद्दीन?”
“मिडल ईस्ट के क़ालीनों का मोतीफ़ ख़ानम जून।”
करघे की दूसरी तरफ़ सर पर रूमाल बाँधे दो मिडल इस्टर्न औ’रतें। फिर बहुत से प

- क़ुर्रतुलऐन-हैदर


फिर शाम का अंधेरा छा गया। किसी दूर दराज़ की सरज़मीन से
न जाने कहाँ से मेरे कानों में एक दबी हुई सी
छुपी हुई आवाज़ आहिस्ता-आहिस्ता गा रही थी



चमक तारे से मांगी चांद से दाग़-ए-जिगर मांगा
उड़ाई तीरगी थोड़ी सी शब की ज़ुल्फ़-ए-बर्हम से
तड़प बिजली से पाई
हूर से पाकीज़गी पाई


हरारत ली नफ़स हाए मसीह-ए-इब्न-ए-मरियम से
ज़रा सी फिर रबूबियत से शान-ए-बेनियाज़ी ली
मुल्क से आ’जिज़ी
उफ़्तादगी तक़दीर-ए-शब्नम से


ख़िराम-ए-नाज़ पाया आफ़्ताबों ने
सितारों ने
चटक ग़ुंचों ने पाई
दाग़ पाए लाला-ज़ारों ने


कोई वायलिन के मद्धम सुरों पे ये गीत गाता रहा और फिर बहुत सी आवाज़ें प्यारी सी
जानी बूझी सी दूर पहाड़ों पर से उतरती
बादलों में से गुज़रती
चांद की किरनों पर नाचती हुई बिल्कुल मेरे नज़दीक आगईं। मेरे आस-पास पुराने नग़मे बिखेरने लगीं। मैं चुप-चाप ख़ामोश पड़ी थी। मैंने आँखें बंदकर लेनी चाहीं। मैंने सुना


वायलिन के तार लरज़ उठे... और फिर टूट गए।
“अमीना आपा!”
“हूँ।”
“अमीना आपा


अस्सलामु अ’लैकुम।”
“वाअ’लैकुम।”
“अमीना आपा
एक बात सुनिए।”


“क्या है भई?”
“ओफ़्फ़ो
भई अमीना आपा आप तो लिफ़्ट ही नहीं देतीं।”
“अरे भई क्या करूँ तुम्हारा...”


“बातें कीजीए
टॉफ़ी खाइए।”
“हुम।”
“अमीना आपा


हवाई जहाज़ में बैठिएगा?”
“ख़ुदा के लिए आसिफ़ मेरी जान पर रहम करो।”
“अमीना आपा वाक़ई’ इतना बेहतरीन फ्लाइंग फ़ोरटर्स आपके लिए कैनेडा से लाया हूँ।”
“आ... सिफ़... उल... लू...” ये मेरी आवाज़ थी।


अमीना आपा इंतिहाई बे-ज़ारी और फ़लसफ़े के आलम में सोफ़े पर उकड़ूं बैठी “हिन्दोस्तान का ग़िज़ाई बोहरान” पढ़ने में मशग़ूल थीं।
आसिफ़ ने मज़लूमियत के साथ मुझे देखा।
“चलो। मकीनो से तुम्हारा फ्लाइंग फ़ोरटर्स बनाएंगे... मेरा प्यारा बच्च...”
फिर हम अंधेरा पड़ने तक ड्रेसिंग रुम के दरीचे में बैठे मकीनो से तय्यारों के मॉडल बनाते रहे। “अमीना आपा अब तक ऐसी ही हैं।”


“तो क्या तुम्हारे दाग़-ए-मुफ़ारिक़त दे जाने के ग़म में तब्दील हो जातीं?”
“बहुत ऊंची जाती हैं भई... हिन्दोस्तान का ग़िज़ाई बोहरान... वो क्या होताहै शाहरुख?”
“डैश इट... मुझे नहीं मा’लूम अल्लाह
कौन अ’ज़ीमुश्शान चुग़द उनसे शादी करेगा?”


“ओफ़्फ़ो... बेहतरीन अमरीकी सिगरेट हैं... पियोगी?”
“चुप... अमीना आपा ने देख लिया तो कान पकड़ कर घर से बाहर निकाल देंगी।”
“बोर...”
फिर ये आवाज़ें भीगी रात की हवाओं के साथ नाचती हुई बहुत दूर हो गईं। मैंने सोने की कोशिश की। मेरी आँखों के आगे ख़्वाब का धुँदलका फैलता चला गया।


सर्व के दरख़्तों के पीछे से चांद आहिस्ता-आहिस्ता तुलूअ’ हो रहा था। वो बिल्कुल मा’मूली और हमेशा की सी ज़रा सुनहरी रात थी। हम उसी रोज़ 18
वारिस रोड से शिफ़्ट कर के इस लेन वाली कोठी में आए थे। उस रात हम अपने कमरे सजाने और सामान ठीक करने के बाद थक और उकता कर खाने के इंतिज़ार में ड्राइंगरूम के फ़र्श पर लोट लगा रहे थे। उ’स्मान एक नया रिकार्ड ख़रीद कर लाया था और उसे पच्चीसवीं मर्तबा बजा रहा था। मुझे अब तक याद है कि वो मलिका पुखराज का रिकार्ड था

“जागें तमाम रात


जगाएँ तमाम रात।” मलिका पुखराज की आवाज़ पर हम बहन भाईयों की क़ौम बिलइत्तिफ़ाक़ मरती थी। उ’स्मान जमाहियाँ ले रहा था। सबीहा कुछ पढ़ रही थी और मैं कुशनों पर कुहनियाँ टेके और पैर ऊपर को उठाए क़ालीन पर लेटी लेटी बोर हो रही थी।
और उस वक़्त सामने के बरामदे के अंधेरे में कुछ अजनबी से बूटों की चाप सुनाई दी और एक हल्की सी सीटी बजी... हलो... कोई है... और जैसे समुंदर की मौजों के तरन्नुम के साथ रेवड़ी कोटन के ऑर्केस्ट्रा की धन गूंज उठी।
“अब इस वक़्त कौन हो सकता है?” उ’स्मान ने एक तवील जमाही लेकर रेडियो ग्राम का पट ज़ोर से बंद कर दिया और खिड़की में से बाहर झांक कर देखा।
“वही होगा कृपा राम का आदमी... इन्कम टैक्स के क़िस्से वाला।” मैंने राय ज़ाहिर की और इंतिहाई बोरियत (boredome) के एहसास से निढाल हो कर करवट बदल ली।


“हलो... अरे भई कोई है अंदर।” बाहर से फिर आवाज़ आई।
“ये कृपा राम का चपरासी क़तई नहीं हो सकता। उसकी तो कुछ चार्ल्स ब्वाइर की सी आवाज़ है।” सबीहा के कान खड़े हो गए।
“डूब जाओ तुम ख़ुदा करे।” मैं और भी ज़्यादा बोर हो कर सबीहा को खा जाने के मसले पर ग़ौर करने लगी।
बाहर अंधेर में उ’स्मान और उस आधी रात के मुलाक़ाती के दरमियान इंतिहाई अख़लाक़ और तकल्लुफ़ में डूबा हुआ मुकालमा ब ज़ुबान-ए-अंग्रेज़ी हो रहा था।


“हमारे यहां अचानक बिजली फ़ेल हो गई है। मैं ये मा’लूम करने आया था कि सारी लाईन ही बिगड़ गई है या सिर्फ हमारे यहां ही ख़राब हुई है।”
“हमारे यहां की बिजली तो बिल्कुल ठीक है। आप फ्यूज़ के तार ले जाएं।” फिर कुछ खटपट के बाद उ’स्मान ने हैट रैक की दराज़ में से तारों का लच्छा निकाल कर हम-साए साहिब की नज़र किया और वो बूटों की चाप बरामदे की सीढ़ियों पर से उतर के रविश की बजरी पर से होती हुई फाटक तक पहुंच कर लेन के अंधेरे में खो गई। अगस्त की रात का नारंजी चांद सर्व के दरख़्तों पर झिलमिला रहा था।
ये आसिफ़ था... आसिफ़ अनवर... तुम्हें याद है ज़ारा! मैंने एक दफ़ा तुम्हें लाहौर से लिखा था कि हमारी एक बेहद दिलचस्प ख़ानदान से दोस्ती हो गई है। हमारे हम-साए हैं बेचारे। बिल्कुल हमारे sort के लोग। अब की क्रिसमस में तुम देहरादून के बजाय लाहौर आ जाओ तो ख़ूब enjoy करें। हम सबने माहरुख़ की रियासत तक बैल गाड़ियों पर जाने की स्कीम बनाई है। ये आसिफ़ की तजवीज़ थी जिसे मम्मी आफ़त कहती थीं। उन ही दिनों माहरुख़ की नई-नई शादी मेडिकल कॉलेज के एक मोटे और बे इंतिहा दिलचस्प लड़के से हुई थी और उसने हम सबको हमसायों समेत अपने गांव मदऊ’ किया था।
अल्लाह... वो दिन... वो रातें!


हमारी और उनकी कोठियों के बीच में वारिस रोड की आख़िरी लेन और उसके दोनों तरफ़ बाग़ की नीची सी दीवार थी। हम उसी दीवार को फलाँग कर एक दूसरे के यहां जाया करते थे। अक्सर जाड़ों की धूप में अपनी अपनी छतों पर बैठ कर ग्रामोफोन बजाने का मुक़ाबला रहता। ख़तरे के मौक़ों पर इन बहन-भाईयों को आईने की चमक के ज़रीये एस.ओ.एस. के पैग़ाम भेजे जाते। ये मा’लूम हो कर कि ये लोग भी यू.पी. के हैं किस क़दर ख़ुशी हुई थी। सबसे बड़ी बहन ज़कीया
अमीना आपा के साथ एम.ए. कर रही थीं। शकीला और प्रवीन सबीहा के साथ सेक्रेड हार्ट में थीं।
आसिफ़ साहिब उनके इकलौते भाई थे। सबकी आँखों का तारा। मुतवक़्क़े’ थे कि हम लोग भी उन्हें आँख का तारा समझ कर हमेशा उनके fusses बर्दाश्त करेंगे। आप केमिस्ट्री में एम.एससी. फ़र्मा रहे थे। पेट्रोल के रंग तब्दील करने के तजरबों के बे-इंतिहा शौक़ीन थे। सीटी के साथ साथ वायलिन बेहतरीन बजाते थे। मुग़ालता था कि बेहद ख़ूबसूरत हैं। घर की बुज़ुर्ग ख़वातीनऔर बच्चों से दोस्ती कर ली थी। कार इतनी तेज़ चलाते थे कि हमेशा चालान होता रहता था। लाहौर के सारे चौराहों के पुलिस मैन आपसे अच्छी तरह वाक़िफ़ थे। माल पर पैदल जाती हुई अल्ट्रा मॉडर्न लड़कियों को कार में लिफ़्ट देने के तजुर्बों के बहुत क़ाइल थे। मुख़्तसर ये कि इंतिहाई दिलचस्प आदमी थे आप।
और अमीना आपा... उनका ये आ’लम कि हमसे तीन-चार साल पहले क्या पैदा हुई थीं कि क़ियामत आगई थी। सुबह से शाम तक हम सबको बोस करने पर मुस्तइद। बी.ए. उन्होंने अलीगढ़ से किया था। एम.ए. और बी.टी. के लिए हमारे यहां आगई थीं और हमारी जान के लिए मुस्तक़िल क़िस्म का कोर्ट मार्शल। मुझे वो शाम कितनी तफ़सील से अच्छी तरह याद है। जैसे ये बातें अभी-अभी कल ही हुई हैं।


सफ़ेद कश्मीरी ऊन का गोला सुलझाते हुए मैंने आवाज़ में रिक़्क़त पैदा कर के कहा था
“अमीना आपा!”
“फ़रमाईए
कोई नई बात?” अमीना आपा


प्यारी आज शाम को ओपन एअर में अज़्रा आपा का रक़्स है।”
“जी। शहर भर के सारे प्रोग्राम आपको ज़बानी याद होते हैं... और प्लाज़ा में आज कौन सा फ़िल्म हो रहा है?”
“अमीना आपा! हुँक... हूँ...”
“इरशाद?”


“अमीना आपा हमें ले चलो... उदयशंकर और अज़्रा आपा रोज़ रोज़ कहाँ नज़र आएँगे भला... ज़कीया बाजी और शकीला वकीला सब जा रही हैं।”
“आसिफ़ भी साथ होगा।”
“मजबूरन चलेगा। बेचारा। कार वही ड्राईव करता है... उनका ड्राईवर तो आजकल बीमार है।”
“कोई ज़रूरत नहीं।”


और मैं तक़रीबन रोते हुए जाकर अपने ड्रेसिंग रुम की खिड़की में ऊन सुलझाने में मस्रूफ़ हो गई।
शाम का अंधेरा फैलता जा रहा था। नीचे मोटर गैरज की तरफ़ जाने वाली सड़क पर से वो आता हुआ नज़र आया। खिड़की के पास पहुंच कर टार्च की रोशनी तेज़ी से चमका कर उसने आहिस्ता से कहा
“हलो
जुलियट!”


“ख़ूब... मा’फ़ फ़रमाईए
मैं कम अज़ कम आपके साथ तो सैर अटेंड करने को तैयार नहीं हूँ।”
“आह... ओह... वो देखो सरो के पीछे से चांद किस क़दर स्टाइल से झांक रहा है।”
“बुलवाऊँ अमीना आपा को!”


“पिटवाओगी!”
अंदर कमरे में से ग़रारे की सरसराहाट की आवाज़ सुनाई दी।
“चुप
आगईं अमीना आपा।” मैं ज़रा अंधेरे में झुक गई। अमीना आपा शायद गैलरी की तरफ़ जा चुकी थीं। वो देर तक नीचे खड़ा बातें करता रहा।


“कैसी ख़ालिस 12 बोर हैं तुम्हारी अमीना आपा।” वो बी.एससी. तक अलीगढ़ में पढ़ चुका था इसलिए हम आपस का ज़रूरी तबादला-ए-ख़्याल वहीं की ज़बान में करते थे।
“12... 22 बल्कि आग़ा ख़ानी बोर...” मैंने उसकी राय से इत्तिफ़ाक़ किया। और फिर हमें ज़ोर की हंसी आगई। सोचो तो
अमीना आपा आग़ा ख़ानी बोर हैं!
और चांद के साये में गीत गाती हुई शामें गुज़रती चली गईं। पिछली कोठी के हमारे कमरे की सिंघार कमरे की सिम्त वाले साइड रुम में वायलिन बजता और सबीहा पढ़ते-पढ़ते किताबों पर सर रखकर आँखें बंद कर लेती। सरो और चिनार के पत्तों की सरसराहाट में से छन्ती हुई उसके पसंदीदा गीतों की आवाज़ ख़्वाब में कहीं परियों के मुल्क से आती हुई मा’लूम होती


“सुना है आ’लम-ए-बाला में कोई कीमियागर था।”
और अमीना आपा झुंजला कर तेज़ी से टाइप करना शुरू कर देतीं।
एक मर्तबा उ’स्मान साहिब कैरम में हारते-हारते जोश में आकर गाने लगे
“सितारे झिलमिला उठते हैं जब मैं शब को रोता हूँ।”


“ओहो आप शब को रोते भी हैं। चच चच चच...” आसिफ़ बोले। बेचारा उ’स्मान झेंप गया। “वो देखिए
सितारे झिलमिला रहे हैं
अब आप रोना शुरू कर दीजिए।”
हम सब ऊपर खुली छत की मुंडेरों पर बैठे थे। ज़कीया बाजी और अमीना आपा एक तरफ़ को मुड़ी हुई कुछ इश्तिराकियत और हिन्दोस्तान के पोस्टवार मसाइल पर हमारी अ’क़्ल-ओ-फ़हम से बाला-ए-तर गुफ़्तगु कर रही थीं।


“आसिफ़! अगर तुम इतरा न जाओ तो तुमसे कुछ नग़मासराई की दरख़्वास्त की जाये।” शकीला ने कहा।
“वाअ’दा करता हूँ क़तई नहीं इतराऊंगा। बेहद उम्दा मूड हो रही है।” उसने जवाब दिया।
“वही आ’लम-ए-बाला वाला...” सबीहा ने कहा।
“वो जो तुम अलीगढ़ के किसी शाइ’र के तरन्नुम में पढ़ा करते हो


वही भई... मग़रिब में इक तारा चमका।” मैंने कहा।
“क्या कहिए मुझे क्या याद आया? आप तो सामने तशरीफ़ रखती हैं
मुझे उस वक़्त क्या ख़ाक याद आएगा?”
“शुरू हुई इतराहट।”


फिर हम देर तक इस से सुनते रहे

मग़रिब में इक तारा चमका
क्या कहिए मुझे क्या याद आया


जब शाम का पर्चम लहराया
क्या कहिए मुझे क्या याद आया
फ़िज़ा ख़ामोश थी... दूर आसमान की नीलगूं बुलंदियों में चंद छोटे-छोटे रुपहले सितारे जगमगा कर धुँदलके में खो गए।
“क्या सच-मुच ये मद्धम तारे हमारी क़िस्मतों की अकेली राहों पर झिलमिलाते हैं।” सबीहा ने कुछ सोचते हुए


आहिस्ता-आहिस्ता
जैसे अपने आपसे पूछा।
“और क्या... किताबों में जो लिखा है। शेरो”... आसिफ़ ने फ़ौरन बड़ी मुस्तइद्दी से ज़रा आ’लिमाना अंदाज़ में कहना शुरू किया
क़ौल है कि वो इस क़दर tom boyish था और बा’ज़ दफ़ा हैरत होती थी कि ऐसे तिफ़लाना मिज़ाज का लड़का बड़ों के सामने और तकल्लुफ़ की सोसाइटी मैं किस तरह इतना संजीदा बन जाता है।


हम सब फिर चुप हो गए। ख़ामोश रात और खुली हुई फ़िज़ाओं की मौसीक़ी में ख़्वाबों की परियाँ सरगोशियाँ कर रही थीं
मुहब्बत... ज़िंदगी... मुहब्बत... ज़िंदगी... ओ बुलंद-ओ-बरतर ख़ुदावंद!
स्याह उफ़ुक़ के क़रीब एक बड़ा सा रोशन सितारा टूट कर एक लंबी सी चमकीली लकीर बनाता हुआ अंधेरे में ग़ायब हो गया। हम आसमान को देखने लगे।
“कोई बड़ा आदमी मर गया।” मैंने कहा।


“वाक़ई? अमीना आपा दी महात्मा गए।” आसिफ़ ने ज़रा ऊंची आवाज़ में कहा।
दूसरे लहज़े एक और नन्हा सा तारा टूटा।
“अरे उनके सेक्रेटरी भी...” उ’स्मान चिल्लाया।
उस रात बहुत से सितारे टूटे और हम सारी बातें छोड़ छाड़ कर आसमान को देखते रहे। और जो सितारा टूटता उसके साथ किसी बड़े लीडर को चिपका देते।


“सारी वर्किंग कमेटी ही सफ़र कर गई।” आख़िर में आसिफ़ इंतिहाईरंजीदा आवाज़ में बोले
“अमीना आपा ने हमारी बातें नहीं सुनें। वर्ना ख़ैरीयत नहीं थी। वो बेहद मशग़ूलियत से हमारे एक सोशलिस्ट क़िस्म के भाई और ज़कीया बाजी के साथ सियासियात पर तब्सिरा कर रही थीं
राजिंदर बाबू और डाक्टर ज़ाकिर हुसैन ने उस रोज़ यही कहा था।”
“वर्धा से लौटते में श्री चन्द्र शेखर जी ने मुझे भी यही बताया था कि अखंड भारतीय घास्य गेंद बल्ला भिड़ंत... सोशलिस्ट भाई ने कुछ कहना शुरू किया। ज़कीया बाजी बेहद आ’लिमाना और मुफ़क्किराना सूरत बनाए उनकी तरफ़ अ’क़ीदत के साथ मुतवज्जा थीं।


“अब यहां से भागना चाहिए।” आसिफ़ ने चुपके से कहा। और हम सब उन सियासतदानों को वहीं छत पर हिन्दोस्तान की क़िस्मत का फ़ैसला करते छोड़कर मुंडेरों पर से छलांगते हुए नीचे उतर आए।
दूसरे रोज़ सुबह की चाय की मेज़ पर उन्हीं सोशलिस्ट भाई ने
जो तीन चार दिन से बंबई से हमारे यहां आए हुए थे अपनी स्याह फ्रे़म की ऐ’नक में से
जो उनकी लंबी सी नाक पर बेहद इंटेलेक्चुअल अंदाज़ से रखी थी


ग़ौर से देखा। वो मुस्तक़िल तीन रोज़ से ख़ामोश क़िस्म का प्रोपेगंडा कर रहे थे कि हम लड़कियां उनसे वो सब किताबें और पम्फलेट ख़रीद लें जो उनके ज़बरदस्त चरमी बैग में बंद हमारे ज़ेहनों की सयासी तर्बीयत का इंतिज़ार कर रहे थे।
“शाहरुख आपा
अखंड भारतीय घास्य गेंद बल्ला भिड़ंत...” उ’स्मान ने चायदानी मेरी तरफ़ धकेलते हुए चुपके से कहा। मुझे और सबीहा को ज़ोर की हंसी आगई। अमीना आपा ने उ’स्मान की बात सुनकर हमें हंसते हुए देख लिया था। उन्होंने हम पर खा जाने वाली नज़रें डालीं और चाय बनाने में मम्मी की मदद करने लगीं। वो हमें सुधारने की तरफ़ से बिल्कुल ना उम्मीद हो चुकी थीं। ग़ुस्ल-ख़ाने में छोटा आ’रिफ़ नहाते हुए ज़ोर-ज़ोर से गा रहा था
“मग़रिब में इक तारा चमका... मग़रिब में इक तारा चमका...” और सोशलिस्ट भाई जल्दी-जल्दी संतरा खाने में मस्रूफ़ हो गए। दोपहर को ड्राइंगरूम के फ़र्श पर अमीना आपा और उनकी रफ़ीक़ों की एक मीटिंग हो रही थी जो सोशलिस्ट भाई के बंबई से आने के ए’ज़ाज़ में मुना’क़िद की गई थी। हमने शीशों में से झांक कर देखा। किस क़दर स्टाइल से वो सोशलिस्ट भाई पाइप का धुआँ उड़ा रहे थे।


उसी वक़्त आसिफ़ सीटी बजाता हुआ आ निकला
“या अल्लाह! कैसी कैसी मख़लूक़ तुमने नमुनतन अपने यहां जमा कर रखी है।” उसने घबरा कर कहा।
“चुप
जानते हो सोशलिस्ट भाई सबीहा से शादी करने की फ़िक्र में हैं।” मैंने बताया और आसिफ़ का हार्ट फ़ेल होते होते रह गया। शाम को बेहद तफ़सीलन अपने दोस्तों को हमने इस मीटिंग की कार्रवाई की रिपोर्ट सुनाई कि हमारे घर पर हिन्दोस्तान की कैसी-कैसी मुक़तदिर और आ’ला-ओ-अ’र्फ़ा हस्तियाँ आती हैं। आसिफ़ ने पूछा


“क्या वाक़ई सोशलिस्ट भाई वाली बात सच्च है? और क्या। तुमको कम अज़ कम ड्वेल तो लड़ना ही पड़ेगा।”
“और कौन कौन लोग थे ये।”
“तुम सबसे बारी-बारी ड्वेल लड़लो।”
“...को एक बार मैंने भी देखा था। ज़कीया बाजी! ख़ुदा की क़सम ये लंबी दाढ़ी।”


आरिफ़ ने अपनी मा’लूमात से इज़ाफ़ा करना चाहा। और एक साहिब हैं
अमीना आपा के ख़ास रफ़ीक़
जिनके साथ वो लखनऊ में प्रभात फेरियों के गीत लिखा करती थीं। वो यूं उचक उचक कर चलते हैं। उ’स्मान ने बाक़ायदा demonstrate कर के बताया।
“लखनऊ में रेडियो स्टेशन पर मैंने सलाम साहिब को देखा था। इस क़दर... बस क्या बताऊं... जो लड़की फ़िलबदीह उनको नज़र आती है उस पर एक नज़्म लिख डालते हैं।” सबीहा साहिबा ने इरशाद किया ताकि आसिफ़ और जले।


“फ़िलबदीह नज़र आती है? ज़रा अपनी उर्दू पर ग़ौर कीजिए।” मैंने जल कर आसिफ़ की हिमायत में कुछ और कहना चाहा लेकिन पीछे से शकीला की आवाज़ आई
“अरे ख़रगोशो! अमीना आपा इधर आ रही हैं। अपनी बिरादरी वालों के मुता’ल्लिक़ ऐसी बातें करते पाया तो जान की ख़ैर नहीं।” अमीना आपा और सोशलिस्ट भाई पाइप का धुआँ उड़ाते
हाथ में तीन चार तंबाकू के डिब्बे सँभाले वाक़ई’ लॉन की तरफ़ चले आरहे थे। हम सब भीगी बिल्लियों की तरह इधर उधर भाग गए।
कुछ अ’र्सा बाद सोशलिस्ट भाई बंबई वापस चले गए। बारिशों का मौसम शुरू हो चुका था। माह रुख के शौहर की जब मेडिकल कॉलेज में छुट्टियां हुईं तो वो चंद रोज़ के लिए अपनी ससुराल के गांव से हमारे यहां आगए। बड़े इंतिज़ाम से आसिफ़ से उसका पहली बार तआ’रुफ़ कराया गया। इस के गीचो से शौहर साहिब


जो डॉक्टरी के पांचवें साल में पढ़ते थे बेहद जले कि कैसे स्मार्ट और शानदार लड़के से उन लोगों की दोस्ती हुई है। माहरुख़ के आने पर हमने बहुत से प्रोग्राम बनाए थे लेकिन मुस्तक़िल बारिश होने लगी और हम कोई एक्टिविटी न कर पाए।
उस रोज़ सुबह जब मैं कॉलेज जाने के लिए मोटर ख़ाने में साईकल निकालने के लिए गई तो हमारे टमाटर या चुक़ंदर जैसी शक्ल वाले कश्मीरी चपरासी ने अपनी सुर्ख़ लंबी-लंबी मूँछें बेहद मुफ़क्किराना अंदाज़ में हिला कर कहा
“बी-बी जी आज तो कुछ बरसात का इरादा हो रहा है
मदरसे मत जाओ।”


मैं चिड़ गई। इंद्र माहरुख़ पच्चास मर्तबा कह चुकी थी कि “तुमको आज कॉलेज क़तई नहीं जाना चाहिए
ब्रिज खेलेंगे
नए रिकार्ड बजाएँगे और आसिफ़ को बुला कर बातें करेंगे।”
मैंने तक़रीबन चिल्ला कर कहा


“अली जो! तुम सीधे मेरी साईकल निकाल कर साफ़ करो। समझे। मैं ज़रूर जाऊँगी कॉलेज।”
“ज़रूर जाओ। और जो वहां पहुंच कर मा’लूम हुआ कि आज रेनी डे की छुट्टी है तो मुहतरमा भीगती हुई तशरीफ़ ले आईएगा। इतरा ही गईं बिल्कुल।” सबीहा ने ड्रेसिंग रुम की खिड़की में से झांक कर कहा।
“बी-बी
साहिब आते ही होंगे। मैं मोटर पर आपको पहुंचा दूँगा।” अली जो ने फिर मूँछें हिलाईं। मैंने कुछ जवाब नहीं दिया और उसके हाथ से साईकल लेकर तेज़ी से लेन में से निकल कर सड़क पर आगई। उसी वक़्त आसिफ़ अपने फाटक से बाहर निकला था। मुझे देखकर उसने अपनी साईकल मेरे साथ-साथ कर दी। ये पहला मौक़ा था कि घर के बाहर हमारा साथ हुआ था।


“हलो... आपकी थूथनी क्यों चढ़ी हुई है?”
“आपसे मतलब?”
“ओहो तो गोया आप ख़फ़गी फ़र्मा रही हैं। जुर्म! क्या सोशलिस्ट भाई आपके लिए भी पैग़ाम दे गए हैं?”
मैंने कोई जवाब न दिया। दोनों साईकलें बराबर चलती रहीं। वारिस रोड बिलकुल ख़ामोशऔर भीगी भीगी पड़ी थी। सूखे तालाब के नज़दीक किसी बदतमीज़ ने गा कर कहा


“ओय सावन के नज़्ज़ारे हैं...” और ग़ुस्से के मारे मेरा जी चाहा कि बस मर जाऊं।
अभी हम सड़क के मोड़ तक भी न पहुंचे थे कि बारिश का एक ज़ोरदार रेला आगया।
“आख़िर तुम जा कहाँ रही हो भई?”
“जहन्नुम में...” फिर तुम बोले। और मैं न जाने क्यों जेल रोड पर मुड़ गई। अभी मैं घर से बहुत दूर नहीं गई थी। दरख़्तों के झुण्ड में से अपनी कोठी की छत अब भी नज़र आरही थी लेकिन वापस जाकर शिकस्त का ए’तराफ़ करने की हिम्मत न पड़ी।


“शाहरुख घर वापस जाओ।”
“नहीं।”
“क्या सबीहा से सुबह-सुबह लड़ाई हुई है?”
आपको क्यों इतनी मेरी फ़िक्र पड़ी है। अपना रास्ता लीजिए आप।”


“और तुम्हें यूं बेच मंजधार में छोड़ जाऊं।”
“आप मेरी हिफ़ाज़त का हक़ कब से रखते हैं?”
“अच्छा मैं बताऊं बेहतरीन तरकीब। यहां पहाड़ी पर किसी साया-दार दरख़्त के नीचे रुक जाओ और जब बारिश कम हो जाएगी तो जाकर कह देना कि सिर्फ एक पीरियड अटेंड कर के आरही हूँ।”
“जी हाँ


और आप भी इस दरख़्त के नीचे तशरीफ़ रखें। इस नाज़ुक ख़्याली की दाद देती हूँ।”
“अच्छा तो इसी तरह बारिश में सड़कों के चक्कर लगाती रहिए। मेरा क्या है
निमोनिया होगा
मर जाओगी।” उसने वाक़ई जल कर कहा और अपनी साईकिल वारिस रोड की तरफ़ मोड़ ली।


“मर जाओ तुम ख़ुद...” मैंने ज़रा ज़ोर से कहा। वो काफ़ी दूर निकल गया था। फिर मैंने सोचा कि वाक़ई यूं लड़कों की तरह सड़कों पर चक्कर लगाना किस क़दर ज़बरदस्त हिमाक़त है। मैंने उसके क़रीब पहुंच कर कहा
“आसिफ़!” वो चुप रहा।
“आसिफ़ सुलह कर लो।”
“फिर लड़ोगी?”


“नहीं।”
“वाअ’दा फ़रमाईए।”
“वाअ’दा तो नहीं लेकिन कोशिश ज़रूर करूँगी।” मैंने अपना पसंदीदा और निहायत कार-आमद जुमला दुहराया।
“घर चलो वापस।” उसने हुक्म लगाया। मैंने इसी में आ’फ़ियत समझी क्योंकि अच्छी ख़ासी सर्दी महसूस होने लगी। चुनांचे मैंने ख़ामोशी से उसके साथ चलना शुरू कर दिया। अभी हम वारिस रोड के मोड़ पर ही थे कि क्या नज़र आया कि चली आरही हैं अमीना आपा कार में बैठी हुई ज़न्नाटे में। हमारे क़रीब पहुंच कर ज़ोर से ब्रेक लगा के उन्होंने कार रोक ली और साईकिल पर बैठे-बैठे मेरी रूह फ़िल-फ़ौर क़फ़स-ए-उंसरी से आ’लम-ए-बाला की तरफ़ परवाज़ कर गई। उन्होंने मुझे बिल्कुल सालिम खा जाने वाली नज़रों से देखा।


“आपा! मैं कॉलेज से आरही थी तो रस्ते में देखिए बारिश आगई।” मैंने अपनी आवाज़ बे-इंतिहा मरी हुई पाई।
“ओहो
आपका कॉलेज अब इतवार के रोज़ भी खुलता है।”
और इस वक़्त मुझे याद आया कि आज कमबख़्त इतवार था। भीगी बिल्ली की तरह मैं बेचारी उनके पास जा बैठी। ड्राईवर ने साईकिल पीछे बाँधी और हम चल दिए घर को। अमीना आपा ने अख़लाक़न भी आसिफ़ से न कहा कि तुम भी कार में आ जाओ। वो बेचारा भीगता भागता न जाने किधर को चला गया।


घर पहुंच कर इतने ज़ोर की डाँट पिलाई है अमीना आपा ने कि लुत्फ़ आगया। इस सानिहे के बाद कुछ अ’र्से के लिए आसिफ़ के साथ ब्रिज और कैरम मौक़ूफ़ वायलिन
सीटियाँ
टार्च और आईने की चमक के ज़रीये’ एस.ओ.एस. के पैग़ामात मुल्तवी... और मग़रिब में झिलमिलाते तारों के सारे रूमान का ख़ातिमा बिलख़ैर हो गया।
मेडिकल कॉलेज जब खुला तो माह रुख़ अपनी रियासत वापस चली गई। एक रोज़ हमने सुना कि आ’रिफ़ हमारी बद-मज़ाक़ी से ख़फ़ा हो कर मरी जा रहा है। दर असल वो ज़रूरी काम के लिए वहां जा रहा था। बहर हाल हमको उसका बेहद अफ़सोस था कि महज़ अमीना आपा की वजह से कैसा अच्छा और दिलचस्प दोस्त हमसे नाराज़ हो गया। मरी में उसके चचा रहते थे जिनकी भूरे बालों और सब्ज़ आँखों वाली ख़ूबसूरत लड़की से अक्सर उसकी मंगनी का तज़किरा किया जाता था। फिर उस रोज़ हमें कितनी ख़ुशी हुई है जब ये मा’लूम हुआ है कि अमीना आपा मुस्लिम गर्ल्ज़ कॉलेज में इकोनॉमिक्स की लेक्चरर हो कर अलीगढ़ जा रही हैं।


जाने वाली शाम वो बड़े सुकून के साथ आईने के सामने खड़ी स्टेशन जाने की तैयारी कर रही थीं। मैंने उनकी नज़र बचा कर खिड़की में से झांक कर देखा। वो सरो के दरख़्तों के उस पार अपने कमरे में लैम्प के सामने इंतिहाई इन्हिमाक से पढ़ने में मसरूफ़ था। उस वक़्त मैंने सोचा कि काश वो रूठा हुआ न होता तो हमेशा की तरह अमीना आपा पर कोई एक्टिविटी करते। सिंघार मेज़ पर से दस्ती आईना उठा कर उसकी चमक के ज़रीये एस.ओ.एस. का पैग़ाम भेजने की फ़िक्र कर रही थी कि अमीना आपा ने झट मेरे हाथ से आईना ले लिया और उसमें अपने बालों का जायज़ा लेने लगीं और मैं उनके अलीगढ़ पहुंचते ही किसी हद से ज़्यादा वहशत-ज़दा प्रोफ़ेसर के इश्क़ में मुब्तला होजाने के इन्हिमाक पर ग़ौर करने लगी। लेकिन ख़ुदा ऐसी तजवीज़ क़बूल कब करता है!
अमीना आपा जा रही थीं। मैंने चुपके से सबीहा से कहा कि वो बाग़ की पिछली दीवार पर एस. ओ.एस. (सबीहा
उ’स्मान
शाहरुख) का पैग़ाम लिख आए। सबीहा ने कोयले से लिख दिया


“मत जाओ।”
सुबह को उसके नीचे लिखा हुआ मिला
“ज़रूर जाऊंगा।”
और आसिफ़ भी चला गया। बड़ी जान जली। लेकिन क्या करते। उसके कुछ अ’र्से बाद सर्मा की छुट्टीयों में हम ज़ारा के पास देहरादून चले गए।


वहां एक रात ज़ारा अपनी एक दोस्त के साथ ओडियन से निकल कर बाहर अंधेरे में जब अपनी कार में बैठी और कहा कि ग़फ़ूर
प्रमीला बाबा को लिटन रोड पहुंचाते हुए अब सीधे घर चलो। सामने ड्राईवर की सीट पर से किसी साहिब ने मरी हुई आवाज़ में अ’र्ज़ किया कि “जी में ग़फ़ूर क़तई नहीं हूँ। मेरा नाम पायलट ऑफीसर आसिफ़ अनवर है। और मुझे आपसे मिलकर यक़ीन फ़रमाईए इंतिहाई क़लबी मसर्रत महसूस हुई है।” और कार स्टार्ट कर दी गई।
ज़ारा और प्रमीला ख़ौफ़ और ग़ुस्से से चिल्ला उठीं
“आप कौन हैं और हमारी कार में क्यों घुस गए? रोकिये फ़ौरन।”


“जी इत्तिफ़ाक़ से ये कार ख़ाकसार की है। देहरादून में ओडियन के सामने एक ही तरह की दो कारों का पार्क होजाना बहुत ज़्यादा ना-मुम्किनात में से नहीं है।”
“ख़त्म कीजिए अपनी तक़रीर और रोकिये मोटर।”
“प्रमीला बाबा को लिटन रोड पहुंचा दिया जाएगा। इस क़दर परेशान न होइए
कोहरा बहुत ज़्यादा है। रात बेहद सर्द है और हम आधे रस्ते आगए हैं।”


दोनों बच्चीयां बेचारी झुँझलाहट और ग़ुस्से के मारे कुछ और कह भी न पाई थीं कि चंद मिनटों में कार ज़न्नाटे से हमारी बरसाती में दाख़िल हो गई।
मा’लूम हुआ कि आप देहरादून में एयर फ़ोर्स के इंटरव्यू के बाद मेडिकल के लिए आए हुए हैं। ख़ूब आपको आड़े हाथों लिया गया। मम्मी ने डाँटा कि तुम हम सबसे रुख़्सत हुए बग़ैर ही इस तरह अचानक मरी चले गए। उसने बिगड़ कर कहा कि अमीना आपा ने क्यों शाहरुख को साईकिल पर बारिश में भीगने की वजह से डाँट पिलाई थी। सोशलिस्ट भाई मंतिक़ और जुग़राफ़ीए के किस नुक़्ते की रु से सबीहा से शादी करने की फ़िक्र में थे और माहरुख़ के मियां
क़िबला डाक्टर साहिब
किस लिए उससे जले जाते थे? मुख़्तसर ये कि हम लोगों में सुलह सफ़ाई हो गई और फिर पहले की तरह दोस्त बन गए।


फिर वही ब्रिज
कैरम
शरारतें और गाने। वही मग़रिब में एक तारा चमका। आतिश-दान की रोशन आग के सामने बैठे हुए हम सब इस सह्र अंगेज़ आवाज़ और वायलिन के नग़मे सुनते



क्या कहिए मुझे क्या याद आया
क्या कहिए मुझे क्या याद आया
टीले की तरफ़ चरवाहे की बंसी की सदा हल्की हल्की
और शाम की देवी की चुनरी शानों से परे ढलकी ढलकी


मग़रिब में इक तारा चमका!
और फिर जो एक रोज़ मैंने आसिफ़ के अपने बहनोई बनने के इमकानात पर नज़र की तो मुझे ये ख़्याल बहुत ख़ासा पसंद आया। क्रिसमस की ता’तीलात में अमीना आपा भी अलीगढ़ से देहरादून आगई थीं। मम्मी तक पहुंचाने के लिए अमीना आपा के सामने ये तजवीज़ पेश कर देनी बेहद ज़रूरी थी। एक रात जब खाने के बाद अमीना आपा शशमाही इम्तिहान के पर्चे देख रही थीं
मैं दबे-पाँव उनके कमरे में पहुंची और इधर-उधर की बेमा’नी बातों के बाद ज़रा डरते हुए बोली
“अमीना आपा!”


“हूँ।”
“अमीना आपा। एक बात सुनिए।”
“फ़रमाईए।”
“अर... या’नी कि... अगर आसिफ़ की शादी कर दी जाये तो कैसा रहेगा?”


“बहुत अच्छा रहे।”
“मेरा मतलब है सबीहा के साथ।”
“आपकी बलंद नज़री की दाद देती हूँ। किस क़दर आ’ला ख़्यालात हैं।”
“लेकिन... लेकिन अमीना आपा आपको मा’लूम नहीं कि आसिफ़ और सबीहा एक दूसरे को पसंद करते हैं


या’नी दूसरे लफ़्ज़ों में ये कि मुहब्बत करते हैं एक दूसरे से।” मैंने ज़रा ऐसे mild तरीक़े से कहा आमेना आपा को दफ़अ’तन shock न हो जाए। अमीना आपा की उंगलियों से क़लम छूट गया और इस तरह देखने लगीं जैसे अब उन्हें क़ुर्ब-ए-क़यामत का बिल्कुल यक़ीन हो चला है।
“क्या कहा...? मुहब्बत! मुहब्बत! उफ़ किस क़दर। तबाहकुन
मुख़र्रिब उल-अख़लाक़ ख़्यालात हैं। मुहब्बत। या अल्लाह। मुझे नहीं मा’लूम था कि ऐसी वाहियात बातें भी तुम लोगों के दिमाग़ में घुस सकती हैं। मेरी सारी तर्बीयत...”
“लेकिन अमीना आपा देखिए तो इसमें मोज़ाइक़ा किया है? आसिफ़ नौकर भी हो गया है। एक दम से साढे़ छः सौ का स्टार्ट उसे मिल रहा है। वो बहुत अच्छा लड़का है। सबीहा भी बहुत अच्छी लड़की है। दोनों की कितनी अच्छी गुज़रेगी अगर उनकी शादी...”


“शादी... शादी... क्या इस लग़्वियत का ख़्याल किए बग़ैर तुम लोग रह ही नहीं सकते। तुम्हें दुनिया में बहुत काम करने हैं
तूफ़ानों से लड़ना है
मुल्क का मुस्तक़बिल सँवारना है।”
“पर अमीना आपा एक के बजाय दो इन्सान साथ साथ तूफ़ानों से ज़्यादा बेहतर तरीक़े पर लड़ सकते हैं। और आसिफ़ तो हवाई जहाज़ उड़ाने लगेगा!”


“चुप रहो... आसिफ़... हुँह... ये लड़का मुझे क़तई पसंद नहीं। तुम्हें मा’लूम होना चाहिए कि मुझे एक आँख नहीं भाता। कुछ बहुत अ’जीब सा शख़्स है। बच्चों की तरह हँसता है। लड़कियों में हद से ज़्यादा दिलचस्पी लेता है और ग़ज़ब ये कि कल शाम सबीहा को डार्लिंग कह कर पुकार रहा था... इंतिहा हो गई!”
अमीना आपा कुछ और लेक्चर पिलातीं इसलिए मैंने अपनी ख़ैरीयत इसी में देखी कि चुपके से उठकर चली आऊँ। अपने कमरे में आकर सोचने लगी
आसिफ़ मुझे क़तई पसंद नहीं। एक आँख नहीं भाता। लड़कियों में हद से ज़्यादा दिलचस्पी लेता है। तो क्या उसे लड़कियों की बजाय अलमारियों और चाय के चमचों में दिलचस्पी लेना चाहिए? अब क्या किया जाये?
आसिफ़ साहिब ट्रेनिंग के लिए अंबाले और फिर शायद पूना तशरीफ़ ले गए और बहुत जल्द निहायत आ’ला दर्जे के हवाबाज़ बन गए। इंतिहा से ज़्यादा daring और ख़तरे की उड़ानें करने में माहिर और पेश-पेश। हादिसों से कई बार बाल-बाल बचे। एक दफ़ा’ एक नई मशीन की टेस्ट फ़्लाईट के लिए एरोड्रोम से इस ज़न्नाटे से निकले कि ऊपर पहुंच कर मा’लूम हुआ सिर्फ़ इंजन आपके पास है और तय्यारे की बॉडी पीछे ज़मीन पर रह गई है। हम देहरादून ही में थे जब वो अंबाले से सहारनपुर होता हुआ देहरादून आया। रास्ते में डाइविंग के शौक़ में आप इस क़दर नीचे उतरे कि एक कोठी की छत पर लगे हुए एरियल हवाई जहाज़ के पहियों में उलझ कर साथ-साथ उड़ते चले गए। आस-पास की सारी कोठियों के तार इस तरह हिल गए जैसे ज़लज़ला आगया है और लोग गड़-गड़ाहट के शोर से परेशान हो कर बाहर निकल आए। वो कोठी एक अंग्रेज़ कर्नल की थी। आसिफ़ बहुत डरा कि कहीं वो आसिफ़ के अफ़सरों से उसकी शिकायत न कर दे लेकिन ऐ’न मौके़ पर उस बूढ़े कर्नल की लड़की


जिसकी ख़्वाबगाह के रोशनदानों के ऊपर से आप गुज़रे थे
आपके इश्क़ में मुब्तिला हो गई और मुआ’मला रफ़ा-दफ़ा हुआ।
पूना से आसिफ़ को एकदम कनाडा भेज दिया गया। समुंदर पार जाने से पहले वो हम सबसे रुख़्सत होने के लिए घर आया। पप्पा का तबादला लाहौर से हो चुका था और हम सब लखनऊ आगए थे। मम्मी और ख़ाला बेगम ने उसके बहुत सारे इमाम-ए-ज़ामन बाँधे और उ’स्मान और आ’रिफ़ ने ढेरों फूलों से लाद दिया। हमने उसकी पसंदीदा ड्रमर ब्वॉय टॉफ़ी का एक बड़ा सा डिब्बा उसके अटैची में रख दिया। चलते वक़्त उसने कहा
“शाहरुख प्यारी! अमीना आपा जब अलीगढ़ से आएं तो उनसे मेरा सलाम कह देना और अगर सोशलिस्ट भाई से सबीहा ने शादी कर ली तो याद रखना में चुपके से एक रोज़ आकर उनके घर पर बम गिरा जाऊँगा।”


हम बरामदे की सीढ़ियों पर से आहिस्ता-आहिस्ता उतर रहे थे।
“शाहरुख... सबीहा
डार्लिंग्स...”
“आसिफ़! हम हमेशा बेहतरीन दोस्त रहेंगे ना?”


“हमेशा...!”
“और तुम कनाडा से बहुत सारे पिक्चर पोस्टकार्ड भेजोगे?”
बहुत सारे।”
“और वहां जितने गाने सीखोगे उनकी ट्युनें लिख-लिख कर भेजा करोगे।”


“बिल्कुल।”
“और हवाई जहाज़ इतना नीचा नहीं उड़ाओगे कि लोगों के घरों के एरियल और अंग्रेज़ लड़कियों के दिल टूट जाएं।”
“क़तई नहीं।”
फिर वो चला गया। बहुत दिनों सम

- क़ुर्रतुलऐन-हैदर


मंज़ूर है गुज़ारिश-ए-अहवाल-ए-वाक़ई
अपना बयान हुस्न-ए-तबीयत नहीं मुझे
वकालत भी क्या ही उम्दा... आज़ाद पेशा है। क्यों? सुनिए में बताता हूँ।
(1)


चार साल का ज़िक्र है कि वो कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा था कि सुबह के आठ बज गए थे मगर बिच्छौने से निकलने की हिम्मत न पड़ती थी। लिहाफ़ में बैठे-बैठे चाय पी। दो मर्तबा ख़ानम ने लिहाफ़ घसीटा मगर न उठना था न उठा। ग़रज़ चाय पीने के बाद उसी तरह ओढ़े लपेटे बैठ कर सिगरेट सुलगाया ही था कि क्या देखता हूँ कि एक बिल्ली अलमारी के पीछे से झांक रही है!
फ़ौरन उठा और दबे-पाँव दरवाज़े पर पहुंच कर उसको बंद कर दिया। दूसरे दरवाज़े को भी लपक कर बंद किया जब बिल्ली घिर गई तो हलक़ फाड़ कर चिल्लाया।
ख़ानम दौड़ना... जल्दी आना... बिल्ली... बिल्ली
घेरी है।


क्या है ? ख़ानम ने सेहन के उस पार से आवाज़ दी
अभी आई।
ज़ोर से मैं फिर गला फाड़ कर चिल्लाया। बिल्ली घेरी है... बिल्ली... अरे बिल्ली... बिल्ली... क्या बहरी हो गई?
ख़ानम को कबूतरों का बेहद शौक़ था और ये कमीनी बिल्ली तीन कबूतर खा गई थी। इलावा उसके दो मुर्ग़ियां


चार चूज़े और मक्खन दूध वग़ैरा अलैहदा। ख़ानम तो बौखलाई हुई पहुंची और काँपते हुए उसने मुझसे पूछ
क्या बिल्ली ?
पकड़ ली! पकड़ ली!
मैंने कहा


हाँ... घेर ली... बिल्ली बिल्ली...! जल्दी... ये कह कर मैंने ख़ानम को अंदर लेकर दरवाज़ा बंद कर लिया।
ख़ानम की अम्माँ जान ने मना कर दिया है कि बिल्ली को जान से मत मारना
इधर बिल्ली का ये हाल कि रुई के गाले की मार से क़ाबू में नहीं आती। ज़रूरत ईजाद की माँ है और मैंने भी एक नई तरकीब निकाली है कि बिल्ली की भी अक़ल ठिकाने आ जाये और ख़ानम की अम्मां जान भी नाराज़ न हों। वो ये कि कमरे को चारों तरफ़ से बंद कर के सिर्फ़ एक दरवाज़े के किवाड़ ज़रा से खोल दीजिए
सिर्फ़ इतना कि बिल्ली उसमें से निकल जाये और ख़ुद दरवाज़े के पास एक कुर्सी पर खड़े हो कर किवाड़ पर हाथ रखे अपनी बीवी से कहिए कि लकड़ी लेकर बिल्ली पर दौड़े और जब डर लगे तो लकड़ी को ताक कर बिल्ली के ऐसे मारे कि सीधी लैप में जा लगे और दूर ही से तकिए


जूते
गिलास
ज़रूरी मुक़द्दमों की मिसलें
ताज़ीरात-ए-हिंद


क़ानून-ए-शहादत
बाज़ाब्ता दीवानी और या उसी क़िस्म की दूसरी चीज़ें बिल्ली की तरफ़ फेंके और फिर भी जब कि कुछ न लगे और कोई चीज़ भी बाक़ी न रहे तो सिगरेट का डिब्बा मअ सिगरेटों के ताक के बिल्ले के मारे। लाज़िमी है कि एक सिगरेट तो बिल्ली के ज़रूर ही लगेगा। बिल्ली तंग आकर ख़्वाह-मख़ाह उसी दरवाज़े से भागेगी जहां आप उसके मुंतज़िर किवाड़ को पकड़े हैं। जब आधी बिल्ली दरवाज़े के बाहर हो और आधी अंदर तो ज़ोर से दरवाज़ा को बंद कर दीजिए और बिल्ली को दरवाज़े ही में दाब लीजिए। बीवी से कहिए कि दरवाज़ा ज़ोर से दबाए रहे और ख़ुद एक तेज़ धार उस्तरे से बिल्ली की दुम ख़ियार तर की तरह काट लीजिए। फिर जो दुम कटी आपके मुँह की तरफ़ रुख भी कर जाये तो मेरा ज़िम्मा।
चुनांचे मैंने भी यही किया उधर बिल्ली दरवाज़े के बीच में आई और फिर ज़ोर से चिल्लाया
ख़ानम लीजियो! ख़ानम लीजियो! ख़ानम दौड़ कर आई। मैंने कहा कि


तुम दरवाज़ा दाबो मगर ज़ोर से
वर्ना बिल्ली लौट कर काट खाएगी
ग़रज़ ख़ानम ने ज़ोर से दरवाज़ा दबाया
बिल्ली तड़प रही थी और अजीब अजीब क़िस्म की आवाज़ें निकाल रही थी


उधर मैं उस्तरा लेकर दौड़ा बस एक हाथ में दुम खट से साफ़ उड़ा दी।
दुम तो बिल्कुल साफ़ उड़ गई मगर बदक़िस्मती मुलाहिज़ा हो
दफ़्तर का वक़्त था और मुंशी जी एक मुक़द्दमे वाले को फांसे ला रहे थे। बिल्ली को इसी तरह दबा हुआ देखकर सीढ़ियों पर बेतरह लपके कि ये माजरा क्या है। ऐन उस वक़्त जब कि मैंने दुम काटी इंतिहाई ज़ोर लगा कर बिल्ली तड़प उठी और गों फ़िश कर के मुंशी जी पर लगी और वो मुवक्किलों पर! ग़लग़प!
ख़ानम के मुँह से मुंशी जी की झलक देखकर एक दम से निकला


मुंशी जी। मेरे मुँह से निकला
मुवक्किल! मुक़द्दमा...
ख़ानम ने फिर कहा
मुक़द्दमा...


इतने में मुंशी जी ने दरवाज़े में सर डाल कर अंदर देखा। मेरे एक हाथ में उस्तरा था और दूसरे हाथ में बिल्ली की दुम! ख़ानम बराबर खड़ी थी। मुंशी जी आग बगूला हो गए
अंदर आए ग़ुस्सा के मारे उनकी शक्ल चिड़ी के बाशाह की सी थी।
लाहौल वला क़ुवः मुट्ठी भींच कर मुंशी जी बोले
मुवक्किल। और फिर दाँत पीस कर बहुत ज़ोर लगाया मगर निहायत आहिस्ता से कि मुवक्किल जो बाहर खड़ा था वो सुन न ले


मुवक्किल... लाहौल वला क़ुवः... कोई मुक़द्दमा न आएगा... ये वकालत हो रही है? मुंशी जी ने हाथ से कमरे की लोट-पोट हालत को देखकर कहा।
ख़ानम ग़ायब हो चुकी थी।
मैं भला उसका क्या जवाब देता।
ये वकालत हो रही है। मुंशी जी ने फिर उसी लह्जे में कहा


500 का मुक़द्दमा है। जल्दी हाथ से झनक कर कहा।
पाँच सौ रुपये का नाम सुनकर में भी चौंका। रूपों का ख़्याल आना था कि उस्तरा और बिल्ली की दुम अलग फेंकी और दौड़ कर दूसरी तरफ़ से दफ़्तर का दरवाज़ा खोला।
मुंशी जी ने जल्दी से मुवक्किलों को बिठाया और दौड़ कर मुझसे ताकीद की कि फ़ौरन आओ पाँच सौ रुपये मिलने वाले हो रहे थे और जूं तूं कर के जल्दी जल्दी मैंने कोट पतलून पहना क्योंकि मुंशी जी फिर आए और चलते नहीं कह कर मेरे आए होश उड़ा दिए। मैं बग़ैर मौज़े पहने स्लीपर में चला आया बल्कि यूं कहिए कि मुंशी जी मुझे खींच लाए। निहायत ही संजीदगी से मैंने मुवक्किलों के सलाम का जवाब दिया। एक बड़ी तोंद वाले मारवाड़ी लाला थे और उनके साथ दो आदमी थे जो मुलाज़िम मालूम होते थे। लाला जी बैठ गए और उन्होंने अपने मुक़द्दमें की तफ़सील सुनाई।
वाक़िया दरअसल यूं था कि किसी समझदार आदमी ने लाला जी को उल्लू की गाली दी थी। गाली दोहराना ख़िलाफ़-ए-तहज़ीब है नाज़रीन की आगाही के लिए बस इतना काफ़ी है कि इस गाली की रु से लाला साहिब की वलदीयत उल्लू हुई जाती थी।


मैंने लाला जी से बहुत से सवालात किए और ख़ूब अच्छी तरह ग़ौर-ओ-फ़िक्र के बाद उनसे कहा
मुक़द्दमा नहीं चल सकता।
क्यों? लाला जी ने एतराज़ किया।
इस वजह से


मैंने कहा। इस वजह से नहीं चल सकता कि अव्वल तो आपके पास कोई गवाह नहीं और फिर दूसरे ये के तमाम हाईकोर्ट इस बारे में मुत्तफ़िक़ हैं कि इस क़िस्म के अलफ़ाज़ रोज़ाना आला तबक़ा के लोग बातचीत के दौरान में आज़ादी से इस्तिमाल करते हैं और इससे तौहीन नहीं होती।
लाला जी कुछ बर्दाशता खातिर हो कर मुंशी जी से बोले
वाह जी तुम भी हमें कहाँ ले आए
हमें तो ऐसे वकील के पास ले चलो जो मुक़द्दमा चला दे।


मेरी नज़र मुंशी जी पर पड़ी और उनकी मेरे ऊपर। वो आग बगूला हो रहे थे मगर ज़ब्त कर रहे थे। नज़र बचा कर उन्होंने झुँझला कर मेरे ऊपर दाँत पीसे फिर एक दम से सामने की अलमारी पर से बिला किसी इम्तियाज़ दो तीन किताबें जो सब से ज़्यादा मोटी थीं मेरे सामने टेक दीं और बोले

वकील साहिब
लाला साहिब अपने ही आदमी हैं ज़रा किताबों को ग़ौर से देखकर काम शुरू कीजिए। ये कहते हुए मेरे सामने डिक्शनरी खोल कर रख दी क्योंकि इस किताब की जिल्द भी सबसे मोटी थी।


फिर लाला साहिब की तरफ़ मुस्कुरा कर मुंशी जी ने ऐनक के ऊपर से देखते हुए कहा
लाला साहिब माफ़ कीजिएगा
ये भी दुकानदारी है और... फिर... आपका मुक़द्दमा... जी सौ में चले हज़ार में चले (ये मुक़द्दमा बिल्कुल न चला और मैं हार गया) फिर मेरी तरफ़ मुख़ातिब हो कर मुंशी जी उसी तरह मुस्कुराते हुए बोले।
वकील साहिब


ये लाला साहिब घर ही के आदमी हैं। मेरी उनकी 18 बरस से दोस्ती है कोई आज की मुलाक़ात थोड़ी है।
और वाक़ई लाला जी के मुंशी जी से निहायत ही गहरे और देरीना ताल्लुक़ात थे और वो ये कि मुंशी जी उस सड़क पर अठारह बरस से चलते थे जिस पर लाला साहिब की दुकान थी। चुनांचे लाला साहिब ने इन देरीना ताल्लुक़ात की तस्दीक़ की। मैंने इस दौरान डिक्शनरी को लापरवाही से देख रहा था। मेरे सामने हुरूफ़ (बी) की फ़हरिस्त थी। मअन लफ़्ज़ (बर्ड) यानी चिड़िया पर मेरी नज़र पड़ी और फिर लाला जी पर। क़तई ये लाला जी चिड़िया था कम अज़ कम मेरे लिए और वो भी सोने की।
उनसे मुझे पाँच सौ रुपये वसूल होने वाले थे! मैंने वाक़ई बड़ी हिमाक़त की थी जो उनसे कह दिया था कि मुक़द्दमा नहीं चल सकता। ये मैंने महसूस किया।
मुझे ख़ामोश देखकर लाला साहिब पज़मुर्दा हो कर बोले


वकील साहिब तो कुछ बोलते नहीं।
उनके वालिद ख़ान बहादुर हैं। मैंने मुंशी जी से सवाल किया।
लाला जी ने कहा ये हमारे मुहल्ले में ख़ुद एक राय बहादुर रहते हैं। लाला जी ने ये इस तरह फ़ख्रिया कहा गोया वो ख़ुद राय बहादुर के लड़के हैं।
मैंने मौक़ा पर कहा


लाला साहिब आपके गवाह कोई नहीं हैं इसका तो...
मुंशी जी ने मेरी बात काट कर कह
इस बारे में सब तय हो चुका है! चार गवाह बना लिए जाऐंगे।
तो फिर क्या है


मैंने इत्मिनानिया लहजे में कहा।
इसके बाद ही लाला जी पर रोग़न क़ाज़ की ख़ूब ही मालिश की गई। इस सिलसिले में लाला जी से कुछ अजीब ही तरह के बड़े गहरे ताल्लुक़ात क़ायम हो गए क्योंकि लाला जी मारवाड़ी थे और में भी मारवाड़ी हूँ और फिर मेरे वालिद साहिब मारवाड़ की उस रियासत में जहां लाला जी की लड़की ब्याही गई है
मुलाज़िम हैं।
मेरे पैर में सर्दी महसूस हो रही थी। दो मर्तबा मुलाज़िम लड़के को आवाज़ दे चुका था। मोज़े पलंग के पास कुर्सी पर पड़े थे। लाला जी ने मुंशी जी की तजवीज़ पर कहा कि नौकर आप ही का है। कमरा भी बराबर ही था मगर वो मारवाड़ी मुलाज़िम था जब वहां पहुंचा तो पुकार कर उसने पूछा


क्या दोनों लाऊँ?
लाहौल वला क़ुवः
मैंने अपने दिल में कहा
ये लाला जी का नौकर भी अजीब अहमक़ है मगर मैं ख़ुद मारवाड़ी था और जानता था कि ये इस मुल्क का रहने वाला है जहां उर्दू ठीक नहीं समझते हैं मगर फिर भी इस हिमाक़त पर तो बहुत ही ग़ुस्सा आया क्योंकि आप ख़ुद ग़ौर कीजिए कि मोज़े मंगाए और पूछता है कि दोनों लाऊँ


पुकार कर मुंशी जी ने कहा
हाँ दोनों।
आप यक़ीन मानिए कि वो कमरे से बजाय मोजों के दोनों उगालदान लिए चला आता है
मैं अब उसकी सूरत को देखता हूँ कि हँसूँ या रोऊँ


अभी अभी ये तय करने नहीं पाया था कि लाला जी मुरादाबादी क़लई के उगालदान को शायद गुलदान समझ कर देखते हैं। उसको मुट्ठी में इस तरह पकड़ते हैं जैसे मदारी डुगडुगी को
यहां तक भी ग़नीमत है मगर क़िस्मत तो देखिए कि क़ब्ल इसके कि मुंशी जी उनके हाथ से उगालदान को लें और मुलाज़िम को उसकी ग़लती बताएं लाला जी ने उसके अंदर झांक कर देखा और कराहीयत मगर निहायत संजीदगी से उसको ज़मीन पर रखते हुए बोले
बासन तो घड़ाएं चोखा है मगर किसी बेटी रे बाप ने इसमें थूक दिया है।
इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन! वो अपना हाथ पाक करने के लिए ज़मीन पर रगड़ रहे थे और मैं अपनी क़िस्मत को रो रहा था कि ख़ुदा ने पाला डाला तो ऐसों से क्योंकि घड़ाएं चोखा के मअनी हैं बहुत अच्छा और बेटी रे बाप के मअनी हैं


बेटी का बाप
यानी परले दर्जे का अहमक़ और बदतमीज़। ये सब कुछ था मगर पाँच सौ रुपये! मुझे लाला जी महज़ इन्ही रूपों की वजह से परी मालूम हो रहे थे और क्यों न हों।
उधर लाला जी गए और इधर मुंशी जी ने ऐनक के ऊपर से मेरे ऊपर निगाहें तिरछी तिरछी डालीं
बड़े लाल पीले हो कर उन्होंने कहा



मैं नौकरी नहीं कर सकता... आप वकालत कर चुके हैं... कर चुके... बस-बस हो चुकी... देख लिया...
नाई रे नाई कितने बाल? जो हैं साहिब जी सामने आए जाते हैं... कहीं ऐसे ही वकालत होती है...? उधर फिर... मैंने तंग आकर कहा
तो आख़िर क्या ग़ज़ब हो गया।


झल्लाकर मुंशी जी बोले
जी हाँ... मारवाड़ी का मुक़द्दमा और आप बिल्ली की दुम काट रहे हैं... और जो वो देख लेता तो...? हाँ... और ये! आपने ये कैसे कह दिया कि मुक़द्दमा नहीं चल सकता? मुंशी जी ने ये जुमला तेज़ हो कर कहा।
मैं
इसलिए कि अव्वल तो गवाह नदारद और फिर दूसरे ये कि महज़ इतनी सी बात पर मुक़द्दमा...


मुंशी जी झल्लाकर बोले
बस-बस... हो चुकी वकालत... आपको कैसे मालूम कि मुक़द्दमा नहीं चलेगा। हुँह इम्तिहान क्या पास किया कि समझे कि वकील हो गए
अरे मियां यहां तो ये हाल है कि न मालूम कितने वकील बना दिये... बार बार कहता हूँ
और फिर वही बातें...। मुक़द्दमा न भी चलेगा तो मुवक्किल से थोड़ी कह दिया जाता है कि तेरा मुक़द्दमा नहीं चलेगा।


मैं क़ाइल हो रहा था वाक़ई मेरी ग़लती थी। मुंशी जी बुज़ुर्ग और हमदर्द थे। क़ानूनदानी से कुछ नहीं होता। बक़ौल उनके वकालत के पेच सीखना चाहिऐं
ये वकालत के पेच हैं! यानी ब अलफ़ाज़ दीगर मक... का... री...
मैं क्या जवाब देता
क़ाइल था


माक़ूल था
सर हिला रहा था
हंसी आ रही थी और दिल में कह रहा था।
कि आती है उर्दू ज़बां आते आते


कमबख़्ती तो देखिए कि ख़ानम शीशे में से झांक रही थी और मुंशी जी की बातें सुनकर अकेली ही अकेली हंस रही थी। मेरी नज़र जो पड़ी तो मुझे भी बे-इख़्तियार हंसी आई और मैं एक दम से कमरे से भागा। ख़ुदा मालूम मुंशी जी क्या बड़बड़ाए इतना ज़रूर सुना... बदतमीज़ी... वकालत नहीं मुंशी जी ग़ुस्से में आकर चल दिए।
मैं खाना खा ही रहा था कि एक मुक़द्दमे वाले ने पुकारा
ये एक मुवक्किल का लड़का था जिसका आज मुक़द्दमा था और उसने मुझसे कि
बाप ने ताकीद कर के कह दिया है कि मोटी वाली किताब ज़रूर लेते आना। मुक़द्दमा दीवानी का था


और मुझे फ़ौजदारी की एक किताब की आज कचहरी में ज़रूरत थी चुनांचे मैं ताज़ीरात-ए-हिंद देकर रवाना किया
ये भी करना पड़ता है वर्ना मुवक्किल साहिब मुक़द्दमा ख़िलाफ़ हो जाने की सूरत में तमाम इल्ज़ाम देते हैं कि किताब मोटी वाली कह देने पर भी न लाए ख़्वाह आपको किताब की ज़रूरत हो या न हो मगर मुवक्किल साहिब फ़रमाएं तो फिर कैसे न ले जाइएगा।
ज़रूरत पतली सी किताब की हो मगर आपको मोटी किताब ले जाना पड़ेगी।
मैं अपनी क़ाबिलीयत पर दिल ही दिल में नाज़ाँ था और इसका सिक्का ख़ानम पर भी बिठाना चाहता था।


कुछ सुनती हो
मैंने कहा
मेरे साथीयों में से अब तक किसी को पाँच सौ रुपये का मुक़द्दमा नहीं मिला
शायद क़ाइल हो कर ख़ानम उसके जवाब में मुस्कुराई और मैंने और रोब जमाया।


तुम ख़ुद देखो कि इतनी जल्दी पाँच पाँच सौ रुपये के मुक़द्दमात आने लगे हैं
अब बताओ नौकरी अच्छी या ये वकालत?
ख़ानम अपनी फ़िक्र में थीं और बोलीं
तो अपनी बात से न फिर जाना आज शाम को कचहरी से आओ बंदे ज़रूर साथ हों दाम तय कर लेना और चुका कर लाना और... बात काट कर मैंने कहा


लेता आऊँगा... मैं... और देखो जब एक मुक़द्दमा बड़ा आता है यानी ज़्यादा फ़ीस का तो फिर उसके साथ साथ बड़े अच्छे मुक़द्दमे आते हैं और तार सा बंध जाता है।
ख़ानम ने कहा
तो ज़रूर लेते आना
कल तक तो वो दे देगा आख़िर मारवाड़ी महाजन है उसके लिए पाँच सौ रुपये कौन सी बड़ी बात है।


क़ाएदे से तो मुंशी जी ने उससे रुपया वसूल कर ही लिया होगा। मैंने सोचा कि बात दरअसल जनाब ये है कि मेरी हैसियत के नए वकील के पास अगर पाँच सौ रुपये का मुक़द्दमा आ जाये तो उसको ऐसा मालूम देता है कि ठंडे पानी से नहा रहे हैं
मतलब मेरा ये कि सांस कुछ ऊपर को खींचने लगती है। मैंने ख़ानम से फ़ौरन वादा कर लिया था कि कचहरी से वापसी में हीरे के बुँदे लेता आऊँगा। वो बुँदे उन्होंने हाल में बेहद पसंद किए थे लेकिन क़ाएदे से अब तक उनके लिए मेरी हैसियत को देखते हुए वो ख़रीदने की चीज़ न थी बल्कि महज़ देखने की चीज़ थी। ख़ानम ने बार-बार इसरार से मैंने कहा।
जान क्यों खाए जाती हो कहता भी हूँ कि लेता आऊँगा ज़रूर लेता आऊँगा ज़रूर बालज़रोर और कचहरी से सीधा बाज़ार जाऊँगा इतमीनान रखू।
बावजूद इस क़दर इतमीनान दिलाने के भी ख़ानम मुझे कमरे के दरवाज़े तक हसब-ए-मामूल रुख़स्त करने जो आएं तो चलते चलते फिर ताकीद कर दी।


मैं कचहरी पहुंचा। रास्ता में जितने भी नियम के दरख़्त मिले उनकी तरफ़ देखा तो ख़ानम की ख़्याली तस्वीर हीरे के बंदे पहने हुए नज़र आई। तबईत आज बेतरह ख़ुश थी
अपने को मैं ज़रा बड़े वकीलों में शुमार कर रहा था
कचहरी पहुंच कर सीधा मुंशी जी के पास पहुंचा
मुंशी जी ने मुझे देखकर नाक के नथुने फला लिए


मैंने ज़रा इधर उधर की काम की बातें पूछें तो मुँह बना बना कर जवाब दिए। मगर मुझे ख़ानम के बंदों की जल्दी पड़ी थी और मैंने मुंशी जी से आख़िर को पूछ लिया कि पाँच सौ रुपय में लाला जी कितने रुपय दिए गए और कितने बाक़ी हैं
किसी ने कहा है

ए बसा आरज़ू कि ख़ाक शुद


आप मुश्किल से अंदाज़ा लगा सकेंगे कि मेरा क्या हाल हुआ जब मालूम हुआ कि मुक़द्दमा पाँच सौ का तो बे-शक था और है मगर पाँच सौ रुपय का नहीं है बल्कि दफ़ा ५०० का (ताज़ीरात-ए-हिंद) है।
सदमा की वजह से मेरी गर्दन एक तरफ़ को ढलक गई और इस पर मुंशी जी का निहायत ही करख़त और तंज़िया लहजे में रेमार्क
जी।।। जी हाँ।।। पाँच सौ रुपय फ़ीस के मुक़द्दमे आपके लिए अब मैं हाइकोर्ट से मंगवाओंगा। अना लिल्लाह-ओ-अना एलिया राजावन।
मेरा तमाम जोश-ओ-ख़ुरोश रुख़स्त हो गया और एक अजीब पसपाईत छा गई। जमाही लेकर सामने नियम की तरफ़ देखा बजाय ख़ानम के ख़्याली तस्वीर के दुकानदार की अलमारी में बंदे मख़मल की डिबिया में रखे इसी तरह चमक रहे थे।


घर पहुंचा तो ख़ानम ने चुपके से आकर पीछे से आँखें बंद कर लें और फिर फ़ौरन ही मेरी दोनों जेबों में हाथ डाल कर कहा तुम्हें क़सम है कितने में मिले। अब आगे जाने दीजीए कि किस तरह मैंने ख़ानम को ग़लतफ़हमी से निकाल कर समझाया और क्या-क्या कोफ़त हुई है और ये सब कुछ अपनी ही हमाक़त से क्योंकि ज़रा ग़ौर करने पर मालूम हो गया कि इस किस्म के ख़्यालात ही दिल में मुझे ना लाना चाहिए थे। लाहौल वला क़ो।
(2)
दूसरे तीसरे रोज़ का ज़िक्र है कि एक पर-लुत्फ़ ऐट रुम था कुछ शनासा और दोस्त बाहर से भी इसी तक़रीब में आए थे जिनका ताल्लुक़ कॉलेज से था। उनमें से कुछ वकील भी थे। यहां वकीलों से बेहस है। उनमें से कुछ साहिबान ऐसे थे जिनसे मेरी बड़ी बे-तकल्लुफ़ी थी। मुझसे दो तीन साल पहले ईल एल्बी कर चुके थे फ़र्ज़ कीजीए कि उनमें से एक का नाम अलिफ़ और दूसरे का ब और तीसरे का ज था।
मिस्टर अलिफ़ से सुबह मुलाक़ात हुई थी सख़्त परेशान थे। वकालत क़तई ना चलती थी कहने लगे यार क्या करूँ नौकरी की फ़िक्र में हूँ


मैंने कहा फिर? तो बोले कोई नौकरी भी नहीं मिलती।
मेरी हालत पूछी तो मैंने भी कहा और हक़ीक़त बतला दी कि यार जब तक वालिद साहिब रुपय देते जाऐंगे में बराबर वकालत करता जाऊँगा।
इसी तरह ब साहिब से भी मुलाक़ात एक और साहिब के हाँ हुई उनका पुतला हाल था बल्कि उनकी जेब से तो उम्दा उम्दा किस्म के वांटड इश्तिहारात की गड्डी की गड्डी निकली चूँकि मेरे गहरे दोस्त थे दो तीन इस में से छांट कर मुझे भी इश्तिहार दिए और फिर अर्ज़ी के बारे में ताकीद की कि रजिस्ट्री से भेजना। आज तक तो अर्ज़ियों में से एक का भी जवाब नहीं आया और ख़्वाह-मख़ाह रजिस्ट्रियों पर मेरे दाम गए।
ज साहिब से भी मुलाक़ात हुई और उनका भी यही हाल था। मेरी इन तीनों हज़रात से बे-तकल्लुफ़ी थी लिहाज़ा मुझे असली हालात बताने में किसी ने ताम्मुल ना किया।


शाम को ऐट होम के पर-लुत्फ़ जलसे में मेरी किस्म के बहुत से वकील अपने अपने बापों की कमाई से बनवाए हुए क़ीमती सूट ज़ेब-ए-तन किए केक और फल झाड़ रहे थे। हमउमर और हम-ख़याल और फिर हमपेशा जमा हुए तो यही सवाल पेश हो गया कि कहो भई कैसे चलती है। मैं नहीं अर्ज़ कर सकता कि ये सवाल किस क़दर टेढ़ा है। आपको पहचान बताता हूँ कि नया वकील इस सवाल का जवाब देने से पहले अगर ज़रा भी खाँसे या इधर उधर देखे तो जो आमदनी वो अपनी बताए उस को बेधड़क दस पर तक़सीम कर दें बिलकुल सही जवाब निकल आएगा। नए वकील इस सवाल से इस क़दर घबराते हैं (ख़ुसूसन में) कि अगर वो ससुराल जाते हूँ तो महिज़ इस सवाल से बचने के लिए बतौर पेशबंदी यही कह दिया जाता है कि जनाब एक मुक़द्दमा में जा रहा हूँ। आप ही बताईए कि फिर आख़िर क्या बताया जाये।
ग़रज़ यही सवाल कि कैसी चलती है? पेश किया गया और मिस्टर ब को जवाब देना पड़ा। मिस्टर ब ने चेहरे को किसी क़दर मटोर कर के कहा। ख़ुदा का शुक्र है अच्छा काम चल रहा है।
कितना औसत पड़ जाता है? मिस्टर ज ने पूछा।
मिस्टर ब ने ज़रा गला साफ़ कर के खाँसते हुए कहा


क्या औसत होता है... भई बात तो ये है कि नया काम है कुछ भरोसा नहीं
किसी महीने में कम तो किसी में ज़्यादा
इतना कह के कुछ समझ कर ख़ुद ही कहा... एक महीने में ऐसा हुआ कि सिर्फ़ बत्तीस रुपये पौने नौ आने आए...!
एक क़हक़हा लगा और एक साहिब ने ज़ोर से कहा


पौने नौ आने न कम न ज़्यादा।
मिस्टर ब ने जल्दी से लोगों की ग़लतफ़हमी से इस तरह निकाला... एक में तो साढे़ बत्तीस रुपये आए लेकिन दूसरे महीने में सतरह रोज़ के अंदर अंदर दो सौ छियालीस।
मिस्टर ज नीज़ औरों ने ग़ौर से मिस्टर ब की आमदनी का मुआइना करते हुए कहा
तो औसत आपका दो सौ रुपया माहवार का पड़ता था।


मिस्टर ब ने नज़र नीची किए नारंगी की फांक खाते हुए कहा
जी मुश्किल से... दो सौ से कम ही समझिए बल्कि एक कम दो सौ कहिए
इस तरह सवाल से अपनी जान छुड़ा कर अब मिस्टर ज को पकड़ा और कहा
कहो यार तुम्हारा क्या हाल है?


अब मिस्टर ज की तरफ़ सबकी आँखें उठ गईं उनकी हालत भी क़ाबिल-ए-रहम थी
उनको भी खांसी आई और उनका भी औसत दो सौ पौने दो सौ के क़रीब पड़ा।
मिस्टर अलिफ़ का नंबर आया तो कम-ओ-बेश इतना ही उनका भी हिसाब पड़ता था मगर चूँकि वो हिसाब रखने के आदी नहीं थे लिहाज़ा कुछ ज़्यादा रोशनी डालने से क़ासिर रहे। सबकी बिल इत्तिफ़ाक़ राय थी कि वकालत निहायत उम्दा और आज़ाद पेशा है
क़तई है बशर्ते के घर से बराबर रुपया आता रहे


साल दो साल में डेढ़ दो सौ की आमदनी होने लगना दलील है इस यक़ीनी अमर की कि दस बारह साल में काफ़ी आमदनी होने लगेगी यानी हज़ार बारह सौ।
मेरा नंबर आया तो मैंने मिस्टर ब के अता करदा वांतेड के इश्तिहार निकाल कर दिखाए कि भई मैं तो आजकल ये देख रहा हूँ। नाज़रीन ने एक क़हक़हा लगाया और मैं चुपके से मिस्टर ब की तरफ़ देखा वो कुछ बेचैन थे।
मिस्टर अलिफ़-ओ-ब-ओ-ज क्या बल्कि बड़ी हद तक जितने भी वहां वकालत पेशा थे उन्होंने ख़ास दिलचस्पी का इज़हार किया और फिर मिस्टर अलिफ़-ओ-ब-ओ-ज ने तो कहा कि
जी जमे रहो। हम भी पहले घबरा गए थे और तुम्हारी तरह कहते थे कि नौकरी कर लेंगे मगर ख़बरदार नौकरी का भूल कर भी नाम न लेना।


वाक़ई बात भी ठीक थी
क्यों? शायद महज़ इस वजह से कि वकालत निहायत मुअज़्ज़िज़ और आज़ाद पेशा है।
(3)
उसी ऐट होम में मेरे सीनियर (senior) भी मिले। कहने लगे कि सुबह आना एक मामूली सी उज़्रदारी है दस बजे की गाड़ी से चले जाना शाम की गाड़ी से चले आना।


ये ज़िला की एक तहसील की मुंसफ़ी का मुक़द्दमा था। मुक़द्दमा या फ़ीस के बारे में कैफ़ियत पूछ न सका
मेरे सीनियर पुराने और कामयाब वकील हैं। लंबे चौड़े वजीह आदमी
क़दआवर
दबंग आवाज़ के वकीलों में नुमायां शख़्सियत रखने वाले।


चूँकि तहसीलों की मुंसफ़ी में नए वकील को ख़ुसूसन ज़रा ठाठ से जाना चाहिए। मैंने भी रात ही को एक उम्दा सा सूट निकाल कर रखा। सुबह ख़ानम से कहा कि चाय के बजाय पराठे और अंडे खिलवाओ। एक किताब भी ले जाना तय हुआ हालाँकि उसकी कोई ज़रूरत न थी।
मुझे तो अफ़सोस था ही
ख़ानम से कहा तो उसको और भी अफ़सोस हुआ कि जब मैं अपने सीनियर के हाँ से वापस आया और सारा क़िस्सा सुनाते हुए जल्दी जल्दी स्टेशन जाने की तैयारी की। बात अफ़सोस की दरअसल ये थी कि मुवक्किल बीस रुपये दे गया था। सीनियर साहिब तो जजी के एक अपील की वजह से न जा सकते थे लिहाज़ा उन्होंने मुझसे कहा कि वकालतनामा मौजूद है इस पर तुम भी दस्तख़त कर देना और दस रुपये तुम ले लेना बाक़ी मुवक्किल को वापस कर देना। मैं भला उनसे कैसे कहता कि जनाब ये आप क्यों नाहक़ वापस करवाते हैं
मेरे और ख़ानम के दिमाग़ तो देखिए मैं सोच रहा था कि जो काम मेरे सीनियर करते आख़िर बिल्कुल वही काम मैं करूँगा


वो ख़ुद करते तो बीस लेते जो मुवक्किल दे ही गया था और मुझसे काम ले रहे हैं तो आया हुआ रुपया वापस कर रहे हैं। ये सब कुछ मगर मुझे वापस करना ही था। रुपये फ़ीस के इलावा किराया वग़ैरा के अलैहदा थे। मुआमले को सीनियर साहिब से ख़ूब समझ कर आया था और फिर आख़िर कुछ मुआमला भी तो हुआ ज़रा ग़ौर तो कीजिए काम ही क्या था। क़िस्सा दरअसल ये था कि दो भाई थे एक ने क़र्ज़ लिया
महाजन क़ुर्क़ी कराने आया तो क़र्ज़दार भाई के पास कुछ बरामद न हुआ तो उसने दूसरे भाई के बैल ख़्वाह-मख़ाह क़ुर्क़ करा लिये। अगर देखा जाये तो इस मुआमले में दरअसल किसी वकील की भी ज़रूरत थी। कुजा एक बड़े वकील की क्योंकि को आपरेटिव बंक के रजिस्टर मौजूद थे और फिर पटवारी की फ़र्द जिससे ये साबित था कि दोनों भाईयों की खेती बाड़ी और तमाम कारोबार अलग हैं और एक भाई के क़र्जे़ में दूसरे भाई के बैल किसी तौर भी क़ुर्क़ नहीं हो सकते। इसकी भी पूरी शहादत मौजूद थी कि ये बैल बंक के क़र्जे़ से ख़रीदे गए हैं। इन तमाम बातों के बावजूद भी बजाय वकील बिल्कुल न करने के या मेरा सा कोई थर्ड क्लास कर लेने के वो भलामानस सीधा मेरे सीनियर के पास दौड़ा आया।
मैं आपसे क्या अर्ज़ करूँ कि तमाम नए वकीलों को (ख़ुसूसन मुझे सबसे ज़्यादा) कितनी बड़ी शिकायत है कि अह्ल-ए- मुआमला यानी मुक़द्दमा लड़ने वाले ज़रा ज़रा से कामों के लिए बड़े बड़े वकीलों के पास दौड़ते हैं। हम लोगों को कोई मस्ख़रा भूल कर भी नहीं पूछता वर्ना इससे बेहतर काम आधी से कम फ़ीस पर दौड़ कर करें। मगर साहिब हमारी कोई नहीं सुनता जिसे देखो बड़े वकीलों की तरफ़ दौड़ा चला जा रहा है
हम भी जल कर कहते हैं जाओ हमारी बला से तुम एक छोड़ो दस मर्तबा जाओ दोगुने चौगुने दाम भी दो और झिड़कियां खाओ वो अलैहदा। अब आप ही बताएं कि इसके इलावा और भला हम कर ही क्या सकते हैं।


साढे़ दस बजे के क़रीब मैं मंज़िल-ए-मक़्सूद पर पहुंच गया और फ़ौरन अपने मुवक्किल की तलाश शुरू कर दी।
ये मुवक्किल दरअसल मेरे सीनियर साहिब का बेहद क़ाइल बल्कि मोतक़िद था और सोचता था कि ख़राब मुक़द्दमा भी वो दुरुस्त कर सकते हैं
चुनांचे इसी बिना पर वो उनके पास दौड़ा आया था
मैंने इस मूज़ी को कभी न देखा था


उधर मैं उसकी तलाश में था और इधर वो मेरे सीनियर का मुंतज़िर
उसे क्या मालूम कि उनके बजाय मैं आया हूँ और ख़ुद उसको ढूंढता फिरता हूँ। पेशकार के पास जा कर मैंने वकालतनामा दाख़िल किया। अदालत के कमरे से निकला ही था कि एक गँवार ने मुझे सलाम किया
इस तरह कि जैसे मुझसे कुछ पूछना चाहता है
उसने मुझसे मेरे सीनियर के बारे में पूछा कि क्यों साहिब आप बता सकते हैं कि वो क्यों नहीं आए? मैंने उसके जवाब में उसका नाम लेकर पूछा कि तुम्हारा नाम ये है


उसने कहा हाँ
मैं ख़ुश हुआ कि मुवक्किल मिल गया। मैंने उससे कहा कि तुम्हारे मुक़द्दमे में
मैं आया हूँ उनकी जजी में एक अपील है। ये सुनकर इस कम्बख़्त का गोया दम ही तो सूख गया निहायत ही बददिल हो कर उस नालायक़ ने दो-चार आदमियों के सामने ही कह दिया कि
उन्होंने (यानी मेरे सीनियर ने) मेरा मुक़द्दमा पट कर दिया।


आप ख़ुद ही ख़्याल कीजिए कि उस गँवार के ऊपर मुझे क्या ग़ुस्सा न आया होगा। मैं सख़्त ख़फ़ीफ़ सा हुआ और दिल में ही मैंने कहा कि अगर ऐसे ही दो-चार और मिल गए तो फिर बक़ौल मुंशी जी वकालत तो बस चल चुकी।
मैंने अपनी ख़िफ़्फ़त मिटाने को हंसी में बात टालना चाही और कहा
क्या फ़ुज़ूल बकता है। मुझे ख़्याल आया कि दस रुपये मिनजुमला बीस के उसी वक़्त वापस कर दूं ताकि ये ख़ुश हो जाये
चुनांचे मैंने दस रुपये का नोट निकाल कर उसको दिया और कहा कि बाक़ी मेरी दस फ़ीस के हुए और ये तुम्हें वापस किए जाते हैं।


मेरा रुपया वापस करना गोया और भी सक़म हो गया
गोया सारी क़लई खुल गई। उसने नोट तह कर के अपनी जेब में रखते हुए कहा
मुझे दस पाँच रुपय का टूटा फूटा वकील करना होता तो मैं उनके पास क्यों जाता? यहीं किसी को न कर लेता।
अब तो जनाब मैं और भी घबराया


क्या बताऊं किस क़दर उस कमबख़्त ने मुझे ख़फ़ीफ़ किया और कैसा सब के सामने ज़लील किया। मारे ग़ुस्से के मैं काँपने लगा मुझे मालूम होता कि ये मूज़ी मुझे इस बुरी तरह भिगो भिगो कर मारेगा तो मैं सौ रुपये फ़ीस पर भी इस नालायक़ के मुक़द्दमे में न आता
हाय मैं क्यों आया बस न था कि एक दम से उड़ कर यहां से किसी तरह ग़ायब हो जाऊं
मबादा कि वो इसी क़िस्म के फ़िक़रे चुस्त करे। मैं इस पेशे को दिल ही दिल में बुरा-भला कह रहा था और बाहर इस लतीफ़े पर कचहरी के लोग हंस रहे थे
लाहौल वला क़ुवः


ऐसी भी मेरी कभी काहे को ज़िल्लत हुई होगी और ये सब दुर्गत महज़ दस रुपया की बदौलत लानत है इस पेशे पर
मैंने अपने दिल में कहा।
जब मैंने देखा कि वो मूज़ी दूर चला गया तो फिर बरामदे में निकला। दूर से एक दरख़्त के नीचे मैंने उसको खड़ा देखा
दो-चार आदमी और थे। इतने में उस ज़ालिम ने मुझे देखा और देखते ही वहीं से मेरी तरफ़ उसने उंगली उठाई।


आपकी तरफ़ अगर कोई दुश्मन भरी हुई बंदूक़ की नाल दिखाये तो आप क्या करेंगे ? यक़ीनी आड़ में छिप जाऐंगे बस फिर मैंने भी यही किया और फ़ौरन अदालत के कमरे में घुस गया क्योंकि वो नाशुदनी उंगली मेरे लिए किसी तरह भी बंदूक़ की नाल से कम न थी फिर थोड़ी देर बाद निकला तो फिर उसने मेरी तरफ़ उंगली उठाई
अब मुझमें ज़ब्त की ताक़त न थी और सीधा उसी की तरफ़ गया। मारे ग़ुस्से के मेरा बुरा हाल था पहुंचते ही उसने मेरे तेवर बिगड़े देखे कुछ झिजका कि मैंने डाँट कर कहा चुप रहो बदतमीज़ कहीं का
एक तो हम इतनी दूर से आए आधी फ़ीस ली और इस पर तू बदज़बानी करता है।
दो एक अराइज़ नवीसों ने भी मेरी हिमायत की और उसको डाँटा और मेरी क़ाबिलीयत वग़ैरा पर कुछ रोशनी डाली और उसको क़ाइल किया तो वो फ़ौरन सीधा हो गया और फिर माज़रत करनेलगा क्योंकि आख़िर मुझ ही से उसको काम लेना था। जब वो राह-ए-रास्त पर आ गया तो मैंने उससे कुछ ज़बानी भी बातें दरियाफ्त कीं। पटवारी से भी बातचीत की। बंक के मुंशी से भी मिल लिया और सबको ज़रूरी हिदायत भी कर दी। थोड़ी ही देर बाद मुक़द्दमा की पेशी हुई


मैं कभी उस पेशी को न भूलूँगा।
उधर से मैं वकील था और इधर से एक मोटे ताज़े बड़ी बड़ी मूंछों वाले काले बजंग वकील थे जिनकी घाटी इस क़दर साफ़ थी और वो इस तेज़ी से बोलते थे कि गुमान होता था कि कोई चने खा रहा है। उधर तो ये मुआमला और इधरमैं
सूखा साख़ा क़हत का मारा मअ मुबालग़ा मुझ जैसे उनमें से दस बनते। गुल गपाड़ा वैसे तो मैं भी मचा सकता हूँ
हज़रत कहाँ डफ़ली और कहाँ ढोल और फिर इलावा उसके मुझमें और उनमें सबसे बड़ा एक और फ़र्क़ था वो फ़र्क़ जो उमूमन हाईकोर्ट और तहसील के वकील में हो सकता है।


जब मुक़द्दमा पेश हुआ तो मैंने कुछ बन कर निहायत ही क़ाएदे से अपने मुवक्किल की उज़्रदारी पेश की मगर ख़ुदा वकीलों की बदतमीज़ी से बचाए वकील मुख़ालिफ़ बार-बार ख़िलाफ़-ए-क़ायदा दख़ल दर माक़ूलात करते थे
बेवजह और बे बात मेरे ऊपर ख़िलाफ़-ए-क़ायदा एतराज़ करते थे
कई मर्तबा मैंने अदालत की तवज्जो भी इस तरफ़ दिलाई कि उनका कोई हक़ नहीं और अदालत ने कहा मगर वो भला काहे को सुनते थे
न उन्हें अदालत की झड़कियों का डर था और न उस का ख़्याल कि ये बात बिल्कुल बेक़ाइदा है कि मेरी तक़रीर के दौरान में दख़ल दें


उन्हें तो बस एक ही ख़्याल था और वो ये कि मुक़द्दमा तो हारना ही है लाओ अपने मुवक्किल ही को ख़ुश कर लूं ताकि वो क़ाइल हो जाये कि मेरे वकील ने कोई कसर न उठा रखी। ग़रज़ वो मुर्गे की सी चोंचें लड़ रहे थे
कभी मिसिल सामने से लिए लेते थे तो कभी फाँद फाँद कर मुझे रोक देते थे।
जिस तरह भी बन पड़ा मैंने अपनी तक़रीर निहायत ही उम्दा पैराए से ख़ुश-उस्लूबी के साथ ख़त्म की और अब उनका नंबर आया
उन्होंने अपनी मूँछें पोंछ कर ज़रा गला साफ़ किया गोया ब अलफ़ाज़ कहा



अब जिगर थाम के बैठो मेरी बारी आई
उन्होंने अपनी जवाबी तक़रीर शुरू की
आँखें घुमा कर और

- मिर्ज़ा-अज़ीम-बेग़-चुग़ताई


ट्रेन मग़रिबी जर्मनी की सरहद में दाख़िल हो चुकी थी। हद-ए-नज़र तक लाला के तख़्ते लहलहा रहे थे। देहात की शफ़्फ़ाफ़ सड़कों पर से कारें ज़न्नाटे से गुज़रती जाती थीं। नदियों में बतखें तैर रही थीं। ट्रेन के एक डिब्बे में पाँच मुसाफ़िर चुप-चाप बैठे थे।
एक बूढ़ा जो खिड़की से सर टिकाए बाहर देख रहा था। एक फ़र्बा औ’रत जो शायद उसकी बेटी थी और उसकी तरफ़ से बहुत फ़िक्रमंद नज़र आती थी। ग़ालिबन वो बीमार था। सीट के दूसरे सिरे पर एक ख़ुश शक्ल तवील-उल-क़ामत शख़्स
चालीस साल के लगभग उ’म्र
मुतबस्सिम पुर-सुकून चेहरा एक फ़्रैंच किताब के मुताले’ में मुनहमिक था। मुक़ाबिल की कुर्सी पर एक नौजवान लड़की जो वज़्अ’ क़त्अ’ से अमरीकन मा’लूम होती थी


एक बा-तस्वीर रिसाले की वरक़-गर्दानी कर रही थी और कभी-कभी नज़रें उठा कर सामने वाले पुर-कशिश शख़्स को देख लेती थी। पाँचवें मुसाफ़िर का चेहरा अख़बार से छिपा था। अख़बार किसी अदक़ अजनबी ज़बान में था। शायद नार्देजियन या हंगेरियन
या हो सकता है आईसलैंडिक। इस दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जो आईसलैंडिक में बातें करते हैं। पढ़ते लिखते और शे’र कहते हैं। दुनिया अ’जाइब से ख़ाली नहीं।
अमरीकन-नुमा लड़की ने जो ख़ालिस अमरीकन तजस्सुस से ये जानना चाहती थी कि ये कौन सी ज़बान है
उस ख़ूबसूरत आदमी को अख़बार पढ़ने वाले नौजवान से बातें करते सुना। वो भी किसी अजनबी ज़बान में बोल रहा था। लेकिन वो ज़बान ज़रा मानूस सी मा’लूम हुई। लड़की ने क़यास किया कि ये शख़्स ईरानी या तुर्क है। वो अपने शहर टोरांटो में चंद ईरानी तलबा’ से मिल चुकी थी। चलो ये तो पता चल गया कि ये फ़ैबूलस गाय (fabulous guy) पर्शियन है। (उसने अंग्रेज़ी में सोचा। मैं आपको उर्दू में बता रही हूँ क्योंकि अफ़साना ब-ज़बान-ए-उर्दू है।)


अचानक बूढ़े ने जो अंग्रेज़ था
आहिस्ता से कहा
“दुनिया वाक़ई’ ख़ासी ख़ूबसूरत है।”
ये एक क़तई बर्तानवी अंडर-स्टेटमेंट था। लड़की को मा’लूम था कि दुनिया बे-इंतिहा ख़ूबसूरत है। बूढ़े की बेटी कैनेडियन लड़की को देखकर ख़फ़ीफ़ सी उदासी से मुस्कुराई। बाप की टांगों पर कम्बल फैला कर मादराना शफ़क़त से कहा


“डैड। अब आराम करो।”
उसने जवाब दिया
“ऐडना। मैं ये मनाज़िर देखना चाहता हूँ।”
उसकी बेटी ने रसान से कहा


“अच्छा इसके बा’द ज़रा सो जाओ।”
इसके बा’द वो आकर कैनेडियन लड़की के पास बैठ गई। गो अंग्रेज़ थी मगर शायद अपना दुख बाँटना चाहती थी।
“मेरा नाम ऐडना हंट है। ये मेरे वालिद हैं प्रोफ़ैसर चाल्स हंट।”
उसने आहिस्ता से कहा।


“तमारा फील्डिंग टोरांटो। कैनेडा।”
“कैंब्रिज। इंगलैंड। डैड वहाँ पीटर हाऊस में रियाज़ी पढ़ाते थे।”
“बीमार हैं?”
“सर्तान... और उन्हें बता दिया गया है।”


ऐडना ने सरगोशी में जवाब दिया।
“ओह। आई ऐम सो सौरी।”
तमारा फील्डिंग ने कहा। ख़ामोशी छा गई। किसी अजनबी के ज़ाती अलम में दफ़अ’तन दाख़िल हो जाने से बड़ी ख़जालत होती है।
“अगर तुमको ये मा’लूम हो जाए।”


ऐडना ने आहिस्ता-आहिस्ता कहा
“कि ये दुनिया बहुत जल्द फ़ुलाँ मुद्दत के बा’द और हमेशा के लिए छोड़नी है तो जाने कैसा लगता होगा।”
“इस मुआ’मले में इंसान को बहुत साबिर और फ़लसफ़ी हो जाना चाहिए”
तमारा ने कहा और ख़फ़ीफ़ सी हँसी।


“हालाँकि ये भी बेकार है।”
“आप ठीक कहती हैं जैसे मैं इस वक़्त ख़ुद साबिर और फ़लसफ़ी बनने की कोशिश कर रही हूँ।”
तमारा ने कहा।
ऐडना ने सवालिया नज़रों से उसे देखा गो ब-हैसियत एक वज़्अ-दार अंग्रेज़ ख़ातून वो किसी से ज़ाती सवाल करना न चाहती थी।


इस बे-तकल्लुफ़ कैनेडियन लड़की ने बात जारी रखी।
“मैं जर्मनी आना न चाहती थी। इस मुल्क से बहुत ख़ौफ़नाक यादें वाबस्ता हैं। मेरी वालिदा के दो मामूँ एक ख़ाला उनके बच्चे। सब के सब। मेरी मम्मी आज भी किसी फ़ैक्ट्री की चिमनी से धुआँ निकलता देखती हैं तो मुँह फेर लेती हैं।”
“ओह!”
“हालाँकि ये मेरी पैदाइश से बहुत पहले के वाक़िआ’त हैं।”


“ओह। मैं तुम्हारे क्रिस्चन नाम से समझी तुम रूसी-नज़ाद हो। हालाँकि तुम्हारा ख़ानदानी नाम ख़ालिस ऐंग्लो-सैक्सन है।”
“मेरे नाना रूसी थे। मेरे वालिद का असल नाम डेवीड ग्रीनबर्ग था। कैनेडा जाकर तअस्सुब से बचने के लिए बदल कर फील्डिंग कर लिया लेकिन मैं...”
उसने ज़रा जोश से कहा
“मैं अपने बाप की तरह बुज़दिल नहीं। मैं अपना पूरा नाम इस तरह लिखती हूँ। तमारा ग्रीनबर्ग फील्डिंग।”


“वाक़ई?”
बर्तानवी ख़ातून ने कहा
“कितनी दिलचस्प बात है।”
“औलाद-ए-आदम का शजरा बहुत गुंजलक है”


तमारा ने ग़ैर-इरादी तौर पर ज़रा ऊंची आवाज़ में कहा। क्योंकि वो इस वज्ह से हमेशा मुतहय्यर रहती थी। सामने वाले दिल-कश आदमी ने उसका फ़िक़रा सुना और सर उठा कर उसे देखा और मुस्कुराया। गोया कहता हो
“मैं तुम्हारी बात समझता हूँ।”
लड़की दिल ही दिल में उसकी मशकूर हुई और उसे देखकर ख़ुद भी मुसकुराई
अब ग़ालिबन मैं इस अजनबी पर आ’शिक़ होती जा रही हूँ।


बर्तानवी ख़ातून ने भी ये अंदाज़ा लगा लिया कि वो दोनों एक दूसरे को दिलचस्पी से देख रहे हैं। एक जगह पर दो इंसान एक दूसरे की तरफ़ खिंचें तो समझ लीजिए कि इस अंडर-करंट को हाज़िरीन फ़ौरन महसूस कर लेंगे। क्यों कि औलाद-ए-आदम की बाहम कशिश का अ’जब घपला है।
बूढ़ा प्रोफ़ैसर आँखें खोल कर फिर खिड़की के बाहर देखने लगा।
“मेरे नाना... जब करीमिया से भागे इन्क़िलाब के वक़्त तो अपने साथ सिर्फ़ क़ुरआन लेकर भागे थे।”
तमारा ने आहिस्ता से कहा।


“कोरान...?”
ऐडना ने तअ’ज्जुब से दुहराया
“हाँ। वो मोज़्लिम थे और मेरी नानी मम्मी को बताती थीं
वो अक्सर कहा करते थे कि क़ुरआन में लिखा है


दुनिया बहुत ख़ूबसूरत है। इस में ख़ुशी से रहो और दूसरों को भी ख़ुश रहने दो। और शायद मोज़्लिम प्रौफ़ेट ने कहा था कि इससे बेहतर दुनिया नहीं हो सकती।”
सिगरेट सुलगाने के लिए तमारा ने हस्ब-ए-मा’मूल लाइटर की तलाश में बैग खंगालना शुरू’ किया।
ईरानी-नुमा शख़्स ने फ़ौरन आगे झुक कर अपना लाइटर जलाया। फिर इजाज़त चाह कर तमारा के पास बैठ गया।
ऐडना हंट दूसरी तरफ़ सरक गई। ईरानी-नुमा शख़्स खिड़की के बाहर गुज़रते हुए सुहाने मंज़र देखने में महव हो गया। तमारा ने उससे आहिस्ता से कहा


“ये बुज़ुर्ग सर्तान में मुब्तिला हैं। जिन लोगों को ये मा’लूम हो जाता है कि चंद रोज़ बा’द दुनिया से जाने वाले हैं उन्हें जाने कैसा लगता होगा। ये ख़याल कि हम बहुत जल्द मा’दूम हो जाएँगे। ये दुनिया फिर कभी नज़र न आएगी।”
ईरानी नुमा शख़्स दर्द-मंदी से मुस्कुराया
“जिस इंसान को ये मा’लूम हो कि वो अ’न-क़रीब मौत के मुँह में जाने वाला है। वो सख़्त दिल हो जाता है।”
“वाक़ई?”


हम-सफ़र ने अपना नाम बताया। दक़तूर शरीफ़यान। तबरेज़ यूनीवर्सिटी। शो’बा-ए-तारीख़। कार्ड दिया। उस पर नाम के बहुत से नीले हुरूफ़ छपे थे। लड़की ने बशाशत से दरियाफ़्त किया
“एन.आई.क्यू. या’नी नो आई.क्यू?”
“नुसरतउद्दीन इमाम क़ुली।”
लड़की ने अपना नाम बताने की ज़रूरत न समझी। उसे मा’लूम था कि ये इस नुसरतउद्दीन इमाम क़ुली से उसकी पहली और आख़िरी मुलाक़ात हरगिज़ नहीं है।


एक क़स्बे के स्टेशन पर ट्रेन रुकी। अख़बार पढ़ने वाला लड़का उसी जगह सुरअ’त से उतर गया। दक़तूर शरीफ़यान भी लपक कर बाहर गए। बारिश शुरू’ हो चुकी थी। दरख़्त और फूल और घास पानी में जगमगा रहे थे। इक्का-दुक्का मुसाफ़िर बरसातियाँ ओढ़े प्लेटफार्म पर चुप-चाप खड़े थे। चंद लम्हों बा’द ईरानी प्रोफ़ैसर लंबे-लंबे डग भरता कम्पार्टमेंट में वापिस आया। उसके हाथ में लाला के गुल-दस्ते थे जो उसने बड़े अख़्लाक़ से झुक कर दोनों ख़वातीन को पेश किए और अपनी जगह पर बैठ गया।
आध घंटा गुज़र गया। बूढ़ा सो चुका था। दूसरे कोने में उसकी फ़र्बा बेटी अपनी बाँहों पर सर रखकर ऊँघ रही थी। दफ़अ’तन ईरानी दक़तूर ने कैनेडियन लड़की से कहा
“तमारा ख़ानम। कहाँ तक मेरे साथ रहोगी?”
वो इस सवाल का मतलब समझी और उसे आज तक किसी ने तमारा ख़ानम कह कर मुख़ातिब न किया था। दर-अस्ल वो अपने घर और कॉलेज में टिम कहलाती थी। कहाँ ना-मा’क़ूल टिम और कहाँ तमारा ख़ानम। जैसे सरोद बज रहा हो या उ’मर ख़य्याम का मिसरा। तमारा ख़ानम की ईरान से वाक़फ़ियत महज़ ऐडवर्ड फ़िटनर जेरल्ड तक महदूद थी। उसने उसी कैफ़ियत में कहा


“जहाँ तक मुम्किन हो।”
बहर-हाल वो दोनों एक ही जगह जा रहे थे। तमारा ने ईरानी प्रोफ़ैसर के सूटकेस पर चिपका हुआ लेबल पढ़ लिया था।
“तुम वहाँ पढ़ने जा रही हो या सैर करने?”
“पढ़ने। बायो-कैमिस्ट्री। मुझे एक स्कालरशिप मिला है। तुम ज़ाहिर है पढ़ाने जा रहे होगे।”


“सिर्फ़ चंद रोज़ के लिए। मेरी दानिश-गाह ने एक ज़रूरी काम से भेजा है।”
ट्रेन क़रून-ए-वुस्ता के एक ख़्वाबीदा यूनीवर्सिटी टाउन में दाख़िल हुई।
दूसरे रोज़ वो वा’दे के मुताबिक़ एक कैफ़ेटेरिया में मिले। काउंटर से खाना लेने के बा’द एक दरीचे वाली मेज़ पर जा बैठे। दरीचे के ऐ’न नीचे ख़ुश-मंज़र नदी बह रही थी। दूसरे किनारे पर एक काई-आलूद गोथिक गिरजा खड़ा था। सियाह गाऊन पहने अंडर-ग्रैजूएट नदी के पुल पर से गुज़र थे।
“बड़ा ख़ूबसूरत शहर है।”


तमारा ने बे-साख़्ता कहा।
हालाँकि वो जर्मनी की किसी चीज़ की ता’रीफ़ करना न चाहती थी। दक़तूर नुसरतउद्दीन एक पर मज़ाक़ और ख़ुश-दिल शख़्स था। वो इधर-उधर की बातें कर के उसे हँसाता रहा। तमारा ने उसे ये बताने की ज़रूरत न समझी कि वो जर्मनी से क्यों मुतनफ़्फ़िर थी। अचानक नुसरतउद्दीन ने ख़ालिस तहरानी लहजे में उससे कहा

“ख़ानम जून”


“हूँ...? जून का मतलब?”
“ज़िंदगी!”
“वंडरफुल। यानी मैं तुम्हारी ज़िंदगी हूँ!”
उसने बे-पर्वाई से हाथ हिलाया


“हाहा! मेरी ज़िंदगी! सुनो ख़ानम जून। एक दिलचस्प बात बताऊँ। तुम मुझे बिल्कुल मेरी दादी जैसी लगती हो।”
“बहुत ख़ूब। आपसे ज़ियादा बा-अख़्लाक़ शख़्स पूरे यूरोप में न होगा। एक चौबीस साला लड़की को आप अपनी दादी बनाए दे रहे हैं!”
“वल्लाह... किसी रोज़ तुम्हें उनकी तस्वीर दिखलाऊँगा।”
दूसरी शाम वो उसके होस्टल के कमरे में आया। तमारा अब तक अपने सूटकेस बंद कर के सामान तर्तीब से नहीं जमा सकी थी। सारे कमरे में चीज़ें बिखरी हुई थीं।


“बहुत फूहड़ लड़की हो। कोई समझदार आदमी तुमसे शादी न करेगा।”
उसने आतिश-दान के सामने चमड़े की आराम-कुर्सी पर बैठते हुए कहा।
तमारा ने जल्दी-जल्दी कुछ सामान उठा कर एक तरफ़ रखा।
“लोग-बाग मुझसे अभी से जलने लगे हैं कि मैंने आते ही कैम्पस की सबसे ख़ूबसूरत लड़की छांट ली।”


“छांट ली! अ’रब शुयूख़ की तरह आप भी हरम रखते हैं!”
तमारा ने मसनूई’ ग़ुस्से से कहा।
वो ज़ोर से हँसा और कुर्सी की पुश्त पर सर टिका दिया। दरीचे के बाहर सनोबर के पत्ते सरसराए।
“वो भी अ’जीब अय्याश बुज़दिल ज़ालिम क़ौम है।”


तमारा ने मज़ीद इज़हार-ए-ख़याल किया और एक अलमारी का पट ज़ोर से बंद कर दिया। अलमारी के क़द-ए-आदम आईने में प्रोफ़ैसर का दिल-नवाज़ प्रोफ़ाइल नज़र आया और उस पर मज़ीद आ’शिक़ हुई।
“तुम बिल्कुल ठीक कहती हो। ख़ानम जून। हम ईरानियों की भी अरबों से कभी नहीं पटी। हम तो उन्हें कॉकरोच खाने वाला कहते हैं।”
नुसरत ने मुस्कुरा कर पाइप जलाया।
“कॉकरोच खाते हैं?”


तमारा ने हैरत से पूछा और मुँह बनाया
“वहशी
बदो
मशरिक़ी


मुआ’फ़ करना। मेरा मतलब है तुम तो उनसे बहुत मुख़्तलिफ़ हो। ईरानी तो मिडल ईस्ट के फ़्रैंच मैन कहलाते हैं।”
उसने ज़रा ख़जालत से इज़ाफ़ा किया।
“दुरुस्त। मुतशक्किरम। मुतशक्किरम!”
“तर्जुमा करो।”


“जी
थैंक्स।”
उसने नाक में बोलने वाले अमरीकन लहजे में कहा।
वो ख़ूब खिलखिला कर हँसी।


“तुम बहुत अच्छे अदाकार हो। कम से कम टीवी स्टार तो बन सकते हो।”
“वाक़ई? बहुत जल्द तुम मुझे टीवी स्क्रीन पर देख लोगी।”
“क्या तुमने कभी ऐक्टिंग की है?”
“बहुत। कॉलेज में हमेशा रोमियो ये ख़ाकसार ही बना करता था और फ़रहाद।”


“फ़रहाद कौन?”
“थे एक साहिब। आग़ा फ़रहाद बेग।”
उसने निज़ामी के चंद अशआ’र पढ़े। उनका तर्जुमा किया। फिर प्रोफ़ैसर वाले अंदाज़ में जैसे क्लास को पढ़ाता हो
उस रास्ते का नक़्शा समझाया जिधर से आरमीनिया की शहज़ादी शीरीं उसके अपने वतन आज़रबाईजान से गुज़रती ख़ुसरव के दार-उल-सल्तनत पहुँची थी। बाद-अज़ाँ कोह-ए-बे-सुतूँ का जुग़राफ़िया उस कैनेडियन दानिश-जू को ज़हन-नशीं कराया।


हफ़्ते की शाम को पहली बार दक़तूर शरीफ़यान की क़याम-गाह पर उसके हमराह गई। कैम्पस से ख़ासी दूर सनोबरों के झुरमुट में छिपी एक पुरानी इ’मारत की दूसरी मंज़िल पर उसका दो कमरों का अपार्टमेंट था। कमरे में दाख़िल हो कर नुसरतउद्दीन ने लैम्प जलाया। तमारा ने कोट उतार कर कुर्सी पर रखते हुए चारों तरफ़ देखा। फ़ारसी किताबें और रिसाले सारे में बे-तरतीबी से फैले हुए थे।
तमारा को मा’लूम था अब वो हज़ारों बार दुहराया हुआ ड्रामा दुहराया जाएगा। वो रेडियो-ग्राम पर रिकार्ड लगाएगा। फिर उससे पूछेगा उसे कौन सी शराब पसंद है। ऐ’न उस वक़्त सारे मग़रिब के अनगिनत कमरों में यही ड्रामा खेला जा रहा होगा। और वो इस ड्रामे में इस आदमी के साथ हिस्सा लेते हुए नाख़ुश न थी। नुसरत ने क़ीमती फ़्रांसीसी शराब और दो गिलास साईड बोर्ड से निकाले और सोफ़े की तरफ़ आया। फिर उसने झुक कर कहा
“तमारा ख़ानम अब वक़्त आ गया है कि तुमको अपनी दादी मिलवाऊँ।”
वो सुर्ख़ हो गई


“मा’लूम है हमारे यहाँ मग़रिब में इस जुमले के क्या मअ’नी होते हैं?”
“मा’लूम है।”
उसने ज़रा बे-पर्वाई से कहा। लेकिन उसके लहजे की ख़फ़ीफ़ सी बे-पर्वाई को तमारा ने शिद्दत से महसूस किया। अब नुसरतउद्दीन ने अलमारी में से एक छोटा सा एल्बम निकाला और एक वरक़ उलट कर उसे पेश किया। एक बेहद हसीन लड़की पिछली सदी के ख़ावर-मियाना की पोशाक में मलबूस एक फ़्रैंच वज़्अ’ की कुर्सी पर बैठी थी। पस-ए-मंज़र में संगतरे के दरख़्त थे
“दादी अम्माँ। और ये। हमारा संगतरों का बाग़ था।”


तमारा ने देखा दादी में उससे बहुत हल्की सी मुशाबहत ज़रूर मौजूद थी उसने दूसरा सफ़्हा पलटना चाहा। नुसरतउद्दीन ने फ़ौरन बड़ी मुलाइम से एल्बम उसके हाथ से ले लिया
“तमारा ख़ानम वक़्त ज़ाए’ न करो। वक़्त बहुत कम है।”
तमारा ने सैंडिल उतार कर पाँव सोफ़े पर रख लिए वो उसके क़रीब बैठ गया। उसके पाँव पर हाथ रखकर बोला
“इतने नाज़ुक छोटे-छोटे पैर। तुम ज़रूर किसी शाही ख़ानदान से हो।”


“हूँ तो सही शायद।”
“कौन सा? हर मेजिस्टी आ’ला हज़रत तुम्हारे वालिद या चचा या दादा उस वक़्त स्विटज़रलैंड के कौन से क़स्बे में पनाह-गुज़ीं हैं?”
“मेरे वालिद टोरांटो में एक गारमेन्ट फ़ैक्ट्री के मालिक हैं।”
तमारा ने नहीं देखा कि एक हल्का सा साया दक़तूर शरीफ़यान के चेहरे पर से गुज़र गया।


“लेकिन मेरे नाना ग़ालिबन ख़वानीन करीमिया के ख़ानदान से तअ’ल्लुक़ रखते थे।”
“ओहो। ख़वानीन करीमिया... हाजी सलीम गिराई। क़रादौलत गिराई। जानी बेग गिराई। महमूद गिराई कौन से गिराई?”
“नुसरत मुझे मा’लूम है तुम तारीख़ के उस्ताद हो। रो’ब मत झाड़ो। मुझे पता नहीं कौन से गिराई। मैंने तो ये नाम भी इस वक़्त तुमसे सुने हैं।”
“और मौसूफ़ तुम्हारे नाना बालश्वेक इन्क़िलाब से भाग कर पैरिस आए।”


“हाँ। वही पुरानी कहानी। पैरिस आए और एक रेस्तोराँ में नौकर हो गए और रेस्तोराँ के मालिक की ख़ूबसूरत लड़की रोज़लीन से शादी कर ली। और रोज़लीन के अब्बा बहुत ख़फ़ा हुए क्योंकि उनकी दूसरी लड़कियों ने यहाँ जर्मनी में अपने हम मज़हबों से ब्याह किए थे।”
वो दफ़अ’तन चुप हो गई। अब उसके चेहरे पर से एक हल्का सा साया गुज़रा जिसे नुसरतउद्दीन इमाम क़ुली ने देखा।
चंद लम्हों बा’द तमारा ने फिर कहना शुरू’ किया। रोज़लीन के वालिद वाक़ई’ बहुत ख़फ़ा थे। जब रोज़लीन उनसे फ़ख़्रिया कहतीं कि उन्होंने एक रूसी शहज़ादे से शादी की है तो वो गरज कर जवाब देते आजकल हर चपड़-क़नात
कोचवान साईस


ख़ाकरूब जो रूस से भाग कर यहाँ आ रहा है
अपने आपको ड्यूक और काऊंट से कम नहीं बताता। तुम्हारा तातारी ख़ाविंद भी करीमिया के किसी ख़ान का चोबदार रहा होगा। नाना बेचारे का तीन साल बा’द ही इंतिक़ाल हो गया। दर-अस्ल शायद जिला-वतनी का अलम उन्हें खा गया।”
अब शरीफ़यान के चेहरे पर से एक और साया गुज़रा जिसे तमारा ने नहीं देखा।
“मेरी मम्मी उनकी इकलौती औलाद थीं। दूसरी जंग-ए-अ’ज़ीम के ज़माने में मम्मी ने एक पोलिश रिफ्यूजी से शादी कर ली। वो दोनों आज़ाद फ़्रांसीसी फ़ौज में इकट्ठे लड़े थे। जंग के बा’द वो फ़्रांस से हिजरत कर के अमरीका आ गए। जब मैं पैदा हुई तो मम्मी ने मेरा नाम अपनी एक नादीदा मरहूमा फूफी के नाम पर तमारा रखा। वो फूफी रूसी ख़ाना-जंगी में मारी गई थीं। हमारे ख़ानदान में नुसरतउद्दीन ऐसा लगता है कि हर नस्ल ने दोनों तरफ़ सिवाए ख़ौफ़नाक क़िस्म की अम्वात के कुछ नहीं देखा।”


“हाँ बा’ज़ ख़ानदान और बा’ज़ नस्लें ऐसी भी होती हैं...”
नुसरतउद्दीन ने आहिस्ता से कहा। फिर पूछा
“फ़िलहाल तुम्हारी क़ौमियत क्या है?”
“कैनेडियन।”


ईरानी प्रोफ़ैसर ने शराब गिलासों में उंडेली और मुस्कुरा कर कहा
“तुम्हारे नाना और मेरी दादी के नाम।”
उन्होंने गिलास टकराए।
दूसरा हफ़्ता। सूरज ग़ुरूब हो रहा था। वो दोनों एक रेस्तोराँ की तरफ़ जाते हुए बाज़ार में से गुज़रे। अचानक वो खिलौनों की एक दूकान के सामने ठिटक गया और खिड़कियों में सजी गुड़ियों को बड़े प्यार से देखने लगा।


“तुम्हारे बहुत सारे भांजे भतीजे हैं नुसरतउद्दीन?”
तमारा ने दरियाफ़्त किया।
वो उसकी तरफ़ मुड़ा और सादगी से कहा
“मेरे पाँच अदद बच्चे और एक अ’दद उनकी माँ मेरी महबूब बीवी है। मेरी सबसे बड़ी लड़की अठारह साल की है। उसकी शादी होने वाली है। और उसका मंगेतर। मेरे बड़े भाई का लड़का। वो दर-अस्ल टेस्ट पायलट है। इसलिए कुछ पता नहीं। बहुत ख़तरनाक ज़िंदगी है उस बेचारे की।”


वो एक दम ख़ामोश हो गया।
उस वक़्त तमारा को मा’लूम हुआ जब किसी पर फ़ालिज गिरता हो तो कैसा लगता होगा... उसने आहिस्ता से ख़ुद्दार आवाज़ में जिससे ज़ाहिर न हो कि शाकी है
कहा
“तुमने कभी बताया नहीं।”


“तुमने कभी पूछा नहीं।”
उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया। अचानक तमारा ने उसे पहली बार देखा। वो एक संगी इंसान था। कोह-ए-बे-सुतून के पत्थरों से तरशा हुआ मुजस्समा।
एक हफ़्ता और गुज़र गया। तमारा उससे उसी तरह मिला की वो उसे मग़रिब की permissive सोसाइटी की एक आवारा लड़की समझता है तो समझा करे। वो तो उस पर सच्चे दिल से आ’शिक़ थी। उस पर जान देती थी। एक रात नदी के किनारे बेंच पर बैठे हुए नुसरतउद्दीन ने तमारा से कहा
“हलो ख़्वांद ख़ातून।”


“कौन?”
“अलाउद्दीन कैकुबाद दुवुम की मलिका।”
कभी वो उसे तर्कान ख़ातून कह कर पुकारता। मलिक शाह सलजूक़ी की बेगम। कभी उसे शहज़ादी साक़ी बेग कहता
“क्योंकि तुम्हारे अंदर कम-अज़-कम पंद्रह फ़ीसद तातारी ख़ून तो है ही। और सुनो। फ़र्ज़ करो...”


नदी के किनारे उसी रात उसने कहा
“अगर तुम्हारे नाना करीमिया ही में रह गए होते। वहीं किसी ख़ान-ज़ादी से शादी कर ली होती और तुम्हारी अम्माँ फ़र्ज़ करो हमारे किसी ओग़्लो पाशा से ब्याह कर तबरेज़ आ जातीं तो तुम मेरी गुलचहर ख़ानम हो सकती थीं।”
दफ़अ’तन वो फूट-फूटकर रोने लगी। तारीख़। नस्ल। ख़ून। किसका क्या क़ुसूर है? वो बहुत बे-रहम था। नुसरतउद्दीन उसके रोने से मुतअ’ल्लिक़ न घबराया। नर्मी से कहा
“चलो बी-बी जून। घर चलें।”


“घर?”
उसने सर उठाकर कहा
“मेरा घर कहाँ है?”
“तुम्हारा घर टोरोंटो में है। तुमने कभी मुझसे नहीं पूछा कि मेरा घर कहाँ है।”


नुसरतउद्दीन ने ज़रा तल्ख़ी से कहा।
वो रोती रही लेकिन अचानक दिल में उम्मीद की मद्धम सी शम्अ’ रौशन हुई। ये ज़रूर अपनी बीवी से नाख़ुश है। उसकी अज़दवाजी ज़िंदगी पुर-सुकून नहीं। इसी वज्ह से कह रहा है
“मेरा घर कहाँ है?”
उन तमाम मग़रिबी लड़कियों की तरह जो मशरिक़ी नौजवानों से मुआ’शक़े के दौरान उनकी ज़बान सीखने की कोशिश करती हैं


तमारा बड़े इश्तियाक़ से फ़ारसी के चंद फ़िक़रे याद करने में मसरूफ़ थी। एक रोज़ कैफ़ेटेरिया में उसने कहा
“आग़ा इसके सिवा कोई चारा नहीं कि जब हम बूढ़े हो जाएँ तब मिलें।”
“हाँ इसके सिवा कोई चारा नहीं।”
“आज से बीस साल बा’द जब तुम मूर्खों की किसी कान्फ़्रैंस की सदारत के लिए मौंट्रियाल आओ। या यू


एन. में ईरानी सफ़ीर हो कर न्यूयार्क पहुँचो।”
“और तुम किसी अमरीकन करोड़पति की फ़र्बा बेवा हो।”
“हाँ। और टेफ़्नी में हमारी अचानक मुड़भेड़ हो जाए। जहाँ तुम अपनी नवासी की मंगनी की अँगूठी ख़रीदने आए हो। और तुम सोचो मैंने इस बूढ़ी मोटी औ’रत को पहले कहीं देखा है। फ़ारसी में बूढ़ी औ’रत को क्या कहते हैं?”
“पीरा-ज़न।”


“और अ’रबी में?”
“मुझे अ’रबी नहीं आती। तुर्की और फ़्रैंच में अलबत्ता बता सकता हूँ।”
“सुनो नुसरतउद्दीन। एक बात सुनो। आज सुब्ह मैंने एक अ’जीब ख़ौफ़नाक वा’दा अपने आपसे किया है।”
“क्या?”


“जब में उस अमरीकन करोड़-पति से शादी करूँगी...”
“जो ब-वज्ह-उल-सर तुम्हें जल्द बेवा कर जाएगा।”
“हाँ। लेकिन उससे क़ब्ल एक-बार। सिर्फ़ एक-बार। तुम जहाँ कहीं भी होगे। तबरेज़। अस्फ़हान। शीराज़। मैं वहाँ पहुँच कर अपने उस ना-मा’क़ूल शौहर के साथ ज़रूर बे-वफ़ाई करूँगी। ज़रूर बिल-ज़रूर।”
नुसरत ने शफ़क़त से उसके सर पर हाथ फेरा


“बा’ज़ मर्तबा तुम मुझे अपनी दादी की तस्वीर मा’लूम होती हो। बा’ज़ दफ़ा मेरी लड़की की। वो भी तुम्हारी तरह
तुम्हारी तरह अपने इब्न-ए-अ’म को इस शिद्दत से चाहती है।”
वो फिर मलूल नज़र आया।
“आग़ा! तुम मुझे भी अपनी बिंत-ए-अ’म समझो।”


“तुम मेरी बिंत-ए-अ’म हो तो सही।”
“क्योंकि हम सब औलाद-ए-आदम हैं। है ना?”
“औलाद-ए-आदम। औलाद-ए-इबराहीम। आल-ए-याफ़िस। आल-ए-इसहाक़। आल-ए-इस्माईल। मैं इंसान के शजरा-ए-नसब के इस घपले पर मज़ीद रोशनी डाल सकता था तमारा ख़ानम लेकिन अब खाना शुरू’ करो।”
वो रेस्तोराँ की दीवार पर लगे हुए आईने में उसका प्रोफ़ाइल देखने लगी और बोली


“मैंने आज तक ऐसी ख़ूबसूरत नाक नहीं देखी।”
“मैंने भी नहीं देखी।”
शरीफ़यान ने कहा।
“आग़ा! तुम में नर्गिसियत भी है?”


तमारा ने पूछा।
“है”
वो शरारत से मुस्कुराया।
उस वक़्त अचानक तमारा को एक क़दीम फ़्रांसीसी दुआ’ याद आई जो ब्रिटनी के माही-गीर समंदर में अपनी कश्ती ले जाने से पहले पढ़ते थे।


अ’रब-ए-अ’ज़ीम। मेरी हिफ़ाज़त करना
मेरी नाव इतनी सी है
और तेरा समंदर इतना बड़ा है
उसने दिल में दुहराया



अ’रब-ए-अ’ज़ीम। इसकी हिफ़ाज़त करना
इसकी नाव इतनी छोटी सी है
और तेरा समंदर...


“आग़ा। एक बात बताओ।”
“हूँ।”
“तुमने आज का अख़बार पढ़ा? तुम्हारे मुल्क के बहुत से दानिश-जू और दानिश्वर शहनशाह के ख़िलाफ़ हैं। उन्होंने बर्लिन में कल बड़ा भारी जलूस निकाला।”
“पढ़ा।”


“तुम तो जिला-वतन ईरानी नहीं हो?”
“नहीं। मेरा सियासत से कोई तअ’ल्लुक़ नहीं। तमारा ख़ानम मैं लड़के पढ़ाता हूँ।”
“अच्छा। शुक्र है। देखो
किसी ख़तरे में न पड़ना। हर तरफ़ आजकल दुनिया में ख़तरा ही ख़तरा है। अपना ख़याल रखो।”


“अच्छा।”
इस रात वो हस्ब-ए-मा’मूल नदी के किनारे बैठे थे।
तमारा ने कहा
“जब हम अपने-अपने देस वापिस जाएँगे मैं कितनी बातें याद करूँगी। तुमको ख़ैर मेरा ख़याल भी न आएगा। तुम मशरिक़ी लोगों की आ’दत है। यूरोप अमरीका आकर लड़कियों के साथ तफ़रीह की और वापिस चले गए। बताओ मेरा ख़याल कभी आएगा?”


वो मुस्कुरा कर चुप-चाप पाइप पीता रहा।
“तुम नुसरतउद्दीन इमाम क़ुली मेरा दिल रखने के लिए इतना भी नहीं कह सकते कि कम-अज़-कम साल के साल एक अ’दद न्यूयर्ज़ कार्ड ही भेज दिया करोगे। अब तक मेरा पता भी नोट बुक में नहीं लिखा।”
उसने नुसरत के कोट की जेब से नोट बुक ढूंढ कर निकाली। टी का सफ़ा पलट कर अपना नाम और पता लिखा और बोली



“वा’दा करो। यहाँ से जाकर मुझे ख़त लिखोगे?”
“मैं ग़लत वा’दे कभी नहीं करता।”
वो उठ खड़ी हुई और ज़रा ख़फ़गी से आगे-आगे चलने लगी। नुसरत ने चुपके से जेब में से नोट बुक निकाली। वो सफ़्हा अ’लैहिदा किया जिस पर तमारा ने अपना पता लिखा था। बारीक-बारीक पुर्ज़े कर के उनकी गोली बनाई और नदी में फेंक दी।
सुब्ह-सवेरे छः बजे तमारा की आँख खुल गई। उसने तकिए से ज़रा सा सर उठा कर दरीचे के बाहर देखा। सुब्ह की रोशनी नुक़रई पानी की मानिंद सनोबरों पर फैल रही थी। चंद लम्हों बा’द उसने आँखें बंद कीं और फिर सो गई। सवा आठ के क़रीब जब वो बिस्तर से उठी


नुसरत मेज़ पर नाश्ता चुनने में मसरूफ़ हो गया था।
फ़ोन की घंटी बजी। तमारा ने करवट बदल कर काहिली से हाथ बढ़ाया। टेलीफ़ोन पलंग के सिरहाने किताबों के अंबार पर रखा था। उसने ज़रा सा सरक कर रिसीवर उठाया और “उल्लू” कहे बग़ैर नुसरत को इशारे से बुलाया। वो लपक कर आया और रिसीवर हाथ में लेकर किसी से फ़्रैंच में बातें करने लगा। गुफ़्तगू ख़त्म करने के बा’द नुसरत ने झुक कर उससे कहा
“ख़ानम जून। अब उठो।”
उसने सुस्ती से क्लाक पर नज़र डाली और मिनट की सूई को आहिस्ता-आहिस्ता फिसलते देखती रही। नुसरत बावर्चीख़ाने में गया। क़हवे की कश्ती लाकर गोल मेज़ पर रखी। तमारा को आवाज़ दी और दरीचे के क़रीब खड़े हो कर क़हवा पीने में मसरूफ़ हो गया। उसके एक हाथ में तोस था और दूसरे में प्याली। और वो ज़रा जल्दी-जल्दी तोस खाता जा रहा था। सफ़ेद जाली के पर्दे के मुक़ाबिल उसके प्रोफ़ाइल ने बेहद ग़ज़ब ढाया। तमारा छलांग लगा कर पलंग से उत्तरी और उसके क़रीब जाकर बड़े लाड से कहा


“आज इतनी जल्दी क्या है। तुम हमेशा देर से काम पर जाते हो।”
“साढ़े नौ बजे वाइस चांसलर से अप्वाइंटमेंट है।”
उसने क्लाक पर नज़र डाल कर जवाब दिया। “झटपट तैयार हो कर नाश्ता कर लो। तुम्हें रास्ते में उतारता जाऊँगा।”
ठीक पौने नौ पर वो दोनों इ’मारत से बाहर निकले। सनोबरों के झुंड में से गुज़रते सड़क की तरफ़ रवाना हो गए। रात बारिश हुई थी और बड़ी सुहानी हवा चल रही थी। घास में खिले ज़र्द फूलों की वुसअ’त में लहरें सी उठ रही थीं। वो दस मिनट तक सड़क के किनारे टैक्सी के इंतिज़ार में खड़े रहे। इतने में एक बस आती नज़र आई। नुसरत ने आँखें चुंधिया कर उसका नंबर पढ़ा और तमारा से बोला


“ये तुम्हारे होस्टल की तरफ़ नहीं जाती। तुम दूसरी बस में चली जाना मैं इसे पकड़ता हूँ।” उसने हाथ उठा कर बस रोकी। तमारा की तरफ़ पलट कर कहा
“ख़ुदा-हाफ़िज़” और लपक कर बस में सवार हो गया।
शाम को क्लास से वापिस आकर तमारा ने हस्ब-ए-मा’मूल उसे फ़ोन किया। घंटी बजी वो शायद अब तक वापिस न आया था।
दूसरी सुब्ह इतवार था। वो काफ़ी देर में सो कर उठी। उसकी जर्मन रुममेट बाहर जा चुकी थी। उसने उठकर हस्ब-ए-मा’मूल दरवाज़े के नीचे पड़े हुए संडे ऐडिशन उठाए। सबसे ऊपर वाले अख़बार की शह-सुर्ख़ी में वो ख़ौफ़नाक ख़बर छपी थी। उसकी तस्वीर भी शाए’ हुई थी। वो दक़तूर नुसरतउद्दीन इमाम क़ुली शरीफ़यान प्रोफ़ैसर-ए-तारीख़-ए-दानिश-गाह-ए-तबरेज़ नहीं था। वो ईरानी भी नहीं था। लेकिन अख़बार में उसका जो नाम छपा था वो भी ग़ालिबन उसका अस्ल नाम न था। उसके साथ दूसरी तस्वीर उस दुबले-पतले नौजवान की थी जो ट्रेन में सारा वक़्त अख़बार पढ़ता रहा था और ख़ामोशी से एक क़स्बे के स्टेशन पर उतर गया था।


नज़दीक के एक शहर के एयरपोर्ट में एक तय्यारे पर दस्ती बमों और मशीन-गनों से हमला करते हुए वो तीन मारे गए थे। नुसरतउद्दीन ने हमला करने के बा’द सबसे पहले दस्ती बम से ख़ुद को हलाक किया था। हँसी ख़ुशी अपनी मर्ज़ी से हमेशा के लिए मा’दूम हो गया था।
वो दिन-भर नीम-ग़शी के आ’लम में पलंग पर पड़ी रही। मुतवातिर और मुसलसल उसके दिमाग़ में तरह-तरह की तस्वीरें घूमती रहीं। जैसे इंसान को सरसाम या हाई ब्लड प्रैशर के हमले के दौरान अनोखे नज़्ज़ारे दिखलाई पड़ते हैं। रंग बिरंगे मोतियों की झालरें। समंदर
बे-तुकी शक्लें
आग और आवाज़ें। वो clareaudience का शिकार भी हो चुकी थी। क्योंकि उसके कान में साफ़ आवाज़ें इस तरह आया कीं जैसे कोई बराबर बैठा बातें कर रहा हो। और ट्रेन की गड़गड़ाहट। मैंने तुम्हारी बात सुनी थी। जिस शख़्स को ये मा’लूम हो कि अ’न-क़रीब मौत के मुँह में जाने वाला है वो सख़्त दिल हो जाता है। ये हमारा संगतरों का बाग़ था। तुमने कभी मुझसे न पूछा मेरा घर कहाँ है।


वंडरफुल। मैं तुम्हारी ज़िंदगी हाहा। मेरी ज़िंदगी। जान-ए-मन। चलो वक़्त नहीं है। वक़्त बहुत कम है। क़रबून। वक़्त ज़ाए’ न करो। मेरी लड़की का मंगेतर। बहुत ख़तरनाक ज़िंदगी है उस बेचारे की। मुझे अ’रबी नहीं आती है। हलो तर्कान ख़ातून। मैं ग़लत वा’दे कभी नहीं करता। ऐसे वा’दे कभी नहीं करता जो निभा न सकूँ। तुम मेरी बिंत-ए-अ’म हो तो सही। आल-ए-इसहाक़। आल-ए-इस्माईल। मैं बनी-आदम के शजरे के इस घपले पर मज़ीद रोशनी डाल सकता हूँ। लेकिन तमारा ख़ानम खाना शुरू’ करो। देखो नुसरत ख़तरे में न पड़ना। हर तरफ़ दुनिया में ख़तरा ही ख़तरा है। अपना ख़याल रखो। अच्छा रखूँगा। शहज़ादी बेग।
अंधेरा पड़े पाला उसकी रुम मेट कमरे में आई। रोशनी जला कर तमारा की तरफ़ देखे बग़ैर बे-ध्यानी से मैकानिकी अंदाज़ में हाथ बढ़ा कर टेलीविज़न का स्विच आन किया और गुनगुनाती हुई बालकनी में चली गई। तमारा करवट बदल कर फटी-फटी आँखों से बर्फ़ीली नीली स्क्रीन देखने लगी।
कुछ देर बा’द न्यूज़रील शुरू’ हुई। अचानक उसका क्लोज़-अप सामने आया। आधा चेहरा। आधा दस्ती बम से उड़ चुका था। सिर्फ़ प्रोफ़ाइल बाक़ी था। दिमाग़ भी उड़ चुका था। एयरपोर्ट के चमकीले शफ़्फ़ाफ़ फ़र्श पर उसका भेजा बिखरा पड़ा था। और अंतड़ियाँ। सियाह जमा हुआ ख़ून। कटा हुआ हाथ। कारतूस की पेटी। गोश्त और हड्डियों का मुख़्तसर-सा मलग़ूबा। तुम बहुत अच्छे अदाकार हो। कम-अज़-कम टीवी स्टार तो बन सकते हो। वाक़ई? जल्द तुम मुझे टीवी स्क्रीन पर देख लोगी।
कैमरा पीछे हटा। लाला का एक गुलदस्ता जो भगदड़ में किसी मुसाफ़िर के हाथ से छुट कर गिर गया था। बराबर में। नुसरतउद्दीन का कटा हुआ हाथ लाला के फूल उसके ख़ून में लत-पत। फिर उसका आधा चेहरा। फिर गोश्त का मलग़ूबा। उस मलग़ूबे को इतने क़रीब देखकर तमारा को उबकाई सी आई। वो चकरा कर उठी और ग़ुस्ल-ख़ाने की तरफ़ भागना चाहा। उसकी हैबत-ज़दा चीख़ सुनकर पाला उसकी रुम मेट बालकनी से लपकी हुई आई। तमारा ने देखा पाला का चेहरा नीला और सफ़ेद था। पाला ने फ़ौरन टेलीविज़न बंद किया और उसे फ़र्श पर से उठाने के लिए झुकी।


पाला के सर पर सफ़ेद स्कार्फ़ बंधा था। जैसे नर्स ऑप्रेशन टेबल पर सर्तान के मरीज़ को लिटाती हो। या उसे एक ट्राली पर बिठाकर गैस चैंबर के अंदर ले जाया जा रहा था। और बराबर की भट्टी में इंसान ज़िंदा जलाए जा रहे थे उनका सियाह धुआँ चिमनियों में से निकल कर आसमान की नीलाहट में घुलता जा था।
अब वो एक नीले हाल में थी। दीवारें
फ़र्श
छत बर्फ़ की तरह नीली और सर्द। कमरे के बा’द कमरे। गैलरियाँ। सब नीले। एक कमरे में सफ़ेद आतिश-दान के पास एक नीले चेहरे वाली औ’रत खड़ी थी। शक्ल से सैंटर्ल यूरोपियन मा’लूम होती थी। पूरा सरापा ऐसा नीला जैसे रंगीन तस्वीर का नीला प्रूफ़ जो अभी प्रैस से तैयार हो कर न निकला हो। एक और हाल। उसके वस्त में क़ालीन बाफ़ी का करघा। करघे पर अधबुना क़ालीन। उस पर “शजर-ए-हयात” का अधूरा नमूना।


“ये शजर-ए-हयात क्या चीज़ है नुसरतउद्दीन?”
“मिडल ईस्ट के क़ालीनों का मोतीफ़ ख़ानम जून।”
करघे की दूसरी तरफ़ सर पर रूमाल बाँधे दो मिडल इस्टर्न औ’रतें। फिर बहुत से प

- क़ुर्रतुलऐन-हैदर


(1)
वो आदमी जिसके ज़मीर में कांटा है
(एक ग़ैर मुल्की कौंसिल के मकतूब जो उसने अपने अफ़्सर आला को कलकत्ता से रवाना किए)
8 अगस्त 1943 –कलाइव स्ट्रीट


मून शाईन ला।
जनाब-ए-वाला।
कलकत्ता
हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा शहर है। हावड़ा पुल हिन्दोस्तान का सबसे अ’जीब-ओ-ग़रीब पुल है। बंगाली क़ौम हिन्दोस्तान की सबसे ज़हीन क़ौम है। कलकत्ता यूनीवर्सिटी हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी यूनीवर्सिटी है। कलकत्ता का सोना गाची हिन्दोस्तान में तवाइफ़ों का सबसे बड़ा बाज़ार है। कलकत्ता का सुंदर बन चीतों की सबसे बड़ी शिकार गाह है। कलकत्ता जूट का सबसे बड़ा मर्कज़ है। कलकत्ता की सबसे बढ़िया मिठाई का नाम ‘रशोगुल्ला’ है। कहते हैं एक तवाइफ़ ने ईजाद किया था। लेकिन शोमई क़िस्मत से वो उसे पेटैंट न करा सकी


क्योंकि इन दिनों हिन्दुस्तान में कोई ऐसा क़ानून मौजूद न था। इसीलिए वो तवाइफ़ अपनी ज़िंदगी के आख़िरी अय्याम में भीक मांगते मरी। एक अलग पार्सल में हुज़ूर पुरनूर की ज़याफ़त तबा के लिए दो सौ ‘रोशो गुल्ले’ भेज रहा हूँ। अगर उन्हें क़ीमे के साथ खाया जाये तो बहुत मज़ा देते हैं। मैंने ख़ुद तजुर्बा किया है।
मैं हूँ जनाब का अदना तरीन ख़ादिम
एफ़.बी.पटाख़ा
कौंसिल ममलकत सांडोघास बराए कलकत्ता


9 अगस्त कलाइव स्टरीट
जनाब-ए-वाला।
हुज़ूर पुरनूर की मंझली बेटी ने मुझसे सपेरे की बीन की फ़र्माइश की थी। आज शाम बाज़ार में मुझे एक सपेरा मिल गया। पच्चीस डालर देकर मैंने एक ख़ूबसूरत बीन ख़रीद ली है। ये बीन इस्फ़ंज की तरह हल्की और सुबुक इंदाम है। ये एक हिन्दुस्तानी फल से जिसे ‘लौकी’ कहते हैं
तैयार की जाती है। ये बीन बिल्कुल हाथ की बनी हुई है और इसे तैयार करते वक़्त किसी मशीन से काम नहीं लिया गया।


मैंने इस बीन पर पालिश कराया और उसे सागवान के एक ख़ुशनुमा बक्स में बंद कर के हुज़ूर पुर-नूर की मंझली बेटी एडिथ के लिए बतौर तोहफ़ा इरसाल कर रहा हूँ।
मैं हूँ जनाब का ख़ादिम
एफ़.बी. पटाख़ा
10 अगस्त


कलकत्ता में हमारे मुल्क की तरह राशनिंग नहीं है। ग़िज़ा के मुआ’मले में हर शख़्स को मुकम्मल शख़्सी आज़ादी है। वो बाज़ार से जितना अनाज चाहे ख़रीद ले कल ममलिकत टली के कौंसिल ने मुझे खाने पर मदऊ’ किया। छब्बीस क़िस्म के गोश्त के सालन थे। सब्ज़ियों और मीठी चीज़ों के दो दर्जन कोर्स तैयार किये गये थे। (निहायत उम्दा शराब थी) हमारे हाँ जैसा कि हुज़ूर अच्छी तरह जानते हैं प्याज़ तक की राशनिंग है. इस लिहाज़ से कलकत्ता के बाशिंदे बड़े ख़ुश-क़िस्मत हैं। खाने पर एक हिन्दुस्तानी इंजिनियर भी मदऊ’ थे। ये इंजिनियर हमारे मुल्क का ता’लीम याफ़ता है। बातों-बातों में उसने ज़िक्र किया कि कलकत्ता में क़हत पड़ा हुआ है। इस पर टली का कौंसिल क़हक़हा मार कर हँसने लगा और मुझे भी उस हंसी में शरीक होना पड़ा। दरअसल ये पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानी भी बड़े जाहिल होते हैं। किताबी इल्म से क़त-ए-नज़र उन्हें अपने मुल्क की सही हालत का कोई अंदाज़ा नहीं। हिन्दोस्तान की दो तिहाई आबादी दिन रात ग़ल्ला और बच्चे पैदा करने में मसरूफ़ रहती है। इसलिए यहां पर ग़ल्ले और बच्चों की कमी कभी नहीं होने पाती
बल्कि जंग से पेशतर तो बहुत सा ग़ल्ला दिसावर को जाता था और बच्चे क़ुली बना कर जुनूबी अफ़्रीक़ा भेज दिये जाते थे। अब एक अ’र्से से क़ुलियों का बाहर भेजना बंद कर दिया गया है और हिन्दुस्तानी सूबों को ‘होम रूल’ दे दिया गया है। मुझे ये हिन्दुस्तानी इंजिनियर तो कोई एजिटेटर क़िस्म का ख़तरनाक आदमी मा’लूम होता था। उसके चले जाने के बाद मैंने मोसीसियो झ़ां झां त्रेप टली के कौंसिल से उसका तज़्किरा छेड़ा तो मोसियो झ़ां झां त्रेप टली ने बड़े ग़ौर-ओ-ख़ौज़ के बाद ये राय दी कि हिन्दुस्तानी अपने मुल्क पर हुकूमत की क़तअन अहलियत नहीं रखता। चूँकि मोसियो झ़ां झां त्रेप की हुकूमत को बैन-उल-अक़वामी मुआ’मलात में एक ख़ास मर्तबा हासिल है। इसलिए मैं उनकी राय वक़ीअ’ समझता हूँ।
मैं हूँ जनाब का ख़ादिम
एफ़.बी.पी.


11 अगस्त
आज सुबह बोलपोर से वापस आया हूँ। वहां डाक्टर टैगोर का शांति निकेतन देखा। कहने को तो ये एक यूनीवर्सिटी है। लेकिन पढ़ाई का ये आलम है कि तालिब इल्मों को बैठने के लिए एक बेंच नहीं। उस्ताद और तालिब-इल्म सब ही दरख़्तों के नीचे आलती-पालती मारे बैठे रहते हैं और ख़ुदा जाने कुछ पढ़ते भी हैं या यूँही ऊँघते हैं। मैं वहां से बहुत जल्द आया क्योंकि धूप बहुत तेज़ थी और ऊपर दरख़्तों की शाख़ों पर चिड़ियां शोर मचा रही थीं।
फ़.ब.प.
12 अगस्त


आज चीनी कौंसिल के हाँ लंच पर फिर किसी ने कहा कि कलकत्ता में सख़्त क़हत पड़ा हुआ है। लेकिन वसूक़ से कुछ न कह सका कि असल माजरा किया है। हम सब लोग हुकूमत बंगाल के ऐ’लान का इंतिज़ार कर रहे हैं। ऐ’लान के जारी होते ही हुज़ूर को मज़ीद हालात से मुत्तला करूँगा। बैग में हुज़ूर पुरनूर की मंझली बेटी एडिथ के लिए एक जूती भी इर्साल कर रहा हूँ। ये जूती सब्ज़-रंग के साँप की जिल्द से बनाई गई है। सब्ज़-रंग के साँप बर्मा में बहुत होते हैं
उम्मीद है कि जब बर्मा दुबारा हुकूमत इंग्लिशिया की अ’मलदारी में आ जाएगा तो उन जूतों की तिजारत को बहुत फ़रोग़ हासिल हो सकेगा।
मैं हूँ जनाब का वग़ैरा वग़ैरा
एफ़.बी.पी.


13 अगस्त
आज हमारे सिफ़ारत ख़ाने के बाहर दो औरतों की लाशें पाई गई हैं। हड्डियों का ढांचा मा’लूम होती थीं। शायद ‘सुखिया’ की बीमारी में मुब्तला थीं इधर बंगाल में और ग़ालिबन सारे हिन्दोस्तान में सुखिया की बीमारी फैली हुई है। इस आ’रिज़े में इन्सान घुलता जाता है और आख़िर में सूख कर हड्डियों का ढांचा हो कर मर जाता है। ये बड़ी ख़ौफ़नाक बीमारी है लेकिन अभी तक इसका कोई शाफ़ी ईलाज दरियाफ्त नहीं हुआ। कुनैन कसरत से मुफ़्त तक़सीम की जा रही है। लेकिन कुनैन मैग्नीशिया या किसी और मग़रिबी दवा से इस आ’रिज़े की शिद्दत में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। दरअसल एशियाई बीमारियों को नौईयत मग़रिबी अमराज़ से मुख़्तलिफ़ है। बहुत मुख़्तलिफ़ है
ये इख्तिलाफ़ इस मफ़रुज़े का बदीही सबूत है कि एशियाई और मग़रिबी दो मुख़्तलिफ़ इन्सान हैं।
हुज़ूर पुरनूर की रफीक़ा-ए-हयात के बासठवीं जन्म-दिन की ख़ुशी में बुध का एक मरमर का बुत इर्साल कर रहा हूँ। इसे मैंने पांसो डालर में ख़रीदा है। ये महाराजा बन्धूसार के ज़माने का है और मुक़द्दस राहिब ख़ाने की ज़ीनत था। हुज़ूर पुरनूर की रफीक़ा-ए-हयात के मुलाक़ातियों के कमरे में ख़ूब सजेगा।


मुकर्रर अ’र्ज़ है कि सिफ़ारत ख़ाने के बाहर पड़ी हुई लाशों में एक बच्चा भी था जो अपनी मुर्दा माँ से दूध चूसने की नाकाम कोशिश कर रहा था। मैंने उसे हस्पताल भिजवा दिया है।
हुज़ूर पुरनूर का ग़ुलाम
एफ़.बी.पी
14 अगस्त


डाक्टर ने बच्चे को हस्पताल में दाख़िल करने से इनकार कर दिया है। बच्चा अभी सिफ़ारत ख़ाना में है। समझ में नहीं आता क्या करूँ। हुज़ूर पुरनूर की हिदायत का इंतिज़ार है। टली के कौंसिल ने मश्वरा दिया है कि इस बच्चे को जहां से पाया था
वहीं छोड़ दूं। लेकिन मैंने ये मुनासिब न समझा कि अपने हुकूमत के सदर से मश्वरा किए बग़ैर कोई ऐसा इक़दामकरूँ जिसके सियासी नताइज भी न जाने कितने मोहलिक साबित हों।
एफ़.बी.पी
16 अगस्त


आज सिफ़ारत ख़ाने के बाहर फिर लाशें पाई गईं। ये सब लोग उसी बीमारी का शिकार मालूम होते थे जिसका मैं अपने गुज़िश्ता मकतूबात में ज़िक्र कर चुका हूँ। मैंने बच्चे को इन्ही लाशों में चुपके से रख दिया है और पुलिस को टेलीफ़ोन कर दिया है कि वो उन्हें स्फार ख़ाने की सीढ़ियों से उठाने का बंदोबस्त करे। उम्मीद है आज शाम तक सब लाशें उठ जाएँगी।
एफ़.बी.पी
17 अगस्त
कलकत्ता के अंग्रेज़ी अख़बार ‘स्टेट्समैन’ ने अपने इफ़्तिताहिया में आज इस अमर का ऐलान किया है कि कलकत्ता में सख़्त क़हत फैला हुआ है। ये अख़बार चंद रोज़ से क़हत ज़दगान की तसावीर भी शाये कर रहा है। अभी तक वसूक़ से नहीं कहा जा सकता कि ये फ़ोटो असली हैं या नक़ली। बज़ाहिर तो ये फ़ोटो सुखिया की बीमारी के प्राणियों के मा’लूम होते हैं। लेकिन तमाम ग़ैर मुल्की कौंसिल अपनी राय ‘महफ़ूज़’ रख रहे हैं।


एफ़.बी.पी
20 अगस्त
सुखिया की बीमारी के मरीज़ों को अब हस्पताल में दाख़िल करने की इजाज़त मिल गई है। कहा जाता है कि सिर्फ़ कलकत्ता में रोज़ दो ढाई सौ आदमी इस बीमारी का शिकार हो जाते हैं। और अब ये बीमारी एक वबा की सूरत इख़्तियार कर गई है। डाक्टर लोग बहुत परेशान हैं क्योंकि कुनैन खिलाने से कोई फ़ायदा नहीं होता। मर्ज़ में किसी तरह की कमी नहीं होती। हाज़मे का मिक्सचर मैग्नीशिया मिक्सचर और टिंक्चर आयोडीन पूरा ब्रिटिश फार्माकोपिया बेकार है। चंद मरीज़ों का ख़ून लेकर मग़रिबी साईंसदानों के पास बग़रज़ तहक़ीक़ भेजा जा रहा है और ऐन-मुमकिन है कि किसी ग़ैरमा’मूली मग़रिबी एक्सपर्ट की ख़िदमात भी हासिल की जायें या एक रॉयल कमीशन बिठा दिया जाये जो चार पाँच साल में अच्छी तरह छानबीन कर के इस अमर के मुता’ल्लिक़ अपनी रिपोर्ट हुकूमत को पेश करे । अल-ग़रज़ उन ग़रीब मरीज़ों को बचाने के लिए हर मुम्किन कोशिश की जा रही है। शद-ओ-मद के साथ ऐलान किया गया है कि सारे बंगाल में क़हत का दौर-दौरा है और हज़ारों आदमी हर हफ़्ते ग़िज़ा की कमी की वजह से मर जाते हैं। लेकिन हमारी नौकरानी (जो ख़ुद बंगालन है) का ख़्याल है कि ये अख़बारची झूट बोलते हैं। जब वो बाज़ार में चीज़ें ख़रीदने जाती है तो उसे हर चीज़ मिल जाती है। दाम बे-शक बढ़ गये हैं। लेकिन ये महंगाई तो जंग की वजह से नागुज़ीर है।
एफ़.बी.पी.


25 अगस्त
आज सियासी हलक़ों ने क़हत की तर्दीद कर दी है। बंगाल असैंबली ने जिसमें हिन्दुस्तानी मेम्बरों और वुज़रा की कसरत है। आज ऐलान कर दिया है कि कलकत्ता और बंगाल का इलाक़ा ‘क़हतज़दा इलाक़ा’ क़रार नहीं दिया जा सकता। इसका ये मतलब भी है कि बंगाल में फ़िलहाल राशनिंग न होगा। ये ख़बर सुनकर ग़ैर मुल्की कौंसिलों के दिल में इत्मिनान की एक लहर दौड़ गई। अगर बंगाल क़हतज़दा इलाक़ा क़रार दे दिया जाता तो ज़रूर राशनिंग का फ़िल-फ़ौर नफ़ाज़ न होता और मेरा मतलब है कि अगर राशनिंग का नफ़ाज़ होता तो उसका असर हम लोगों पर भी पड़ता। मोसियोसी ग़ल जो फ़्रैंच कौंसिल में कल ही मुझसे कह रहे थे कि ऐन-मुमकिन है कि राशनिंग हो जाये। इसलिए तुम अभी से शराब का बंदोबस्त कर लो। मैं चन्दर नगर से फ़्रांसीसी शराब मंगवाने का इरादा कर रहा हूँ। सुना है कि चन्दर नगर में कई सौ साल पुरानी शराब भी दस्तयाब होती है। बल्कि अक्सर शराबें तो इन्क़िलाब-ए-फ़्रांस से भी पहले की हैं। अगर हुज़ूर पुरनूर मुत्तला फ़रमाएं तो चंद बोतलें चखने के लिए भेज दूं।
फ.ब.प
28 अगस्त


कल एक अ’जीब वाक़िया पेश आया। मैंने न्यूमार्केट से अपनी सबसे छोटी बहन के लिए चंद खिलौने ख़रीदे। उनमें एक फ़ेनी की गुड़िया बहुत ही हसीन थी और मारिया को बहुत पसंद थी। मैंने डेढ़ डॉलर देकर वो गुड़िया भी ख़रीद ली और मारिया को उंगली से लगाए बाहर आगया। कार में बैठने को था कि एक अधेड़ उम्र की बंगाली औरत ने मेरा कोट पकड़ कर मुझे बंगाली ज़बान में कुछ कहा।
मैंने उससे अपना दामन छुड़ा लिया और कार में बैठ कर अपने बंगाली शोफ़र से पूछा
“ये क्या चाहती है?”
ड्राईवर बंगाली औरत से बात करने लगा। उस औरत ने जवाब देते हुए अपनी लड़की की तरफ़ इशारा किया जिसे वो अपने शाने से लगाए खड़ी थी। बड़ी-बड़ी मोटी आँखों वाली ज़र्द-ज़र्द बच्ची बिल्कुल चीनी की गुड़िया मा’लूम होती थी और मारिया की तरफ़ घूर घूर कर देख रही थी।


फिर बंगाली औरत ने तेज़ी से कुछ कहा। बंगाली ड्राईवर ने उसी सुरअ’त से जवाब दिया।
“क्या कहती है ये?” मैंने पूछा।
ड्राईवर ने उस औरत की हथेली पर चंद सिक्के रखे और कार आगे बढ़ाई। कार चलाते-चलाते बोला



“हुज़ूर ये अपनी बच्ची को बेचना चाहती थी
डेढ़ रुपये में।”
“डेढ़ रुपये में
या’नी निस्फ़ डॉलर में?” मैंने हैरान हो कर पूछा।


“अरे निस्फ़ डॉलर में तो चीनी की गुड़िया भी नहीं आती?”
“आजकल निस्फ़ डॉलर में बल्कि इससे भी कम क़ीमत पर एक बंगाली बच्ची मिल सकती है...!”
मैं हैरत से अपने ड्राईवर को तकता रह गया।
उस वक़्त मुझे अपने वतन की तारीख़ का वो बाब याद आया। जब हमारे आबा-ओ-अजदाद अफ़्रीक़ा से हब्शियों को ज़बरदस्ती जहाज़ में लाद कर अपने मुल्क में ले आते थे और मंडियों में ग़ुलामों की ख़रीद-ओ-फ़रोख़त करते थे। उन दिनों एक मा’मूली से मा’मूली हब्शी भी पच्चीस-तीस डालर से कम में न बिकता था। ओफ़्फ़ो


किस क़दर ग़लती हुई। हमारे बुज़ुर्ग अगर अफ़्रीक़ा के बजाय हिन्दुस्तान का रुख करते तो बहुत सस्ते दामों ग़ुलाम हासिल कर सकते थे। हब्शियों के बजाय अगर वो हिंदुस्तानियों की तिजारत करते तो लाखों डॉलर की बचत हो जाती। एक हिन्दुस्तानी लड़की सिर्फ़ निस्फ़ डॉलर में! और हिन्दोस्तान की भी आबादी चालीस करोड़ है। गोया बीस करोड़ डॉलर में हम पूरे हिन्दुस्तान की आबादी को ख़रीद सकते थे। ज़रा ख़्याल तो फ़रमाईए कि बीस करोड़ डॉलर होते ही कितने हैं। इससे ज़्यादा रक़म तो हमारे वतन में एक यूनीवर्सिटी क़ायम करने में सर्फ़ हो जाती है।
अगर हुज़ूर पुरनूर की मंझली बेटी को ये पसंद हो तो मैं एक दर्जन बंगाली लड़कियां ख़रीद कर बज़रीया हवाई जहाज़ पार्सल कर दूं! तब शोफ़र ने बताया कि आजकल ‘सोना गाची’ जहां कलकत्ता की तवाइफ़ें रहती हैं। इस क़िस्म की बुरदाफ़रोशी का अड्डा है। सैकड़ों की तादाद में लड़कियां शब-ओ-रोज़ फ़रोख़्त की जा रही हैं।
लड़कियों के वालदैन फ़रोख़्त करते हैं और रंडियां खरीदती हैं। आम नर्ख़ सवा रुपया है। लेकिन अगर बच्ची क़बूलसूरत हो तो चार पाँच बल्कि दस रुपये भी मिल जाते हैं। चावल आजकल बाज़ार में साठ सत्तर रुपये फ़ी मन मिलता है। इस हिसाब से अगर एक कुन्बा अपनी दो बच्चियां भी फ़रोख़्त कर दे तो कम अज़ कम आठ दस दिन और ज़िंदगी का धंदा किया जा सकता है और औसतन बंगाली कुन्बे में लड़कियों की तादाद दो से ज़्यादा होती है।
कल मेयर आफ़ कलकत्ता ने शाम के खाने पर मदऊ’ किया है। वहां यक़ीनन बहुत ही दिलचस्प बातें सुनने में आयेंगी ।


फ. ब.प
29 अगस्त
मेयर आफ़ कलकत्ता का ख़्याल है कि बंगाल में शदीद क़हत है और हालत बेहद ख़तरनाकहै। उसने मुझसे अपील की कि मैं अपनी हुकूमत को बंगाल की मदद के लिए आमादा करूँ। मैंने उसे अपनी हुकूमत की हमदर्दी का यक़ीन दिलाया। लेकिन ये अमर भी इस पर वाज़िह कर दिया कि ये क़हत हिन्दोस्तान का अंदरूनी मसला है और हमारी हुकूमत किसी दूसरी क़ौम के मुआ’मलात में दख़ल देना नहीं चाहती। हम सच्चे जमहूरीयत पसंद हैं और कोई सच्चा जमहूरीया आपकी आज़ादी को सल्ब करना नहीं चाहता। हर हिन्दुस्तानी को जीने या मरने का इख़्तियार है। ये एक शख़्सी या ज़्यादा से ज़्यादा एक क़ौमी मसला है और इस की नौईयत बैन-उल-अक़वामी नहीं। इस मौक़ा पर मोसियो झ़ां झां त्रेप भी बहस में शामिल हो गये और कहने लगे।
जब आपकी असैंबली ने बंगाल को क़हतज़दा इलाक़ा famine area ही नहीं क़रार दिया तो इस सूरत में आप दूसरी हुकूमतों से मदद क्योंकर तलब कर सकते हैं। इस पर मेयर आफ़ कलकत्ता ख़ामोश हो गये और रस गुल्ले खाने लगे।


फ.ब.प
30 अगस्त
मिस्टर एमरी ने जो बर्तानवी वज़ीर हिंद हैं। हाऊस आफ़ कॉमन्ज़ में एक बयान देते हुए फ़रमाया कि हिन्दुस्तान में आबादी का तनासुब ग़िज़ाई ए’तबार से हौसलाशिकन है। हिन्दुस्तान की आबादी में डेढ़ सौ गुना इज़ाफ़ा हुआ है। दर हाल ये कि ज़मीनी पैदावार बहुत कम बढ़ी है। इस पर तुर्रा ये कि हिन्दुस्तानी बहुत खाते हैं।
ये तो हुज़ूर मैंने भी आज़माया है कि हिन्दुस्तानी लोग दिन में दोबार बल्कि अक्सर हालतों में सिर्फ़ एक-बार खाना खाते हैं। लेकिन इस क़दर खाते हैं कि हम मग़रिबी लोग दिन में पाँच बार भी इस क़दर नहीं खा सकते। मोसियो झ़ां झां त्रेप का ख़्याल है कि बंगाल में शरह अमवात के बढ़ने की सबसे बड़ी वजह यहां के लोगों का पेटू पन है। ये लोग इतना खाते हैं कि अक्सर हालतों में तो पेट फट जाता है और वो जहन्नुम वासिल हो जाते हैं। चुनांचे मिसल मशहूर है कि हिन्दुस्तानी कभी मुँहफट नहीं होता लेकिन पेट फट ज़रूर होता है बल्कि अक्सर हालतों में तली फट भी पाया। नीज़ ये अमर भी क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि हिंदुस्तानियों और चूहों की शरह पैदाइश दुनिया में सबसे ज़्यादा है और अक्सर हालतों में इन दोनों में इम्तियाज़ करना बहुत मुश्किल हो जाता है। वो जितनी जल्दी पैदा होते हैं उतनी जल्दी मर जाते हैं। अगर चूहों को प्लेग होती है तो हिंदुस्तानियों को सुखिया बल्कि उ’मूमन प्लेग और सुखिया दोनों लाहक़ हो जाती हैं। बहर हाल जब तक चूहे अपने बिल में रहें और दुनिया को परेशान न करें


हमें उनके निजी मुआ’मलात में दख़ल देने का कोई हक़ नहीं।
ग़िज़ाई महकमे के मैंबर हालात की जांच पड़ताल के लिए तशरीफ़ लाये हैं। बंगाली हलक़ों में ये उम्मीद ज़ाहिर की जा रही है कि ऑनरेबेल मैंबर पर अब ये वाज़ह हो जाएगा कि बंगाल में वाक़ई क़हत है और शरह अमवात के बढ़ने का सबब बंगालियों कि अनारकिस्टाना हरकात नहीं बल्कि ग़िज़ाई बोहरान है।
फ.ब.प
20 सितंबर


ऑनरेबल मैंबर तहक़ीक़ात के बाद वापस चले गये हैं। सुना है
वहां हुज़ूर वायसराय बहादुर से मुलाक़ात करेंगे और अपनी तजावीज़ उनके सामने रखेंगे।
25 सितंबर
लंदन के अंग्रेज़ी अख़बारों की इत्तिला के मुताबिक़ हर-रोज़ कलकत्ता की गलियों और सड़कों


फ़ुटपाथों पर लोग मर जाते हैं। बहरहाल ये सब अख़बारी इत्तिलाएं हैं। सरकारी तौर पर इस बात का कोई सबूत नहीं कि बंगाल में क़हत है। सब परेशान हैं। चीनी कौंसिल कल मुझसे कह रहा था कि वो बंगाल के फ़ाक़ा कशों के लिए एक इमदादी फ़ंड खोलना चाहता है। लेकिन उसकी समझ में नहीं आता कि वो क्या करे और क्या न करे। कोई कहता है कि क़हत है कोई कहता है क़हत नहीं है। मैंने उसे समझाया
बेवक़ूफ़ न बनो। इस वक़्त तक हमारे पास मुसद्दिक़ा इत्तिला यही है कि ग़िज़ाई बोहरान इसलिए है कि हिन्दुस्तानी बहुत ज़्यादा खाते हैं। अब तुम उन लोगों के लिए एक इमदादी फ़ंड खोल कर गोया उनके पेटूपन को और शह दोगे। ये हिमाक़त नहीं तो और क्या है। लेकिन चीनी कौंसिल मेरी तशरीहात से ग़ैर मुतमइन मा’लूम होता था।
फ.ब.प
28 सितंबर


दिल्ली में ग़िज़ाई मसले पर ग़ौर करने के लिए एक कान्फ़्रैंस बुलाई जा रही है। आज फिर यहां कई सौ लोग सुखिया से मर गये। ये भी ख़बर आई है कि मुख़्तलिफ़ सुबाई हुकूमतों ने रिआ’या में अनाज तक़सीम करने की जो स्कीम बनाई है। उससे इन्होंने कई लाख रुपये का मुनाफ़ा हासिल किया है। इस में बंगाल की हुकूमत भी शामिल है।
फ.ब.प
20 अक्तूबर
कल ग्रांड होटल में ‘यौम-ए-बंगाल’ मनाया गया। कलकत्ता के यूरोपियन उमरा-ओ- शुरफ़ा के इ’लावा हुक्काम आला


शहर के बड़े सेठ और महाराजे भी इस दिलचस्प तफ़रीह में शरीक थे। डांस का इंतिज़ाम खासतौर पर अच्छा था। मैंने मिसिज़ ज्योलेट त्रेप के साथ दो मर्तबा डांस किया (मिसिज़ त्रेप के मुँह से लहसुन की बू आती थी। न जाने क्यों? मिसिज़ त्रेप से मा’लूम हुआ कि इस सहन माहताबी के मौक़ा पर यौम-ए-बंगाल के सिलसिले में नौ लाख रुपया इकट्ठा हुआ है। मिसिज़ त्रेप बार-बार चांद की ख़ूबसूरत और रात की स्याह मुलाइमत का ज़िक्र कर रही थीं और उनके मुँह से लहसुन के भपारे उठ रहे थे। जब मुझे उनके साथ दुबारा डांस करना पड़ा तो मेरा जी चाहता था कि उनके मुँह पर लाईसोल या फ़ीनाइल छिड़क कर डांस करूँ। लेकिन फिर ख़्याल आया कि मिसिज़ ज्योलेट त्रेप मोसियो झां झां त्रेप की बावक़ार बीवी हैं और मोसियो झ़ां झां त्रेप की हुकूमत को बैन-उल-अक़वामी मुआ’मलात में एक क़ाबिल-ए-रश्क मर्तबा हासिल है।
हिन्दुस्तानी ख़वातीन में मिस स्नेह से तआ’रुफ़ हुआ। बड़ी क़बूलसूरत है और बेहद अच्छा नाचती है।
फ.ब.प
26अक्तूबर


मिस्टर मुंशी हुकूमत बंबई के एक साबिक़ वज़ीर का अंदाज़ा है कि बंगाली में हर हफ़्ते क़रीबन एक लाख अफ़राद क़हत का शिकार हो रहे हैं। लेकिन ये सरकारी इत्तिला नहीं है। कौंसिल ख़ाने के बाहर आज फिर चंद लाशें पाई गईं। शोफ़र ने बताया कि ये एक पूरा ख़ानदान था जो देहात से रोटी की तलाश में कलकत्ता आया था। परसों भी इसी तरह मैंने एक मुग़न्नी की लाश देखी थी। एक हाथ में वो अपनी सितार पकड़े हुए था और दूसरे हाथ में लकड़ी का एक झुनझुना
समझ नहीं आया। इसका क्या मतलब था। बेचारे चूहे किस तरह चुप-चाप मर जाते हैं और ज़बान से उफ़ तक भी नहीं करते। मैंने हिंदुस्तानियों से ज़्यादा शरीफ़ चूहे दुनिया में और कहीं नहीं देखे। अगर अम्न पसंदी के लिए नोबल प्राइज़ किसी क़ौम को मिल सकता है तो वो हिन्दुस्तानी हैं। या’नी लाखों की तादाद में भूके मर जाते हैं लेकिन ज़बान पर एक कलमा-ए-शिकायत नहीं लाएँगे। सिर्फ़ बे-रूह
बे-नूर आँखों से आसमान की तरफ़ ताकते हैं। गोया कह रहे हों
अन्न-दाता


अन्न-दाता।! कल रात फिर मुझे उस मुग़न्नी की ख़ामोश शिकायत से मा’मूर
जामिद-ओ-साकित पथरीली बे-नूर सी निगाहें परेशान करती रहीं।
फ.ब.प
5 नवंबर


नए हुज़ूर वायसराय बहादुर तशरीफ़ लाये हैं। सुना है कि उन्होंने फ़ौज को क़हतज़दा लोगों की इमदाद पर मा’मूर किया है और जो लोग कलकत्ता के गली कुचों में मरने के आ’दी हो चुके हैं। उनके लिए बाहर मुज़ाफ़ात में मर्कज़ खोल दिये गये हैं। जहां उनकी आसाइश के लिए सब सामान बहम पहुंचाया जाएगा।
फ.ब.प
10 नवंबर
मोसियो झ़ां झां त्रेप का ख़्याल है कि ये ऐन-मुमकिन है कि बंगाल में वाक़ई क़हत हो और सुखिया बीमारी की इत्तिलाएं ग़लत हों। ग़ैर मुल्की कौंसिल ख़ानों में इस रिमार्क से हलचल मच गई है। ममलिकत गोबिया


लोबिया और मटरस्लोवकिया को कौंसिलों का ख़्याल है कि मोसियो झ़ां झां त्रेप का ये जुमला किसी आने वाली ख़ौफ़नाक जंग का पेश-ख़ेमा है। योरोपी और एशियाई मुल्कों से भागे हुए लोगों में आजकल हिन्दुस्तान में मुक़ीम हैं । वायसराय की स्कीम के मुता’ल्लिक़ मुख़्तलिफ़ शुबहात पैदा हुए हैं। वो लोग सोच रहे हैं। अगर बंगाल वाक़ई क़हतज़दा इलाक़ा क़रार दे दिया गया तो उनके अलाउंस का क्या बनेगा? वो लोग कहाँ जायेंगे? मैं हुज़ूर पुरनूर की तवज्जा उस सियासी उलझन की तरफ़ दिलाना चाहता हूँ
वायसराय बहादुर के ऐलान से पैदा हो गई है। मग़रिब के मुल्कों के रिफ्यूजियों के हुक़ूक़ की हिफ़ाज़त के लिए क्या हमें सीना-सिपर हो कर न लड़ना चाहिए। मग़रिबी तहज़ीब कल्चर और तमद्दुन के क्या तक़ाज़े हैं। आज़ादी और जमहूरीयत को बरक़रार रखने के लिए हमें क्या क़दम उठाना चाहिए। मैं इस सिलसिले में हुज़ूर पुरनूर के अहकाम का मुंतज़िर हूँ।
फ.ब.प
25 नवंबर


मोसियो झ़ां झां त्रेप का ख़्याल है कि बंगाल में क़हत नहीं है। मोसियो फां फां फुंग चीनी कौंसिल का ख़्याल है कि बंगाल में क़हत है। मैं शर्मिंदा हूँ कि हुज़ूर ने मुझे जिस काम के लिए कलकत्ता के कौंसिल ख़ाने में तयनात किया था वो काम मैं गुज़िश्ता तीन माह में भी पूरा न कर सका। मेरे पास इस अमर की एक भी मुसद्दिक़ा इत्तिला नहीं है कि बंगाल में क़हत है या नहीं है। तीन माह की मुसलसल काविश के बाद भी मुझे ये मा’लूम न हो सका कि सही डिप्लोमैटिक पोज़ीशन क्या है। मैं इस सवाल का जवाब देने से क़ासिर हूँ
शर्मिंदाहूँ। माफ़ी चाहता हूँ।
नीज़ अ’र्ज़ है कि हुज़ूर पुरनूर की मंझली बेटी को मुझसे और मुझे हुज़ूर पुरनूर की मंझली बेटी से इश्क़ है। इसलिए क्या ये बेहतर न होगा कि हुज़ूर पुरनूर मुझे कलकत्ता के सिफ़ारत ख़ाने से वापस बुला लें और मेरी शादी अपनी बेटी मतलब है... हुज़ूर पुरनूर की मंझली बेटी से कर दें और हुज़ूर पुरनूर मुझे किसी मुमताज़ सिफ़ारत ख़ाने में सफ़ीर-ए-आला का मर्तबा बख़्श दें? इस नवाज़िश के लिए मैं हुज़ूर पुरनूर का ता क़यामत शुक्रगुज़ार हूँगा।
एडिथ के लिए एक नीलम की अँगूठी इर्साल कर रहा हूँ। उसे महाराजा अशोक की बेटी पहना करती थी।


मैं हूँ जनाब का हक़ीर तरीन ख़ादिम
एफ़.बी.पटाखा
कौंसिल ममलिकत सांडोघास बराए कलकत्ता
(२)


वो आदमी जो मर चुका है
सुबह नाशते पर जब उसने अख़बार खोला तो उसने बंगाल के फ़ाक़ाकशों की तसावीर देखीं जो सड़कों पर
दरख़्तों के नीचे
गलियों में


खेतों में बाज़ारों में
घरों में हज़ारों की तादाद में मर रहे थे। आमलेट खातेखाते उसने सोचा कि इन ग़रीबों की इमदाद किस तरह मुम्किनहै। ये ग़रीब जो नाउम्मीदी की मंज़िल से आगे जा चुके हैं और मौत की बोहरानी कैफ़ियत से हमकनार हैं। उन्हें ज़िंदगी की तरफ़ वापस लाना
ज़िंदगी की सऊ’बतों से दुबारा आश्ना करना
उनसे हमदर्दी नहीं दुश्मनी होगी।


उसने जल्दी में अख़बार का वर्क़ उल्टा और तोस पर मुरब्बा लगा कर खाने लगा तोस नर्म-गर्म और कुरकुरा था और मुरब्बे की मिठास और उसकी हल्की सी तुर्शी ने उसके ज़ायक़े को और भी निखार दिया था। जैसे ग़ाज़े का ग़ुबार औरत के हुस्न को निखार देता है। यकायक उसे स्नेह का ख़्याल आया। स्नेह अभी तक न आई थी। गो उसने वा’दा किया था कि वो सुबह के नाशते पर उसके साथ मौजूद होगी। सो रही होगी बेचारी अब क्या वक़्त होगा। उसने अपनी सोने की घड़ी से पूछा जो उसकी गोरी कलाई में जिस पर स्याह बालों की एक हल्की सी रेशमीं लाईन थी। एक स्याह रेशमी फीते से बंधी थी। घड़ी
क़मीज़ के बटन और टाई का पिन
यही तीन ज़ेवर मर्द पहन सकता है और औरतों को देखिए कि जिस्म को ज़ेवर से ढक लेती। कान के लिए ज़ेवर
पांव के लिए ज़ेवर


कमर के लिए ज़ेवर
नाक के लिए ज़ेवर
सर के लिए ज़ेवर
गले के लिए ज़ेवर


बाहोँ के लिए ज़ेवर और मर्द बेचारे के लिए सिर्फ़ तीन ज़ेवर बल्कि दो ही समझिए क्योंकि टाई का पिन अब फ़ैशन से बाहर होता जा रहा है। न जाने मर्दों को ज़्यादा ज़ेवर पहनने से क्यों मना किया गया है। यही सोचते-सोचते वो दलिया खाने लगा। दलिये से इलायची की महक उठ रही थी। उसके नथुने
उसके पाकीज़ा तअ’त्तुर से मुसफ्फ़ा हो गये और यकायक उसके नथनों में गुज़िश्ता रात के इत्र की ख़ुशबू ताज़ा हो गई। वो इत्र जो स्नेह ने अपनी साड़ी
अपने बालों में लगा रखा था। गुज़िश्ता रात का दिलफ़रेब रक़्स उसकी आँखों के आगे घूमता गया। ग्रांड होटल में नाच हमेशा अच्छा होता है। उसका और स्नेह का जोड़ा कितना अच्छा है। सारे हाल की निगाहें उन पर जमी हुई थीं।
दोनों कानों में गोल गोल तिलाई आवेज़े पहने हुए थी जो उसकी लवों को छुपा रहे थे। होंटों पर जवानी का तबस्सुम और मैक्सफैक्टर की लाली का मो’जिज़ा और सीने के सुमन ज़ारों पर मोतियों की माला चमकती


दमकती
लचकती नागिन की तरह सौ बल खाती हुई। रम्बा नाच कोई स्नेह से सीखे
उसके जिस्म की रवानी और रेशमी बनारसी साड़ी का पुरशोर बहाव जैसे समुंदर की लहरें चाँदनी-रात में साहिल से अठखेलियाँ कर रही हों। लहर आगे आती है। साहिल को छू कर वापस चली जाती है। मद्धम सी सरसराहाट पैदा होती है और चली जाती है। शोर मद्धम हो जाता है। शोर क़रीब आ जाता है। आहिस्ता-आहिस्ता लहर चांदनी में नहाए हुए साहिल को चूम रही है।
स्नेह के लब नीम-वा थे जिनमें दाँतों की लड़ी सपेद मोतियों की माला की तरह लरज़ती नज़र आती थी... यकायक वहां की बिजली बुझ गई और वो स्नेह से होंट से होंट मिलाए


जिस्म से जिस्म लगाए आँखें बंद किए रक़्स के ताल पर नाचते रहे। उन सुरों की मद्धम सी रवानी
वो रसीला मीठा तमोन रवाँ-दवाँ
रवाँ-दवाँ मौत की सी पाकीज़गी। नींद और ख़ुमार और नशा जैसे जिस्म न हो
जैसे ज़िंदगी न हो


जैसे तू न हो
जैसे में न हूँ
सिर्फ़ एक बोसा हो। सिर्फ़ एक गीत हो। इक लहर हो। रवाँ-दवाँ
रवाँ-दवाँ... उसने सेब के क़त्ले किए और कांटे से उठा कर खाने लगा। प्याली में चाय उंडेलते हुए उसने सोचा स्नेह का जिस्म कितना ख़ूबसूरत है। उसकी रूह कितनी हसीन है। उसका दिमाग़ किस क़दर खोखला है। उसे पुरमग़्ज़ औरतें बिलकुल पसंद न थीं।


जब देखो इश्तिराकीयत
साम्राजियत और मार्क्सियत पर बहस कर रही हैं। आज़ादी तालीम-ए-निस्वाँ
नौकरी
ये नई औरत


औरत नहीं फ़लसफ़े की किताब है। भई ऐसी औरत से मिलने या शादी करने की बजाय तो यही बेहतर है कि आदमी अरस्तू पढ़ा करे। उसने बेक़रार हो कर एक-बार फिर घड़ी पर निगाह डाली। स्नेह अभी तक न आती थी। चर्चिल और स्टालिन और रूज़वेल्ट तहरान में दुनिया का नक़्शा बदल रहे थे और बंगाल में लाखों आदमी भूक से मर रहे थे। दुनिया को अतलांतिक चार्टर दिया जा रहा था और बंगाल में चावल का एक दाना भी न था। उसे हिन्दोस्तान की ग़ुर्बत पर इतना तरस आया कि उसकी आँखों में आँसू भर आये। हम ग़रीब हैं बेबस हैं नादार हैं। मजबूर हैं। हमारे घर का वही हाल है जो मीर के घर का हाल था। जिसका ज़िक्र इन्होंने चौथी जमात में पढ़ा था और जो हर वक़्त फ़र्याद करता रहता था। जिसकी दीवारें सिली सिली और गिरी हुई थीं और जिसकी छत हमेशा टपक-टपक कर रोती रहती थी। उसने सोचा हिन्दुस्तान भी हमेशा रोता रहता है। कभी रोटी नहीं मिलती
कभी कपड़ा नहीं मिलता। कभी बारिश नहीं होती। कभी वबा फैल जाती है। अब बंगाल के बेटों को देखो
हड्डियों के ढाँचे आँखों में अबदी अफ़्सुर्दगी
लबों पर भिकारी की सदा


रोटी
चावल का एक दाना
यकायक चाय का घूँट उसे अपने हलक़ में तल्ख़ महसूस हुआ और उसने सोचा कि वो ज़रूर अपने हम वतनों की मदद करेगा। वो चंदा इकट्ठा करेगा। दौरा
जलसे


वालंटियर
चंदा
अनाज और ज़िंदगी की एक लहर मुल्क में इस सिरे से दूसरे सिरे तक फैल जाएगी। बर्क़ी रौ की तरह। यकायक उसने अपना नाम जली सुर्ख़ीयों में देखा। मुल्क का हर अख़बार उसकी ख़िदमात को सराह रहा था और ख़ुद
इस अख़बार में जिसे वो अब पढ़ रहा था। उसे अपनी तस्वीर झाँकती नज़र आई


खद्दर का लिबास और जवाहर लाल जैकेट और हाँ वैसी ही ख़ूबसूरत मुस्कुराहट
हाँ बस ये ठीक है। उसने बैरे को आवाज़ दी उसे एक और आमलेट लाने को कहा।
आज से वो अपनी ज़िंदगी बदल डालेगा। अपनी हयात का हर लम्हा उन भूके नंगे
प्यासे


मरते हुए हम वतनों की ख़िदमत में सर्फ़ कर देगा। वो अपनी जान भी उनके लिए क़ुर्बान कर देगा। यकायक उसने अपने आपको फांसी की कोठरी में बंद देखा
वो फांसी के तख़्ते की तरफ़ ले जाया जा रहा था। उसके गले में फांसी का फंदा था। जल्लाद ने चेहरे पर ग़लाफ़ उढ़ा दिया और उसने उस खुरदुरे मोटे ग़लाफ़ के अंदर से चिल्ला कर कहा

“मैं मर रहा हूँ। अपने भूके प्यासे नंगे वतन के लिए”


ये सोच कर उसकी आँखों में आँसू फिर भर आये और दो एक ग़र्म-गर्म नमकीन बूँदें चाय की प्याली में भी गिर पड़ीं और उसने रूमाल से अपने आँसू पोंछ डाले। यकायक एक कार पोर्च में रुकी और मोटर का पट खोल कर स्नेह मुस्कुराती हुई सीढ़ियों पर चढ़ती हुई
दरवाज़ा खोल कर अंदर आती हुई
उसे हेलो कहती हुई। उसने गले में बाँहें डाल कर उसके रुख़्सार को फूल की तरह अपने इत्र-बेज़ होंटों से चूमती हुई नज़र आई
बिजली


गर्मी
रोशनी
मसर्रत सब कुछ एक तबस्सुम में था और फिर ज़हर
स्नेह की आँखों में ज़हर था। उसकी ज़ुल्फ़ों में ज़हर था। उसकी मद्धम हल्की सांस की हर जुंबिश में ज़हर था। वो अजंता की तस्वीर थी


जिसके ख़द-ओ-ख़ाल तसव्वुर ने ज़हर से उभारे थे।
उसने पूछा
“नाशता करोगी?”
“नहीं


मैं नाशता कर के आई हूँ”
फिर स्नेह ने उसकी पलकों में आँसू छलकते देख बोली
“तुम आज उदास क्यों हो?”
वो बोला


“कुछ नहीं। यूंही बंगाल के फ़ाक़ा कशों का हाल पढ़ रहा था। स्नेह
हमें बंगाल के लिए कुछ करना चाहिए।”
“door darlings” स्नेह ने आह भर कर और जेबी आईने की मदद से अपने होंटों की सुर्ख़ी ठीक करते हुए कहा
“हम लोग उनके लिए क्या कर सकते हैं। मासिवा इसके कि उनकी रूहों क

- कृष्ण-चंदर


मेरी और उसकी मुलाक़ात आज से ठीक दो बरस पहले अपोलोबंदर पर हुई। शाम का वक़्त था
सूरज की आख़िरी किरनें समुंदर की उन दराज़ लहरों के पीछे ग़ायब हो चुकी थी जो साहिल के बेंच पर बैठ कर देखने से मोटे कपड़े की तहें मालूम होती थीं। मैं गेट आफ़ इंडिया के उस तरफ़ पहला बेंच छोड़ कर जिस पर एक आदमी चम्पी वाले से अपने सर की मालिश करा रहा था
दूसरे बेंच पर बैठा था और हद्द-ए-नज़र तक फैले हुए समुंदर को देख रहा था।
दूर बहुत दूर जहां समुंदर और आसमान घुल मिल रहे थे। बड़ी बड़ी लहरें आहिस्ता आहिस्ता उठ रही थीं और ऐसा मालूम होता था कि बहुत बड़ा गदले रंग का क़ालीन है जिसे इधर से उधर समेटा जा रहा है।


साहिल के सब क़ुमक़ुमे रोशन थे जिनका अक्स किनारे के लर्ज़ां पानी पर कपकपाती हुई मोटी लकीरों की सूरत में जगह जगह रेंग रहा था। मेरे पास पथरीली दीवार के नीचे कई कश्तियों के लिपटे हुए बादबान और बांस हौले-हौले हरकत कर रहे थे। समुंदर की लहरें और तमाशाइयों की आवाज़ एक गुनगुनाहट बन कर फ़िज़ा में घुली हुई थी। कभी कभी किसी आने या जाने वाली मोटर के हॉर्न की आवाज़ बुलंद होती और यूं मालूम होता कि बड़ी दिलचस्प कहानी सुनने के दौरान में किसी ने ज़ोर से “हूँ” की है।
ऐसे माहौल में सिगरेट पीने का बहुत मज़ा आता है। मैंने जेब में हाथ डाल कर सिगरेट की डिबिया निकाली
मगर माचिस न मिली। जाने कहाँ भूल आया था। सिगरेट की डिबिया वापस जेब में रखने ही वाला था कि पास से किसी ने कहा
“माचिस लीजिएगा।”


मैंने मुड़ कर देखा। बेंच के पीछे एक नौजवान खड़ा था। यूं तो बंबई के आम बाशिंदों का रंग ज़र्द होता है। लेकिन उसका चेहरा ख़ौफ़नाक तौर पर ज़र्द था। मैंने उसका शुक्रिया अदा किया
“आप की बड़ी इनायत है।”
उसने जवाब दिया
“आप सिगरेट सुलगा लीजिए


मुझे जाना है।”
मुझे ऐसा महसूस हुआ कि उसने झूट बोला है क्योंकि उसके लहजे से इस बात का पता चलता था कि उसे कोई जल्दी नहीं है और न उसे कहीं जाना है। आप कहेंगे कि लहजे से ऐसी बातों का किस तरह पता चल सकता है। लेकिन हक़ीक़त ये है कि मुझे उस वक़्त ऐसा महसूस हुआ
चुनांचे मैंने एक बार फिर कहा
“ऐसी जल्दी क्या है... तशरीफ़ रखिए।” और ये कह कर मैंने सिगरेट की डिबिया उसकी तरफ़ बढ़ा दी


“शौक़ फ़रमाईए।”
उसने सिगरेट की छाप की तरफ़ देखा और जवाब दिया
“शुक्रिया
मैं सिर्फ़ ब्रांड पिया करता हूँ।”


आप मानें न मानें मगर मैं क़समिया कहता हूँ कि इस बार उसने फिर झूट बोला। इस मर्तबा फिर उसके लहजे ने चुगु़ली खाई और मुझे उससे दिलचस्पी पैदा हो गई। इसलिए कि मैंने अपने दिल में क़सद कर लिया था कि उसे ज़रूर अपने पास बिठाऊंगा और अपना सिगरेट पिलवाऊँगा। मेरे ख़याल के मुताबिक़ इसमें मुश्किल की कोई बात ही न थी क्योंकि उसके दो जुमलों ही ने मुझे बता दिया था कि वो अपने आप को धोका दे रहा है।
उसका जी चाहता है कि मेरे पास बैठे और सिगरेट पिए। लेकिन ब-यक-वक़्त उसके दिल में ये ख़याल भी पैदा हुआ था कि मेरे पास न बैठे और मेरा सिगरेट न पिए
चुनांचे हाँ और न का ये तसादुम उसके लहजे में साफ़ तौर पर मुझे नज़र आया था। आप यक़ीन जानिए कि उसका वजूद भी होने और न होने के बीच में लटका हुआ था।
उसका चेहरा जैसा कि मैं बयान कर चुका हूँ बेहद पीला था। उस पर उसकी नाक आँखों और मुँह के ख़ुतूत इस क़दर मद्धम थे जैसे किसी ने तस्वीर बनाई है और उसको पानी से धो डाला है। कभी कभी उसकी तरफ़ देखते देखते उसके होंट उभर से आते लेकिन फिर राख में लिपटी हुई चिंगारी के मानिंद सो जाते। उसके चेहरे के दूसरे ख़ुतूत का भी यही हाल था।


आँखें गदले पानी की दो बड़ी बड़ी बूंदें थीं जिन पर उसकी छोरी पलकें झुकी हुई थीं। बाल काले थे मगर उनकी स्याही जले हुए काग़ज़ के मानिंद थी जिनमें भोसलापन होता है। क़रीब से देखने पर उसकी नाक का सही नक़्शा मालूम हो सकता था। मगर दूर से देखने पर वो बिल्कुल चिपटी मालूम होती थी क्योंकि जैसा कि मैं इससे पेशतर बयान कर चुका हूँ
उसके चेहरे के ख़ुतूत बिल्कुल ही मद्धम थे।
उसका क़द आम लोगों जितना था। यानी न छोटा न बड़ा। अलबत्ता जब वो एक ख़ास अंदाज़ से यानी अपनी कमर की हड्डी को ढीला छोड़ के खड़ा होता तो उसके क़द में नुमायां फ़र्क़ पैदा हो जाता। इस तरह जब कि वो एक दम खड़ा होता तो उसका क़द जिस्म के मुक़ाबले में बहुत बड़ा दिखाई देता।
कपड़े उसके ख़स्ता हालत में थे लेकिन मैले नहीं थे। कोट की आस्तीनों के आख़िरी हिस्से कसरत-ए-इस्तेमाल के बाइस घिस गए थे और फूसड़े निकल आए थे। कालर खुला था और क़मीज़ बस एक और धुलाई की मार थी। मगर इन कपड़ों में भी वो ख़ुद को एक बावक़ार अंदाज़ में पेश करने की सई कर रहा था।


मैं सई कर रहा था! इसलिए कहा
क्योंकि जब मैंने उसकी तरफ़ देखा था तो उसके सारे वजूद में बेचैनी की लहर दौड़ गई थी और मुझे ऐसा मालूम हुआ था कि वो अपने आपको मेरी निगाहों से ओझल रखना चाहता है।
मैं उठ खड़ा हुआ और सिगरेट सुलगा कर उसकी तरफ़ डिबिया बढ़ा दी
“शौक़ फ़रमाईए।”


ये मैंने कुछ इस तरीक़े से कहा और फ़ौरन माचिस सुलगा कर इस अंदाज़ से पेश की कि वो सब कुछ भूल गया। उसने डिबिया में से सिगरेट निकाल कर मुँह में दबा लिया और उसे सुलगा कर पीना भी शुरू कर दिया। लेकिन एका एकी उसे अपनी ग़लती का एहसास हुआ और मुँह में से सिगरेट निकाल कर मस्नूई खांसी के आसार हलक़ में पैदा करते हुए उसने कहा
“केवेन्डर मुझे रास नहीं आते
इनका तंबाकू बहुत तेज़ है। मेरे गले में फ़ौरन ख़राशें पैदा हो जाती हैं।”
मैंने उससे पूछा


“आप कौन से सिगरेट पसंद करते हैं?”
उसने तुतलाकर जवाब दिया
“मैं... मैं... दरअसल सिगरेट बहुत कम पीता हूँ क्योंकि डाक्टर अरोकर ने मना कर रखा है। वैसे में थ्री फ़ालू पीता हूँ जिनका तंबाकू तेज़ नहीं होता।”
उसने जिस डाक्टर का नाम लिया


वो बंबई का बहुत बड़ा डाक्टर है। उसकी फ़ीस दस रुपये है और जिन सिगरेटों का उसने हवाला दिया
उसके मुतअल्लिक़ आपको भी मालूम होगा कि बहुत महंगे दामों पर मिलते हैं। उसने एक ही सांस में दो झूट बोले
जो मुझे हज़म न हुए
मगर मैं ख़ामोश रहा।


हालाँकि सच अर्ज़ करता हूँ
उस वक़्त मेरे दिल में यही ख़्वाहिश चुटकियां ले रही थी कि उसका ग़लाफ़ उतार दूं और उसकी दरोग़गोई को बेनकाब कर दूं और उसे कुछ इस तरह शर्मिंदा करूं कि वो मुझसे माफ़ी मांगे। मगर मैंने जब उसकी तरफ़ देखा तो इस फ़ैसले पर पहुंचा कि उसने जो कुछ कहा है
उसका जुज़्व बन कर रह गया है। झूट बोल कर चेहरे पर जो एक सुर्ख़ी सी दौड़ जाया करती है
मुझे नज़र न आई बल्कि मैंने ये देखा कि वो जो कुछ कह चुका है


उसको हक़ीक़त समझता है।
उसके झूट में इस क़दर इख़्लास था यानी उसने इतने पुरख़ुलूस तरीक़े पर झूट बोला था कि उसकी मीज़ान-ए-एहसास में हल्की सी जुंबिश भी पैदा नहीं हुई थी। ख़ैर इस क़िस्से को छोड़िए। ऐसी बारीकियां मैं आप को बताने लगूं तो सफ़हों के सफ़े काले हो जाऐंगे और अफ़साना बहुत ख़ुश्क हो जाएगा।
थोड़ी सी रस्मी गुफ़्तुगू के बाद मैंने उसको राह पर लगाया और एक और सिगरेट पेश करके समुंदर के दिलफ़रेब मंज़र की बात छेड़ दी। चूँकि अफ़्सानानिगार हूँ। इसलिए कुछ इस दिलचस्प तरीक़े पर उसे समुंदर
अपोलोबन्दर और वहां आने-जाने वाले तमाशाइयों के बारे में चंद बातें सुनाईं कि छः सिगरेट पीने पर भी उसके हलक़ में ख़रख़राहट पैदा न हुई।


उसने मेरा नाम पूछा। मैंने बताया तो वो उठ खड़ा हुआ और कहने लगा
“आप मिस्टर... हैं... मैं आपके कई अफ़साने पढ़ चुका हूँ। मुझे... मुझे मालूम न था कि आप... हैं... मुझे आप से मिल कर बहुत ख़ुशी हुई है
वल्लाह बहुत ख़ुशी हुई है।”
मैंने उसका शुक्रिया अदा करना चाहा। मगर उसने अपनी बात शुरू कर दी... “हाँ ख़ूब याद आया


अभी हाल ही में आपका एक अफ़साना मैंने पढ़ा है... उनवान भूल गया हूँ... उसमें आपने एक लड़की पेश की है जो किसी मर्द से मोहब्बत करती थी। मगर वो उसे धोका दे गया।” उसी लड़की से एक और मर्द भी मोहब्बत करता था जो अफ़साना सुनाता है।
“जब उसको लड़की की उफ़्ताद का पता चलता है तो वो उससे मिलता है और उससे कहता है
ज़िंदा रहो... उन चंद घड़ियों की याद में अपनी ज़िंदगी की बुनियादें खड़ी करो। जो तुमने उसकी मोहब्बत में गुज़ारी हैं। इस मसर्रत की याद में जो तुमने चंद लम्हात के लिए हासिल की थी... मुझे असल इबारत याद नहीं रही
लेकिन मुझे बताईए। क्या ऐसा मुम्किन है... मुम्किन को छोड़िए। आप ये बताईए कि वो आदमी आप तो नहीं थे?”


“मगर क्या आप ही ने उससे कोठे पर मुलाक़ात की थी और उसकी थकी हुई जवानी को ऊँघती हुई चांदनी में छोड़कर नीचे अपने कमरे में सोने के लिए चले आए थे...” ये कहते हुए वो एक दम ठहर गया। “मगर मुझे ऐसी बातें नहीं पूछनी चाहिऐं... अपने दिल का हाल कौन बताता है।”
इस पर मैंने कहा
“मैं आप को बताऊंगा... लेकिन पहली मुलाक़ात में सब कुछ पूछ लेना और सब कुछ बता देना अच्छा मालूम नहीं होता। आपका क्या ख़याल है?” वो जोश जो गुफ़्तुगू करते वक़्त उसके अंदर पैदा हो गया था
एक दम ठंडा पड़ गया।


उसने धीमे लहजे में कहा
“आप का फ़रमाना बिल्कुल दुरुस्त है मगर क्या पता है कि आप से फिर कभी मुलाक़ात न हो।”
इस पर मैंने कहा
“इसमें शक नहीं बंबई बहुत बड़ा शहर है लेकिन हमारी एक नहीं बहुत सी मुलाक़ातें हो सकती हैं


बेकार आदमी हूँ
यानी अफ़सानानिगार... शाम को हर रोज़ इसी वक़्त बशर्ते कि बीमार न हो जाऊं
आप मुझे हमेशा इसी जगह पर पाएंगे... यहां बेशुमार लड़कियां सैर को आती हैं और मैं इसलिए आता हूँ कि ख़ुद को किसी की मोहब्बत में गिरफ़्तार कर सकूं... मोहब्बत बुरी चीज़ नहीं है!”
“मोहब्बत... मोहब्बत...!” उसने इससे आगे कुछ कहना चाहा मगर न कह सका और जलती हुई रस्सी की तरह आख़िरी बल खा कर ख़ामोश हो गया।


मैंने अज़ राह-ए-मज़ाक़ उससे मोहब्बत का ज़िक्र किया था। दरअसल उस वक़्त फ़िज़ा ऐसी दिलफ़रेब थी कि अगर किसी औरत पर आशिक़ हो जाता तो मुझे अफ़सोस न होता
जब दोनों वक़्त आपस में मिल रहे हों।
नीम तारीकी में बिजली के क़ुमक़ुमे क़तार दर क़तार आँखें झपकना शुरू कर दें। हवा में ख़ुनकी पैदा हो जाये और फ़िज़ा पर एक अफ़सानवी कैफ़ियत सी छा जाये तो किसी अजनबी औरत की क़ुरबत की ज़रूरत महसूस हुआ करती है। एक ऐसी जिसका एहसास तहत-ए-शऊर में छुपा रहता है।
ख़ुदा मालूम उसने किस अफ़साने के मुतअल्लिक़ मुझसे पूछा था। मुझे अपने सब अफ़साने याद नहीं और ख़ासतौर पर वो तो बिल्कुल याद नहीं जो रूमानी हैं। मैं अपनी ज़िंदगी में बहुत कम औरतों से मिला हूँ। वो अफ़साने जो मैंने औरतों के मुतअल्लिक़ लिखे हैं या तो किसी ख़ास ज़रूरत के मातहत लिखे गए हैं या महज़ दिमाग़ी अय्याशी के लिए


मेरे ऐसे अफ़सानों में चूँकि ख़ुलूस नहीं है। इसलिए मैंने कभी उनके मुतअल्लिक़ ग़ौर नहीं किया।
एक ख़ास तबक़े की औरतें मेरी नज़र से गुज़री हैं और उनके मुतअल्लिक़ मैंने चंद अफ़साने लिखे हैं
मगर वो रुमान नहीं हैं। उसने जिस अफ़साने का ज़िक्र किया था
वो यक़ीनन कोई अदना दर्जे का रुमान था जो मैंने अपने चंद जज़्बात की प्यास बुझाने के लिए लिखा होगा... लेकिन मैंने तो अपना अफ़साना बयान करना शुरू कर दिया।


हाँ तो जब वो मोहब्बत कह कर ख़ामोश हो गया तो मेरे दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि मोहब्बत के बारे में कुछ और कहूं। चुनांचे मैंने कहना शुरू किया
“मोहब्बत की यूँ तो बहुत सी क़िस्में हमारे बाप-दादा बयान कर गए हैं। मगर मैं समझता हूँ कि मोहब्बत ख़्वाह मुल्तान में हो या साइबेरिया के यख़-बस्ता मैदानों में। सर्दियों में पैदा हो या गर्मियों में
अमीर के दिल में पैदा हो या ग़रीब के दिल में... मोहब्बत ख़ूबसूरत करे या बदसूरत बदकिरदार करे या नेकोकार... मोहब्बत मोहब्बत ही रहती है।
“इसमें कोई फ़र्क़ पैदा नहीं होता


जिस तरह बच्चे पैदा होने की सूरत हमेशा ही एक सी चली आरही है। इसी तरह मोहब्बत की पैदाइश भी एक ही तरीक़े पर होती है। ये जुदा बात है कि सईदा बेगम हस्पताल में बच्चा जने और राजकुमारी जंगल में। ग़ुलाम मोहम्मद के दिल में भंगन मोहब्बत पैदा कर दे और नटवरलाल के दिल में कोई रानी जिस तरह बा'ज़ बच्चे वक़्त से पहले पैदा होते हैं और कमज़ोर रहते हैं। उसी तरह वो मोहब्बत भी कमज़ोर रहती है जो वक़्त से पहले जन्म ले
बा'ज़ दफ़ा बच्चे बड़ी तकलीफ़ से पैदा होते हैं।
“बा'ज़ दफ़ा मोहब्बत भी बड़ी तकलीफ़ दे कर पैदा होती है। जिस तरह औरतों का हमल गिर जाता है। उसी तरह मोहब्बत भी गिर जाती है। बा'ज़ दफ़ा बांझपन पैदा हो जाता है। इधर भी आपको ऐसे आदमी नज़र आयेंगे जो मोहब्बत करने के मुआमले में बांझ हैं... इसका मतलब ये नहीं कि मोहब्बत करने की ख़्वाहिश उनके दिल से हमेशा के लिए मिट जाती है
या उनके अंदर वो जज़्बा ही नहीं रहता


नहीं
ये ख़्वाहिश उनके दिल में मौजूद होती है।
“मगर वो इस क़ाबिल नहीं रहते कि मोहब्बत कर सकें। जिस तरह औरत अपने जिस्मानी नक़ाइस के बाइस बच्चे पैदा करने के क़ाबिल नहीं रहती। उसी तरह ये लोग चंद रुहानी नक़ाइस की वजह से किसी के दिल में मोहब्बत पैदा करने की क़ुव्वत नहीं रखते... मोहब्बत का इस्क़ात भी हो सकता है...”
मुझे अपनी गुफ़्तुगू दिलचस्प मालूम हो रही थी। चुनांचे मैं उसकी तरफ़ देखे बग़ैर लेक्चर दिए जा रहा था। लेकिन जब मैं उसकी तरफ़ मुतवज्जा हुआ तो वो समुंदर के उस पार ख़ला में देख रहा था और अपने ख़यालात में गुम था


मैं ख़ामोश हो गया।
जब दूर से किसी मोटर का हॉर्न बजा तो वो चौंका और ख़ालीउज़्ज़ेहन हो कर कहने लगा
“जी... आपने बिल्कुल दुरुस्त फ़रमाया है!”
मेरे जी में आई कि उससे पूछूं... “दुरुस्त फ़रमाया है? इसको छोड़िए


आप ये बताईए कि मैंने क्या कहा है?” लेकिन मैं ख़ामोश रहा और उसको मौक़ा दिया कि अपने वज़नी ख़यालात दिमाग़ से झटक दे।
वो कुछ देर सोचता रहा। उसके बाद उसने फिर कहा
“आपने बिल्कुल ठीक फ़रमाया है। लेकिन... ख़ैर छोड़िए इस क़िस्से को।”
मुझे अपनी गुफ़्तुगू बहुत अच्छी मालूम हुई थी। मैं चाहता था कि कोई मेरी बातें सुनता चला जाये। चुनांचे मैंने फिर से कहना शुरू किया


“तो मैं अर्ज़ कर रहा था कि बा'ज़ आदमी भी मोहब्बत के मुआमले में बांझ होते हैं। यानी उनके दिल में मोहब्बत करने की ख़्वाहिश तो मौजूद होती है लेकिन उनकी ये ख़्वाहिश कभी पूरी नहीं होती। मैं समझता हूँ कि इस बांझपन का बाइस रुहानी नक़ाइस हैं। आपका क्या ख़याल है?”
उसका रंग और भी ज़र्द पड़ गया जैसे उसने कोई भूत देख लिया हो। ये तब्दीली उसके अंदर इतनी जल्दी पैदा हुई कि मैंने घबरा कर उससे पूछा
“ख़ैरियत तो है... आप बीमार हैं।”
“नहीं तो... नहीं तो”


उसकी परेशानी और भी ज़्यादा हो गई।
“मुझे कोई बीमारी-वीमारी नहीं है... लेकिन आपने कैसे समझ लिया कि मैं बीमार हूँ।”
मैंने जवाब दिया
“इस वक़्त आपको जो कोई भी देखेगा


यही कहेगा कि आप बहुत बीमार हैं। आपका रंग ख़ौफ़नाक तौर पर ज़र्द हो रहा है... मेरा ख़याल है आपको घर चले जाना चाहिए। आईए मैं आप को छोड़ आऊं।”
“नहीं मैं चला जाऊंगा। मगर मैं बीमार नहीं हूँ... कभी कभी मेरे दिल में मामूली सा दर्द पैदा हो जाया करता है। शायद वही हो... मैं अभी ठीक हो जाऊंगा
आप अपनी गुफ़्तुगू जारी रखिए।”
मैं थोड़ी देर ख़ामोश रहा क्योंकि वो ऐसी हालत में नहीं था कि मेरी बात ग़ौर से सुन सकता। लेकिन जब उसने इसरार किया तो मैंने कहना शुरू किया


“मैं आप से ये पूछ रहा था कि उन लोगों के मुतअल्लिक़ आपका क्या ख़याल है जो मोहब्बत करने के मुआमले में बांझ होते हैं... मैं ऐसे आदमियों के जज़्बात और उनकी अंदरूनी कैफ़ियात का अंदाज़ा नहीं कर सकता। लेकिन जब मैं उस बांझ औरत का तसव्वुर करता हूँ जो सिर्फ़ एक बेटी या बेटा हासिल करने के लिए दुआएं मांगती है। ख़ुदा के हुज़ूर में गिड़गिड़ाती है और जब वहां से कुछ नहीं मिलता तो टोने-टोटकों में अपना गौहर-ए-मक़सूद ढूंढती है।
“शमशानों से राख लाती है
कई कई रातें जाग कर साधुओं के बताए हुए मंत्र पढ़ती हैं। मन्नतें मानती है
चढ़ावे चढ़ाती है तो मैं ख़याल करता हूँ कि उस आदमी की भी यही हालत होती होगी जो मोहब्बत के मुआमले में बांझ हो... ऐसे लोग वाक़ई हमदर्दी के क़ाबिल हैं। मुझे अंधों पर इतना रहम नहीं आता जितना इन लोगों पर आता है।”


उसकी आँखों में आँसू आ गए और वो थूक निगल कर दफ़अतन उठ खड़ा हुआ और परली तरफ़ मुँह कर के कहने लगा
“ओह बहुत देर हो गई। मुझे ज़रूरी काम के लिए जाना था
यहां बातों-बातों में कितना वक़्त गुज़र गया।”
मैं भी उठ खड़ा हुआ। वो पलटा और जल्दी से मेरा हाथ दबा कर लेकिन मेरी तरफ़ देखे बग़ैर उसने


“अब रुख़्सत चाहता हूँ” कहा और चल दिया।
दूसरी मर्तबा उससे मेरी मुलाक़ात फिर अपोलोबंदर ही पर हुई। मैं सैर का आदी नहीं हूँ। मगर उस ज़माने में हर शाम अपोलोबंदर पर जाना मेरा दस्तूर हो गया था। एक महीने के बाद जब मुझे आगरा के एक शायर ने एक लंबा-चौड़ा ख़त लिखा जिसमें उसने निहायत ही हरीसाना तौर पर अपोलोबंदर और वहां जमा होने वाली परियों का ज़िक्र किया और मुझे इस लिहाज़ से बहुत ख़ुशक़िस्मत कहा कि मैं बंबई में हूँ
तो अपोलो बंदर से मेरी दिलचस्पी हमेशा के लिए फ़ना हो गई।
अब जब कभी कोई मुझे अपोलोबंदर जाने को कहता है तो मुझे आगरे के शायर का ख़त याद आजाता है और मेरी तबीयत मतला जाती है। लेकिन मैं उस ज़माने का ज़िक्र कर रहा हूँ


जब ख़त मुझे नहीं मिला था और मैं हर रोज़ जाकर शाम को अपोलोबंदर के उस बेंच पर बैठा करता था जिसके उस तरफ़ कई आदमी चम्पी वालों से अपनी खोपड़ियों की मरम्मत कराते रहते हैं।
दिन पूरी तरह ढल चुका था और उजाले का कोई निशान बाक़ी नहीं रहा था। अक्तूबर की गर्मी में कमी वाक़े नहीं हुई थी। हवा चल रही थी... थके हुए मुसाफ़िर की तरह। सैर करने वालों का हुजूम ज़्यादा था। मेरे पीछे मोटरें ही मोटरें खड़ी थीं। बेंच भी सब के सब पुर थे।
जहां बैठा करता था
वहां दो बातूनी एक गुजराती और एक पार्सी न जाने कब के जमे हुए थे। दोनों गुजराती बोलते थे


मगर मुख़्तलिफ़ लब-ओ-लहजा से। पार्सी की आवाज़ में दो सुर थे। वो कभी बारीक सुर में बात करता था कभी मोटे सुर में। जब दोनों तेज़ी से बोलना शुरू कर देते तो ऐसा मालूम होता जैसे तोते-मैना की लड़ाई हो रही है।
मैं उनकी लामुतनाही गुफ़्तुगू से तंग आकर उठा और टहलने की ख़ातिर ताजमहल होटल का रुख़ करने ही वाला था कि सामने से मुझे वो आता दिखाई दिया। मुझे उसका नाम मालूम नहीं था। इसलिए मैं उसे पुकार न सका। लेकिन जब उसने मुझे देखा तो उसकी निगाहें साकिन हो गईं। जैसे उसे वो चीज़ मिल गई हो जिसकी उसे तलाश थी।
कोई बेंच ख़ाली नहीं था। इसलिए मैंने उससे कहा
“आप से बहुत देर के बाद मुलाक़ात हुई... चलिए सामने रेस्तोराँ में बैठते हैं। यहां कोई बेंच ख़ाली नहीं।”


उसने रस्मी तौर पर चंद बातें कीं और मेरे साथ हो लिया। चंद गज़ों का फ़ासिला तय करने के बाद हम दोनों रेस्तोराँ में बेद की कुर्सियों पर बैठ गए। चाय का आर्डर देकर मैंने उसकी तरफ़ सिगरेटों का टिन बढ़ा दिया। इत्तिफ़ाक़ की बात है
मैंने उसी रोज़ दस रुपये दे कर डाक्टर अरोलकर से मशवरा लिया था और उसने मुझ से कहा था कि अव़्वल तो सिगरेट पीना ही मौक़ूफ़ कर दो और अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते तो अच्छे सिगरेट पिया करो।
मिसाल के तौर पर पाँच सौ पचपन... चुनांचे मैंने डाक्टर के कहने के मुताबिक़ ये टिन उसी शाम ख़रीदा था। उसने डिब्बे की तरफ़ ग़ौर से देखा। फिर मेरी तरफ़ निगाहें उठाईं
कुछ कहना चाहा मगर ख़ामोश रहा।


मैं हंस पड़ा
“आप ये न समझिएगा कि मैंने आपके कहने पर ये सिगरेट पीना शुरू किए हैं... इत्तिफ़ाक़ की बात है कि आज मुझे भी डाक्टर अरोलकर के पास जाना पड़ा क्योंकि कुछ दिनों से मेरे सीने में दर्द हो रहा है
चुनांचे उसने मुझसे कहा कि ये सिगरेट पिया करो लेकिन बहुत कम...”
मैंने ये कहते हुए उसकी तरफ़ देखा और महसूस किया कि उसको मेरी ये बातें नागवार मालूम हुई हैं। चुनांचे मैंने फ़ौरन जेब से वो नुस्ख़ा निकाला जो डाक्टर अरोलकर ने मुझे लिख कर दिया था। ये काग़ज़ मेज़ पर मैंने उसके सामने रख दिया। “ये इबारत मुझ से पढ़ी तो नहीं जाती। मगर ऐसा मालूम होता है कि डाक्टर साहिब ने विटामिन का सारा ख़ानदान इस नुस्खे़ में जमा कर दिया है।”


उस काग़ज़ को जिस पर उभरे हुए काले हुरूफ़ में डाक्टर अरोलकर का नाम और पता मुंदर्ज था और तारीख़ भी लिखी हुई थी। उसने चोर निगाहों से देखा और वो इज़्तिराब जो उसके चेहरे पर पैदा हो गया था फ़ौरन दूर हो गया। चुनांचे उसने मुसकरा कर कहा
“क्या वजह है कि अक्सर लिखने वालों के अंदर विटामिन्ज़ ख़त्म हो जाती हैं?”
मैंने जवाब दिया
“इसलिए कि उन्हें खाने को काफ़ी नहीं मिलता। काम ज़्यादा करते हैं। लेकिन उजरत बहुत कम मिलती है।”


इसके बाद चाय आगई और दूसरी बातें शुरू हो गईं।
पहली मुलाक़ात और इस मुलाक़ात में ग़ालिबन ढाई महीने का फ़ासिला था। उसके चेहरे का रंग पहले से ज़्यादा पीला था। आँखों के गिर्द स्याह हल्क़े पैदा हो रहे थे। उसे ग़ालिबन कोई तकलीफ़ थी जिसका एहसास उसे हर वक़्त रहता था क्योंकि बातें करते करते बा'ज़ औक़ात वो ठहर जाता और उसके होंटों में से ग़ैर इरादी तौर पर आह निकल जाती। अगर हँसने की कोशिश भी करता तो उसके होंटों में ज़िंदगी पैदा नहीं होती थी।
मैंने ये कैफ़ियत देख कर उससे अचानक तौर पर पूछा
“आप उदास क्यों हैं?”


“उदास... उदास।” एक फीकी सी मुस्कुराहट जो उन मरने वालों के लबों पर पैदा हुआ करती है जो ज़ाहिर करना चाहते हैं कि वो मौत से ख़ाइफ़ नहीं। उसके होंटों पर फैली
“मैं उदास नहीं हूँ। आपकी तबीयत उदास होगी।”
ये कह कर उसने एक ही घूँट में चाय की प्याली ख़ाली कर दी और उठ खड़ा हुआ
“अच्छा तो मैं इजाज़त चाहता हूँ... एक ज़रूरी काम से जाना है।”


मुझे यक़ीन था कि उसे किसी ज़रूरी काम से नहीं जाना है। मगर मैंने उसे न रोका और जाने दिया। इस दफ़ा फिर उसका नाम दरयाफ्त न कर सका। लेकिन इतना पता चल गया कि वो ज़ेहनी और रुहानी तौर पर बेहद परेशान था। वो उदास था। बल्कि यूं कहिए कि उदासी उसकी रग-ओ-रशे में सरायत कर चुकी थी। मगर वो नहीं चाहता था कि उसकी उदासी का दूसरों को इल्म हो।
वो दो ज़िंदगियां बसर करना चाहता था। एक वो जो हक़ीक़त थी और एक वो जिसकी तख़लीक़ में हर घड़ी
हर लम्हा मसरूफ़ रहता था। लेकिन उसकी ज़िंदगी के ये दोनों पहलू नाकाम थे। क्यों? ये मुझे मालूम नहीं।
उससे तीसरी मर्तबा मेरी मुलाक़ात फिर अपोलोबंदर पर हुई। इस दफ़ा मैं उसे अपने घर ले गया। रास्ते में हमारी कोई बातचीत न हुई लेकिन घर पर उसके साथ बहुत सी बातें हुईं। जब वो मेरे कमरे में दाख़िल हुआ तो उसके चेहरे पर चंद लम्हात के लिए उदासी छा गई। मगर वो फ़ौरन सँभल गया और उसने अपनी आदत के ख़िलाफ़ अपने आप को बहुत तर-ओ-ताज़ा और बातूनी ज़ाहिर करने की कोशिश की।


उसको इस हालत में देख कर मुझे उस पर और भी तरस आगया। वो एक मौत जैसी यक़ीनी हक़ीक़त को झुटला रहा था और मज़ा ये है कि इस ख़ुदफ़रेबी से कभी कभी वो मुतमइन भी नज़र आता था।
बातों के दौरान में उसकी नज़र मेरे मेज़ पर पड़ी। शीशे के फ्रेम में उसको एक लड़की की तस्वीर नज़र आई। उठ कर उसने तस्वीर की तरफ़ जाते हुए कहा
“क्या मैं आपकी इजाज़त से ये तस्वीर देख सकता हूँ।”
मैंने कहा


“बसद शौक़।”
उसने तस्वीर को एक नज़र देखा और देख कर कुर्सी पर बैठ गया
“अच्छी ख़ूबसूरत लड़की है... मैं समझता हूँ कि आप की...”
“जी नहीं... एक ज़माना हुआ। इससे मोहब्बत करने का ख़याल मेरे दिल में पैदा हुआ था। बल्कि यूं कहिए कि थोड़ी सी मोहब्बत मेरे दिल में पैदा भी हो गई थी। मगर अफ़सोस है कि उसको उसकी ख़बर तक न हुई। और मैं... मैं... नहीं। बल्कि वो ब्याह दी गई... ये तस्वीर मेरी पहली मोहब्बत की यादगार है


जो अच्छी तरह पैदा होने से पहले ही मर गई...”
“ये आपकी मोहब्बत की यादगार है... इसके बाद तो आपने और भी बहुत सी रुमान लड़ाए होंगे।” उसने अपने ख़ुश्क होंटों पर ज़बान फेरी
“यानी आपकी ज़िंदगी में तो कई ऐसी ना-मुकम्मल और मुकम्मल मोहब्बतें मौजूद होंगी।”
मैं कहने ही वाला था कि जी नहीं ख़ाकसार भी मोहब्बत के मुआमले में आप जैसा बंजर है। मगर जाने क्यों ये कहता कहता रुक गया और ख़्वाहमख़्वाह झूट बोल दिया


“जी हाँ... ऐसे सिलसिले होते रहते हैं... आपकी किताब-ए-ज़िंदगी भी तो ऐसे वाक़ियात से भरपूर होगी।”
वो कुछ न बोला और बिल्कुल ख़ामोश हो गया। जैसे किसी गहरे समुंदर में ग़ोता लगा गया है। देर तक जब वो अपने ख़यालात में ग़र्क़ रहा और मैं उसकी ख़ामोशी से उदास होने लगा तो मैंने कहा
“अजी हज़रत! आप किन ख़यालात में खो गए?”
वो चौंक पड़ा


“मैं... मैं... कुछ नहीं मैं ऐसे ही कुछ सोच रहा था।”
मैंने पूछा
“कोई बीती कहानी याद आ गई। कोई बिछड़ा हुआ सपना मिल गया... पुराने ज़ख़्म हरे हो गए।”
“ज़ख़्म... पुराने ज़ख़्म... कई ज़ख़्म नहीं... सिर्फ़ एक ही है


बहुत गहरा
बहुत कारी और ज़ख़्म मैं चाहता भी नहीं। एक ही ज़ख़्म काफ़ी है”
ये कह कर वो उठ खड़ा हुआ और मेरे कमरे में टहलने की कोशिश करने लगा क्योंकि इस छोटी सी जगह में जहां कुर्सियां
मेज़ और चारपाई सब कुछ पड़ा था


टहलने के लिए कोई जगह नहीं थी। मेज़ के पास उसे रुकना पड़ा।
तस्वीर को अब की दफ़ा गहरी नज़रों से देखा और कहा
“इसमें और उसमें कितनी मुशाबहत है... मगर उसके चेहरे पर ऐसी शोख़ी नहीं थी। उसकी आँखें बड़ी थीं मगर इन आँखों की तरह उनमें शरारत नहीं थी। वो फ़िक्रमंद आँखें थी। ऐसी आँखें जो देखती भी हैं और समझती भी हैं...” ये कहते हुए उसने एक सर्द आह भरी और कुर्सी पर बैठ गया।
“मौत बिल्कुल नाक़ाबिल-ए-फ़हम चीज़ है। खासतौर पर उस वक़्त जब कि ये जवानी में आए... मैं समझता हूँ कि ख़ुदा के इलावा एक ताक़त और भी है जो बड़ी हासिद है जो किसी को ख़ुश देखना नहीं चाहती... मगर छोड़िए इस क़िस्से को।”


मैंने उससे कहा
“नहीं नहीं
आप सुनाते जाइए... लेकिन अगर आप ऐसा मुनासिब समझें
सच पूछिए तो मैं ये समझ रहा था कि आपने कभी मोहब्बत की ही न होगी।”


“ये आपने कैसे समझ लिया कि मैंने कभी मोहब्बत की ही नहीं और अभी अभी तो आप कह रहे थे कि मेरी किताब-ए-ज़िंदगी ऐसे कई वाक़ियात से भरी पड़ी होगी।” ये कह कर उसने मेरी तरफ़ सवालिया निगाहों से देखा।
“मैंने अगर मोहब्बत नहीं की तो ये दुख मेरे दिल में कहाँ से पैदा हो गया है? मैंने अगर मोहब्बत नहीं की तो मेरी ज़िंदगी को ये रोग कहाँ से चिमट गया है? मैं रोज़ बरोज़ मोम की तरह क्यों पिघला जा रहा हूँ?”
बज़ाहिर ये तमाम सवाल वो मुझ से कर रहा था
मगर दरअसल वो सब कुछ अपने आप ही से पूछ रहा था।


मैंने कहा
“मैंने झूट बोला था कि आपकी ज़िंदगी में ऐसे कई वाक़ियात होंगे। मगर आपने भी झूट बोला था कि मैं उदास नहीं हूँ और मुझे कोई रोग नहीं है... किसी के दिल का हाल जानना आसान बात नहीं है
आपकी उदासी की और बहुत सी वजहें हो सकती हैं। मगर जब तक मुझे आप ख़ुद न बताएं
मैं किसी नतीजे पर कैसे पहुंच सकता हूँ... इसमें कोई शक नहीं कि आप वाक़ई रोज़ बरोज़ कमज़ोर होते जा रहे हैं। आपको यक़ीनन बहुत बड़ा सदमा पहुंचा है और... और... मुझे आपसे हमदर्दी है।”


“हमदर्दी...” उसकी आँखों में आँसू आ गए। मुझे किसी की हमदर्दी की ज़रूरत नहीं इसलिए कि हमदर्दी उसे वापस नहीं ला सकती... उस औरत को मौत की गहराईयों से निकाल कर मेरे हवाले नहीं कर सकती जिससे मुझे प्यार था... आपने मोहब्बत नहीं की... मुझे यक़ीन है
आपने मोहब्बत नहीं की
इसलिए कि उसकी नाकामी ने आप पर कोई दाग़ नहीं छोड़ा... मेरी तरफ़ देखिए”
ये कह कर उसने ख़ुद अपने आप को देखा।


“कोई जगह आपको ऐसी नहीं मिलेगी। जहां मेरी मोहब्बत के नक़्श मौजूद न हों... मेरा वजूद ख़ुद इस मोहब्बत की टूटी हुई इमारत का मलबा है... मैं आपको ये दास्तान कैसे सुनाऊं और क्यों सुनाऊं जबकि आप उसे समझ ही नहीं सकेंगे... किसी का ये कह देना कि मेरी माँ मर गई है। आपके दिल पर वो असर पैदा नहीं कर सकता जो मौत ने बेटे पर किया था... मेरी दास्तान-ए-मोहब्बत आपको... किसी को भी बिल्कुल मामूली मालूम होगी। मगर मुझ पर जो असर हुआ है
उससे कोई भी आगाह नहीं हो सकता। इसलिए कि मोहब्बत मैंने की है और सब कुछ सिर्फ़ मुझी पर गुज़रा है।”
ये कह कर वो ख़ामोश हो गया। उसके हलक़ में तल्ख़ी पैदा हो गई थी क्योंकि वो बार-बार थूक निगलने की कोशिश कर रहा था।
“क्या वो आपको धोका दे गई?” मैंने उससे पूछा


“या कुछ और हालात थे?”
“धोका... वो धोका दे ही नहीं सकती थी। ख़ुदा के लिए धोका न कहिए। वो औरत नहीं फ़रिश्ता थी। मगर बुरा हो उस मौत का जो हमें ख़ुश न देख सकी और उसे हमेशा के लिए अपने परों में समेट कर ले गई... आह! आपने मेरे दिल पर ख़राशें पैदा कर दी हैं।”
सुनिए... सुनिए
मैं आपको दर्दनाक दास्तान का कुछ हिस्सा सुनाता हूँ... वो एक बड़े और अमीर घराने की लड़की थी जिस ज़माने में उसकी और मेरी पहली मुलाक़ात हुई। मैं अपने बाप-दादा की सारी जायदाद अय्याशियों में बर्बाद कर चुका था। मेरे पास एक कौड़ी भी नहीं थी। फिर बंबई छोड़कर मैं लखनऊ चला आया। अपनी मोटर चूँकि मेरे पास हुआ करती थी। इसलिए मैं सिर्फ़ मोटर चलाने का काम जानता था। चुनांचे मैंने उसी को अपना पेशा क़रार देने का फ़ैसला किया। पहली मुलाज़मत मुझे डिप्टी साहब के यहां मिली। जिनकी इकलौती लड़की थी...” ये कहते कहते वो अपने ख़यालात में खो गया और दफ़अतन ख़ामोश रहा। मैं भी चुप हो गया।


थोड़ी देर बाद वो फिर चौंका और कहने लगा
“मैं क्या कह रहा था?”
“आप डिप्टी साहब के यहां मुलाज़िम हो गए।”
“हाँ वो उन्ही डिप्टी साहब की इकलौती लड़की थी हर रोज़ सुबह नौ बजे मैं ज़ुहरा को मोटर में स्कूल ले जाया करता था। वो पर्दा करती थी मगर मोटर ड्राईवर से कोई कब तक छुप सकता है। मैंने उसे दूसरे रोज़ ही देख लिया... वो सिर्फ़ ख़ूबसूरत ही नहीं थी। उसमें एक ख़ास बात भी थी... बड़ी संजीदा और मतीन लड़की थी। उसकी सीधी मांग ने उसके चेहरे पर एक ख़ास क़िस्म का वक़ार पैदा कर दिया था... वो... मैं क्या अर्ज़ करूं वो क्या थी। मेरे पास अल्फ़ाज़ नहीं हैं कि मैं उसकी सूरत और सीरत बयान कर सकूं...”


बहुत देर तक वो अपनी ज़ुहरा की खूबियां बयान करता रहा। इस दौरान में उसने कई मर्तबा उसकी तस्वीर खींचने की कोशिश की। मगर नाकाम रहा। ऐसा मालूम होता था कि ख़यालात उसके दिमाग़ में ज़रूरत से ज़्यादा जमा हो गए हैं।
कभी कभी बात करते करते उसका चेहरा तमतमा उठता। लेकिन फिर उदासी छा जाती और वो आहों में गुफ़्तुगू करना शुरू कर देता। वो अपनी दास्तान बहुत आहिस्ता आहिस्ता सुना रहा था। जैसे ख़ुद भी मज़ा ले रहा हो। एक एक टुकड़ा जोड़ कर उसने सारी कहानी पूरी की जिसका माहस्ल ये था।
ज़ुहरा से उसे बेपनाह मोहब्बत हो गई। कुछ दिन तो मौक़ा पा कर उसका दीदार करने और तरह तरह के मंसूबे बांधने में गुज़र गए। मगर जब उसने संजीदगी से उस मोहब्बत पर ग़ौर किया तो ख़ुद को ज़ुहरा से बहुत दूर पाया। एक मोटर ड्राईवर अपने आक़ा की लड़की से मोहब्बत कैसे कर सकता है? चुनांचे जब इस तल्ख़ हक़ीक़त का एहसास उसके दिल में पैदा हुआ तो वो मग़्मूम रहने लगा। लेकिन एक दिन उसने बड़ी जुरअत से काम लिया
काग़ज़ के एक पुरज़े पर उसने ज़ुहरा को चंद सतरें लिखीं... ये सतरें मुझे याद हैं।


“ज़ुहरा! मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम्हारा नौकर हूँ! तुम्हारे वालिद साहब मुझे तीस रुपये माहवार देते हैं। मगर मैं तुम से मोहब्बत करता हूँ... मैं क्या करूं
क्या न करूं
मेरी समझ में नहीं आता...”
ये सतरें काग़ज़ पर लिख कर उसने काग़ज़ उसकी किताब में रख दिया। दूसरे रोज़ जब वो उसे मोटर में स्कूल ले गया तो उसके हाथ काँप रहे थे। हैंडल कई बार उसकी गिरफ्त से निकल निकल गया। मगर ख़ुदा का शुक्र है कि कोई एक्सीडेंट न

- सआदत-हसन-मंटो


इंसान ने इंसान को ईज़ा पहुँचाने के लिए जो मुख़्तलिफ़ आले और तरीक़े इख़्तियार किए हैं उनमें सबसे ज़ियादा ख़तरनाक है टेलीफ़ोन साँप के काटे का मंत्र तो हो सकता है मगर टेलीफ़ोन के मारे को तो पानी भी नहीं मिलता।
मुझे तो रात-भर इस कम्बख़्त के डर से नींद नहीं आती कि सुब्ह-सवेरे न जाने किस की मनहूस आवाज़ सुनाई देगी। दो ढ़ाई बजे आँख लग भी गई तो ख़्वाब में क्या देखता हूँ कि सारी दुनिया की घंटियाँ और घंटे-घड़ियाल बेक-वक़्त बजने शुरू’ हो गए। मंदिरों के पीतल के बड़े-बड़े घंटे
पुलिस के थाने का घड़ियाल
दरवाज़ों की बिजली वाली घंटियाँ


साईकलों की ट्रिंग-ट्रिंग
फ़ायर इंजनों की क्लिंग-क्लिंग। और जब आँख खुलती है तो मा’लूम होता है कि टेलीफ़ोन की घंटी बज रही है। इस ग़ैर वक़्त रात को किस का फ़ोन आया है? ज़रूर ट्रंक काल होगी। पल-भर में न जाने कितने वहम दिल धड़काते हैं। एक दोस्त मद्रास में बीमार है। एक रिश्तेदार लंदन और बंबई के दरमियान हवाई जहाज़ में है। भतीजे का मैट्रिक का नतीजा निकलने वाला है।
मैं फ़ोन उठाकर कहता हूँ
“हैलो।”


दूसरी तरफ़ से घबराई हुई आवाज़ आती है
“चुन्नी भाई
केम छो।” मैं कहता हूँ कि यहाँ न कोई चुन्नी भाई है न केम छो। मगर वो कहता है
“चुन्नी भाई। टाटा डलीज़ डार पर जा रहा है।” मैं कहता हूँ


“जाने दो।”
वो गुजराती में गाली देकर कहता है
“कैसे जाने दें... ब्रिटिश इलेक्ट्रिक के सौदे में पहले ही घाटा खा चुके हैं।” मैं समझाता हूँ कि “देखो भाई मैं चुन्नी भाई नहीं हूँ।”
“ओह!” उधर से आवाज़ आती है जैसे एक दम टावर में से हवा निकल गई हो


“तुम चुनी भाई नत्थी छो।” मैं पूछता हूँ
“आपको कौन नंबर चाहिए।” वो कहता है
“ऐट... सेवन... ऐट... सिक्स... सिक्स...” मैं कहता हूँ
“ये तो ऐट सिक्स। ऐट सेवन


सेवन है।”वो कहता है
डाँट कर
“तो पहले ही क्यों नहीं बोलते रोंग नंबर है।”
मैं कहता हूँ


“अच्छा भई मेरा ही दोष है। अब क्षमा करो।”
और फ़ोन रख देता हूँ। और नींद को वापिस बुलाने के लिए भेड़ें गिनना शुरू’ कर देता हूँ।
और फिर सुबह उठकर तो टेलीफ़ोन की घंटी बजने का सिलसिला ही शुरू’ हो जाता है
“आप मुझे नहीं जानते। आपके पुराने वतन पानीपत के क़रीब जो क़स्बा है रेवाड़ी


वहाँ से आया हूँ
फ़िल्म कंपनी में हीरो बनने...”
“मुझे आपसे अपॉइंटमेंट मिनट चाहिए। अपनी कहानियाँ सुनाना चाहता हूँ।”
“अगली इतवार को हमारी अंजुमन का सालाना जलसा और मुशायरा है


आपको आना ही है पड़ेगा... आपके नाम का ऐलान पहले ही कर चुके हैं...”
“पर्चा प्रेस में रुका पड़ा है। सिर्फ़ आपके मज़मून के इंतिज़ार में...”
“देखिए। आप मुझे नहीं जानते। लेकिन क्या आप मुझे कृपा करके राज कपूर का ऐडरेस दे सकते हैं?”
कल सवेरे की बात है कि यही सिलसिला चल रहा था कि एक-बार फिर फ़ोन की घंटी बजी... मैंने हिम्मत करके फ़ोन उठाया


“हैलो...” मैंने कहा। हालाँकि टेलीफ़ोन की डायरेक्टरी हुक्म देती है कि “हैलो” मत कहो।
“हैलो।”
दूसरी तरफ़ से बड़े ही यूरोपीयन अंदाज़ की आवाज़ आई। मैं समझा कोई अमरीकन या अंग्रेज़ बोल रहा है। फिर उसने अंग्रेज़ी में पूछा
“क्या मैं ख़्वाजा अहमद अब्बास से बात कर सकता हूँ।” मैंने अंग्रेज़ी ही में जवाब दिया


“मैं अब्बास ही बोल रहा हूँ। कहिए
कौन साहिब बोल रहे हैं।”
दफ़अ’तन फ़ोन के दूसरे सिरे पर अंग्रेज़ी हिन्दुस्तानी में बदल गई मगर लहजा विलाएती रहा। जैसे कोई इंग्लिस्तान से पढ़ कर दस बरस बा’द हाल ही में लौटा हो।
“क्यों भाई मेरी आवाज़ पहचान सकते हो?”


मैं तकल्लुफ़न झूट बोला
“आवाज़ तो आपकी जानी बूझी मा’लूम होती है लेकिन मुआ’फ़ कीजियेगा उसने मेरी बात काट कर कहा बड़े बे-तकल्लुफ़ अंदाज़ में मगर लहजा वही वलाएती रहा। ऐसा लगता था जैसे कोई अंग्रेज़ी फ़ौज का करनैल हिन्दुस्तानी बोल रहा हो
“छोड़ो यार। तुम मेरी आवाज़ पूरे पच्चीस बरस बा’द सुन रहे हो। आख़िरी बार हम लखनऊ में मिले थे। उन्निस सौ छत्तीस में।” न जाने कैसे मेरे दिमाग़ में एक घंटी सी बजी। मैंने कहा
“बृजेन्द्र कुमार सिंह? बिरजू?”


उधर से आवाज़
“राइट बिरजू।”
“बिरजू
मैंने ख़ुशी से चिल्ला कर कहा... कहो भई इतने दिन कहाँ रहे


क्या करते रहे? आजकल क्या करते हो?”
टेलीफ़ोन पर भी मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे दूसरी तरफ़ जवाब देने से पहले उसने एक लंबी ठंडी साँस ली हो। जब वो बोला तो उसकी आवाज़ बिल्कुल ही बदली हुई थी। जैसे एक दम किसी गहरी फ़िक्र में डूब गई हो
“ये सब एक लंबी कहानी है। क्या मैं तुमसे अभी मिलने आ सकता हूँ?” मैंने कहा
“मैं तो शहर से बहुत दूर जुहू में रहता हूँ। मगर हर-रोज़ दोपहर को मैं शहर आता ही हूँ। ऐसा क्यों न करें किसी रेस्तौरान में इकट्ठे लंच खाएँ। अब यहाँ बंबई में भी तुम्हारे लखनऊ की तरह एक मेफ़ैर (mayfair) रेस्तौरान खुल गया है।


“मेफ़ैर?”
उसने रेस्तौरान का नाम ऐसे दुहराया जैसे दफ़अ’तन किसी ने उसकी चुटकी ले ली हो
“नहीं नहीं। मैं तुमसे किसी रेस्तौरान में नहीं मिलना चाहता। वहाँ बहुत लोग जमा होते हैं। हम इत्मीनान से बातें नहीं कर सकेंगे।
“अच्छा” मैंने कहा


“तो तुम यहाँ ही आ जाओ। मैं तुम्हारा इंतिज़ार करूँगा। कितने बजे आओगे?”
“जितनी देर टैक्सी को चर्चगेट से जुहू पहुँचने में टाइम लगेगा”
“कोई चालीस पैंतालीस मिनट में अपने बरामदे में खड़ा मिलूँगा।”
अगले पैंतालीस मिनट तक पच्चीस बरस पुरानी तस्वीरें मेरे दिमाग़ में उभरती रहीं।


बिरजू।
बृजेन्द्र।
बृजेन्द्र कुमार सिंह।
कुँवर बृजेन्द्र कुमार सिंह।


बिरजू।
हमारा यार बिरजू।
बिरजू दी ब्रेज़ेंट।
बिरजू जो ख़ूबसूरत था


कद्दावर था
ज़हीन था
टेनिस का चैंपियन था और यूनियन में बेहतरीन मुक़र्रर था।
बिरजू जिसके पीछे दर्जनों लड़कियाँ दीवानी थीं।


हाईकोर्ट के जज जस्टिस सर रमेश सक्सेना की बेटी आशा सक्सेना जो आई
टी कॉलेज में पढ़ती थी।
डॉक्टर सतीश बनर्जी की लड़की करूणा जिसकी ख़ूबसूरत आँखें जेमिनी रॉय की किसी तस्वीर से चुराई हुई लगती थीं।
प्रोफ़ेसर हामिद अली की छोटी बहन


सुरय्या माजिद अली जिसने करामत हुसैन गर्लज़ स्कूल का पर्दा-दार माहौल छोड़कर यूनीवर्सिटी में उसी साल दाख़िला लिया था और जो हर डिबेट और ड्रामे में यूनियन हॉल में सबसे आगे बैठती थी ताकि बिरजू को दिल भर कर देख सके।
सरला माथुर जो हिन्दी में एम-ए कर रही थी और कवीता लिखती थी और जिसकी हर कवीता में बिरजू का रूप झलकता था।
मोहना जसपाल सिंह जो निहायत ख़ूबसूरत थी और एक छोटे-मोटे जागीरदार की बेटी थी और जिसने सिर्फ़़ बिरजू की वज्ह से यूनीवर्सिटी में दाख़िला लिया था।
सल्लू या टाॅमसन जो स्टेशन मास्टर की लड़की थी और रेलवे क्लब के हर डांस में बिरजू को दावत देने ख़ुद उसके हॉस्टल जाती थी। हालाँकि वहाँ लड़कीयों का दाख़िला ममनू था।


बिरजू...
वाक़ई वो कितना क़ाबिल रश्क नौजवान था।
पहली बार जब मेरी मुलाक़ात उससे हुई तो वो अलीगढ़ यूनीवर्सिटी की ऑल इंडिया डिबेट में हिस्सा लेने लखनऊ यूनीवर्सिटी की तरफ़ से आया था।
छब्बीस बरस बा’द भी मुझे उससे वो पहली मुलाक़ात अच्छी तरह याद थी। मैं अपनी यूनीवर्सिटी यूनियन की तरफ़ आने वाले मेहमानों का इस्तक़बाल करने स्टेशन गया। उस ट्रेन से लखनऊ


इलाहाबाद
बनारस
कानपूर के कॉलिजों के डिबेटर आए थे। कुल मिलाकर वो सब शायद बारह या चौदह थे। लेकिन उन सब में एक सबसे नुमायाँ था। न सिर्फ़ इसलिए कि वो सबसे ज़ियादा कद्दावर था और बंद गले और पूरी आस्तीनों के स्वेटर में उसका कसरती बदन अपालो के बुत की तरह गट्ठा हुआ और सुडौल था बल्कि इसलिए भी कि उसके चेहरे पर एक अ’जीब मुस्कुराहट थी। और जब मैंने उससे हाथ मिलाया तो उसके शेक हैंड में बड़ा ख़ुलूस था और गर्म-जोशी थी जिससे मा’लूम होता था कि हम लोगों से मिलकर उसे वाक़ई बड़ी ख़ुशी हुई है। उसी एक पल ही में मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे हम दोनों बड़े पुराने दोस्त हूँ। और बरसों से एक दूसरे को जानते हूँ। फिर ऑल इंडिया डेबिट हुई। मौज़ू ज़ेर-ए-बहस ये था कि
“समाजी इन्क़िलाब के बग़ैर सयासी आज़ादी काफ़ी नहीं है।”


मैं उस मौज़ू के ख़िलाफ़ बोला। अपनी तक़रीर में मैंने साम्राज्य के ख़िलाफ़ और क़ौमी आज़ादी की तहरीक की हिमायत में निहायत जज़्बाती तक़रीर की और उन लोगों को ख़ूब लताड़ा जो जंग-ए-आज़ादी की क़ुर्बानीयों और ख़तरों से बचने के लिए समाज सुधार के गोश-ए-आफ़ियत में पनाह ढूंडते हैं। मेरी तक़रीर ख़त्म हुई तो ख़ूब ज़ोर की तालियाँ बजीं और मैंने यही समझा कि मैंने मैदान मार लिया है।
मेरे बा’द लखनऊ यूनीवर्सिटी के बृजेन्द्र कुमार सिंह का नाम पुकारा गया। अब वो सफ़ेद फ़लालीन की पतलून पर बंद गले का सियाह जोधपुरी कोट पहने हुए था। और इसमें कोई शक नहीं कि इस लिबास में वो बड़ा ही जच रहा था। अभी उसने तक़रीर शुरू’ नहीं की थी कि ऊपर गैलरी में जहाँ चक्कों के पीछे गर्ल्स कॉलेज की लड़कियाँ बैठी हुई थीं
दिलचस्पी की एक सरसराहाट सी दौड़ गई और चक्कों के बीच में से सियाह ख़ूबसूरत आँखें और रंगीन आँचल झिलमिलाने लगे।
“मिस्टर प्रेसिडेंट” उसने निहायत शुस्ता अंग्रेज़ी लहजा में तक़रीर शुरू’ की। मुझसे पहले मेरे दोस्त ने जब अपनी तक़रीर ख़त्म की तो सबने पुरजोश तालियाँ बजाईं। मैंने भी तालियाँ बजाईं। वो तक़रीर वाक़ई लाजवाब थी। मेरे ख़याल में बेहतरीन तक़रीर के लिए इनआ’म मेरे इस दोस्त ही को मिलना चाहिए। इसलिए कि इतने कमज़ोर दलाइल को इतनी ख़ूबसूरती और इतने ज़ोर-ओ-शोर से पेश करना वाक़ई बड़ा कारनामा है। और इससे पहले कि मैं ये फ़ैसला कर सकूँ कि वो वाक़ई मेरी तारीफ़ कर रहा है या मज़ाक़ उड़ा रहा है। उसने मुड़ कर मेरी तरफ़ देखा और मुस्कराकर कहा


“मुझे यक़ीन है कि मेरे दोस्त एक बहुत कामयाब वकील साबित होंगे…”
और इस पर सारे हॉल में इतने ज़ोर का क़हक़हा पड़ा कि उसकी लहरों में मेरे तमाम ज़ोरदार दलाइल बह गए।
उसे डीबेट में अव़्वल इन’आ’म मिला... मुझे दूसरा... वो तीन दिन अलीगढ़ ठहरा। पहले दिन वो मिस्टर बृजेन्द्र कुमार सिंह था। दूसरे दिन सिर्फ़ “बिरजू” रह गया। जब दिलों और दिमाग़ों की हम-आहंगी हो तो ग़ैरियत के फ़ासले कितनी जल्दी दूर हो जाते हैं। स्टेशन पर जब मैं उसे छोड़ने गया तो मैंने उससे पूछा था
“बिरजू ये बात कि समाजी इन्क़िलाब सियासी आज़ादी से ज़ियादा ज़रूरी है। तुमने ऐसी ही डिबेट की ख़ातिर इतने ज़ोर-ओ-शोर से कही या तुम वाक़ई इसमें ए’तिक़ाद रखते हो?”


पच्चीस छब्बीस बरस के बा’द भी उसका जवाब मेरे कानों में गूँज रहा था। उसने कहा था
“सुनो मुल्कों और क़ौमों की आज़ादी ज़रूरी है लेकिन इतनी मुश्किल नहीं। समाजी इन्क़िलाब जो हमारे दिमाग़ों को सदीयों के तअस्सुबात और वहमों से आज़ाद करे वो मुश्किल काम है
और जब तक हमारे दिमाग़ आज़ाद नहीं होंगे हमारे मुल्क की सियासी आज़ादी ग़ैर-मुकम्मल रहेगी।”
फिर उसने और बड़ी पते की बातें कही थीं


“फ़र्ज़ करो हिन्दोस्तान आज़ाद हो गया और हमारे-तुम्हारे दिमाग़ मज़हबी जुनून और फ़िर्कावाराना तअस्सुब और नफ़रत के बंधनों से आज़ाद न हुए तो ज़रा सोचो क्या होगा। इतने बरसों की ता’लीम और समाज सुधार की बातें करने के बा’द भी हम पढ़े-लिखे हिंदूओं में से कितने हैं जिन्होंने अपने ज़ेहनों को पूरी तरह ज़ात-पात के बंधनों से आज़ाद कर लिया है? तुम मुस्लमानों में कितने हैं जो सच-मुच शेख़
मुग़ल
पठान
जुलाहे


कुम्हार को बराबर समझते हैं?”
मैंने उससे पूछा था
“और बिरजू तुम...? क्या तुम्हारा दिल और दिमाग़ इन बंधनों से आज़ाद है? क्या तुम बड़े ख़ानदान के राजपूत हो कर एक अछूत लड़की से ब्याह कर सकते हो? या किसी तवाइफ़-ज़ादी को अपनी पत्नी बना सकते हो?”
उसने मेरी आँखों में आँखें डाल कर कहा था


“अगर मुझे उससे मुहब्बत हो तो ज़रूर कर सकता हूँ। और वक़्त आया तो करके दिखा दूँगा।” और फिर उसकी ट्रेन आगई और वो लखनऊ वापस चला गया।
उसके बा’द हम एक और ऑल इंडिया डिबेट के सिलसिले में बनारस में मिले थे। और सारनाथ के खंडरों में साथ घूमे थे और बिरजू ने मुझे महात्मा बुद्ध के हालात-ए-ज़िंदगी सुनाए थे और कहा था
“अगर धर्म और मज़हब के ख़याल ही से मैं बेज़ार न हो गया होता तो ज़रूर बुद्ध मत इख़्तियार कर लेता...”
“जानते हो महात्मा बुद्ध का देहांत कैसे हुआ?” उसने म्यूजियम में महात्मा बुद्ध की शांत और मुस्कुराती हुई मूर्ती के सामने खड़े हुए मुझसे कहा था


“वो एक ग़रीब अछूत के हाँ भीक मांगने गए और उस बेचारे के पास घर में सिर्फ़ सड़ा हुआ सुवर का गोश्त था। वही उसने झोली में डाल दिया। और ये जानते हुए कि वो गोश्त सड़कर ज़हरीला हो चुका था उन्होंने उसे खा लिया। जान दे दी मगर किसी ग़रीब अछूत का दिल नहीं तोड़ा...”
फिर जब हम यही बातें सोचते हुए ताँगे में शहर वापस हो रहे थे
हमने दीवारों पर देवदास फ़िल्म के इश्तिहार लगे देखे थे और बिरजू ने कहा था
“और एक भाई देवदास थे कि पार्वती को तो मंजधार में छोड़ा ही था चंदराल का दिल भी तोड़ दिया। और शराब के समंदर में डूब गए। मगर समाज ने इंसनों के दरमियान जो खाइयाँ खोद रखी हैं उनको पार न कर सके।”


मैंने कहा था
“देवदास कोई फ़र्ज़ी फ़िल्मी हीरो नहीं था। शरत बाबू ने एक मा’मूली इंसान का किरदार दिखाया है जो समाज के मुक़ाबले में हमारी-तुम्हारी तरह कमज़ोर था।” और उसने हँसकर कहा था
“तुम्हारी तरह कमज़ोर होगा। अगर ये सूरत-ए-हाल मुझे पेश आई तो मैं कमज़ोर साबित नहीं होंगा।”
उस रात हमलोग बनारस से रुख़्सत हो रहे थे लेकिन हमारी ट्रेनें आधी रात के बा’द रवाना होने वाली थीं। मेरी ट्रेन डेढ़ बजे और बिरजू की ट्रेन पौने तीन बजे। डिबेट के लिए और जितने तालिब-ए-इल्म मुख़्तलिफ़ यूनीवर्सिटीयों से आए थे वो सब जा चुके थे। सिर्फ़ मैं और बिरजू रह गए थे और हमारी देख-भाल करने के लिए बनारस यूनीवर्सिटी का एक एम-ए का तालिब-ए-इल्म था गूंद सक्सेना। खाने के बा’द हम बातें कर रहे थे कि गूंद ने कहा


“रेल में तो अभी कई घंटे हैं चलिए आप लोगों को गाना सुनवा दें...”
मैंने उस वक़्त तक भी किसी तवाइफ़ का गाना नहीं सुना था
मगर बनारस की गाने वालियों की बड़ी तारीफ़ सुनी थी कि पक्के गाने
दादरा और ठुमरी में उनका जवाब नहीं। सो मैंने कहा “ये अच्छा ख़याल है चलो बिरजू...” मगर उसने कहा


“छोड़ो जी
अच्छे ख़ासे यहाँ गपशप कर रहे हैं वहाँ कोई काली मोटी भद्दी बाई जी पान खा-खा के पक्का गाना सुनाएँगी और हमें बोर करेंगी...” इस पर गूंद बोला
“तुम लखनऊ वाले समझते हो कि लखनऊ के चौक के बाहर हुस्न कहीं है ही नहीं... अरे एक-बार लक्ष्मी को देख भी लोगे तो न जाने लखनऊ की कितनी रेलें निकल जाएँगी।”
मगर बिरजू नहीं माना। “तुम्हारी लक्ष्मी बाई तुम बनारस वालों को मुबारक... और सच्ची बात ये है कि कोठे वालियों का गाना सुनने में अपने को कोई दिलचस्पी नहीं।” और मुझे कहने का मौक़ा मिल गया


“क्यों समाज सुधारक जी वेश्या के घर जाते हुए डर लगता है क्या...?” बिरजू को कहना ही पड़ा
“डर तो मुझे शैतान के घर जाते हुए भी नहीं लगता...” और सो हम लोग ताँगा लेकर लक्ष्मी के कोठे के लिए रवाना हो गए।
इतने बरसों के बा’द भी लक्ष्मी की सूरत को मैं न भूला था। छोटा सा बोटा सा क़द
गदराया हुआ जिस्म


गोरी तो नहीं मगर सुनहरी रंगत
घने लंबे बाल जिनको दो चोटियों में गूँधा हुआ था। बड़ी-बड़ी आँखें और बोझल लंबी पलकें। लाली रंगे होंट जिन पर एक अ’जीब सी उदास सी मुस्कुराहट सी खेल रही थी। छोटी सी मगर बड़ी ख़ूबसूरत सी नाक जिसमें हीरा जड़ी एक छोटी सी नथुनी पड़ी हुई थी। गूंद ने मेरे कान में कहा
“इस नथुनी को उतारने के लिए एक जागीरदार साहिब पचास हज़ार तक पेश कर चुके हैं...”
मुजरा शुरू’ हुआ। हमें मानना पड़ा लक्ष्मी जितनी ख़ूबसूरत है उतनी ही सुरीली उसकी आवाज़ है। ठुमरी के बा’द दादरा और दादरा के बा’द ग़ज़ल... गूंद की फ़र्माइश पर एक-आध फ़िल्मी गीत भी हुआ। महफ़िल में कितने ही लोग थे जो भूकी नज़रों से लक्ष्मी को घूर रहे थे। लेकिन मैंने देखा कि ख़ुद लक्ष्मी की निगाहें बिरजू के चेहरे पर जमी हुई हैं। आहिस्ता-आहिस्ता महफ़िल बिखरती गई। अपनी-अपनी जेबें ख़ाली करके लोग उठते गए। फिर सिर्फ़ हम लोग रह गए। मैंने घड़ी देखी। साढे़ बारह बज रहे थे। मैंने कहा


“मेरी गाड़ी का तो वक़्त हो गया। चलो भई गूंद...”
गूंद मेरे साथ उठ खड़ा हुआ। लेकिन जब बिरजू ने उठना चाहा तो लक्ष्मी ने अपना मेहंदी लगा छोटा सा नर्म हाथ उसके सख़्त टेनिस खेलने वाले हाथ पर रख दिया
“आपको हमारी कसम कँवर साहिब लखनऊ की गाड़ी में तो अभी बहुत देर है...” बिरजू ने हैरान हो कर पहले मेरी तरफ़ देखा फिर गूंद की तरफ़। और फिर लक्ष्मी की तरफ़ जिसका हाथ अब तक उसके हाथ पर रखा था। मुझे ऐसा लगा कि वो हमारे साथ उठना भी चाहता है और लक्ष्मी को मायूस करना भी नहीं चाहता। मैंने अंग्रेज़ी में कहा। शाम की गुफ़्तगू का हवाला देते हुए this meat is poisond “इस गोश्त में ज़हर है।”
बिरजू ने भी अंग्रेज़ी में जवाब दिया


“जानता हूँ। मगर किसी का दिल दुखाने से ज़हर खा लेना बेहतर है।”
“चलो गूंद हम चलते हैं।” मैंने किसी क़द्र चिड़ कर कहा। मुझे ऐसा लग रहा था कि मेरा एक अज़ीज़ दोस्त एक गंदी नाली में गिर पड़ा है और वहाँ से निकलना नहीं चाहता।
“अच्छा तो फिर अगले साल लखनऊ की डिबेट में मिलेंगे।” बिरजू ने मुझसे सुल्ह करने के लिए आवाज़ दी मगर मैंने कोई जवाब न दिया। बिरजू का जो ख़्याली मुजस्समा मैंने अपने मन में बनाया था इस लम्हे में वो
चकनाचूर हो गया था। मुझे नहीं मा’लूम था कि समाजी इन्क़िलाब पर तक़रीर करने वाला बिरजू


महात्मा बुद्ध के पवित्र मार्ग पर चलने वाला बिरजू एक मा’मूली रंडी बाज़ निकलेगा। ग़ुस्से से भरा मैं ज़ीने से उतर ही रहा था कि आवाज़ आई “सुनिए” मुड़कर देखा तो लक्ष्मी थी। उसका चेहरा तमतमाया हुआ था और उसके लबों के किनारे काँप रहे थे
“मैंने आपके दोस्त को रोक लिया।” वो बोली
“उसके लिए मैं आपसे क्षमा माँगती हूँ।” मैंने कोई जवाब न दिया और मुड़कर जाने लगा। इस पर उसकी आवाज़ में तीर की सी तेज़ी थी
“जाने से पहले ये सुनते जाईए कि मैं अंग्रेज़ी समझती हूँ अगर मैं ज़हरीला गोश्त हूँ तो कभी ये भी सोचियेगा कि मेरे जीवन में ये बिस किसने घोला है।” मैं कोई जवाब न दे सका और वहाँ से चला आया।


अगले बरस जब मैं लखनऊ ऑल इंडिया डिबेट के लिए गया तो मैं इस वाक़िया को तक़रीबन भूल चुका था। यूनीवर्सिटी के तालिब-ए-इल्मों का किसी तवाइफ़ के कोठे पर गाना सुनने जाना या वहाँ रात-भर के लिए भी ठहर जाना कोई ऐसा ग़ैर-मा’मूली सानिहा नहीं कि इस पर बरसों सोच बिचार की जाए। बिरजू का रवय्या उस वक़्त मुझे ज़रूर बुरा लगा था। मगर बा’द में मैंने ये सोच कर उसे मुआ’फ़ कर दिया था कि जवानी में एक-आध बार किसके पैर नहीं लड़खड़ाते। वो स्टेशन पर मुझे लेने आया था और अगले तीन दिन तक तक़रीबन वो हर वक़्त मेरे साथ ही रहा। वो बी-ए फर्स्ट डवीज़न में पास कर चुका था और अब एम-ए में पढ़ रहा था। कहने लगा
“मेरे माँ बाप तो चाहते हैं मैं आई
सी
एस उसके मुक़ाबले में शरीक हूँ। लेकिन मैं सरकारी नौकरी करना नहीं चाहता।”


मैंने पूछा
“तब क्या करोगे?” बोला
“एम-ए करके किसी छोटे-मोटे कॉलेज में लेक्चरर हो जाऊँगा। या ऐल ऐल बी करके वकालत करूँगा। वर्ना तुम्हारी तरह मैं भी जर्नलिज़्म के मैदान में आ कूदूँगा।” उसने मुझे पूरे लखनऊ की सैर कराई। और इस बार मुझे अंदाज़ा हुआ कि वो लड़कीयों में कितना मक़बूल है। हम यूनीवर्सिटी यूनियन के कैफे में चाय पी रहे थे कि करूणा बनर्जी मिल गई और कहने लगी
“देखो मिस्टर बृजेन्द्र कुमार अमारे बंगाली कॉलेज के प्रोग्राम में ज़रूर आना। हम गुरूदेव का नाटक रक्तोकरोबी कर रहे हैं।” और जब बिरजू ने कहा


“करूणा मेरा आना तो मुश्किल है। ये मेरे दोस्त अलीगढ़ से आए हुए हैं। उनको लखनऊ की सैर करा रहा हूँ” तो वो बोली
“तो अपने फ्रेंड को भी ले आईए न प्लीज़।” और उसकी जेमिनी रॉय की तस्वीर जैसी बंगाली आँखों में प्यार ही प्यार भरा हुआ था।
वहाँ से मुझे वो लाइब्रेरी दिखाने ले गया तो सरला माथुर से मुलाक़ात हो गई जो बिरजू को कवी सम्मेलन में मद’ऊ करने के लिए तलाश कर रही थी। वो बोली “बृजेन्द्र जी! ये मैंने एक नई कवीता लिखी है। उसे पढ़ कर बताईएगा कैसी है
मैं कवी सम्मेलन में भी पढ़ने वाली हूँ।” जब वो चली गई तो बिरजू ने कवीता मुझे दिखाई। उनवान था


“मेरे सपने” और दो ही सतरें सुनकर में जान गया कि इस बेचारी के सारे सपनों का मरकज़ बिरजू ही था। शाम को टेनिस क्लब में आशा सक्सेना से मुलाक़ात हुई जिन का इसरार था कि बिरजू टेनिस टूर्नामेंट में मिक्स्ड डबल्स के लिए उनका पार्टनर्स बन जाए और जिस अंदाज़ से वो उसे “पार्टनर पार्टनर” कह कर बुला रही थी
इससे साफ़ ज़ाहिर था कि उन्हें बिरजू को ज़िंदगी-भर का “पार्टनर” बनाने में भी कोई एतराज़ नहीं।
मेफ़ैर रेस्तौरेंट में चाय पीने गीए तो वहाँ एक निहायत ख़ूबसूरत और स्मार्ट लड़की “हैलो बिरजू” कह कर दौड़ी और जब बिरजू ने उसका त’आरुफ़ कराया तो मा’लूम हुआ वो है मोहना जसपाल सिंह। मैंने देखा उसकी काजल लगी आँखों में बिरजू को देखते ही एक अ’जीब सी आग चमक उठी है और न जाने क्यों मुझे उन भूकी
सुलगती हुई आँखों से डर सा लगा। अगले दिन मैंने बिरजू से पूछा


“अरे यार तुम बड़े ख़ुश-क़िस्मत हो कि ये सब लड़कियाँ तुम पर मरती हैं। मगर अब तक ये न पता चला कि तुम किस से दिलचस्पी लेते हो। या सबसे ही फ्लर्ट करते हो?”
वो बोला
“मैं जिसमें दिलचस्पी लेता हूँ वो कोई और है और उससे मैं बहुत जल्द शादी करने वाला हूँ। मैंने कहा
“अगर इन सब हसीन और स्मार्ट लड़कीयों को छोड़कर तुमने कोई और पसंद की है तो वो वाक़ई कोई ख़ास चीज़ होगी। हमें भी मिलाओ।” उसने मुस्करा कर कहा था


“ख़ास चीज़ तो है वो। इसीलिए मैंने उसे पर्दे में रख छोड़ा है।” मैंने कहा
“हम मुसाफ़िरों से क्या पर्दा। हम तुम्हारे रक़ीब नहीं हैं यार।”
“तो फिर आज शाम को चार बजे मेफ़ैर रेस्तौरान में चाय पियो और उससे मिलो।”
“कौन। मोहना?”


नहीं मोहना तो बोर है। अगरचे मेरे माता पिता इससे मेरी शादी करना चाहते हैं। क्योंकि वो एक जागीरदार की बेटी है लेकिन जिससे मैं तुम्हें मिलाना चाहता हूँ वो कोई और ही है।”
चार बजे मेफ़ैर में दाख़िल हुआ तो एक कोने की मेज़ पर बिरजू के पास सफ़ेद साड़ी में मलबूस एक लड़की बैठी है। मैं बिल्कुल क़रीब पहुँच गया तब भी उसकी सूरत न देख सका।
“तुम उनसे मिल चुकी हो?” बिरजू ने कहा और सफ़ेद साड़ी वाली लड़की ने मुड़ कर मुझे देखा।
वो लक्ष्मी थी।


“नमस्ते!” उसने आँखें झुकाकर कहा।
“नमस्ते!” मैंने निहायत बद-दिली से जवाब दिया और कुर्सी पर बैठ कर बैंड की धुन सुनने लगा। उस शाम को गोमती के किनारे घूमते हुए घंटों मैं और बिरजू इस मसले पर बातें करते रहे। मैंने कहा
“बिरजू तुम पागल हो गए हो कि मोहना जसपाल सिंह और आशा सक्सेना और करूणा बनर्जी और सरला माथुर जैसी ख़ूबसूरत पढ़ी लिखी बड़े ख़ानदानों की लड़कीयों को छोड़कर इस तवाइफ़ से शादी कर रहे हो।”
“लक्ष्मी तवाइफ़ नहीं!” उसने ग़ुस्से से कहा।


“तवाइफ़ न सही तवाइफ़-ज़ादी सही
मगर तुमने इसमें क्या देखा है जो सारी दुनिया की लड़कीयों को छोड़कर उसे पसंद किया है?”
“वज्ह तो एक ही है
मेरे दोस्त। मैं इससे मुहब्बत करता हूँ और वो मुझसे मुहब्बत करती है। वो मेरी ख़ातिर अपने घरवालों को


अपने पेशे को
माज़ी को छोड़कर चली आई है। अगले महीने हम शादी करने वाले हैं।”
“और तुम समझते हो कि तुम्हारे घर वाले तुम्हें इस हिमाक़त की इजाज़त दे देंगे”
“मुझे उनकी इजाज़त नहीं चाहिए। ज़िंदगी के ऐसे फ़ैसलों के लिए किसी की इजाज़त नहीं चाहिए। माँ बाप की भी नहीं


दोस्तों की भी नहीं।”
“शुक्रिया” मैंने बड़ी तल्ख़ी से कहा था
“तो फिर मुझे ये सब क्यों सुना रहे हो?”
चलते-चलते रुक कर उसने मेरे कंधों पर हाथ रखकर कहा था


“तुम्हारी इजाज़त नहीं चाहिए
तुम्हारी मुहब्बत चाहिए। दोस्त जज बन कर अपने दोस्तों के आमाल की जांच पड़ताल नहीं करते
उनको अपनी दोस्ती और मुहब्बत की छाओं में पनाह देते हैं।' इस के बाद मेरा कुछ कहना बेकार था। मैंने सिर्फ इतना पूछा था
“तो अब तुम क्या करना चाहते हो?”


उसने कहा था
“कल मैं अपने वतन जा रहा हूँ। अपने माँ बाप को इस फ़ैसले की इत्तिला देने। माता जी बीमार हैं इसलिए ख़त लिख कर उनको एक दम shok देने के बजाए ख़ुद जाकर उन्हें ज़बानी समझाना चाहता हूँ।”
“और अगर वो लोग राज़ी न हुए तो?”
“तो उनकी मर्ज़ी और इजाज़त के बग़ैर ये शादी होगी।” और उसके कहने के अंदाज़ में इतनी क़तईयत थी कि मैं ख़ामोश हो गया। अगले दिन हम इकट्ठे ही स्टेशन पर गए। पहले उसकी गाड़ी जाती थी उसके बाद मेरी। टिकट खिड़की पर जाकर जब उसने कहा


“एक फ़र्स्ट क्लास शाम-नगर” तो बाबू ने पूछा
“सिंगल या रिटर्न?”
“रिटर्न” उसने बड़े ज़ोर से कहा। ''हमेशा वापसी का टिकट ही लेना चाहिए।”
लक्ष्मी भी उसे छोड़ने स्टेशन पर आई थी। जब गार्ड ने सीटी दी और झंडी हिलाई और बिरजू अपने कम्पार्टमंट में सवार हुआ तो लक्ष्मी की आँखों में आँसू उमड आए थे।


“अरी पगली। घबराओ नहीं।” बिरजू ने चलते-चलते चिल्ला कर कहा
“मैं तो परसों ही लौट आऊँगा। ये देख तीन दिन का रिटर्न टिकट।”
रेल चल पड़ी थी और रेल में बिरजू था। बिरजू के हाथ में एक हरा वापसी का टिकट था। फिर रेल आगे जाके अपने धुएँ के बादल में खो गई। और अब न रेल थी न बिरजू और न वो वापसी का टिकट और अब प्लेटफार्म पर सिर्फ लक्ष्मी थी। लक्ष्मी की आँखों में आँसू थे और उन आँसूओं में प्रीतम से बिछड़ने का ग़म भी था और उससे जल्द फिर मिलने की आरज़ू और उम्मीद भी थी।
मैं अलीगढ़ वापस चला आया। इम्तिहान की तैयारीयों में लग गया। चंद हफ़्ते मैंने बिरजू के ख़त का इंतिज़ार किया मगर कोई ख़त न आया। मैंने सोचा नई-नई शादी हुई है शायद हनीमून पर कहीं गए हों। फिर इम्तिहान के चक्कर में सब कुछ भुलाना पड़ा। इम्तिहान ख़त्म हुआ तो मुझे नौकरी के सिलसिले में बंबई आना पड़ा। नए-नए काम का ऐसा चक्कर पड़ा कि अलीगढ़


लखनऊ
बिरजू
लक्ष्मी सब पुरानी यादें बन कर खो गए। ४३ का सियासी हंगामा आया। ४६ में फ़साद और खून-ख़राबे हुए। ४७ में आज़ादी आई। मैं कई बार दुनिया के सफ़र को गया। ज़िंदगी में कितनी ही ख़ुशीयाँ और कितने ही ग़म आए और बगूलों की तरह गुज़र गए। कितनी ही कामयाबियों और उनसे भी ज़ियादा परेशानीयों और नाकामियों से दो-चार होना पड़ा फिर भी बिरजू और लक्ष्मी की याद एक सवालिया निशान बन कर मेरे दिल के एक कोने में दुबकी रही और इस सुबह जब टेलीफ़ोन की घंटी बजी
वो सवालिया निशान दिन-दहाड़े एक भूत बन कर मेरे सामने आन खड़ा हुआ।


इस बार घंटी बजी तो वो टेलीफ़ोन की नहीं थी
दरवाज़े की थी। मैंने दरवाज़ा खोला। एक ढीली सी मलगिजी सी बुशशर्ट और पतलून पहने एक बूढ़ा सा आदमी खड़ा मोटे-मोटे शीशों के ऐनक से मुझे घूर रहा था। उसके हाथ में एक प्लास्टिक का पोर्टफोलियो था
जैसा इंशोरंस एजैंट रखते हैं। ऐन उसी वक़्त जब मैं और बिरजू जो पच्चीस बरस बा’द मिलने वाले थे ये बूढ़ा इंशोरंस एजैंट न जाने कहाँ से टपक पड़ा।
“किया चाहिए?” मैंने क़द्रे दुरुश्ती से पूछा। झुर्रियों दार गहरे साँवले चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कुराहट नुमूदार हुई और उसने कहा


“क्यों भूल गए?”
“बिरजू!” अगले लम्हे हम दोनों एक-दूसरे से बग़लगीर हो रहे थे।
“मैं बहुत बदल गया हूँगा?” उसने बैठते हुए कहा
“तुमने भी नहीं पहचाना।”


ये वाक़िया था कि पच्चीस बरस पहले के बिरजू और इस बूढ़े में कोई दौर की भी मुशाबहत न थी। मैंने सोचा ज़रूर बेचारा सख़्त बीमार रहा होगा। तभी तो उसके चेहरे और बाज़ुओं पर खाल इस तरह लटकी हुई है जैसे उसके ढीले कपड़े। मैंने उस को तसल्ली देते हुए कहा। पच्चीस बरस में हम सब ही बदल गए हैं। मुझे ही देखो चंदिया बिल्कुल साफ़ हो गई है।
उसने कहा
“मैंने तुम्हारा नाम टेलीफ़ोन डायरेक्ट्री में तलाश किया। उम्मीद तो न थी तुम मिलोगे। सुना है अक्सर हिन्दोस्तान से बाहर रहते हो।” टेलीफ़ोन के ज़िक्र पर मैंने कहा
“मैं तो फ़ोन पर तुम्हारी आवाज़ सुनकर समझा था कोई अंग्रेज़ या अमरीकन है जिससे में कहीं सफ़र में मिला होंगा।”


“और मेरा accent ? मैं भी तो कितने ही बरस इंग्लिस्तान में रहा हूँ। वैसे ही बात करने की आदत हो गई है।” न जाने क्यों ऐसा लग रहा था जैसे वो कोई बात कहना चाहता है और उसी बात को छुपाना भी चाहता है। कई किस्म के ख़यालात और ख़दशे मेरे दिमाग़ में आए। शायद उसकी नौकरी छुट गई है। बेकार है। शायद मदद मांगने आया है। शायद उसको शराब की लत पड़ गई है तब ही बहका-बहका सा लगता है और उसके हाथों की उंगलियाँ काँपती हैं शायद उसने कोई जुर्म किया है। इसलिए उसकी आँखें बेचैनी से इधर-उधर देख रही हैं। कुछ सेकंड तक हम दोनों एक-दूसरे के चेहरे में अपने माज़ी की तलाश करते रहे। फिर मैंने कहा
“क्यों बंबई अकेले ही आए हो। भाबी साथ नहीं हैं किया?” उसके जवाब ने मुझे चौंका दिया
“मैंने तलाक़ ले ली है।”
लेकिन अब कम से कम उसकी परेशानी की वज्ह तो मा’लूम हो गई। इतने बरसों के शदीद इश्क़ के बा’द अगर तलाक़ की नौबत आई है तो इस हालत पर कोई तअज्जुब नहीं होना चाहिए था। मैंने कहा


“बड़ा अफ़सोस है बिरजू
लेकिन हुआ किया जो तलाक़ लेनी पड़ी? इस उ’म्र में मियाँ-बीवी को एक-दूसरे के सहारे की सबसे ज़ियादा ज़रूरत होती है।”
“मियाँ बीवी!” उसने दोनों लफ़्ज़ों को किसी कड़वी दवा की तरह थूका। पहले दिन ही से हमारी शादी एक झूट थी। एक भयानक ग़लती थी। चौबीस बरस तक मैंने इस ग़लती से निबाह किया। इस झूट को सच्च करने
की कोशिश की लेकिन मैं कामयाब न हुआ।”


मेरी समझ में न आया कि क्या कहूँ इसलिए मैं ख़ामोश रहा। मेरे कुछ कहने की ज़रूरत भी न थी वो बेचारा मुझसे कोई सलाह मश्वरा करने के लिए नहीं अपने दिल का बुख़ार निकालने के लिए आया था। काँपती हुई उंगलीयों से उसने एक सिगार जलाया और मुँह से धुएँ का एक बादल उड़ाता हुआ बोला तुम सोच रहे होना कि मैं इतने बरस कहाँ ग़ायब रहा। शादी के फ़ौरन बा’द ही मैं बीवी को अपने माँ बाप के पास छोड़कर इंग्लिस्तान चला गया। आई सी ऐस का इम्तिहान दिया और बद-क़िस्मती से पास हो गया।
“तो तुम आई सी ऐस में थे। और हमें कभी पता ही न चला?”
“मैं किसी को बताना भी नहीं चाहता था। तुम लोग इन दिनों सरकारी नौकरीयों का बाईकॉट कर रहे थे। सत्याग्रह करके जेल जा रहे थे। मैं किस मुँह से तुम लोगों के सामने आता। इसलिए मैंने जान-बूझ कर ऐसे-ऐसे मुक़ाम चुने जहाँ किसी पुराने दोस्त से मुलाक़ात न हो। पहले कई साल फ्रंटियर में रहा फिर आसाम में। फिर कूर्ग में वहीं हमारा पहला लड़का पैदा हुआ...”
कितनी ही देर वो धुएँ के बादलों में न जाने कैसी-कैसी तस्वीरें बनाता और बिगाड़ता रहा। फिर बोला


“मगर वो लड़का हमारा नहीं था। वो उसका लड़का था। जो मेरे एक चपरासी से पैदा हुआ था। जब मुझे ये मा’लूम
हुआ तो तुम समझ सकते हो कि मेरी क्या हालत हुई होगी। चंद महीने तक तो मैं बिल्कुल पागल हो गया। शराब तो मैं पहले भी पीता था लेकिन अब मैंने अपनी ज़िल्लत को डुबोने के लिए अंधाधुंद पीना शुरू’ कर दिया। जब व्हिस्की से काम न चला तो कोकीन खाने लगा। तीन महीने पागलखाने में ईलाज कराया। और जब ईलाज करके हवास पर किसी क़द्र क़ाबू पाया और बाहर निकला तो नौकरी से इस्तीफ़ा देना पड़ा। ज़लील हो कर निकाले जाने से यही बेहतर था कि मैं ख़ुद ही बीमारी का बहा

- ख़्वाजा-अहमद-अब्बास


ग़ाज़ीपूर के गर्वमैंट हाई स्कूल की फ़ुटबाल टीम एक दूसरे स्कूल से मैच खेलने गई थी। वहाँ खेल से पहले लड़कों में किसी छोटी सी बात पर झगड़ा हुआ और मारपीट शुरू’ हो गई। और चूँकि खेल के किसी प्वाईंट पर झगड़ा शुरू’ हुआ था
तमाशाइयों और स्टाफ़ ने भी दिलचस्पी ली। जिन लड़कों ने बीच-बचाव की कोशिश की उन्हें भी चोटें आईं और उनमें मेरे भाई भी शामिल थे जो गर्वमैंट हाई स्कूल की नौवीं जमाअ’त में पढ़ते थे। उनके माथे में चोट लगी और नाक से ख़ून बहने लगा। अब हंगामा सारे मैदान में फैल गया। भगदड़ मच गई और जो लड़के ज़ख़्मी हुए थे इस हड़बोंग में उनकी ख़बर किसी ने न ली। इस पसमांदा ज़िले’ में टेलीफ़ोन अ’न्क़ा थे। सारे शहर में सिर्फ़ छः मोटरें थीं और हॉस्पिटल एम्बूलेन्स का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था।
वो इतवार का वीरान सा दिन था। हवा में ज़र्द पत्ते उड़ते फिर रहे थे। मैं लक़-ओ-दक़ सुनसान पिछले बरामदे में फ़र्श पर चुप-चाप बैठी गुड़ियाँ खेल रही थी। इतने में एक यक्का टख़-टख़ करता आके बरामदे की ऊंची सत्ह से लग कर खड़ा हो गया और सतरह अठारह साल के एक अजनबी लड़के ने भाई को सहारा देकर नीचे उतारा। भाई के माथे से ख़ून बहता देखकर मैं दहशत के मारे फ़ौरन एक सुतून के पीछे छुप गई। सारे घर में हंगामा बपा हो गया। अम्माँ बदहवास हो कर बाहर निकलीं। अजनबी लड़के ने बड़े रसान से उनको मुख़ातिब किया... “अरे-अरे देखिए
घबराईए नहीं। घबराईए नहीं। मैं कहता हूँ।”


फिर वो मेरी तरफ़ मुड़ा और कहने लगा...
“मुन्नी ज़रा दौड़ कर एक गिलास पानी तो ले आ भैया के लिए”
इस पर कई मुलाज़िम पानी के जग और गिलास लेकर भाई के चारों तरफ़ आन खड़े हुए और लड़के ने उनसे सवाल किया...
“साहिब किधर हैं?”


“साहिब बाहर गए हुए हैं...”
किसी ने जवाब दिया...
“नहीं... नहीं... दफ़्तर में बैठे हैं”
दूसरे ने कहा।


लड़का मज़ीद तवक़्क़ुफ़ के बग़ैर आगे बढ़ा और गैलरी में से गुज़रता इधर-उधर देखता अब्बा जान के दफ़्तर तक जा पहुँचा। अब्बा जान दरवाज़े बंद किए किसी अहम मुक़द्दमे का फ़ैसला लिखने में मसरूफ़ थे। लड़के ने दस्तक दी और अंदर दाख़िल हो गया। और मेज़ के सामने जाकर बड़ी ख़ुद-ए’तिमादी और मतानत से बोला
“साहिब आपके साहबज़ादे हमारे स्कूल में मैच खेलने आए थे
उनको थोड़ी सी चोट आई है क्योंकि खेल-खेल में दंगा हो गया था। मेरा नाम इक़बाल बख़्त है। मैं मुंशी ख़ुश-बख़्त राय सक्सेना का लड़का हूँ
जो सिटी कोर्ट में मुख़्तार हैं। आपसे मेरी दरख़्वास्त है कि हमारा स्कूल बंद करने का हुक्म न दें और लड़कों पर जुर्माना भी न करें


क्योंकि एक तो हमारे इम्तिहान होने वाले हैं और दूसरे हमारे लड़के बहुत ग़रीब हैं...”
अब्बा जान ने सर उठा कर उसे देखा और उसकी मुदल्लिल और पुर-ए’तिमाद तक़रीर सुनकर बहुत मुतास्सिर और महज़ूज़ हुए। उन्होंने उसे बड़ी शफ़क़त से अपने पास बिठाया।
इसी तरह से इक़बाल मियाँ का हमारे यहाँ आना जाना शुरू’ हुआ। भाई से उनकी काफ़ी दोस्ती हो गई। मगर वो ज़ियादा-तर घर की ख़वातीन के पास बैठते थे। उमूर-ए-ख़ाना-दारी पर सलाह मश्वरे देते थे। बाज़ार के भाव और दुनिया के हालात पर रोशनी डालते या लतीफ़े सुनाते। जब वो दूसरी मर्तबा हमारे हाँ आए थे
तब मैंने भाई को आवाज़ दी थी...


“इक़बाल मियाँ हैं।”
वो फ़ौरन निहायत वक़ार से चलते हुए मेरे नज़दीक आए और डपट कर बोले
“देखो मुन्नी मैं तुमसे बहुत बड़ा हूँ। मुझे इक़बाल भाई कहो... क्या कहोगी?”
“इक़बाल भाई...”


मैंने ज़रा सहम कर जवाब दिया
इक़बाल भाई मुझे हमेशा मुन्नी ही पुकारते रहे। मुझे उनके दिए हुए इस नाम से सख़्त चिढ़ थी। मगर हिम्मत न पड़ती थी कि उनसे कहूँ कि मेरा अस्ल नाम लिया करें। अब वो सारे घर के लिए “इक़बाल मियाँ इक़बाल भाई और “इक़बाल भैया” बन चुके थे।
पहलू के लॉन पर अमलतास का बड़ा दरख़्त हमारे लिए बड़ी अहमियत रखता था कि उसके साये में खाट बिछा कर फ़ुर्सत के औक़ात में महफ़िल जमती थी। उसकी सदारत ड्राईवर साहिब करते थे। नायब सदर इक़बाल भाई ख़ुद-ब-ख़ुद बन गए। इस महफ़िल के दूसरे अराकीन उस्ताद यूसुफ़ ख़ाँ जमुना पांडे महाराज चपरासी अब्दुल बैरा और भाई थे। मैं बिन बुलाए मेहमान की हैसियत से इधर-उधर लगी रहती थी।
उस्ताद यूसुफ़ ख़ाँ के कमरे का तअ’ल्लुक़ अंदर के कमरों से नहीं था और उसका दरवाज़ा उसी लॉन पर खुलता था। उस्ताद पुराने स्कूल के निहायत नस्ता’लीक़ और सिक़ा मूसीक़ार थे। रामपूर दरबार से उनका तअ’ल्लुक़ रह चुका था। शाइ’री भी करते थे और दिन-भर नवलकिशोर प्रैस के छपे हुए किर्म-ख़ुर्दा नावल पढ़ा करते थे। बूढ़े आदमी थे। आँखों में सुर्मा लगाते थे और नोकीली मूँछें रखते थे। दोनों वक़्त का खाना और नाश्ता और चाय बड़े एहतिमाम से कश्ती में सजा कर उनके कमरे में पहुँचा दी जाती थी। सह-पहर को वो अंदर आकर बड़े तकल्लुफ़ से अम्माँ को गुर भैरवी और गति भीमपलासी सिखलाते थे और अम्माँ बैठी सितार पर टन-टन किया करती थीं। इक़बाल भाई उस्ताद के यार-ए-ग़ार बन गए थे और आराईश-ए-महफ़िल


तिलिस्म-ए-होशरुबा
इसरार-ए-लंदन और शरर के नाविलों का लेन-देन दोनों के दरमियान चलता रहता था। इक़बाल भाई इस साल ऐंटरैंस का इम्तिहान देने थे।
एक रोज़ मुझे एक दरख़्त की शाख़ से लटकता देखकर उन्होंने अम्माँ से कहा
“मुन्नी पढ़ती लिखती बिल्कुल नहीं। हर वक़्त डंडे बजाया करती है।”


“यहाँ कोई स्कूल तो है नहीं
पढ़े कहाँ?” अम्माँ ने जवाब दिया
पिछले दिनों मेरे एक फूफी-ज़ाद भाई ने मुझे हिसाब सिखाने की हर मुम्किन कोशिश कर देखी थी और नाकाम हो चुके थे। अब इक़बाल भाई... फ़ौरन वालंटियर बन गए।
“इम्तिहान के बा’द मैं इसे पढ़ा दिया करूँगा।”


अगले इतवार को इक़बाल भाई ने मेरा इंटरव्यू लिया
“अंग्रेज़ी तो इइसे थोड़ी सी आ गई है
उर्दू फ़ारसी में बिल्कुल कोरी है”
उन्होंने अम्माँ को रिपोर्ट दी और इसके बा’द उन्होंने रोज़ाना नाज़िल होना शुरू’ कर दिया।


उनकी तनख़्वाह दस रुपये माहवार मुक़र्रर की गई। रोज़ शाम के चार बजे उनका यक्का दूर फाटक में दाख़िल होते देखकर मेरी जान निकल जाती। गर्मियाँ शुरू’ हो चुकी थीं। इक़बाल भाई ने हुक्म दिया
“हम बाग़ में बैठ कर तुझे पढ़ाएँगे
तेरा दिमाग़ जिसमें भूसा भरा हुआ है
ठंडी हवा से ज़रा ताज़ा होगा।”


लिहाज़ा पिछले बाग़ में फ़ालसे के दरख़्त के नीचे मेरी छोटी सी बेद की कुर्सी और इक़बाल भाई की कुर्सी मेज़ रखी जाती। जिस रोज़ मैं नेकी की जून में होती तो माली से बाग़ की बड़ी झाड़ू मांग लाती और फ़ालसे के नीचे इक़बाल भाई की कुर्सी की जगह पर ख़ूब झाड़ू देती और यूँ भी पढ़ाई के मुक़ाबले में मुझे बाग़ में झाड़ू देना कहीं ज़ियादा अच्छा लगता था।
इक़बाल भाई जमा तफ़रीक़ पर सर खपाने के बा’द हुक्म देते
“तख़्ती लाओ।”
तख़्ती पर वो बेहद ख़ुश-ख़ती से लिखते।


क़लम गोयद कि मन शाह-ए-जहानम
क़लम-कश रा बदौलत मी रसानम
अपने टेढ़े-मेढ़े हुरूफ़ में मैं इस शे’र को कई मर्तबा लिखती
यहाँ तक कि मेरी उँगलियाँ दुखने लगतीं और मैं दुआ’ माँगती


“अल्लाह करे इक़बाल भाई मर जाएँ... अल्लाह करे...”
एक मर्तबा में सबक़ सुनाने के बजाए कुर्सी पर खड़ी हो कर एक टांग से नाच रही थी कि इक़बाल भाई को दफ़अ’तन बे-तहाशा ग़ुस्सा आ गया। उन्होंने मेरे कान इस ज़ोर से ऐंठे कि मेरा चेहरा सुर्ख़ हो गया और मैं चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगी। मगर उसके बा’द से मैंने शरारत कम कर दी। इक़बाल भाई अभी मुझे पाँच छः महीने ही पढ़ा पाए होंगे कि अब्बा जान का तबादला ग़ाज़ीपूर से इटावे का हो गया।
अगले दो तीन साल तक इक़बाल भाई के अम्माँ के पास कभी-कभार ख़त आते रहे
“अब हमने एफ़.ए. करने का इरादा भी छोड़ दिया है। ऐंटरैंस में थर्ड डिवीज़न मिला। इस वज्ह से हमारा दिल टूट गया है। बस अब हम भी मुंसरिम पेशकार क़ानून-गो या क़र्क़-अमीन की हैसियत से ज़िंदगी गुज़ार देंगे


या हद से हद वालिद साहिब क़िबला की मानिंद मुख़तार बन जाएँगे। इसलिए कभी सोचते हैं क़ानून का इम्तिहान दे डालें। और इस कोरदेह में रह कर कर भी क्या सकते हैं?”
फिर उनके ख़त आने बंद हो गए।
मैं आई.टी. कॉलेज लखनऊ के फ़र्स्ट ईयर में पढ़ रही थी। उस दिन हमारे यहाँ कुछ मेहमान चाय पर आए हुए थे। सब लोग नशिस्त के कमरे में बैठे थे कि बरामदे में आकर किसी ने आवाज़ दी
“अरे भाई है?”


“कौन है?”
अम्माँ ने कमरे में से पूछा।
“हम आए हैं... इक़बाल बख़्त...”
अम्माँ ने बे-इंतिहा ख़ुश हो कर उन्हें अंदर बुलाया। कमरे में बहुत जगमगाते क़िस्म के लोगों का मजमा’ था। इक़बाल भाई चारों तरफ़ नज़र डाल कर ज़रा झिजके। मगर दूसरे लम्हे बड़े वक़ार के साथ अम्माँ के क़रीब जाकर बैठ गए। फिर उनकी नज़र मुझ पर पड़ी और उन्होंने बेहद मसर्रत से चिल्ला कर कहा


“अरी मुन्नी... तू इतनी बड़ी हो गई?”
मैं नई-नई कॉलेज में दाख़िल हुई थी और अपने कॉलेज स्टूडैंट होने का सख़्त एहसास था। इक़बाल भाई ने जब सब लोगों के सामने इस तरह “अरी मुन्नी कह कर मुख़ातिब किया तो बेहद कोफ़्त हुई।
इक़बाल भाई मैला सा पायजामा और घिसी हुई शेरवानी पहने थे और ज़ाहिर था कि उनकी माली हालत बहुत सक़ीम थी। मगर उन्होंने मुख़्तसरन इतना ही बताया कि कानपूर में मुलाज़िम हो गए हैं और प्राईवेट तौर पर एफ़.ए.सी.टी. कर चुके हैं। फिर वो अब्बा जान के कमरे में गए और उनके पास बहुत देर तक बैठे रहे। इसके बा’द इक़बाल भाई फिर ग़ायब हो गए।
दस साल बा’द... मुझे लंदन पहुँचे छः सात रोज़ ही हुए थे


मैं बी.बी.सी. के उर्दू सैक्शन में बैठी हुई थी कि किसी ने आवाज़ दी
“अरे भाई सक्सेना साहिब आ गए कि नहीं?”
“आ गए”
ये कहते हुए इक़बाल बख़्त सक्सेना पर्दा उठाकर कमरे में दाख़िल हुए। घिसी हुई बरसाती ओढ़े। अख़बारों का पुलिंदा और एक मोटा सा पोर्टफोलियो सँभाले मेरे सामने से गुज़रते


एक मेज़ की तरफ़ चले गए। फिर उन्होंने पलट कर मुझे देखा। पहले तो उन्होंने मुझे नहीं पहचाना। टकटकी बाँधे चंद लम्हों तक देखते रहे
“अरी मुन्नी!”
उनके मुँह से निकला। फिर आवाज़ भर्रा गई।
वो मेरे पास आकर बैठे और अब्बा जान की ख़ैरियत पूछी...


“अब्बा जान का तो कई साल हुए इंतिक़ाल हो गया
इक़बाल भाई!”
मैंने कहा।
ये सुन के वो फूट-फूटकर रोने लगे। उर्दू सैक्शन के अराकीन ने उनको रोता देखकर ख़ामोशी से अपने-अपने काग़ज़ात पर सर झुका लिया।


उन्होंने मुझे बताया कि कानपूर की मुलाज़िमत इसी साल छूट गई थी। फिर वो सारे मुल्क में जूतियाँ चटख़ाते फिरे। इसी दौरान में उनके वालिदैन का इंतिक़ाल हो गया। वो इकलौते बेटे थे। छोटी बहन की किसी गाँव में शादी हो चुकी थी। आज़ादी के बा’द जब क़िस्मत आज़माई के लिए इंग्लिस्तान
कैनेडा और अमरीका जाने की हवा चली तो वो भी एक दिन ग़ाज़ीपूर गए। अपना आबाई मकान फ़रोख़्त किया और उसके रुपये से जहाज़ का टिकट ख़रीद कर लंदन आ पहुँचे। पिछले चार साल से वो लंदन में थे और यहाँ भी मुख़्तलिफ़ क़िस्म के पापड़ बेल चुके थे। किसी को उनके मुतअ’ल्लिक़ ठीक से मा’लूम न था कि वो क्या करते हैं। मुझसे भी उन्होंने एक मर्तबा गोल-गोल अल्फ़ाज़ में सिर्फ़ इतना ही कहा
“रीजेन्ट स्ट्रीट पोलीटैक्निक में इक्नोमिक्स पढ़ रहा हूँ।”
जिस इदारे का उन्होंने नाम लिया


मैं उसकी अस्लियत से ब-ख़ूबी वाक़िफ़ हो चुकी थी। जब लोग इसी मुबहम से लहजे में ये कहते कि वो रीजेन्ट स्ट्रीट पोलीटैक्निक में जर्नलिज़्म पढ़ रहे हैं या इक्नोमिक्स पढ़ रहे हैं या फ़न-ए-संग-तराशी या फोटोग्राफी सीख रहे हैं
तो मज़ीद किसी शक-ओ-शुबह की गुंजाइश न हो सकती थी।
लेकिन बहुत जल्द मुझे ये मा’लूम हो गया कि इक़बाल भाई लंदन के हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी तालिब-ए-इ’ल्मों की कम्यूनिटी के अहम सुतून की हैसियत रखते हैं। कोई हंगामा
जलसा


जलूस
झगड़ा
फ़साद
इलैक्शन


तीज तहवार उनके बग़ैर मुकम्मल न हो सकता था। तस्वीरों की नुमाइश है तो हाल वो सजा रहे हैं। नाच-गाने का प्रोग्राम है तो माईक्रोफ़ोन लगा रहे हैं। ड्रामा है तो ये रीहरसल के लिए लोगों को पकड़ते फिर रहे हैं। दा’वत है तो डाइनिंग हाल में मुस्तइ’द खड़े हैं। कभी-कभी वो मंज़र पर से ग़ायब हो जाते और इत्तिला मिलती कि इतवार के रोज़ पेटीकोट लेन की मंडी में लोगों को क़िस्मत का हाल बताते हुए पाए गए या ग्लास्गो के किसी बाज़ार में हिन्दुस्तानी जड़ी बूटियाँ फ़रोख़्त करते नज़र आए।
एक दफ़ा’ मा’लूम हुआ कि शहर के एक फ़ैशनेबल मुहल्ले के एक आ’लीशान फ़्लैट में फ़रोकश हैं। कभी वो बढ़िया रेस्ट्राँ में नज़र आते। कभी मज़दूरों के चाय ख़ानों में दिखाई पड़ते। इक़बाल भाई शाइ’री भी करते थे। आस्ट्रेलिया और एम.सी.सी. के तारीख़ी मैच के दिनों में उन्होंने एक लिखा

हर ताज़ा विकेट पर हमा-तन काँप रहा है


बोलर है बड़ा सख़्त हटन काँप रहा है
किस शेर की आमद है कि रन काँप रहा है
इक़बाल भाई को फ़न-ए-मौसीक़ी
इ’ल्म-ए-ज्योतिष


पामिस्ट्री
होम्योपैथी
तिब्ब-ए-यूनानी और आयुर्वेदिक से लेकर पोल्ट्री फार्मिंग
काश्तकारी और बाग़बानी तक हर चीज़ में दख़्ल था और हल्क़ा-ए-अरबाब-ए-ज़ौक़ की महफ़िलों में बिला-नाग़ा शिरकत करते थे।


हम दो तीन लोगों ने मिलकर एक फ़िल्म सोसाइटी बनाई
जिसमें हम बंबई से फिल्में मंगवा कर हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी पब्लिक को दिखाते थे। उस दिन इक़बाल भाई बरात के दूल्हा बने हुए टिकट बेच रहे हैं। मेहमानों को ला-ला कर बैठाल रहे हैं। फ़िल्म शुरू’ होने से पहले स्टेज पर जाकर मिस महताब या मिस नसीम या मिस निम्मी को गुलदस्ता पेश कर रहे हैं। उस ज़माने में उन्होंने ये भी तय कर लिया कि बंबई जाकर एक अ’हद-आफ़रीं फ़िल्म बनाएँगे
जिसकी कहानी मकालमे और गीत ख़ुद लिखेंगे। डायरेक्ट भी ख़ुद करेंगे और हीरो के बड़े भाई या हीरोइन के बाप का रोल भी ख़ुद अदा करेंगे और मजमूई’ तौर पर सारी फ़िल्म इंडस्ट्री पर रोलर फेर देंगे।
इक़बाल भाई शराब को हाथ नहीं लगाते थे और मंगल के मंगल गोश्त नहीं खाते थे। एक रोज़ वो मुझे एक सड़क पर नज़र आए। इस हालत में कि हाथ में बहुत क़ीमती फूलों का एक गुच्छा है और लपके हुए चले जाते हैं।


मुझे देखकर बोले
“ आओ... आओ... मैं ज़रा एक दोस्त को देखने हस्पताल जा रहा हूँ...”
मैं साथ हो ली। हस्पताल में एक इस्लामी मुल्क के सफ़ीर की बेगम साहिब फ़िराश थीं। इक़बाल भाई ने उनके कमरे में दाख़िल हो कर गुलदस्ता मेज़ पर रखा और निहायत ख़ुलूस से मरीज़ की मिज़ाज-पुर्सी में मसरूफ़ हो गए। इतने में सफ़ीर की बेटी अंदर आई और बेहद तपाक से उनसे मिली। मैंने हैरत से ये सब देखा।
बाहर आकर कहने लगे


“भई ये लोग हमारे दोस्त हैं। बहुत अच्छे लोग हैं बेचारे!”
“साहब-ज़ादी से आपकी मुलाक़ात किस तरह हुई?”
“लंबा क़िस्सा है
फिर कभी बताएँगे।”


वो लड़की बेहद बद-दिमाग़ थी। यूनीवर्सिटी में पढ़ती थी और हद से ज़ियादा ऐन्टी-इंडियन मशहूर थी। उस वक़्त भी उसने हस्पताल के कमरे में कोई ना-गवार सा सियासी तज़किरा छेड़ दिया था।
“भई अगर हिन्दोस्तान को गालियाँ देकर उसका दिल ठंडा होता है”
इक़बाल भाई ने ज़ीना उतरते हुए मुझसे कहा
“तो इसमें मेरा क्या हर्ज है? उसको इसी तरह शांति मिलती है...”


इसके कुछ अ’र्से बा’द ही एक शाम वो अंडर-ग्राऊड में मिल गए। साथ ही वो लड़की और उसकी एक कज़िन भी थी।
लड़की ने मुझसे कहा
“हम लोग एक मजलिस में जा रहे हैं। आप भी चलिए।”
“मैं तो न जा सकूँगी। मैंने थेटर के टिकट ख़रीद लिए हैं...”


मैंने मा’ज़रत चाही।
इक़बाल भाई ने बड़े सदमे से मुझे देखा
“मुहर्रम की सातवीं तारीख़ को थेटर जा रही हो?”
मैं बेहद शर्मिंदा हुई।


“मुझे याद न रहा था”
मैंने जवाब दिया।
“आप शीया हैं या सुन्नी?”
दूसरी लड़की ने सवाल किया।


“मैं क़ादियानी हूँ”
मैंने जवाब दिया
“क़ादियानी?”
वो ख़ामोश हो गई। चंद मिनट बा’द सफ़ीर की लड़की ने इज़हार-ए-ख़याल किया


“इक़बाल साहिब तो बड़े मोमिन आदमी हैं। आजकल के शीयों में अपने मज़हब का इतना दर्द कहाँ है?”
इतने में स्टेशन आ गया और वो तीनों ट्रेन से उतर गए।
अगले रोज़ बी-बी सी में इक़बाल भाई से मुलाक़ात हुई तो मैंने कहा
“इक़बाल भाई अब आप ये फ़्राड भी करने लगे। इन लड़कियों के सामने आपने ख़ुद को मुसलमान ज़ाहिर किया है? न सिर्फ़ मुसलमान बल्कि शीया...”


जवाब मिला... “देख मुन्नी... दुनिया में इस क़दर तफ़र्रुक़ा है कि सब लोग एक दूसरे की जान को आए हुए हैं। मेरी जब इस लड़की से मुलाक़ात हुई तो वो मेरे नाम की वज्ह से। मुझे मुसलमान समझी और मेरे सामने हिंदुओं की और हिन्दोस्तान की ख़ूब-ख़ूब बुराईयाँ कीं। इसके बा’द अगर मैं उसे बता देता कि मैं हिंदू हूँ तो उसे किस क़दर ख़जालत होती
और फिर इस में मेरा क्या हर्ज है। मेरे ख़ानदान में सैकड़ों बरस से फ़ारसी नाम रखे जाते हैं। इससे हिंदू धर्म पर कोई आँच नहीं आई। अब अगर मैंने ख़ुद को मुसलमान ज़ाहिर कर दिया तो दुनिया पर कौन सी क़यामत आ जाएगी? बताओ? अरे वाह मुन्नी! इतनी बड़ी अफ़लातून बनती हो
मगर अ’क़्ल में वही भूसा भरा है।”
एक शाम में अपनी एक दोस्त ज़ाहिदा के हाँ गई। वो बेहद तनदही से पैकिंग में जुटी हुई थी और अपने सारे ख़ानदान समेत अगले रोज़ सुब्ह-सवेरे रुख़्सत पर कराची वापिस जा रही थी। ज़ाहिदा के घर पर मुझे याद आया कि इक़बाल भाई ने ऑस्ट्रेलियन तलबा की एक तक़रीब में मदऊ’ किया है


“ज़रूर आना
ऑस्ट्रेलियन बेचारे ये महसूस करते हैं कि उन्हें बहुत ही ग़ैर-दिलचस्प और बेरंग क़ौम समझा जाता है। उनका दिल नहीं टूटना चाहिए।”
चंद रोज़ क़ब्ल मैं एक नया हैंड बैग ख़रीद कर ज़ाहिदा के हाँ छोड़ गई थी। चलते वक़्त ख़याल आया कि उसे लेती चलूँ
बैग ज़ाहिदा की सिंघार मेज़ पर रखा था। वो दूसरे कमरे में अस्बाब बांध रही थी। मैंने जाते हुए उसे आवाज़ दी कि मैं बैग लिए जा रही हूँ।


“अच्छा”
उसने जवाब दिया।
मैं नीचे आ गई
ऑस्ट्रेलियन तलबा के हाँ इक़बाल भाई हाल के वस्त में खड़े आस्ट्रेलिया और हिन्दोस्तान के दोस्ताना तअ’ल्लुक़ात पर धुआँ-धार तक़रीर कर रहे थे। मैं बराबर के कमरे में गई


जहाँ बहुत से लड़कों
लड़कियों का मजमा’ था। और चार पाँच वेटर चाय बना-बना कर सबको दे रहे थे। मैंने नया हैंड बैग वहीं एक खिड़की में रख दिया और चाय पीने के बा’द हाल में लौट आई। चलते वक़्त मुझे हैंड बैग का ख़याल आया। मैं उसे अंदर से उठा लाई और इक़बाल भाई के हाथ में दे दिया। शायद उसका खटका खुल गया था।
ज़ीने से उतरते हुए उन्होंने खटका बंद किया और बोले
“इतने ढेर नोट?”


मैंने बे-ध्यानी में उनकी बात पूरी तरह नहीं सुनी और इधर-उधर की बातों में लगी रही। स्टेशन पर इक़बाल भाई ने बैग मुझे थमा दिया। घर पहुँच कर मैंने देखा कि ज़ाहिदा की कार बाहर खड़ी है और दोनों मियाँ बीवी इंतिहाई सरासीमगी की हालत में लैंडलेडी मिसिज़ विंगफ़ील्ड से कुछ पूछ रहे हैं। ज़ाहिदा मुझे देखकर हकलाने लगी...
“वो... वो बैग... वो बैग...”
“हाँ हाँ मेरे पास है तो... क्यों?”
“उसमें मैंने पूरे पाँच सौ पाऊंड के नोट ठूँस दिए थे। तुम्हारे जाने के बा’द याद आया और तुम्हारी भुलक्कड़ आदत का ख़याल कर के जान निकल गई कि अगर तुमने बटुवा रास्ते में कहीं इधर-उधर छोड़ दिया तो क्या होगा...? या अल्लाह तेरा शुक्र... अल्लाह तेरा शुक्र... या अल्लाह...”


दूसरे रोज़ बी.बी.सी. में मैंने इक़बाल भाई को ये सनसनी-खेज़ वाक़िआ’ सुनाया। इत्मीनान से बोले
“वो तो मैंने बैग में पहले ही देख लिया था कि नोट ठुँसे हुए हैं।”
“आपने मुझे उसी वक़्त क्यों ना बताया?”
“मैंने कहा तो था तुमने सुना ही नहीं।”


“आपको ये ख़याल भी ना आया कि मेरे पास इतना रुपया कहाँ से आ गया
जिसे मैं इत्मीनान से अधखुले बैग में लिए घूम रही हूँ।”
“मैंने सोचा
कहीं से आ ही गया होगा। पूछने की क्या ज़रूरत थी?”


“और दो घंटे वो बैग इसी तरह खिड़की में रखा रहा। अगर उस वक़्त चोरी हो जाता तो मैं ज़ाहिदा को क्या मुँह दिखाती? या अल्लाह... या अल्लाह...!”
“देख मुन्नी होनी को कोई अनहोनी नहीं कर सकता। तेरी गोईयाँ की क़िस्मत में था कि उसका रुपया उसे सही सलामत वापिस मिल जाए। अब तू क्यों फ़िक्र कर रही है? ये बता तूने अच्छम्मा के लिए बात की?”
अच्छम्मा कोसूकुट्टी एक परेशान हाल-ए-दिल-गिरफ़्ता सी लड़की थी जो बहुत दिनों से मुलाज़िमत और एक सस्ते से कमरे की तलाश में थी। हाल ही में मिसिज़ विंगफ़ील्ड के तहखाने में एक कमरा ख़ाली हुआ था
जिसका किराया सिर्फ़ ढाई पौंड फ़ी-हफ़्ता था। मिसिज़ विंगफ़ील्ड का इसरार था कि वो अपने मकान में हर चलते-फिरते


ऐरे-ग़ैरे को किराएदार नहीं रखतीं और सिर्फ़ बेहतरीन ख़ानदानों और आ’ला तबक़े के अफ़राद को अपने यहाँ रहने का शरफ़ बख़्शती हैं। उनके मरहूम शौहर कोलोनल सर्विस में थे
ओरम्सिज़ विंगफ़ील्ड बरसों कोलंबो में बड़ी मेमसाहब की हैसियत से ज़िंदगी गुज़ार चुकी थीं। उनके सुसर नाइट थे वग़ैरह-वग़ैरह
लेकिन मियाँ के मरने और सल्तनत-ए-बर्तानिया के ज़वाल के बा’द वतन वापिस आकर उन्हें लैंड लेडी बनना पड़ा था। अक्सर ज़ीने पर चढ़ते या उतरते हुए वो मेरा रास्ता रोक कर अपनी अ’ज़्मत-ए-रफ़्ता के क़िस्से सुनाने लगतीं।
एक दिन उन्होंने बड़े राज़दाराना लहजे में बेहद उदासी से मुझसे कहा था


“एक बात सुनो इतने अच्छे-अच्छे जैंटलमैन तुम्हारे दोस्त हैं उनमें से किसी एक से मेरी शादी करा दो।”
रात को जब मैंने तहखाने के कमरे के मुतअ’ल्लिक़ उनसे कहा तो न जाने वो किस अच्छी मूड में थीं कि उन्होंने अच्छम्मा कोसूकुट्टी के मुतअ’ल्लिक़ ये तक नहीं पूछा कि वो क्या करती है और हर हफ़्ते किराया अदा कर सकेगी या नहीं। चुनाँचे दो तीन रोज़ में अच्छम्मा कोसूकुट्टी वहाँ मुंतक़िल हो गई।
मेरा फ़्लैट चौथी मंज़िल पर था। दूसरी मंज़िल पर और लोगों के इ’लावा एक टेलीविज़न ऐक्ट्रस ऐडवीना कार्लाइल रहती थी
जिसके मुतअ’ल्लिक़ मिसिज़ विंगफ़ील्ड मुझसे कह चुकी थीं कि मैं तो उसे कभी अपने यहाँ जगह न देती माई डीयर


मगर वो बड़ी ख़ानदानी लड़की है
बस ज़रा उसकी ज़िंदगी पटरी से उतर गई है। मेरी उससे शनासाई सिर्फ़ इस हद तक थी कि ज़ीने पर मुड़भेड़ हो जाती तो वो मुस्कुरा कर हलो कह दिया करती थी। मिसिज़ विंगफ़ील्ड ने इत्तिला दी थी कि अक्सर वो दिन दिन-भर कमरे में अकेली बैठी शराब पिया करती है। वो अपने शौहर पर बुरी तरह आ’शिक़ थी। मगर उसने इस बे-चारी को तलाक़ दे दी थी। जब ही से इसका ये हाल हो गया था।
एक रात दो बजे के क़रीब मद्धम से शोर से मेरी आँख खुल गई। इतने में दरवाज़े पर दस्तक हुई। मैंने दरवाज़ा खोला तो सामने पुलिस कांस्टेबल खड़ा था और उसके पीछे मिसिज़ विंगफ़ील्ड मारे बद-हवासी के आँय-बाँय-शाँय कर रही थीं...
“ग़ज़ब हो गया... ग़ज़ब हो गया”


उन्होंने कहा
“ऐडवीना ने तुम्हारे ग़ुस्ल-ख़ाने की खिड़की से कूद कर ख़ुदकुशी कर ली...!”
“मेरे ग़ुस्ल-ख़ाने की खिड़की से?”
“हाँ


सबसे ऊंची खिड़की
बे-चारी ऐडवीना को यही दस्तयाब हुई।”
कांस्टेबल ग़ुस्ल-ख़ाने के अंदर गया। खिड़की के दोनों पट खुले हुए थे। खिड़की के नीचे टब में ऐडवीना का एक स्लीपर पड़ा था। ग़ुस्ल-ख़ाने का दरवाज़ा लैंडिंग पर खुलता था और मिस ऐडवीना कार्लाइल बड़े इत्मीनान से उसमें दाख़िल हो कर नीचे कूद गई थीं। मेरे ज़हन में सुब्ह के तहलका-पसंद अख़बारों की सुर्ख़ियाँ कौंद गईं... अब रिपोर्टर मेरा इंटरव्यू करेंगे। उस खिड़की और टब की तस्वीरें खींचेंगी। अल्लाह जाने क्या-क्या होगा... नीचे से आवाज़ों की भनभनाहट बुलंद हुई...
“ज़िंदा है... ज़िंदा है...!”


मैंने झांक कर नीचे देखा। ऐडवीना को एम्बूलैंस में लिटाया जा चुका था।
“ज़िंदा है...?”
मिसिज़ विंगफ़ील्ड ने ज़रा मायूसी से पूछा और कांस्टेबल के साथ तेज़ी से नीचे उतर गईं।
सुब्ह को ये वाक़िआ’ मैंने बी.बी.सी. कैंटीन में जुमला ख़वातीन-ओ-हज़रात को सुनाया। इतने में इक़बाल भाई आ गए। पूरा क़िस्सा सुनकर बोले


“किस हस्पताल में है?”
मैंने बताया।
इसके बा’द दूसरी बातें शुरू’ हो गईं।
इस बात को चंद हफ़्ते ही गुज़रे थे कि रात के बारह साढ़े बारह बजे शोर से फिर मेरी आँख खुल गई। खिड़की में से मैंने झांक कर देखा कि ग्रांऊड फ़्लोर की सीढ़ियों पर इक़बाल भाई दम-ब-ख़ुद खड़े हैं और मिसिज़ विंगफ़ील्ड उन पर बुरी तरह बरस रही हैं। मैं घबरा कर नीचे उतरी। मिसिज़ विंगफ़ील्ड तक़रीबन हिस्ट्रियाई अंदाज़ में चीख़ थीं।


“मिसिज़ विंगफ़ील्ड क्या बात है?”
मैंने ज़रा दुरुश्ती से पूछा।
वो कमर पर हाथ रखकर मेरी तरफ़ मुड़ीं
“तुम ख़ुद फ़ैसला कर लो... जो गुंडा होगा उसे गुंडा ही कहा जाएगा।”


जब उन्होंने इक़बाल भाई को गुंडा कहा तो मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे मुँह पर थप्पड़ लगा दिया हो। इक़बाल भाई सर झुकाए खड़े थे।
मिसिज़ विंगफ़ील्ड गरजती रहीं...
“तुमको अच्छी तरह मा’लूम है कि मेरे यहाँ जैंटलमैन लड़कियों के कमरे में रात को नहीं ठहर सकते... ये मेरा क़ानून है... अभी मेरे यहाँ एक ख़ुदकुशी की वारदात हो चुकी है। मुझे अपने मकान की नेक-नामी का ख़याल भी करना है। मैं सिर्फ़ आ’ला ख़ानदान...”
“मिसिज़ विंगफ़ील्ड अस्ल बात बताईए क्या है? आप मिस्टर सक्सेना से क्या कह रही हैं?”


मैंने आग-बबूला हो कर पूछा
“उनसे पूछ रही हूँ कि ये रात के साढ़े बारह बजे मिस कोसूकुट्टी के कमरे में क्या कर रहे थे?”
इक़बाल भाई जैसे मुहज़्ज़ब और वज़्अ-दार आदमी को मेरी मौजूदगी में ऐसी लीचड़ बातें सुनना पड़ रही थीं। उनका चेहरा ग़म-ओ-ग़ुस्से से सुर्ख़ हो गया था मगर वो ख़ामोश रहे।
मिसिज़ विंगफ़ील्ड ग़ुस्से से बे-क़ाबू हो कर चंद मिनट तक उसी तरह चिल्लाती रहीं। गैलरी के दरवाज़े खुले और बंद हुए ऊपर की मंज़िलों के दरीचों में से सर बाहर निकाल कर लोगों ने झाँका। इक़बाल भाई चुप खड़े रहे। फिर वो दफ़अ’तन ख़ामोश हो गईं और अपने कमरे में जाकर दरवाज़ा ज़ोर से बंद कर लिया।


नीचे तहखाने में अच्छम्मा कोसूकुट्टी तेज़ बुख़ार में नीम-बेहोश पड़ी थी। इक़बाल भाई रात के ग्यारह बजे दवा लेकर उसके पास पहुँचे थे और घंटे भर से उसके पास बैठे हुए थे। उसी वक़्त मिसिज़ विंगफ़ील्ड ने ज़ीने के दरवाज़े में जाकर चिल्लाना शुरू’ कर दिया था।
“मुझे मा’लूम न था कि अच्छम्मा बीमार है”
मैंने नादिम हो कर कहा।
“मैं भी दस बजे के बा’द वापिस आई हूँ।”


“मुझे ख़ुद मा’लूम न था”
इक़बाल भाई ने कहा...
“दस बजे उसका फ़ोन आया कि उसकी तबीअ’त बहुत सख़्त ख़राब है।”
फिर उन्होंने आहिस्ता से बरसाती की जेब में हाथ डाला और एक लिफ़ाफ़ा निकाल कर मुझे दिया... “उसे रुपये की ज़रूरत होगी। सुब्ह को उसे दे देना”


इतना कह कर वो सर झुकाए हुए सीढ़ियाँ उतर कर फाटक से बाहर चले गए। मैंने लिफ़ाफ़ा खोला। उसमें दस पाऊंड के नोट थे। ये दस पाऊंड इक़बाल भाई ने जाने कौन-कौन से जतन कर के कमाए होंगे। मैं उन्हें सर झुकाए
घिसी हुई बरसाती ओढ़े तेज़ तेज़-क़दम रखते सुनसान सड़क पर एक तरफ़ को जाता देखती रही।
दूसरे दिन में चंद हफ़्ते के लिए शहर से बाहर जा रही थी। वापिस आकर मैं एक और जगह मुंतक़िल हो गई। मुझे मिसिज़ विंगफ़ील्ड से कोफ़्त होने लगी थी। लैंड-लेडियाँ ज़ियादा-तर आ’मियाना होती हैं। मगर मिसिज़ विंगफ़ील्ड जिस इंतिहाई घटिया अंदाज़ में इक़बाल भाई पर चीख़ी थीं
उस मंज़र की याद मेरे लिए बहुत तकलीफ़-दह थी।


अच्छम्मा कोसूकुट्टी तंदुरुस्त हो चुकी थी। उसे कहीं नौकरी भी मिल गई थी
मगर अपने लिए सारी दौड़ धूप करवाने और अपने काम निकलवाने के बा’द उसने इक़बाल भाई की तरफ़ से यकायक सर्द-मेहरी इख़्तियार कर ली। लेकिन वो वज़्अ-दारी से उससे शनासाई निभाते रहे। एक रोज़ फ़ोन की घंटी बजी और एक ख़ातून की आवाज़ आई
“हलो... हलो... मैं मिसिज़ आलोवीहारे बोल रही हूँ!”
“मिसिज़ आलोवीहारे?”


मैंने दुहराया।
“हाँ तुम मुझे पहचानती नहीं...? मैं तुम्हारी पुरानी लैंड लेडी हूँ
साबिक़ मिसिज़ विंगफ़ील्ड... मेरी शादी हो गई है। आज शाम को मेरे साथ आकर चाय पियो!”
शाम को मिसिज़ आलोवीहारे अपने कमरा-ए-नशिस्त के दरवाज़े पर शादाँ-फ़रहाँ मुझसे मिलीं। कमरे के आतिश-दान पर एक तस्वीर रखी थी


जिसमें मिसिज़ आलोवीहारे अपने उ’म्र से कोई दस साल छोटे एक सिन्घाली आदमी के साथ फूलों का गुच्छा हाथ में लिए खड़ी मुस्कुरा रही थीं। दूल्हे के बराबर में इक़बाल बख़्त सक्सेना कोट के कालर में कारनेशन सजाए मुतबस्सिम थे।
“मिस्टर सक्सेना मेरे शौहर के बैस्टमैन थे”
मिसिज़ आलोवीहारे ने इत्तिला दी।
इक़बाल भाई... दूसरे रोज़ मैंने मौसूफ़ से इस्तिफ़सार किया


“देख मुन्नी बात ये हुई कि उस रात जो वो बी-बी पंजे झाड़कर इस बुरी तरह मेरे पीछे पड़ गईं तो मैं फ़ौरन समझ गया कि वो हद से ज़ियादा फ़्रस्ट्रेशन और तन्हाई की शिकार हैं। उनकी मदद करना चाहिए। तूने बताया था कि वो काले आदमी तक से शादी करने को तैयार हैं। मैं कोलंबो के इस आलोवीहारे को जानता था
जो किसी दौलतमंद बेवा की तलाश में था। बड़ा शरीफ़ और ग़रीब लड़का है। मैंने मिसिज़ विंगफ़ील्ड का पता उसे बता दिया। दोनों की ज़िंदगी बन गई। इसमें कोई हर्ज हुआ मेरा?”
इक़बाल भाई समेत तलबा का बहुत बड़ा जत्था सालाना यूथ फ़ैस्टीवल के लिए प्राग जा रहा था। इस साल पाकिस्तानी तलबा को कम्यूनिस्ट ममालिक जाने की मुमानअ’त कर दी गई थी और उनमें से चंद लोग इस वज्ह से बहुत दिल-ए-गिरफ़्ता थे।
वफ़द के पराग रवाना होने से एक रोज़ क़ब्ल एक तक़रीब में मशरिक़ी पाकिस्तान के एक तालिब-इ’ल्म ने अफ़सोस से कहा


“हम लोग इस साल नहीं जा सकते... उधर वर्ल्ड का सारा कन्ट्री होगा। ख़ाली पाकिस्तान नहीं होगा...”
इक़बाल भाई फ़ौरन उसके पास गए और रसान से बोले...
“नूरुल-फ़ुर्क़ान भाई दिल छोटा मत करो। पाकिस्तान की नुमाइंदगी मैं कर दूँगा।”
प्राग में दुनिया-भर से आए हुए नौजवान एक अ’ज़ीमुश्शान कॉन्सर्ट में अपने-अपने मुल्कों के अ’वामी गीत गा रहे थे। इतने में स्टेज पर ख़ामोशी छाई। एक लड़की ने अनाउंस क्या


“अब हमारे अ’ज़ीज़ मुल्क पाकिस्तान के नुमाइंदे अपने देस के मज़दूरों का गीत सुनाएँगे।”
पाकिस्तान के नाम पर बहुत देर तक तालियाँ बजती रहीं और सफ़ेद खड़खड़ाती हुई शलवार
सियाह शेरवानी और भूरे रंग की क़राक़ली से मुज़य्यन बेहद रो’ब-दाब और वक़ार से चलते हुए कामरेड इक़बाल बख़्त माईक्रोफ़ोन के सामने आए। पाकिस्तान में अ’वामी और तरक़्क़ी-पसंद तहरीक की नाकामी के अस्बाब पर रोशनी डाली। और कहा
“साथियो अब मैं आपको अपने वतन-ए-अ’ज़ीज़ के मेहनत-कश तब्क़े का एक महबूब और रूह-परवर गीत सुनाता हूँ।”


और बेहद पाटदार आवाज़ में उन्होंने शुरू’ किया।
बोझ उठा लो हैया-हैया
बोझ उठाया हैया-हैया
महल बनेगा राजा जी का


पेट पलेगा हमारा-तुम्हारा
ऊंचा कर लो हैया-हैया
बोझ उठा लो
शेर बहादुर


हैया-हैया
मजमे’ पर इस गीत का बे-इंतिहा असर हुआ
और हस्ब-ए-मा’मूल सामई’न ने साथ-साथ आवाज़ मिलानी शुरू’ कर दी। मगर आगे चल कर सय्यद मतलबी फ़रीदाबादी के इस मशहूर गीत के बाक़ी बोल इक़बाल भाई के ज़हन से बिल्कुल उतर गए। दर-अस्ल उनको याद ही सिर्फ़ तीन बोल थे। लेकिन उन्होंने बड़े इत्मीनान से गाना रखा



प्याली कैसे भैया
ऐसे भाई हैया-हैया
चमचा-चमचा उठाया
हाँ हाँ भाई हैया-हैया


हज़ारों के मजमे’ ने एक साथ दोहरा दिया।
चमचा-चमचा उठाया
हाँ हाँ भाई हैया-हैया
इस तरह जो-जो अल्फ़ाज़ इक़बाल भाई के दिमाग़ में आते गए वो हैया-हैया के साथ जोड़ते गए और तालियों के तूफ़ान में उनका गीत इंतिहाई कामयाबी के साथ ख़त्म हुआ।


चैकोस्लोवाकिया से वापस

- क़ुर्रतुलऐन-हैदर


फिर शाम का अंधेरा छा गया। किसी दूर दराज़ की सरज़मीन से
न जाने कहाँ से मेरे कानों में एक दबी हुई सी
छुपी हुई आवाज़ आहिस्ता-आहिस्ता गा रही थी



चमक तारे से मांगी चांद से दाग़-ए-जिगर मांगा
उड़ाई तीरगी थोड़ी सी शब की ज़ुल्फ़-ए-बर्हम से
तड़प बिजली से पाई
हूर से पाकीज़गी पाई


हरारत ली नफ़स हाए मसीह-ए-इब्न-ए-मरियम से
ज़रा सी फिर रबूबियत से शान-ए-बेनियाज़ी ली
मुल्क से आ’जिज़ी
उफ़्तादगी तक़दीर-ए-शब्नम से


ख़िराम-ए-नाज़ पाया आफ़्ताबों ने
सितारों ने
चटक ग़ुंचों ने पाई
दाग़ पाए लाला-ज़ारों ने


कोई वायलिन के मद्धम सुरों पे ये गीत गाता रहा और फिर बहुत सी आवाज़ें प्यारी सी
जानी बूझी सी दूर पहाड़ों पर से उतरती
बादलों में से गुज़रती
चांद की किरनों पर नाचती हुई बिल्कुल मेरे नज़दीक आगईं। मेरे आस-पास पुराने नग़मे बिखेरने लगीं। मैं चुप-चाप ख़ामोश पड़ी थी। मैंने आँखें बंदकर लेनी चाहीं। मैंने सुना


वायलिन के तार लरज़ उठे... और फिर टूट गए।
“अमीना आपा!”
“हूँ।”
“अमीना आपा


अस्सलामु अ’लैकुम।”
“वाअ’लैकुम।”
“अमीना आपा
एक बात सुनिए।”


“क्या है भई?”
“ओफ़्फ़ो
भई अमीना आपा आप तो लिफ़्ट ही नहीं देतीं।”
“अरे भई क्या करूँ तुम्हारा...”


“बातें कीजीए
टॉफ़ी खाइए।”
“हुम।”
“अमीना आपा


हवाई जहाज़ में बैठिएगा?”
“ख़ुदा के लिए आसिफ़ मेरी जान पर रहम करो।”
“अमीना आपा वाक़ई’ इतना बेहतरीन फ्लाइंग फ़ोरटर्स आपके लिए कैनेडा से लाया हूँ।”
“आ... सिफ़... उल... लू...” ये मेरी आवाज़ थी।


अमीना आपा इंतिहाई बे-ज़ारी और फ़लसफ़े के आलम में सोफ़े पर उकड़ूं बैठी “हिन्दोस्तान का ग़िज़ाई बोहरान” पढ़ने में मशग़ूल थीं।
आसिफ़ ने मज़लूमियत के साथ मुझे देखा।
“चलो। मकीनो से तुम्हारा फ्लाइंग फ़ोरटर्स बनाएंगे... मेरा प्यारा बच्च...”
फिर हम अंधेरा पड़ने तक ड्रेसिंग रुम के दरीचे में बैठे मकीनो से तय्यारों के मॉडल बनाते रहे। “अमीना आपा अब तक ऐसी ही हैं।”


“तो क्या तुम्हारे दाग़-ए-मुफ़ारिक़त दे जाने के ग़म में तब्दील हो जातीं?”
“बहुत ऊंची जाती हैं भई... हिन्दोस्तान का ग़िज़ाई बोहरान... वो क्या होताहै शाहरुख?”
“डैश इट... मुझे नहीं मा’लूम अल्लाह
कौन अ’ज़ीमुश्शान चुग़द उनसे शादी करेगा?”


“ओफ़्फ़ो... बेहतरीन अमरीकी सिगरेट हैं... पियोगी?”
“चुप... अमीना आपा ने देख लिया तो कान पकड़ कर घर से बाहर निकाल देंगी।”
“बोर...”
फिर ये आवाज़ें भीगी रात की हवाओं के साथ नाचती हुई बहुत दूर हो गईं। मैंने सोने की कोशिश की। मेरी आँखों के आगे ख़्वाब का धुँदलका फैलता चला गया।


सर्व के दरख़्तों के पीछे से चांद आहिस्ता-आहिस्ता तुलूअ’ हो रहा था। वो बिल्कुल मा’मूली और हमेशा की सी ज़रा सुनहरी रात थी। हम उसी रोज़ 18
वारिस रोड से शिफ़्ट कर के इस लेन वाली कोठी में आए थे। उस रात हम अपने कमरे सजाने और सामान ठीक करने के बाद थक और उकता कर खाने के इंतिज़ार में ड्राइंगरूम के फ़र्श पर लोट लगा रहे थे। उ’स्मान एक नया रिकार्ड ख़रीद कर लाया था और उसे पच्चीसवीं मर्तबा बजा रहा था। मुझे अब तक याद है कि वो मलिका पुखराज का रिकार्ड था

“जागें तमाम रात


जगाएँ तमाम रात।” मलिका पुखराज की आवाज़ पर हम बहन भाईयों की क़ौम बिलइत्तिफ़ाक़ मरती थी। उ’स्मान जमाहियाँ ले रहा था। सबीहा कुछ पढ़ रही थी और मैं कुशनों पर कुहनियाँ टेके और पैर ऊपर को उठाए क़ालीन पर लेटी लेटी बोर हो रही थी।
और उस वक़्त सामने के बरामदे के अंधेरे में कुछ अजनबी से बूटों की चाप सुनाई दी और एक हल्की सी सीटी बजी... हलो... कोई है... और जैसे समुंदर की मौजों के तरन्नुम के साथ रेवड़ी कोटन के ऑर्केस्ट्रा की धन गूंज उठी।
“अब इस वक़्त कौन हो सकता है?” उ’स्मान ने एक तवील जमाही लेकर रेडियो ग्राम का पट ज़ोर से बंद कर दिया और खिड़की में से बाहर झांक कर देखा।
“वही होगा कृपा राम का आदमी... इन्कम टैक्स के क़िस्से वाला।” मैंने राय ज़ाहिर की और इंतिहाई बोरियत (boredome) के एहसास से निढाल हो कर करवट बदल ली।


“हलो... अरे भई कोई है अंदर।” बाहर से फिर आवाज़ आई।
“ये कृपा राम का चपरासी क़तई नहीं हो सकता। उसकी तो कुछ चार्ल्स ब्वाइर की सी आवाज़ है।” सबीहा के कान खड़े हो गए।
“डूब जाओ तुम ख़ुदा करे।” मैं और भी ज़्यादा बोर हो कर सबीहा को खा जाने के मसले पर ग़ौर करने लगी।
बाहर अंधेर में उ’स्मान और उस आधी रात के मुलाक़ाती के दरमियान इंतिहाई अख़लाक़ और तकल्लुफ़ में डूबा हुआ मुकालमा ब ज़ुबान-ए-अंग्रेज़ी हो रहा था।


“हमारे यहां अचानक बिजली फ़ेल हो गई है। मैं ये मा’लूम करने आया था कि सारी लाईन ही बिगड़ गई है या सिर्फ हमारे यहां ही ख़राब हुई है।”
“हमारे यहां की बिजली तो बिल्कुल ठीक है। आप फ्यूज़ के तार ले जाएं।” फिर कुछ खटपट के बाद उ’स्मान ने हैट रैक की दराज़ में से तारों का लच्छा निकाल कर हम-साए साहिब की नज़र किया और वो बूटों की चाप बरामदे की सीढ़ियों पर से उतर के रविश की बजरी पर से होती हुई फाटक तक पहुंच कर लेन के अंधेरे में खो गई। अगस्त की रात का नारंजी चांद सर्व के दरख़्तों पर झिलमिला रहा था।
ये आसिफ़ था... आसिफ़ अनवर... तुम्हें याद है ज़ारा! मैंने एक दफ़ा तुम्हें लाहौर से लिखा था कि हमारी एक बेहद दिलचस्प ख़ानदान से दोस्ती हो गई है। हमारे हम-साए हैं बेचारे। बिल्कुल हमारे sort के लोग। अब की क्रिसमस में तुम देहरादून के बजाय लाहौर आ जाओ तो ख़ूब enjoy करें। हम सबने माहरुख़ की रियासत तक बैल गाड़ियों पर जाने की स्कीम बनाई है। ये आसिफ़ की तजवीज़ थी जिसे मम्मी आफ़त कहती थीं। उन ही दिनों माहरुख़ की नई-नई शादी मेडिकल कॉलेज के एक मोटे और बे इंतिहा दिलचस्प लड़के से हुई थी और उसने हम सबको हमसायों समेत अपने गांव मदऊ’ किया था।
अल्लाह... वो दिन... वो रातें!


हमारी और उनकी कोठियों के बीच में वारिस रोड की आख़िरी लेन और उसके दोनों तरफ़ बाग़ की नीची सी दीवार थी। हम उसी दीवार को फलाँग कर एक दूसरे के यहां जाया करते थे। अक्सर जाड़ों की धूप में अपनी अपनी छतों पर बैठ कर ग्रामोफोन बजाने का मुक़ाबला रहता। ख़तरे के मौक़ों पर इन बहन-भाईयों को आईने की चमक के ज़रीये एस.ओ.एस. के पैग़ाम भेजे जाते। ये मा’लूम हो कर कि ये लोग भी यू.पी. के हैं किस क़दर ख़ुशी हुई थी। सबसे बड़ी बहन ज़कीया
अमीना आपा के साथ एम.ए. कर रही थीं। शकीला और प्रवीन सबीहा के साथ सेक्रेड हार्ट में थीं।
आसिफ़ साहिब उनके इकलौते भाई थे। सबकी आँखों का तारा। मुतवक़्क़े’ थे कि हम लोग भी उन्हें आँख का तारा समझ कर हमेशा उनके fusses बर्दाश्त करेंगे। आप केमिस्ट्री में एम.एससी. फ़र्मा रहे थे। पेट्रोल के रंग तब्दील करने के तजरबों के बे-इंतिहा शौक़ीन थे। सीटी के साथ साथ वायलिन बेहतरीन बजाते थे। मुग़ालता था कि बेहद ख़ूबसूरत हैं। घर की बुज़ुर्ग ख़वातीनऔर बच्चों से दोस्ती कर ली थी। कार इतनी तेज़ चलाते थे कि हमेशा चालान होता रहता था। लाहौर के सारे चौराहों के पुलिस मैन आपसे अच्छी तरह वाक़िफ़ थे। माल पर पैदल जाती हुई अल्ट्रा मॉडर्न लड़कियों को कार में लिफ़्ट देने के तजुर्बों के बहुत क़ाइल थे। मुख़्तसर ये कि इंतिहाई दिलचस्प आदमी थे आप।
और अमीना आपा... उनका ये आ’लम कि हमसे तीन-चार साल पहले क्या पैदा हुई थीं कि क़ियामत आगई थी। सुबह से शाम तक हम सबको बोस करने पर मुस्तइद। बी.ए. उन्होंने अलीगढ़ से किया था। एम.ए. और बी.टी. के लिए हमारे यहां आगई थीं और हमारी जान के लिए मुस्तक़िल क़िस्म का कोर्ट मार्शल। मुझे वो शाम कितनी तफ़सील से अच्छी तरह याद है। जैसे ये बातें अभी-अभी कल ही हुई हैं।


सफ़ेद कश्मीरी ऊन का गोला सुलझाते हुए मैंने आवाज़ में रिक़्क़त पैदा कर के कहा था
“अमीना आपा!”
“फ़रमाईए
कोई नई बात?” अमीना आपा


प्यारी आज शाम को ओपन एअर में अज़्रा आपा का रक़्स है।”
“जी। शहर भर के सारे प्रोग्राम आपको ज़बानी याद होते हैं... और प्लाज़ा में आज कौन सा फ़िल्म हो रहा है?”
“अमीना आपा! हुँक... हूँ...”
“इरशाद?”


“अमीना आपा हमें ले चलो... उदयशंकर और अज़्रा आपा रोज़ रोज़ कहाँ नज़र आएँगे भला... ज़कीया बाजी और शकीला वकीला सब जा रही हैं।”
“आसिफ़ भी साथ होगा।”
“मजबूरन चलेगा। बेचारा। कार वही ड्राईव करता है... उनका ड्राईवर तो आजकल बीमार है।”
“कोई ज़रूरत नहीं।”


और मैं तक़रीबन रोते हुए जाकर अपने ड्रेसिंग रुम की खिड़की में ऊन सुलझाने में मस्रूफ़ हो गई।
शाम का अंधेरा फैलता जा रहा था। नीचे मोटर गैरज की तरफ़ जाने वाली सड़क पर से वो आता हुआ नज़र आया। खिड़की के पास पहुंच कर टार्च की रोशनी तेज़ी से चमका कर उसने आहिस्ता से कहा
“हलो
जुलियट!”


“ख़ूब... मा’फ़ फ़रमाईए
मैं कम अज़ कम आपके साथ तो सैर अटेंड करने को तैयार नहीं हूँ।”
“आह... ओह... वो देखो सरो के पीछे से चांद किस क़दर स्टाइल से झांक रहा है।”
“बुलवाऊँ अमीना आपा को!”


“पिटवाओगी!”
अंदर कमरे में से ग़रारे की सरसराहाट की आवाज़ सुनाई दी।
“चुप
आगईं अमीना आपा।” मैं ज़रा अंधेरे में झुक गई। अमीना आपा शायद गैलरी की तरफ़ जा चुकी थीं। वो देर तक नीचे खड़ा बातें करता रहा।


“कैसी ख़ालिस 12 बोर हैं तुम्हारी अमीना आपा।” वो बी.एससी. तक अलीगढ़ में पढ़ चुका था इसलिए हम आपस का ज़रूरी तबादला-ए-ख़्याल वहीं की ज़बान में करते थे।
“12... 22 बल्कि आग़ा ख़ानी बोर...” मैंने उसकी राय से इत्तिफ़ाक़ किया। और फिर हमें ज़ोर की हंसी आगई। सोचो तो
अमीना आपा आग़ा ख़ानी बोर हैं!
और चांद के साये में गीत गाती हुई शामें गुज़रती चली गईं। पिछली कोठी के हमारे कमरे की सिंघार कमरे की सिम्त वाले साइड रुम में वायलिन बजता और सबीहा पढ़ते-पढ़ते किताबों पर सर रखकर आँखें बंद कर लेती। सरो और चिनार के पत्तों की सरसराहाट में से छन्ती हुई उसके पसंदीदा गीतों की आवाज़ ख़्वाब में कहीं परियों के मुल्क से आती हुई मा’लूम होती


“सुना है आ’लम-ए-बाला में कोई कीमियागर था।”
और अमीना आपा झुंजला कर तेज़ी से टाइप करना शुरू कर देतीं।
एक मर्तबा उ’स्मान साहिब कैरम में हारते-हारते जोश में आकर गाने लगे
“सितारे झिलमिला उठते हैं जब मैं शब को रोता हूँ।”


“ओहो आप शब को रोते भी हैं। चच चच चच...” आसिफ़ बोले। बेचारा उ’स्मान झेंप गया। “वो देखिए
सितारे झिलमिला रहे हैं
अब आप रोना शुरू कर दीजिए।”
हम सब ऊपर खुली छत की मुंडेरों पर बैठे थे। ज़कीया बाजी और अमीना आपा एक तरफ़ को मुड़ी हुई कुछ इश्तिराकियत और हिन्दोस्तान के पोस्टवार मसाइल पर हमारी अ’क़्ल-ओ-फ़हम से बाला-ए-तर गुफ़्तगु कर रही थीं।


“आसिफ़! अगर तुम इतरा न जाओ तो तुमसे कुछ नग़मासराई की दरख़्वास्त की जाये।” शकीला ने कहा।
“वाअ’दा करता हूँ क़तई नहीं इतराऊंगा। बेहद उम्दा मूड हो रही है।” उसने जवाब दिया।
“वही आ’लम-ए-बाला वाला...” सबीहा ने कहा।
“वो जो तुम अलीगढ़ के किसी शाइ’र के तरन्नुम में पढ़ा करते हो


वही भई... मग़रिब में इक तारा चमका।” मैंने कहा।
“क्या कहिए मुझे क्या याद आया? आप तो सामने तशरीफ़ रखती हैं
मुझे उस वक़्त क्या ख़ाक याद आएगा?”
“शुरू हुई इतराहट।”


फिर हम देर तक इस से सुनते रहे

मग़रिब में इक तारा चमका
क्या कहिए मुझे क्या याद आया


जब शाम का पर्चम लहराया
क्या कहिए मुझे क्या याद आया
फ़िज़ा ख़ामोश थी... दूर आसमान की नीलगूं बुलंदियों में चंद छोटे-छोटे रुपहले सितारे जगमगा कर धुँदलके में खो गए।
“क्या सच-मुच ये मद्धम तारे हमारी क़िस्मतों की अकेली राहों पर झिलमिलाते हैं।” सबीहा ने कुछ सोचते हुए


आहिस्ता-आहिस्ता
जैसे अपने आपसे पूछा।
“और क्या... किताबों में जो लिखा है। शेरो”... आसिफ़ ने फ़ौरन बड़ी मुस्तइद्दी से ज़रा आ’लिमाना अंदाज़ में कहना शुरू किया
क़ौल है कि वो इस क़दर tom boyish था और बा’ज़ दफ़ा हैरत होती थी कि ऐसे तिफ़लाना मिज़ाज का लड़का बड़ों के सामने और तकल्लुफ़ की सोसाइटी मैं किस तरह इतना संजीदा बन जाता है।


हम सब फिर चुप हो गए। ख़ामोश रात और खुली हुई फ़िज़ाओं की मौसीक़ी में ख़्वाबों की परियाँ सरगोशियाँ कर रही थीं
मुहब्बत... ज़िंदगी... मुहब्बत... ज़िंदगी... ओ बुलंद-ओ-बरतर ख़ुदावंद!
स्याह उफ़ुक़ के क़रीब एक बड़ा सा रोशन सितारा टूट कर एक लंबी सी चमकीली लकीर बनाता हुआ अंधेरे में ग़ायब हो गया। हम आसमान को देखने लगे।
“कोई बड़ा आदमी मर गया।” मैंने कहा।


“वाक़ई? अमीना आपा दी महात्मा गए।” आसिफ़ ने ज़रा ऊंची आवाज़ में कहा।
दूसरे लहज़े एक और नन्हा सा तारा टूटा।
“अरे उनके सेक्रेटरी भी...” उ’स्मान चिल्लाया।
उस रात बहुत से सितारे टूटे और हम सारी बातें छोड़ छाड़ कर आसमान को देखते रहे। और जो सितारा टूटता उसके साथ किसी बड़े लीडर को चिपका देते।


“सारी वर्किंग कमेटी ही सफ़र कर गई।” आख़िर में आसिफ़ इंतिहाईरंजीदा आवाज़ में बोले
“अमीना आपा ने हमारी बातें नहीं सुनें। वर्ना ख़ैरीयत नहीं थी। वो बेहद मशग़ूलियत से हमारे एक सोशलिस्ट क़िस्म के भाई और ज़कीया बाजी के साथ सियासियात पर तब्सिरा कर रही थीं
राजिंदर बाबू और डाक्टर ज़ाकिर हुसैन ने उस रोज़ यही कहा था।”
“वर्धा से लौटते में श्री चन्द्र शेखर जी ने मुझे भी यही बताया था कि अखंड भारतीय घास्य गेंद बल्ला भिड़ंत... सोशलिस्ट भाई ने कुछ कहना शुरू किया। ज़कीया बाजी बेहद आ’लिमाना और मुफ़क्किराना सूरत बनाए उनकी तरफ़ अ’क़ीदत के साथ मुतवज्जा थीं।


“अब यहां से भागना चाहिए।” आसिफ़ ने चुपके से कहा। और हम सब उन सियासतदानों को वहीं छत पर हिन्दोस्तान की क़िस्मत का फ़ैसला करते छोड़कर मुंडेरों पर से छलांगते हुए नीचे उतर आए।
दूसरे रोज़ सुबह की चाय की मेज़ पर उन्हीं सोशलिस्ट भाई ने
जो तीन चार दिन से बंबई से हमारे यहां आए हुए थे अपनी स्याह फ्रे़म की ऐ’नक में से
जो उनकी लंबी सी नाक पर बेहद इंटेलेक्चुअल अंदाज़ से रखी थी


ग़ौर से देखा। वो मुस्तक़िल तीन रोज़ से ख़ामोश क़िस्म का प्रोपेगंडा कर रहे थे कि हम लड़कियां उनसे वो सब किताबें और पम्फलेट ख़रीद लें जो उनके ज़बरदस्त चरमी बैग में बंद हमारे ज़ेहनों की सयासी तर्बीयत का इंतिज़ार कर रहे थे।
“शाहरुख आपा
अखंड भारतीय घास्य गेंद बल्ला भिड़ंत...” उ’स्मान ने चायदानी मेरी तरफ़ धकेलते हुए चुपके से कहा। मुझे और सबीहा को ज़ोर की हंसी आगई। अमीना आपा ने उ’स्मान की बात सुनकर हमें हंसते हुए देख लिया था। उन्होंने हम पर खा जाने वाली नज़रें डालीं और चाय बनाने में मम्मी की मदद करने लगीं। वो हमें सुधारने की तरफ़ से बिल्कुल ना उम्मीद हो चुकी थीं। ग़ुस्ल-ख़ाने में छोटा आ’रिफ़ नहाते हुए ज़ोर-ज़ोर से गा रहा था
“मग़रिब में इक तारा चमका... मग़रिब में इक तारा चमका...” और सोशलिस्ट भाई जल्दी-जल्दी संतरा खाने में मस्रूफ़ हो गए। दोपहर को ड्राइंगरूम के फ़र्श पर अमीना आपा और उनकी रफ़ीक़ों की एक मीटिंग हो रही थी जो सोशलिस्ट भाई के बंबई से आने के ए’ज़ाज़ में मुना’क़िद की गई थी। हमने शीशों में से झांक कर देखा। किस क़दर स्टाइल से वो सोशलिस्ट भाई पाइप का धुआँ उड़ा रहे थे।


उसी वक़्त आसिफ़ सीटी बजाता हुआ आ निकला
“या अल्लाह! कैसी कैसी मख़लूक़ तुमने नमुनतन अपने यहां जमा कर रखी है।” उसने घबरा कर कहा।
“चुप
जानते हो सोशलिस्ट भाई सबीहा से शादी करने की फ़िक्र में हैं।” मैंने बताया और आसिफ़ का हार्ट फ़ेल होते होते रह गया। शाम को बेहद तफ़सीलन अपने दोस्तों को हमने इस मीटिंग की कार्रवाई की रिपोर्ट सुनाई कि हमारे घर पर हिन्दोस्तान की कैसी-कैसी मुक़तदिर और आ’ला-ओ-अ’र्फ़ा हस्तियाँ आती हैं। आसिफ़ ने पूछा


“क्या वाक़ई सोशलिस्ट भाई वाली बात सच्च है? और क्या। तुमको कम अज़ कम ड्वेल तो लड़ना ही पड़ेगा।”
“और कौन कौन लोग थे ये।”
“तुम सबसे बारी-बारी ड्वेल लड़लो।”
“...को एक बार मैंने भी देखा था। ज़कीया बाजी! ख़ुदा की क़सम ये लंबी दाढ़ी।”


आरिफ़ ने अपनी मा’लूमात से इज़ाफ़ा करना चाहा। और एक साहिब हैं
अमीना आपा के ख़ास रफ़ीक़
जिनके साथ वो लखनऊ में प्रभात फेरियों के गीत लिखा करती थीं। वो यूं उचक उचक कर चलते हैं। उ’स्मान ने बाक़ायदा demonstrate कर के बताया।
“लखनऊ में रेडियो स्टेशन पर मैंने सलाम साहिब को देखा था। इस क़दर... बस क्या बताऊं... जो लड़की फ़िलबदीह उनको नज़र आती है उस पर एक नज़्म लिख डालते हैं।” सबीहा साहिबा ने इरशाद किया ताकि आसिफ़ और जले।


“फ़िलबदीह नज़र आती है? ज़रा अपनी उर्दू पर ग़ौर कीजिए।” मैंने जल कर आसिफ़ की हिमायत में कुछ और कहना चाहा लेकिन पीछे से शकीला की आवाज़ आई
“अरे ख़रगोशो! अमीना आपा इधर आ रही हैं। अपनी बिरादरी वालों के मुता’ल्लिक़ ऐसी बातें करते पाया तो जान की ख़ैर नहीं।” अमीना आपा और सोशलिस्ट भाई पाइप का धुआँ उड़ाते
हाथ में तीन चार तंबाकू के डिब्बे सँभाले वाक़ई’ लॉन की तरफ़ चले आरहे थे। हम सब भीगी बिल्लियों की तरह इधर उधर भाग गए।
कुछ अ’र्सा बाद सोशलिस्ट भाई बंबई वापस चले गए। बारिशों का मौसम शुरू हो चुका था। माह रुख के शौहर की जब मेडिकल कॉलेज में छुट्टियां हुईं तो वो चंद रोज़ के लिए अपनी ससुराल के गांव से हमारे यहां आगए। बड़े इंतिज़ाम से आसिफ़ से उसका पहली बार तआ’रुफ़ कराया गया। इस के गीचो से शौहर साहिब


जो डॉक्टरी के पांचवें साल में पढ़ते थे बेहद जले कि कैसे स्मार्ट और शानदार लड़के से उन लोगों की दोस्ती हुई है। माहरुख़ के आने पर हमने बहुत से प्रोग्राम बनाए थे लेकिन मुस्तक़िल बारिश होने लगी और हम कोई एक्टिविटी न कर पाए।
उस रोज़ सुबह जब मैं कॉलेज जाने के लिए मोटर ख़ाने में साईकल निकालने के लिए गई तो हमारे टमाटर या चुक़ंदर जैसी शक्ल वाले कश्मीरी चपरासी ने अपनी सुर्ख़ लंबी-लंबी मूँछें बेहद मुफ़क्किराना अंदाज़ में हिला कर कहा
“बी-बी जी आज तो कुछ बरसात का इरादा हो रहा है
मदरसे मत जाओ।”


मैं चिड़ गई। इंद्र माहरुख़ पच्चास मर्तबा कह चुकी थी कि “तुमको आज कॉलेज क़तई नहीं जाना चाहिए
ब्रिज खेलेंगे
नए रिकार्ड बजाएँगे और आसिफ़ को बुला कर बातें करेंगे।”
मैंने तक़रीबन चिल्ला कर कहा


“अली जो! तुम सीधे मेरी साईकल निकाल कर साफ़ करो। समझे। मैं ज़रूर जाऊँगी कॉलेज।”
“ज़रूर जाओ। और जो वहां पहुंच कर मा’लूम हुआ कि आज रेनी डे की छुट्टी है तो मुहतरमा भीगती हुई तशरीफ़ ले आईएगा। इतरा ही गईं बिल्कुल।” सबीहा ने ड्रेसिंग रुम की खिड़की में से झांक कर कहा।
“बी-बी
साहिब आते ही होंगे। मैं मोटर पर आपको पहुंचा दूँगा।” अली जो ने फिर मूँछें हिलाईं। मैंने कुछ जवाब नहीं दिया और उसके हाथ से साईकल लेकर तेज़ी से लेन में से निकल कर सड़क पर आगई। उसी वक़्त आसिफ़ अपने फाटक से बाहर निकला था। मुझे देखकर उसने अपनी साईकल मेरे साथ-साथ कर दी। ये पहला मौक़ा था कि घर के बाहर हमारा साथ हुआ था।


“हलो... आपकी थूथनी क्यों चढ़ी हुई है?”
“आपसे मतलब?”
“ओहो तो गोया आप ख़फ़गी फ़र्मा रही हैं। जुर्म! क्या सोशलिस्ट भाई आपके लिए भी पैग़ाम दे गए हैं?”
मैंने कोई जवाब न दिया। दोनों साईकलें बराबर चलती रहीं। वारिस रोड बिलकुल ख़ामोशऔर भीगी भीगी पड़ी थी। सूखे तालाब के नज़दीक किसी बदतमीज़ ने गा कर कहा


“ओय सावन के नज़्ज़ारे हैं...” और ग़ुस्से के मारे मेरा जी चाहा कि बस मर जाऊं।
अभी हम सड़क के मोड़ तक भी न पहुंचे थे कि बारिश का एक ज़ोरदार रेला आगया।
“आख़िर तुम जा कहाँ रही हो भई?”
“जहन्नुम में...” फिर तुम बोले। और मैं न जाने क्यों जेल रोड पर मुड़ गई। अभी मैं घर से बहुत दूर नहीं गई थी। दरख़्तों के झुण्ड में से अपनी कोठी की छत अब भी नज़र आरही थी लेकिन वापस जाकर शिकस्त का ए’तराफ़ करने की हिम्मत न पड़ी।


“शाहरुख घर वापस जाओ।”
“नहीं।”
“क्या सबीहा से सुबह-सुबह लड़ाई हुई है?”
आपको क्यों इतनी मेरी फ़िक्र पड़ी है। अपना रास्ता लीजिए आप।”


“और तुम्हें यूं बेच मंजधार में छोड़ जाऊं।”
“आप मेरी हिफ़ाज़त का हक़ कब से रखते हैं?”
“अच्छा मैं बताऊं बेहतरीन तरकीब। यहां पहाड़ी पर किसी साया-दार दरख़्त के नीचे रुक जाओ और जब बारिश कम हो जाएगी तो जाकर कह देना कि सिर्फ एक पीरियड अटेंड कर के आरही हूँ।”
“जी हाँ


और आप भी इस दरख़्त के नीचे तशरीफ़ रखें। इस नाज़ुक ख़्याली की दाद देती हूँ।”
“अच्छा तो इसी तरह बारिश में सड़कों के चक्कर लगाती रहिए। मेरा क्या है
निमोनिया होगा
मर जाओगी।” उसने वाक़ई जल कर कहा और अपनी साईकिल वारिस रोड की तरफ़ मोड़ ली।


“मर जाओ तुम ख़ुद...” मैंने ज़रा ज़ोर से कहा। वो काफ़ी दूर निकल गया था। फिर मैंने सोचा कि वाक़ई यूं लड़कों की तरह सड़कों पर चक्कर लगाना किस क़दर ज़बरदस्त हिमाक़त है। मैंने उसके क़रीब पहुंच कर कहा
“आसिफ़!” वो चुप रहा।
“आसिफ़ सुलह कर लो।”
“फिर लड़ोगी?”


“नहीं।”
“वाअ’दा फ़रमाईए।”
“वाअ’दा तो नहीं लेकिन कोशिश ज़रूर करूँगी।” मैंने अपना पसंदीदा और निहायत कार-आमद जुमला दुहराया।
“घर चलो वापस।” उसने हुक्म लगाया। मैंने इसी में आ’फ़ियत समझी क्योंकि अच्छी ख़ासी सर्दी महसूस होने लगी। चुनांचे मैंने ख़ामोशी से उसके साथ चलना शुरू कर दिया। अभी हम वारिस रोड के मोड़ पर ही थे कि क्या नज़र आया कि चली आरही हैं अमीना आपा कार में बैठी हुई ज़न्नाटे में। हमारे क़रीब पहुंच कर ज़ोर से ब्रेक लगा के उन्होंने कार रोक ली और साईकिल पर बैठे-बैठे मेरी रूह फ़िल-फ़ौर क़फ़स-ए-उंसरी से आ’लम-ए-बाला की तरफ़ परवाज़ कर गई। उन्होंने मुझे बिल्कुल सालिम खा जाने वाली नज़रों से देखा।


“आपा! मैं कॉलेज से आरही थी तो रस्ते में देखिए बारिश आगई।” मैंने अपनी आवाज़ बे-इंतिहा मरी हुई पाई।
“ओहो
आपका कॉलेज अब इतवार के रोज़ भी खुलता है।”
और इस वक़्त मुझे याद आया कि आज कमबख़्त इतवार था। भीगी बिल्ली की तरह मैं बेचारी उनके पास जा बैठी। ड्राईवर ने साईकिल पीछे बाँधी और हम चल दिए घर को। अमीना आपा ने अख़लाक़न भी आसिफ़ से न कहा कि तुम भी कार में आ जाओ। वो बेचारा भीगता भागता न जाने किधर को चला गया।


घर पहुंच कर इतने ज़ोर की डाँट पिलाई है अमीना आपा ने कि लुत्फ़ आगया। इस सानिहे के बाद कुछ अ’र्से के लिए आसिफ़ के साथ ब्रिज और कैरम मौक़ूफ़ वायलिन
सीटियाँ
टार्च और आईने की चमक के ज़रीये’ एस.ओ.एस. के पैग़ामात मुल्तवी... और मग़रिब में झिलमिलाते तारों के सारे रूमान का ख़ातिमा बिलख़ैर हो गया।
मेडिकल कॉलेज जब खुला तो माह रुख़ अपनी रियासत वापस चली गई। एक रोज़ हमने सुना कि आ’रिफ़ हमारी बद-मज़ाक़ी से ख़फ़ा हो कर मरी जा रहा है। दर असल वो ज़रूरी काम के लिए वहां जा रहा था। बहर हाल हमको उसका बेहद अफ़सोस था कि महज़ अमीना आपा की वजह से कैसा अच्छा और दिलचस्प दोस्त हमसे नाराज़ हो गया। मरी में उसके चचा रहते थे जिनकी भूरे बालों और सब्ज़ आँखों वाली ख़ूबसूरत लड़की से अक्सर उसकी मंगनी का तज़किरा किया जाता था। फिर उस रोज़ हमें कितनी ख़ुशी हुई है जब ये मा’लूम हुआ है कि अमीना आपा मुस्लिम गर्ल्ज़ कॉलेज में इकोनॉमिक्स की लेक्चरर हो कर अलीगढ़ जा रही हैं।


जाने वाली शाम वो बड़े सुकून के साथ आईने के सामने खड़ी स्टेशन जाने की तैयारी कर रही थीं। मैंने उनकी नज़र बचा कर खिड़की में से झांक कर देखा। वो सरो के दरख़्तों के उस पार अपने कमरे में लैम्प के सामने इंतिहाई इन्हिमाक से पढ़ने में मसरूफ़ था। उस वक़्त मैंने सोचा कि काश वो रूठा हुआ न होता तो हमेशा की तरह अमीना आपा पर कोई एक्टिविटी करते। सिंघार मेज़ पर से दस्ती आईना उठा कर उसकी चमक के ज़रीये एस.ओ.एस. का पैग़ाम भेजने की फ़िक्र कर रही थी कि अमीना आपा ने झट मेरे हाथ से आईना ले लिया और उसमें अपने बालों का जायज़ा लेने लगीं और मैं उनके अलीगढ़ पहुंचते ही किसी हद से ज़्यादा वहशत-ज़दा प्रोफ़ेसर के इश्क़ में मुब्तला होजाने के इन्हिमाक पर ग़ौर करने लगी। लेकिन ख़ुदा ऐसी तजवीज़ क़बूल कब करता है!
अमीना आपा जा रही थीं। मैंने चुपके से सबीहा से कहा कि वो बाग़ की पिछली दीवार पर एस. ओ.एस. (सबीहा
उ’स्मान
शाहरुख) का पैग़ाम लिख आए। सबीहा ने कोयले से लिख दिया


“मत जाओ।”
सुबह को उसके नीचे लिखा हुआ मिला
“ज़रूर जाऊंगा।”
और आसिफ़ भी चला गया। बड़ी जान जली। लेकिन क्या करते। उसके कुछ अ’र्से बाद सर्मा की छुट्टीयों में हम ज़ारा के पास देहरादून चले गए।


वहां एक रात ज़ारा अपनी एक दोस्त के साथ ओडियन से निकल कर बाहर अंधेरे में जब अपनी कार में बैठी और कहा कि ग़फ़ूर
प्रमीला बाबा को लिटन रोड पहुंचाते हुए अब सीधे घर चलो। सामने ड्राईवर की सीट पर से किसी साहिब ने मरी हुई आवाज़ में अ’र्ज़ किया कि “जी में ग़फ़ूर क़तई नहीं हूँ। मेरा नाम पायलट ऑफीसर आसिफ़ अनवर है। और मुझे आपसे मिलकर यक़ीन फ़रमाईए इंतिहाई क़लबी मसर्रत महसूस हुई है।” और कार स्टार्ट कर दी गई।
ज़ारा और प्रमीला ख़ौफ़ और ग़ुस्से से चिल्ला उठीं
“आप कौन हैं और हमारी कार में क्यों घुस गए? रोकिये फ़ौरन।”


“जी इत्तिफ़ाक़ से ये कार ख़ाकसार की है। देहरादून में ओडियन के सामने एक ही तरह की दो कारों का पार्क होजाना बहुत ज़्यादा ना-मुम्किनात में से नहीं है।”
“ख़त्म कीजिए अपनी तक़रीर और रोकिये मोटर।”
“प्रमीला बाबा को लिटन रोड पहुंचा दिया जाएगा। इस क़दर परेशान न होइए
कोहरा बहुत ज़्यादा है। रात बेहद सर्द है और हम आधे रस्ते आगए हैं।”


दोनों बच्चीयां बेचारी झुँझलाहट और ग़ुस्से के मारे कुछ और कह भी न पाई थीं कि चंद मिनटों में कार ज़न्नाटे से हमारी बरसाती में दाख़िल हो गई।
मा’लूम हुआ कि आप देहरादून में एयर फ़ोर्स के इंटरव्यू के बाद मेडिकल के लिए आए हुए हैं। ख़ूब आपको आड़े हाथों लिया गया। मम्मी ने डाँटा कि तुम हम सबसे रुख़्सत हुए बग़ैर ही इस तरह अचानक मरी चले गए। उसने बिगड़ कर कहा कि अमीना आपा ने क्यों शाहरुख को साईकिल पर बारिश में भीगने की वजह से डाँट पिलाई थी। सोशलिस्ट भाई मंतिक़ और जुग़राफ़ीए के किस नुक़्ते की रु से सबीहा से शादी करने की फ़िक्र में थे और माहरुख़ के मियां
क़िबला डाक्टर साहिब
किस लिए उससे जले जाते थे? मुख़्तसर ये कि हम लोगों में सुलह सफ़ाई हो गई और फिर पहले की तरह दोस्त बन गए।


फिर वही ब्रिज
कैरम
शरारतें और गाने। वही मग़रिब में एक तारा चमका। आतिश-दान की रोशन आग के सामने बैठे हुए हम सब इस सह्र अंगेज़ आवाज़ और वायलिन के नग़मे सुनते



क्या कहिए मुझे क्या याद आया
क्या कहिए मुझे क्या याद आया
टीले की तरफ़ चरवाहे की बंसी की सदा हल्की हल्की
और शाम की देवी की चुनरी शानों से परे ढलकी ढलकी


मग़रिब में इक तारा चमका!
और फिर जो एक रोज़ मैंने आसिफ़ के अपने बहनोई बनने के इमकानात पर नज़र की तो मुझे ये ख़्याल बहुत ख़ासा पसंद आया। क्रिसमस की ता’तीलात में अमीना आपा भी अलीगढ़ से देहरादून आगई थीं। मम्मी तक पहुंचाने के लिए अमीना आपा के सामने ये तजवीज़ पेश कर देनी बेहद ज़रूरी थी। एक रात जब खाने के बाद अमीना आपा शशमाही इम्तिहान के पर्चे देख रही थीं
मैं दबे-पाँव उनके कमरे में पहुंची और इधर-उधर की बेमा’नी बातों के बाद ज़रा डरते हुए बोली
“अमीना आपा!”


“हूँ।”
“अमीना आपा। एक बात सुनिए।”
“फ़रमाईए।”
“अर... या’नी कि... अगर आसिफ़ की शादी कर दी जाये तो कैसा रहेगा?”


“बहुत अच्छा रहे।”
“मेरा मतलब है सबीहा के साथ।”
“आपकी बलंद नज़री की दाद देती हूँ। किस क़दर आ’ला ख़्यालात हैं।”
“लेकिन... लेकिन अमीना आपा आपको मा’लूम नहीं कि आसिफ़ और सबीहा एक दूसरे को पसंद करते हैं


या’नी दूसरे लफ़्ज़ों में ये कि मुहब्बत करते हैं एक दूसरे से।” मैंने ज़रा ऐसे mild तरीक़े से कहा आमेना आपा को दफ़अ’तन shock न हो जाए। अमीना आपा की उंगलियों से क़लम छूट गया और इस तरह देखने लगीं जैसे अब उन्हें क़ुर्ब-ए-क़यामत का बिल्कुल यक़ीन हो चला है।
“क्या कहा...? मुहब्बत! मुहब्बत! उफ़ किस क़दर। तबाहकुन
मुख़र्रिब उल-अख़लाक़ ख़्यालात हैं। मुहब्बत। या अल्लाह। मुझे नहीं मा’लूम था कि ऐसी वाहियात बातें भी तुम लोगों के दिमाग़ में घुस सकती हैं। मेरी सारी तर्बीयत...”
“लेकिन अमीना आपा देखिए तो इसमें मोज़ाइक़ा किया है? आसिफ़ नौकर भी हो गया है। एक दम से साढे़ छः सौ का स्टार्ट उसे मिल रहा है। वो बहुत अच्छा लड़का है। सबीहा भी बहुत अच्छी लड़की है। दोनों की कितनी अच्छी गुज़रेगी अगर उनकी शादी...”


“शादी... शादी... क्या इस लग़्वियत का ख़्याल किए बग़ैर तुम लोग रह ही नहीं सकते। तुम्हें दुनिया में बहुत काम करने हैं
तूफ़ानों से लड़ना है
मुल्क का मुस्तक़बिल सँवारना है।”
“पर अमीना आपा एक के बजाय दो इन्सान साथ साथ तूफ़ानों से ज़्यादा बेहतर तरीक़े पर लड़ सकते हैं। और आसिफ़ तो हवाई जहाज़ उड़ाने लगेगा!”


“चुप रहो... आसिफ़... हुँह... ये लड़का मुझे क़तई पसंद नहीं। तुम्हें मा’लूम होना चाहिए कि मुझे एक आँख नहीं भाता। कुछ बहुत अ’जीब सा शख़्स है। बच्चों की तरह हँसता है। लड़कियों में हद से ज़्यादा दिलचस्पी लेता है और ग़ज़ब ये कि कल शाम सबीहा को डार्लिंग कह कर पुकार रहा था... इंतिहा हो गई!”
अमीना आपा कुछ और लेक्चर पिलातीं इसलिए मैंने अपनी ख़ैरीयत इसी में देखी कि चुपके से उठकर चली आऊँ। अपने कमरे में आकर सोचने लगी
आसिफ़ मुझे क़तई पसंद नहीं। एक आँख नहीं भाता। लड़कियों में हद से ज़्यादा दिलचस्पी लेता है। तो क्या उसे लड़कियों की बजाय अलमारियों और चाय के चमचों में दिलचस्पी लेना चाहिए? अब क्या किया जाये?
आसिफ़ साहिब ट्रेनिंग के लिए अंबाले और फिर शायद पूना तशरीफ़ ले गए और बहुत जल्द निहायत आ’ला दर्जे के हवाबाज़ बन गए। इंतिहा से ज़्यादा daring और ख़तरे की उड़ानें करने में माहिर और पेश-पेश। हादिसों से कई बार बाल-बाल बचे। एक दफ़ा’ एक नई मशीन की टेस्ट फ़्लाईट के लिए एरोड्रोम से इस ज़न्नाटे से निकले कि ऊपर पहुंच कर मा’लूम हुआ सिर्फ़ इंजन आपके पास है और तय्यारे की बॉडी पीछे ज़मीन पर रह गई है। हम देहरादून ही में थे जब वो अंबाले से सहारनपुर होता हुआ देहरादून आया। रास्ते में डाइविंग के शौक़ में आप इस क़दर नीचे उतरे कि एक कोठी की छत पर लगे हुए एरियल हवाई जहाज़ के पहियों में उलझ कर साथ-साथ उड़ते चले गए। आस-पास की सारी कोठियों के तार इस तरह हिल गए जैसे ज़लज़ला आगया है और लोग गड़-गड़ाहट के शोर से परेशान हो कर बाहर निकल आए। वो कोठी एक अंग्रेज़ कर्नल की थी। आसिफ़ बहुत डरा कि कहीं वो आसिफ़ के अफ़सरों से उसकी शिकायत न कर दे लेकिन ऐ’न मौके़ पर उस बूढ़े कर्नल की लड़की


जिसकी ख़्वाबगाह के रोशनदानों के ऊपर से आप गुज़रे थे
आपके इश्क़ में मुब्तिला हो गई और मुआ’मला रफ़ा-दफ़ा हुआ।
पूना से आसिफ़ को एकदम कनाडा भेज दिया गया। समुंदर पार जाने से पहले वो हम सबसे रुख़्सत होने के लिए घर आया। पप्पा का तबादला लाहौर से हो चुका था और हम सब लखनऊ आगए थे। मम्मी और ख़ाला बेगम ने उसके बहुत सारे इमाम-ए-ज़ामन बाँधे और उ’स्मान और आ’रिफ़ ने ढेरों फूलों से लाद दिया। हमने उसकी पसंदीदा ड्रमर ब्वॉय टॉफ़ी का एक बड़ा सा डिब्बा उसके अटैची में रख दिया। चलते वक़्त उसने कहा
“शाहरुख प्यारी! अमीना आपा जब अलीगढ़ से आएं तो उनसे मेरा सलाम कह देना और अगर सोशलिस्ट भाई से सबीहा ने शादी कर ली तो याद रखना में चुपके से एक रोज़ आकर उनके घर पर बम गिरा जाऊँगा।”


हम बरामदे की सीढ़ियों पर से आहिस्ता-आहिस्ता उतर रहे थे।
“शाहरुख... सबीहा
डार्लिंग्स...”
“आसिफ़! हम हमेशा बेहतरीन दोस्त रहेंगे ना?”


“हमेशा...!”
“और तुम कनाडा से बहुत सारे पिक्चर पोस्टकार्ड भेजोगे?”
बहुत सारे।”
“और वहां जितने गाने सीखोगे उनकी ट्युनें लिख-लिख कर भेजा करोगे।”


“बिल्कुल।”
“और हवाई जहाज़ इतना नीचा नहीं उड़ाओगे कि लोगों के घरों के एरियल और अंग्रेज़ लड़कियों के दिल टूट जाएं।”
“क़तई नहीं।”
फिर वो चला गया। बहुत दिनों सम

- क़ुर्रतुलऐन-हैदर


पूना में रेसों का मौसम शुरू होने वाला था कि पेशावर से अ’ज़ीज़ ने लिखा कि मैं अपनी एक जान पहचान की औरत जानकी को तुम्हारे पास भेज रहा हूँ
उसको या तो पूना में या बंबई में किसी फ़िल्म कंपनी में मुलाज़मत करा दो। तुम्हारी वाक़फ़ियत काफ़ी है
उम्मीद है तुम्हें ज़्यादा दिक़्क़त नहीं होगी।
वक़्त का तो इतना ज़्यादा सवाल नहीं था लेकिन मुसीबत ये थी कि मैंने ऐसा काम कभी किया ही नहीं था। फ़िल्म कंपनियों में अक्सर वही आदमी औरतें लेकर आते हैं जिन्हें उनकी कमाई खानी होती है। ज़ाहिर है कि मैं बहुत घबराया लेकिन फिर मैंने सोचा


अ’ज़ीज़ इतना पुराना दोस्त है
जाने किस यक़ीन के साथ भेजा है
उसको मायूस नहीं करना चाहिए।
ये सोच कर भी एक गो न तस्कीन हुई कि औरत के लिए


अगर वो जवान हो
हर फ़िल्म कंपनी के दरवाज़े खुले हैं। इतनी तरद्दुद की बात ही क्या है
मेरी मदद के बग़ैर ही उसे किसी न किसी फ़िल्म कंपनी में जगह मिल जाएगी।
ख़त मिलने के चौथे रोज़ वो पूना पहुंच गई। कितना लंबा सफ़र तय करके आई थी


पेशावर से बंबई और बंबई से पूना। प्लेटफार्म पर चूँकि उसको मुझे पहचानना था
इसलिए गाड़ी आने पर मैंने एक सिरे से डिब्बों के पास से गुज़रना शुरू किया। मुझे ज़्यादा दूर न चलना पड़ा क्योंकि सेकंड क्लास के डिब्बे से एक मुतवस्सित क़द की औरत जिसके हाथ में मेरी तस्वीर थी उतरी।
मेरी तरफ़ वो पीठ करके खड़ी होगई और एड़ियाँ ऊंची करके मुझे हुजूम में तलाश करने लगी। मैंने क़रीब जा कर कहा
“जिसे आप ढूंढ रही हैं वो ग़ालिबन मैं ही हूँ।”


वो पलटी
“ओह
आप!” एक नज़र मेरी तस्वीर की तरफ़ देखा और बड़े बेतकल्लुफ़ अंदाज़ में कहा
“सआदत साहब! सफ़र बहुत ही लंबा था। बंबई में फ्रंटियर मेल से उतर कर इस गाड़ी के इंतिज़ार में जो वक़्त काटना पड़ा


उसने तबीयत साफ़ कर दी।”
मैंने कहा
“अस्बाब कहाँ है आपका?”
“लाती हूँ।” ये कह कर वो डिब्बे के अंदर दाख़िल हुई। दो सूटकेस और एक बिस्तर निकाला। मैंने क़ुली बुलवाया। स्टेशन से बाहर निकलते हुए उसने मुझ से कहा


“मैं होटल में ठहरूंगी।”
मैंने स्टेशन के सामने ही उसके लिए एक कमरे का बंदोबस्त कर दिया। उसे ग़ुस्ल-वुस्ल करके कपड़े तबदील करने थे और आराम करना था
इसलिए मैंने उसे अपना एड्रेस दिया और ये कह कर कि सुबह दस बजे मुझसे मिले
होटल से चल दिया।


सुबह साढ़े दस बजे वो प्रभात नगर
जहां मैं एक दोस्त के यहां ठहरा हुआ था
आई। जगह तलाश करते हुए उसे देर हो गई थी। मेरा दोस्त इस छोटे से फ़्लैट में
जो नया नया था मौजूद नहीं था। मैं रात देर तक लिखने का काम करने के बाइ’स सुबह देर से जागा था


इसलिए साढ़े दस बजे नहा धो कर चाय पी रहा था कि वो अचानक अंदर दाख़िल हुई।
प्लेटफार्म पर और होटल में थकावट के बावजूद वो जानदार औरत थी मगर जूंही वो इस कमरे में जहां मैं सिर्फ़ बनयान और पाजामा पहने चाय पी रहा था दाख़िल हुई तो उसकी तरफ़ देख कर मुझे ऐसा लगा जैसे कोई बहुत ही परेशान और ख़स्ताहाल औरत मुझसे मिलने आई है।
जब मैंने उसे प्लेटफार्म पर देखा था तो वो ज़िंदगी से भरपूर थी लेकिन जब प्रभात नगर के नंबर ग्यारह फ़्लैट में आई तो मुझे महसूस हुआ कि या तो इसने ख़ैरात में अपना दस पंद्रह औंस ख़ून दे दिया है या इसका इस्क़ात होगया है।
जैसा कि मैं आप से कह चुका हूँ


घर में और कोई मौजूद नहीं था
सिवाए एक बेवक़ूफ़ नौकर के। मेरे दोस्त का घर जिसमें एक फ़िल्मी कहानी लिखने के लिए मैं ठहरा हुआ था
बिल्कुल सुनसान था और मजीद एक ऐसा नौकर था जिसकी मौजूदगी वीरानी में इज़ाफ़ा करती थी।
मैंने चाय की एक प्याली बना कर जानकी को दी और कहा


“होटल से तो आप नाश्ता कर के आई होंगी
फिर भी शौक़ फ़रमाईए!”
उसने इज़्तिराब से अपने होंट काटते हुए चाय की प्याली उठाई और पीना शुरू की। उसकी दाहिनी टांग बड़े ज़ोर से हिल रही थी। उसके होंटों की कपकपाहट से मुझे मालूम हुआ कि वो मुझसे कुछ कहना चाहती है लेकिन हिचकिचाती है। मैंने सोचा शायद होटल में रात को किसी मुसाफ़िर ने उसे छेड़ा है चुनांचे मैंने कहा
“आपको कोई तकलीफ़ तो नहीं हुई होटल में?”


“जी
जी नहीं!”
मैं ये मुख़्तसर जवाब सुन कर ख़ामोश रहा। चाय ख़त्म हुई तो मैंने सोचा अब कोई बात करनी चाहिए। चुनांचे मैंने पूछा
“अ’ज़ीज़ साहब कैसे हैं?”


उसने मेरे सवाल का जवाब न दिया। चाय की प्याली तिपाई पर रख कर उठ खड़ी हुई और लफ़्ज़ों को जल्दी जल्दी अदा कर के कहा
“मंटो साहब आप किसी अच्छे डाक्टर को जानते हैं?”
मैंने जवाब दिया
“पूना में तो मैं किसी को नहीं जानता।”


“ओह!”
मैंने पूछा
“क्यों
बीमार हैं आप?”


“जी हाँ।” वो कुर्सी पर बैठ गई।
मैंने दरयाफ़्त किया
“क्या तकलीफ़ है?”
उसके तीखे होंट जो मुस्कुराते वक़्त सिकुड़ जाते थे या सुकेड़ लिए जाते थे वा हुए। उसने कुछ कहना चाहा लेकिन कह न सकी और उठ खड़ी हुई


फिर मेरा सिगरेट का डिब्बा उठाया और एक सिगरेट सुलगा कर कहा
“माफ़ कीजिएगा
मैं सिगरेट पिया करती हूँ।”
मुझे बाद में मालूम हुआ कि वो सिर्फ़ सिगरेट पिया ही नहीं करती बल्कि फूंका करती थी। बिल्कुल मर्दों की तरह सिगरेट उंगलियों में दबा कर वो ज़ोर ज़ोर से कश लेती और एक दिन में तक़रीबन पछत्तर सिगरेटों का धुआँ खींचती थी।


मैंने कहा
“आप बताती क्यों नहीं कि आपको तकलीफ़ क्या है?”
उसने कुंवारी लड़कियों की तरह झुँझला कर अपना एक पांव फ़र्श पर मारा।
“हाय अल्लाह! मैं कैसे बताऊं आपको?” ये कह कर वो मुस्कुराई। मुस्कुराते हुए तीखे होंटों की मेहराब में से मुझे उसके दाँत नज़र आए जो ग़ैर-मा’मूली तौर पर साफ़ और चमकीले थे। वो बैठ गई और मेरी आँखों में अपनी डगमगाती आँखों को न डालने की कोशिश करते हुए उसने कहा


“बात ये है कि पंद्रह-बीस दिन ऊपर हो गए हैं और मुझे डर है कि...”
पहले तो मैं मतलब न समझा लेकिन जब वो बोलते बोलते रुक गई तो मैं किसी क़दर समझ गया
“ऐसा अक्सर होता है।”
उसने ज़ोर से कश लिया और मर्दों की तरह ज़ोर से धुंए को बाहर निकालते हुए कहा


“नहीं... यहां मुआ’मला कुछ और है। मुझे डर है कि कहीं कुछ ठहर न गया हो।”
मैंने कहा
“ओह!”
उसने सिगरेट का आख़िरी कश लेकर उसकी गर्दन चाय की तश्तरी में दबाई। “अगर ऐसा हो गया है तो बड़ी मुसीबत होगी। एक दफ़ा पेशावर में ऐसी ही गड़बड़ हो गई थी। लेकिन अ’ज़ीज़ साहब अपने एक हकीम दोस्त से ऐसी दवा लाए थे जिससे चंद दिन ही में सब साफ़ हो गया था।”


मैंने पूछा
“आपको बच्चे पसंद नहीं?”
वो मुस्कुराई
“पसंद हैं... लेकिन कौन पालता फिरे।”


मैंने कहा
“आपको मालूम है इस तरह बच्चे ज़ाए करना जुर्म है।”
वो एकदम संजीदा हो गई। फिर उसने हैरत भरे लहजे में कहा
“मुझसे अ’ज़ीज़ साहिब ने भी यही कहा था। लेकिन सआदत साहब मैं पूछती हूँ इसमें जुर्म की कौन सी बात है। अपनी ही तो चीज़ है और इन क़ानून बनाने वालों को ये भी मालूम है कि बच्चा ज़ाए कराते हुए तकलीफ़ कितनी होती है...बड़ा जुर्म है!”


मैं बेइख़्तयार हंस पड़ा
“अ’जीब-ओ-ग़रीब औरत हो तुम जानकी!”
जानकी ने भी हंसना शुरू कर दिया
“अ’ज़ीज़ साहब भी यही कहा करते हैं।”


हंसते हुए उसकी आँखों में आँसू आगए। मेरा मुशाहिदा है जो आदमी पुर-ख़ुलूस हों। हंसते हुए उसकी आँखों में आँसू ज़रूर आजाते हैं। उसने अपना बैग खोल कर रूमाल निकाला और आँखें ख़ुश्क करके भोले बच्चों के अंदाज़ में पूछा
“सआदत साहब! बताईए
क्या मेरी बातें दिलचस्प होती हैं?”
मैंने कहा


“बहुत।”
“झूट!”
“इसका सबूत?”
उसने सिगरेट सुलगाना शुरू कर दिया। “भई शायद ऐसा हो। मैं तो इतना जानती हूँ कि कुछ कुछ बेवक़ूफ हूँ। ज़्यादा खाती हूँ


ज़्यादा बोलती हूँ
ज़्यादा हंसती हूँ। अब आप ही देखिए न ज़्यादा खाने से मेरा पेट कितना बढ़ गया है। अ’ज़ीज़ साहिब हमेशा कहते रहे जानकी कम खाया करो
पर मैंने उन की एक न सुनी। सआदत साहब बात ये है कि मैं कम खाऊं तो हर वक़त ऐसा लगता है कि मैं किसी से कोई बात कहना भूल गई हूँ।”
उसने फिर हंसना शुरू किया। मैं भी उसके साथ शरीक होगया।


उसकी हंसी बिल्कुल अलग क़िस्म की थीं। बीच बीच में घुंघरू से बजते थे।
फिर वो इसक़ात-ए-हमल के मुतअ’ल्लिक़ बातें करने ही वाली थी कि मेरा दोस्त
जिसके यहां मैं ठहरा हुआ था
आगया। मैंने जानकी से उसका तआ’रुफ़ कराया और बताया कि वो फ़िल्म लाईन में आने का शौक़ रखती है।


मेरा दोस्त उसे स्टूडियो ले गया क्योंकि उसको यक़ीन था कि वो डायरेक्टर जिसके साथ वो बहैसियत अस्सिटेंट के काम कर रहा था
अपने नए फ़िल्म में जानकी को एक ख़ास रोल के लिए ज़रूर ले लेगा।
पूना में जितने स्टूडियो थे
मैंने मुख़्तलिफ़ ज़राए से जानकी के लिए कोशिश की।


किसी ने उसका साऊँड टेस्ट लिया
किसी ने कैमरा टेस्ट। एक फ़िल्म कंपनी में उसको मुख़्तलिफ़ क़िस्म के लिबास पहना कर देखा गया मगर नतीजा कुछ न निकला।
एक तो जानकी वैसे ही दिन ऊपर हो जाने के बाइ’स परेशान थी
चार-पाँच रोज़ मुतवातिर जब उसे मुख़्तलिफ़ फ़िल्म कंपनियों के उकता देने वाले माहौल में बेनतीजा गुज़ारने पड़े तो वो और ज़्यादा परेशान हो गई।


बच्चा ज़ाए करने के लिए वो हर रोज़ बीस-बीस ग्रेन कुनैन खाती थी। इससे भी उसकी तबीयत पर गिरानी सी रहती थी। अ’ज़ीज़ साहब के दिन पेशावर में उसके बग़ैर कैसे गुज़रते हैं
इसके मुतअ’ल्लिक़ भी उसको हर वक़्त फ़िक्र रहती थी। पूना पहुंचते ही उसने एक तार भेजा था। इसके बाद वो बिला नाग़ा हर रोज़ एक ख़त लिख रही थी। हर ख़त में ये ताकीद होती थी कि वो अपनी सेहत का ख़याल रखें और दवा बाक़ायदगी के साथ पीते रहें।
अ’ज़ीज़ साहब को क्या बीमारी थी
इसका मुझे इल्म नहीं... लेकिन जानकी से मुझे इतना मालूम हुआ कि अ’ज़ीज़ साहब को चूँकि उससे मोहब्बत है


इसलिए वो फ़ौरन उसका कहना मान लेते हैं। घर में कई बार बीवी से उसका झगड़ा हुआ कि वो दवा नहीं पीते लेकिन जानकी से इस मुआ’मले में उन्हों ने कभी चूँ भी न की।
शुरू शुरू में मेरा ख़याल था कि जानकी अ’ज़ीज़ के मुतअ’ल्लिक़ जो इतनी फ़िक्रमंद रहती है
महज़ बकवास है
बनावट है। लेकिन आहिस्ता आहिस्ता मैंने उसकी बेतकल्लुफ़ बातों से महसूस किया कि उसे हक़ीक़तन अ’ज़ीज़ का ख़याल है। उसका जब ख़त आया


जानकी पढ़ कर ज़रूर रोई।
फ़िल्म कंपनियों के तवाफ़ का कोई नतीजा न निकला। लेकिन एक रोज़ जानकी को ये मालूम करके बहुत ख़ुशी हुई कि उसका अंदेशा ग़लत था। दिन वाक़ई ऊपर होगए थे लेकिन वो बात जिसका उसे खटका था
नहीं थी।
जानकी को पूना आए बीस रोज़ हो चले थे।


अ’ज़ीज़ को वो ख़त पर ख़त लिख रही थी। उसकी तरफ़ से भी लंबे लंबे मोहब्बत नामे आते थे। एक ख़त में अ’ज़ीज़ ने मुझसे कहा था कि पूना में अगर जानकी के लिए कुछ नहीं होता तो मैं बंबई में कोशिश करूं क्योंकि वहां बेशुमार स्टूडियो हैं।
बात मा’क़ूल थी लेकिन मैं सिनेरियो लिखने में मसरूफ़ था
इसलिए जानकी के साथ बंबई जाना मुश्किल था
लेकिन मैंने पूना से अपने दोस्त सईद को जो एक फ़िल्म में हीरो का पार्ट अदा कर रहा था


टेलीफ़ोन किया।
इत्तिफ़ाक़ से वो उस वक़्त स्टूडियो में मौजूद न था। ऑफ़िस में नरायन खड़ा था। उसे जब मालूम हुआ कि मैं पूना से बोल रहा हूँ तो टेलीफ़ोन ले लिया और ज़ोर से चिल्लाया
“हलो
मंटो... नरायन स्पीकिंग फ्रॉम दिस एंड... कहो


बात क्या है। सईद इस वक़्त स्टूडियो में नहीं है। घर में बैठा रज़ीया से आख़िरी हिसाब-किताब कररहा है।”
मैंने पूछा
“क्या मतलब?”
नरायन ने उधर से जवाब दिया


“खटपट होगई है। असल में रज़ीया ने एक और आदमी से टांका मिला लिया है।”
मैंने कहा
“लेकिन ये हिसाब-किताब कैसा हो रहा है?”
नरायन बोला


“बड़ा कमीना है यार सईद... उससे कपड़े ले रहे हैं जो उसने ख़रीद कर दिए थे। खैर
छोड़ो इस बात को
बताओ बात क्या है?”



“बात ये है कि पेशावर से मेरे एक अ’ज़ीज़ ने एक औरत यहां भेजी है जिसे फिल्मों में काम करने का शौक़ है।”
जानकी मेरे पास ही खड़ी थी। मुझे एहसास हुआ कि मैंने मुनासिब-ओ-मौज़ूं लफ़्ज़ों में अपना मुद्दआ’ बयान नहीं किया।
मैं तस्हीह करने ही वाला था कि नरायन की बुलंद आवाज़ कानों के अंदर घुसी
“औरत! पेशावर की औरत। ख़ू


बेजो उस को जल्दी। ख़ू हम भी क़सूर का पठान है।”
मैंने कहा
“बकवास न करो नरायन सुनो
कल दक्कन क्वीन से मैं उन्हें बंबई भेज रहा हूँ। सईद या तुम कोई भी उसे स्टेशन पर लेने के लिए आजाना


कल दक्कन क्वीन से
याद रहे।”
नरायन की आवाज़ आई
“पर हम उसे पहचानेंगे कैसे?”


मैंने जवाब दिया
“वो ख़ुद तुम्हें पहचान लेगी... लेकिन देखो कोशिश करके उसे किसी न किसी जगह ज़रूर रखवा देना।”
तीन मिनट गुज़र गए। मैंने टेलीफ़ोन बंद किया और जानकी से कहा
“कल दक्कन क्वीन से तुम बंबई चली जाना। सईद और नरायन दोनों की तस्वीरें दिखाता हूँ। लंबे तड़ंगे ख़ूबसूरत जवान हैं। तुम्हें पहचानने में दिक़्क़त नहीं होगी।”


मैंने एलबम में जानकी को सईद और नरायन के मुख़्तलिफ़ फ़ोटो दिखाए। देर तक वो उन्हें देखती रही। मैंने नोट किया कि सईद का फ़ोटो उसने ज़्यादा गौर से देखा।
एलबम एक तरफ़ रख कर मेरी आँखों में आँखें न डालने की डगमगाती कोशिश करते हुए
उसने मुझ से पूछा
“दोनों कैसे आदमी हैं?”


“क्या मतलब?”
“मतलब ये कि दोनों कैसे आदमी हैं? मैंने सुना है कि फिल्मों में अक्सर आदमी बुरे होते हैं।”
उसके लहजे में एक टोह लेने वाली संजीदगी थी।
मैंने कहा


“ये तो दुरूस्त है लेकिन फिल्मों में नेक आदमियों की ज़रूरत ही कहाँ होती है!”
“क्यों?”
“दुनिया में दो क़िस्म के इंसान हैं। एक क़िस्म उन इंसानों की है जो अपने ज़ख़्मों से दर्द का अंदाज़ा करते हैं। दूसरी क़िस्म उनकी है जो दूसरों के ज़ख़्म देख कर दर्द का अंदाज़ा करते हैं। तुम्हारा क्या ख़याल है
कौन सी क़िस्म के इंसान ज़ख़्म के दर्द और उसकी तह की जलन को सही तौर पर महसूस करते हैं।”


उसने कुछ देर सोचने के बाद जवाब दिया
“वो जिनके ज़ख़्म लगे होते हैं।”
मैंने कहा
“बिलकुल दुरुस्त। फिल्मों में असल की अच्छी नक़ल वही उतार सकता है जिसे असल की वाक़फ़ियत हो। नाकाम मोहब्बत में दिल कैसे टूटता है


ये नाकाम मोहब्बत ही अच्छी तरह बता सकता है। वो औरत जो पाँच वक़्त जानमाज़ बिछा कर नमाज़ पढ़ती है और इश्क़-ओ-मोहब्बत को सुअर के बराबर समझती है। कैमरे के सामने किसी मर्द के साथ इज़हार-ए-मोहब्बत क्या ख़ाक करेगी!”
उसने फिर सोचा
“इसका मतलब ये हुआ कि फ़िल्म लाईन में दाख़िल होने से पहले औरत को सब चीज़ें जाननी चाहिऐं।”
मैंने कहा


“ये ज़रूरी नहीं। फ़िल्म लाईन में आकर भी वो चीज़ें जान सकती है।”
उसने मेरी बात पर ग़ौर न किया और जो पहला सवाल किया था
फिर इसे दुहराया
“सईद साहब और नरायन साहब कैसे आदमी हैं?”


“तुम तफ़सील से पूछना चाहती हो?”
“तफ़सील से आपका क्या मतलब?”
“ये कि दोनों में से आपके लिए कौन बेहतर रहेगा!”
जानकी को मेरी ये बात नागवार गुज़री।


“कैसी बातें करते हैं आप?”
“जैसी तुम चाहती हो।”
“हटाईए भी।” ये कह वो मुस्कुराई। “मैं अब आपसे कुछ नहीं पूछूंगी।”
मैंने मुस्कुराते हुए कहा


“जब पूछोगी तो मैं नरायन की सिफ़ारिश करूंगा।”
“क्यों?”
“इसलिए कि वो सईद के मुक़ाबले में बेहतर इंसान है।”
मेरा अब भी यही ख़याल है। सईद शायर है


एक बहुत बेरहम क़िस्म का शायर। मुर्ग़ी पकड़ेगा तो ज़बह करने की बजाय उसकी गर्दन मरोड़ देगा। गर्दन मरोड़ कर उसके पर नोचेगा। पर नोचने के बाद उसकी यख़नी निकालेगा। यख़नी पी कर और हड्डियां चबा कर वो बड़े आराम और सुकून से एक कोने में बैठ कर उस मुर्ग़ी की मौत पर एक नज़्म लिखेगा जो उसके आँसूओं में भीगी होगी।
शराब पीएगा तो कभी बहकेगा नहीं। मुझे इससे बहुत तकलीफ़ होती है क्योंकि शराब का मतलब ही फ़ौत हो जाता है।
सुबह बहुत आहिस्ता आहिस्ता बिस्तर पर से उठेगा। नौकर चाय की प्याली बना कर लाएगा। अगर रात की बची हुई रम सिरहाने पड़ी है तो उसे चाय में उंडेल लेगा और उस मिक्सचर को एक एक घूँट करके ऐसे पीएगा जैसे उसमें ज़ाइक़े की कोई हिस ही नहीं।
बदन पर कोई फोड़ा निकला है। ख़तरनाक शक्ल इख़्तियार कर गया है


मगर मजाल है जो वो उस की तरफ़ मुतवज्जा हो। पीप निकल रही है
गल सड़ गया है
नासूर बनने का ख़तरा है
लेकिन सईद कभी किसी डाक्टर के पास नहीं जाएगा।


आप उससे कुछ कहेंगे तो ये जवाब मिलेगा
“अक्सर औक़ात बीमारियां इंसान की जुज़्व-ए-बदन हो जाती हैं। जब मुझे ये ज़ख़्म तकलीफ़ नहीं देता तो ईलाज की क्या ज़रूरत है।” और ये कहते हुए वो ज़ख़्म की तरफ़ इस तरह देखेगा जैसे कोई अच्छा शे’र नज़र आगया है।
ऐक्टिंग वो सारी उम्र नहीं कर सकेगा
इसलिए कि वो लतीफ़ जज़्बात से क़रीब क़रीब आरी है। मैंने उसे एक फ़िल्म में देखा जो हीरोइन के गानों के बाइ’स बहुत मक़बूल हुआ था।


एक जगह उसने अपनी महबूबा का हाथ अपने हाथ में लेकर मोहब्बत का इज़हार करना था। ख़ुदा की क़सम उसने हीरोइन का हाथ कुछ इस तरह अपने हाथ में लिया जैसे कुत्ते का पंजा पकड़ा जाता है।
मैं उससे कई बार कह चुका हूँ ऐक्टर बनने का ख़याल अपने दिमाग़ से निकाल दो
अच्छे शायर हो
घर बैठो और नज़्में लिखा करो। मगर उसके दिमाग़ पर अभी तक ऐक्टिंग की धुन सवार है।


नरायन मुझे बहुत पसंद है। स्टूडियो की ज़िंदगी के जो उसूल उसने अपने लिए वज़ा कर रखे हैं
मुझे अच्छे लगते हैं।
(1) ऐक्टर जब तक ऐक्टर है
उसे शादी नहीं करनी चाहिए। शादी करले तो फ़ौरन फ़िल्म को तलाक़ दे कर दूध दही की दुकान खोल ले। अगर मशहूर ऐक्टर रहा तो काफ़ी आमदनी हो जाया करेगी।


(2) कोई ऐक्ट्रस तुम्हें भय्या या भाई साहब कहे तो फ़ौरन उसके कान में कहो
आप की अंगिया का साइज़ क्या है।
(3) किसी ऐक्ट्रस पर अगर तुम्हारी तबीयत आगई है तो तमहीदें बांधने में वक़्त ज़ाए न करो। उससे तख़्लिए में मिलो और कहो कि मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ
इसका यक़ीन न आए तो पूरी जीब बाहर निकाल कर दिखा दो।


(4) अगर कोई ऐक्ट्रस तुम्हारे हिस्से में आजाए तो उसकी आमदनी में से एक पैसा भी न लो। एक्ट्रसों के शौहरों और भाईयों के लिए ये पैसा हलाल है।
(5) इस बात का ख़याल रखना कि ऐक्ट्रस के बतन से तुम्हारी कोई औलाद न हो। स्वराज मिलने के बाद अलबत्ता तुम इस क़िस्म की औलाद पैदा कर सकते हो।
(6) याद रखो कि ऐक्टर की भी आ’क़िबत होती है। उसे रेज़र और कंघी से संवारने के बजाय कभी कभी ग़ैर मोहज़्ज़ब तरीक़े से भी संवारने की कोशिश किया करो
मिसाल के तौर पर कोई नेक काम करके।


(7) स्टूडियो में सब से ज़्यादा एहतिराम पठान चौकीदार का करो। सुबह स्टूडियो में आते वक़्त उसे सलाम करने से तुम्हें फ़ायदा होगा। यहां नहीं तो दूसरी दुनिया में
जहां फ़िल्म कंपनियां नहीं होंगी।
(8) शराब और ऐक्ट्रस की आ’दत हर्गिज़ न डालो। बहुत मुम्किन है किसी रोज़ कांग्रेस गर्वनमेंट लहर में आकर ये दोनों चीज़ें ममनूअ क़रार दे।
(9) सौदागर


मुसलमान सौदागर हो सकता है लेकिन ऐक्टर हिंदू ऐक्टर
या मुस्लिम ऐक्टर नहीं हो सकता।
(10) झूट न बोलो।
ये सब बातें ‘नरायन के दस अहकाम’ के उनवान तले उसने अपनी एक नोटबुक में लिख रखी हैं जिन से उसके कैरेक्टर का बख़ूबी अंदाज़ा हो सकता है। लोग कहते हैं कि वो इन सब पर अमल नहीं करता। मगर ये हक़ीक़त नहीं। सईद और नरायन के मुतअ’ल्लिक़ जो मेरे ख़यालात थे


मैंने जानकी के पूछे बग़ैर इशारतन बता दिए और आख़िर में उससे साफ़ लफ़्ज़ों में कह दिया कि अगर तुम इस लाईन में आगईं तो किसी न किसी मर्द का सहारा तुम्हें लेना पड़ेगा। नरायन के मुतअ’ल्लिक़ मेरा ख़याल है कि अच्छा दोस्त साबित होगा।
मेरा मशवरा उसने सुन लिया और बंबई चली गई। दूसरे रोज़ ख़ुश ख़ुश वापस आई क्योंकि नरायन ने अपने स्टूडियो में एक साल के लिए पाँच सौ रुपये माहवार पर उसे मुलाज़िम करा दिया था। ये मुलाज़मत उसे कैसी मिली
देर तक उसके मुतअल्लिक़ बातें हुईं। जब और कुछ सुनने को न रहा तो मैंने उससे पूछा
“सईद और नरायन


दोनों से तुम्हारी मुलाक़ात हुई
इनमें से किसने तुम को ज़यादा पसंद किया?”
जानकी के होंटों पर हल्की मुस्कुराहट पैदा हुई। लग़्ज़िश भरी निगाहों से मुझे देखते हुए उसने कहा
“सईद साहब!” ये कह कर वह एक दम संजीदा हो गई। “सआदत साहब


आपने क्यों इतने पुल बांधे थे। नरायन की तारीफों के?”
मैंने पूछा
“क्यों”
“बड़ा ही वाहीयात आदमी है। शाम को बाहर कुर्सियां बिछा कर सईद साहब और वो शराब पीने के लिए बैठे तो बातों बातों में मैंने नरायन भय्या कहा। अपना मुँह मेरे कान के पास लाकर पूछा



“तुम्हारी अंगिया का साइज़ क्या है।”
“भगवान जानता है
मेरे तन-बदन में तो आग ही लग गई


कैसा लच्चर आदमी है।” जानकी के माथे पर पसीना आगया।
मैं ज़ोर ज़ोर से हँसने लगा।
उसने तेज़ी से कहा
“आप क्यों हंस रहे हैं?”


“उसकी बेवक़ूफ़ी पर।” ये कह कर मैंने हंसना बंद कर दिया।
थोड़ी देर नरायन को बुरा-भला कहने के बाद जानकी ने अ’ज़ीज़ के मुतअ’ल्लिक़ फ़िक्रमंद लहजे में बातें शुरू करदीं। कई दिनों से उसका ख़त नहीं आया था। इसलिए तरह तरह के ख़याल उसे सता रहे थे। कहीं उन्हें फिर ज़ुकाम न होगया हो। अंधाधुंद साईकल चलाते हैं
कहीं हादसा ही न होगया हो।
पूना ही न आरहे हों


क्योंकि जानकी को रुख़सत करते वक़्त उन्होंने कहा था एक रोज़ में चुपचाप तुम्हारे पास चला आऊँगा।
बातें करने के बाद उसका तरद्दुद कम हुआ तो उसने अ’ज़ीज़ की तारीफ़ें शुरू करदीं। घर में बच्चों का बहुत ख़याल रखते हैं। हर रोज़ सुबह उनको वरज़िश कराते हैं और नहला-धुला कर स्कूल छोड़ने जाते हैं। बीवी बिल्कुल फूहड़ है
इसलिए रिश्तेदारों से सारा रख रखाव ख़ुद उन्ही को करना पड़ता है।
एक दफ़ा जानकी को टाईफाइड होगया था तो बीस दिन तक मुतवातिर नर्सों की तरह उसकी तीमारदारी करते रहे


वग़ैरा वग़ैरा।
दूसरे रोज़ मुनासिब-ओ-मौज़ूं अलफ़ाज़ में मेरा शुक्रिया अदा करने के बाद वो बंबई चली गई। जहां उस के लिए एक नई और चमकीली दुनिया के दरवाज़े खुल गए थे।
पूना में मुझे तक़रीबन दो महीने कहानी का मंज़र नामा तैयार करने में लगे। हक़्क़-ए-ख़िदमत वसूल करके मैंने बंबई का रुख़ किया जहां मुझे एक नया कंट्रैक्ट मिल रहा था।
मैं सुबह पाँच बजे के क़रीब अंधेरी पहुंचा जहां एक मामूली बंगले में सईद और नरायन दोनों इकट्ठे रहते थे। बरामदे में दाख़िल हुआ तो दरवाज़ा बंद पाया। मैंने सोचा सो रहे होंगे


तकलीफ़ नहीं देना चाहिए। पिछली तरफ़ एक दरवाज़ा है जो नौकरों के लिए अक्सर खुला रहता है।
मैं उसमें से अंदर दाख़िल हुआ। बावर्चीख़ाना और साथ वाला कमरा जिसमें खाना खाया जाता है
हस्ब-ए-मा’मूल बेहद ग़लीज़ थे। सामने वाला कमरा मेहमानों के लिए मख़सूस था। मैंने उसका दरवाज़ा खोला और अंदर दाख़िल हुआ। कमरे में दो पलंग थे। एक पर सईद और उसके साथ कोई और लिहाफ़ ओढ़े सो रहा था।
मुझे सख़्त नींद आरही थी। दूसरे पलंग पर मैं कपड़े उतारे बग़ैर लेट गया। पायेंती पर कम्बल पड़ा था


ये मैंने टांगों पर डाल लिया। सोने का इरादा ही कर रहा था कि सईद के पीछे से एक चूड़ियों वाला हाथ निकला और पलंग के पास रखी हुई कुर्सी की तरफ़ बढ़ने लगा। कुर्सी पर लट्ठे की सफ़ेद शलवार लटक रही थी।
मैं उठ कर बैठ गया। सईद के साथ जानकी लेटी थी। मैंने कुर्सी पर से शलवार उठाई और उसकी तरफ़ फेंक दी।
नरायन के कमरे में जा कर मैंने उसे जगाया। रात के दो बजे उसकी शूटिंग ख़त्म हुई थी
मुझे अफ़सोस हुआ कि ख़्वाह-मख़्वाह उस ग़रीब को जगाया लेकिन वो मुझ से बातें करना चाहता था। किसी ख़ास मौज़ू पर नहीं। मुझे अचानक देख कर बक़ौल उसके वो कुछ बेहूदा बकवास करना चाहता था


चुनांचे सुबह नौ बजे तक हम बेहूदा बकवास में मशग़ूल रहे जिसमें बार बार जानकी का भी ज़िक्र आया।
जब मैंने अंगिया वाली बात छेड़ी तो नरायन बहुत हंसा। हंसते हंसते उसने कहा सब से मज़ेदार बात तो ये है कि जब मैंने उसके कान के साथ मुँह लगा कर पूछा
तुम्हारी अंगिया का साइज़ क्या है तो उसने बता दिया कहा
“चौबीस।”


इसके बाद अचानक उसे मेरे सवाल की बेहूदगी का एहसास हुआ। मुझे कोसना शुरू कर दिया। “बिल्कुल बच्ची है। जब कभी मुझ से मुडभेड़ होती है तो सीने पर दुपट्टा रख लेती है लेकिन मंटो!
बड़ी वफ़ादार औरत है।”
मैंने पूछा
“ये तुम ने कैसे जाना?”


नरायन मुस्कुराया
“औरत
जो एक बिल्कुल अजनबी आदमी को अपनी अंगिया का सही साइज़ बता दे
धोकेबाज़ हरगिज़ नहीं हो सकती।”


अ’जीब-ओ-ग़रीब मंतिक़ थी। लेकिन नरायन ने मुझे बड़ी संजीदगी से यक़ीन दिलाया कि जानकी बड़ी पुरख़ुलूस औरत है। उसने कहा
“मंटो
तुम्हें मालूम नहीं सईद की कितनी ख़िदमत कर रही है। ऐसे इंसान की ख़बरगीरी जो परले दर्जे का बेपर्वा हो
आसान काम नहीं। लेकिन ये मैं जानता हूँ कि जानकी इस मुश्किल को बड़ी आसानी से निभा रही है।


“औरत होने के साथ साथ वो एक पुरख़ुलूस और ईमानदार आया भी है। सुबह उठ कर इस ख़र ज़ात को जगाने में आध घंटा सर्फ़ करती है। उस के दाँत साफ़ कराती है
कपड़े पहनाती है
नाश्ता कराती है और रात को जब वो रम पी कर बिस्तर पर लेटता है तो सब दरवाज़े बंद करके उसके साथ लेट जाती है और जब स्टूडियो में किसी से मिलती है तो सिर्फ़ सईद की बातें करती हैं।
“सईद साहब बड़े अच्छे आदमी हैं। सईद साहब बहुत अच्छा गाते हैं। सईद साहब का वज़न बढ़ गया है। सईद साहब का पुल ओवर तैयार होगया है। सईद साहब के लिए पेशावर से पोठोहारी सैंडल मंगवाई है।


सईद साहब के सर में हल्का हल्का दर्द है। स्प्रो लेने जा रही हूँ। सईद साहब ने आज मुझ पर एक शे’र कहा। और जब मुझसे मुडभेड़ होती है तो अंगिया वाली बात याद करके त्यौरी चढ़ा लेती है।”
मैं तक़रीबन दस दिन सईद और नरायन का मेहमान रहा। इस दौरान में सईद ने जानकी के मुतअ’ल्लिक़ मुझसे कोई बात नहीं की। शायद इसलिए कि उनका मुआ’मला काफ़ी पुराना हो चुका था। जानकी से अलबत्ता काफ़ी बातें हुईं।
वो सईद से बहुत ख़ुश थी लेकिन उसे उसकी बेपर्वा तबीयत का बहुत गिला था। “सआदत साहब! अपनी सेहत का बिल्कुल ही ख़याल नहीं रखते। बहुत बे परवाह हैं। हर वक़्त सोचना
जो हुआ इस लिए किसी बात का ख़याल ही नहीं रहता। आप हँसने लगे


लेकिन मुझे हर रोज़ उनसे पूछना पड़ता है कि आप संडास गए थे या नहीं।”
नरायन ने मुझसे जो कुछ कहा था
ठीक निकला। जानकी हर वक़्त सईद की ख़बरगीरी में मुनहमिक रहती थी। मैं दस दिन अंधेरी के बंगले में रहा। उन दस दिनों में जानकी की बेलौस ख़िदमत ने मुझे बहुत मुतअस्सिर किया। लेकिन ये ख़याल बार बार आता रहा कि अ’ज़ीज़ को क्या हुआ। जानकी को उसका भी तो बहुत ख़याल रहता है। क्या सईद को पा कर वह उसको भूल चुकी थी।
मैंने इस सवाल का जवाब जानकी ही से पूछ लिया होता अगर मैं कुछ दिन और वहां ठहरता। जिस कंपनी से मेरा कंट्रैक्ट होने वाला था


उसके मालिक से मेरी किसी बात पर चख़ होगई और मैं दिमाग़ी तकद्दुर दूर करने के लिए पूना चला गया। दो ही दिन गुज़रे होंगे कि बंबई से अ’ज़ीज़ का तार आया कि मैं आरहा हूँ।
पाँच छः घंटे के बाद वो मेरे पास था और दूसरे रोज़ सुबह-सवेरे जानकी मेरे कमरे पर दस्तक दे रही थी।
अ’ज़ीज़ और जानकी जब एक दूसरे से मिले तो उन्होंने देर से बिछड़े हुए आ’शिक़ मा’शूक़ की सरगर्मी ज़ाहिर न की। मेरे और अ’ज़ीज़ के ता’ल्लुक़ात शुरू से बहुत संजीदा और मतीन रहे हैं
शायद इसी वजह से वो दोनों मो’तदिल रहे।


अ’ज़ीज़ का ख़याल था होटल में उठ जाये लेकिन मेरा दोस्त जिसके यहां मैं ठहरा था आउट डोर शूटिंग के लिए कोल्हापुर गया था
इसलिए मैंने अ’ज़ीज़ और जानकी को अपने पास ही रखा। तीन कमरे थे। एक में जानकी सो सकती थी दूसरे में अ’ज़ीज़।
यूं तो मुझे उन दोनों को एक ही कमरा देना चाहिए था लेकिन अ’ज़ीज़ से मेरी इतनी बेतकल्लुफ़ी नहीं थी। इसके इलावा उसने जानकी से अपने ता’ल्लुक़ को मुझ पर ज़ाहिर भी नहीं किया था।
रात को दोनों सिनेमा देखने चले गए। मैं साथ न गया


इसलिए कि मैं फ़िल्म के लिए एक नई कहानी शुरू करना चाहता था। दो बजे तक मैं जागता रहा। इसके बाद सो गया। एक चाबी मैंने अ’ज़ीज़ को दे दी थी। इसलिए मुझे उनकी तरफ़ से इत्मिनान था।
रात को मैं चाहे बहुत देर तक काम करूं
साढ़े तीन और चार बजे के दरमियान एक दफ़ा ज़रूर जागता हूँ और उठ कर पानी पीता हूँ। हस्ब-ए-आ’दत उस रात को भी मैं पानी पीने के लिए उठा। इत्तफ़ाक़ से जो कमरा मेरा था
या’नी जिसमें मैंने अपना बिस्तर जमाया हुआ था


अ’ज़ीज़ के पास था और उसमें मेरी सुराही पड़ी थी।
अगर मुझे शिद्दत की प्यास न लगी होती तो अ’ज़ीज़ को तकलीफ़ न देता। लेकिन ज़्यादा विस्की पीने के बाइ’स मेरा हलक़ बिल्कुल ख़ुश्क हो रहा था
इसलिए मुझे दस्तक देनी पड़ी। थोड़ी देर बाद दरवाज़ा खुला।
जानकी ने आँखें मलते मलते दरवाज़ा खोला और कहा सईद साहब! और जब मुझे देखा तो एक हल्की सी ‘ओह’ उसके मुँह से निकल गई।


अंदर के पलंग पर अज़ीज़ सो रहा था। मैं बेइख़्तियार मुस्कुराया। जानकी भी मुस्कुराई और उसके तीखे होंट एक कोने की तरफ़ सिकुड़ गए। मैंने पानी की सुराही ली और चला आया।
सुबह उठा तो कमरे में धूआँ जमा था। बावर्चीख़ाने में जा कर देखा तो जानकी काग़ज़ जला जला कर अ’ज़ीज़ के ग़ुस्ल के लिए पानी गर्म कर रही थी। आँखों से पानी बह रहा था।
मुझे देख कर मुस्कुराई और अँगीठी में फूंकें मारते हुई कहने लगी
“अ’ज़ीज़ साहब ठंडे पानी से नहाएँ तो उन्हें ज़ुकाम हो जाता है। मैं नहीं थी पेशावर में तो एक महीना बीमार रहे


और रहते भी क्यों नहीं जब दवा पीनी ही छोड़ दी थी... आपने देखा नहीं कितने दुबले होगए हैं।”
और अ’ज़ीज़ नहा-धो कर जब किसी काम की ग़रज़ से बाहर गया तो जानकी ने मुझसे सईद के नाम तार लिखने के लिए कहा
“मुझे कल यहां पहुंचते ही उन्हें तार भेजना चाहिए था। कितनी ग़लती हुई मुझसे उन्हें बहुत तशवीश होरही होगी।”
उसने मुझसे तार का मज़मून बनवाया जिसमें अपनी बख़ैरीयत पहुंचने की इत्तिला तो थी लेकिन सईद की ख़ैरीयत दरयाफ्त करने का इज़्तिराब ज़्यादा था। इंजेक्शन लगवाने की ताकीद भी थी।


चार रोज़ गुज़र गए। सईद को जानकी ने पाँच तार रवाना किए पर उसकी तरफ़ से कोई जवाब न आया।
बंबई जाने का इरादा कर रही थी कि अचानक शाम को अ’ज़ीज़ की तबीयत ख़राब होगई। मुझसे सईद के नाम एक और तार लिखवा कर वो सारी रात अ’ज़ीज़ की तीमारदारी में मसरूफ़ रही। मामूली बुख़ार था लेकिन जानकी को बेहद तशवीश थी।
मेरा ख़याल है इस तशवीश में सईद की ख़ामोशी का पैदा करदा वो इज़्तिराब भी शामिल था। वो मुझ से इस दौरान में कई बार कह चुकी थी
“सआदत साहिब


मेरा ख़याल है सईद साहिब ज़रूर बीमार हैं वर्ना वो मुझे मेरे तारों और ख़ुतूत का जवाब ज़रूर लिखते।”
पांचवें रोज़ शाम को अ’ज़ीज़ की मौजूदगी में सईद का तार आया जिसमें लिखा था
“मैं बहुत बीमार हूँ
फ़ौरन चली आओ।”


तार आने से पहले जानकी मेरी किसी बात पर बेतहाशा हंस रही थी लेकिन जब उसने सईद की बीमारी की ख़बर सुनी तो एक दम ख़ामोश हो गई। अ’ज़ीज़ को ये ख़ामोशी बहुत नागवार मालूम हुई क्योंकि जब उसने जानकी को मुख़ातिब किया तो उसके लहजे में तेज़ी थी। मैं उठ कर चला गया।
शाम को जब वापस आया तो जानकी और अ’ज़ीज़ कुछ इस तरह अलाहिदा अलाहिदा बैठे थे जैसे उन में काफ़ी झगड़ा हुआ था। जानकी के गालों पर आँसुओं का मैल था। जब मैं कमरे में दाख़िल हुआ तो इधर उधर की बातों के बाद जानकी ने अपना हैंडबैग उठाया और अ’ज़ीज़ से कहा
“मैं जाती हूँ
लेकिन बहुत जल्द वापस आजाऊँगी।” फिर मुझ से मुख़ातिब हुई


“सआदत साहब
इनका ख़याल रखिए
अभी तक बुख़ार दूर नहीं हुआ।”
मैं स्टेशन तक उसके साथ गया। ब्लैक मार्किट से टिकट ख़रीद कर

- सआदत-हसन-मंटो


तसल्लियां और दिलासे बेकार हैं। लोहे और सोने के ये मुरक्कब में छटांकों फांक चुका हूँ। कौन सी दवा है जो मेरे हलक़ से नहीं उतारी गई। मैं आपके अख़लाक़ का ममनून हूँ मगर डाक्टर साहब मेरी मौत यक़ीनी है। आप कैसे कह रहे हैं कि मैं दिक़ का मरीज़ नहीं। क्या मैं हर रोज़ ख़ून नहीं थूकता?
आप यही कहेंगे कि मेरे गले और दाँतों की ख़राबी का नतीजा है मगर मैं सब कुछ जानता हूँ। मेरे दोनों फेफड़े ख़ाना-ए-ज़ंबूर की तरह मुशब्बक हो चुके हैं। आपके इंजेक्शन मुझे दुबारा ज़िंदगी नहीं बख़्श सकते। देखिए
मैं इस वक़्त आपसे बातें कर रहा हूँ। मगर सीने पर एक वज़नी इंजन दौड़ता हुआ महसूस कर रहा हूँ। मालूम होता है कि मैं एक तारीक गढ़े में उतर रहा हूँ... क़ब्र भी तो एक तारीक गढ़ा है।
आप मेरी तरफ़ इस तरह न देखिए डाक्टर साहब


मुझे इस चीज़ का कामिल एहसास है कि आप अपने हस्पताल में किसी मरीज़ का मरना पसंद नहीं करते मगर जो चीज़ अटल है वो होके रहेगी। आप ऐसा कीजिए कि मुझे यहां से रुख़सत कर दीजिए। मेरी टांगों में तीन-चार मील चलने की क़ुव्वत अभी बाक़ी है। किसी क़रीब के गांव में चला जाऊंगा और... मगर मैं तो रो रहा हूँ। नहीं नहीं। डाक्टर साहब यक़ीन कीजिए। मैं मौत से ख़ाइफ़ नहीं। ये मेरे जज़्बात हैं
जो आँसूओं की शक्ल में बाहर निकल रहे हैं।
आह! आप क्या जानें। इस मदक़ूक़ के सीने से क्या कुछ बाहर निकलने को मचल रहा है। मैं अपने अंजाम से बाख़बर हूँ। आज से पाँच बरस पहले भी मैं इस वहशतनाक अंजाम से बाख़बर था। जानता था और अच्छी तरह जानता था कि कुछ अर्सा के बाद मेरी ज़िंदगी की दौड़ ख़त्म हो जाएगी।
मैंने उस गेंद को जिसे आप ज़िंदगी के नाम से पुकारते हैं


ख़ुद अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार कर काटा है। इसमें किसी का कोई क़ुसूर नहीं। वाक़िया ये है कि मैं इस खेल में लज़्ज़त महसूस कर रहा हूँ। लज़्ज़त... हाँ लज़्ज़त... मैंने अपनी ज़िंदगी की कई रातें हुस्न-फ़रोश औरतों के तारीक अड्डों पर गुज़ारी हैं। शराब के नशे में चूर मैंने किस बेदर्दी से ख़ुद को इस हालत में पहुंचाया।
मुझे याद है
उन ही अड्डों की स्याह पेशा औरत... क्या नाम था उसका? हाँ गुलज़ार
मुझे इस बुरी तरह अपनी जवानी को कीचड़ में लत-पत करते देख कर मुझसे हमदर्दी करने लग गई थी। बेवक़ूफ़ औरत


उसको क्या बताता कि मैं इस कीचड़ में किस का अक्स देखने की कोशिश कर रहा था। मुझे गुलज़ार और उसकी दीगर हमपेशा औरतों से नफ़रत थी और अब भी है लेकिन क्या आप मरीज़ों को ज़हर नहीं खिलाते अगर उससे अच्छे नताइज की उम्मीद हो।
मेरे दर्द की दवा ही तारीक ज़िंदगी थी। मैंने बड़ी कोशिश और मुसीबतों के बाद इस अंजाम को बुलाया है जिस की कुछ रुएदाद आपने मेरे सिरहाने एक तख़्ती पर लिख कर लटका रखी है। मैंने उसके इंतिज़ार में एक एक घड़ी किस बेताबी से काटी है
आह! कुछ न पूछिए! लेकिन अब मुझे दिली तस्कीन हासिल हो चुकी है। मेरी ज़िंदगी का मक़सद पूरा हो गया। मैं दिक़ और सिल का मरीज़ हूँ। इस मर्ज़ ने मुझे खोखला कर दिया है... आप हक़ीक़त का इज़हार क्यों नहीं कर देते।
बख़ुदा इससे मुझे और तस्कीन हासिल होगी। मेरा आख़िरी सांस आराम से निकलेगा... हाँ डाक्टर साहब ये तो बताईए


क्या आख़िरी लम्हात वाक़ई तकलीफ़देह होते हैं? मैं चाहता हूँ मेरी जान आराम से निकले। आज मैं वाक़ई बच्चों की सी बातें कर रहा हूँ। आप अपने दिल में यक़ीनन मुस्कुराते होंगे कि मैं आज मा’मूल से बहुत ज़्यादा बातूनी हो गया हूँ... दीया जब बुझने के क़रीब होता है तो उसकी रोशनी तेज़ हो जाया करती है। क्या मैं झूट कह रहा हूँ?
आप तो बोलते ही नहीं और मैं हूँ कि बोले जा रहा हूँ। हाँ
हाँ
बैठिए। मेरा जी चाहता है


आज किसी से बातें किए जाऊं। आप न आते तो ख़ुदा मालूम मेरी क्या हालत होती। आपका सफ़ेद सूट आँखों को किस क़दर भला मालूम हो रहा है। कफ़न भी इसी तरह साफ़ सुथरा होता है फिर आप मेरी तरफ़ इस तरह क्यों देख रहे हैं। आपको क्या मालूम कि मैं मरने के लिए किस क़दर बेताब हूँ।
अगर मरने वालों को कफ़न ख़ुद पहनना हो तो आप देखते मैं उसको कितनी जल्दी अपने गिर्द लपेट लेता। मैं कुछ अर्सा और ज़िंदा रह कर क्या करूंगा? जब कि वो मर चुकी है। मेरा ज़िंदा रहना फ़ुज़ूल है। मैंने इस मौत को बहुत मुश्किलों के बाद अपनी तरफ़ आमादा किया है और अब मैं इस मौक़ा को हाथ से जाने नहीं दे सकता। वो मर चुकी है और अब मैं भी मर रहा हूँ। मैंने अपनी संगदिली... वो मुझे संगदिल के नाम से पुकारा करती थी
की क़ीमत अदा करदी है और ख़ुदा गवाह है कि उसका कोई भी सिक्का खोटा नहीं। मैं पाँच साल तक उनको परखता रहा हूँ
मेरी उम्र इस वक़्त पच्चीस बरस की है। आज से ठीक सात बरस पहले मेरी उससे मुलाक़ात हुई थी। आह


इन सात बरसों की रुएदाद कितनी हैरतअफ़ज़ा है अगर कोई शख़्स उसकी तफ़सील काग़ज़ों पर फैला दे तो इंसानी दिलों की दास्तानों में कैसा दिलचस्प इज़ाफ़ा हो। दुनिया एक ऐसे दिल की धड़कन से आश्ना होगी जिसने अपनी ग़लती की क़ीमत ख़ून की उन थूकों में अदा की है जिन्हें आप हर रोज़ जलाते रहते हैं कि उन के जरासीम दूसरों तक न पहुंचें।
आप मेरी बकवास सुनते सुनते क्या तंग तो नहीं आगए? ख़ुदा मालूम क्या क्या कुछ बकता रहा हूं। तकल्लुफ़ से काम न लीजिए
आप वाक़ई कुछ नहीं समझ सकते
मैं ख़ुद नहीं समझ सका। सिर्फ़ इतना जानता हूँ कि बटोत से वापस आकर मेरे दिल-ओ-दिमाग़ का हर जोड़ हिल गया था। अब या’नी आज जब कि मेरे जुनून का दौरा ख़त्म हो चुका है और मौत को चंद क़दम के फ़ासले पर देख रहा हूँ। मुझे यूं महसूस होता कि वो वज़न जो मेरी छाती को दाबे हुए था हल्का हो गया है और मैं फिर ज़िंदा हो रहा हूँ।


मौत में ज़िंदगी... कैसी दिलचस्प चीज़ है! आज मेरे ज़ेहन से धुंद के तमाम बादल उठ गए हैं। मैं हर चीज़ को रोशनी में देख रहा हूँ। सात बरस पहले के तमाम वाक़ियात इस वक़्त मेरी नज़रों के सामने हैं। देखिए... मैं लाहौर से गर्मियां गुज़ारने के लिए कश्मीर की तैयारियां कर रहा हूँ। सूट सिलवाए जा रहे हैं। बूट डिब्बों में बंद किए जा रहे हैं। होल्डाल और ट्रंक कपड़ों से पुर किए जा रहे हैं। मैं रात की गाड़ी से जम्मू रवाना होता हूँ। शमीम मेरे साथ है। गाड़ी के डिब्बे में बैठ कर हम अ’र्सा तक बातें करते रहते हैं।
गाड़ी चलती है। शमीम चला जाता है। मैं सो जाता हूँ। दिमाग़ हर क़िस्म के फ़िक्र से आज़ाद है। सुबह जम्मू की स्टेशन पर जागता हूँ। कश्मीर की हसीन वादी की होने वाली सैर के ख़यालात में मगन लारी पर सवार होता हूँ। बटोत से एक मील के फ़ासले पर लारी का पहिया पंक्चर हो जाता है। शाम का वक़्त है इसलिए रात बटोत के होटल में काटनी पड़ती है। उस होटल का कमरा मुझे बेहद ग़लीज़ मालूम होता है मगर क्या मालूम था कि मुझे वहां पूरे दो महीने रहना पड़ेगा।
सुबह सवेरे उठता हूँ तो मालूम होता है कि लारी के इंजन का एक पुर्ज़ा भी ख़राब हो गया है। इस लिए मजबूरन एक दिन और बटोत में ठहरना पड़ेगा। ये सुन कर मेरी तबीयत किस क़दर अफ़सुर्दा हो गई थी! इस अफ़सुर्दगी को दूर करने के लिए मैं... मैं उस रोज़ शाम को सैर के लिए निकलता हूँ। चीड़ के दरख़्तों का तनफ़्फ़ुस
जंगली परिन्दों की नग़्मा सराइयाँ सेब के लदे हुए दरख़्तों का हुस्न और ग़ुरूब होते हुए सूरज का दिलकश समां


लारी वाले की बेएहतियाती और रंग में भंग डालने वाली तक़दीर की गुस्ताख़ी का रंज अफ़ज़ा ख़याल मह्व कर देता है।
मैं नेचर के मसर्रत अफ़ज़ा मनाज़िर से लुत्फ़अंदोज़ होता सड़क के एक मोड़ पर पहुंचता हूँ... दफ़अ’तन मेरी निगाहें उससे दो-चार होती हैं। बेगू मुझसे बीस क़दम के फ़ासले पर अपनी भैंस के साथ खड़ी है... जिस दास्तान का अंजाम इस वक़्त आपके पेश-ए-नज़र है
उसका आग़ाज़ यहीं से होता है।
वो जवान थी। उसकी जवानी पर बटोत की फ़िज़ा पूरी शिद्दत के साथ जल्वागर थी। सब्ज़ लिबास में मल्बूस वो सड़क के दरमियान मकई का एक दराज़ क़द बूटा मालूम हो रही थी चेहरे के ताँबे ऐसे ताबां रंग पर उसकी आँखों की चमक ने एक अ’जीब कैफ़ियत पैदा करदी थी जो चश्मे के पानी की तरफ़ साफ़ और शफ़्फ़ाफ़ थीं... मैं उसको कितना अ’र्सा देखता रहा


ये मुझे मालूम नहीं। लेकिन इतना याद है कि मैंने दफ़अ’तन अपना सीना मोसीक़ी से लबरेज़ पाया और फिर मैं मुस्कुरा दिया।
उसकी बहकी हुई निगाहों की तवज्जो भैंस से हट कर मेरे तबस्सुम से टकराई। मैं घबरा गया। उसने एक तेज़ तजस्सुस से मेरी तरफ़ देखा
जैसे वो किसी भूले हुए ख़्वाब को याद कर रही है। फिर उस ने अपनी छड़ी को दाँतों में दबा कर कुछ सोचा और मुस्कुरा दी। उसका सीना चश्मे के पानी की तरह धड़क रहा था। मेरा दिल भी मेरे पहलू में अंगड़ाइयां ले रहा था और ये पहली मुलाक़ात किस क़दर लज़ीज़ थी। उसका ज़ायक़ा अभी तक मेरे जिस्म की हर रग में मौजूद है।
वो चली गई... मैं उसको आँखों से ओझल होते देखता रहा। वो इस अंदाज़ से चल रही थी जैसे कुछ याद कर रही है। कुछ याद करती है मगर फिर भूल जाती है। उसने जाते हुए पाँच-छः मर्तबा मेरी तरफ़ मुड़ कर देखा लेकिन फ़ौरन सर फेर लिया। जब वो अपने घर में दाख़िल हो गई जो सड़क के नीचे मकई के छोटे से खेत के साथ बना हुआ था।


मैं अपनी तरफ़ मुतवज्जो हुआ
मैं उसकी मोहब्बत में गिरफ़्तार हो चुका था। इस एहसास ने मुझे सख़्त मुतहय्यर किया। मेरी उम्र उस वक़्त अठारह साल की थी। कॉलेज में अपने हमजमाअ’त तलबा की ज़बानी मैं मोहब्बत के मुतअ’ल्लिक़ बहुत कुछ सुन चुका था। इश्क़िया दास्तानें भी अक्सर मेरे ज़ेर मुताला रही थीं। मगर मोहब्बत के हक़ीक़ी मा’नी मेरी नज़रों से पोशीदा थे। उसके जाने के बाद जब मैंने एक नाक़ाबिल-ए-बयान तल्ख़ी अपने दिल की धड़कनों में हल होती हुई महसूस की तो मैंने ख़याल किया
शायद इसी का नाम मोहब्बत है... ये मोहब्बत ही थी... औरत से मोहब्बत करने का पहला मक़सद ये होता है कि वो मर्द की हो जाये या’नी वो उससे शादी करले और आराम से अपनी बक़ाया ज़िंदगी गुज़ार दे।
शादी के बाद ये मोहब्बत करवट बदलती है। फिर मर्द अपनी महबूबा के काँधों पर एक घर ता’मीर करता है। मैंने जब बेगू से अपने दिल को वाबस्ता होते महसूस किया तो फ़ितरी तौर पर मेरे दिल में उस रफीक़ा-ए-हयात का ख़याल पैदा हुआ जिसके मुतअ’ल्लिक़ मैं अपने कमरे की चार दीवारी में कई ख़्वाब देख चुका था। इस ख़याल के आते ही मेरे दिल से ये सदा उठी


“देखो सईद
ये लड़की ही तुम्हारे ख़्वाबों की परी है।” चुनांचे मैं तमाम वाक़ए’ पर ग़ौर करता हुआ होटल वापस आया और एक माह के लिए होटल का वो कमरा किराए पर उठा लिया जो मुझे बेहद ग़लीज़ महसूस हुआ था। मुझे अच्छी तरह याद है कि होटल का मालिक मेरे इस इरादे को सुन कर बहुत मुतहय्यर हुआ था।
इसलिए कि मैं सुबह उसकी ग़लाज़त पसंदी पर एक तवील लेक्चर दे चुका था। दास्तान कितनी तवील होती जा रही है। मगर मुझे मालूम है कि आप इसे ग़ौर से सुन रहे हैं... हाँ
हाँ आप सिगरेट सुलगा सकते हैं। मेरे गले में आज खांसी के आसार महसूस नहीं होते। आपकी डिबिया देख कर मेरे ज़ेहन में एक और वाक़िया की याद ताज़ा हो गई है।


बेगू भी सिगरेट पिया करती थी। मैंने कई बार उसे गोल्ड फ्लेक की डिबियां ला कर दी थीं। वो बड़े शौक़ से उनको मुँह में दबा कर धुएं के बादल उड़ाया करती थीं। धूवां! मैं उस नीले नीले धुएं को अब भी देख रहा हूँ जो उसके गीले होंटों पर रक़्स किया करता था... हाँ
तो दूसरे रोज़ मैं शाम को उसी वक़्त उधर सैर को गया
जहां मुझे वो सड़क पर मिली थी।
देर तक सड़क के एक किनारे पत्थरों की दीवार पर बैठा रहा मगर वो नज़र न आई... उठा और टहलता टहलता आगे निकल गया। सड़क के दाएं हाथ ढलवान थी


जिस पर चीड़ के दरख़्त उगे हुए थे। बाएं हाथ बड़े बड़े पत्थरों के कटे फटे सर उभर रहे थे। उन पर जमी हुई मिट्टी के ढेलों में घास उगी हुई थी। हवा ठंडी और तेज़ थी। चीड़ के तागा नुमा पत्तों की सरसराहट कानों को बहुत भली मालूम होती थी। जब मोड़ मुड़ा तो दफ़अ’तन मेरी निगाहें सामने उठीं। मुझसे सौ क़दम के फ़ासले पर वो अपनी भैंस को एक संगीन हौज़ से पानी पिला रही थी।
मैं क़रीब पहुंचा मगर उसको नज़र भर के देखने की जुर्रत न कर सका और आगे निकल गया और जब वापस मुड़ा तो वो घर जा चुकी थी। अब हर रोज़ उस तरफ़ सैर को जाना मेरा मा’मूल हो गया मगर बीस रोज़ तक मैं उससे मुलाक़ात न कर सका। मैंने कई बार बावली पर पानी पीते वक़्त उस से हमकलाम होने का इरादा किया
मगर ज़बान गुंग हो गई
कुछ बोल न सका।


क़रीबन हर रोज़ मैं उसको देखता
मगर रात को जब मैं तसव्वुर में उसकी शक्ल देखना चाहता तो एक धुंद सी छा जाती। ये अ’जीब बात है कि मैं उसकी शक्ल को इसके बावजूद कि उसे हर रोज़ देखता था भूल जाता था। बीस दिनों के बाद एक रोज़ चार बजे के क़रीब जब कि मैं एक बावली के ऊपर चीड़ के साये में लेटा था।
वो ख़ुर्द साल लड़के को लेकर ऊपर चढ़ी। उसको अपनी तरफ़ आता देख कर मैं सख़्त घबरा गया। दिल में यही आया कि वहां से भाग जाऊं लेकिन इसकी सकत भी न रही। वो मेरी तरफ़ देखे बग़ैर आगे निकल गई। चूँकि उसके क़दम तेज़ थे
इसलिए लड़का पीछे रह गया। मैं उठ कर बैठ गया। उसकी पीठ मेरी तरफ़ थी। दफ़अ’तन लड़के ने एक चीख़ मारी और चश्म-ए-ज़दन में चीड़ के ख़ुश्क पत्तों पर से फिसल कर नीचे आ रहा।


मैं फ़ौरन उठा और भाग कर उसे अपने बाज़ूओं में थाम लिया। चीख़ सुन कर वो मुड़ी और दौड़ने के लिए बढ़े हुए क़दम रोक कर आहिस्ता आहिस्ता मेरी तरफ़ आई। अपनी जवान आँखों से मुझे देखा और लड़के से ये कहा
“ख़ुदा जाने तुम क्यों गिर गिर पड़ते हो?”
मैंने गुफ़्तगु शुरू करने का एक मौक़ा पा कर उससे कहा
“बच्चा है इसकी उंगली पकड़ लीजिए। इन पत्तों ने ख़ुद मुझे कई बार औंधे मुँह गिरा दिया है।”


ये सुनकर वो खिलखिला कर हंस पड़ी
“आपके हैट ने तो ख़ूब लुढ़कनियां खाई होंगी।”
“आप हंसती क्यों हैं? किसी को गिरते देख कर आपकी तबीयत इतनी शाद क्यों होती है और जो किसी रोज़ आप गिर पड़ीं तो... वो घड़ा जो हर रोज़ शाम के वक़्त आप घर ले जाती है किस बुरी तरह ज़मीन पर गिर कर टुकड़े टुकड़े हो जाएगा।”
“मैं नहीं गिर सकती...” ये कहते हुए उसने दफ़अ’तन नीचे बावली की तरफ़ देखा। उसकी भैंस नाले पर बंधे हुए पुल की तरफ़ ख़रामां ख़रामां जा रही थी। ये देख कर उसने अपने हलक़ से एक अ’जीब क़िस्म की आवाज़ निकाली। उसकी गूंज अभी तक मेरे कानों में महफ़ूज़ है। किस क़दर जवान थी ये आवाज़। उसने बढ़ कर लड़के को कांधे पर उठा लिया और भैंस को “ए छल्लां


ए छल्लां” के नाम से पुकारती हुई चशम-ए-ज़दन में नीचे उतर गई।
भैंस को वापस मोड़ कर उसने मेरी तरफ़ देखा और घर को चल दी... उस मुलाक़ात के बाद उससे हमकलाम होने की झिझक दूर हो गई। हर रोज़ शाम के वक़्त बावली पर या चीड़ के दरख़्तों तले मैं उससे कोई न कोई बात शुरू कर देता। शुरू शुरू में हमारी गुफ़्तुगू का मौज़ू भैंस था।
फिर मैंने उससे उसका नाम दरयाफ़्त किया और उसने मेरा। इसके बाद गुफ़्तुगू का रुख़ असल मतलब की तरफ़ आ गया। एक रोज़ दोपहर के वक़्त जब वो नाले में एक बड़े से पत्थर पर बैठी अपने कपड़े धो रही थी
मैं उसके पास बैठ गया। मुझे किसी ख़ास बात का इज़हार करने पर तैयार देख कर उसने जंगली बिल्ली की तरह मेरी तरफ़ घूर कर देखा और ज़ोर ज़ोर से अपनी शलवार को पत्थर पर झटकते हुए कहा


“आप कश्मीर कब जा रहे हैं। यहां बटोत में क्या धरा है जो आप यहां ठहरे हुए हैं।”
ये सुन कर मैंने मुस्तफ़सिराना निगाहों से उसकी तरफ़ देखा। गोया मैं उसके सवाल का जवाब ख़ुद उसकी ज़बान से चाहता हूँ। उसने निगाहें नीची कर लीं और मुस्कुराते हुए कहा
“आप सैर करने के लिए आए हैं। मैंने सुना है कश्मीर में बहुत से बाग़ हैं। आप वहां क्यों नहीं चले जाते?”
मौक़ा अच्छा था


चुनांचे मैंने दिल के तमाम दरवाज़े खोल दिए। वो मेरे जज़्बात के बहते हुए धारे का शोर ख़ामोशी से सुनती रही। मेरी आवाज़ नाले के पानी की गुनगुनाहट में जो नन्हे नन्हे संगरेज़ों से खेलता हुआ बह रहा था डूब डूब कर उभर रही थी। हमारे सुरों के ऊपर अखरोट के घने दरख़्त में चिड़ियां चहचहा रही थीं। हवा इस क़दर तर-ओ-ताज़ा और लतीफ़ थी कि उसका हर झोंका बदन पर एक ख़ुशगवार कपकपी तारी कर देता था।
मैं उससे पूरा एक घंटा गुफ़्तुगू करता रहा। उससे साफ़ लफ़्ज़ों में कह दिया कि मैं तुमसे मोहब्बत करता हूँ और शादी का ख़्वाहिशमंद हूँ। ये सुन कर वह बिल्कुल मुतहय्यर न हुई लेकिन उसकी निगाहें जो दूर पहाड़ियों की स्याही और आसमान की नीलाहट को आपस में मिलता हुआ देख रही थीं इस बात की मज़हर थीं कि वो किसी गहरे ख़याल में मुस्तग़रक़ है। कुछ अ’र्सा ख़ामोश रहने के बाद उसने मेरे इसरार पर सिर्फ़ इतना जवाब दिया।
“अच्छा आप कश्मीर न जाएं।”
ये जवाब इख़्तिसार के बावजूद हौसला अफ़ज़ा था... इस मुलाक़ात के बाद हम दोनों बेतकल्लुफ़ हो गए। अब पहला सा हिजाब न रहा। हम घंटों एक दूसरे के साथ बातें करते रहते। एक रोज़ मैंने उस से निशानी के तौर पर कुछ मांगा तो उसने बड़े भोले अंदाज़ में अपने सर के क्लिप उतार कर मेरी हथेली पर रख दिए और मुस्कुरा कर कहा


“मेरे पास यही कुछ है।”
ये क्लिप मेरे पास अभी तक महफ़ूज़ हैं। ख़ैर कुछ दिनों की तूल तवील गुफ़्तगुओं के बाद मैंने उस की ज़बान से कहलवा लिया कि वो मुझसे शादी करने पर रज़ामंद है। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब उस रोज़ शाम को उसने अपने घड़े को सर पर सँभालते हुए अपनी रजामंदी का इज़हार इन अलफ़ाज़ में किया था कि “हाँ मैं चाहती हूँ।” तो मेरी मसर्रत की कोई इंतेहा न रही थी।
मुझे ये भी याद है कि होटल को वापस आते हुए मैं कुछ गाया भी था। उस पुरमसर्रत शाम के चौथे रोज़ जब कि मैं आने वाली साअ’त-ए-सईद के ख़्वाब देख रहा था
यकायक उस मकान की तमाम दीवारें गिर पड़ीं जिनको मैंने बड़े प्यार से उस्तवार किया था।


बिस्तर में पड़ा था कि सुबह स्यालकोट के एक साहब जो बग़रज़ तबदीली-ए-आब-ओ-हवा बटोत में क़्याम पज़ीर थे और एक हद तक बेगू से मेरी मोहब्बत को जानते थे
मेरी चारपाई पर बैठ गए और निहायत ही मुफ़क्किराना लहजा में कहने लगे

“वज़ीर बेगम से आपकी मुलाक़ातों का ज़िक्र आज बटोत के हर बच्चे की ज़बान पर है। मैं वज़ीर बेगम के कैरेक्टर से एक हद तक वाक़िफ़ था। इसलिए कि स्यालकोट में इस लड़की के मुतअ’ल्लिक़ बहुत कुछ सुन चुका हूँ। मगर यहां बटोत में इसकी तसदीक़ हो गई है। एक हफ़्ता पहले यहां का क़साई इसके मुतअ’ल्लिक़ एक तवील हिकायत सुना रहा था। परसों पान वाला आपसे हमदर्दी का इज़हार कर रहा था कि आप इस्मत बाख़्ता लड़की के दाम में फंस गए हैं। कल शाम को एक और साहब कह रहे थे कि आप टूटी हुई हंडिया ख़रीद रहे हैं। मैंने ये भी सुना है कि बा’ज़ लोग उससे आपकी गुफ़्तगु पसंद नहीं करते। इसलिए कि जब से आप बटोत में आए हैं वो उनकी नज़रों से ओझल हो गई है। मैंने आपसे हक़ीक़त का इज़हार कर दिया है। अब आप बेहतर सोच सकते हैं।”


इस्मत बाख़्ता लड़की
टूटी हुई हंडिया
लोग उससे मेरी गुफ़्तुगू को पसंद नहीं करते
मुझे अपनी समाअ’त पर यक़ीन न आता था। बेगू और... इसका ख़याल ही नहीं किया जा सकता था। मगर जब दूसरे रोज़ मुझे होटल वाले ने निहायत ही राज़दाराना लहजे में चंद बातें कहीं तो मेरी आँखों के सामने तारीक धुन्द सी छा गई।


“बाबू जी
आप बटोत में सैर के लिए आए हैं मगर देखता हूँ कि आप यहां की एक हुस्न-फ़रोश लड़की की मोहब्बत में गिरफ़्तार हैं। उसका ख़याल अपने दिल से निकाल दीजिए। मेरा उस लड़की के घर आना-जाना है
मुझे ये भी मालूम हुआ है कि आपने उसको कुछ कपड़े भी ख़रीद दिए हैं। आपने यक़ीनन और भी कई रुपये ख़र्च किए होंगे
माफ़ कीजिए मगर ये सरासर हिमाक़त है। मैं आपसे ये बातें हरगिज़ न करता क्योंकि यहां बीसियों ऐ’शपसंद मुसाफ़िर आते हैं मगर आपका दिल उन स्याहियों से पाक नज़र आता है। आप बटोत से चले जाएं


इस क़ुमाश की लड़की से गुफ़्तुगू करना अपनी इ’ज़्ज़त ख़तरे में डालना है।”
ज़ाहिर है कि इन बातों ने मुझे बेहद अफ़सुरदा बना दिया था वो मुझसे सिगरेट
मिठाई और इसी क़िस्म की दूसरी मामूली चीज़ें तलब किया करती थी और मैं बड़े शौक़ और मोहब्बत से उसकी ये ख़्वाहिश पूरी किया करता था। उसमें एक ख़ास लुत्फ़ था। मगर अब होटल वाले की बात ने मेरे ज़ेहन में मुहीब ख़यालात का एक तलातुम बरपा कर दिया। गुज़श्ता मुलाक़ातों के जितने नुक़ूश मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में महफ़ूज़ थे और जिन्हें मैं हर रोज़ बड़े प्यार से अपने तसव्वुर में ला कर एक ख़ास क़िस्म की मिठास महसूस किया करता था
दफ़अ’तन तारीक शक्ल इख़्तियार कर गए।


मुझे उसके नाम ही से उ’फ़ूनत आने लगी। मैंने अपने जज़्बात पर क़ाबू पाने की बहुत कोशिश की मगर बेसूद। मेरा दिल जो एक कॉलेज के तालिब-ए-इल्म के सीने में धड़कता था
अपने ख़्वाबों की ये बुरी और भयानक ता’बीर देख कर चिल्ला उठा। उसकी बातें जो कुछ अ’र्सा पहले बहुत भली मालूम होती थीं रियाकारी में डूबी हुई मालूम होने लगीं। मैंने गुज़श्ता वाक़ियात
बेगू की नक़्ल-ओ-हरकत
उस की जुंबिश और अपने गिर्द-ओ-पेश के माहौल को पेश-ए-नज़र रख कर अ’मीक़ मुताला’ किया तो तमाम चीज़ें रोशन हो गईं। उसका हर शाम को एक मरीज़ के हाँ दूध लेकर जाना और वहां एक अ’र्सा तक बैठी रहना


बावली पर हर कस-ओ-नाकस से बेबाकाना गुफ़्तुगू
दुपट्टे के बग़ैर एक पत्थर से दूसरे पर उछल कूद
अपनी हमउम्र लड़कियों से कहीं ज़्यादा शोख़ और आज़ाद रवी... “वो यक़ीनन इस्मत बाख़्ता लड़की है।” मैंने ये राय मुरत्तिब तो करली मगर आँसूओं से मेरी आँखें गीली हो गईं। ख़ूब रोया मगर दिल का बोझ हल्का न हुआ।
मैं चाहता था कि एक बार आख़िरी बार उससे मिलूं और उसके मुँह पर अपने तमाम ग़ुस्से को थूक दूँ। यही सूरत थी जिससे मुझे कुछ सुकून हासिल हो सकता था। चुनांचे में शाम को बावली की तरफ़ गया। वो पगडंडी पर अनार की झाड़ियों के पीछे बैठी मेरा इंतिज़ार कर रही थी। उसको देख कर मेरा दिल किसी क़दर कुढ़ा


मेरा हलक़ उस रोज़ की तल्ख़ी कभी फ़रामोश नहीं कर सकता। उसके क़रीब पहुंचा और पास ही एक पत्थर पर बैठ गया। छल्लां
उसकी भैंस और उसका बछड़ा चंद गज़ों के फ़ासले पर बैठे जुगाली कर रहे थे। मैंने गुफ़्तुगू का आग़ाज़ करना चाहा मगर कुछ न कह सका।
ग़ुस्से और अफ़सुर्दगी ने मेरी ज़बान पर क़ुफ़्ल लगा दिया
मुझे ख़ामोश देख कर उसकी आँखों की चमक मांद पड़ गई


जैसे चश्मे के पानी में किसी ने अपने मिट्टी भरे हाथ धो दिए हैं। फिर वो मुस्कुराई
ये मुस्कुराहट मुझे किसी क़दर मस्नूई और फीकी मालूम हुई। मैंने सर झुका लिया और संगरेज़ों से खेलना शुरू कर दिया था। शायद मेरा रंग ज़र्द पड़ गया था। उसने ग़ौर से मेरी तरफ़ देखा और कहा
“आप बीमार हैं?”
उसका ये कहना था कि मैं बरस पड़ा


“हाँ
बीमार हूँ
और ये बीमारी तुम्हारी दी हुई है
तुम्हीं ने ये रोग लगाया है बेगू! मैं तुम्हारे चाल चलन की सब कहानी सुन चुका हूँ और तुम्हारे सारे हालात से बाख़बर हूँ।”


मेरी चुभती हुई बातें सुन कर और बदले हुए तेवर देख कर वो भौंचक्का सी रह गई और कहने लगी
“अच्छा
तो मैं अच्छी लड़की नहीं हूँ। आपको मेरे चाल चलन के मुतअ’ल्लिक़ सब कुछ मालूम हो चुका है। मेरी समझ में नहीं आता कि ये आप कैसी बहकी बहकी बातें कर रहे हैं।”
मैं चिल्लाया


“गोया तुमको मालूम ही नहीं। ज़रा अपने गिरेबान में मुँह डाल कर देखो तो अपनी स्यहकारियों का सारा नक़्शा तुम्हारी आँखों तले घूम जाएगा।” मैं तैश में आ गया
“कितनी भोली बनती हो
जैसे कुछ जानती ही नहीं। परों पर पानी पड़ने ही नहीं देतीं। मैं क्या कह रहा हूँ भला तुम क्या समझो
जाओ जाओ बेगू


तुमने मुझे सख़्त दुख पहुंचाया है।” ये कहते कहते मेरी आँखों में आँसू डबडबा आए।
वो भी सख़्त मुज़्तरिब हो गई और जल कर बोल उठी
“आख़िर मैं भी तो सुनूं कि आपने मेरे बारे में क्या क्या सुना है। पर आप तो रो रहे हैं।”
“हाँ। रो रहा हूँ। इसलिए कि तुम्हारे अफ़्आ’ल ही इतने स्याह हैं कि उनपर मातम किया जाये। तुम पाकबाज़ों की क़दर क्या जानो। अपना जिस्म बेचने वाली लड़की मोहब्बत क्या जाने। तुम...तुम सिर्फ़ इतना जानती हो कि कोई मर्द आए और तुम्हें अपनी छाती से भींच कर चूमना चाटना शुरू कर दे और जब सैर हो जाये तो अपनी राह ले। क्या यही तुम्हारी ज़िंदगी है।”


मैं ग़ुस्से की शिद्दत से दीवाना हो गया था। जब उसने मेरी ज़बान से इस क़िस्म के सख़्त कलमात सुने तो उसने ऐसा ज़ाहिर किया जैसे उसकी नज़र में ये सब गुफ़्तुगू एक मुअ’म्मा है। उस वक़्त तैश की हालत में मैंने उसकी हैरत को नुमाइशी ख़याल किया और एक क़हक़हा लगाते हुए कहा
“जाओ! मेरी नज़रों से दूर हो जाओ
तुम नापाक हो।”
ये सुन कर उस ने डरी हुई आवाज़ में सिर्फ़ इतना कहा


“आपको क्या हो गया है?”
“मुझे क्या हो गया... क्या हो गया है।” मैं फिर बरस पड़ा
“अपनी ज़िंदगी की स्याहकारियों पर नज़र दौड़ाओ... तुम्हें सब कुछ मालूम हो जाएगा। तुम मेरी बात इसलिए नहीं समझती हो कि मैं तुमसे शादी करने का ख़्वाहिशमंद था। इसलिए कि मेरे सीने में शहवानी ख़यालात नहीं
इसलिए कि मैं तुम से सिर्फ़ मोहब्बत करता हूँ। जाओ मुझे तुमसे सख़्त नफ़रत है।”


जब मैं बोल चुका तो उसने थूक निगल कर अपने हलक़ को साफ़ किया और थरथराई हुई आवाज़ में कहा
“शायद आप ये ख़याल करते होंगे कि मैं जानबूझ कर अंजान बन रही हूँ। मगर सच जानिए मुझे कुछ मालूम नहीं आप क्या कह रहे हैं। मुझे याद है कि एक शाम आप सड़क पर से गुज़र रहे थे
आपने मेरी तरफ़ देखा था और मुस्कुरा दिए थे। यहां बीसियों लोग हम लड़कियों को देखते हैं और मुस्कुरा कर चले जाते हैं। फिर आप मुतवातिर बावली की तरफ़ आते रहे। मुझे मालूम था आप मेरे लिए आते हैं मगर इसी क़िस्म के कई वाक़ए’ मेरे साथ गुज़र चुके हैं। एक रोज़ आपने मेरे साथ बातें कीं और इस के बाद हम दोनों एक दूसरे से मिलने लगे। आपने शादी के लिए कहा
मैं मान गई। मगर इससे पहले इस क़िस्म की कई दरख़्वास्तें सुन चुकी हूँ। जो मर्द भी मुझसे मिलता है दूसरे तीसरे रोज़ मेरे कान में कहता है


“बेगू देख में तेरी मोहब्बत में गिरफ़्तार हूँ। रात दिन तू ही मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में बसी रहती है। आपने भी मुझसे यही कहा। अब बताईए मोहब्बत क्या चीज़ है। मुझे क्या मालूम कि आपने दिल में क्या छुपा रखा है। यहां आप जैसे कई लोग हैं जो मुझसे यही कहते हैं
“बेगू तुम्हारी आँखें कितनी ख़ूबसूरत हैं। जी चाहता है कि सदक़े हो जाऊं। तुम्हारे होंट किस क़दर प्यारे हैं
जी चाहता है इनको चूम जाऊं।”
वो मुझे चूमते रहे हैं क्या ये मोहब्बत नहीं है? कई बार मेरे दिल में ख़याल आया है कि मोहब्बत कुछ और ही चीज़ है मगर मैं पढ़ी-लिखी नहीं


इसलिए मुझे क्या मालूम हो सकता है। मैंने क़ायदा पढ़ना शुरू किया मगर छोड़ दिया। अगर मैं पढ़ूं तो फिर छल्लां और उसके बछड़े का पेट कौन भरे। आप अख़बार पढ़ लेते हैं इसलिए आपकी बातें बड़ी होती हैं। मैं कुछ नहीं समझ सकती
छोड़िए इस क़िस्से को। आईए कुछ और बातें करें। मुझे आपसे मिल कर बड़ी ख़ुशी होती है। मेरी माँ कह रही थीं कि बेगू तू हैट वाले बाबू के पीछे दीवानी हो गई है।”
मेरी नज़रों के सामने से वो तारीक पर्दा उठने लगा था जो इस अंजाम का बाइ’स था। मगर दफ़अ’तन मेरे जोश और ग़ुस्से ने फिर उसे गिरा दिया। बेगू की गुफ़्तुगू बेहद सादा और मासूमियत से पुर थी मगर मुझे उसका हर लफ़्ज़ बनावट में लिपटा नज़र आया। मैं एक लम्हा भी उसकी अहमियत पर ग़ौर न किया।
“बेगू


मैं बच्चा नहीं हूँ कि तुम मुझे चिकनी चुपड़ी बातों से बेवक़ूफ़ बनालोगी।” मैंने ग़ुस्से में उससे कहा
“ये फ़रेब किसी और को देना। कहते हैं कि झूट के पांव नहीं होते। तुमने अभी अभी अपनी ज़बान से इस बात का ए’तराफ़ किया है
अब मैं क्या कहूं।”
“नहीं


नहीं कहिए!” उसने कहा।
“कई लोग तुम्हारे मुँह को चूमते रहे हैं। तुम्हें शर्म आनी चाहिए!”
“हाय आप तो समझते ही नहीं। अब मैं क्या झूट बोलती हूँ। मैं ख़ुद थोड़ा ही उनके पास जाती हूँ और मुँह बढ़ा कर चूमने को कहती हूँ। अगर आप उस रोज़ मेरे बालों को चूमना चाहते जबकि आप इन की तारीफ़ कर रहे थे
तो क्या मैं इनकार कर देती? मैं किस तरह इनकार कर सकती हूँ


मुझे छल्लां बहुत प्यारी लगती है और मैं हर रोज़ उसको चूमती हूँ। इसमें क्या हर्ज है। मैं चाहती हूँ कि लोग मेरे बालों
मेरे होंटों और मेरे गालों की तारीफ़ करें
इससे मुझे बड़ी ख़ुशी होती है ख़बर नहीं क्यों?
मैं सुबह सवेरे उठती हूँ और छल्लां को लेकर घास चराने के लिए बाहर चली जाती हूँ


दोपहर को रोटी खा कर फिर घर से निकल आती हूँ। शाम को पानी भरती हूँ। हर रोज़ मेरा यही काम है
मुझे याद है कि आपने मुझसे कई मर्तबा कहा था कि मैं पानी भरने न आया करूं
भैंस न चराया करूं। शायद आप इसी वजह से नाराज़ हो रहे हैं। मगर ये तो बताईए कि मैं घर पर रहूं तो फिर आप मुलाक़ात क्योंकर कर सकेंगे? मैंने सुना है कि पंजाब में लड़कियां घर से बाहर नहीं निकलतीं मगर हम पहाड़ी लोग हैं हमारा यही काम है।”
“तुम्हारा यही काम है कि हर रहगुज़र से लिपटना शुरू कर दो। तुम पहाड़ी लोगों के चलन मुझसे छुपे हुए नहीं


ये तक़रीर किसी और को सुनाना। घर पर रहो या बाहर रहो। अब मुझे इससे कोई सरोकार नहीं। इन पहाड़ियों में रह कर जो सबक़ तुमने सीखा है वो मुझे पढ़ाने की कोशिश न करो”
“आप बहुत तेज़ होते जा रहे हैं बहुत चल निकले हैं।” उसने क़दरे बिगड़ कर कहा
“मालूम होता है लोगों ने आपके बहुत कान भरे हैं। मुझे भी तो पता लगे कि वो कौन “मरन जोगे” हैं जो मेरे मुतअ’ल्लिक़ आपको ऐसी बातें सुनाते रहे हैं। आप ख़्वाह मख़्वाह इतने गर्म होते जा रहे हैं। ये सच है कि मैं मर्दों के साथ बातें करती हूँ और उनसे मिलती हूँ मगर...” ये कहते हुए उसके गाल सुर्ख़ हो गए। मगर मैंने उसकी तरफ़ ध्यान न दिया।
एक लम्हा ख़ामोश रहने के बाद वो फिर बोली


“आप कहते हैं कि मैं बुरी लड़की हूँ
ये ग़लत है। मैं पगली हूँ
सचमुच पगली हूँ। कल आपके चले जाने के बाद में पत्थर पर बैठ कर देर तक रोती रही। जाने क्यों? ऐसा कई दफ़ा हुआ है कि मैं घंटों रोया करती हूँ। आप हंसेंगे मगर इस वक़्त भी मेरा जी चाहता है कि यहां से उठ भागूं और इस पहाड़ी की चोटी पर भागती हुई चढ़ जाऊं और फिर कूदती फांदती नीचे उतर जाऊं। मेरे दिल में हर वक़्त एक बेचैनी सी रहती है। भैंस चराती हूँ
पानी भरती हूँ


लकड़ियां काटती हूँ लेकिन ये सब काम में ऊपरे दिल से करती हूँ। मेरा जी किसी को ढूंढता है। मालूम नहीं किसको... मैं दीवानी हूँ।”
बेगू की ये अ’जीब-ओ-ग़रीब बातें जो दर-हक़ीक़त उसकी ज़िंदगी का एक निहायत उलझा हुआ बाब थीं और जिसे बग़ौर मुताला करने के बाद सब राज़ हल हो सकते थे
उस वक़्त मुझे किसी मुजरिम का ग़ैरमरबूत बयान मालूम हुईं। बेगू और मेरे दरमियान इस क़दर तारीक और मोटा पर्दा हाइल हो गया था कि हक़ीक़त की नक़ाबकुशाई बहुत मुश्किल थी।
“तुम दीवानी हो।” मैंने उससे कहा


“क्या मर्दों के साथ बैठ कर झाड़ियों के पीछे पहरों बातें करते रहना भी इस दीवानगी ही की एक शाख़ है? बेगू
तुम पगली हो मगर अपने काम में आठों गांठ होशियार!”
“मैं बातें करती हूँ
उनसे मिलती हूँ


मैंने इससे कब इनकार किया है। अभी अभी मैंने आपसे अपने दिल की सच्ची बात कही तो आपने मज़ाक़ उड़ाना शुरू कर दिया। अब अगर मैं कुछ और कहूं तो इससे क्या फ़ायदा होगा। आप कभी मानेंगे ही नहीं।”
“नहीं
नहीं
कहो


क्या कहती हो
तुम्हारा नया फ़ल्सफ़ा भी सुन लूं।”
“सुनिए फिर।” ये कह कर उसने थकी हुई हिरनी की तरह मेरी तरफ़ देखा और आह भर कर बोली
“ये बातें जो मैं आज आपको सुनाने लगी हूँ मेरी ज़बान से पहले कभी नहीं निकलीं। मैं ये आपको भी न सुनाती


मगर मजबूरी है। आप अ’जीब-ओ-ग़रीब आदमी हैं। मैं बहुत से लोगों से मिलती रही हूँ। मगर आप बिल्कुल निराले हैं। शायद यही वजह है कि मुझे आप से...”
वो हिचक

- सआदत-हसन-मंटो


परियों की सर-ज़मीन को एक रास्ता जाता है शाह बलूत और सनोबर के जंगलों में से गुज़रता हुआ जहाँ रुपहली नद्दियों के किनारे चेरी और बादाम के सायों में ख़ूबसूरत चरवाहे छोटी-छोटी बाँसुरियों पर ख़्वाबों के नग़्मे अलापते हैं। ये सुनहरे चाँद की वादी है। never never।and के मग़रूर और ख़ूबसूरत शहज़ादे। पीटर पैन का मुल्क जहाँ हमेशा सारी बातें अच्छी-अच्छी हुआ करती हैं। आइसक्रीम की बर्फ़ पड़ती है। चॉकलेट और प्लम केक के मकानों में रहा जाता है। मोटरें पैट्रोल के बजाए चाय से चलती हैं। बग़ैर पढ़े डिग्रियाँ मिल जाती हैं।
और कहानियों के इस मुल्क को जाने वाले रास्ते के किनारे-किनारे बहुत से साइन पोस्ट खड़े हैं जिन पर लिखा है
“सिर्फ़ मोटरों के लिए”
“ये आम रास्ता नहीं”


और शाम के अँधरे में ज़न्नाटे से आती हुई कारों की तेज़ रौशनी में नर्गिस के फूलों की छोटी सी पहाड़ी में से झाँकते हुए ये अल्फ़ाज़ जगमगा उठते हैं
“प्लीज़ आहिस्ता चलाइए... शुक्रिया!”
और बहार की शगुफ़्ता और रौशन दोपहरों में सुनहरे बालों वाली कर्ली लौक्स
सिंड्रेला और स्नो-वाईट छोटी-छोटी फूलों की टोकरियाँ लेकर इस रास्ते पर चेरी के शगूफ़े और सितारा-ए-सहरी की कलियाँ जमा’ करने आया करती थीं।


एक रोज़ क्या हुआ कि एक इंतिहाई डैशिंग शह-सवार रास्ता भूल कर सनोबरों की इस वादी में आ निकला जो दूर-दराज़ की सर-ज़मीनों से बड़े-बड़े अज़ीमुश्शान मार्के सर करके चला आ रहा था। उसने अपने शानदार घोड़े पर से झुक कर कहा
“माई डियर यंग लेडी कैसी ख़ुश-गवार सुब्ह है!” कर्ली लौक्स ने बे-तअ’ल्लुक़ी से जवाब दिया
“अच्छा
वाक़ई’? तो फिर क्या हुआ?”


शह-सवार की ख़्वाब-नाक आँखों ने ख़ामोशी से कहा
“पसंद करो हमें।”
कर्ली लौक्स की बड़ी-बड़ी रौशन और नीली आँखों में बे-नियाज़ी झिलमिला उठी।
“जनाब-ए-आली हम बिल्कुल नोटिस नहीं लेते।” शह-सवार ने अपनी ख़ुसूसियात बताएँ। एक शानदार सी इम्पीरियल सर्विस के मुक़ाबले में टॉप किया है। अब तक एक सौ पैंतीस ड्यूल लड़ चुका हूँ। बेहतरीन क़िस्म का heart breaker हूँ। कर्ली लौक्स ने ग़ुस्से से अपनी सुनहरी लटें झटक दीं और अपने बादामी नाख़ुनों के बरगंडी क्योटेक्स को ग़ौर से देखने में मसरूफ़ हो गई। सिंड्रेला और स्नो-वाईट पगडंडी के किनारे स्ट्राबरी चुनती रहीं। और डैशिंग शह-सवार ने बड़े ड्रामाई अंदाज़ से झुक कर नर्सरी का एक पुराना गीत याद दिलाया


कर्ली लौक्स कर्ली लौक्स
या’नी ऐ मेरी प्यारी चीनी की गुड़िया
तुम्हें बर्तन साफ़ करने नहीं पड़ेंगे
और बतखों को लेकर चरागाह में जाना नहीं होगा


बल्कि तुम कुशनों पर बैठी-बैठी स्ट्राबरी खाया करोगी
ऐ मेरी सुनहरे घुँघरीले बालों वाली मग़रूर शहज़ादी एमीलिया हैनरी एटामराया... दो नैना मितवा रे तुम्हारे हम पर ज़ुल्म करें।
और फिर वो डैशिंग शह-सवार अपने शानदार घोड़े को एड़ लगा कर दूसरी सर-ज़मीनों की तरफ़ निकल गया जहाँ और भी ज़ियादा अज़ीमुश्शान और ज़बरदस्त मार्के उसके मुंतज़िर थे और इसके घोड़े की टापों की आवाज़-ए-बाज़गश्त पहाड़ी रास्तों और वादियों में गूँजती रही।
फिर एक और बात हुई जिसकी वज्ह से चाँद की वादी के बासी ग़मगीं रहने लगे क्योंकि एक ख़ुश-गवार सुब्ह मा’सूम कूक रोबिन सितारा-ए-सहरी के सब्ज़े पर मक़्तूल पाया गया। मरहूम पर किसी ज़ालिम ने तीर चलाया था। सिंड्रेला रोने लगी।


बेचारा मेरा सुर्ख़ और नीले परों वाला गुड्डू सा परिंदा। परिस्तान की सारी चिड़ियों
ख़रगोशों और गिलहरियों ने मुकम्मल तहक़ीक़-ओ-तफ़तीश के बा’द पता चला लिया और बिल-इत्तिफ़ाक़ राय उसकी बे-वक़्त और जवाँ-मर्गी पर ताज़ियत की क़रार दाद मंज़ूर की गई। यूनीवर्सिटी में कूक रोबिन डे मनाया गया लेकिन अ’क़्ल-मंद पूसीकैट ने
जो फ़ुल बूट पहन कर मल्लिका से मिलने लंदन जाया करती थी
सिंड्रेला से कहा


“रोओ मत मेरी गुड़िया
ये कूक रोबिन तो यूँही मरा करता है और फिर फर्स्ट ऐड मिलते ही फ़ौरन ज़िंदा हो जाता है।”
और कूक रोबिन सचमुच ज़िंदा हो गया और फिर सब हँसी ख़ुशी रहने लगे।
और हमेशा की तरह वादी के सब्ज़े पर बिखरे हुए भेड़ों के गले की नन्ही-मुन्नी घंटियाँ और दूर समंदर के किनारे शफ़क़ में खोए हुए पुराने इ’बादत-ख़ानों के घंटे आहिस्ता-आहिस्ता बजते रहे... डिंग-डोंग


डिंग-डोंग बेल
पूसी इन द वेल।
डिंग डोंग। डिंग डोंग... जैसे कर्ली लौक्स कह रही हो
नहीं


नहीं
नहीं
नहीं।
और उसने कहा। नहीं नहीं। ये तो परियों के मुल्क की बातें थीं। मैं कूक रोबिन नहीं हूँ


न आप कर्ली लौक्स या सिंड्रेला हैं। नामों की टोकरी में से जो पर्ची मेरे हाथ पड़ी है उस पर रैट बटलर लिखा है लिहाज़ा आपको स्कार्ट ओहारा होना चाहिए। वर्ना अगर आप जूलियट या क्लिओपेट्रा हैं तो रोमियो या एंतोनी साहब को तलाश फ़तमाइए और मैं क़ाएदे से मिस ओहारा की फ़िक्र करूँगा। लेकिन वाक़िआ’ ये है कि आप जूलियट या बीटर्स या मारी एंतोनी नहीं हैं और मैं क़तई’ रैट बटलर नहीं हो सकता
काश आप महज़ आप होतीं और मैं सिर्फ़ मैं। लेकिन ऐसा नहीं है। लिहाज़ा आइए अपनी अपनी तलाश शुरू’ करें।
हम सब के रास्ते यूँही एक दूसरे को काटते हुए फिर अलग-अलग चले जाते हैं
लेकिन परिस्तान की तरफ़ तो इनमें से कोई रास्ता भी नहीं जाता।


चौकोबार्ज़ की स्टालों और लक्की डिप के खे़मे के रंगीन धारीदार पर्दों के पीछे चाँदी की नन्ही-मुन्नी घंटियाँ बजती रहीं। डिंग डोंग डिंग डोंग... पूसी बेचारी कुँवें में गिर गई और टॉम स्ट्राट बे-फ़िक्री से चौकोबार्ज़ खाता रहा। फिर वो सब ज़िंदगी की ट्रेजडी में ग़ौर करने में मसरूफ़ हो गए क्योंकि वो चाँद की वादी के बासी नहीं थे लेकिन इतने अहमक़ थे कि परिस्तान की पगडंडी पर मौसम-ए-गुल के पहले सफ़ेद शगूफ़े तलाश करने की कोशिश कर लिया करते थे और इस कोशिश में उन्हें हमेशा किसी न किसी अजनबी साहिल
किसी न किसी अनदेखी
अनजानी चट्टान पर फ़ोर्स्ड लैंडिंग करनी पड़ती थी।
वो कई थे। डक डिंगटन जिसे उम्मीद थी कि कभी न कभी तो उसे फ़ुल बूट पहनने वाली वो पूसीकैट मिल ही जाएगी जो उसे ख़्वाबों के शहर की तरफ़ अपने साथ ले जाए और उसे यक़ीन था कि ख़्वाबों के शहर में एक नीली आँखों वाली एलिस अपने ड्राइंगरूम के आतिश-दान के सामने बैठी उसकी राह देख रही है और वो अफ़्साना-निगार जो सोचता था कि किसी रूपहले राज-हंस के परों पर बैठ कर अगर वो ज़िंदगी के इस पार कहानियों की सर-ज़मीन में पहुँच जाए जहाँ चाँद के क़िले में ख़यालों की शहज़ादी रहती है तो वो उससे कहे


“मेरी मग़रूर शहज़ादी मैंने तुम्हारे लिए इतनी कहानियाँ
इतने ओपेरा और इतनी नज़्में लिखी हैं। मेरे साथ दुनिया को चलो तो दुनिया कितनी ख़ूबसूरत
ज़िंदा रहने और मुहब्बत करने के काबिल जगह बन जाए।”
लेकिन रूपहला राजहँस उसे कहीं न मिलता था और वो अपने बाग़ में बैठा-बैठा कहानियाँ और नज़्में लिखा करता था और जो ख़ूबसूरत और अ’क़्ल-मंद लड़की उससे मिलती



उसे एक लम्हे के लिए यक़ीन हो जाता कि ख़यालों की शहज़ादी चाँद के ऐवानों में से निकल आई है लेकिन दूसरे लम्हे ये अ’क़्ल-मंद लड़की हँसकर कहती कि उफ़्फ़ुह भई फ़नकार साहब किया cynicism भी इस क़दर अल्ट्रा फ़ैशनेबल चीज़ बन गई है और आपको ये मुग़ालता कब से हो गया है कि आप जीनियस भी हैं और उसके नुक़रई क़हक़हे के साथ चाँद की किरनों की वो सारी सीढ़ियाँ टूट कर गिर पड़तीं जिनके ज़रिए वो अपनी नज़्मों में ख़यालिस्तान के महलों तक पहुँचने की कोशिश किया करता था और दुनिया वैसी की वैसी ही रहती। अँधेरी
ठंडी और बदसूरत... और सिंड्रेला जो हमेशा अपना एक बिलौरीं सैंडिल रात के इख़्तिताम पर ख़्वाबों की झिलमिलाती रक़्स-गाह में भूल आती थी
और वो डैशिंग शह-सवार जो परिस्तान की ख़ामोश


शफ़क़ के रंगों में खोई हुई पगडंडियों पर अकेले-अकेले ही टहला करता था और बर्फ़ जैसे रंग और सुर्ख़ अंगारा जैसे होंटों वाली स्नो-वाईट जो रक़्स करती थी तो बूढ़े बा’दशाह कोल के दरबार के तीनों परीज़ाद मुग़न्नी अपने वाइलन बजाना भूल जाते थे।
“और”
रैट बटलर ने उससे कहा
“मिस ओहारा आपको कौन सा रक़्स ज़ियादा पसंद है। टैंगो... फ़ौक्स ट्रोट... रूंबा... आइए लैमबथ वाक करें।'


और अफ़रोज़ अपने पार्टनर के साथ रक़्स में मसरूफ़ हो गई
हालाँकि वो जानती थी कि वो स्कारलेट ओहारा नहीं है क्योंकि वो चाँद की दुनिया की बासी नहीं थी। सब्ज़े पर रक़्स हो रहा था। रविश की दूसरी तरफ़ एक दरख़्त के नीचे
लकड़ी के आरिज़ी प्लेटफार्म पर चार्ल्स जोडा का ऑर्केस्ट्रा अपनी पूरी स्विंग में तेज़ी से बज रहा था... और फिर एकदम से कुत्ते के दूसरे किनारे पर ईस्तादा लाऊड स्पीकर मैं कारमन मिरांडा का रिकार्ड चीख़ने लगा
“तुम आज की रात किसी के बाज़ुओं में होना चाहती हो?” लक्की डिप और “आरिज़ी काफ़ी हाऊस” के रंगीन ख़ेमों पर बंधी हुई छोटी-छोटी घंटियाँ हवा के झोंकों के साथ बजती रहें और किसी ने उसके दिल में आहिस्ता-आहिस्ता कहा


मौसीक़ी... दीवानगी... ज़िंदगी... दीवानगी... शोपाँ के नग़्मे... “जिप्सी मून।” और ख़ुदा।
उसने अपने हम-रक़्स के मज़बूत
पर ए’तिमाद
मग़रूर बाज़ुओं पर अपना बोझ डाल कर नाच के एक कुइक-स्टेप का टर्न लेते हुए उसके शानों पर देखा। सब्ज़े पर उस जैसे कितने इंसान उसकी तरह दो-दो के रक़्स की टुकड़ियों में मुंतशिर थे। “जूलियट” और “रोमियो”


“विक्टोरिया” और “एल्बर्ट”
“बीटर्स” और “दांते” एक दूसरे को ख़ूबसूरत धोके देने की कोशिश करते हुए
एक दूसरे को ग़लत समझते हुए अपनी इस मस्नूई’
आरिज़ी


चाँद की वादी में कितने ख़ुश थे वो सब के सब... बहार के पहले शगूफ़ों की मुतलाशी और काग़ज़ी कलियों पर क़ाने और मुतमइन... ज़िंदगी के तआ’क़ुब में परेशान-ओ-सरगर्दां ज़िंदगी... हुँह... शोपाँ की मौसीक़ी
सफ़ेद गुलाब के फूल
और अच्छी किताबें। काश ज़िंदगी में सिर्फ़ यही होता।
चाँद की वादी के उस अफ़्साना-निगार अवीनाश ने एक मर्तबा उससे कहा था। हुँह... कितना बनते हो अवीनाश अभी सामने से एक ख़ूबसूरत लड़की गुज़र जाए और तुम अपनी सारी तख़य्युल परस्तियाँ भूल कर सोचने लगोगे कि उसके बग़ैर तुम्हारी ज़िंदगी में कितनी बड़ी कमी है... और अवीनाश ने कहा था


काश जो हम सोचते वही हुआ करता
जो हम चाहते वही मिलता... हाय ये ज़िंदगी का लक्की डिप... ज़िंदगी
जिसका जवाब मोनालीज़ा का तबस्सुम है जिसमें नर्सरी के ख़ूबसूरत गीत और चाँद सितारे तुर्शती हुई कहानियाँ तुम्हारा मज़ाक़ उड़ाती
तुम्हारा मुँह चिढ़ाती बहुत पीछे रह जाती हैं


जहाँ कूक रोबिन फिर से ज़िंदा होने के लिए रोज़ नए-नए तीरों से मरता रहता है... और कर्ली लौक्स रेशमीं कुशनों के अंबार पर कभी नहीं चढ़ पाती। काश अफ़रोज़ तुम और फिर वो ख़ामोश हो गया था क्योंकि उसे याद आ गया था कि अफ़रोज़ को “काश...”
इस सस्ते और जज़्बाती लफ़्ज़ से सख़्त चिड़ है। इस लफ़्ज़ से ज़ाहिर होता है जैसे तुम्हें ख़ुद पर ए’तिमाद
भरोसा
यक़ीन नहीं।


और अफ़रोज़ लैमबेथ वाक की उछल कूद से थक गई। कैसा बे-हूदा सा नाच है। किस क़दर बे-मा’नी और फ़ुज़ूल से steps हैं। बस उछलते और घूमते फिर रहे हैं
बेवक़ूफ़ों की तरह।
“मिस ओहारा...”
उसके हम-रक़्स ने कुछ कहना शुरू’ किया।


“अफ़रोज़ सुल्ताना कहिए।”
“ओह... मिस अफ़रोज़ हमीद अली... आइए कहीं बैठ जाएँ।”
“बैठ कर क्या करें?”
“अर... बातें!”


“बातें आप कर ही क्या सकते हैं सिवाए इसके कि मिस हमीद अली आप ये हैं
आप वो हैं
आप बेहद उ’म्दा रक़्स करती हैं
आपने कल के सिंगल्ज़ में प्रकाश को ख़ूब हराया...।”


“उर... ग़ालिबन आपको सियास्यात से...।”
“शुक्रिया
अवीनाश इसके लिए ज़रूरत से ज़ियादा है।”
“अच्छा तो फिर मौसीक़ी या पालमणि की नई फ़िल्म...।”


“मुख़्तसर ये कि आप ख़ामोश किसी तरह नहीं बैठ सकते...”
वो चुप हो गया।
फिर शाम का अँधेरा छाने लगा। दरख़्तों में रंग बिरंगे बर्क़ी क़ुमक़ुमे झिलमला उठे और वो सब-सब्ज़े को ख़ामोश और सुनसान छोड़ के बाल-रुम के अंदर चले गए। ऑर्केस्ट्रा की गति तब्दील हो गई। जाज़ अपनी पूरी तेज़ी से बजने लगा। वो हॉल के सिरे पर शीशे के लंबे-लंबे दरीचों के पास बैठ गई।
उसके क़रीब उसकी मुमानी का छोटा भाई


जो कुछ अ’र्से क़ब्ल अमरीका से वापिस आया था
मेरी वुड से बातें करने में मशग़ूल था और बहुत सी लड़कियाँ अपनी सब्ज़ बेद की कुर्सियाँ उसके आस-पास खींच कर इंतिहाई इन्हिमाक और दिलचस्पी से बातें सुन रही थीं और मेरीवुड हँसे जा रही थी। मेरीवुड
जो साँवली रंगत की बड़ी-बड़ी आँखों वाली एक आला ख़ानदान ईसाई लड़की और अंग्रेज़ कर्नल की बीवी थी
एक हिन्दुस्तानी फ़िल्म में क्लासिकल रक़्स कर चुकी थी और अब जाज़ की मौसीक़ी और शेरी के गिलासों के सहारे अपनी शामें गुज़ार रही थी।


और पाइपों और सिगरटों के धुएँ का मिला-जुला लरज़ता हुआ अ’क्स बाल-रुम की सब्ज़ रोग़नी दीवारों पर बने हुए ताइरों
पाम के दरख़्तों और रक़्साँ अप्सराओं के धुँदले-धुँदले नुक़ूश को अपनी लहरों में लपेटता
नाचता
रंगीन और रौशन छत की बुलंदी की तरफ़ उठता रहा। ख़्वाबों का शबनम-आलूद सेहर आहिस्ता-आहिस्ता नीचे उतर रहा था।


और यक-लख़्त
मेरी वुड ने ज़ोर से हँसना और चिल्लाना शुरू’ कर दिया। अफ़रोज़ की मुमानी के हॉलीवुड पलट भाई ने ज़रा घबरा कर अपनी कुर्सी पीछे को सरका ली। सब उसकी तरफ़ देखने लगे। ऑर्केस्ट्रा के सुर आहिस्ता-आहिस्ता डूबते गए और दबी-दबी और मद्धम क़हक़हों की आवाज़ें उभरने लगीं। वो सब्ज़ आँखों वाली ज़र्द-रू लड़की
जो बहुत देर से एक हिन्दुस्तानी प्रिंस के साथ नाच रही थी
थक कर अफ़रोज़ के क़रीब आकर बैठ गई और उसका बाप


जो एक हिन्दुस्तानी रियासत की फ़ौज का अफ़सर आला था
फ़िरन के पत्तों के पीछे गैलरी में बैठा इत्मीनान से सिगार का धुआँ उड़ाता रहा।
फिर खेल शुरू’ हुए और एक बेहद ऊटपटांग से खेल में हिस्सा लेने के लिए सब दुबारा हॉल की फ़्लोर पर आ गए और अफ़रोज़ का हम-रक़्स रैट बटलर अपने ख़्वाब-नाक आँखों वाले दोस्त के साथ उसके क़रीब आया
“ मिस हमीद अली आप मेरी पार्टनर हैं न?”


“जी हाँ... आइए।”
और इस ख़्वाब-नाक आँखों वाले दोस्त ने कहा
“बारह बजने वाले हैं। नया साल मुबारक हो। लेकिन आज इतनी ख़ामोश क्यों हैं आप? ”
“आपको भी मुबारक हो लेकिन ज़रूरत है कि इस ज़बरदस्त ख़ुशी में ख़्वाह-मख़ाह की बेकार बातों का सिलसिला रात-भर ख़त्म ही न किया जाए।”


“लेकिन मैं तो चाहता हूँ कि आप इस तरह ख़ामोश न रहें। इससे ख़्वाह-मख़ाह ये ज़ाहिर होगा कि आपको इस मजमे में एक मख़सूस शख़्स की मौजूदगी नागवार गुज़र रही है।”
“पर जो आप चाहें
लाज़िम तो नहीं कि दूसरों की भी वही मर्ज़ी हो। क्योंकि जब आप कुछ कहते होते हैं उस वक़्त आपको यक़ीन होता है कि सारी दुनिया बेहद दिलचस्पी से आपकी तरफ़ मुतवजजेह है”
और बा’द में लड़कियाँ कहती हैं


उफ़्फ़ुह! किस क़दर मज़े की बातें करते हैं अनवर साहब
इतने में प्रकाश काग़ज़ और पैंसिलें तक़सीम करती हुई उनकी तरफ़ आई और उनको उनके फ़र्ज़ी नाम बताती हुई आगे बढ़ गई। थोड़ी देर के लिए सब चुप हो गए। फिर क़हक़हों के शोर के साथ खेल शुरू’ हुआ। खेल के दौरान में उसने अपनी ख़्वाब-नाक आँखें उठा कर यूँही कुछ न कुछ बोलने की ग़रज़ से पूछा
“जी
तो हम क्या बातें कर रहे थे? ”


“मेरा ख़याल है कि हम बातें क़तई’ कर ही नहीं रहे थे। क्यों न आप क़ाएदे से अपनी पार्टनर के साथ जा कर खेलिए। आपको मा’लूम है कि मैं स्कार्लेट ओहारा हूँ। जो लेट अभी आपको तलाश कर रही थी।”
फिर डाक्टर मोहरा और अवीनाश उसकी तरफ़ आ गए और वो उनके साथ खेल में मसरूफ़ हो गई।
और जब रात के इख़्तिताम पर वो रिफ़अ’त के साथ अपना ओवर कोट लेने के लिए क्लोक रुम की तरफ़ जा रही थी तो गैलरी के सामने की तरफ़ से गुज़रते हुए उसने इस सब्ज़ आँखों वाली ज़र्द-रू जूलियट के बाप को अपने दोस्तों से कहते सुना
“आप मेरे दामाद मेजर भंडारी से मिले? मुझे तो फ़ख़्र है कि मेरी बड़ी लड़की ने अपने फ़िरक़े से बाहर शादी करने में ज़ात और मज़हब की दक़यानूसी क़ुयूद की परवाह नहीं की। मेरी लड़की का इंतिख़्वाब पसंद आया आपको? ही ही ही। दर-अस्ल मैंने अपनी चारों लड़कियों का टैस्ट कुछ इस तरह cu।tivate किया है कि पिछली मर्तबा जब मैं उनको अपने साथ यूरोप ले गया तो...”


और अफ़रोज़ जल्दी से बाल रुम के बाहर निकल आई। ये ज़िंदगी... ये ज़िंदगी का घटियापन
वाक़ई’... ये ज़िंदगी...
और जश्न नौ-रोज़ के दूसरे दिन इस बेचारे रैट बटलर ने अपने दोस्त
इस ख़्वाब-नाक आँखों वाले डैशिंग शह-सवार से कहा


जो परिस्तान के रास्तों पर सबसे अलग-अलग टहला करता था
“अजब लड़की है भई।”
“हुआ करे।” और वो ख़्वाब-नाक आँखों वाला दोस्त बे-नियाज़ी से सिगरेट के धुएँ के हल्क़े बना-बना कर छत की तरफ़ भेजता रहा। और उस अ’जीब लड़की की दोस्त कह रही थी
“हुँह


इस क़दर मग़रूर
मुग़ालता-फ़ाईड क़िस्म का इंसान।”
“हुआ करे भई। हमसे क्या।”
और अफ़रोज़ बे-तअ’ल्लुक़ी के साथ निटिंग में मसरूफ़ हो गई।


“इतनी ऊँची बनने की कोशिश क्यों कर रही हो?”
रिफ़अ’त ने चिड़ कर पूछा।
“क्या हर्ज है।”
“कोई हर्ज ही नहीं? क़सम ख़ुदा की अफ़रोज़ इस अवीनाश के फ़लसफ़े ने तुम्हारा दिमाग़ ख़राब कर दिया है।”


“तो गोया तुम्हारे लिए ज़ंजीर हिलाई जाए।”
“उफ़्फ़ोह। जैसे आप यूँही नो लिफ़्ट जारी रखेंगी”
“क़तई’... ज़िंदगी तुम्हारे लिए एक मुसलसल जज़्बात इज़तिराब है लेकिन मुझे उसूलों में रहना ज़ियादा अच्छा लगता है... जानती हो ज़िंदगी के ये ईयर कंडीशंड उसूल बड़े कार आमद और महफ़ूज़ साबित होते हैं।”
“उफ़्फ़ोह... क्या बुलंद-परवाज़ी है।”


“मैं?”
“तुम और वो... ख़ुदा की क़सम ऐसी बेपरवाही से बैठा रहता है जैसे कोई बात ही नहीं। जी चाहता है पकड़ कर खा जाऊँ उसे। झुकना जानता ही नहीं जैसे।”
“अरे चुप रहो भाई।”
“सचमुच उसकी आँखों की गहराइयाँ इतनी ख़ामोश


उसका अंदाज़ इतना पुर-वक़ार
उतना बे-तअ’ल्लुक़ है कि बा’ज़ मर्तबा जी में आता है कि बस ख़ुदकुशी कर लो। या’नी ज़रा सोचो तो
तुम जानती हो कि तुम्हारे कुशन के नीचे या मसहरी के सिरहाने मेज़ पर बेहतरीन क़िस्म की कैडबरी चॉकलेट का बड़ा सा ख़ूबसूरत पैकेट रक्खा हुआ है लेकिन तुम उसे खा नहीं सकतीं... उल्लू!”
“कौन भई...?”


प्रकाश ने कमरे में दाख़िल होते हुए पूछा।
“कोई नहीं... है... एक... एक...”
रिफ़अ’त ने अपने ग़ुस्से के मुताबिक़त में कोई मौज़ूँ नाम सोचना चाहा।
“बिल्ला...”


अफ़रोज़ ने इत्मीनान से कहा।
“बिल्ला!”
प्रकाश काफ़ी परेशान हो गई।
“हाँ भई... एक बिल्ला है बहुत ही typical क़िस्म का ईरानी बिल्ला।”


अफ़रोज़ बोली।
“तो क्या हुआ उसका?”
प्रकाश ने पूछा।
“कुछ नहीं... होता क्या? सब ठीक है बिल्कुल। बस ज़रा उसे अपनी आँखों पर बहुत नाज़ है और उन मसऊद असग़र साहब का क्या होगा? जो मसूरी से मार ख़त पे ख़त निहायत इस्टाईलिश अंग्रेज़ी में तुम्हारे टेनिस की तारीफ़ में भेजा करते हैं।”


“उनको तार दे दिया जाए...: nose upturned-nose upturned-riffat”
“हाँ। या’नी लिफ़्ट नहीं देते। जिसकी नाक ज़रा ऊपर को उठी होती है वो आदमी हमेशा बेहद मग़रूर और ख़ुद-पसंद तबीअ’त का मालिक होता है।”
“तो तुम्हारी नाक इतनी उठी हुई कहाँ है।”
“क़तई’ उठी हुई है। बेहतरीन प्रोफ़ाइल आता है।”


“वाक़ई’ हम लोग भी क्या-क्या बातें करते हैं।”
“जनाब
बेहद मुफ़ीद और अ’क़्ल-मंदी की बातें हैं।”
“और सलाहुद्दीन बेचारा”


“वो तो पैदा ही नहीं हुआ अब तक।”
रिफ़अ’त ने बड़ी रंजीदा अंदाज़ से कहा।
क्योंकि ये उनका तख़य्युल किरदार था और ख़यालिस्तान के किरदार चाँद की वादी में से कभी नहीं निकलते। जब कभी वो सब किसी पार्टी में मिलें तो सबसे पहले इंतिहाई संजीदगी के साथ एक दूसरे से इस फ़र्ज़ी हस्ती की ख़ैरियत पूछी जाती
उसके मुतअ’ल्लिक़ ऊट-पटांग बातें की जातीं और अक्सर उन्हें महसूस होता जैसे उन्हें यक़ीन सा हो गया है कि उनका ख़याली किरदार अगले लम्हे उनकी दुनिया और उनकी ज़िंदगी में दाख़िल हो जाएगा।


और फ़ुर्सत और बे-फ़िक्री की एक ख़ुश-गवार शाम इन्होंने यूँही बातें करते-करते सलाहुद्दीन की इस ख़याली तस्वीर को मुकम्मल किया था। वो सब शॉपिंग से वापिस आकर मंज़र अहमद पुर-ज़ोर शोर से तबसरा कर रही थीं जो उनसे देर तक आर्टस ऐंड क्राफ्ट्स एम्पोरियम के एक काउंटर पर बातें करता रहा था और प्रकाश ने क़तई’ फ़ैसला कर दिया था कि वो बेहद बनता है और अफ़रोज़ बेहद परेशान थी कि किस तरह उसका ये मुग़ालता दूर करे कि वो उसे पसंद करती है।
“लेकिन उसे लिफ़्ट देने की कोई माक़ूल वज्ह पेश करो।”
“क्योंकि भई हमारा मयार इस क़दर बुलंद है कि कोई मार्क तक पहुँच नहीं सकता।”
”लिहाज़ा अब की बार उसको बता दिया जाएगा कि भई अफ़रोज़ की तो मंगनी होने वाली है।”


“लेकिन किससे?”
“यही तो तय करना बाक़ी है। मसलन... मसलन एक आदमी से। कोई नाम बताओ।”
“परवेज़।”
“बड़ा आम अफ़सानवी सा नाम है। कुछ और सोचो!”


“सलामतुल्लाह!”
“हश! भई वाह
क्या शानदार नाम दिमाग़ में आया... सलाहुद्दीन!”
“ये ठीक है। अच्छा


और भाई सलाहुद्दीन का तआ’रुफ़ किस तरह कराया जाए?”
“भई सलाहुद्दीन साहब जो थे वो एक रोज़ परिस्तान के रास्ते पर शफ़क़ के गुल-रंग साये तले मिल गए।”
“परिस्तान के रास्ते पर?”
“चुपकी सुनती जाओ। जानती हो में इस क़दर बेहतरीन अफ़साने लिखती हूँ जिनमें सब परिस्तान की बातें होती हैं। बस फिर ये हुआ कि...”


“जनाब हम तो इस दुनिया के बासी हैं। परिस्तान और कहानियों की पगडंडियों पर तो सिर्फ़ अवीनाश ही भटकता अच्छा लगता है।”
“चच चच चच। बेचारा अवीनाश... गुड्डू।”
“भई ज़िक्र तो सलाहुद्दीन का था।”
“ख़ैर तो जनाब सलाहुद्दीन साहब परिस्तान के रास्ते पर हरगिज़ नहीं मिले। वो भी हमारी दुनिया के बासी हैं और उनका दिमाग़ क़तई’ ख़राब नहीं हुआ है। चुनाँचे सब ही मैटर आफ़ फ़ैक्ट तरीक़े से।”


“ये हुआ कि अफ़रोज़ दिल-कुशा जा रही थी तो रेलवे क्रासिंग के पास बेहद रोमैंटिक अंदाज़ से उसकी कार ख़राब हो गई।”
“नहीं भई ‘वाक़िआ’ ये था कि अफ़रोज़ ऑफिसर्स शाप जो गई एक रोज़ तो पता चला कि वो ग़लत तारीख़ पर पहुँच गई है
और वो अपना कार्ड भी घर भूल गई थी। बस भाई सलाहुद्दीन जो थे इन्होंने जब देखा कि एक ख़ूबसूरत लड़की बरगंडी रंग का क्योटेक्स न मिलने के ग़म में रो पड़ने वाली है तो उन्होंने बेहद gallantly आगे बढ़कर कहा कि
“ख़ातून मेरा आज की तारीख़ का कार्ड बेकार जा रहा है


अगर आप चाहें...”
“बहुत ठीक। आगे चलो। फिर क्या होना चाहिए?”
”बस वो पेश हो गए।”
“न पेश न ज़ेर न ज़बर... अफ़रोज़ ने फ़ौरन नो लिफ़्ट कर दिया और बेचारे दिल-शिकस्ता हो गए।”


“अच्छा उनका कैरेक्टर...”
“बहुत ही बैश-फ़ुल।”
“हरगिज़ नहीं। काफ़ी तेज़... लेकिन भई डैंडी क़तई’ नहीं बर्दाश्त किए जाएँगे”
“क़तई’ नहीं साहब... और और फ्लर्ट हों थोड़े से...”


“तो कोई मज़ाइक़ा नहीं... अच्छा वो करते क्या हैं?”
“भई ज़ाहिर है कुछ न कुछ तो ज़रूर ही करते होंगे”
”आर्मी में रख लो...”
“ओक़... हद हो गई तुम्हारे अस्सिटैंट की। कुछ सिविल सर्विस वग़ैरह का लाओ।”


“सब बोर होते हैं।”
“अरे हम बताएँ
कुछ करते कराते नहीं। मंज़र अहमद की तरह तअल्लुक़ादार हैं। पच्चीस गाँव और एक यही रोमैंटिक सी झील जहाँ पर वो क्रिसमिस के ज़माने में अपने दोस्तों को मदद किया करते हैं। हाँ और एक शानदार सी स्पोर्टस कार...”
“लेकिन भई उसके बावजूद बे-इंतिहा क़ौमी ख़िदमत करता है। कम्यूनिस्ट क़िस्म की कोई मख़लूक़।”


“कम्यूनिस्ट है तो उसे अपने पचीसों गाँव अलाहदा कर देने चाहिऐं क्यों कि प्राईवेट प्रॉपर्टी...”
“वाह
अच्छे भाई भी तो इतने बड़े कम्यूनिस्ट हैं। इन्होंने कहाँ अपना तअ’ल्लुक़ा छोड़ा है?”
“आप तो चुग़द हैं निशात ज़रीं... अच्छे भैया तो सचमुच के आदमी हैं। हीरो को बेहद आईडीयल क़िस्म का होना चाहिए। या’नी ग़ौर करो सलाहुद्दीन महमूद किस क़दर बुलंद-पाया इंसान है कि जनता की ख़ातिर...”


“उफ़्फ़ुह... क्या बोरियत है भई। तुम सब मिलकर अभी यही तय नहीं कर पाई कि वो करता क्या है।”
“क्या बात हुई है वल्लाह!”
“जल्दी बताओ।”
“असफ़हानी चाय में...”


और सब पर ठंडा पानी पड़ गया।
“क्यों जनाब असफ़हानी चाय में बड़े-बड़े स्मार्ट लोग देखने में आते हैं।”
“अच्छा भई क़िस्सा मुख़्तसर ये कि पढ़ता है। फिज़िक्स में रिसर्च कर रहा है गोया।”
“पढ़ता है तो ऑफिसर्स शाप में कहाँ से पहुँच गया!”


“भई हमने फ़ैसला कर दिया है आख़िर। हवाई जहाज़ में सिवल एविएशन ऑफ़िसर है।”
“ये आईडिया कुछ...”
“तुम्हें कोई आईडिया ही पसंद नहीं आया। अब तुम्हारे लिए कोई आसमान से तो ख़ास-तौर पर बन कर आएगा नहीं आदमी।”
“अच्छा तो फिर यही मिस्टर ब्वॉय नेक्स्ट डोर जो ग़ुरूर के मारे अब तक डैडी पर काल करने नहीं आए।”


और इस तरह इन्होंने एक तख़य्युल किरदार की तख़लीक़ की थी। सब ही अपने दिलों में चुपके चुपके ऐसे किरदारों की तख़लीक़ कर लेते हैं जो उनकी दुनिया में आकर बनते और बिगड़ते रहते हैं। ये बेचारे बेवक़ूफ़ लोग।
लेकिन प्रकाश का ख़याल था कि उनकी mad-hatter’s पार्टी में सब के सब हद से ज़ियादा अ’क़्ल-मंद हैं। मग़रूर और ख़ुद-पसंद निशात ज़रीं जो ऐसे fantastic अफ़साने लिखती है जिनका सर पैर किसी की समझ में नहीं आता लेकिन जिनकी तारीफ़ एडिकेट के उसूलों के मुताबिक़ सब कर देते हैं जो अक्सर छोटी-छोटी बातों पर उलझ कर बच्चों की तरह रो पड़ती है या ख़ुश हो जाती है और फिर अपने आपको सिपर इंटलेक्टुअल समझती है। रिफ़अ’त
जिसके लिए ज़िंदगी हमेशा हँसती नाचती रहती है और अफ़रोज़ जो निहायत संजीदगी से नो लिफ़्ट के फ़लसफ़े पर थीसिस लिखने वाली है क्योंकि उनकी पार्टी के दस अहकाम में से एक ये भी था कि इंसान को ख़ुद-पसंद
ख़ुद-ग़रज़ और मग़रूर होना चाहिए क्योंकि ख़ुद-पसंदी दिमाग़ी सेहत-मंदी की सबसे पहली अलामत है।


एक सह-पहर वो सब अपने अमरीकन कॉलेज के तवील दरीचों वाले फ़्रांसीसी वज़ा के म्यूज़िक रुम में दूसरी लड़कियों के साथ पियानो के गर्द जमा’ हो कर सालाना कोंसर्ट के ओपेरा के लिए रीहरसल कर रही थीं। मौसीक़ी की एक किताब के वर्क़ उलटते हुए किसी जर्मन नग़्मा-नवाज़ की तस्वीर देखकर प्रकाश ने बेहद हमदर्दी से कहा
“हमारे अवीनाश भाई भी तो स्कार्फ़
लंबे-लंबे बालों
ख़्वाब-नाक आँखों और पाइप के धुएँ से ऐसा बोहेमियन अंदाज़ बनाते हैं कि सब उनको ख़्वाह-मख़ाह जीनियस समझने पर मजबूर हो जाएँ।”


“आदमी कभी जीनियस हो ही नहीं सकता।”
निशात अपने फ़ैसला-कुन अंदाज़ में बोली। “अब तक जितने जीनियस पैदा हुए हैं सारे के सारे बिल्कुल girlish थे और उनमें औ’रत का अंसर क़तई’ तौर पर ज़ियादा मौजूद था। बाइरन
शीले
कीट्स


शोपाँ... ख़ुद आपका नपोलियन आज़म लड़कियों की तरह फूट-फूटकर रोने लगता था।”
रिफ़अ’त आइरिश दरीचे के क़रीब ज़ोर-ज़ोर से अलापने लगी। मैंने ख़्वाब में देखा कि मर्मरीं ऐवानों में रहती हूँ
गाने की मश्क़ कर रही थी। बाहर बरामदे के यूनानी सुतूनों और बाग़ पर धूप ढलना शुरू’ हो गई।
“सुपर्ब


मेरी बच्चियो हमारी रीहरसलें बहुत अच्छी तरह प्रोग्रस् कर रही हैं।”
और मौसीक़ी की फ़्रांसीसी प्रोफ़ैसर अपनी मुतमइन और शीरीं मुस्कुराहट के साथ म्यूज़िक रुम से बाहर जा कर बरामदे के सतूनों के तवील सायों में खो गईं। निशात ने इसी सुकून और इत्मीनान के साथ पियानो बंद कर दिया।
ज़िंदगी कितनी दिल-चस्प है
कितनी शीरीं। दरीचे के बाहर साये बढ़ रहे थे। फ़िज़ा में “लाबोहेम” के नग़्मों की गूँज अब तक रक़्साँ थी। चारों तरफ़ कॉलेज की शानदार और वसीअ’ इमारतों की क़तारें शाम के धुँदलके में छुपती जा रही थीं। मेरा प्यारा कॉलेज


एशिया का बेहतरीन कॉलेज
एशिया में अमरीका लेकिन इसका उसे उस वक़्त ख़याल नहीं आया। इस वक़्त उसे हर बात अ’जीब मा’लूम नहीं हुई। वो सोच रही थी हम कितने अच्छे हैं। हमारी दुनिया किस क़दर मुकम्मल और ख़ुश-गवार है। अपनी मा’सूम मसर्रतें और तफ़रीहें
अपने रफ़ीक़ और साथी
अपने आईडीयल और नज़रिए और इसी ख़ूबसूरत दुनिया का अ’क्स वो अपने अफ़्सानों में दिखाना चाहती है तो उसकी तहरीरों को fantastic और मस्नूई’ कहा जाता है... बेचारी मैं।


मौसीक़ी के औराक़ समेटते हुए उसे अपने आपसे हमदर्दी करने की ज़रूरत महसूस होने लगी। उसने एक-बार अवीनाश को समझाया था कि हमारी शरीयत के दस अहकाम में से एक ये भी है कि हमेशा अपनी तारीफ़ आप करो। तारीफ़ के मुआमले में कभी दूसरों पर भरोसा नहीं करना चाहिए। महफ़ूज़ तरीन बात ये है कि वक़तन-फ़वक़तन ख़ुद को याद दिलाते रहा जाए कि हम किस क़दर बेहतरीन हैं। हमको अपने इलावा दुनिया की कोई और चीज़ भी पसंद नहीं आ सकी क्योंकि ख़ुद बादलों के महलों में महफ़ूज़ हो कर दूसरों पर हँसते रहना बेहद दिल-चस्प मश्ग़ला है। ज़िंदगी हम पर हँसती है
हम ज़िंदगी पर हँसते हैं। “और फिर ज़िंदगी अपने आप पर हँसती है।”
बेचारे अवीनाश ने इंतिहाई संजीदगी से कहा था और अगर अफ़रोज़ का ख़याल था कि वो इस दुनिया से बिल्कुल मुतमइन नहीं तो प्रकाश और निशात ज़रीं को
जो दोनों बेहद अ’क़्ल-मंद थीं


क़तई’ तौर पर यक़ीन था कि ये भी उनकी mad-hatter’s पार्टी की cynicism का एक ख़ूबसूरत और फ़ाएदा-मंद पोज़ है।
और सचमुच अफ़रोज़ को इस सुब्ह महसूस हुआ कि वो भी अपनी इस दुनिया
अपनी इस ज़िंदगी से इंतिहाई मुतमइन और ख़ुश है। उसने अपनी चारों तरफ़ देखा। इसके कमरे के मशरिक़ी दरीचे में से सुब्ह के रौशन और झिलमिलाते हुए आफ़ताब की किरनें छन-छन कर अंदर आ रही थीं और कमरे की हल्की गुलाबी दीवारें इस नारंजी रौशनी में जगमगा उठी थीं। बाहर दरीचे पर छाई हुई बेल के सुर्ख़-फूलों की बोझ से झुकी हुई लंबी-लंबी डालियाँ हवा के झोंकों से हिल-हिल कर दरीचे के शीशों पर अपने साये की आड़ी तिरछी लकीरें बना रही थीं। उसने किताब बंद कर के क़रीब के सोफ़े पर फेंक दी और एक तवील अंगड़ाई लेकर मसहरी से कूद कर नीचे उतर आई। उसने वक़्त देखा। सुब्ह जागने के बा’द वो बहुत देर तक पढ़ती रही थी। उसने ग़ुस्ल-ख़ाने में घुस कर कॉलेज में स्टेज होने वाले ओपेरा का एक गीत गाते हुए मुँह धोया और तैयार हो कर मेज़ पर से किताबें उठाती हुई बाहर निकल आई।
क्लास का वक़्त बहुत क़रीब था। उसने बरसाती से निकल कर ज़रा तेज़ी से लाईन को पार किया और फाटक की तरफ़ बढ़ते हुए उसने देखा कि बाग़ के रास्ते पर


सब्ज़े के किनारे
उसका फ़ेडो रोज़ की तरह दुनिया जहाँ से क़तई’ बे-नियाज़ और सुल्ह-कुल अंदाज़ में आँखें नीम-वा किए धूप सेंक रहा था। उसने झुक कर उसे उठा लिया। उसके लंबे-लंबे सफ़ेद रेशमीं बालों पर हाथ फेरते हुए उसने महसूस किया
उसने देखा कि दुनिया कितनी रौशन
कितनी ख़ूबसूरत है। बाग़ के फूल


दरख़्त
पत्तियाँ
शाख़ें इसी सुनहरी धूप में नहा रही थीं। हर चीज़ ताज़ा-दम और बश्शाश थी। खुली नीलगूँ फ़िज़ाओं में सुकून और मसर्रत के ख़ामोश राग छिड़े हुए थे। कायनात किस क़दर पुर-सुकून और अपने वजूद से कितनी मुतमइन थी।
दूर कोठी के अहाते के पिछले हिस्से में धोबी ने बाग़ के हौज़ पर कपड़े पटख़ने शुरू’ कर दिए थे और नौकरों के बच्चे और बीवीयाँ अपने क्वार्टरों के सामने घास पर धूप में अपने कामों में मसरूफ़ एक दूसरे से लड़ते हुए शोर मचा रही थीं। रोज़मर्रा की ये मानूस आवाज़ें


ये महबूब और अ’ज़ीज़ फ़ज़ाएँ... ये उसकी दुनिया थी
उसकी ख़ूबसूरत और मुख़्तसर सी दुनिया और उसने सोचा कि वाक़ई’ ये उसकी हिमाक़त है अगर वो अपनी इस आराम-देह और पुर-सुकून कायनात से आगे निकलना और सायों की अँधेरी वादी में झाँकना चाहती है। ऐसे adventure हमेशा बेकार साबित होते हैं। उसने फ़ेडो को प्यार कर के उसकी जगह पर बिठा दिया और आगे बढ़ गई।
बाग़ के अहाते की दूसरी

- क़ुर्रतुलऐन-हैदर


नज़ीर ब्लैक मार्कीट से विस्की की बोतल लाने गया। बड़े डाकख़ाने से कुछ आगे बंदरगाह के फाटक से कुछ उधर सिगरेट वाले की दुकान से उसको स्काच मुनासिब दामों पर मिल जाती थी। जब उसने पैंतीस रुपये अदा करके काग़ज़ में लिपटी हुई बोतल ली तो उस वक़्त ग्यारह बजे थे दिन के। यूं तो वो रात को पीने का आदी था मगर उस रोज़ मौसम ख़ुशगवार होने के बाइ’स वो चाहता था कि सुबह ही से शुरू करदे और रात तक पीता रहे।
बोतल हाथ में पकड़े वो ख़ुश ख़ुश घर की तरफ़ रवाना हुआ। उसका इरादा था कि बोरीबंदर के स्टैंड से टैक्सी लेगा। एक पैग उसमें बैठ कर पिएगा और हल्के हल्के सुरूर में घर पहुंच जाएगा। बीवी मना करेगी तो वो उससे कहेगा
“मौसम देख कितना अच्छा है। फिर वो उसे वो भोंडा सा शे’र सुनाएगा



की फ़रिश्तों की राह अब्र ने बंद
जो गुनाह कीजिए सवाब है आज
वो कुछ देर ज़रूर चख़ करेगी
लेकिन बिल-आख़िर ख़ामोश हो जाएगी और उसके कहने पर क़ीमे के पराठे बनाना शुरू कर देगी।


दुकान से बीस-पचीस गज़ दूर गया होगा कि एक आदमी ने उसको सलाम किया। नज़ीर का हाफ़िज़ा कमज़ोर था। उसने सलाम करने वाले आदमी को न पहचाना
लेकिन उस पर ये ज़ाहिर न किया कि वो उसको नहीं जानता
चुनांचे बड़े अख़लाक़ से कहा
“क्यों भई कहाँ होते हो


कभी नज़र ही नहीं आए।”
उस आदमी ने मुस्कुरा कर कहा
“हुज़ूर
मैं तो यहीं होता हूँ। आप ही कभी तशरीफ़ नहीं लाए?”


नज़ीर ने उसको फिर भी न पहचाना
“मैं अब जो तशरीफ़ ले आया हूँ।”
“तो चलिए मेरे साथ।”
नज़ीर उस वक़्त बड़े अच्छे मूड में था


“चलो।”
उस आदमी ने नज़ीर के हाथ में बोतल देखी और मा’नी ख़ेज़ तरीक़े पर मुस्कुराया
“बाक़ी सामान तो आपके पास मौजूद है।”
ये फ़िक़रा सुन कर नज़ीर ने फ़ौरन ही सोचा कि वो दलाल है


“तुम्हारा नाम क्या है?”
“करीम... आप भूल गए थे!”
नज़ीर को याद आगया कि शादी से पहले एक करीम उसके लिए अच्छी अच्छी लड़कियां लाया करता था। बड़ा ईमानदार दलाल था। उसको ग़ौर से देखा तो सूरत जानी-पहचानी मालूम हुई। फिर पिछले तमाम वाक़ियात उसके ज़ेहन में उभर आए। करीम से उसने मा’ज़रत चाही
”यार


मैंने तुम्हें पहचाना नहीं था। मेरा ख़याल है
ग़ालिबन छः बरस हो गए हैं तुमसे मिले हुए।”
“जी हाँ।”
“तुम्हारा अड्डा तो पहले ग्रांट रोड का नाका हुआ करता था?”


करीम ने बीड़ी सुलगाई और ज़रा फ़ख़्र से कहा
“मैंने वो छोड़ दिया है। आपकी दुआ से अब यहां एक होटल में धंदा शुरू कर रखा है।”
नज़ीर ने उसको दाद दी
“ये बहुत अच्छा किया है तुम ने?”


करीम ने और ज़्यादा फ़ख़्रिया लहजे में कहा
“दस छोकरियाँ हैं... एक बिल्कुल नई है।”
नज़ीर ने उसको छेड़ने के अंदाज़ में कहा
“तुम लोग यही कहा करते हो।”


करीम को बुरा लगा
“क़सम क़ुरआन की
मैंने कभी झूट नहीं बोला। सुअर खाऊं अगर वो छोकरी बिल्कुल नई न हो।”फिर उसने अपनी आवाज़ धीमी की और नज़ीर के कान के साथ मुँह लगा कर कहा
“आठ दिन हुए हैं जब पहला पैसेंजर आया था


झूट बोलूँ तो मेरा मुँह काला हो।”
नज़ीर ने पूछा
“कुंवारी थी?”
“जी हाँ…दो सौ रुपये लिये थे उस पैसेंजर से?”


नज़ीर ने करीम की पसलियों में एक ठोंका दिया
“लो
यहीं भाव पक्का करने लगे।”
करीम को नज़ीर की ये बात फिर बुरी लगी


“क़सम क़ुरआन की
सुअर हो जो आप से भाव करे
आप तशरीफ़ ले चलिए। आप जो भी देंगे मुझे क़बूल होगा। करीम ने आपका बहुत नमक खाया है।”
नज़ीर की जेब में उस वक़्त साढे़ चार सौ रुपये थे। मौसम अच्छा था


मूड भी अच्छा था। वो छः बरस पीछे के ज़माने में चला गया। बिन पिए मसरूर था
“चलो यार आज तमाम अय्याशियां रहीं... एक बोतल का और बंदोबस्त हो जाना चाहिए।”
करीम ने पूछा
“आप कितने में लाए हैं ये बोतल?”


“पैंतीस रुपये में।”
“कौन सा ब्रांड है?”
“जॉनी वॉकर!”
करीम ने छाती पर हाथ मार कर कहा


“मैं आपको तीस में लादूंगा।”
नज़ीर ने दस दस के तीन नोट निकाले और करीम के हाथ में दे दिए।
“नेकी और पूछ पूछ…ये लो
मुझे वहां बिठा कर तुम पहला काम यही करना। तुम जानते हो


मैं ऐसे मुआ’मलों में अकेला नहीं पिया करता।”
करीम मुस्कुराया
“और आप को याद होगा
मैं डेढ़ पैग से ज़्यादा नहीं पिया करता।”


नज़ीर को याद आगया कि करीम वाक़ई आज से छः बरस पहले सिर्फ़ डेढ़ पैग लिया करता था।
ये याद करके नज़ीर भी मुस्कुराया
“आज दो रहीं।”
“जी नहीं


डेढ़ से ज़्यादा एक क़तरा भी नहीं।”
करीम एक थर्ड क्लास बिल्डिंग के पास ठहर गया। जिसके एक कोने में छोटे से मैले बोर्ड पर मेरीना होटल लिखा था। नाम तो ख़ूबसूरत था मगर इमारत निहायत ही ग़लीज़ थी। सीढ़ियां शिकस्ता
नीचे सूद खोर पठान बड़ी बड़ी शलवारें पहने खाटों पर लेटे हुए थे। पहली मंज़िल पर क्रिस्चियन आबाद थे। दूसरी मंज़िल पर जहाज़ के बेशुमार ख़लासी। तीसरी मंज़िल होटल के मालिक के पास थी। चौथी मंज़िल पर कोने का एक कमरा करीम के पास था जिसमें कई लड़कियां मुर्ग़ीयों की तरह अपने डरबे में बैठी थीं।
करीम ने होटल के मालिक से चाबी मंगवाई। एक बड़ा लेकिन बेहंगम सा कमरा खोला जिसमें लोहे की एक चारपाई


एक कुर्सी और एक तिपाई पड़ी थी। तीन अतराफ़ से ये कमरा खुला था
या’नी बेशुमार खिड़कियां थीं
जिनके शीशे टूटे हुए थे और कुछ नहीं
लेकिन हवा की बहुत इफ़रात थी।


करीम ने आराम कुर्सी जो कि बेहद मैली थी
एक उससे ज़्यादा मैले कपड़े से साफ़ की और नज़ीर से कहा
“तशरीफ़ रखिए
लेकिन मैं ये अ’र्ज़ कर दूं। इस कमरे का किराया दस रुपये होगा।”


नज़ीर ने कमरे को अब ज़रा ग़ौर से देखा
“दस रुपये ज़्यादा हैं यार?”
करीम ने कहा
“बहुत ज़्यादा हैं


लेकिन क्या किया जाये। साला होटल का मालिक ही बनिया है। एक पैसा कम नहीं करता और नज़ीर साहब
मौज शौक़ करने वाले आदमी भी ज़्यादा की परवाह नहीं करते।”
नज़ीर ने कुछ सोच कर कहा
“तुम ठीक कहते हो


किराया पेशगी दे दूं?”
“जी नहीं…आप पहले छोकरी तो देखिए।”ये कह कर वो अपने डरबे में चला गया।
थोड़ी देर के बाद वापस आया तो उसके साथ एक निहायत ही शर्मीली लड़की थी। घरेलू क़िस्म की हिंदू लड़की
सफ़ेद धोती बांधे थी। उम्र चौदह बरस के लगभग होगी। ख़ुश शक्ल तो नहीं थी


लेकिन भोली भाली थी।
करीम ने उससे कहा
“बैठ जाओ
ये साहब मेरे दोस्त हैं


बिल्कुल अपने आदमी हैं।”
लड़की नज़रें नीचे किए लोहे की चारपाई पर बैठ गई। करीम ये कह कर चला गया
“अपना इतमिनान कर लीजिए नज़ीर साहब… मैं गिलास और सोडा लाता हूँ।”
नज़ीर आराम कुर्सी पर से उठ कर लड़की के पास बैठ गया। वो सिमट कर एक तरफ़ हट गई। नज़ीर ने उससे छः बरस पहले के अंदाज़ में पूछा


“आपका नाम?”
लड़की ने कोई जवाब न दिया। नज़ीर ने आगे सरक कर उसके हाथ पकड़े और फिर पूछा
“आपका नाम क्या है जनाब?”
लड़की ने हाथ छुड़ा कर कहा


“शकुंतला।”
और नज़ीर को शकुंतला याद आ गई जिस पर राजा दुष्यंत आशिक़ हुआ था
“मेरा नाम दुष्यंत है।”
नज़ीर मुकम्मल अय्याशी पर तुला हुआ था। लड़की ने उसकी बात सुनी और मुस्कुरा दी। इतने में करीम आ गया। उसने नज़ीर को सोडे की चार बोतलें दिखाईं जो ठंडी होने के बाइ’स पसीना छोड़ रही थीं


“मुझे याद है कि आपको रोजर का सोडा पसंद है बर्फ़ में लगा हुआ लेकर आया हूँ।”
नज़ीर बहुत ख़ुश हुआ
“तुम कमाल करते हो।” फिर वो लड़की से मुख़ातिब हुआ
“जनाब


आप भी शौक़ फ़रमाएंगी?”
लड़की ने कुछ न कहा। करीम ने जवाब दिया
“नज़ीर साहब
ये नहीं पीती। आठ दिन तो हुए हैं इस को यहां आए हुए।”


ये सुन कर नज़ीर को अफ़सोस सा हुआ
“ये तो बहुत बुरी बात है।”
करीम ने विस्की की बोतल खोल कर नज़ीर के लिए एक बड़ा पैग बनाया और उसको आँख मार कर कहा
“आप राज़ी कर लीजिए इसे।”


नज़ीर ने एक ही जुरए में गिलास ख़त्म किया। करीम ने आधा पैग पिया
फ़ौरन ही उसकी आवाज़ नशा आलूद हो गई। ज़रा झूम कर उसने नज़ीर से पूछा
“छोकरी पसंद है ना आप को?”
नज़ीर ने सोचा कि लड़की उसे पसंद है कि नहीं


लेकिन वो कोई फ़ैसला न कर सका।
उसने शकुंतला की तरफ़ ग़ौर से देखा। अगर इसका नाम शकुंतला न होता बहुत मुम्किन है वो उसे पसंद कर लेता। वो शकुंतला जिस पर राजा दुष्यंत शिकार खेलते खेलते आशिक़ हुआ था
बहुत ही ख़ूबसूरत थी। कम अज़ कम किताबों में यही दर्ज था कि वो चंदे आफ़ताब चंदे माहताब थी। आहू चश्म थी। नज़ीर ने एक बार फिर अपनी शकुंतला की तरफ़ देखा।
उसकी आँखें बुरी नहीं थीं। आहू चश्म तो नहीं थी


लेकिन उसकी आँखें उसकी अपनी आँखें थीं
काली काली और बड़ी बड़ी। उसने और कुछ सोचा और करीम से कहा
“ठीक है यार… बोलो
मुआ’मला कहाँ तय होता है?”


करीम ने आधा पैग अपने लिए और उंडेला और कहा
“सौ रुपये!”
नज़ीर ने सोचना बंद कर दिया था
“ठीक है!”


करीम अपना दूसरा आधा पैग पी कर चला गया। नज़ीर ने उठ कर दरवाज़ा बंद कर दिया। शकुंतला के पास बैठा तो वो घबरा सी गई। नज़ीर ने उसका प्यार लेना चाहा तो वो उठ कर खड़ी हुई। नज़ीर को उसकी ये हरकत नागवार महसूस हुई
लेकिन उसने फिर कोशिश की। बाज़ू से पकड़ कर उसको अपने पास बिठाया
ज़बरदस्ती उस को चूमा।
बहुत ही बेकैफ़ सिलसिला था। अलबत्ता विस्की का नशा अच्छा था। वो अब तक छः पैग पी चुका था और उसको अफ़सोस था कि इतनी महंगी चीज़ बिल्कुल बेकार गई है


इसलिए कि शकुंतला बिल्कुल अल्हड़ थी।
उसको ऐसे मुआ’मलों के आदाब की कोई वाक़फ़ियत ही नहीं थी। नज़ीर एक अनाड़ी तैराक के साथ इधर उधर बेकार हाथ-पांव मारता रहा। आख़िर उकता गया। दरवाज़ा खोल कर उसने करीम को आवाज़ दी जो अपने डरबे में मुर्ग़ीयों के साथ बैठा था। आवाज़ सुन कर दौड़ा आया
“क्या बात है नज़ीर साहब?”
नज़ीर ने बड़ी नाउम्मीदी से कहा


“कुछ नहीं यार
ये अपने काम की नहीं है?”
“क्यूं?”
“कुछ समझती ही नहीं।”


करीम ने शकुंतला को अलग ले जा कर बहुत समझाया। मगर वो न समझ सकी। शर्माई
लजाई
धोती सँभालती कमरे से बाहर निकल गई। करीम ने उस पर कहा
“मैं अभी हाज़िर करता हूँ।”


नज़ीर ने उसको रोका
“जाने दो… कोई और ले आओ।” लेकिन उसने फ़ौरन ही इरादा बदल लिया
“वो जो तुम्हें रुपये दिए थे
उसकी बोतल ले आओ और शकुंतला के सिवा जितनी लड़कियां इस वक़्त मौजूद हैं उन्हें यहां भेज दो... मेरा मतलब है जो पीती हैं। आज और कोई सिलसिला नहीं होगा। उन के साथ बैठ कर बातें करूंगा और बस!”


करीम नज़ीर को अच्छी तरह समझता था। उसने चार लड़कियां कमरे में भेज दीं। नज़ीर ने उन सब को सरसरी नज़र से देखा
क्योंकि वो अपने दिल में फ़ैसला कर चुका था कि प्रोग्राम सिर्फ़ पीने का होगा। चुनांचे उसने उन लड़कियों के लिए गिलास मंगवाए और उनके साथ पीना शुरू कर दिया।
दोपहर का खाना होटल से मंगवा कर खाया और शाम के छः बजे तक उन लड़कियों से बातें करता रहा। बड़ी फ़ुज़ूल क़िस्म की बातें
लेकिन नज़ीर ख़ुश था। जो कोफ़्त शकुंतला ने पैदा की थी


दूर हो गई थी।
आधी बोतल बाक़ी थी
वो साथ लेकर घर चला गया। पंद्रह रोज़ के बाद फिर मौसम की वजह से उस का जी चाहा कि सारा दिन पी जाये। सिगरेट वाले की दुकान से ख़रीदने के बजाय उसने सोचा क्यों न करीम से मिलूं
वो तीस में दे देगा।


चुनांचे वो उसके होटल में पहुंचा। इत्तफ़ाक़ से करीम मिल गया। उसने मिलते ही बहुत हौले से कहा
“नज़ीर साहब
शकुंतला की बड़ी बहन आई हुई है। आज सुबह ही गाड़ी से पहुंची है… बहुत हटीली है। मगर आप उसको ज़रूर राज़ी कर लेंगे।”
नज़ीर कुछ सोच न सका। उसने अपने दिल में इतना कहा


“चलो देख लेते हैं।”लेकिन उसने करीम से कहा
“तुम पहले यार विस्की ले आओ।”ये कह कर उसने तीस रुपये जेब से निकाल कर करीम को दिए।
करीम ने नोट लेकर नज़ीर से कहा
“मैं ले आता हूँ


आप अंदर कमरे में बैठें।”
नज़ीर के पास सिर्फ़ दस रुपये थे
लेकिन वो कमरे का दरवाज़ा खुलवा कर बैठ गया। उसने सोचा था कि विस्की की बोतल लेकर एक नज़र शकुंतला की बहन को देख कर चल देगा। जाते वक़्त दो रुपये करीम को दे देगा।
तीन तरफ़ से खुले हुए हवादार कमरे में निहायत ही मैली कुर्सी पर बैठ कर उसने सिगरेट सुलगाया और अपनी टांगें रख दीं। थोड़ी ही देर के बाद आहट हुई


करीम दाख़िल हुआ। उसने नज़ीर के कान के साथ मुँह लगा कर हौले से कहा
“नज़ीर साहब आ रही है
लेकिन आप ही राम कीजिएगा उसे।”
ये कह कर वो चला गया। पाँच मिनट के बाद एक लड़की जिसकी शक्ल-ओ-सूरत क़रीब क़रीब शकुंतला से मिलती थी। त्योरी चढ़ाए


शकुंतला के से अंदाज़ में सफ़ेद धोती पहने कमरे में दाख़िल हुई। बड़ी बेपरवाई से उसने माथे के क़रीब हाथ ले जा कर “आदाब” कहा और लोहे के पलंग पर बैठ गई। नज़ीर ने यूं महसूस किया कि वो उससे लड़ने आई है। छः बरस पीछे के ज़माने में डुबकी लगा कर वो उससे मुख़ातिब हुआ
“आप शकुंतला की बहन हैं।”
उसने बड़े तीखे और ख़फ़्गी आमेज़ लहजे में कहा
“जी हाँ।”


नज़ीर थोड़ी देर के लिए ख़ामोश हो गया। उसके बाद उस लड़की को जिसकी उम्र शकुंतला से ग़ालिबन तीन बरस बड़ी थी
बड़े ग़ौर से देखा। नज़ीर की ये हरकत उसको बहुत नागवार महसूस हुई। वो बड़े ज़ोर से टांग हिला कर उससे मुख़ातिब हुई
“आप मुझसे क्या कहना चाहते हैं?”
नज़ीर के होंटों पर छः बरस पीछे की मुस्कुराहट नुमूदार हुई


“जनाब
आप इस क़दर नाराज़ क्यों हैं?”
वो बरस पड़ी
“मैं नाराज़ क्यों न हूँ... ये आपका करीम मेरी बहन को जयपुर से उड़ा लाया है। बताईए आप मेरा ख़ून नहीं खौलेगा। मुझे मालूम हुआ है कि आपको भी वो पेश की गई थी?”


नज़ीर की ज़िंदगी में ऐसा मुआ’मला कभी नहीं आया था। कुछ देर सोच कर उसने उस लड़की से बड़े ख़ुलूस के साथ कहा
“शकुंतला को देखते ही मैंने फ़ैसला कर लिया था कि ये लड़की मेरे काम की नहीं। बहुत अल्हड़ है
मुझे ऐसी लड़कियां बिल्कुल पसंद नहीं। आप शायद बुरा मानें लेकिन ये हक़ीक़त है कि मैं उन औरतों को बहुत ज़्यादा पसंद करता हूँ जो मर्द की ज़रूरियात को समझती हों।”
उसने कुछ न कहा


नज़ीर ने उससे दरयाफ़्त किया
“आपका नाम?”
शकुंतला की बहन ने मुख़्तसरन कहा
“शारदा।”


नज़ीर ने फिर उससे पूछा
“आपका वतन।”
“जयपुर।”उसका लहजा बहुत तीखा और ख़फ़्गी आलूद था।
नज़ीर ने मुस्कुरा कर उससे कहा


“देखिए आपको मुझसे नाराज़ होने का कोई हक़ नहीं… करीम ने अगर कोई ज़्यादती की है तो आप उसको सज़ा दे सकती हैं
लेकिन मेरा कोई क़ुसूर नहीं।”ये कह कर वो उठा और उसको अचानक अपने बाज़ूओं में समेट कर उसके होंटों को चूम लिया। वो कुछ कहने भी न पाई थी कि नज़ीर उससे मुख़ातिब हुआ
“ये क़ुसूर अलबत्ता मेरा है
इसकी सज़ा मैं भुगतने के लिए तैयार हूँ।”


लड़की के माथे पर बेशुमार तब्दीलियां नुमूदार हुईं। उसने तीन चार मर्तबा ज़मीन पर थूका। ग़ालिबन गालियां देने वाली थी
लेकिन चुप हो गई। उठ खड़ी हुई थी
लेकिन फ़ौरन ही बैठ गई। नज़ीर ने चाहा कि वो कुछ कहे
“बताईए


आप मुझे क्या सज़ा देना चाहती हैं?”
“वो कुछ कहने वाली थी कि डरबे से किसी बच्चे के रोने की आवाज़ आई। लड़की उठी
नज़ीर ने उसे रोका
“कहाँ जा रही हैं आप?”


वो एक दम माँ बन गई
“मुन्नी रो रही है
दूध के लिए।”ये कह कर वो चली गई।
नज़ीर ने उसके बारे में सोचने की कोशिश की मगर कुछ सोच न सका। इतने में करीम विस्की की बोतल और सोडे लेकर आ गया। उसने नज़ीर के लिए छोटा डाला। अपना गिलास ख़त्म किया और नज़ीर से राज़दाराना लहजे में कहा


“कुछ बातें हुईं शारदा से… मैंने तो समझा था कि आपने पटा लिया होगा?”
नज़ीर ने मुस्कुरा कर जवाब दिया
“बड़ी ग़ुस्सैली औरत है!”
“जी हाँ…सुबह आई है


मेरी जान खा गई। आप ज़रा उसको राम करें…शकुंतला ख़ुद यहां आई थी। इसलिए कि उसका बाप उसकी माँ को छोड़ चुका है और इस शारदा का मुआ’मला भी ऐसा ही है। उसका पति शादी के फ़ौरन बाद ही उसको छोड़कर ख़ुदा मालूम कहाँ चला गया था... अब अकेली अपनी बच्ची के साथ माँ के पास रहती है
आप मना लीजिए न उसको?”
नज़ीर ने उससे कहा
“मनाने की क्या बात है?”


करीम ने उसको आँख मारी
“साली मुझसे तो मानती नहीं
जब से आई है डांट रही है।”
इतने में शारदा अपनी एक साल की बच्ची को गोद में उठाए अंदर कमरे में आई। करीम को उसने ग़ुस्से से देखा। उसने आधा पैग पिया और बाहर चला गया।


मुन्नी को बहुत ज़ुकाम था। नाक बहुत बुरी तरह बह रही थी। नज़ीर ने करीम को बुलाया और उस को पाँच का नोट देकर कहा
“जाओ
एक विक्स की बोतल ले आओ।”
करीम ने पूछा


“वो क्या होती है?”
नज़ीर ने उससे कहा
“ज़ुकाम की दवा है।”ये कह कर उसने एक पुर्ज़े पर उस दवा का नाम लिख दिया
“किसी भी स्टोर से मिल जाएगी।”


“जी अच्छा।”कह कर करीम चला गया। नज़ीर मुन्नी की तरफ़ मुतवज्जा हुआ। उसको बच्चे बहुत अच्छे लगते थे। मुन्नी ख़ुश शक्ल नहीं थी
लेकिन कमसिनी के बाइ’स नज़ीर के लिए दिलकश थी। उसने उसको गोद में लिया
माँ से सो नहीं रही थी। सर में हौले हौले उंगलियां फेर कर उसको सुला दिया और शारदा से कहा
“उसकी माँ तो मैं हूँ।”


शारदा मुस्कुराई
“लाईए
मैं उसको अंदर छोड़ आऊं।”
शारदा उसको अंदर ले गई और चंद मिनट के बाद वापस आगई। अब उसके चेहरे पर ग़ुस्से के आसार नहीं थे। नज़ीर उसके पास बैठ गया। थोड़ी देर वो ख़ामोश रहा। इसके बाद उसने शारदा से पूछा


“क्या आप मुझे अपना पति बनने की इजाज़त दे सकती हैं?” और उसके जवाब का इंतिज़ार किए बगै़र उसको अपने सीने के साथ लगा लिया। शारदा ने ग़ुस्से का इज़हार न किया
“जवाब दीजिए जनाब?”
शारदा ख़ामोश रही। नज़ीर ने उठ कर एक पैग पिया
तो शारदा ने नाक सिकोड़कर उससे कहा


“मुझे इस चीज़ से नफ़रत है।”
नज़ीर ने एक पैग गिलास में डाला। उसमें सोडा हल करके उठाया और शारदा के पास बैठ गया। “आपको इस से नफ़रत है
क्यों?”
शारदा ने मुख़्तसर सा जवाब दिया


“बस है।”
“तो आज से नहीं रहेगी…ये लीजिए। ”ये कह कर उसने गिलास शारदा की तरफ़ बढ़ा दिया।
“मैं हर्गिज़ नहीं पियूंगी।”
“मैं कहता हूँ


तुम हर्गिज़ इंकार नहीं करोगी।”
शारदा ने गिलास पकड़ लिया। थोड़ी देर तक उसको अ’जीब निगाहों से देखती रही
फिर नज़ीर की तरफ़ मज़लूमाना निगाहों से देखा और नाक उंगलियों से बंद करके सारा गिलास ग़टाग़ट पी गई। क़ै आने को थी मगर उसने रोक ली। धोती के पल्लू से अपने आँसू पोंछ कर उसने नज़ीर से कहा
“ये पहली और आख़िरी बार है


लेकिन मैंने क्यों पी?”
नज़ीर ने उसके गीले होंट चूमे और कहा
“ये मत पूछो।”ये कह कर उसने दरवाज़ा बंद कर दिया।
शाम को सात बजे उसने दरवाज़ा खोला। करीम आया तो शारदा नज़रें झुकाए बाहर चली गई। करीम बहुत ख़ुश था। उसने नज़ीर से कहा


“आपने कमाल कर दिया… आप से सौ तो नहीं मांगता
पचास दे दीजिए।”
नज़ीर शारदा से बेहद मुतमइन था। इस क़दर मुतमइन कि वो गुज़श्ता तमाम औरतों को भूल चुका था। वो उसके जिन्सी सवालात का सौ फ़ीसदी सही जवाब थी। उसने करीम से कहा
“मैं कल अदा कर दूंगा... होटल का किराया भी कल चुकाऊंगा। आज मेरे पास विस्की मंगाने के बाद सिर्फ़ दस रुपये बाक़ी थे।”


करीम ने कहा
“कोई बात नहीं… मैं तो इस बात से बहुत ख़ुश हूँ कि आपने शारदा से मुआ’मला तय कर लिया... हुज़ूर
मेरी जान खा गई थी। अब शकुंतला से वो कुछ नहीं कह सकती।”
करीम चला गया


शारदा आई। उसकी गोद में मुन्नी थी। नज़ीर ने उसको पाँच रुपये दिए लेकिन शारदा ने इनकार कर दिया। इस पर नज़ीर ने उससे मुस्कुरा कर कहा
“मैं इसका बाप हूँ। तुम ये क्या कर रही हो?”
शारदा ने रुपये ले लिये
बड़ी ख़ामोशी के साथ। शुरू शुरू में वो बहुत बातूनी मालूम होती थी। ऐसा लगता था कि बातों के दरिया बहा देगी। मगर अब वो बात करने से गुरेज़ करती थी। नज़ीर ने उस की बच्ची को गोद में लेकर प्यार किया और जाते वक़्त शारदा से कहा


“लो भई शारदा
मैं चला। कल नहीं तो परसों ज़रूर आऊँगा।”
लेकिन नज़ीर दूसरे रोज़ ही आ गया। शारदा के जिस्मानी ख़ुलूस ने उस पर जादू सा कर दिया था। उसने करीम को पिछले रुपये अदा किए। एक बोतल मंगवाई और शारदा के साथ बैठ गया। उसको पीने के लिए कहा तो वो बोली
“मैंने कह दिया था कि वो पहला और आख़िरी गिलास था।”


नज़ीर अकेला पीता रहा। सुबह ग्यारह बजे से वो शाम के सात बजे तक होटल के उस कमरे में शारदा के साथ रहा
जब घर लौटा तो वो बेहद मुतमइन था। पहले रोज़ से भी ज़्यादा मुतमइन। शारदा अपनी वाजिबी शक्ल-ओ-सूरत और कम गोई के बावजूद उसके शहवानी हवास पर छा गई थी। नज़ीर बार बार सोचता था
“ये कैसी औरत है... मैंने अपनी ज़िंदगी में ऐसी ख़ामोश
मगर जिस्मानी तौर पर ऐसी पुरगो औरत नहीं देखी।”


नज़ीर ने हर दूसरे दिन शारदा के पास जाना शुरू कर दिया। उसको रुपये पैसे से कोई दिलचस्पी नहीं थी। नज़ीर साठ रुपये करीम को देता था। दस रुपये होटल वाला ले जाता था। बाक़ी पचास में से क़रीबन तेरह रुपये करीम अपनी कमीशन के वज़ा कर लेता था मगर शारदा ने इसके मुतअ’ल्लिक़ नज़ीर से कभी ज़िक्र नहीं किया था।
दो महीने गुज़र गए। नज़ीर के बजट ने जवाब दे दिया। इसके इलावा उसने बड़ी शिद्दत से महसूस किया कि शारदा उसकी अज़दवाजी ज़िंदगी में बहुत बुरी तरह हाइल हो रही है। वो बीवी के साथ सोता है तो उसको एक कमी महसूस होती है। वो चाहता कि इस के बजाय शारदा हो।
ये बहुत बुरी बात थी। नज़ीर को चूँकि इसका एहसास था
इसलिए उसने कोशिश की कि शारदा का सिलसिला किसी न किसी तरह ख़त्म हो जाये। चुनांचे उसने शारदा ही से कहा


“शारदा
मैं शादीशुदा आदमी हूँ। मेरी जितनी जमा पूंजी थी
ख़त्म हो गई है। समझ में नहीं आता
मैं क्या करूं। तुम्हें छोड़ भी नहीं सकता


हालाँकि में चाहता हूँ कि इधर का कभी रुख़ न करूं।”
शारदा ने ये सुना तो ख़ामोश हो गई
फिर थोड़ी देर के बाद कहा
“जितने रुपये मेरे पास हैं


आप ले सकते हैं। सिर्फ़ मुझे जयपुर का किराया दे दीजिए ताकि मैं शकुंतला को लेकर वापस चली जाऊं।”
नज़ीर ने उसका प्यार लिया और कहा
“बकवास न करो… तुम मेरा मतलब नहीं समझीं। बात ये है कि मेरा रुपया बहुत ख़र्च हो गया है
बल्कि यूं कहो कि ख़त्म हो गया है


मैं ये सोचता हूँ कि तुम्हारे पास कैसे आ सकूंगा?”
शारदा ने कोई जवाब न दिया। नज़ीर एक दोस्त से क़र्ज़ लेकर जब दूसरे रोज़ होटल में पहुंचा तो करीम ने बताया कि वो जयपुर जाने के लिए तैयार बैठी है। नज़ीर ने उसको बुलाया मगर वो न आई। करीम के हाथ उसने बहुत से नोट भिजवाए और ये कहा
“आप ये रुपये ले लीजिए और मुझे अपना एड्रेस दे दीजिए।”
नज़ीर ने करीम को अपना एड्रेस लिख कर दे दिया और रुपये वापस कर दिए। शारदा आई


गोद में मुन्नी थी। उसने आदाब अर्ज़ किया
और कहा
“मैं आज शाम को जयपुर जा रही हूँ।”
नज़ीर ने पूछा


“क्यों?”
शारदा ने ये मुख़्तसर जवाब दिया
“मुझे मालूम नहीं।” और ये कह कर चली गई।
नज़ीर ने करीम से कहा उसे बुला कर लाए


मगर वो न आई। नज़ीर चला गया। उसको यूं महसूस हुआ कि उसके बदन की हरारत चली गई है। उसके सवाल का जवाब चला गया है।
वो चली गई
वाक़ई चली गई। करीम को उसका बहुत अफ़सोस था। उसने नज़ीर से शिकायत के तौर पर कहा
“नज़ीर साहब


आपने क्यों उसको जाने दिया?”
नज़ीर ने उससे कहा
“भाई
मैं कोई सेठ तो हूँ नहीं... हर दूसरे रोज़ पचास एक


दस होटल के
तीस बोतल
और ऊपर का ख़र्च अ’लाहिदा। मेरा तो दीवाला फट गया है... ख़ुदा की क़सम मक़रूज़ हो गया हूँ।”
ये सुन कर करीम ख़ामोश हो गया। नज़ीर ने उससे कहा


“भई मैं मजबूर था
कहाँ तक ये क़िस्सा चलाता?”
करीम ने कहा
“नज़ीर साहब


उसको आपसे मुहब्बत थी।”
नज़ीर को मालूम नहीं था कि मुहब्बत क्या होती है। वो फ़क़त इतना जानता था कि शारदा में जिस्मानी ख़ुलूस है। वो उसके मर्दाना सवालात का बिल्कुल सही जवाब है। इसके अलावा वो शारदा के मुतअ’ल्लिक़ और कुछ नहीं जानता था
अलबत्ता उसने मुख़्तसर अलफ़ाज़ में उससे ये ज़रूर कहा था कि उसका ख़ाविंद अय्याश था और उसको सिर्फ़ इसलिए छोड़ गया था कि दो बरस तक उसके हाँ औलाद नहीं हुई थी। लेकिन जब वो उससे अ’लाहिदा हुआ तो नौ महीने के बाद मुन्नी पैदा हुई जो बिल्कुल अपने बाप पर है।”
शकुंतला को वो अपने साथ ले गई। वो उसका ब्याह करना चाहती थी। उसकी ख़्वाहिश थी कि वो शरीफ़ाना ज़िंदगी बसर करे। करीम ने नज़ीर को बताया कि वो उससे बहुत मोहब्बत करती है। करीम ने बहुत कोशिश की थी कि शकुंतला से पेशा कराए। कई पैसेंजर आते थे। एक रात के दो दो सौ रुपये देने के लिए तैयार थे


मगर शारदा नहीं मानती थी
करीम से लड़ना शुरू कर देती थी।
करीम उससे कहता था
“तुम क्या कर रही हो?”


वो जवाब देती
“अगर तुम बीच में न होते तो मैं ऐसा कभी न करती। नज़ीर साहब का एक पैसा ख़र्च न होने देती।”
शारदा ने नज़ीर से एक बार उसका फ़ोटो मांगा था जो उसने घर से ला कर उसको दे दिया था। ये वो अपने साथ जयपुर ले गई थी। उसने नज़ीर से कभी मोहब्बत का इज़हार नहीं किया था
जब दोनों बिस्तर पर लेटे होते तो वो बिल्कुल ख़ामोश रहती।


नज़ीर उसको बोलने पर उकसाता मगर वो कुछ न कहती
लेकिन नज़ीर उसके जिस्मानी ख़ुलूस का क़ाइल था। जहां तक इस बात का तअ’ल्लुक़ था
वो इख़लास का मुजस्समा थी।
वो चली गई


नज़ीर के सीने का बोझ हल्का हो गया
क्योंकि उसकी घरेलू ज़िंदगी में बहुत बुरी तरह हाइल हो गई थी। अगर वो कुछ देर और रहती तो बहुत मुम्किन था कि नज़ीर अपनी बीवी से बिल्कुल ग़ाफ़िल हो जाता। कुछ दिन गुज़रे तो वो अपनी असली हालत पर आने लगा। शारदा का जिस्मानी लम्स उसके जिस्म से आहिस्ता आहिस्ता दूर होने लगा।
ठीक पंद्रह दिन के बाद जबकि नज़ीर घर में बैठा दफ़्तर का काम कर रहा था। उसकी बीवी ने सुबह की डाक ला कर उसे दी। सारे ख़त वही खोला करती थी।
एक ख़त उसने खोला और देख कर नज़ीर से कहा


“मालूम नहीं गुजराती है या हिन्दी।”
नज़ीर ने ख़त लेकर देखा। उसको मालूम न हो सका कि हिन्दी है या गुजराती। अलग ट्रे में रख दिया और अपने काम में मशग़ूल हो गया। थोड़ी देर के बाद नज़ीर की बीवी ने अपनी छोटी बहन नईमा को आवाज़ दी। वो आई तो वो ख़त उठा कर उसे दिया
“ज़रा पढ़ो तो क्या लिखा है? तुम तो हिन्दी और गुजराती पढ़ सकती हो।”
नईमा ने ख़त देखा और कहा


“हिन्दी है।” और ये कह कर पढ़ना शुरू किया।
“जयपुर…प्रिय नज़ीर साहब।”इतना पढ़ कर वो रुक गई। नज़ीर चौंका। नईमा ने एक सतर और पढ़ी। “आदाब
आप तो मुझे भूल चुके होंगे। मगर जब से मैं यहां आई हूँ
आपको याद करती रहती हूँ।” नईमा का रंग सुर्ख़ हो गया। उसने काग़ज़ का दूसरा रुख़ देखा


“कोई शारदा है।”
नज़ीर उठा
जल्दी से उसने नईमा के हाथ से ख़त लिया और अपनी बीवी से कहा
“ख़ुदा मालूम कौन है... मैं बाहर जा रहा हूँ। इसको पढ़ा कर उर्दू में लिखवा लाऊँगा।”


उस ने बीवी को कुछ कहने का मौक़ा ही न दिया और चला गया। एक दोस्त के पास जा कर उसने शारदा के ख़त जैसे काग़ज़ मंगवाए और हिन्दी में वैसी ही रोशनाई से एक ख़त लिखवाया। पहले फ़िक़रे वही रखे। मज़मून ये था कि बम्बई सेन्ट्रल पर शारदा उससे मिली थी। उसको इतने बड़े मुसव्विर से मिल कर बहुत ख़ुश हुई थी वग़ैरा वग़ैरा।
शाम को घर आया तो उसने नया ख़त बीवी को दिया और उर्दू की नक़ल पढ़ कर सुना दी। बीवी ने शारदा के मुतअ’ल्लिक़ उस से दरयाफ़्त किया तो उसने कहा
“अ’र्सा हुआ है मैं एक दोस्त को छोड़ने गया था। शारदा को ये दोस्त जानता था। वहां प्लेटफार्म पर मेरा तआ’रुफ़ हुआ। मुसव्विरी का उसे भी शौक़ था।”
बात आई गई होगी। लेकिन दूसरे रोज़ शारदा का एक और ख़त आगया। उसको भी नज़ीर ने उसी तरीक़े से गोल किया और फ़ौरन शारदा को तार दिया कि वो ख़त लिखना बंद करदे और उसके नए पते का इंतिज़ार करे। डाकख़ाने जा कर उसने मुतअ’ल्लिक़ा पोस्टमैन को ताकीद कर दी कि जयपुर का ख़त वो अपने पास रखे


सुबह आकर वो उससे पूछ लिया करेगा। तीन ख़त उसने इस तरह वसूल किए। इसके बाद शारदा उसको उसके दोस्त के पते से ख़त भेजने लगी।
शारदा बहुत कमगो थी
लेकिन ख़त बहुत लंबे लिखती थी। उसने नज़ीर के सामने कभी अपनी मोहब्बत का इज़हार नहीं किया था
लेकिन उसके ख़त इज़हार से पुर होते थे। गिले शिकवे


हिज्र-ओ- फ़िराक़
इस क़िस्म की आम बातें जो इश्क़िया ख़तों में होती हैं। नज़ीर को शारदा से वो मोहब्बत नहीं थी जिसका ज़िक्र अफ़सानों और नाविलों में होता है
इसलिए उसकी समझ में नहीं आता था कि वो जवाब में क्या लिखे
इसलिए ये काम उसका दोस्त ही करता था। हिन्दी में जवाब लिख कर वो नज़ीर को सुना देता था और नज़ीर कह देता था


“ठीक है।”
शारदा बम्बई आने के लिए बेक़रार थी लेकिन वो करीम के पास नहीं ठहरना चाहती थी। नज़ीर उस की रिहाइश का और कहीं बंदोबस्त नहीं कर सकता था। क्योंकि मकान उन दिनों मिलते ही नहीं थे। उसने होटल का सोचा मगर ख़याल आया
ऐसा न हो कि राज़ फ़ाश हो जाये
चुनांचे उसने शारदा को लिखवा दिया कि वो अभी कुछ देर इंतिज़ार करे।


इतने में फ़िर्कावाराना फ़साद शुरू हो गए। बटवारे से पहले अ’जीब अफ़रा-तफ़री मची थी। उसकी बीवी ने कहा कि वो लाहौर जाना चाहती है
“मैं कुछ देर वहां रहूंगी
अगर हालात ठीक हो गए तो वापस आ जाऊँगी
वर्ना आप भी वहीं चले आईएगा।”


नज़ीर ने कुछ देर उसे रोका। मगर जब उसका भाई लाहौर जाने के लिए तैयार हुआ तो वो और उस की बहन उसके साथ चली गईं और वो अकेला रह गया। उसने शारदा को सरसरी तौर पर लिखा कि वो अब अकेला है। जवाब में उसका तार आया कि वो आ रही है।
इस तार के मज़मून के मुताबिक़ वो जयपुर से चल पड़ी थी। नज़ीर बहुत सिटपिटाया। मगर उसका जिस्म बहुत ख़ुश था। वो शारदा के जिस्म का ख़ुलूस चाहता था। वो दिन फिर से मांगता था जब वो शारदा के साथ चिमटा होता था। सुबह ग्यारह बजे से लेकर शाम के सात बजे तक
अब रुपये के ख़र्च का सवाल ही नहीं था। करीम भी नहीं था
होटल भी नहीं था। उसने सोचा


“मैं अपने नौकर को राज़दार बना लूंगा। सब ठीक हो जाएगा। दस-पंद्रह रुपये उसका मुँह बंद कर देंगे। मेरी बीवी वापस आई तो वो उससे कुछ नहीं कहेगा।”
दूसरे रोज़ वो स्टेशन पहुंचा। फ़्रंटियर मेल आई मगर शारदा
तलाश के बावजूद उसे न मिली। उसने सोचा
शायद किसी वजह से रुक गई है


दूसरा तार भेजेगी।
उससे अगले रोज़ वो हस्ब-ए-मा’मूल सुबह की ट्रेन से अपने दफ़्तर रवाना हुआ। वो महालक्ष्मी उतरता था। गाड़ी वहां रुकी तो उसने देखा कि प्लेटफार्म पर शारदा खड़ी है। उसने ज़ोर से पुकारा
“शारदा!”
शारदा ने चौंक कर उसकी तरफ़ देखा


“नज़ीर साहब।”
“तुम यहां कहां?”
शारदा ने शिकायतन कहा
“आप मुझे लेने न आए तो मैं यहां आपके दफ़्तर पहुंची। पता चला कि आप अभी तक नहीं आए। यहां प्लेटफार्म पर अब आपका इंतिज़ार कर रही थी।”


नज़ीर ने कुछ देर सोच कर उससे कहा
“तुम यहां ठहरो
मैं दफ़्तर से छुट्टी लेकर अभी आता हूँ।”
शारदा को बेंच पर बिठा कर जल्दी जल्दी दफ़्तर गया। एक अ’र्ज़ी लिख कर वहां चपरासी को दे आया और शारदा को अपने घर ले गया। रास्ते में दोनों ने कोई बात न की


लेकिन उनके जिस्म आपस में गुफ़्तगु करते रहे। एक दूसरे की तरफ़ खिंचते रहे।
घर पहुंच कर नज़ीर ने शारदा से कहा
“तुम नहा लो
मैं नाश्ते का बंदोबस्त कराता हूँ।”


शारदा नहाने लगी। नज़ीर ने नौकर से कहा कि उसके एक दोस्त की बीवी आई है। जल्दी नाश्ता तैयार कर दे। उससे ये कह कर नज़ीर ने अलमारी से बोतल निकाली। एक पैग जो दो के बराबर था गिलास में उंडेला और पानी में मिला कर पी गया।
वो उसी होटल वाले ढंग से शारदा से इख़्तिलात चाहता था।
शारदा नहा धो कर बाहर निकली और नाश्ता करने लगी। उसने इधर उधर की बेशुमार बातें कीं। नज़ीर ने महसूस किया जैसे वो बदल गई है। वो पहले बहुत कमगो थी। अक्सर ख़ामोश रहती थी
मगर अब वो बात बात पर अपनी मोहब्बत का इज़हार करती थी।


नज़ीर ने सोचा
“ये मोहब्बत क्या है... अगर ये इसका इज़हार न करे तो कितना अच्छा है
मुझे उसकी ख़ामोशी ज़्यादा पसंद थी

- सआदत-हसन-मंटो


फ़ारस रोड से आप उस तरफ़ गली में चले जाइए जो सफ़ेद गली कहलाती है तो उसके आख़िरी सिरे पर आपको चंद होटल मिलेंगे। यूँ तो बंबई में क़दम क़दम पर होटल और रेस्तोराँ होते हैं मगर ये रेस्तोराँ इस लिहाज़ से बहुत दिलचस्प और मुनफ़रिद हैं कि ये उस इलाक़े में वाक़े हैं जहाँ भांत भांत की लौंडियां बस्ती हैं।
एक ज़माना गुज़र चुका है। बस आप यही समझिए कि बीस बरस के क़रीब
जब मैं उन रेस्तोरानों में चाय पिया करता था और खाना खाया करता था। सफ़ेद गली से आगे निकल कर “प्ले-हाऊस” आता है। उधर दिन भर हाव-हू रहती है।
सिनेमा के शो दिन भर चलते रहते थे। चम्पियाँ होती थीं। सिनेमा घर ग़ालिबन चार थे। उनके बाहर घंटियां बजा बजा कर बड़े समाअत-पाश तरीक़े पर लोगों को मदऊ करते


“आओ आओ... दो आने में फस्ट क्लास खेल... दो आने में!”
बा'ज़ औक़ात ये घंटियां बजाने वाले ज़बरदस्ती लोगों को अंदर धकेल देते थे। बाहर कुर्सीयों पर चम्पी कराने वाले बैठे होते थे जिनकी खोपड़ियों की मरम्मत बड़े साइंटिफ़िक तरीक़े पर की जाती थी।
मालिश अच्छी चीज़ है
लेकिन मेरी समझ में नहीं आता कि बंबई के रहने वाले इसके इतने गिरवीदा क्यूँ हैं। दिन को और रात को


हर वक़्त उन्हें तेल मालिश की ज़रूरत महसूस होती। आप अगर चाहें तो रात के तीन बजे बड़ी आसानी से तेल मालिशिया बुला सकते हैं। यूँ भी सारी रात
आप ख़्वाह बंबई के किसी कोने में हों
ये आवाज़ आप यक़ीनन सुनते रहेंगे। “पी... पी... पी...”
ये ‘पी’ चम्पी का मुख़फ़्फ़फ़ है।


फ़ारस रोड यूँ तो एक सड़क का नाम है लेकिन दरअस्ल ये उस पूरे इलाक़े से मंसूब है जहां बेसवाएँ बस्ती हैं। ये बहुत बड़ा इलाक़ा है। इसमें कई गलियां हैं जिनके मुख़्तलिफ़ नाम हैं
लेकिन सहूलत के तौर पर इसकी हर गली को फ़ारस रोड या सफ़ेद गली कहा जाता है। इसमें सैंकड़ों जंगला लगी दुकानें हैं जिनमें मुख़्तलिफ़ रंग-ओ-सिन की औरतें बैठ कर अपना जिस्म बेचती हैं। मुख़्तलिफ़ दामों पर
आठ आने से आठ रुपये तक
आठ रुपये से सौ रुपये तक... हर दाम की औरत आपको इस इलाक़े में मिल सकती है।


यहूदी
पंजाबी
मरहटी
कश्मीरी


गुजराती
बंगाली
ऐंग्लो इंडियन
फ़्रांसीसी


चीनी
जापानी ग़र्ज़ ये कि हर क़िस्म की औरत आपको यहां से दस्तियाब हो सकती है... ये औरतें कैसी होती हैं... माफ़ कीजिएगा
इसके मुतअल्लिक़ आप मुझसे कुछ न पूछिए... बस औरतें होती हैं और उनको गाहक मिल ही जाते हैं।
इस इलाक़े में बहुत से चीनी भी आबाद हैं। मालूम नहीं ये क्या कारोबार करते हैं


मगर रहते इसी इलाक़े में हैं। बा'ज़ तो रेस्तोराँ चलाते हैं जिनके बाहर बोर्डों पर ऊपर नीचे कीड़े मकोड़ों की शक्ल में कुछ लिखा होता है... मालूम नहीं क्या?
इस इलाक़े में बिजनेस मैन और हर क़ौम के लोग आबाद हैं। एक गली है जिसका नाम अरब सेन है। वहां के लोग उसे अरब गली कहते हैं। उस ज़माने में जिसकी मैं बात कर रहा हूँ
उस गली में ग़ालिबन बीस-पच्चीस अरब रहते थे जो ख़ुद को मोतियों के व्यापारी कहते थे। बाक़ी आबादी पंजाबियों और रामपुरियों पर मुश्तमिल थी।
उस गली में मुझे एक कमरा मिल गया था जिसमें सूरज की रोशनी का दाख़िला बंद था


हर वक़्त बिजली का बल्ब रोशन रहता था। उसका किराया साढे़ नौ रुपये माहवार था।
आपका अगर बंबई में क़याम नहीं रहा तो शायद आप मुश्किल से यक़ीन करें कि वहां किसी को किसी और से सरोकार नहीं होता। अगर आप अपनी खोली में मर रहे हैं तो आपको कोई नहीं पूछेगा। आपके पड़ोस में क़त्ल हो जाये
मजाल है जो आपको उसकी ख़बर हो जाये। मगर वहां अरब गली में सिर्फ़ एक शख़्स ऐसा था जिसको अड़ोस-पड़ोस के हर शख़्स से दिलचस्पी थी।
उसका नाम मम्मद भाई था। मम्मद भाई रामपुर का रहने वाला था। अव्वल दर्जे का फकेत


गतके और बनोट के फ़न में यकता। मैं जब अरब गली में आया तो होटलों में उसका नाम अक्सर सुनने में आया
लेकिन एक अर्से तक उससे मुलाक़ात न हो सकी।
मैं सुब्ह-सवेरे अपनी खोली से निकल जाता था और बहुत रात गए लौटता था। लेकिन मुझे मम्मद भाई से मिलने का बहुत इश्तियाक़ था क्यूँकि उसके मुतअल्लिक़ अरब गली में बेशुमार दास्तानें मशहूर थीं कि बीस-पच्चीस आदमी अगर लाठियों से मुसल्लह हो कर उस पर टूट पड़ें तो वो उसका बाल तक बाका नहीं कर सकते।
एक मिनट के अंदर-अंदर वो सबको चित कर देता है और ये कि उस जैसा छुरी मार सारी बंबई में नहीं मिल सकता। ऐसे छुरी मारता है कि जिसके लगती है उसे पता भी नहीं चलता। सौ क़दम बगै़र एहसास के चलता रहता है और आख़िर एक दम ढेर हो जाता है। लोग कहते हैं कि ये उसके हाथ की सफ़ाई है।


उसके हाथ की सफ़ाई देखने का मुझे इश्तियाक़ नहीं था लेकिन यूँ उसके मुतअल्लिक़ और बातें सुन सुन कर मेरे दिल में ये ख़्वाहिश ज़रूर पैदा हो चुकी थी कि मैं उसे देखूँ। उससे बातें न करूँ लेकिन क़रीब से देख लूँ कि वो कैसा है।
उस तमाम इलाक़े पर उसकी शख़्सियत छाई हुई थी। वो बहुत बड़ा दादा यानी बदमाश था। लेकिन उसके बावजूद लोग कहते थे कि उसने किसी की बहू-बेटी की तरफ़ आँख उठा कर भी नहीं देखा। लंगोट का बहुत पक्का है। ग़रीबों के दुख दर्द का शरीक है। अरब गली... सिर्फ़ अरब गली ही नहीं
आस पास जितनी गलियाँ थीं
उनमें जितनी नादार औरतें थी


सब मम्मद भाई को जानती थीं क्यूँकि वो अक्सर उनकी माली इमदाद करता रहता था। लेकिन वो ख़ुद उनके पास कभी नहीं जाता था। अपने किसी ख़ुर्द-साल शागिर्द को भेज देता था और उनकी ख़ैरियत दरयाफ़्त कर लिया करता था।
मुझे मालूम नहीं उसकी आमदनी के क्या ज़राए थे। अच्छा खाता था
अच्छा पहनता था। उसके पास एक छोटा सा ताँगा था जिसमें बड़ा तंदुरुस्त टट्टू जुता होता था
उसको वो ख़ुद चलाता था। साथ दो या तीन शागिर्द होते थे


बड़े बाअदब... भिंडी बाज़ार का एक चक्कर लगाया किसी दरगाह में हो कर वो उस तांगे में वापस अरब गली आ जाता था और किसी ईरानी के होटल में बैठ कर अपने शागिर्दों के साथ गतके और बनोट की बातों में मसरूफ़ हो जाता था।
मेरी खोली के साथ ही एक और खोली थी जिसमें मारवाड़ का एक मुसलमान रक्कास रहता था। उसने मुझे मम्मद भाई की सैंकड़ों कहानियां सुनाईं। उसने मुझे बताया कि मम्मद भाई एक लाख रुपये का आदमी है। उसको एक मर्तबा हैज़ा हो गया था। मम्मद भाई को पता चला तो उसने फ़ारस रोड के तमाम डाक्टर उसकी खोली में इकट्ठे कर दिए और उनसे कहा
“देखो
अगर आशिक़ हुसैन को कुछ हो गया तो मैं सब का सफ़ाया कर दूँगा।”


आशिक़ हुसैन ने बड़े अक़ीदतमंदाना लहजे में मुझसे कहा
“मंटो साहब! मम्मद भाई फ़रिश्ता है... फ़रिश्ता... जब उसने डाक्टरों को धमकी दी तो वो सब काँपने लगे। ऐसा लग के इलाज किया कि मैं दो दिन में ठीक ठाक हो गया।”
मम्मद भाई के मुतअल्लिक़ मैं अरब गली के गंदे और वाहियात रेस्तोरानों में और भी बहुत कुछ सुन चुका था। एक शख़्स ने जो ग़ालिबन उसका शागिर्द था और ख़ुद को बहुत बड़ा फकेत समझता था
मुझसे ये कहा था कि मम्मद दादा अपने नेफ़े में एक ऐसा आबदार ख़ंजर उड़स के रखता है जो उस्तुरे की तरह शेव भी कर सकता है और ये ख़ंजर नियाम में नहीं होता


खुला रहता है। बिल्कुल नंगा
और वो भी उसके पेट के साथ। उसकी नोक इतनी तीखी है कि अगर बातें करते हुए
झुकते हुए उससे ज़रा सी ग़लती हो जाये तो मम्मद भाई का एक दम काम तमाम हो के रह जाये।
ज़ाहिर है कि उसको देखने और उससे मिलने का इश्तियाक़ दिन ब दिन मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में बढ़ता गया। मालूम नहीं मैंने अपने तसव्वुर में उसकी शक्ल-ओ-सूरत का क्या नक़्शा तैयार किया था


बहरहाल इतनी मुद्दत के बाद मुझे सिर्फ़ इतना याद है कि मैं एक क़वी हैकल इंसान को अपनी आँखों के सामने देखता था जिसका नाम मम्मद भाई था। उस क़िस्म का आदमी जौहर को लैस साइकलों पर इश्तिहार के तौर पर दिया जाता है।
मैं सुबह सवेरे अपने काम पर निकल जाता था और रात को दस बजे के क़रीब खाने-वाने से फ़ारिग़ हो कर वापस आ कर फ़ौरन सो जाता था। इस दौरान में मम्मद भाई से कैसे मुलाक़ात हो सकती थी। मैंने कई मर्तबा सोचा कि काम पर न जाऊं और सारा दिन अरब गली में गुज़ार कर मम्मद भाई को देखने की कोशिश करूं
मगर अफ़्सोस कि मैं ऐसा न कर सका इसलिए कि मेरी मुलाज़िमत ही बड़ी वाहियात क़िस्म की थी।
मम्मद भाई से मुलाक़ात करने की सोच ही रहा था कि अचानक एंफ्लूएंज़ा ने मुझ पर ज़बरदस्त हमला किया। ऐसा हमला कि मैं बौखला गया। ख़तरा था कि ये बिगड़ कर निमोनिया में तबदील हो जाएगा


क्यूँकि अरब गली के एक डाक्टर ने यही कहा था।
मैं बिल्कुल तन-ए-तनहा था। मेरे साथ जो एक आदमी रहता था
उसको पूना में नौकरी मिल गई थी
इसलिए उसकी रिफ़ाक़त भी नसीब नहीं थी। मैं बुख़ार में फुंका जा रहा था। इस क़दर प्यास थी कि जो पानी खोली में रखा था


वो मेरे लिए ना-काफ़ी था और दोस्त-यार कोई पास नहीं था जो मेरी देख भाल करता।
मैं बहुत सख़्त जान हूँ
देख-भाल की मुझे उमूमन ज़रूरत महसूस नहीं हुआ करती। मगर मालूम नहीं कि वो किस क़िस्म का बुख़ार था। एंफ्लूएंज़ा था
मलेरिया था या और क्या था। लेकिन उसने मेरी रीढ़ की हड्डी तोड़ दी। मैं बिलबिलाने लगा। मेरे दिल में पहली मर्तबा ख़्वाहिश पैदा हुई कि मेरे पास कोई हो जो मुझे दिलासा दे। दिलासा न दे तो कम-अज़-कम एक सेकेंड के लिए अपनी शक्ल दिखा के चला जाये ताकि मुझे ये ख़ुशगवार एहसास हो कि मुझे पूछने वाला भी कोई है।


दो दिन तक मैं बिस्तर में पड़ा तकलीफ़ भरी करवटें लेता रहा
मगर कोई न आया... आना भी किसे था... मेरी जान-पहचान के आदमी ही कितने थे... दो-तीन या चार... और वो इतनी दूर रहते थे कि उनको मेरी मौत का इल्म भी नहीं हो सकता था... और फिर यहां बंबई में कौन किसको पूछता है... कोई मरे या जिए... उनकी बला से।
मेरी बहुत बुरी हालत थी। आशिक़ हुसैन डांसर की बीवी बीमार थी इसलिए वो अपने वतन जा चुका था। ये मुझे होटल के छोकरे ने बताया था। अब मैं किसको बुलाता... बड़ी निढाल हालत में था और सोच रहा था कि ख़ुद नीचे उतरूँ और किसी डाक्टर के पास जाऊं कि दरवाज़े पर दस्तक हुई।
मैं ने ख़याल किया कि होटल का छोकरा जिसे बंबई की ज़बान में बाहर वाला कहते हैं


होगा। बड़ी मरियल आवाज़ में कहा
“आ जाओ!”
दरवाज़ा खुला और एक छरेरे बदन का आदमी
जिसकी मूंछें मुझे सबसे पहले दिखाई दीं


अंदर दाख़िल हुआ।
उसकी मूंछें ही सब कुछ थीं। मेरा मतलब ये है कि अगर उसकी मूंछें न होतीं तो बहुत मुम्किन है कि वो कुछ भी न होता। उसकी मूंछों ही से ऐसा मालूम होता था कि उसके सारे वजूद को ज़िंदगी बख़्श रखी है।
वो अंदर आया और अपनी क़ैसर विलियम जैसी मूंछों को एक उंगली से ठीक करते हुए मेरी खाट के क़रीब आया। उसके पीछे पीछे तीन-चार आदमी थे
अजीब-ओ-ग़रीब वज़ा क़ता के। मैं बहुत हैरान था कि ये कौन हैं और मेरे पास क्यूँ आए हैं।


क़ैसर विलियम जैसी मूंछों और छरेरे बदन वाले ने मुझसे बड़ी नर्म-ओ-नाज़ुक आवाज़ में कहा
“वमटो साहब! आपने हद कर दी। साला मुझे इत्तिला क्यूँ न दी?” मंटो का वमटो बन जाना मेरे लिए कोई नई बात नहीं थी। इसके अलावा मैं इस मूड में भी नहीं था कि मैं उसकी इस्लाह करता। मैंने अपनी नहीफ़ आवाज़ में उसकी मूंछों से सिर्फ़ इतना कहा
“आप कौन हैं?”
उसने मुख़्तसर सा जवाब दिया


“मम्मद भाई!”
मैं उठ कर बैठ गया
“मम्मद भाई... तो... तो आप मम्मद भाई हैं... मशहूर दादा!”
मैंने ये कह तो दिया। लेकिन फ़ौरन मुझे अपने बेंडेपन का एहसास हुआ और रुक गया। मम्मद भाई ने छोटी उंगली से अपनी मूंछों के करख़्त बाल ज़रा ऊपर किए और मुस्कुराया


“हाँ वमटो भाई... मैं मम्मद हूँ... यहां का मशहूर दादा... मुझे बाहर वाले से मालूम हुआ कि तुम बीमार हो... साला ये भी कोई बात है कि तुमने मुझे ख़बर न की। मम्मद भाई का मस्तक फिर जाता है
जब कोई ऐसी बात होती है।”
मैं जवाब में कुछ कहने वाला था कि उसने अपने साथियों में से एक से मुख़ातिब हो कर कहा
“अरे... क्या नाम है तेरा... जा भाग के जा


और क्या नाम है उस डाक्टर का... समझ गए न उससे कह कि मम्मद भाई तुझे बुलाता है... एक दम जल्दी आ... एक दम सब काम छोड़ दे और जल्दी आ... और देख साले से कहना
सब दवाएं लेता आए।”
मम्मद भाई ने जिसको हुक्म दिया था
वो एक दम चला गया। मैं सोच रहा था। मैं उसको देख रहा था... वो तमाम दास्तानें मेरे बुख़ार आलूद दिमाग़ में चल फिर रही थीं। जो मैं उसके मुतअल्लिक़ लोगों से सुन चुका था... लेकिन गड-मड सूरत में। क्यूँकि बार बार उसको देखने की वजह से उसकी मूंछें सब पर छा जाती थीं।


बड़ी ख़ौफ़नाक
मगर बड़ी ख़ूबसूरत मूंछें थीं। लेकिन ऐसा महसूस होता था कि उस चेहरे को जिसके ख़द-ओ-ख़ाल बड़े मुलायम और नर्म-ओ-नाज़क हैं
सिर्फ़ ख़ौफ़नाक बनाने के लिए ये मूंछें रखी गई हैं। मैंने अपने बुख़ार आलूद दिमाग़ में ये सोचा कि ये शख़्स दरहक़ीक़त इतना ख़ौफ़नाक नहीं जितना उसने ख़ुद को ज़ाहिर कर रखा है।
खोली में कुर्सी नहीं। मैंने मम्मद भाई से कहा वो मेरी चारपाई पर बैठ जाये। मगर उसने इनकार कर दिया और बड़े रूखे से लहजे में कहा


ठीक है... हम खड़े रहेंगे।”

फिर उसने टहलते हुए हालाँकि उस खोली में उस अय्याशी की कोई गुंजाइश नहीं थी
कुर्ते का दामन उठा कर पाजामे के नेफ़े से एक ख़ंजर निकाला... मैं समझा चांदी का है। इस क़दर लश्क रहा था कि मैं आपसे क्या कहूं। ये ख़ंजर निकाल कर पहले उसने अपनी कलाई पर फेरा। जो बाल उसकी ज़द में आए


सब साफ़ हो गए। उसने इस पर अपने इत्मिनान का इज़हार किया और नाख़ुन तराशने लगा।
उसकी आमद ही से मेरा बुख़ार कई दर्जे नीचे उतर गया था। मैंने अब किसी क़दर होशमंद हालत में उससे कहा
“मम्मद भाई... ये छुरी तुम इस तरह अपने... नेफ़े में यानी बिल्कुल अपने पेट के साथ रखते हो इतनी तेज़ है
क्या तुम्हें ख़ौफ़ महसूस नहीं होता?”


मम्मद ने ख़ंजर से अपने नाख़ुन की एक क़ाश बड़ी सफ़ाई से उड़ाते हुए जवाब दिया
“वमटो भाई... ये छुरी दूसरों के लिए है। ये अच्छी तरह जानती है। साली
अपनी चीज़ है
मुझे नुक़्सान कैसे पहुंचाएगी?”


छुरी से जो रिश्ता उसने क़ायम किया था वो कुछ ऐसा ही था जैसे कोई माँ या बाप कहे कि ये मेरा बेटा है
या बेटी है। उसका हाथ मुझ पर कैसे उठ सकता है।
डॉक्टर आ गया... उसका नाम पिंटू था और मैं वमटो... उसने मम्मद भाई को अपने क्रिस्चियन अंदाज़ में सलाम किया और पूछा कि मुआमला क्या है। जो मुआमला था
वो मम्मद भाई ने बयान कर दिया। मुख़्तसर


लेकिन कड़े अल्फ़ाज़ में
जिनमें तहक्कुम था कि देखो अगर तुमने वमटो भाई का इलाज अच्छी तरह न किया तो तुम्हारी ख़ैर नहीं।
डॉक्टर पिंटू ने फ़रमांबर्दार लड़के की तरह अपना काम किया। मेरी नब्ज़ देखी... स्टेथिस्कोप लगा मेरे सीने और पीठ का मुआइना किया
ब्लड प्रेशर देखा। मुझ से मेरी बीमारी की तमाम तफ़्सील पूछी। इसके बाद उसने मुझसे नहीं


मम्मद भाई से कहा
“कोई फ़िक्र की बात नहीं है... मलेरिया है... मैं इंजेक्शन लगा देता हूँ।”
मम्मद भाई मुझसे कुछ फ़ासले पर खड़ा था। उसने डॉक्टर पिंटू की बात सुनी और ख़ंजर से अपनी कलाई के बाल उड़ाते हुए कहा
“मैं कुछ नहीं जानता। इंजेक्शन देना है तो दे


लेकिन अगर इसे कुछ हो गया तो...”
डॉक्टर पिंटू काँप गया
“नहीं मम्मद भाई... सब ठीक हो जाएगा।”
मम्मद भाई ने ख़ंजर अपने नेफ़े में उड़स लिया


“तो ठीक है।”
“तो मैं इंजेक्शन लगाता हूँ।” डॉक्टर ने अपना बैग खोला और सिरिंज निकाली... “ठहरो... ठहरो...”
मम्मद भाई घबरा गया था। डाक्टर ने सिरिंज फ़ौरन बैग में वापस रख दी और मिमयाते हुए मम्मद भाई से मुख़ातिब हुआ। “क्यों?”
“बस... मैं किसी के सुई लगते नहीं देख सकता।” ये कह कर वो खोली से बाहर चला गया। उसके साथ ही उसके साथी भी चले गए।


डॉक्टर पिंटू ने मेरे कुनैन का इंजेक्शन का लगाया। बड़े सलीक़े से
वर्ना मलेरिया का ये इंजेक्शन बड़ा तक्लीफ़दह होता है। जब वो फ़ारिग़ हुआ तो मैंने उससे फ़ीस पूछी
“उसने कहा दस रुपये!” मैं तकिए के नीचे से अपना बटूवा निकाल रहा था कि मम्मद भाई अंदर आ गया। उस वक़्त मैं दस रुपये का नोट डॉक्टर पिंटू को दे रहा था।
मम्मद भाई ने ग़ज़ब आलूद निगाहों से मुझे और डाक्टर को देखा और गरज कर कहा


“ये क्या हो रहा है?”
मैं ने कहा
“फ़ीस दे रहा हूँ।”
मम्मद भाई डाक्टर पिंटू से मुख़ातिब हुआ


“साले ये फ़ीस कैसी ले रहे हो?”
डॉक्टर पिंटू बौखला गया
“मैं कब ले रहा हूँ... ये दे रहे थे!”
“साला... हमसे फ़ीस लेते हो... वापस करो ये नोट!” मम्मद भाई के लहजे में उसके ख़ंजर ऐसी तेज़ी थी।


डाक्टर पिंटो ने मुझे नोट वापस कर दिया और बैग बंद कर के मम्मद भाई से माज़रत तलब करते हुए चला गया।
मम्मद भाई ने एक उंगली से अपनी कांटों ऐसी मूंछों को ताव दिया और मुस्कुराया
“वमटो भाई... ये भी कोई बात है कि इस इलाक़े का डाक्टर तुमसे फीस ले... तुम्हारी कसम
अपनी मूंछें मुंडवा देता अगर इस साले ने फ़ीस ली होती... यहां सब तुम्हारे ग़ुलाम हैं।”


थोड़े से तवक्कुफ़ के बाद मैंने उससे पूछा
“मम्मद भाई! तुम मुझे कैसे जानते हो?”
मम्मद भाई की मूंछें थरथराईं
“मम्मद भाई किसे नहीं जानता... हम यहाँ के बादशाह हैं प्यारे... अपनी रिआया का ख़याल रखते हैं। हमारी सी आई डी है। वो हमें बताती रहती है... कौन आया है


कौन गया है
कौन अच्छी हालत में है
कौन बुरी हालत में... तुम्हारे मुतअल्लिक़ हम सब कुछ जानते हैं।”
मैंने अज़राह-ए-तफ़न्नुन पूछा


“क्या जानते हैं आप?”
“साला... हम क्या नहीं जानते... तुम अमृतसर का रहने वाला है... कश्मीरी है... यहां अख़बारों में काम करता है... तुमने बिसमिल्लाह होटल के दस रुपये देने हैं
इसीलिए तुम उधर से नहीं गुज़रते। भिंडी बाज़ार में एक पान वाला तुम्हारी जान को रोता है। उससे तुम बीस रुपये दस आने के सिगरेट लेकर फूंक चुके हो।”
मैं पानी पानी हो गया।


मम्मद भाई ने अपनी करख़्त मूंछों पर एक उंगली फेरी और मुस्कुरा कर कहा
“वमटो भाई! कुछ फ़िक्र न करो। तुम्हारे सब क़र्ज़ चुका दिए गए हैं। अब तुम नए सिरे से मुआमला शुरू कर सकते हो। मैंने उन सालों से कह दिया है कि ख़बरदार! अगर वमटो भाई को तुम ने तंग किया... और मम्मद भाई तुमसे कहता है कि इंशाअल्लाह कोई तुम्हें तंग नहीं करेगा।”
मेरी समझ में नहीं आता था कि उससे क्या कहूं। बीमार था
कुनैन का टीका लग चुका था। जिसके बाइस कानों में शाएं शाएं हो रही थी। इसके अलावा मैं उसके ख़ुलूस के नीचे इतना दब चुका था कि अगर मुझे कोई निकालने की कोशिश करता तो उसे बहुत मेहनत करनी पड़ती... मैं सिर्फ़ इतना कह सका


“मम्मद भाई! ख़ुदा तुम्हें ज़िंदा रखे... तुम ख़ुश रहो।”
मम्मद भाई ने अपनी मूंछों के बाल ज़रा ऊपर किए और कुछ कहे बगै़र चला गया।
डाक्टर पिंटू हर रोज़ सुब्ह शाम आता रहा। मैंने उससे कई मर्तबा फ़ीस का ज़िक्र किया मगर उसने कानों को हाथ लगा कर कहा
“नहीं


मिस्टर मंटो! मम्मद भाई का मुआमला है मैं एक डेढ़िया भी नहीं ले सकता।”
मैंने सोचा ये मम्मद भाई कोई बहुत बड़ा आदमी है। यानी ख़ौफ़नाक क़िस्म का जिससे डॉक्टर पिंटू जो बड़ा ख़सीस क़िस्म का आदमी है
डरता है और मुझसे फ़ीस लेने की जुरअत नहीं करता। हालाँकि वो अपनी जेब से इंजेक्शनों पर ख़र्च कर रहा है।
बीमारी के दौरान में मम्मद भाई भी बिला नागा आता रहा। कभी सुब्ह आता


कभी शाम को
अपने छः सात शागिर्दों के साथ और मुझे हर मुम्किन तरीक़े से ढारस देता था कि मामूली मलेरिया है
तुम डाक्टर पिंटू के इलाज से इंशाअल्लाह बहुत जल्द ठीक हो जाओगे।
पंद्रह रोज़ के बाद मैं ठीक ठाक हो गया। इस दौरान में मम्मद भाई के हर ख़द-ओ-ख़ाल को अच्छी तरह देख चुका था।


जैसा कि मैं इससे पेशतर कह चुका हूँ
वो छरेरे बदन का आदमी था। उम्र यही पच्चीस-तीस के दरमियान होगी। पतली पतली बांहें
टांगें भी ऐसी ही थीं। हाथ बला के फुर्तीले थे। उनसे जब वो छोटा तेज़ धार चाक़ू किसी दुश्मन पर फेंकता था तो वो सीधा उसके दिल में खुबता था। ये मुझे अरब के गली ने बताया था।
उसके मुतअल्लिक़ बेशुमार बातें मशहूर थीं


उसने किसी को क़त्ल किया था
मैं उसके मुतअल्लिक़ वसूक़ से कुछ नहीं कह सकता। छुरी मार वो अव्वल दर्जे का था। बनोट और गतके का माहिर। यूं सब कहते थे कि वो सैंकड़ों क़त्ल कर चुका है
मगर मैं ये अब भी मानने को तैयार नहीं।
लेकिन जब मैं उसके ख़ंजर के मुतअल्लिक़ सोचता हूँ तो मेरे तन-बदन पर झुरझुरी सी तारी हो जाती है। ये ख़ौफ़नाक हथियार वो क्यूँ हर वक़्त अपनी शलवार के नेफ़े में उड़से रहता है।


मैं जब अच्छा हो गया तो एक दिन अरब गली के एक थर्ड क्लास चीनी रेस्तोराँ में उससे मेरी मुलाक़ात हुई। वो अपना वही ख़ौफ़नाक ख़ंजर निकाल कर अपने नाख़ुन काट रहा था। मैंने उससे पूछा
“मम्मद भाई... आज कल बंदूक़-पिस्तौल का ज़माना है... तुम ये ख़ंजर क्यूँ लिए फिरते हो?”
मम्मद भाई ने अपनी करख़्त मूंछों पर एक उंगली फेरी और कहा
“वमटो भाई! बंदूक़-पिस्तौल में कोई मज़ा नहीं। उन्हें कोई बच्चा भी चला सकता। घोड़ा दबाया और ठाह... उसमें क्या मज़ा है... ये चीज़... ये ख़ंजर... ये छुरी... ये चाक़ू... मज़ा आता है ना


ख़ुदा की क़सम... ये वो है...तुम क्या कहा करते हो... हाँ... आर्ट.. इसमें आर्ट होता है मेरी जान... जिसको चाक़ू या छुरी चलाने का आर्ट न आता हो वो एक दम कंडम है।
“पिस्तौल क्या है... खिलौना है जो नुक़्सान पहुंचा सकता है... पर उसमें क्या लुत्फ़ आता है... कुछ भी नहीं... तुम ये ख़ंजर देखो... इसकी तेज़ धार देखो।” ये कहते हुए उसने अंगूठे पर लब लगाया और उसकी धार पर फेरा। “इससे कोई धमाका नहीं होता... बस
यूँ पेट के अंदर दाख़िल कर दो... इस सफ़ाई से कि उस साले को मालूम तक न हो... बंदूक़
पिस्तौल सब बकवास है।”


मम्मद भाई से अब हर रोज़ किसी न किसी वक़्त मुलाक़ात हो जाती थी। मैं उसका ममनून-ए-एहसान था... लेकिन जब मैं उसका ज़िक्र किया करता तो वो नाराज़ हो जाता। कहता था कि मैंने तुम पर कोई एहसान नहीं किया
ये तो मेरा फ़र्ज़ था।
जब मैंने कुछ तफ़्तीश की तो मुझे मालूम हुआ कि फ़ारस रोड के इलाक़े का वो एक क़िस्म का हाकिम है। ऐसा हाकिम जो हर शख़्स की ख़बरगीरी करता था। कोई बीमार हो
किसी के कोई तकलीफ़ हो


मम्मद भाई उसके पास पहुंच जाता था और ये उसकी सी आई डी का काम था जो उसको हर चीज़ से बाख़बर रखती थी।
वो दादा था यानी एक ख़तरनाक ग़ुंडा। लेकिन मेरी समझ में अब भी नहीं आता कि वो किस लिहाज़ से ग़ुंडा था। ख़ुदा वाहिद शाहिद है कि मैंने उसमें कोई ग़ुंडापन नहीं देखा। एक सिर्फ़ उसकी मूंछें थीं जो उसको हैबतनाक बनाए रखती थीं। लेकिन उसको उनसे प्यार था। वो उनकी इस तरह परवरिश करता था जिस तरह कोई अपने बच्चे की करे।
उसकी मूंछों का एक एक बाल खड़ा था
जैसे ख़ार-पुश्त का... मुझे किसी ने बताया कि मम्मद भाई हर रोज़ अपनी मूंछों को बालाई खिलाता है। जब खाना खाता है तो सालन भरी उंगलियों से अपनी मूंछें ज़रूर मरोड़ता है कि बुज़ुर्गों के कहने के मुताबिक़ यूँ बालों में ताक़त आती है।


मैं उससे पेशतर ग़ालिबन कई मर्तबा कह चुका हूँ कि उसकी मूंछें बड़ी ख़ौफ़नाक थीं। दरअस्ल मूंछों का नाम ही मम्मद भाई था... या उस ख़ंजर का जो उसकी तंग घेरे की शलवार के नेफ़े में हर वक़्त मौजूद रहता था। मुझे उन दोनों चीज़ों से डर लगता था
न मालूम क्यों?
मम्मद भाई यूँ तो उस इलाक़े का बहुत बड़ा दादा था
लेकिन वो सबका हमदर्द था। मालूम नहीं उसकी आमदनी के क्या ज़राए थे


पर वो हर हाजतमंद की बरवक़्त मदद करता था। उस इलाक़े की तमाम रंडियाँ उसको अपना पीर मानती थी। चूँकि वो एक माना हुआ ग़ुंडा था
इसलिए लाज़िम था कि उसका तअल्लुक़ वहां की किसी तवाइफ़ से होता
मगर मुझे मालूम हुआ कि इस क़िस्म के सिलसिले से उसका दूर का भी तअल्लुक़ नहीं रहा था।
मेरी उसकी बड़ी दोस्ती हो गई थी। अनपढ़ था


लेकिन जाने क्यूँ वो मेरी इतनी इज़्ज़त करता था कि अरब गली के तमाम आदमी रश्क करते थे। एक दिन सुब्ह-सवेरे
दफ़्तर जाते वक़्त मैंने चीनी के होटल में किसी से सुना कि मम्मद भाई गिरफ़्तार कर लिया गया है।
मुझे बहुत ताज्जुब हुआ
इसलिए कि तमाम थाने वाले उसके दोस्त थे। क्या वजह हो सकती थी... मैंने उसके आदमी से पूछा कि क्या बात हुई जो मम्मद भाई गिरफ़्तार हो गया। उसने मुझसे कहा कि इसी अरब गली में एक औरत रहती है


जिसका नाम शीरीं बाई है। उसकी एक जवान लड़की है
उसको कल एक आदमी ने ख़राब कर दिया। यानी उसकी इस्मतदरी कर दी। शीरीं बाई रोती हुई मम्मद भाई के पास आई और उससे कहा तुम यहाँ के दादा हो। मेरी बेटी से फ़लाँ आदमी ने ये बुरा किया है... ला'नत है तुम पर कि तुम घर में बैठे हो।
मम्मद भाई ने ये मोटी गाली उस बुढ़िया को दी और कहा
“तुम चाहती क्या हो?” उसने कहा


“मैं चाहती हूँ कि तुम उस हरामज़ादे का पेट चाक कर दो।”
मम्मद भाई उस वक़्त होटल में सेस पाव के साथ क़ीमा खा रहा था। ये सुन कर उसने अपने नेफ़े में से ख़ंजर निकाला। उसपर अंगूठा फेर कर उसकी धार देखी और बुढ़िया से कहा
“जा... तेरा काम हो जाएगा।”
और उसका काम हो गया... दूसरे मअनों में जिस आदमी ने उस बुढ़िया की लड़की की इस्मतदरी की थी


आध घंटे के अंदर अंदर उसका काम तमाम हो गया।
मम्मद भाई गिरफ़्तार तो हो गया था
मगर उसने काम इतनी होशियारी और चाबुक-दस्ती से किया था कि उसके ख़िलाफ़ कोई शहादत नहीं थी। इसके अलावा अगर कोई ऐनी शाहिद मौजूद भी होता तो वो कभी अदालत में बयान न देता। नतीजा ये हुआ कि उसको ज़मानत पर रिहा कर दिया गया।
दो दिन हवालात में रहा था


मगर उसको वहां कोई तकलीफ़ न थी। पुलिस के सिपाही
इन्सपेक्टर
सब इन्सपेक्टर सब उसको जानते थे। लेकिन जब वो ज़मानत पर रिहा हो कर बाहर आया तो मैंने महसूस किया कि उसे अपनी ज़िंदगी का सबसे बड़ा धचका पहुंचा है। उसकी मूंछें जो ख़ौफ़नाक तौर पर ऊपर को उठी होती थीं अब किसी क़दर झुकी हुई थीं।
चीनी के होटल में उससे मेरी मुलाक़ात हुई। उसके कपड़े जो हमेशा उजले होते थे


मैले थे। मैंने उससे क़त्ल के मुतअल्लिक़ कोई बात न की लेकिन उसने ख़ुद कहा
“वमटो साहब! मुझे इस बात का अफ़सोस है कि साला देर से मरा... छुरी मारने में मुझसे ग़लती हो गई
हाथ टेढ़ा पड़ा... लेकिन वो भी उस साले का क़ुसूर था... एक दम मुड़ गया और इस वजह से सारा मुआमला कंडम हो गया... लेकिन मर गया... ज़रा तकलीफ़ के साथ
जिसका मुझे अफ़्सोस है।”


आप ख़ुद सोच सकते हैं कि मेरा रद्द-ए-अमल क्या होगा। यानी उसको अफ़सोस था कि वो उसे ब-तरीक़-ए-अहसन क़त्ल न कर सका
और ये कि मरने में उसे ज़रा तकलीफ़ हुई है।
मुक़द्दमा चलना था... और मम्मद भाई उससे बहुत घबराता था। उसने अपनी ज़िंदगी में अदालत की शक्ल कभी नहीं देखी थी। मालूम नहीं उसने इससे पहले भी क़त्ल किए थे कि नहीं लेकिन जहाँ तक मेरी मा'लूमात का ता'ल्लुक़ नहीं वो मजिस्ट्रेट
वकील और गवाह के मुतअल्लिक़ कुछ नहीं जानता था


इसलिए कि उसका साबक़ा उन लोगों से कभी पड़ा नहीं था।
वो बहुत फ़िक्रमंद था। पुलिस ने जब केस पेश करना चाहा और तारीख़ मुक़र्रर हो गई तो मम्मद भाई बहुत परेशान हो गया। अदालत में मजिस्ट्रेट के सामने कैसे हाज़िर हुआ जाता है
इसके मुतअल्लिक़ उसको क़तअन मालूम नहीं था। बार बार वो अपनी करख़्त मूंछों पर उंगलियां फेरता और मुझसे कहता था
“वमटो साहिब! मैं मर जाऊंगा पर कोर्ट नहीं जाऊंगा... साली


मालूम नहीं कैसी जगह है।”
अरब गली में उसके कई दोस्त थे। उन्होंने उसको ढारस दी कि मुआमला संगीन नहीं है। कोई गवाह मौजूद नहीं
एक सिर्फ़ उसकी मूंछें हैं जो मजिस्ट्रेट के दिल में उसके ख़िलाफ़ यक़ीनी तौर पर कोई मुख़ालिफ़ जज़्बा पैदा कर सकती हैं।
जैसा कि मैं इससे पेशतर कह चुका हूँ कि उसकी सिर्फ़ मूंछें ही थीं जो उसको ख़ौफ़नाक बनाती थीं... अगर ये न होतीं तो वो हरगिज़ हरगिज़ दादा दिखाई न देता।


उसने बहुत ग़ौर किया। उसकी ज़मानत थाने ही में हो गई थी। अब उसे अदालत में पेश होना था। मजिस्ट्रेट से वो बहुत घबराता था। ईरानी के होटल में जब मेरी मुलाक़ात हुई तो मैंने महसूस किया कि वो बहुत परेशान है। उसको अपनी मूंछों के मुतअल्लिक़ बड़ी फ़िक्र थी। वो सोचता था कि उनके साथ अगर वो अदालत में पेश हुआ तो बहुत मुम्किन है उसको सज़ा हो जाये।
आप समझते हैं कि ये कहानी है
मगर ये वाक़िया है कि वो बहुत परेशान था। उसके तमाम शागिर्द हैरान थे
इसलिए कि वो कभी हैरान-ओ-परेशान नहीं हुआ था। उसको मूंछों की फ़िक्र थी क्यूँकि उसके बा'ज़ क़रीबी दोस्तों ने उससे कहा था


“मम्मद भाई... कोर्ट में जाना है तो इन मूंछों के साथ कभी न जाना... मजिस्ट्रेट तुमको अंदर कर देगा।”
और वो सोचता था... हर वक़्त सोचता था कि उसकी मूंछों ने उस आदमी को क़त्ल किया है या उसने... लेकिन किसी नतीजे पर पहुंच नहीं सकता था। उसने अपना ख़ंजर मालूम नहीं जो पहली मर्तबा ख़ून आशना था या इससे पहले कई मर्तबा हो चुका था
अपने नेफ़े से निकाला और होटल के बाहर गली में फेंक दिया। मैंने हैरत भरे लहजे में उस से पूछा
“मम्मद भाई... ये क्या?”


“कुछ नहीं वमटो भाई
बहुत घोटाला हो गया है। कोर्ट में जाना है... यार दोस्त कहते हैं कि तुम्हारी मूंछें देख कर वो ज़रूर तुमको सज़ा देगा... अब बोलो
मैं क्या करूं?”
मैं क्या बोल सकता था। मैंने उसकी मूंछों की तरफ़ देखा जो वाक़ई बड़ी ख़ौफ़नाक थीं। मैंने उससे सिर्फ़ इतना कहा


“मम्मद भाई! बात तो ठीक है... तुम्हारी मूंछें मजिस्ट्रेट के फ़ैसले पर ज़रूर असर अंदाज़ होंगी... सच पूछो तो जो कुछ होगा
तुम्हारे ख़िलाफ़ नहीं... मूंछों के ख़िलाफ़ होगा।”
“तो मैं मुंडवा दूँ?” मम्मद भाई ने अपनी चहेती मूंछों पर बड़े प्यार से उंगली फेरी।
मैंने उससे पूछा


“तुम्हारा क्या ख़याल है?”
“मेरा ख़याल है जो कुछ भी हो
वो तुम न पूछो... लेकिन यहाँ हर शख़्स का यही ख़याल है कि मैं इन्हें मुंडवा दूँ ताकि वो साला मजिस्ट्रेट मेहरबान हो जाये
तो मुंडवा दूँ वमटो भाई?”


मैंने कुछ तवक्कुफ़ के बाद उससे कहा
“हाँ
अगर तुम मुनासिब समझते हो तो मुंडवा दो... अदालत का सवाल है और तुम्हारी मूंछें वाक़ई बड़ी ख़ौफ़नाक हैं।”
दूसरे दिन मम्मद भाई ने अपनी मूंछें... अपनी जान से अज़ीज़ मूंछें मुंडवा डालीं। क्यूँकि उसकी इज़्ज़त ख़तरे में थी... लेकिन सिर्फ़ दूसरे के मशवरे पर।


मिस्टर एफ़.एच. टैग की अदालत में उसका मुक़द्दमा पेश हुआ। मूंछों के बगै़र मम्मद भाई पेश हुआ। मैं भी वहां मौजूद था। उसके ख़िलाफ़ कोई शहादत मौजूद नहीं थी
लेकिन मजिस्ट्रेट साहब ने उसको ख़तरनाक गुंडा क़रार देते हुए तड़ी पार यानी सूबा बदर कर दिया। उसको सिर्फ़ एक दिन मिला था जिसमें उसे अपना तमाम हिसाब किताब तय कर के बंबई छोड़ देना था।
अदालत से बाहर निकल कर उसने मुझ से कोई बात न की। उसकी छोटी-बड़ी उंगलियां बार बार बालाई होंट की तरफ़ बढ़ती थीं... मगर वहां कोई बाल ही नहीं था।
शाम को जब उसे बंबई छोड़कर कहीं और जाना था


मेरी उसकी मुलाक़ात ईरानी के होटल में हुई। उसके दस-बीस शागिर्द आस-पास कुर्सीयों पर बैठे चाय पी रहे थे। जब मैं उससे मिला तो उसने मुझ से कोई बात न की... मूंछों के बगै़र वो बहुत शरीफ़ आदमी दिखाई दे रहा था। लेकिन मैंने महसूस किया कि वो बहुत मग़्मूम है।
उसके पास कुर्सी पर बैठ कर मैंने उससे कहा
“क्या बात है मम्मद भाई?”
उसने जवाब में एक बहुत बड़ी गाली ख़ुदा मालूम किसको दी और कहा


“साला
अब मम्मद भाई ही नहीं रहा।”
मुझे मालूम था कि वो सूबा बदर किया जा चुका है। “कोई बात नहीं मम्मद भाई! यहाँ नहीं तो किसी और जगह सही!”
उसने तमाम जगहों को बेशुमार गालियां दीं


“साला... अपुन को ये ग़म नहीं... यहाँ रहें या किसी और जगह रहें... ये साला मूंछें क्यूँ मुंडवाईं?”
फिर उसने उन लोगों को जिन्होंने उसको मूंछें मुंडवाने का मशवरा दिया था
एक करोड़ गालियां दीं और कहा
“साला अगर मुझे तड़ी पार ही होना था तो मूंछों के साथ

- सआदत-हसन-मंटो


पूना में रेसों का मौसम शुरू होने वाला था कि पेशावर से अ’ज़ीज़ ने लिखा कि मैं अपनी एक जान पहचान की औरत जानकी को तुम्हारे पास भेज रहा हूँ
उसको या तो पूना में या बंबई में किसी फ़िल्म कंपनी में मुलाज़मत करा दो। तुम्हारी वाक़फ़ियत काफ़ी है
उम्मीद है तुम्हें ज़्यादा दिक़्क़त नहीं होगी।
वक़्त का तो इतना ज़्यादा सवाल नहीं था लेकिन मुसीबत ये थी कि मैंने ऐसा काम कभी किया ही नहीं था। फ़िल्म कंपनियों में अक्सर वही आदमी औरतें लेकर आते हैं जिन्हें उनकी कमाई खानी होती है। ज़ाहिर है कि मैं बहुत घबराया लेकिन फिर मैंने सोचा


अ’ज़ीज़ इतना पुराना दोस्त है
जाने किस यक़ीन के साथ भेजा है
उसको मायूस नहीं करना चाहिए।
ये सोच कर भी एक गो न तस्कीन हुई कि औरत के लिए


अगर वो जवान हो
हर फ़िल्म कंपनी के दरवाज़े खुले हैं। इतनी तरद्दुद की बात ही क्या है
मेरी मदद के बग़ैर ही उसे किसी न किसी फ़िल्म कंपनी में जगह मिल जाएगी।
ख़त मिलने के चौथे रोज़ वो पूना पहुंच गई। कितना लंबा सफ़र तय करके आई थी


पेशावर से बंबई और बंबई से पूना। प्लेटफार्म पर चूँकि उसको मुझे पहचानना था
इसलिए गाड़ी आने पर मैंने एक सिरे से डिब्बों के पास से गुज़रना शुरू किया। मुझे ज़्यादा दूर न चलना पड़ा क्योंकि सेकंड क्लास के डिब्बे से एक मुतवस्सित क़द की औरत जिसके हाथ में मेरी तस्वीर थी उतरी।
मेरी तरफ़ वो पीठ करके खड़ी होगई और एड़ियाँ ऊंची करके मुझे हुजूम में तलाश करने लगी। मैंने क़रीब जा कर कहा
“जिसे आप ढूंढ रही हैं वो ग़ालिबन मैं ही हूँ।”


वो पलटी
“ओह
आप!” एक नज़र मेरी तस्वीर की तरफ़ देखा और बड़े बेतकल्लुफ़ अंदाज़ में कहा
“सआदत साहब! सफ़र बहुत ही लंबा था। बंबई में फ्रंटियर मेल से उतर कर इस गाड़ी के इंतिज़ार में जो वक़्त काटना पड़ा


उसने तबीयत साफ़ कर दी।”
मैंने कहा
“अस्बाब कहाँ है आपका?”
“लाती हूँ।” ये कह कर वो डिब्बे के अंदर दाख़िल हुई। दो सूटकेस और एक बिस्तर निकाला। मैंने क़ुली बुलवाया। स्टेशन से बाहर निकलते हुए उसने मुझ से कहा


“मैं होटल में ठहरूंगी।”
मैंने स्टेशन के सामने ही उसके लिए एक कमरे का बंदोबस्त कर दिया। उसे ग़ुस्ल-वुस्ल करके कपड़े तबदील करने थे और आराम करना था
इसलिए मैंने उसे अपना एड्रेस दिया और ये कह कर कि सुबह दस बजे मुझसे मिले
होटल से चल दिया।


सुबह साढ़े दस बजे वो प्रभात नगर
जहां मैं एक दोस्त के यहां ठहरा हुआ था
आई। जगह तलाश करते हुए उसे देर हो गई थी। मेरा दोस्त इस छोटे से फ़्लैट में
जो नया नया था मौजूद नहीं था। मैं रात देर तक लिखने का काम करने के बाइ’स सुबह देर से जागा था


इसलिए साढ़े दस बजे नहा धो कर चाय पी रहा था कि वो अचानक अंदर दाख़िल हुई।
प्लेटफार्म पर और होटल में थकावट के बावजूद वो जानदार औरत थी मगर जूंही वो इस कमरे में जहां मैं सिर्फ़ बनयान और पाजामा पहने चाय पी रहा था दाख़िल हुई तो उसकी तरफ़ देख कर मुझे ऐसा लगा जैसे कोई बहुत ही परेशान और ख़स्ताहाल औरत मुझसे मिलने आई है।
जब मैंने उसे प्लेटफार्म पर देखा था तो वो ज़िंदगी से भरपूर थी लेकिन जब प्रभात नगर के नंबर ग्यारह फ़्लैट में आई तो मुझे महसूस हुआ कि या तो इसने ख़ैरात में अपना दस पंद्रह औंस ख़ून दे दिया है या इसका इस्क़ात होगया है।
जैसा कि मैं आप से कह चुका हूँ


घर में और कोई मौजूद नहीं था
सिवाए एक बेवक़ूफ़ नौकर के। मेरे दोस्त का घर जिसमें एक फ़िल्मी कहानी लिखने के लिए मैं ठहरा हुआ था
बिल्कुल सुनसान था और मजीद एक ऐसा नौकर था जिसकी मौजूदगी वीरानी में इज़ाफ़ा करती थी।
मैंने चाय की एक प्याली बना कर जानकी को दी और कहा


“होटल से तो आप नाश्ता कर के आई होंगी
फिर भी शौक़ फ़रमाईए!”
उसने इज़्तिराब से अपने होंट काटते हुए चाय की प्याली उठाई और पीना शुरू की। उसकी दाहिनी टांग बड़े ज़ोर से हिल रही थी। उसके होंटों की कपकपाहट से मुझे मालूम हुआ कि वो मुझसे कुछ कहना चाहती है लेकिन हिचकिचाती है। मैंने सोचा शायद होटल में रात को किसी मुसाफ़िर ने उसे छेड़ा है चुनांचे मैंने कहा
“आपको कोई तकलीफ़ तो नहीं हुई होटल में?”


“जी
जी नहीं!”
मैं ये मुख़्तसर जवाब सुन कर ख़ामोश रहा। चाय ख़त्म हुई तो मैंने सोचा अब कोई बात करनी चाहिए। चुनांचे मैंने पूछा
“अ’ज़ीज़ साहब कैसे हैं?”


उसने मेरे सवाल का जवाब न दिया। चाय की प्याली तिपाई पर रख कर उठ खड़ी हुई और लफ़्ज़ों को जल्दी जल्दी अदा कर के कहा
“मंटो साहब आप किसी अच्छे डाक्टर को जानते हैं?”
मैंने जवाब दिया
“पूना में तो मैं किसी को नहीं जानता।”


“ओह!”
मैंने पूछा
“क्यों
बीमार हैं आप?”


“जी हाँ।” वो कुर्सी पर बैठ गई।
मैंने दरयाफ़्त किया
“क्या तकलीफ़ है?”
उसके तीखे होंट जो मुस्कुराते वक़्त सिकुड़ जाते थे या सुकेड़ लिए जाते थे वा हुए। उसने कुछ कहना चाहा लेकिन कह न सकी और उठ खड़ी हुई


फिर मेरा सिगरेट का डिब्बा उठाया और एक सिगरेट सुलगा कर कहा
“माफ़ कीजिएगा
मैं सिगरेट पिया करती हूँ।”
मुझे बाद में मालूम हुआ कि वो सिर्फ़ सिगरेट पिया ही नहीं करती बल्कि फूंका करती थी। बिल्कुल मर्दों की तरह सिगरेट उंगलियों में दबा कर वो ज़ोर ज़ोर से कश लेती और एक दिन में तक़रीबन पछत्तर सिगरेटों का धुआँ खींचती थी।


मैंने कहा
“आप बताती क्यों नहीं कि आपको तकलीफ़ क्या है?”
उसने कुंवारी लड़कियों की तरह झुँझला कर अपना एक पांव फ़र्श पर मारा।
“हाय अल्लाह! मैं कैसे बताऊं आपको?” ये कह कर वो मुस्कुराई। मुस्कुराते हुए तीखे होंटों की मेहराब में से मुझे उसके दाँत नज़र आए जो ग़ैर-मा’मूली तौर पर साफ़ और चमकीले थे। वो बैठ गई और मेरी आँखों में अपनी डगमगाती आँखों को न डालने की कोशिश करते हुए उसने कहा


“बात ये है कि पंद्रह-बीस दिन ऊपर हो गए हैं और मुझे डर है कि...”
पहले तो मैं मतलब न समझा लेकिन जब वो बोलते बोलते रुक गई तो मैं किसी क़दर समझ गया
“ऐसा अक्सर होता है।”
उसने ज़ोर से कश लिया और मर्दों की तरह ज़ोर से धुंए को बाहर निकालते हुए कहा


“नहीं... यहां मुआ’मला कुछ और है। मुझे डर है कि कहीं कुछ ठहर न गया हो।”
मैंने कहा
“ओह!”
उसने सिगरेट का आख़िरी कश लेकर उसकी गर्दन चाय की तश्तरी में दबाई। “अगर ऐसा हो गया है तो बड़ी मुसीबत होगी। एक दफ़ा पेशावर में ऐसी ही गड़बड़ हो गई थी। लेकिन अ’ज़ीज़ साहब अपने एक हकीम दोस्त से ऐसी दवा लाए थे जिससे चंद दिन ही में सब साफ़ हो गया था।”


मैंने पूछा
“आपको बच्चे पसंद नहीं?”
वो मुस्कुराई
“पसंद हैं... लेकिन कौन पालता फिरे।”


मैंने कहा
“आपको मालूम है इस तरह बच्चे ज़ाए करना जुर्म है।”
वो एकदम संजीदा हो गई। फिर उसने हैरत भरे लहजे में कहा
“मुझसे अ’ज़ीज़ साहिब ने भी यही कहा था। लेकिन सआदत साहब मैं पूछती हूँ इसमें जुर्म की कौन सी बात है। अपनी ही तो चीज़ है और इन क़ानून बनाने वालों को ये भी मालूम है कि बच्चा ज़ाए कराते हुए तकलीफ़ कितनी होती है...बड़ा जुर्म है!”


मैं बेइख़्तयार हंस पड़ा
“अ’जीब-ओ-ग़रीब औरत हो तुम जानकी!”
जानकी ने भी हंसना शुरू कर दिया
“अ’ज़ीज़ साहब भी यही कहा करते हैं।”


हंसते हुए उसकी आँखों में आँसू आगए। मेरा मुशाहिदा है जो आदमी पुर-ख़ुलूस हों। हंसते हुए उसकी आँखों में आँसू ज़रूर आजाते हैं। उसने अपना बैग खोल कर रूमाल निकाला और आँखें ख़ुश्क करके भोले बच्चों के अंदाज़ में पूछा
“सआदत साहब! बताईए
क्या मेरी बातें दिलचस्प होती हैं?”
मैंने कहा


“बहुत।”
“झूट!”
“इसका सबूत?”
उसने सिगरेट सुलगाना शुरू कर दिया। “भई शायद ऐसा हो। मैं तो इतना जानती हूँ कि कुछ कुछ बेवक़ूफ हूँ। ज़्यादा खाती हूँ


ज़्यादा बोलती हूँ
ज़्यादा हंसती हूँ। अब आप ही देखिए न ज़्यादा खाने से मेरा पेट कितना बढ़ गया है। अ’ज़ीज़ साहिब हमेशा कहते रहे जानकी कम खाया करो
पर मैंने उन की एक न सुनी। सआदत साहब बात ये है कि मैं कम खाऊं तो हर वक़त ऐसा लगता है कि मैं किसी से कोई बात कहना भूल गई हूँ।”
उसने फिर हंसना शुरू किया। मैं भी उसके साथ शरीक होगया।


उसकी हंसी बिल्कुल अलग क़िस्म की थीं। बीच बीच में घुंघरू से बजते थे।
फिर वो इसक़ात-ए-हमल के मुतअ’ल्लिक़ बातें करने ही वाली थी कि मेरा दोस्त
जिसके यहां मैं ठहरा हुआ था
आगया। मैंने जानकी से उसका तआ’रुफ़ कराया और बताया कि वो फ़िल्म लाईन में आने का शौक़ रखती है।


मेरा दोस्त उसे स्टूडियो ले गया क्योंकि उसको यक़ीन था कि वो डायरेक्टर जिसके साथ वो बहैसियत अस्सिटेंट के काम कर रहा था
अपने नए फ़िल्म में जानकी को एक ख़ास रोल के लिए ज़रूर ले लेगा।
पूना में जितने स्टूडियो थे
मैंने मुख़्तलिफ़ ज़राए से जानकी के लिए कोशिश की।


किसी ने उसका साऊँड टेस्ट लिया
किसी ने कैमरा टेस्ट। एक फ़िल्म कंपनी में उसको मुख़्तलिफ़ क़िस्म के लिबास पहना कर देखा गया मगर नतीजा कुछ न निकला।
एक तो जानकी वैसे ही दिन ऊपर हो जाने के बाइ’स परेशान थी
चार-पाँच रोज़ मुतवातिर जब उसे मुख़्तलिफ़ फ़िल्म कंपनियों के उकता देने वाले माहौल में बेनतीजा गुज़ारने पड़े तो वो और ज़्यादा परेशान हो गई।


बच्चा ज़ाए करने के लिए वो हर रोज़ बीस-बीस ग्रेन कुनैन खाती थी। इससे भी उसकी तबीयत पर गिरानी सी रहती थी। अ’ज़ीज़ साहब के दिन पेशावर में उसके बग़ैर कैसे गुज़रते हैं
इसके मुतअ’ल्लिक़ भी उसको हर वक़्त फ़िक्र रहती थी। पूना पहुंचते ही उसने एक तार भेजा था। इसके बाद वो बिला नाग़ा हर रोज़ एक ख़त लिख रही थी। हर ख़त में ये ताकीद होती थी कि वो अपनी सेहत का ख़याल रखें और दवा बाक़ायदगी के साथ पीते रहें।
अ’ज़ीज़ साहब को क्या बीमारी थी
इसका मुझे इल्म नहीं... लेकिन जानकी से मुझे इतना मालूम हुआ कि अ’ज़ीज़ साहब को चूँकि उससे मोहब्बत है


इसलिए वो फ़ौरन उसका कहना मान लेते हैं। घर में कई बार बीवी से उसका झगड़ा हुआ कि वो दवा नहीं पीते लेकिन जानकी से इस मुआ’मले में उन्हों ने कभी चूँ भी न की।
शुरू शुरू में मेरा ख़याल था कि जानकी अ’ज़ीज़ के मुतअ’ल्लिक़ जो इतनी फ़िक्रमंद रहती है
महज़ बकवास है
बनावट है। लेकिन आहिस्ता आहिस्ता मैंने उसकी बेतकल्लुफ़ बातों से महसूस किया कि उसे हक़ीक़तन अ’ज़ीज़ का ख़याल है। उसका जब ख़त आया


जानकी पढ़ कर ज़रूर रोई।
फ़िल्म कंपनियों के तवाफ़ का कोई नतीजा न निकला। लेकिन एक रोज़ जानकी को ये मालूम करके बहुत ख़ुशी हुई कि उसका अंदेशा ग़लत था। दिन वाक़ई ऊपर होगए थे लेकिन वो बात जिसका उसे खटका था
नहीं थी।
जानकी को पूना आए बीस रोज़ हो चले थे।


अ’ज़ीज़ को वो ख़त पर ख़त लिख रही थी। उसकी तरफ़ से भी लंबे लंबे मोहब्बत नामे आते थे। एक ख़त में अ’ज़ीज़ ने मुझसे कहा था कि पूना में अगर जानकी के लिए कुछ नहीं होता तो मैं बंबई में कोशिश करूं क्योंकि वहां बेशुमार स्टूडियो हैं।
बात मा’क़ूल थी लेकिन मैं सिनेरियो लिखने में मसरूफ़ था
इसलिए जानकी के साथ बंबई जाना मुश्किल था
लेकिन मैंने पूना से अपने दोस्त सईद को जो एक फ़िल्म में हीरो का पार्ट अदा कर रहा था


टेलीफ़ोन किया।
इत्तिफ़ाक़ से वो उस वक़्त स्टूडियो में मौजूद न था। ऑफ़िस में नरायन खड़ा था। उसे जब मालूम हुआ कि मैं पूना से बोल रहा हूँ तो टेलीफ़ोन ले लिया और ज़ोर से चिल्लाया
“हलो
मंटो... नरायन स्पीकिंग फ्रॉम दिस एंड... कहो


बात क्या है। सईद इस वक़्त स्टूडियो में नहीं है। घर में बैठा रज़ीया से आख़िरी हिसाब-किताब कररहा है।”
मैंने पूछा
“क्या मतलब?”
नरायन ने उधर से जवाब दिया


“खटपट होगई है। असल में रज़ीया ने एक और आदमी से टांका मिला लिया है।”
मैंने कहा
“लेकिन ये हिसाब-किताब कैसा हो रहा है?”
नरायन बोला


“बड़ा कमीना है यार सईद... उससे कपड़े ले रहे हैं जो उसने ख़रीद कर दिए थे। खैर
छोड़ो इस बात को
बताओ बात क्या है?”



“बात ये है कि पेशावर से मेरे एक अ’ज़ीज़ ने एक औरत यहां भेजी है जिसे फिल्मों में काम करने का शौक़ है।”
जानकी मेरे पास ही खड़ी थी। मुझे एहसास हुआ कि मैंने मुनासिब-ओ-मौज़ूं लफ़्ज़ों में अपना मुद्दआ’ बयान नहीं किया।
मैं तस्हीह करने ही वाला था कि नरायन की बुलंद आवाज़ कानों के अंदर घुसी
“औरत! पेशावर की औरत। ख़ू


बेजो उस को जल्दी। ख़ू हम भी क़सूर का पठान है।”
मैंने कहा
“बकवास न करो नरायन सुनो
कल दक्कन क्वीन से मैं उन्हें बंबई भेज रहा हूँ। सईद या तुम कोई भी उसे स्टेशन पर लेने के लिए आजाना


कल दक्कन क्वीन से
याद रहे।”
नरायन की आवाज़ आई
“पर हम उसे पहचानेंगे कैसे?”


मैंने जवाब दिया
“वो ख़ुद तुम्हें पहचान लेगी... लेकिन देखो कोशिश करके उसे किसी न किसी जगह ज़रूर रखवा देना।”
तीन मिनट गुज़र गए। मैंने टेलीफ़ोन बंद किया और जानकी से कहा
“कल दक्कन क्वीन से तुम बंबई चली जाना। सईद और नरायन दोनों की तस्वीरें दिखाता हूँ। लंबे तड़ंगे ख़ूबसूरत जवान हैं। तुम्हें पहचानने में दिक़्क़त नहीं होगी।”


मैंने एलबम में जानकी को सईद और नरायन के मुख़्तलिफ़ फ़ोटो दिखाए। देर तक वो उन्हें देखती रही। मैंने नोट किया कि सईद का फ़ोटो उसने ज़्यादा गौर से देखा।
एलबम एक तरफ़ रख कर मेरी आँखों में आँखें न डालने की डगमगाती कोशिश करते हुए
उसने मुझ से पूछा
“दोनों कैसे आदमी हैं?”


“क्या मतलब?”
“मतलब ये कि दोनों कैसे आदमी हैं? मैंने सुना है कि फिल्मों में अक्सर आदमी बुरे होते हैं।”
उसके लहजे में एक टोह लेने वाली संजीदगी थी।
मैंने कहा


“ये तो दुरूस्त है लेकिन फिल्मों में नेक आदमियों की ज़रूरत ही कहाँ होती है!”
“क्यों?”
“दुनिया में दो क़िस्म के इंसान हैं। एक क़िस्म उन इंसानों की है जो अपने ज़ख़्मों से दर्द का अंदाज़ा करते हैं। दूसरी क़िस्म उनकी है जो दूसरों के ज़ख़्म देख कर दर्द का अंदाज़ा करते हैं। तुम्हारा क्या ख़याल है
कौन सी क़िस्म के इंसान ज़ख़्म के दर्द और उसकी तह की जलन को सही तौर पर महसूस करते हैं।”


उसने कुछ देर सोचने के बाद जवाब दिया
“वो जिनके ज़ख़्म लगे होते हैं।”
मैंने कहा
“बिलकुल दुरुस्त। फिल्मों में असल की अच्छी नक़ल वही उतार सकता है जिसे असल की वाक़फ़ियत हो। नाकाम मोहब्बत में दिल कैसे टूटता है


ये नाकाम मोहब्बत ही अच्छी तरह बता सकता है। वो औरत जो पाँच वक़्त जानमाज़ बिछा कर नमाज़ पढ़ती है और इश्क़-ओ-मोहब्बत को सुअर के बराबर समझती है। कैमरे के सामने किसी मर्द के साथ इज़हार-ए-मोहब्बत क्या ख़ाक करेगी!”
उसने फिर सोचा
“इसका मतलब ये हुआ कि फ़िल्म लाईन में दाख़िल होने से पहले औरत को सब चीज़ें जाननी चाहिऐं।”
मैंने कहा


“ये ज़रूरी नहीं। फ़िल्म लाईन में आकर भी वो चीज़ें जान सकती है।”
उसने मेरी बात पर ग़ौर न किया और जो पहला सवाल किया था
फिर इसे दुहराया
“सईद साहब और नरायन साहब कैसे आदमी हैं?”


“तुम तफ़सील से पूछना चाहती हो?”
“तफ़सील से आपका क्या मतलब?”
“ये कि दोनों में से आपके लिए कौन बेहतर रहेगा!”
जानकी को मेरी ये बात नागवार गुज़री।


“कैसी बातें करते हैं आप?”
“जैसी तुम चाहती हो।”
“हटाईए भी।” ये कह वो मुस्कुराई। “मैं अब आपसे कुछ नहीं पूछूंगी।”
मैंने मुस्कुराते हुए कहा


“जब पूछोगी तो मैं नरायन की सिफ़ारिश करूंगा।”
“क्यों?”
“इसलिए कि वो सईद के मुक़ाबले में बेहतर इंसान है।”
मेरा अब भी यही ख़याल है। सईद शायर है


एक बहुत बेरहम क़िस्म का शायर। मुर्ग़ी पकड़ेगा तो ज़बह करने की बजाय उसकी गर्दन मरोड़ देगा। गर्दन मरोड़ कर उसके पर नोचेगा। पर नोचने के बाद उसकी यख़नी निकालेगा। यख़नी पी कर और हड्डियां चबा कर वो बड़े आराम और सुकून से एक कोने में बैठ कर उस मुर्ग़ी की मौत पर एक नज़्म लिखेगा जो उसके आँसूओं में भीगी होगी।
शराब पीएगा तो कभी बहकेगा नहीं। मुझे इससे बहुत तकलीफ़ होती है क्योंकि शराब का मतलब ही फ़ौत हो जाता है।
सुबह बहुत आहिस्ता आहिस्ता बिस्तर पर से उठेगा। नौकर चाय की प्याली बना कर लाएगा। अगर रात की बची हुई रम सिरहाने पड़ी है तो उसे चाय में उंडेल लेगा और उस मिक्सचर को एक एक घूँट करके ऐसे पीएगा जैसे उसमें ज़ाइक़े की कोई हिस ही नहीं।
बदन पर कोई फोड़ा निकला है। ख़तरनाक शक्ल इख़्तियार कर गया है


मगर मजाल है जो वो उस की तरफ़ मुतवज्जा हो। पीप निकल रही है
गल सड़ गया है
नासूर बनने का ख़तरा है
लेकिन सईद कभी किसी डाक्टर के पास नहीं जाएगा।


आप उससे कुछ कहेंगे तो ये जवाब मिलेगा
“अक्सर औक़ात बीमारियां इंसान की जुज़्व-ए-बदन हो जाती हैं। जब मुझे ये ज़ख़्म तकलीफ़ नहीं देता तो ईलाज की क्या ज़रूरत है।” और ये कहते हुए वो ज़ख़्म की तरफ़ इस तरह देखेगा जैसे कोई अच्छा शे’र नज़र आगया है।
ऐक्टिंग वो सारी उम्र नहीं कर सकेगा
इसलिए कि वो लतीफ़ जज़्बात से क़रीब क़रीब आरी है। मैंने उसे एक फ़िल्म में देखा जो हीरोइन के गानों के बाइ’स बहुत मक़बूल हुआ था।


एक जगह उसने अपनी महबूबा का हाथ अपने हाथ में लेकर मोहब्बत का इज़हार करना था। ख़ुदा की क़सम उसने हीरोइन का हाथ कुछ इस तरह अपने हाथ में लिया जैसे कुत्ते का पंजा पकड़ा जाता है।
मैं उससे कई बार कह चुका हूँ ऐक्टर बनने का ख़याल अपने दिमाग़ से निकाल दो
अच्छे शायर हो
घर बैठो और नज़्में लिखा करो। मगर उसके दिमाग़ पर अभी तक ऐक्टिंग की धुन सवार है।


नरायन मुझे बहुत पसंद है। स्टूडियो की ज़िंदगी के जो उसूल उसने अपने लिए वज़ा कर रखे हैं
मुझे अच्छे लगते हैं।
(1) ऐक्टर जब तक ऐक्टर है
उसे शादी नहीं करनी चाहिए। शादी करले तो फ़ौरन फ़िल्म को तलाक़ दे कर दूध दही की दुकान खोल ले। अगर मशहूर ऐक्टर रहा तो काफ़ी आमदनी हो जाया करेगी।


(2) कोई ऐक्ट्रस तुम्हें भय्या या भाई साहब कहे तो फ़ौरन उसके कान में कहो
आप की अंगिया का साइज़ क्या है।
(3) किसी ऐक्ट्रस पर अगर तुम्हारी तबीयत आगई है तो तमहीदें बांधने में वक़्त ज़ाए न करो। उससे तख़्लिए में मिलो और कहो कि मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ
इसका यक़ीन न आए तो पूरी जीब बाहर निकाल कर दिखा दो।


(4) अगर कोई ऐक्ट्रस तुम्हारे हिस्से में आजाए तो उसकी आमदनी में से एक पैसा भी न लो। एक्ट्रसों के शौहरों और भाईयों के लिए ये पैसा हलाल है।
(5) इस बात का ख़याल रखना कि ऐक्ट्रस के बतन से तुम्हारी कोई औलाद न हो। स्वराज मिलने के बाद अलबत्ता तुम इस क़िस्म की औलाद पैदा कर सकते हो।
(6) याद रखो कि ऐक्टर की भी आ’क़िबत होती है। उसे रेज़र और कंघी से संवारने के बजाय कभी कभी ग़ैर मोहज़्ज़ब तरीक़े से भी संवारने की कोशिश किया करो
मिसाल के तौर पर कोई नेक काम करके।


(7) स्टूडियो में सब से ज़्यादा एहतिराम पठान चौकीदार का करो। सुबह स्टूडियो में आते वक़्त उसे सलाम करने से तुम्हें फ़ायदा होगा। यहां नहीं तो दूसरी दुनिया में
जहां फ़िल्म कंपनियां नहीं होंगी।
(8) शराब और ऐक्ट्रस की आ’दत हर्गिज़ न डालो। बहुत मुम्किन है किसी रोज़ कांग्रेस गर्वनमेंट लहर में आकर ये दोनों चीज़ें ममनूअ क़रार दे।
(9) सौदागर


मुसलमान सौदागर हो सकता है लेकिन ऐक्टर हिंदू ऐक्टर
या मुस्लिम ऐक्टर नहीं हो सकता।
(10) झूट न बोलो।
ये सब बातें ‘नरायन के दस अहकाम’ के उनवान तले उसने अपनी एक नोटबुक में लिख रखी हैं जिन से उसके कैरेक्टर का बख़ूबी अंदाज़ा हो सकता है। लोग कहते हैं कि वो इन सब पर अमल नहीं करता। मगर ये हक़ीक़त नहीं। सईद और नरायन के मुतअ’ल्लिक़ जो मेरे ख़यालात थे


मैंने जानकी के पूछे बग़ैर इशारतन बता दिए और आख़िर में उससे साफ़ लफ़्ज़ों में कह दिया कि अगर तुम इस लाईन में आगईं तो किसी न किसी मर्द का सहारा तुम्हें लेना पड़ेगा। नरायन के मुतअ’ल्लिक़ मेरा ख़याल है कि अच्छा दोस्त साबित होगा।
मेरा मशवरा उसने सुन लिया और बंबई चली गई। दूसरे रोज़ ख़ुश ख़ुश वापस आई क्योंकि नरायन ने अपने स्टूडियो में एक साल के लिए पाँच सौ रुपये माहवार पर उसे मुलाज़िम करा दिया था। ये मुलाज़मत उसे कैसी मिली
देर तक उसके मुतअल्लिक़ बातें हुईं। जब और कुछ सुनने को न रहा तो मैंने उससे पूछा
“सईद और नरायन


दोनों से तुम्हारी मुलाक़ात हुई
इनमें से किसने तुम को ज़यादा पसंद किया?”
जानकी के होंटों पर हल्की मुस्कुराहट पैदा हुई। लग़्ज़िश भरी निगाहों से मुझे देखते हुए उसने कहा
“सईद साहब!” ये कह कर वह एक दम संजीदा हो गई। “सआदत साहब


आपने क्यों इतने पुल बांधे थे। नरायन की तारीफों के?”
मैंने पूछा
“क्यों”
“बड़ा ही वाहीयात आदमी है। शाम को बाहर कुर्सियां बिछा कर सईद साहब और वो शराब पीने के लिए बैठे तो बातों बातों में मैंने नरायन भय्या कहा। अपना मुँह मेरे कान के पास लाकर पूछा



“तुम्हारी अंगिया का साइज़ क्या है।”
“भगवान जानता है
मेरे तन-बदन में तो आग ही लग गई


कैसा लच्चर आदमी है।” जानकी के माथे पर पसीना आगया।
मैं ज़ोर ज़ोर से हँसने लगा।
उसने तेज़ी से कहा
“आप क्यों हंस रहे हैं?”


“उसकी बेवक़ूफ़ी पर।” ये कह कर मैंने हंसना बंद कर दिया।
थोड़ी देर नरायन को बुरा-भला कहने के बाद जानकी ने अ’ज़ीज़ के मुतअ’ल्लिक़ फ़िक्रमंद लहजे में बातें शुरू करदीं। कई दिनों से उसका ख़त नहीं आया था। इसलिए तरह तरह के ख़याल उसे सता रहे थे। कहीं उन्हें फिर ज़ुकाम न होगया हो। अंधाधुंद साईकल चलाते हैं
कहीं हादसा ही न होगया हो।
पूना ही न आरहे हों


क्योंकि जानकी को रुख़सत करते वक़्त उन्होंने कहा था एक रोज़ में चुपचाप तुम्हारे पास चला आऊँगा।
बातें करने के बाद उसका तरद्दुद कम हुआ तो उसने अ’ज़ीज़ की तारीफ़ें शुरू करदीं। घर में बच्चों का बहुत ख़याल रखते हैं। हर रोज़ सुबह उनको वरज़िश कराते हैं और नहला-धुला कर स्कूल छोड़ने जाते हैं। बीवी बिल्कुल फूहड़ है
इसलिए रिश्तेदारों से सारा रख रखाव ख़ुद उन्ही को करना पड़ता है।
एक दफ़ा जानकी को टाईफाइड होगया था तो बीस दिन तक मुतवातिर नर्सों की तरह उसकी तीमारदारी करते रहे


वग़ैरा वग़ैरा।
दूसरे रोज़ मुनासिब-ओ-मौज़ूं अलफ़ाज़ में मेरा शुक्रिया अदा करने के बाद वो बंबई चली गई। जहां उस के लिए एक नई और चमकीली दुनिया के दरवाज़े खुल गए थे।
पूना में मुझे तक़रीबन दो महीने कहानी का मंज़र नामा तैयार करने में लगे। हक़्क़-ए-ख़िदमत वसूल करके मैंने बंबई का रुख़ किया जहां मुझे एक नया कंट्रैक्ट मिल रहा था।
मैं सुबह पाँच बजे के क़रीब अंधेरी पहुंचा जहां एक मामूली बंगले में सईद और नरायन दोनों इकट्ठे रहते थे। बरामदे में दाख़िल हुआ तो दरवाज़ा बंद पाया। मैंने सोचा सो रहे होंगे


तकलीफ़ नहीं देना चाहिए। पिछली तरफ़ एक दरवाज़ा है जो नौकरों के लिए अक्सर खुला रहता है।
मैं उसमें से अंदर दाख़िल हुआ। बावर्चीख़ाना और साथ वाला कमरा जिसमें खाना खाया जाता है
हस्ब-ए-मा’मूल बेहद ग़लीज़ थे। सामने वाला कमरा मेहमानों के लिए मख़सूस था। मैंने उसका दरवाज़ा खोला और अंदर दाख़िल हुआ। कमरे में दो पलंग थे। एक पर सईद और उसके साथ कोई और लिहाफ़ ओढ़े सो रहा था।
मुझे सख़्त नींद आरही थी। दूसरे पलंग पर मैं कपड़े उतारे बग़ैर लेट गया। पायेंती पर कम्बल पड़ा था


ये मैंने टांगों पर डाल लिया। सोने का इरादा ही कर रहा था कि सईद के पीछे से एक चूड़ियों वाला हाथ निकला और पलंग के पास रखी हुई कुर्सी की तरफ़ बढ़ने लगा। कुर्सी पर लट्ठे की सफ़ेद शलवार लटक रही थी।
मैं उठ कर बैठ गया। सईद के साथ जानकी लेटी थी। मैंने कुर्सी पर से शलवार उठाई और उसकी तरफ़ फेंक दी।
नरायन के कमरे में जा कर मैंने उसे जगाया। रात के दो बजे उसकी शूटिंग ख़त्म हुई थी
मुझे अफ़सोस हुआ कि ख़्वाह-मख़्वाह उस ग़रीब को जगाया लेकिन वो मुझ से बातें करना चाहता था। किसी ख़ास मौज़ू पर नहीं। मुझे अचानक देख कर बक़ौल उसके वो कुछ बेहूदा बकवास करना चाहता था


चुनांचे सुबह नौ बजे तक हम बेहूदा बकवास में मशग़ूल रहे जिसमें बार बार जानकी का भी ज़िक्र आया।
जब मैंने अंगिया वाली बात छेड़ी तो नरायन बहुत हंसा। हंसते हंसते उसने कहा सब से मज़ेदार बात तो ये है कि जब मैंने उसके कान के साथ मुँह लगा कर पूछा
तुम्हारी अंगिया का साइज़ क्या है तो उसने बता दिया कहा
“चौबीस।”


इसके बाद अचानक उसे मेरे सवाल की बेहूदगी का एहसास हुआ। मुझे कोसना शुरू कर दिया। “बिल्कुल बच्ची है। जब कभी मुझ से मुडभेड़ होती है तो सीने पर दुपट्टा रख लेती है लेकिन मंटो!
बड़ी वफ़ादार औरत है।”
मैंने पूछा
“ये तुम ने कैसे जाना?”


नरायन मुस्कुराया
“औरत
जो एक बिल्कुल अजनबी आदमी को अपनी अंगिया का सही साइज़ बता दे
धोकेबाज़ हरगिज़ नहीं हो सकती।”


अ’जीब-ओ-ग़रीब मंतिक़ थी। लेकिन नरायन ने मुझे बड़ी संजीदगी से यक़ीन दिलाया कि जानकी बड़ी पुरख़ुलूस औरत है। उसने कहा
“मंटो
तुम्हें मालूम नहीं सईद की कितनी ख़िदमत कर रही है। ऐसे इंसान की ख़बरगीरी जो परले दर्जे का बेपर्वा हो
आसान काम नहीं। लेकिन ये मैं जानता हूँ कि जानकी इस मुश्किल को बड़ी आसानी से निभा रही है।


“औरत होने के साथ साथ वो एक पुरख़ुलूस और ईमानदार आया भी है। सुबह उठ कर इस ख़र ज़ात को जगाने में आध घंटा सर्फ़ करती है। उस के दाँत साफ़ कराती है
कपड़े पहनाती है
नाश्ता कराती है और रात को जब वो रम पी कर बिस्तर पर लेटता है तो सब दरवाज़े बंद करके उसके साथ लेट जाती है और जब स्टूडियो में किसी से मिलती है तो सिर्फ़ सईद की बातें करती हैं।
“सईद साहब बड़े अच्छे आदमी हैं। सईद साहब बहुत अच्छा गाते हैं। सईद साहब का वज़न बढ़ गया है। सईद साहब का पुल ओवर तैयार होगया है। सईद साहब के लिए पेशावर से पोठोहारी सैंडल मंगवाई है।


सईद साहब के सर में हल्का हल्का दर्द है। स्प्रो लेने जा रही हूँ। सईद साहब ने आज मुझ पर एक शे’र कहा। और जब मुझसे मुडभेड़ होती है तो अंगिया वाली बात याद करके त्यौरी चढ़ा लेती है।”
मैं तक़रीबन दस दिन सईद और नरायन का मेहमान रहा। इस दौरान में सईद ने जानकी के मुतअ’ल्लिक़ मुझसे कोई बात नहीं की। शायद इसलिए कि उनका मुआ’मला काफ़ी पुराना हो चुका था। जानकी से अलबत्ता काफ़ी बातें हुईं।
वो सईद से बहुत ख़ुश थी लेकिन उसे उसकी बेपर्वा तबीयत का बहुत गिला था। “सआदत साहब! अपनी सेहत का बिल्कुल ही ख़याल नहीं रखते। बहुत बे परवाह हैं। हर वक़्त सोचना
जो हुआ इस लिए किसी बात का ख़याल ही नहीं रहता। आप हँसने लगे


लेकिन मुझे हर रोज़ उनसे पूछना पड़ता है कि आप संडास गए थे या नहीं।”
नरायन ने मुझसे जो कुछ कहा था
ठीक निकला। जानकी हर वक़्त सईद की ख़बरगीरी में मुनहमिक रहती थी। मैं दस दिन अंधेरी के बंगले में रहा। उन दस दिनों में जानकी की बेलौस ख़िदमत ने मुझे बहुत मुतअस्सिर किया। लेकिन ये ख़याल बार बार आता रहा कि अ’ज़ीज़ को क्या हुआ। जानकी को उसका भी तो बहुत ख़याल रहता है। क्या सईद को पा कर वह उसको भूल चुकी थी।
मैंने इस सवाल का जवाब जानकी ही से पूछ लिया होता अगर मैं कुछ दिन और वहां ठहरता। जिस कंपनी से मेरा कंट्रैक्ट होने वाला था


उसके मालिक से मेरी किसी बात पर चख़ होगई और मैं दिमाग़ी तकद्दुर दूर करने के लिए पूना चला गया। दो ही दिन गुज़रे होंगे कि बंबई से अ’ज़ीज़ का तार आया कि मैं आरहा हूँ।
पाँच छः घंटे के बाद वो मेरे पास था और दूसरे रोज़ सुबह-सवेरे जानकी मेरे कमरे पर दस्तक दे रही थी।
अ’ज़ीज़ और जानकी जब एक दूसरे से मिले तो उन्होंने देर से बिछड़े हुए आ’शिक़ मा’शूक़ की सरगर्मी ज़ाहिर न की। मेरे और अ’ज़ीज़ के ता’ल्लुक़ात शुरू से बहुत संजीदा और मतीन रहे हैं
शायद इसी वजह से वो दोनों मो’तदिल रहे।


अ’ज़ीज़ का ख़याल था होटल में उठ जाये लेकिन मेरा दोस्त जिसके यहां मैं ठहरा था आउट डोर शूटिंग के लिए कोल्हापुर गया था
इसलिए मैंने अ’ज़ीज़ और जानकी को अपने पास ही रखा। तीन कमरे थे। एक में जानकी सो सकती थी दूसरे में अ’ज़ीज़।
यूं तो मुझे उन दोनों को एक ही कमरा देना चाहिए था लेकिन अ’ज़ीज़ से मेरी इतनी बेतकल्लुफ़ी नहीं थी। इसके इलावा उसने जानकी से अपने ता’ल्लुक़ को मुझ पर ज़ाहिर भी नहीं किया था।
रात को दोनों सिनेमा देखने चले गए। मैं साथ न गया


इसलिए कि मैं फ़िल्म के लिए एक नई कहानी शुरू करना चाहता था। दो बजे तक मैं जागता रहा। इसके बाद सो गया। एक चाबी मैंने अ’ज़ीज़ को दे दी थी। इसलिए मुझे उनकी तरफ़ से इत्मिनान था।
रात को मैं चाहे बहुत देर तक काम करूं
साढ़े तीन और चार बजे के दरमियान एक दफ़ा ज़रूर जागता हूँ और उठ कर पानी पीता हूँ। हस्ब-ए-आ’दत उस रात को भी मैं पानी पीने के लिए उठा। इत्तफ़ाक़ से जो कमरा मेरा था
या’नी जिसमें मैंने अपना बिस्तर जमाया हुआ था


अ’ज़ीज़ के पास था और उसमें मेरी सुराही पड़ी थी।
अगर मुझे शिद्दत की प्यास न लगी होती तो अ’ज़ीज़ को तकलीफ़ न देता। लेकिन ज़्यादा विस्की पीने के बाइ’स मेरा हलक़ बिल्कुल ख़ुश्क हो रहा था
इसलिए मुझे दस्तक देनी पड़ी। थोड़ी देर बाद दरवाज़ा खुला।
जानकी ने आँखें मलते मलते दरवाज़ा खोला और कहा सईद साहब! और जब मुझे देखा तो एक हल्की सी ‘ओह’ उसके मुँह से निकल गई।


अंदर के पलंग पर अज़ीज़ सो रहा था। मैं बेइख़्तियार मुस्कुराया। जानकी भी मुस्कुराई और उसके तीखे होंट एक कोने की तरफ़ सिकुड़ गए। मैंने पानी की सुराही ली और चला आया।
सुबह उठा तो कमरे में धूआँ जमा था। बावर्चीख़ाने में जा कर देखा तो जानकी काग़ज़ जला जला कर अ’ज़ीज़ के ग़ुस्ल के लिए पानी गर्म कर रही थी। आँखों से पानी बह रहा था।
मुझे देख कर मुस्कुराई और अँगीठी में फूंकें मारते हुई कहने लगी
“अ’ज़ीज़ साहब ठंडे पानी से नहाएँ तो उन्हें ज़ुकाम हो जाता है। मैं नहीं थी पेशावर में तो एक महीना बीमार रहे


और रहते भी क्यों नहीं जब दवा पीनी ही छोड़ दी थी... आपने देखा नहीं कितने दुबले होगए हैं।”
और अ’ज़ीज़ नहा-धो कर जब किसी काम की ग़रज़ से बाहर गया तो जानकी ने मुझसे सईद के नाम तार लिखने के लिए कहा
“मुझे कल यहां पहुंचते ही उन्हें तार भेजना चाहिए था। कितनी ग़लती हुई मुझसे उन्हें बहुत तशवीश होरही होगी।”
उसने मुझसे तार का मज़मून बनवाया जिसमें अपनी बख़ैरीयत पहुंचने की इत्तिला तो थी लेकिन सईद की ख़ैरीयत दरयाफ्त करने का इज़्तिराब ज़्यादा था। इंजेक्शन लगवाने की ताकीद भी थी।


चार रोज़ गुज़र गए। सईद को जानकी ने पाँच तार रवाना किए पर उसकी तरफ़ से कोई जवाब न आया।
बंबई जाने का इरादा कर रही थी कि अचानक शाम को अ’ज़ीज़ की तबीयत ख़राब होगई। मुझसे सईद के नाम एक और तार लिखवा कर वो सारी रात अ’ज़ीज़ की तीमारदारी में मसरूफ़ रही। मामूली बुख़ार था लेकिन जानकी को बेहद तशवीश थी।
मेरा ख़याल है इस तशवीश में सईद की ख़ामोशी का पैदा करदा वो इज़्तिराब भी शामिल था। वो मुझ से इस दौरान में कई बार कह चुकी थी
“सआदत साहिब


मेरा ख़याल है सईद साहिब ज़रूर बीमार हैं वर्ना वो मुझे मेरे तारों और ख़ुतूत का जवाब ज़रूर लिखते।”
पांचवें रोज़ शाम को अ’ज़ीज़ की मौजूदगी में सईद का तार आया जिसमें लिखा था
“मैं बहुत बीमार हूँ
फ़ौरन चली आओ।”


तार आने से पहले जानकी मेरी किसी बात पर बेतहाशा हंस रही थी लेकिन जब उसने सईद की बीमारी की ख़बर सुनी तो एक दम ख़ामोश हो गई। अ’ज़ीज़ को ये ख़ामोशी बहुत नागवार मालूम हुई क्योंकि जब उसने जानकी को मुख़ातिब किया तो उसके लहजे में तेज़ी थी। मैं उठ कर चला गया।
शाम को जब वापस आया तो जानकी और अ’ज़ीज़ कुछ इस तरह अलाहिदा अलाहिदा बैठे थे जैसे उन में काफ़ी झगड़ा हुआ था। जानकी के गालों पर आँसुओं का मैल था। जब मैं कमरे में दाख़िल हुआ तो इधर उधर की बातों के बाद जानकी ने अपना हैंडबैग उठाया और अ’ज़ीज़ से कहा
“मैं जाती हूँ
लेकिन बहुत जल्द वापस आजाऊँगी।” फिर मुझ से मुख़ातिब हुई


“सआदत साहब
इनका ख़याल रखिए
अभी तक बुख़ार दूर नहीं हुआ।”
मैं स्टेशन तक उसके साथ गया। ब्लैक मार्किट से टिकट ख़रीद कर

- सआदत-हसन-मंटो


ये उस ज़माने का ज़िक्र है जब इस जंग का नाम-ओ-निशान भी नहीं था। ग़ालिबन आठ नौ बरस पहले की बात है जब ज़िंदगी में हंगामे बड़े सलीक़े से आते थे। आज कल की तरह नहीं कि बेहंगम तरीक़े पर पै-दर-पै हादिसे बरपा हो रहे हैं
किसी ठोस वजह के बग़ैर।
उस वक़्त मैं चालीस रुपया माहवार पर एक फ़िल्म कंपनी में मुलाज़िम था और मेरी ज़िंदगी बड़े हमवार तरीक़े पर उफ़्तां-ओ-ख़ेज़ां गुज़र रही थी। या’नी सुबह दस बजे स्टूडियो गए। नियाज़ मोहम्मद विलेन की बिल्लियों को दो पैसे का दूध पिलाया। चालू फ़िल्म के लिए चालू क़िस्म के मकालमे लिखे। बंगाली ऐक्ट्रस से जो उस ज़माने में बुलबुल-ए-बंगाल कहलाती थी
थोड़ी देर मज़ाक़ किया और दादा गोरे की जो इस अह्द का सबसे बड़ा फ़िल्म डायरेक्टर था


थोड़ी सी ख़ुशामद की और घर चले आए।
जैसा कि मैं अ’र्ज़ कर चुका हूँ
ज़िंदगी बड़े हमवार तरीक़े पर उफ़्तां-ओ-ख़ेज़ां गुज़र रही थी स्टूडियो का मालिक “हुरमुज़ जी फ्रॉम जी” जो मोटे मोटे लाल गालों वाला मौजी क़िस्म का ईरानी था
एक अधेड़ उम्र की ख़ोजा ऐक्ट्रस की मोहब्बत में गिरफ़्तार था।


हर नौ-वारिद लड़की के पिस्तान टटोल कर देखना उसका शग़ल था। कलकत्ता के बू बाज़ार की एक मुसलमान रंडी थी जो अपने डायरेक्टर
साउंड रिकार्डिस्ट और स्टोरी राईटर तीनों से ब-यक-वक़्त इश्क़ लड़ा रही थी। उस इश्क़ का दर अस्ल मतलब ये था कि न तीनों का इलतिफ़ात उसके लिए ख़ासतौर पर महफ़ूज़ रहे।
“बन की सुंदरी” की शूटिंग चल रही थी। नयाज़ मोहम्मद विलेन की जंगली बिल्लियों को जो उसने ख़ुदा मालूम स्टूडियो के लोगों पर क्या असर पैदा करने के लिए पाल रखी थीं। दो पैसे का दूध पिला कर मैं हर रोज़ उस “बन की सुंदरी” के लिए एक ग़ैर मानूस ज़बान में मकालमे लिखा करता था।
उस फ़िल्म की कहानी क्या थी


प्लाट कैसा था
इसका इल्म जैसा कि ज़ाहिर है
मुझे बिल्कुल नहीं था क्योंकि मैं उस ज़माने में एक मुंशी था जिसका काम सिर्फ़ हुक्म मिलने पर जो कुछ कहा जाये
ग़लत सलत उर्दू में जो डायरेक्टर साहब की समझ में आ जाए


पेंसिल से एक काग़ज़ पर लिख कर देना होता था।
ख़ैर “बन की सुंदरी” की शूटिंग चल रही थी और ये अफ़वाह गर्म थी कि “वैम्प” का पार्ट अदा करने के लिए एक नया चेहरा सेठ हुर्मुज़ जी फ्रॉम जी कहीं से ला रहे हैं। हीरो का पार्ट राजकिशोर को दिया गया था।
राजकिशोर रावलपिंडी का एक ख़ुश शक्ल और सेहत मंद नौजवान था। उसके जिस्म के मुतअ’ल्लिक़ लोगों का ये ख़याल था कि बहुत मर्दाना और सुडौल है। मैंने कई मर्तबा उसके मुतअ’ल्लिक़ ग़ौर किया मगर मुझे उसके जिस्म में जो यक़ीनन कसरती और मुतनासिब था
कोई कशिश नज़र न आई। मगर उसकी वजह ये भी हो सकती है कि मैं बहुत ही दुबला और मरियल क़िस्म का इंसान हूँ और अपने हम जिंसों के मुतअ’ल्लिक़ सोचने का आदी हूँ।


मुझे राजकिशोर से नफ़रत नहीं थी
इसलिए कि मैंने अपनी उम्र में शाज़-ओ-नादिर ही किसी इंसान से नफ़रत की है
मगर वो मुझे कुछ ज़्यादा पसंद नहीं था। इसकी वजह मैं आहिस्ता आहिस्ता आप से बयान करूंगा।
राजकिशोर की ज़बान उसका लब-ओ-लहजा जो ठेट रावलपिंडी का था


मुझे बेहद पसंद था। मेरा ख़याल है कि पंजाबी ज़बान में अगर कहीं ख़ूबसूरत क़िस्म की शीरीनी मिलती है तो रावलपिंडी की ज़बान ही में आपको मिल सकती है। इस शहर की ज़बान में एक अ’जीब क़िस्म की मर्दाना निसाइयत है जिसमें ब-यक-वक़्त मिठास और घुलावट है।
अगर रावलपिंडी की कोई औरत आपसे बात करे तो ऐसा लगता है कि लज़ीज़ आम का रस आपके मुँह में चुवाया जा रहा है। मगर मैं आमों की नहीं राजकिशोर की बात कर रहा हूँ जो मुझे आम से बहुत कम अ’ज़ीज़ था।
राजकिशोर जैसा कि मैं अ’र्ज़ कर चुका हूँ एक ख़ुश शक्ल और सेहतमंद नौजवान था। यहां तक बात ख़त्म हो जाती तो मुझे कोई ए’तराज़ न होता मगर मुसीबत ये है कि उसे या’नी किशोर को ख़ुद अपनी सेहत और अपने ख़ुश शक्ल होने का एहसास था। ऐसा एहसास जो कम अज़ कम मेरे लिए नाक़ाबिल-ए-क़बूल था।
सेहतमंद होना बड़ी अच्छी चीज़ है मगर दूसरों पर अपनी सेहत को बीमारी बना कर आ’इद करना बिल्कुल दूसरी चीज़ है। राजकिशोर को यही मर्ज़ लाहक़ था कि वो अपनी सेहत अपनी तंदुरुस्ती


अपने मुतनासिब और सुडौल आ’ज़ा की ग़ैर ज़रूरी नुमाइश के ज़रिये हमेशा दूसरे लोगों को जो उस से कम सेहतमंद थे
मरऊब करने की कोशिश में मसरूफ़ रहता था।
इसमें कोई शक नहीं कि मैं दाइमी मरीज़ हूँ
कमज़ोर हूँ


मेरे एक फेफड़े में हवा खींचने की ताक़त बहुत कम है मगर ख़ुदा वाहिद शाहिद है कि मैंने आज तक इस कमज़ोरी का कभी प्रोपेगंडा नहीं किया
हालाँकि मुझे इसका पूरी तरह इल्म है कि इंसान अपनी कमज़ोरियों से उसी तरह फ़ायदा उठा सकता है जिस तरह कि अपनी ताक़तों से उठा सकता है मगर ईमान है कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए।
ख़ूबसूरती मेरे नज़दीक वो ख़ूबसूरती है जिसकी दूसरे बुलंद आवाज़ में नहीं बल्कि दिल ही दिल में तारीफ़ करें।
मैं उस सेहत को बीमारी समझता हूँ जो निगाहों के साथ पत्थर बन कर टकराती रहे। राजकिशोर में वो तमाम ख़ूबसूरतियाँ मौजूद थीं जो एक नौजवान मर्द में होनी चाहिऐं। मगर अफ़सोस है कि उसे उन ख़ूबसूरतियों का निहायत ही भोंडा मुज़ाहिरा करने की आदत थी।


आपसे बात कर रहा है और अपने एक बाज़ू के पट्ठे अकड़ा रहा है
और ख़ुद ही दाद दे रहा है। निहायत ही अहम गुफ़्तुगू हो रही है या’नी स्वराज का मसला छिड़ा है और वो अपने खादी के कुर्ते के बटन खोल कर अपने सीने की चौड़ाई का अंदाज़ा कर रहा है।
मैंने खादी के कुरते का ज़िक्र किया तो मुझे याद आया कि राजकिशोर पक्का कांग्रेसी था
हो सकता है वो इसी वजह से खादी के कपड़े पहनता हो


मगर मेरे दिल में हमेशा इस बात की खटक रही है कि उसे अपने वतन से इतना प्यार नहीं था जितना कि उसे अपनी ज़ात से था।
बहुत लोगों का ख़याल था कि राजकिशोर के मुतअ’ल्लिक़ जो मैंने राय क़ायम की है
सरासर ग़लत है इसलिए कि स्टूडियो और स्टूडियो के बाहर हर शख़्स उसका मद्दाह था। उसके जिस्म का
उसके ख़यालात का


उसकी सादगी का
उसकी ज़बान का जो ख़ास रावलपिंडी की थी और मुझे भी पसंद थी।
दूसरे एक्टरों की तरह वो अलग-थलग रहने का आदी नहीं था। कांग्रेस पार्टी का कोई जलसा हो तो राजकिशोर को आप वहां ज़रूर पाएंगे... कोई अदबी मीटिंग हो रही है तो राजकिशोर वहां ज़रूर पहुंचेगा। अपनी मसरूफ़ ज़िंदगी में से वो अपने हमसायों और मामूली जान पहचान के लोगों के दुख दर्द में शरीक होने के लिए भी वक़्त निकाल लिया करता था।
सब फ़िल्म प्रोडयूसर उसकी इज़्ज़त करते थे क्योंकि उसके कैरेक्टर की पाकीज़गी का बहुत शोहरा था। फ़िल्म प्रोडयूसरों को छोड़िए


पब्लिक को भी इस बात का अच्छी तरह इल्म था कि राजकिशोर एक बहुत बुलंद किरदार का मालिक है।
फ़िल्मी दुनिया में रह कर किसी शख़्स का गुनाह के धब्बों से पाक रहना बहुत बड़ी बात है
यूं तो राजकिशोर एक कामयाब हीरो था मगर उसकी ख़ूबी ने उसे एक बहुत ही ऊंचे रुतबे पर पहुंचा दिया था।
नागपाड़े में जब शाम को पान वाले की दुकान पर बैठता था तो अक्सर ऐक्टर एक्ट्रसों की बातें हुआ करती थीं। क़रीब क़रीब हर ऐक्टर और ऐक्ट्रस के मुतअ’ल्लिक़ कोई न कोई स्कैंडल मशहूर था मगर राजकिशोर का जब भी ज़िक्र आता


शामलाल पनवाड़ी बड़े फ़ख़्रिया लहजे में कहा करता
“मंटो साहब! राज भाई ही ऐसा ऐक्टर है जो लंगोट का पक्का है।”
मालूम नहीं शामलाल उसे राज भाई कैसे कहने लगा था। उसके मुतअ’ल्लिक़ मुझे इतनी ज़्यादा हैरत नहीं थी
इसलिए कि राज भाई की मामूली से मामूली बात भी एक कारनामा बन कर लोगों तक पहुंच जाती थी।


मसलन बाहर के लोगों को उसकी आमदनी का पूरा हिसाब मालूम था। अपने वालिद को माहवार ख़र्च क्या देता है
यतीमख़ानों के लिए कितना चंदा देता है
उसका अपना जेब ख़र्च क्या है
ये सब बातें लोगों को इस तरह मालूम थीं जैसे उन्हें अज़बर याद कराई गई हैं।


शामलाल ने एक रोज़ मुझे बताया कि राज भाई का अपनी सौतेली माँ के साथ बहुत ही अच्छा सुलूक है। उस ज़माने में जब आमदनी का कोई ज़रिया नहीं था
बाप और उसकी नई बीवी उसे तरह तरह के दुख देते थे। मगर मर्हबा है राज भाई का कि उसने अपना फ़र्ज़ पूरा किया और उनको सर आँखों पर जगह दी। अब दोनों छप्पर खटों पर बैठे राज करते हैं। हर रोज़ सुबह-सवेरे राज अपनी सौतेली माँ के पास जाता है और उसके चरण छूता है। बाप के सामने हाथ जोड़ के खड़ा हो जाता है और जो हुक्म मिले
फ़ौरन बजा लाता है।
आप बुरा न मानिएगा


मुझे राजकिशोर की तारीफ़-ओ-तौसीफ़ सुन कर हमेशा उलझन सी होती है
ख़ुदा जाने क्यों?
मैं जैसा कि पहले अ’र्ज़ कर चुका हूँ
मुझे उससे हाशा-ओ-कल्ला नफ़रत नहीं थी। उसने मुझे कभी ऐसा मौक़ा नहीं दिया था


और फिर उस ज़माने में जब मुंशियों की कोई इज़्ज़त-ओ-वक़अ’त ही नहीं थी वो मेरे साथ घंटों बातें किया करता था। मैं नहीं कह सकता
क्या वजह थी
लेकिन ईमान की बात है कि मेरे दिल-ओ-दिमाग़ के किसी अंधेरे कोने में ये शक बिजली की तरह कौंद जाता कि राज बन रहा है... राज की ज़िंदगी बिल्कुल मस्नूई है। मगर मुसीबत ये है कि मेरा कोई हमख़याल नहीं था। लोग देवताओं की तरह उसकी पूजा करते थे और मैं दिल ही दिल में उससे कुढ़ता था।
राज की बीवी थी


राज के चार बच्चे थे
वो अच्छा ख़ाविंद और अच्छा बाप था। उसकी ज़िंदगी पर से चादर का कोई कोना भी अगर हटा कर देखा जाता तो आपको कोई तारीक चीज़ नज़र न आती। ये सब कुछ था
मगर इसके होते हुए भी मेरे दिल में शक की गुदगुदी होती ही रहती थी।
ख़ुदा की क़सम मैं ने कई दफ़ा अपने आपको ला’नत मलामत की कि तुम बड़े ही वाहियात हो कि ऐसे अच्छे इंसान को जिसे सारी दुनिया अच्छा कहती है और जिसके मुतअ’ल्लिक़ तुम्हें कोई शिकायत भी नहीं


क्यों बेकार शक की नज़रों से देखते हो। अगर एक आदमी अपना सुडौल बदन बार बार देखता है तो ये कौन सी बुरी बात है। तुम्हारा बदन भी अगर ऐसा ही ख़ूबसूरत होता तो बहुत मुम्किन है कि तुम भी यही हरकत करते।
कुछ भी हो
मगर मैं अपने दिल-ओ-दिमाग़ को कभी आमादा न कर सका कि वो राजकिशोर को उसी नज़र से देखे जिससे दूसरे देखते हैं। यही वजह है कि मैं दौरान-ए-गुफ़्तुगू में अक्सर उससे उलझ जाया करता था। मेरे मिज़ाज के ख़िलाफ़ कोई बात की और मैं हाथ धो कर उसके पीछे पड़ गया लेकिन ऐसी चिपक़लिशों के बाद हमेशा उसके चेहरे पर मुस्कुराहट और मेरे हलक़ में एक नाक़ाबिल-ए-बयान तल्ख़ी रही
मुझे इससे और भी ज़्यादा उलझन होती थी।


इसमें कोई शक नहीं कि उसकी ज़िंदगी में कोई स्कैंडल नहीं था। अपनी बीवी के सिवा किसी दूसरी औरत का मैला या उजला दामन उससे वाबस्ता नहीं था। मैं ये भी तस्लीम करता हूँ कि वो सब एक्ट्रसों को बहन कह कर पुकारता था और वो भी उसे जवाब में भाई कहती थीं। मगर मेरे दिल ने हमेशा मेरे दिमाग़ से यही सवाल किया कि ये रिश्ता क़ायम करने की ऐसी अशद ज़रूरत ही क्या है।
बहन-भाई का रिश्ता कुछ और है मगर किसी औरत को अपनी बहन कहना इस अंदाज़ से जैसे ये बोर्ड लगाया जा रहा है कि सड़क बंद है या यहां पेशाब करना मना है
बिल्कुल दूसरी बात है।
अगर तुम किसी औरत से जिंसी रिश्ता क़ायम नहीं करना चाहते तो इसका ऐ’लान करने की ज़रूरत ही क्या है। अगर तुम्हारे दिल में तुम्हारी बीवी के सिवा और किसी औरत का ख़याल दाख़िल नहीं हो सकता तो इसका इश्तिहार देने की क्या ज़रूरत है। यही और इसी क़िस्म की दूसरी बातें चूँकि मेरी समझ में नहीं आती थीं


इसलिए मुझे अ’जीब क़िस्म की उलझन होती थी।
ख़ैर!
“बन की सुंदरी” की शूटिंग चल रही थी। स्टूडियो में ख़ासी चहल पहल थी। हर रोज़ एक्स्ट्रा लड़कियां आती थीं जिनके साथ हमारा दिन हंसी-मज़ाक़ में गुज़र जाता था।
एक रोज़ नियाज़ मोहम्मद विलेन के कमरे में मेकअप मास्टर जिसे हम उस्ताद कहते थे


ये ख़बर ले कर आया कि वैम्प के रोल के लिए जो नई लड़की आने वाली थी
आ गई है और बहुत जल्द उसका काम शुरू हो जाएगा।
उस वक़्त चाय का दौर चल रहा था
कुछ उसकी हरारत थी


कुछ इस ख़बर ने हमको गर्मा दिया। स्टूडियो में एक नई लड़की का दाख़िला हमेशा एक ख़ुशगवार हादिसा हुआ करता है
चुनांचे हम सब नियाज़ मोहम्मद विलेन के कमरे से निकल कर बाहर चले आए ताकि उसका दीदार किया जाये।
शाम के वक़्त जब सेठ हुर्मुज़ जी फ्रॉम जी ऑफ़िस से निकल कर ईसा तबलची की चांदी की डिबिया से दो ख़ुशबूदार तंबाकू वाले पान अपने चौड़े कल्ले में दबा कर बिलियर्ड खेलने के कमरे का रुख़ कर रहे थे कि हमें वो लड़की नज़र आई।
साँवले रंग की थी


बस मैं सिर्फ़ इतना ही देख सका क्योंकि वो जल्दी जल्दी सेठ के साथ हाथ मिला कर स्टूडियो की मोटर में बैठ कर चली गई... कुछ देर के बाद मुझे नियाज़ मोहम्मद ने बताया कि उस औरत के होंट मोटे थे। वो ग़ालिबन सिर्फ़ होंट ही देख सका था। उस्ताद जिसने शायद इतनी झलक भी न देखी थी
सर हिला कर बोला
“हूँह... कंडम...” या’नी बकवास है।
चार-पाँच रोज़ गुज़र गए मगर ये नई लड़की स्टूडियो में न आई। पांचवें या छट्ठे रोज़ जब मैं गुलाब के होटल से चाय पी कर निकल रहा था


अचानक मेरी और उसकी मुडभेड़ होगई।
मैं हमेशा औरतों को चोर आँख से देखने का आदी हूँ। अगर कोई औरत एक दम मेरे सामने आजाए तो मुझे उसका कुछ भी नज़र नहीं आता। चूँकि ग़ैर मुतवक़्क़े तौर पर मेरी उसकी मुडभेड़ हुई थी
इस लिए मैं उसकी शक्ल-ओ-शबाहत के मुतअ’ल्लिक़ कोई अंदाज़ा न कर सका
अलबत्ता पांव मैंने ज़रूर देखे जिनमें नई वज़ा के स्लीपर थे।


लेबोरेटरी से स्टूडियो तक जो रविश जाती है
उस पर मालिकों ने बजरी बिछा रखी है। उस बजरी में बेशुमार गोल गोल बट्टियां हैं जिनपर से जूता बार बार फिसलता है। चूँकि उसके पांव में खुले स्लीपर थे
इसलिए चलने में उसे कुछ ज़्यादा तकलीफ़ महसूस हो रही थी।
उस मुलाक़ात के बाद आहिस्ता आहिस्ता मिस नीलम से मेरी दोस्ती होगई। स्टूडियो के लोगों को तो ख़ैर इसका इल्म नहीं था मगर उसके साथ मेरे तअ’ल्लुक़ात बहुत ही बेतकल्लुफ़ थे। उसका असली नाम राधा था।


मैंने जब एक बार उससे पूछा कि तुमने इतना प्यारा नाम क्यों छोड़ दिया तो उसने जवाब दिया
“यूंही।” मगर फिर कुछ देर के बाद कहा
“ये नाम इतना प्यारा है कि फ़िल्म में इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।”
आप शायद ख़याल करें कि राधा मज़हबी ख़याल की औरत थी। जी नहीं


उसे मज़हब और उसके तवह्हुमात से दूर का भी वास्ता नहीं था। लेकिन जिस तरह मैं हर नई तहरीर शुरू करने से पहले काग़ज़ पर बिसमिल्लाह के आ’दाद ज़रूर लिखता हूँ
उसी तरह शायद उसे भी ग़ैर-इरादी तौर पर राधा के नाम से बेहद प्यार था।
चूँकि वो चाहती थी कि उसे राधा न कहा जाये
इसलिए मैं आगे चल कर उसे नीलम ही कहूंगा।


नीलम बनारस की एक तवाइफ़ज़ादी थी। वहीं का लब-ओ-लहजा जो कानों को बहुत भला मालूम होता था। मेरा नाम सआदत है मगर वो मुझे हमेशा सादिक़ ही कहा करती थी। एक दिन मैंने उससे कहा
“नीलम! मैं जानता हूँ तुम मुझे सआदत कह सकती हो
फिर मेरी समझ में नहीं आता कि तुम अपनी इस्लाह क्यों नहीं करतीं।” ये सुन कर उसके साँवले होंटों पर जो बहुत ही पतले थे एक ख़फ़ीफ़ सी मुस्कुराहट नुमूदार हुई और उसने जवाब दिया
“जो ग़लती मुझसे एक बार हो जाये


मैं उसे ठीक करने की कोशिश नहीं करती।”
मेरा ख़याल है बहुत कम लोगों को मालूम है कि वो औरत जिसे स्टूडियो के तमाम लोग एक मामूली ऐक्ट्रस समझते थे
अ’जीब-ओ-ग़रीब क़िस्म की इन्फ़िरादियत की मालिक थी। उसमें दूसरी एक्ट्रसों का सा ओछापन बिल्कुल नहीं था। उसकी संजीदगी जिसे स्टूडियो का हर शख़्स अपनी ऐनक से ग़लत रंग में देखता था
बहुत प्यारी चीज़ थी।


उसके साँवले चेहरे पर जिसकी जिल्द बहुत ही साफ़ और हमवार थी
ये संजीदगी
ये मलीह मतानत मौज़ूं-ओ-मुनासिब ग़ाज़ा बन गई थी। इसमें कोई शक नहीं कि इससे उसकी आँखों में उसके पतले होंटों के कोनों में
ग़म की बेमालूम तल्ख़ियां घुल गई थीं मगर ये वाक़िया है कि उस चीज़ ने उसे दूसरी औरतों से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ कर दिया था।


मैं उस वक़्त भी हैरान था और अब भी वैसा ही हैरान हूँ कि नीलम को “बन की सुंदरी” में वैम्प के रोल के लिए क्यों मुंतख़ब किया गया? इसलिए कि उसमें तेज़ी-ओ-तर्रारी नाम को भी नहीं थी।
जब वो पहली मर्तबा अपना वाहियात पार्ट अदा करने के लिए तंग चोली पहन कर सेट पर आई तो मेरी निगाहों को बहुत सदमा पहुंचा। वो दूसरों का रद्द-ए-अ’मल फ़ौरन ताड़ जाया करती थी। चुनांचे मुझे देखते ही उसने कहा
“डायरेक्टर साहब कह रहे थे कि तुम्हारा पार्ट चूँकि शरीफ़ औरत का नहीं है
इसलिए तुम्हें इस क़िस्म का लिबास दिया गया है। मैंने उनसे कहा


अगर ये लिबास है तो मैं आपके साथ नंगी चलने के लिए तैयार हूँ।”
मैंने उससे पूछा
“डायरेक्टर साहब ने ये सुन कर क्या कहा?”
नीलम के पतले होंटों पर एक ख़फ़ीफ़ सी पुरअसरार मुस्कुराहट नुमूदार हुई


“उन्होंने तसव्वुर में मुझे नंगी देखना शुरू कर दिया... ये लोग भी कितने अहमक़ हैं। या’नी इस लिबास में मुझे देख कर बेचारे तसव्वुर पर ज़ोर डालने की ज़रूरत ही क्या थी!”
ज़हीन क़ारी के लिए नीलम का इतना तआ’रुफ़ ही काफ़ी है। अब मैं उन वाक़ियात की तरफ़ आता हूँ जिनकी मदद से मैं ये कहानी मुकम्मल करना चाहता हूँ।
बंबई में जून के महीने से बारिश शुरू हो जाती है और सितंबर के वस्त तक जारी रहती है। पहले दो ढाई महीनों में इस क़दर पानी बरसता है कि स्टूडियो में काम नहीं हो सकता। “बन की सुंदरी” की शूटिंग अप्रैल के अवाख़िर में शुरू हुई थी। जब पहली बारिश हुई तो हम अपना तीसरा सेट मुकम्मल कर रहे थे। एक छोटा सा सीन बाक़ी रह गया था जिसमें कोई मुकालमा नहीं था
इसलिए बारिश में भी हमने अपना काम जारी रखा। मगर जब ये काम ख़त्म हो गया तो हम एक अर्से के लिए बेकार हो गए।


इस दौरान में स्टूडियो के लोगों को एक दूसरे के साथ मिल कर बैठने का बहुत मौक़ा मिलता है। मैं तक़रीबन सारा दिन गुलाब के होटल में बैठा चाय पीता रहता था। जो आदमी भी अंदर आता था तो सारे का सारा भीगा होता था या आधा... बाहर की सब मक्खियां पनाह लेने के लिए अंदर जमा होगई थीं। इस क़दर ग़लीज़ फ़िज़ा थी कि अलअमां।
एक कुर्सी पर चाय निचोड़ने का कपड़ा पड़ा है
दूसरी पर प्याज़ काटने की बदबूदार छुरी पड़ी झक मार रही है। गुलाब साहब पास खड़े हैं और अपने मास ख़ौरा लगे दाँतों तले बंबई की उर्दू चबा रहे हैं
“तुम उधर जाने को नहीं सकता... हम उधर से जाके आता... बहुत लफ़ड़ा होगा... हाँ... बड़ा वांदा हो जाएंगा।”


उस होटल में जिसकी छत कोरोगेटेड स्टील की थी
सेठ हुर्मुज़ जी फ्रॉम जी
उनके साले एडल जी और हीरोइनों के सिवा सबलोग आते थे। नियाज़ मोहम्मद को तो दिन में कई मर्तबा यहां आना पड़ता था क्योंकि वो चुन्नी मुन्नी नाम की दो बिल्लियां पाल रहा था।
राजकिशोर दिन में एक चक्कर लगा जाता था। जूंही वो अपने लंबे क़द और कसरती बदन के साथ दहलीज़ पर नुमूदार होता


मेरे सिवा होटल में बैठे हुए तमाम लोगों की आँखें तमतमा उठतीं। एक्स्ट्रा लड़के उठ उठ कर राज भाई को कुर्सी पेश करते और जब वो उनमें से किसी की पेश की हुई कुर्सी पर बैठ जाता तो सारे परवानों की मानिंद उसके गिर्द जमा हो जाते।
इसके बाद दो क़िस्म की बातें सुनने में आतीं। एक्स्ट्रा लड़कों की ज़बान पर पुरानी फिल्मों में राज भाई के काम की तारीफ़ की
और ख़ुद राजकिशोर की ज़बान पर उसके स्कूल छोड़कर कॉलिज और कॉलिज छोड़कर फ़िल्मी दुनिया में दाख़िल होने की तारीख़... चूँकि मुझे ये सब बातें ज़बानी याद हो चुकी थीं इसलिए जूंही राजकिशोर होटल में दाख़िल होता मैं उससे अलैक सलैक करने के बाद बाहर निकल जाता।
एक रोज़ जब बारिश थमी हुई थी और हुर्मुज़ जी फ्रॉम जी का अलसेशियन कुत्ता नियाज़ मोहम्मद की दो बिल्लियों से डर कर गुलाब के होटल की तरफ़ दुम दबाये भागा आ रहा था। मैंने मौलसिरी के दरख़्त के नीचे बने हुए गोल चबूतरे पर नीलम और राजकिशोर को बातें करते हुए देखा।


राजकिशोर खड़ा हस्ब-ए-आदत हौले-हौले झूल रहा था
जिसका मतलब ये था कि वो अपने ख़याल के मुताबिक़ निहायत ही दिलचस्प बातें कर रहा है। मुझे याद नहीं कि नीलम से राजकिशोर का तआ’रुफ़ कब और किस तरह हुआ था
मगर नीलम तो उसे फ़िल्मी दुनिया में दाख़िल होने से पहले ही अच्छी तरह जानती थी और शायद एक दो मर्तबा उसने मुझसे बर-सबील-ए-तज़्किरा उसके मुतनासिब और ख़ूबसूरत जिस्म की तारीफ़ भी की थी।
मैं गुलाब के होटल से निकल कर रिकार्डिंग रुम के छज्जे तक पहुंचा तो राजकिशोर ने अपने चौड़े कांधे पर से खादी का थैला एक झटके के साथ उतारा और उसे खोल कर एक मोटी कापी बाहर निकाली। मैं समझ गया... ये राजकिशोर की डायरी थी।


हर रोज़ तमाम कामों से फ़ारिग़ हो कर अपनी सौतेली माँ का आशीरवाद ले कर राजकिशोर सोने से पहले डायरी लिखने का आदी है। यूं तो उसे पंजाबी ज़बान बहुत अ’ज़ीज़ है मगर ये रोज़नामचा अंग्रेज़ी में लिखता है जिसमें कहीं टैगोर के नाज़ुक स्टाइल की और कहीं गांधी के सियासी तर्ज़ की झलक नज़र आती है... उसकी तहरीर पर शेक्सपियर के ड्रामों का असर भी काफ़ी है। मगर मुझे इस मुरक्कब में लिखने वाले का ख़ुलूस कभी नज़र नहीं आया।
अगर ये डायरी आपको कभी मिल जाये तो आपको राजकिशोर की ज़िंदगी के दस-पंद्रह बरसों का हाल मालूम हो सकता है। उसने कितने रुपये चंदे में दिए
कितने ग़रीबों को खाना खिलाया
कितने जलसों में शिरकत की


क्या पहना
क्या उतारा... और अगर मेरा क़ियाफ़ा दुरुस्त है तो आपको उस डायरी के किसी वर्क़ पर मेरे नाम के साथ पैंतीस रुपये भी नज़र आजाऐंगे जो मैंने उससे एक बार क़र्ज़ लिए थे और इस ख़याल से अभी तक वापस नहीं किए कि वो अपनी डायरी में उनकी वापसी का ज़िक्र कभी नहीं करेगा।
ख़ैर... नीलम को वो उस डायरी के चंद औराक़ पढ़ कर सुना रहा था। मैंने दूर ही से उसके ख़ूबसूरत होंटों की जुंबिश से मालूम कर लिया कि वो शेक्सपियरन अंदाज़ में प्रभु की हम्द बयान कर रहा है।
नीलम


मौलसिरी के दरख़्त के नीचे गोल सीमेंट लगे चबूतरे पर ख़ामोश बैठी थी। उसके चेहरे की मलीह मतानत पर राजकिशोर के अल्फ़ाज़ कोई असर पैदा नहीं कर रहे थे।
वो राजकिशोर की उभरी हुई छाती की तरफ़ देख रही थी। उसके कुर्ते के बटन खुले थे
और सफ़ेद बदन पर उसकी छाती के काले बाल बहुत ही ख़ूबसूरत मालूम होते थे।
स्टूडियो में चारों तरफ़ हर चीज़ धुली हुई थी। नियाज़ मोहम्मद की दो बिल्लियां भी आम तौर पर ग़लीज़ रहा करती थीं


उस रोज़ बहुत साफ़ सुथरी दिखाई दे रही थीं। दोनों सामने बेंच पर लेटी नर्म नर्म पंजों से अपना मुँह धो रही थीं। नीलम जॉर्जट की बेदाग़ सफ़ेद साड़ी में मलबूस थी। ब्लाउज़ सफ़ेद लिनन का था जो उसकी सांवली और सुडौल बांहों के साथ एक निहायत ही ख़ुशगवार और मद्धम सा तज़ाद पैदा कर रहा था।
“नीलम इतनी मुख़्तलिफ़ क्यों दिखाई दे रही है?”
एक लहज़े के लिए ये सवाल मेरे दिमाग़ में पैदा हुआ और एक दम उसकी और मेरी आँखें चार हुईं तो मुझे उसकी निगाह के इज़्तिराब में अपने सवाल का जवाब मिल गया। नीलम मोहब्बत में गिरफ़्तार हो चुकी थी।
उसने हाथ के इशारे से मुझे बुलाया। थोड़ी देर इधर उधर की बातें हुईं


जब राजकिशोर चला गया तो उसने मुझसे कहा
“आज आप मेरे साथ चलिएगा!”
शाम को छः बजे मैं नीलम के मकान पर था। जूंही हम अंदर दाख़िल हुए उसने अपना बैग सोफे पर फेंका और मुझसे नज़र मिलाए बग़ैर कहा
“आपने जो कुछ सोचा है ग़लत है।”


मैं उसका मतलब समझ गया। चुनांचे मैंने जवाब दिया
“तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि मैंने क्या सोचा था?”
उसके पतले होंटों पर ख़फ़ीफ़ सी मुस्कुराहट पैदा हुई।
“इसलिए कि हम दोनों ने एक ही बात सोची थी... आपने शायद बाद में ग़ौर नहीं किया। मगर मैं बहुत सोच-बिचार के बाद इस नतीजे पर पहुंची हूँ कि हम दोनों ग़लत थे।”


“अगर मैं कहूं कि हम दोनों सही थे।”
उसने सोफे पर बैठते हुए कहा
“तो हम दोनों बेवक़ूफ़ हैं।”ये कह कर फ़ौरन ही उसके चेहरे की संजीदगी और ज़्यादा सँवला गई
“सादिक़ ये कैसे हो सकता है। मैं बच्ची हूँ जो मुझे अपने दिल का हाल मालूम नहीं... तुम्हारे ख़्याल के मुताबिक़ मेरी उम्र क्या होगी?”


“बाईस बरस।”
“बिल्कुल दुरुस्त... लेकिन तुम नहीं जानते कि दस बरस की उम्र में मुझे मोहब्बत के मा’नी मालूम थे... मा’नी क्या हुए जी... ख़ुदा की क़सम मैं मोहब्बत करती थी। दस से लेकर सोलह बरस तक मैं एक ख़तरनाक मोहब्बत में गिरफ़्तार रही हूँ। मेरे दिल में अब क्या ख़ाक किसी की मोहब्बत पैदा होगी?”
ये कह कर उसने मेरे मुंजमिद चेहरे की तरफ़ देखा और मुज़्तरिब हो कर कहा
“तुम कभी नहीं मानोगे


मैं तुम्हारे सामने अपना दिल निकाल कर रख दूं
फिर भी तुम यक़ीन नहीं करोगे
मैं तुम्हें अच्छी तरह जानती हूँ... भई ख़ुदा की क़सम
वो मर जाये जो तुम से झूट बोले... मेरे दिल में अब किसी की मोहब्बत पैदा नहीं हो सकती


लेकिन इतना ज़रूर है कि...” ये कहते कहते वो एक दम रुक गई।
मैंने उससे कुछ न कहा क्योंकि वो गहरे फ़िक्र में ग़र्क़ हो गई थी। शायद वो सोच रही थी कि “इतना ज़रूर” क्या है?
थोड़ी देर के बाद उसके पतले होंटों पर वही ख़फ़ीफ़ पुरअसरार मुस्कुराहट नुमूदार हुई जिससे उसके चेहरे की संजीदगी में थोड़ी सी आ’लिमाना शरारत पैदा हो जाती थी। सोफे पर से एक झटके के साथ उठकर उसने कहना शुरू किया
“मैं इतना ज़रूर कह सकती हूँ कि ये मोहब्बत नहीं है और कोई बला हो तो मैं कह नहीं सकती


सादिक़ मैं तुम्हें यक़ीन दिलाती हूँ।”
मैंने फ़ौरन ही कहा
“या’नी तुम अपने आपको यक़ीन दिलाती हो।”
वो जल गई


“तुम बहुत कमीने हो... कहने का एक ढंग होता है। आख़िर तुम्हें यक़ीन दिलाने की मुझे ज़रूरत ही क्या पड़ी है? मैं अपने आपको यक़ीन दिला रही हूँ
मगर मुसीबत ये है कि आ नहीं रहा... क्या तुम मेरी मदद नहीं कर सकते?”
ये कह कर वो मेरे पास बैठ गई और अपने दाहिने हाथ की छंगुलिया पकड़ कर मुझसे पूछने लगी
“राजकिशोर के मुतअ’ल्लिक़ तुम्हारा क्या ख़याल है... मेरा मतलब है तुम्हारे ख़याल के मुताबिक़ राजकिशोर में वो कौन सी चीज़ है जो मुझे पसंद आई है।” छंगुलिया छोड़ कर उसने एक एक कर के दूसरी उंगलियां पकड़नी शुरू कीं।


“मुझे उसकी बातें पसंद नहीं... मुझे उसकी ऐक्टिंग पसंद नहीं। मुझे उसकी डायरी पसंद नहीं
जाने क्या ख़ुराफ़ात सुना रहा था।”
ख़ुद ही तंग आकर वो उठ खड़ी हुई
“समझ में नहीं आता मुझे क्या हो गया है। बस सिर्फ़ ये जी चाहता है कि एक हंगामा हो। बिल्लियों की लड़ाई की तरह शोर मचे


धूल उड़े... और मैं पसीना पसीना हो जाऊं।” फिर एक दम वो मेरी तरफ़ पलटी
“सादिक़... तुम्हारा क्या ख़याल है... मैं कैसी औरत हूँ?”
मैंने मुस्कुरा कर जवाब दिया
“बिल्लियां और औरतें मेरी समझ से हमेशा बालातर रही हैं।”


उसने एक दम पूछा
“क्यों?”
मैंने थोड़ी देर सोच कर जवाब दिया
“हमारे घर में एक बिल्ली रहती थी। साल में एक मर्तबा उस पर रोने के दौरे पड़ते थे... उसका रोना-धोना सुन कर कहीं से एक बिल्ला आ जाया करता था। फिर उन दोनों में इस क़दर लड़ाई और ख़ून ख़राबा होता कि अलअमां... मगर उसके बाद वो ख़ाला बिल्ली चार बच्चों की माँ बन जाया करती थी।”


नीलम का जैसे मुँह का ज़ायक़ा ख़राब हो गया
“थू... तुम कितने गंदे हो।” फिर थोड़ी देर बाद इलायची से मुँह का ज़ायक़ा दुरुस्त करने के बाद उसने कहा
“मुझे औलाद से नफ़रत है। ख़ैर
हटाओ जी इस क़िस्से को।”


ये कह कर नीलम ने पानदान खोल कर अपनी पतली पतली उंगलियों से मेरे लिए पान लगाना शुरू कर दिया। चांदी की छोटी छोटी कुल्हियों से उसने बड़ी नफ़ासत से चमची के साथ चूना और कथ्था निकाल कर रगें निकाले हुए पान पर फैलाया और गिलौरी बना कर मुझे दी
“सादिक़! तुम्हारा क्या ख़्याल है?”
ये कह कर वो ख़ाली-उज़-ज़ेहन हो गई।
मैंने पूछा


“किस बारे में?”
उसने सरौते से भुनी हुई छालिया काटते हुए कहा
“उस बकवास के बारे में जो ख़्वाह-मख़्वाह शुरू हो गई है... ये बकवास नहीं तो क्या है
या’नी मेरी समझ में कुछ आता ही नहीं... ख़ुद ही फाड़ती हूँ


ख़ुद ही रफू करती हूँ। अगर ये बकवास इसी तरह जारी रहे तो जाने क्या होगा.... तुम जानते हो मैं बहुत ज़बरदस्त औरत हूँ।”
“ज़बरदस्त से तुम्हारी क्या मुराद है?”
नीलम के पतले होंटों पर वही ख़फ़ीफ़ पुरअसरार मुस्कुराहट पैदा हुई
“तुम बड़े बेशर्म हो। सब कुछ समझते हो मगर महीन-महीन चुटकियां ले कर मुझे उकसाओगे ज़रूर।” ये कहते हुए उसकी आँखों की सफेदी गुलाबी रंगत इख़्तियार कर गई।


“तुम समझते क्यों नहीं कि मैं बहुत गर्म मिज़ाज की औरत हूँ।” ये कह कर वो उठ खड़ी हुई
“अब तुम जाओ
मैं नहाना चाहती हूँ।”
मैं चला गया।


उसके बाद नीलम ने बहुत दिनों तक राजकिशोर के बारे में मुझसे कुछ न कहा। मगर इस दौरान में हम दोनों एक दूसरे के ख़यालात से वाक़िफ़ थे। जो कुछ वो सोचती थी
मुझे मालूम हो जाता था और जो कुछ मैं सोचता था उसे मालूम हो जाता था। कई रोज़ तक यही ख़ामोश तबादला जारी रहा।
एक दिन डायरेक्टर कृपलानी जो “बन की सुंदरी” बना रहा था
हीरोइन की रिहर्सल सुन रहा था। हम सब म्यूज़िक रुम में जमा थे। नीलम एक कुर्सी पर बैठी अपने पांव की जुंबिश से हौले-हौले ताल दे रही थी। एक बाज़ारी क़िस्म का गाना मगर धुन अच्छी थी। जब रिहर्सल ख़त्म हुई तो राजकिशोर कांधे पर खादी का थैला रखे कमरे में दाख़िल हुआ।


डायरेक्टर कृपलानी
म्यूज़िक डायरेक्टर घोष
साउंड रिकार्डिस्ट पी ए एन मोघा... इन सबको फ़र्दन फ़र्दन उसने अंग्रेज़ी में आदाब किया। हीरोइन मिस ईदन बाई को हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और कहा
“ईदन बहन! कल मैंने आपको क्राफर्ड मार्किट में देखा। मैं आपकी भाभी के लिए मौसंबियाँ ख़रीद रहा था कि आपकी मोटर नज़र आई।”


झूलते झूलते उसकी नज़र नीलम पर पड़ी जो प्यानो के पास एक पस्त-क़द की कुर्सी में धंसी हुई थी। एक दम उसके हाथ नमस्कार के लिए उठे
ये देखते ही नीलम उठ खड़ी हुई
“राज साहब! मुझे बहन न कहिएगा।”
नीलम ने ये बात कुछ इस अंदाज़ से कही कि म्यूज़िक रुम में बैठे हुए सब आदमी एक लहज़े के लिए मब्हूत हो गए। राजकिशोर खिसयाना सा हो गया और सिर्फ़ इस क़दर कह सका


“क्यों?”
नीलम जवाब दिए बग़ैर बाहर निकल गई।
तीसरे रोज़ मैं नागपाड़े में सह-पहर के वक़्त शाम लाल पनवाड़ी की दुकान पर गया तो वहां इसी वाक़े के मुतअ’ल्लिक़ चेमि-गोईयां होरही थीं... शाम लाल बड़े फ़ख़्रिया लहजे में कह रहा था
“साली का अपना मन मैला होगा... वर्ना राज भाई किसी को बहन कहे


और वो बुरा माने... कुछ भी हो
उसकी मुराद कभी पूरी नहीं होगी। राज भाई लंगोट का बहुत पक्का है।”
राज भाई के लंगोट से मैं बहुत तंग आ गया था। मगर मैंने शाम लाल से कुछ न कहा और ख़ामोश बैठा उसकी और उसके दोस्त ग्राहकों की बातें सुनता रहा जिनमें मुबालग़ा ज़्यादा और असलियत कम थी।
स्टूडियो में हर शख़्स को म्यूज़िक रुम के इस हादिसे का इल्म था


और तीन रोज़ से गुफ़्तुगू का मौज़ू बस यही चीज़ थी कि राजकिशोर को मिस नीलम ने क्यों एक दम बहन कहने से मना किया। मैंने राजकिशोर की ज़बानी इस बारे में कुछ न सुना मगर उसके एक दोस्त से मालूम हुआ कि उसने अपनी डायरी में उस पर निहायत पर दिलचस्प तब्सिरा लिखा है और प्रार्थना की है कि मिस नीलम का दिल-ओ-दिमाग़ पाक-ओ-साफ़ हो जाये।
उस हादिसे के बाद कई दिन गुज़र गए मगर कोई क़ाबिल-ए-ज़िकर बात वक़ूअ-पज़ीर न हुई।
नीलम पहले से कुछ ज़्यादा संजीदा हो गई थी और राजकिशोर के कुर्ते के बटन अब हर वक़्ते खुले रहते थे जिसमें से उसकी सफ़ेद और उभरी हुई छाती के काले बाल बाहर झांकते रहते थे।
चूँकि एक दो रोज़ से बारिश थमी हुई थी और “बन की सुंदरी” का चौथे सेट का रंग ख़ुश्क हो गया था


इसलिए डायरेक्टर ने नोटिस बोर्ड पर शूटिंग का ऐ’लान

- सआदत-हसन-मंटो


“आज रात तो यक़ीनन बर्फ़ पड़ेगी”
साहिब-ए-ख़ाना ने कहा। सब आतिश-दान के और क़रीब हो के बैठ गए। आतिश-दान पर रखी हुई घड़ी अपनी मुतवाज़िन यकसानियत के साथ टक-टक करती रही। बिल्लियाँ कुशनों में मुँह दिए ऊँघ रही थीं
और कभी-कभी किसी आवाज़ पर कान खड़े कर के खाने के कमरे के दरवाज़े की तरफ़ एक आँख थोड़ी सी खोल कर देख लेती थीं। साहिब-ए-ख़ाना की दोनों लड़कियाँ निटिंग में मशग़ूल थीं। घर के सारे बच्चे कमरे के एक कोने में पुराने अख़बारों और रिसालों के ढेर पर चढ़े कैरम में मसरूफ़ थे।
बौबी मुमताज़ खिड़की के क़रीब ख़ामोश बैठा इन सबको देखता रहा।


“हाँ आज रात तो क़तई’ बर्फ़ पड़ेगी”
साहिब-ए-ख़ाना के बड़े बेटे ने कहा।
“बड़ा मज़ा आएगा। सुब्ह को हम स्नोमैन बनाएँगे”
एक बच्चा चिल्लाया।


“मुमताज़ भाई-जान हमें अपना पाइप दे दोगे? हम उसे स्नोमैन के मुँह में ठूँसेंगे”
दूसरे बच्चे ने कहा।
“कल सुब्ह शुमाल में हल्के-हल्के छींटे पड़ेंगे। और शुमाल मग़रिब में आँधी के साथ बारिश होगी। जुनूबी बलूचिस्तान और सिंध का मौसम ख़ुश्क रहेगा”
साहिब-ए-ख़ाना ने नाक पर ऐ'नक रखकर अख़बार उठाया और मौसम की पेशीन-गोई बा-आवाज़-ए-बुलंद पढ़नी शुरू’ की।


“ख़ूब बर्फ़ पड़ती है भाई। लेकिन एक बात है। उस तरफ़ फल बहुत उ'म्दा होते हैं। ऐबट आबाद में जब में था”
साहिब-ए-ख़ाना के मँझले बेटे ने ख़ुद ही अपनी बात जारी रखी।
बौबी मुमताज़ चुपका बैठा हँसता रहा।
“सारी दुनिया मौसम में इतनी शदीद दिलचस्पी क्यों लेती है। क्या इन लोगों को इस वक़्त गुफ़्तगू का कोई इससे ज़ियादा बेकार मौज़ू' नहीं सूझ रहा। क्वीनी लखनऊ रेडियो पर रोज़ाना आठ पचपन पर अंग्रेज़ी में मौसम की रिपोर्ट सुनाती थी। कल पच्छम में तेज़ हवा के साथ पानी आएगा। पूरब में सिर्फ़ थोड़े छींटे पड़ेंगे


उतर में सर्दी बढ़ जाएगी... क्वीनी... क्वीनी बी-बी... जो... फ्रे़ड कहाँ हो तुम सब... इस वक़्त तुम सब जाने क्या कर होगे”
उसने बहुत थक कर आँखें बंद कर लीं।
“मुमताज़ साहिब आज तो आप हमारे साथ ही खाना खाइए”
साहिब-ए-ख़ाना की बेगम ने कहा और शाल लिपटती हुई खाने के कमरे की तरफ़ चली गईं। उनकी आवाज़ पर आँखें खोल कर वो उन्हें पैंट्री के दरवाज़े में ग़ाइब होते देखता रहा।


साहिब-ए-ख़ाना की दो लड़कियाँ थीं। यही सारी बात थी। इसी वज्ह से उसकी इतनी ख़ातिरें की जा रही थीं। जब से वो पाकिस्तान मुंतख़ब करने के बा'द क्वेटा आया था
ये ख़ानदान उसे रोज़ाना अपने हाँ चाय या खाने पर मदऊ’' करता। अगर वो न आना चाहता तो वो जाकर उसे क्लब से पकड़ लाते। उसके लिए रोज़ तरह तरह के हल्वे तैयार किए जाते। उसकी मौजूदगी में उनकी बड़ी लड़की फीके शलजम के ऐसे चेहरे वाली सई'दा बड़ी मा'सूमियत और नियाज़-मंदी के साथ एक तरफ़ को बैठी निटिंग करती रहती। उसका चेहरा हर क़िस्म के तअ'स्सुरात से ख़ाली रहता। जैसे किसी कुल वाली चीनी की गुड़िया की उँगलियों में तितलियाँ थमा दी गई हों। कभी-कभी वो दूसरों की तरफ़ नज़र उठा कर देखती और फिर ख़ुद-ब-ख़ुद शर्मा कर दोबारा निटिंग पर झुक जाती।
ये लड़कियाँ कितनी निटिंग करती हैं। बस साल भर इनके हाथों में ऊन और सलाइयाँ देख लो। गोया ये ऊन के बने हुए पुलओवर और मोज़े क़यामत के रोज़ इन्हें बख़्शवाएँगे। फिर साहिब-ए-ख़ाना की बेगम बावर्चीख़ाने से वापिस आकर ख़ानसामाँ की ना-मा'क़ूलियत पर इज़हार-ए-ख़याल करने के बा'द अपनी सुघड़ बेटी को तहसीन-आमेज़ नज़रों से देखतीं और उसे मुख़ातिब हो कर कहतीं



“बस इसको तो यही शौक़ है। दिन-भर इसी तरह किसी न किसी काम में लगी रहती है। अपने अब्बा का ये स्वेटर-कोट भी इसी ने बुना है।”
उस वक़्त वो यक़ीनन मुतवक़्क़े’ होतीं कि वो कहे
“ऊन मँगवा दूँगा मेरे लिए भी एक पुलओवर बना दीजिए।”
लेकिन वो उसी तरह ख़ामोश बैठा रहता। लड़की अपनी डायरैक्टर आफ़ प्रोपगंडा ऐंड पब्लिसिटी की तरफ़ से ये ता'रीफ़ होती सुनकर और ज़ियादा शर्मा जाती और उसकी सलाइयाँ ज़ियादा तेज़ी से मुतहर्रिक हो जातीं।


ख़ुदावंद... बौबी मुमताज़ ने बहुत ज़ियादा उकता कर खिड़की से बाहर नज़र डाली। अँधेरे में चनार के दरख़्त आहिस्ता-आहिस्ता सरसरा रहे थे। इस गर्म और रौशन कमरे के बाहर दूर-दूर तक मुकम्मल सुकूत तारी था। रात का गहरा और मुंजमिद सुकूत। वो रात बिल्कुल ऐसी थी अँधेरी और ख़ामोश। 9 सितंबर 47 की वो रात जो उसने अपने दोस्तों के साथ मसूरी के वाइल्ड रोज़ में आख़िरी बार गुज़ारी थी। क्वीनी और वजाहत का वाइल्ड रोज़। जब वो सब वाइल्ड रोज़ के ख़ूबसूरत लाऊंज में आग के पास बैठे थे और किसी को पता नहीं था कि वो आख़िरी मर्तबा वहाँ इकट्ठे हुए हैं। लेकिन वो रात भी पलक झपकते में गुज़र गई थी। वक़्त इसी तरह गुज़रता चला जाता है।
साहिब-ए-ख़ाना ने दफ़अ'तन बड़े ज़ोर से हँसना शुरू’ कर दिया। उसने चौंक कर उन्हें देखा। वो एक हाथ में अख़बार थामे वीकली के किसी कार्टून पर हँस-हँसकर दोहरे हुए जा रहे थे। बच्चे अपने तस्वीरों वाले रिसाले और कैरम छोड़कर उसके क़रीब आ गए और उससे कहने लगे कि अगर रात को उसकी मोटर बर्फ़ में फँस गई तो कितना मज़ा आएगा... एक बच्ची ने नाव बनाने के लिए औनलुकर का सर-वरक़ फाड़ डाला और एक तस्वीर दूसरी तराशी हुई तस्वीरों और कतरनों के साथ रिसाले में से सरक कर फ़र्श पर गिरी।
बौबी मुमताज़ की नज़र उस तस्वीर पर पड़ गई। उसने झुक कर देखा। वो सिग्रिड की तस्वीर थी। सिग्रिड अपने प्यारे से दो माह के बच्चे को मेज़ पर हाथों से थामे उसके पीछे से झाँक रही थी। वही मख़सूस तबस्सुम
उसके बाल उसी स्टाइल से बने थे। उसकी आँखें उसी तरह पुर-सुकून और पुर-असरार... उस तस्वीर के लिए बच्चों में छीना-झपटी शुरू’ हो गई। उसके जिस्म में सर्दी की एक तेज़ ना-क़ाबिल-ए-बर्दाश्त काटती हुई लहर दौड़ गई। उसने पीछे मुड़ कर देखा। खिड़की बंद थी और आतिश-दान में शोले भड़क रहे थे। कमरा हस्ब-ए-मा'मूल गर्म था।


बच्चे उसी तरह शोर मचा रहे थे। लड़कियाँ निटिंग कर रही थीं। उसका दिल डूब रहा था। ये सिग्रिड की तस्वीर थी जो एक बच्ची ने बे-ख़याली से नए औनलुकर में से काट ली थी... सिग्रिड... सिग्रिड वो दफ़अ'तन कुर्सी पर से उठ खड़ा हुआ..
“कहाँ चले...? खाना आने वाला है”
साहिब-ए-ख़ाना हाथ फैला कर चलाए।
“बस पाँच मिनट और ठहर जाओ भैया। तवा चढ़ा ही है”


बेगम साहिब ने कहा।
“खाना ख़ाके जाइएगा”
सई'दा ने अपनी पतली सी आवाज़ आहिस्ता से बुलंद करके चुपके से कहा और फिर जल्दी से सलाइयों पर गई।
“हाँ-हाँ भाई जान... खाना खा के... और फिर अपना पाइप…”


बच्चों ने शोर मचाया। और फिर तस्वीर के लिए छीना-झपटी होने लगी।
“अरे मुझे दे... मैं इसकी मूँछें बनाऊँगा”
एक बच्चा अपनी छोटी बहन के हाथों से तस्वीर छीनने लगा। “नहीं
पहले मैं। मैं डाढ़ी भी बनाऊँगी इसकी। जैसी चचा मियाँ की है”


बच्ची ने ज़ोर लगाया।
“मैं इस मिसिज़ सिग्रिड उसमान के होंटों में पाइप लगा दूँगा”
दूसरा बच्चा चिल्लाया।
“वाह


लड़कियाँ पाइप कहाँ पीती हैं”
पहले बच्चे ने ए'तिराज़ किया।
“मुमताज़ भाई जान तो पीते हैं”
उसने अपनी मंतिक़ इस्तिमाल की।


“मुमताज़ भाई जान कोई लड़की थोड़ा ही हैं।”
सबने फिर क़हक़हे लगाने शुरू’ कर दिए।
बौबी मुमताज़ इंतिहाई बद-अख़्लाकी का सबूत देता कमरे से निकल कर जल्दी से बाहर आया। और अपनी ओपल तक पहुँच कर सबको शब-ब-ख़ैर कहने के बा'द तेज़ी से सड़क पर आ गया। रास्ता बिल्कुल सुनसान पड़ा था। और फ़रवरी का आसमान तारीक था। उसके मेज़बानों का घर दूर होता गया। बच्चों के शोर की आवाज़ पीछे रह गई। बिल्कुल ख़ाली-उल-ज़हन हो कर उसने कार बेहद तेज़ रफ़्तारी से सीधी सड़क पर छोड़ दी। घर चला जाए। उसने सोचा। फिर उसे ख़याल आया कि उसने अभी खाना नहीं खाया। उसने कार का रुख़ क्लब की तरफ़ कर दिया।
एक बैरे को खाने के मुतअ'ल्लिक़ कहते हुए वो एक लाऊंज की तरफ़ चला गया। जो अक्सर सुनसान पड़ी रहती थी। उसने सोफ़े पर लेट कर आँखों पर हाथ रख लिए। उसने आँखें बंद कर लीं। उसे लग रहा था जैसे वो सोचने समझने


महसूस करने
याद करने की सारी आदतें भूल चुका है। अब कुछ बाक़ी नहीं
कुछ बाक़ी नहीं।
उसने हाथों से अपनी आँखों को ख़ूब मला। और फिर ग़ौर से हथेलियों को देखने लगा। उसने महसूस किया कि इस वक़्त उसकी आँखें बहुत सूनी-सूनी लग रही होंगी। वो आँखें जिनके लिए कमला कहा करती थी कि इंतिहाई शराब उंडेलने वाली आँखें हैं। उसकी आँखों की ये ता'रीफ़ सबको याद हो गई थी। बौबी मुमताज़ की शराब उंडेलने वाली आँखें। और वो उस वक़्त वहाँ


इस अजनबी शहर के ग़ैर दिलचस्प क्लब के नीम-तारीक ख़ामोश लाऊंज में सोफ़े पर बच्चों की तरह पड़ा अपनी हथेलियों से उन आँखों को मल रहा था। गोया बहुत देर का सोया हुआ अब जगा है। बराबर के कमरे में ख़ूब ज़ोर ज़ोर से रेडियो बजाया जा रहा था। बहुत से लोग बातों में मशग़ूल थे। वहाँ भी मौसम के मुतअ'ल्लिक़ बहस छिड़ी हुई थी।
“आज रात तो यक़ीनन बर्फ़ पड़ेगी।”
कोई बेहद वसूक़ और एहमियत के साथ कह रहा था।
“यहाँ बड़े कड़ाके का जाड़ा पड़ता है यारो”


दूसरे ने जवाब दिया। फिर सियासियात पर गुफ़्तगू शुरू’ हो गई। जहाँ चार आदमी इकट्ठे होते
ये लाज़िमी बात थी कि सियासत पर राय-ज़नी शुरू’ हो जाएगी। जवाहर लाल ने ये कहा। क़ाइद-ए-आ'ज़म ने ये कहा। माउंट बैटन ने ये कहा। ये अच्छा हुआ। ये बुरा हुआ। तुम कैसे आए? मैं ऐसे आया। मैं यूँ लुटा। मैंने रास्ते में यूँ तकलीफ़ें उठाईं। फ़लाँ मुलाज़िम हो गया। फ़लाँ ने इस्तीफ़ा दे दिया। फ़लाँ कराची में है। फ़लाँ पिंडी पहुँच चुका है..
बौबी मुमताज़ लाऊंज के सोफ़े पर चुप-चाप पड़ा ये सब सुना किया। गैलरी की दूसरी जानिब एक कमरे में चंद अंग्रेज़ मैंबर और उनकी ख़वातीन क़रीब-क़रीब बैठे एक दूसरे के साथ मय-नोशी में मसरूफ़ थीं। क्लब का वो हिस्सा निसबतन सुनसान पड़ा था। 15 अगस्त के बा'द शहर और छावनी में जो इक्का-दुक्का अंग्रेज़ रह गए थे वो सर-ए-शाम ही से वहाँ आन बैठते और ‘होम’ ख़त लिखते रहते या तामस कuक और बी.ओ.ए.सी. वालों से पैसिज के मुतअ'ल्लिक़ ख़त-ओ-किताबत करते। उनकी बीवियाँ और लड़कियाँ उकताहट के साथ बैठी रिकार्ड बजाती रहतीं। उनके गुड ओल्ड डेज़ के पुराने साथी और अ'ज़ीज़ होम जा चुके थे और जाने कहाँ-कहाँ से नए-नए देसी मैंबर क्लब में आन भरे थे... डैडी ने दो साल के लिए कंट्रैक्ट किया है। चार्ल्स ने साल भर के लिए वौलेंटियर किया है। क्वेटा तो मारग्रेट डार्लिंग बेहद दिलचस्प स्टेशन था। पर अब। अब तो इतना मरने को जी चाहता है। वो बेबसी के आ'लम में क्लब के देसी मैंबरों की ख़वातीन देखतीं।
“ओ गौश”


गैलरी में से गुज़रते हुए कर्नल रौजर्ज़ की सुर्ख़ बालों वाली लड़की ने चुपके से अपनी एक सहेली से उकता कर कहा
“आज वो भी नहीं आया…।”
“वो कौन...?”
उसकी सहेली ने पूछा…।


“वही... इंतिज़ामी सर्विस वाला... जो लखनऊ से आया है।”
“अच्छा वो...”
“हाँ
सख़्त बोर है। कल रात मेरा ख़याल था कि मुझसे रक़्स के लिए कहेगा। लेकिन चुप-चाप उल्लू की तरह आँखें झपकाता रहा।”


“लेकिन कैरल डारलिंग कितनी बिल्कुल शराब उंडेलने वाली आँखें।”
“होंगी... जैन डार्लिंग ये हिंदोस्तानी बिल्कुल एलिगेंट नहीं होते।”
वो दोनों बातें करती कार्ड रुम की तरफ़ चली गईं।
बाहर दरख़्त हवा में सरसराते रहे। उसके एक दोस्त ने गैलरी में से लाऊंज में आकर रौशनी जला दी। वो चौंक कर सोफ़े पर से उठ बैठा।


“अबे यार क्या अफ़ीमचियों की तरह बैठे हो। तुम्हें सारे में तलाश कर डाला
चलो कार्ड रुम में चलें। वहाँ रौजर्ज़ की लौंडिया भी मौजूद है। तुमने तो अभी सारा क्लब भी घूम कर नहीं देखा। ज़रा जाड़े निकलने दो
तफ़रीह रहेगी। सच पूछो तो ये शहर इतना बुरा नहीं। शुरू’ शुरू’ में तो सभी होम सिक
महसूस करते हैं लेकिन बहुत जल्द हम इन फ़िज़ाओं से मानूस हो जाएँगे”


उसके दोस्त ने कहा।
“हाँ बिल्कुल ठीक कहते हो भाई”
उसने पाइप जलाते हुए बे-ख़याली से जवाब दिया
“चलो ज़रा पोंटून ही खेलें।”


“तुम चलो। मैं अभी आता हूँ।”
“जल्द आना। सब तुम्हारे मुंतज़िर हैं”
दोस्त ने बाहर जाते हुए कहा।
बराबर के कमरे का शोर धीमा पड़ गया। शायद वो सब भी कार्ड रुम की तरफ़ चले गए थे। किसी बैरे ने ये समझ कर कि लाऊंज में कोई नहीं है। दरवाज़े में से हाथ बढ़ा कर लैम्प की रौशनी बुझा दी और आगे चला गया। लाऊंज में फिर वही नीम तारीकी फैल गई। रात का सेहर गहरा होता जा रहा था।


“बौबी... बौबी...”
वो फिर चौंक पड़ा। उसने पीछे मुड़ कर देखा। इस नाम से इस अजनबी जगह में उसको किस ने पुकारा। इस नाम से पुकारने वाले उसके प्यारे साथी बहुत पीछे बहुत दूर रह गए थे
बौबी... बौबी... नहीं... वहाँ पर कोई न था।
इस जगह पर तो महज़ मुमताज़ सग़ीर अहमद था। वो हँसी


वो शोर मचाने वाला
ख़ूबसूरत आँखों का मालिक
सब का चहेता बौबी तो कहीं और बहुत पीछे रह गया था। यहाँ पर सिर्फ़ मुमताज़ सग़ीर अहमद मौजूद था। उसने अपना नाम आहिस्ता से पुकारा। मुमताज़ सग़ीर अहमद कितना अ'जीब नाम है। वो कौन है। उसकी हस्ती क्या है क्यों और किस तरह अपने आपको वहाँ पर मौजूद पा रहा है... ये इंसान... ये इंसान सब कुछ महसूस करके
सब कुछ बता के अब तक ज़िंदा है। साँस ले रहा है। रात के खाने का इंतिज़ार कर रहा है। अभी वो कार्ड रुम में जाकर पौंटोन खेलेगा। कर्नल फ़्रीज़र की लड़की के साथ नाचेगा। इतवार को फिर उस शलजम की ऐसी शक्ल वाली लड़की सई'दा के घर मदऊ’ किया जाएगा।


“बौबी... बौबी...”
क्वीनी बी-बी... उसने चुपके से जवाब दिया। क्वीनी बी-बी... “वुजू भैया... ये तुम हो...?”
उसने अँधेरे में हाथ बढ़ाकर कुछ महसूस करना चाहा। उसने सोफ़े के मख़मलीं कुशन को छुआ। मख़मल इतनी गर्म थी
और राहत पहुँचाने वाली। दरीचे के बाहर फ़रवरी की हवाएँ साएँ-साएँ कर रही थीं


बौबी…
“हाँ क्वीनी बी-बी। तुम कहाँ हो। मैंने तुम्हारी आवाज़ सुनी है। अभी तुम और लू खिलखिला कर हँसी थीं। लेकिन वहाँ लू भी नहीं थी। वजाहत भी नहीं था। फ़्रेड भी नहीं था।”
क्वीनी बी-बी... उसने चुपके से दोहराया। आठ पचपन। उसकी नज़र घड़ी पर पड़ गई वो उस वक़्त
सैंकड़ों हज़ारों मील दूर


नश्रगाह के स्टूडियो में बैठी अपने सामने रखे हुए बुलिटेन के ठेट संस्कृत अल्फ़ाज़ निगलने की कोशिश में मसरूफ़ होगी। और मौसम की रिपोर्ट सुना रही होगी। घड़ी अपनी मुतवाज़िन यकसानियत के साथ टक-टक करती रही।
“वजाहत भाई... तुम इस वक़्त क्या कर रहे हो... और फ़्रेड... और... और... अनीस...।”
बराबर के कमरे में लाहौर से मौसम की रिपोर्ट सुनाई जा रही थी और ख़ाली कमरे में उसकी आवाज़ गूँज रही थी। आज शुमाल में बर्फ़-बारी होगी। शुमाल मग़रिब में बारिश के छींटे पड़ेंगे। जुनूब में तेज़ हवाएँ चलेंगी... घड़ी उसी तरह टक-टक करती रही। टक-टक-टक। एक
दो


तीन
चार
पाँच...छः... छः साल... ये छः साल... ख़ुदा-वंद।
इस तपिश


इस तड़प
इस बेचैनी के बा'द आख़िर-कार मौत आती है। आख़िर-कार ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस का सपेद तख़्त नज़र आता है। आख़िर-कार वो ख़ूबसूरत विज़न दिखलाई पड़ता है। क्वीनी ने आहिस्ता-आहिस्ता कहा। पस-ए-मंज़र की मौसीक़ी दफ़अ'तन बहुत तेज़ हो गई।
हाँ... आख़िर-कार वो ख़ूबसूरत विज़न दिखलाई पड़ता है। अरे तुम किधर निकल आए ज़िंदगी की तरफ़ वापिस जाओ। इन्क़िलाब और मौत के तुन्द-रू आँधियों के सामने ज़र्द
कमज़ोर पत्तों की तरह भागते हुए इंसान। हमारी तरफ़ वापिस लौटो... इस विज़न की तरफ़... इस वज़न की तरफ़... लो ठहर गई। ठीक है? उसने अपने हिस्से की आख़िरी सतरें ख़त्म करके स्क्रिप्ट फ़र्श पर गिरा दिया।


“बिल्कुल ठीक है। थैंक यू…”
क्वीनी हेडफ़ोन एक तरफ़ को डाल कर बाहर आ गई। “लेकिन डार्लिंग तुमने टेम्पो फिर तेज़ कर दिया। ख़ुदा के लिए धीरे धीरे बोला करो।”
“ओ गौश। ये टेम्पो तो किसी चीज़ का कभी भी ठीक नहीं हो सकता। क्वीनी डारलिंग…।”
लू ने उकता कर जवाब दिया


“बौबी... बौबी…”
गैलरी में से वजाहत की आवाज़ सुनाई दी। “अरे क्या वुजू आया है?”
क्वीनी ने स्टूडियो का दरवाज़ा खोल कर बाहर झाँका।
उसका भाई वजाहत इंतिज़ार के कमरे में खड़ा किसी से बातें कर रहा था। “बेटा घर चल रही हो?” उसने क्वीनी से पूछा। “तुम इस वक़्त कैसे आ गए?”


क्वीनी ने दरियाफ़्त किया।
“मैं अभी-अभी बौबी मुमताज़ को बर्लिंगटन से लेने आया था। मैंने सोचा अगर तुम्हारा काम ख़त्म हो गया हो तो तुम्हें भी साथ लेता चलूँ”
वजाहत ने कहा।
“बौबी मुमताज़ कौन?”


क्वीनी ने बे-ख़याली से पूछा।
“है एक…”
वजाहत ने उसी बे-ख़याली से जवाब दिया। बौबी मुमताज़ ज़ीने पर से उतर के उनकी तरफ़ आया।
“कहाँ भाग गए थे?”


वजाहत ने डपट कर पूछा।
“अर… आदाब...”
बौबी मुमताज़ ने क्वीनी की तरफ़ मुड़कर कहा
“तुम ही क्वीनी बेटा होना?”


“हाँ । तस्लीम!”
क्वीनी नाख़ुन कुतरते हुए ग़ौर से उसके मुताले’ में मसरूफ़ थी। कितना स्वीट लड़का है। उसने दिल में कहा।
“तो फिर चलो हमारे साथ ही घर”
बौबी मुमताज़ ने कहा।


“नहीं भैया। अभी मुझे वो कमबख़्त मौसम की ख़बरें सुनानी हैं। आठ पचपन हो गए।”
वो उन्हें गैलरी में खड़ा छोड़कर स्टूडियो में तेज़ी से घुस गई। वो दोनों बाहर आ गए।
ये ख़ुलूस
ये सादगी


ये अपनाइयत ऐसे प्यारे दोस्त उसे आज तक कहीं न मिले थे। बहुत जल्द वो वजाहत के सट में घुल मिल गया। वो सब के सब इतने दिलचस्प थे। लियोनोर और शरजू लू कहलाती थी
जिसकी माँ अमरीकन और बाप पहाड़ी था। उसकी तिरछी-तिरछी नेपाली आँखों की वज्ह से सब उसे चिन्क चाय लू कहते थे और फ़्रेड जिसका तबस्सुम उतना मा'सूम
उतना पाकीज़ा
उतना शरीफ़ था। वो उसे छेड़ने के लिए हिंदुस्तानी ईसाई फ़िरक़े की मख़सूस हिमाक़तों का मज़ाक़ उड़ाते। लड़कियाँ ईसाइयों के बने हुए अंग्रेज़ी लहजे की नक़्ल कर के उससे पूछतीं


“फ़्रेड डियर क्या आज तुम किसी अपना गर्लफ्रेंड को बाहर नहीं ले जाने माँगता?”
“क्यों तुम सब मेरी इतनी टाँग खींचते हो”
वो हँसकर कहता। वो बहुत ऊँचे ईसाई ख़ानदान से था। लेकिन उसे इस तरह छेड़ने में सबको बहुत लुत्फ़ आता। वो सब लू से कहते
“लू डियर अगर फ़्रेड इस संडे को प्रोपोज़ करे तो फ़ौरन मान जाओ। हम सब तुम्हारी बराईड्ज़ मेड्ज़ और पीच ब्वॉय बनेंगे।”


फिर वो चिल्ला-चिल्ला कर गातीं
“सम संडे मॉर्निंग।”
वो 42 था
जब बौबी मुमताज़ पहली बार उन सबसे मिला। हर साल की तरह जब गर्मियाँ आईं और वो लोग मसूरी जाने लगे तो वो भी उनके हमराह मसूरी गया। क्वीनी और वजाहत केवाइल्ड रोज़ में सब इकट्ठे हुए। और वो वहाँ पर भी बहुत जल्द बेहद हर दिल-अ'ज़ीज़ हो गया।


बड़ी ग़ैर-दिलचस्प सी शाम थी। वो सब हैकमैन्ज़ के एक कोने में बैठे सामने से गुज़रने वालों को उकताहट से देख रहे थे। और चंद मिलने वालों के मुंतज़िर थे। जिन्हें वजाहत ने मदऊ’ किया था। इतने में गैलरी में से चची अरना गुज़रती नज़र आईं उन्होंने बालों में दो तीन फूल ठोंस रखे थे। और ख़ानाबदोशों का सा लिबास पहने थीं।
“कोई नया जनावर गिरा है”
यासमीन ने चुपके से क्वीनी से कहा।
“अमाँ चुप रहो यार”


क्वीनी ने उसे डपट कर जवाब दिया।
“क्या हुआ?”
बौबी ने पूछा।
“कुछ नहीं”


क्वीनी ने जवाब दिया। इतने में उनके मेहमान आ गए। और वो सब ब-ज़ाहिर बड़ी संजीदा शक्लें बना कर उनके पास जा बैठीं।
“ये चची अरना कौन हैं। तुम्हारी चची हैं?”
बौबी ने पूछा। ताज़ा वारिद मेहमान सब उन ही की बातें कर रहे थे।
“अरे नहीं भई”


क्वीनी ने शगुफ़्तगी से जवाब दिया।
“ये सिग्रिड की मम्मी हैं।”
“सिग्रिड कौन?”
बौबी ने पूछा।


“है... एक लड़की...।”
क्वीनी ने बे-ख़याली से गोया मज़ीद तशरीह कर दी और फिर दूसरी बातों में मुनहमिक हो गई।
अगले रोज़ वो सब टहलने के लिए निकले तो वजाहत ने तजवीज़ किया कि वुडस्टाक का चक्कर लगा आएँ। सिग्रिड से भी मिलते आएँगे। वो टोलियाँ बना कर पत्थर और चट्टानें फलाँगते वुडस्टाक के होस्टल की तरफ़ गए।
एक बड़े से सिलवर ओक के नीचे बौबी मुमताज़ ने सिग्रिड को देखा। वो इमारत की ढलवान पर दरख़्तों के झुंड में दूसरी लड़कियों के साथ बैठी निटिंग में मशग़ूल थी। उन सब को अपनी सिम्त आता देखकर वो बच्चियों की तरह दौड़ती हुई क्वीनी के क़रीब आ गई। क्वीनी ने उसका तआ'रुफ़ किराया


“ये हमारे बौबी भाई हैं। इतनी बढ़िया ऐक्टिंग करते हैं कि तुम देखकर बिल्कुल इंतिक़ाल कर जाओगी।”
वो बच्चों की तरह मुस्कुराई। वो उसका मा'सूम
पाकीज़ा तबस्सुम
ऐक्टिंग उन दोनों का मुशतर्का मौज़ू’-ए-गुफ़्तुगू बन गया। वो सब शाम की चाय के लिए इकट्ठे वाइल्ड रोज़ वापिस आए।


वो ज़माना जो उस साल बौबी मुमताज़ ने मसूरी में गुज़ारा
उसकी ज़िंदगी का बेहतरीन वक़्त था। मालपर से विनसंट हिल की तरफ़ वापिस आते हुए एक रोज़ उसने फ़्रेड से कहा
“ठाकुर पाल फ्रेडरिक रणबीर सिंह... क्या तुम जानते हो कि इस वक़्त दुनिया का सबसे ख़ुश-क़िस्मत इंसान कौन है?”
फ़्रेड ने संजीदगी से नफ़ी में सर हिलाया।


“सुनो”
उसने कहना शुरू’ किया। “जिस तरह अक्सर अख़बारों के मैगज़ीन सैक्शन में एक कालम छपता है कि दुनिया की सबसे ऊँची इमारत एम्पायर स्टेट बिल्डिंग है। दुनिया का सबसे बड़ा पुल सिडनी में है। दुनिया का अमीर-तरीन शख़्स निज़ाम-ए-हैदराबाद है। उसी तरह इस मर्तबा छुपेगा कि दुनिया का सबसे ख़ुश-क़िस्मत शख़्स मुमताज़ सग़ीर अहमद है। समझे ठाकुर साहिब... मुमताज़ सग़ीर... क्या समझे?”
फ़्रेड खिलखिला कर हँस पड़ा। वो बहुत ही गिराँ-बार
संजीदा


सुलझा हुआ आदमी था। उसकी उ'म्र इकत्तीस-बत्तीस साल की रही होगी। बहुत ही कन्फ़र्मड क़िस्म का बैचलर था और सारे बैचलर्ज़ का माना हुआ गुरु। अपने एक निहायत ही सआ'दत-मंद चेले से ये बच्चों की सी बात सुनकर वो सिर्फ़ हँसता रहा। और उसने बौबी को कोई जवाब न दिया। बौबी बे-फ़िक्री से सीटी बजाता आगे गया।
सड़क की ढलवान पर से मुड़ते हुए उसकी नज़र एक बड़ी सी दो-मंज़िला कोठी पर पड़ी जिसे उसने आज तक नोटिस न किया था। शायद उसकी वज्ह यही रही हो कि इस वक़्त उसके अहाते में ख़ूब गहमा गहमी नज़र आ रही थी। दरवाज़ों पर रोग़न किया जा रहा था। छत पर भी नया सुर्ख़-रंग किया गया था। एक अधेड़ उ'म्र के दाढ़ी-दराज़ बुजु़र्गवार बर-आमदे में खड़े क़ुलियों और नौकरों को हिदायात दे रहे थे। बड़ा कर्र-ओ-फ़र्र। बड़ी शान-ओ-शौकत नज़र आ रही थी।
“ये किस का मकान है भई?”
बौबी ने एक क़ुली से पूछा।


“ये...? क़ाज़ी जलीलुर्रहमान का एश्ले हाल”
क़ुली ने बड़े रौ'ब से उसे मतला’ किया। और आगे चला गया।
सियाह बादल बहुत तेज़ी से बढ़ते आ रहे थे। यक-लख़्त बारिश का एक ज़ोरदार रेला आ गया। बौबी ने अपनी बरसाती सँभाल कर जल्दी से वाइल्ड-रोज़ के रास्ते चढ़ाई तय करनी शुरू’ कर दी।
वो जुलाई का दूसरा हफ़्ता था। मौसम-ए-गर्मा की छुट्टियाँ ख़त्म हो रही थीं। चंद रोज़ बा'द वो सब मसूरी से वापिस आ गए।


लेकिन क़ाज़ी जलीलुर्रहमान और उनके भाँजे अनीस को मौसमी तातीलात के ख़त्म हो जाने की परवा न थी। वो मुरादाबाद के नवाह के ज़मींदार थे। उनके पास वक़्त और रुपये की फ़रावानी थी। और इन दोनों चीज़ों का कोई मुसर्रिफ़ उनकी समझ में न आता था। इसी वज्ह से दोनों मामूँ भाँजे मसूरी आए थे और पानी की तरह रुपया बहाने में मसरूफ़ थे और अक्तूबर से पहले उनका मुरादाबाद जाने का कोई इरादा था।
अनीस के वालिद का साल भर क़ब्ल इंतिक़ाल हो चुका था। और उसके मामूँ क़ाज़ी साहिब ने ख़ुद को उसका गै़र-क़ानूनी मुशीर मुक़र्रर कर रखा था। उनका असर उस पर बहुत ज़ियादा था। क़ाज़ी साहिब बेहद दिल-चले और शौक़ीन आदमी थे। बहनोई के इंतिक़ाल के बा'द उन्होंने अंदाज़ा लगाया कि लड़का बहुत सीधा और ख़ासा कम-उ'म्र है और सारी रियासत अब उनके हाथ में है
लिहाज़ा अब तो रावी चीन लिखता है। चुनाँचे अनीस के वालिद की बरसी के बा'द पहला काम जो उन्होंने किया वो ये था कि पहाड़ पर चल के रहने के फ़वाइद उसे ज़हन-नशीन कराने शुरू’ किए।
उसके हवालियों-मवालियों ने भी उठते-बैठते उससे कहा कि सरकार इक ज़री थोड़ी दूर किसी फ़रहत-बख़्श मक़ाम पर हो आवें तो ग़म ग़लत होवेगा। वो फ़ौरन मान गया और अपना लाव-लश्कर लेकर क़ाज़ी साहिब की क़ियादत में मसूरी आन पहुँचा। तय किया गया कि होटल में ठहरना झोल है और उठाई-गीरों का काम है जिनका कोई ठौर-ठिकाना नहीं होता। हरी चुग की तरह आए और होटल में ठहर गए। लिहाज़ा एक उ'म्दा सी कोठी ख़रीदना चाहिए। अनीस ने कहा कि यहाँ की सबसे बढ़िया कोठी कौन सी है वही ख़रीद ली जाए। लोगों ने बताया कि कपूरथला हाऊस यहाँ की बेहतरीन कोठी समझी जाती है। कोठी क्या अच्छा-ख़ासा महल है। अनीस ने फ़ौरन अपनी चेक-बुक निकाली। ''लाओ फिर उसे ही ख़रीद हैं


'' उसने कहा
“अमाँ यार बावले हुए हो क्या। कपूरथला हाऊस तुम ख़रीद लोगे भला?”
एक दोस्त ने क़हक़हा लगाकर कहा।
“हुज़ूर दूसरा बेहतरीन मकान भोपाल हाऊस है। लेकिन इत्तिफ़ाक़ से वो भी बुक नहीं सकता। तीसरी बेहतरीन कोठी इसपर यंग-डील है और चौथी कोठी हुज़ूर के लाएक़ एश्ले हाल है”


एक मुसाहिब ने इत्तिला दी।
एश्ले हाल ख़रीद ली गई। उसे बेहतरीन साज़-ओ-सामान से आरास्ता किया गया। देहरादून से गोवा नीज़ मुलाज़िम और एक ऐंग्लो इंडियन हाऊस कीपर मँगवाई गई और एश्ले हाल मसूरी की चौथी बेहतरीन कोठी कहलाने लगी।
अनीस जब पहले-पहल मसूरी गया है उसकी ता'लीम ब-क़ौल शख़्से सिर्फ़ सरसी से संभल तलक की थी। नौवीं क्लास से उसने स्कूल छोड़ दिया था। इससे आगे पढ़ने की ज़रूरत ही न थी। अलबत्ता शेर के शिकार और शहसवारी और बुर्ज और घोड़-दौड़ के मैदान में रवेल खंड भर में दूर-दूर कोई उसका मुक़ाबला न कर सकता था। सोला साल की उ'म्र में उसकी शादी कुन्बे की एक लड़की से कर दी गई थी जो एक और ज़मींदार की इकलौती बेटी थी। अपनी जागीर पर बैठा चैन की बंसी बजाता था।
एश्ले हाल ख़रीद कर मसूरी में जब उसने रहना शुरू’ किया तो वहाँ की पहली झलक से उसकी आँखें चका-चौंद हो गईं। और उसने सोचा कि यार ये जो अब तक हम मुरादाबाद


संभल और अमरोहे में पड़े थे वो उतनी उ'म्र तो गोया बर्बाद ही गई। यहाँ तो एक अ'जीब-ओ-ग़रीब दुनिया आबाद थी। इंसानों की बस्ती थी। या इंद्र का अखाड़ा। चौदह तबक़ रौशन हो गए। लेकिन मुसीबत ये आन पड़ी कि एश्ले हाल का मालिक और मसूरी का सबसे ज़ियादा रुपया खर्चने वाला मेज़बान
लेकिन बिल्कुल ताज़ा-ताज़ा देहाती जागीरदार। इधर-उधर तो काम चल जाता था लेकिन ख़वातीन की सोसाइटी में बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ता था। पहला काम उसने ये किया कि एक ऐंग्लो इंडियन लेडी कम्पेनियन की ख़िदमात हासिल कीं। जो उसे सही अंग्रेज़ी बोलना और बाल रुम नाच सिखाए। चंद ही महीनों में वो एक और फ़र-फ़र अंग्रेज़ी बोलने वाला बेहद वेल ड्रेस्ड अनीस था जो मसूरी का सबसे ज़ियादा हर दिल-अ'ज़ीज़ शख़्स समझा जाता था। बिल्कुल ही काया पलट गई।
अगले साल 43 की गर्मियों में जब क्वीनी वजाहत और उनका ग्रुप मसूरी पहुँचा तो उन्हें एक ताज़ा वारिद अजनबी बाल रूम्ज़ की सत्ह पर बहता नज़र आया। जिसने हर तरफ़ धूम मचा रखी थी। वजाहत उसे पहले से जानता था। लेकिन इस अचानक काया पलट पर वो भी उसे न पहचान सका। इस साल वहाँ सारे मशहूर टेनिस स्टार्ज़ जमा थे। मिस ए'ज़ाज़
मिस काजी। ग़ियास मुहम्मद। अ'लीनगर की उबैदुल्लाह बहनें। उनकी भावज शाहनदा एहसान उबैदुल्लाह


बंबई से ज्योती भी हस्ब-ए-मा'मूल आया था। सीज़न अपने उ'रूज पर था। लखनऊ की खोचड़ बहनें भी हमेशा की तरह मौजूद थीं। निर्मला
प्रकाश
वायलट
रूबी ओब्ज़रोज़ा की पेशीन-गोई थी कि रूबी खोचड़ इस दफ़ा’ सालाना मुक़ाबला-ए-हुस्न में सिग्रिड रब्बानी से सबक़त ले जाएगी। एश्ले हाल की पार्टियों में ये सब अक्सर आतीं।


एक रोज़ हैकमैन्ज़ में अनीस रक़्स का पहला दौर ख़त्म करके क्वीनी की तरफ़ आया और उसे सलाम करके वजाहत के क़रीब जा बैठा।
“अबे ओबग़ चोंच... ये सूट बूट कैसे डाँट लिया। ये क्या स्वाँग भरा है ऐं?”
वजाहत ने उसे डाँट कर पूछा।
उसने इधर-उधर देखकर लड़कियों की मौजूदगी में ज़रा झेंपते हुए चुपके से वजाहत से पूछा


“क्यों यार अब ठीक लगता हूँ न...?”
“ज़रा इस गधे को देखना यासमीन डार्लिंग
ख़ुद तो शाम का लिबास पहन कर नाचता फिर रहा है और बीवी को वहीं क़स्बे में छोड़ रखा है। ऐसे आदमियों को तो बस...”
क्वीनी ने ग़ुस्से के साथ चुपके से कहा।


उसके अगले दिन क्वीनी अपने मकान के ऊपर के बरामदे में आराम-कुर्सी पर काहिल बिल्ली की तरह लेटी पढ़ने में मशग़ूल थी कि दफ़अ'तन उसे बरामदे के शीशों में से नज़र आया कि नशेब में ख़ान बहादुर ए'जाज़ अहमद के काटज के सामने रिक्शाएँ खड़ी हैं। बहुत से लोग आ जा रहे हैं और ख़ूब चहल-पहल है। यहाँ तक कि उनके बावर्ची-ख़ाने में से धुआँ तक उठ रहा है। ये बेहद अ'जीब और नई बात थी। क्यों कि ख़ान बहादुर साहिब का ख़ानदान उ'मूमन या दूसरों के हाँ मदऊ’ रहता था या होटलों में खाना खाता था। वो बड़ी हैरत से ये मंज़र देखती रही।
उसी वक़्त बारिश शुरू’ हो गई। और थोड़ी देर बा'द वजाहत और बौबी बरसातियों से लदे-फँदे भीगते भागते निचली मंज़िल की गैलरी में दाख़िल हुए। वो अभी ज़ीने ही पर थे कि क्वीनी चलाई
“अरे वुजू बौबी भैया जल्दी से ऊपर आओ...”
और जिस वक़्त वजाहत और बौबी बरामदे के दरीचे में आ खड़े हुए उन्हें अनीस अपना बेहतरीन सूट पहने सिगार का धुआँ उड़ाता ख़ान बहादुर साहिब के काटज में से निकलता नज़र आया।


“अच्छा... ये बात है…”
वजाहत ने बहुत आहिस्ता से कहा। उसे और बौबी को इतना रंजीदा देखकर क्वीनी का सारा एक्साइटमेन्ट रफ़ू-चक्कर हो गया। और वो भी बड़ी फ़िक्र-मंदी के साथ दोनों की कुर्सियों के नज़दीक फ़र्श पर बिल्ली की तरह आ बैठी और चेहरा ऊपर उठाकर दोनों लड़कों को ग़ौर से देखने लगी। वो दोनों ख़ामोश बैठे सिगरेट का धुआँ उड़ा रहे थे।
चच चच चच... बेचारा स्वीट बौबी मुमताज़। क्वीनी ने बेहद हम-दर्दी से दिल में सोचा। लेकिन ज़ियादा देर तक उससे इस संजीदगी से न बैठा गया। वो चुपके से उठकर भागी भागी गैलरी में पहुँची और यासमीन को फ़ोन करने के लिए रिसीवर उठाया।
“मैंने तुमसे कहा था क्वीनी डियर कि इस साल तो कोई और भी बुरा जनावर गिरा है। उस पिछले साल वाले किसी जनावर से भी बड़ा।”


दूसरे सिरे पर यासमीन बड़ी शगुफ़्तगी से कह रही थी
“और सुनो तो... कल मैंने सिग्रिड को नया लेपरडासकन कोट पहने देखा। ऐसा बढ़िया कि तुमने कभी ख़्वाब में भी न देखा होगा। और चची अरना का नया इवनिंग गाऊन। अस्ली टीफ़ेटा है। इस जंग के ज़माने में अस्ली टीफ़ेटा क्वीनी डार्लिंग... और टोटो कह रही थी कि उसने मिसिज़ राज पाल से सुना जिन्हें बेगम फ़ारूक़ी ने बताया कि मिसिज़ नारंग ने उनसे कहा कि आजकल ख़ान बहादुर साहिब के हाँ की ख़रीदारी के सारे बिल लीलाराम और फैंसी हाऊस वाले सीधे एश्ले हाल भेज देते हैं... ओ गौश।”
“ओगौश...”
क्वीनी ने अपनी आँखें बिल्कुल फैला कर फूले हुए साँस से दोहराया।


बारिश होती रही। रिसीवर रखकर वो आहिस्ता-आहिस्ता चलती हुई ऊपर आ गई और दरीचे में कुहनियाँ टेक कर बे-दिली से बाहर का मंज़र देखती रही जहाँ पानी के फ़व्वारों के साथ बादलों के टुकड़े इधर-उधर तैरते फिर रहे थे। वादी के नशेब में ख़ान बहादुर साहिब के काटज में पियानो बज रहा था और चची अरना अपने बरामदे में खड़ी किसी से बातें कर थीं।
चची अरना स्वीडिश थीं। जब वो पहली बार अपने शौहर के हमराह हिन्दोस्तान आई थीं। उस वक़्त उनका ख़याल था कि सर आग़ा ख़ाँ के इस सुनहरे देस में वो भी एक मर्मरीं महल-सरा में किसी अलिफ़-लैला सुल्ताना की तरह रहा करेंगी। लेकिन जब वो यहाँ पहुँचीं तो उन्हें पता चला कि मर्मरीं सुतूनों और ईरानी क़ालीनों वाली महल-सरा के बजाए उनके शौहर असग़र रब्बानी लखनऊ के एक निहायत गंदे मुहल्ले विक्टोरियागंज में रहते हैं। जहाँ एक बूढ़ी माँ है जो हर वक़्त

- क़ुर्रतुलऐन-हैदर


फ़ारस रोड से आप उस तरफ़ गली में चले जाइए जो सफ़ेद गली कहलाती है तो उसके आख़िरी सिरे पर आपको चंद होटल मिलेंगे। यूँ तो बंबई में क़दम क़दम पर होटल और रेस्तोराँ होते हैं मगर ये रेस्तोराँ इस लिहाज़ से बहुत दिलचस्प और मुनफ़रिद हैं कि ये उस इलाक़े में वाक़े हैं जहाँ भांत भांत की लौंडियां बस्ती हैं।
एक ज़माना गुज़र चुका है। बस आप यही समझिए कि बीस बरस के क़रीब
जब मैं उन रेस्तोरानों में चाय पिया करता था और खाना खाया करता था। सफ़ेद गली से आगे निकल कर “प्ले-हाऊस” आता है। उधर दिन भर हाव-हू रहती है।
सिनेमा के शो दिन भर चलते रहते थे। चम्पियाँ होती थीं। सिनेमा घर ग़ालिबन चार थे। उनके बाहर घंटियां बजा बजा कर बड़े समाअत-पाश तरीक़े पर लोगों को मदऊ करते


“आओ आओ... दो आने में फस्ट क्लास खेल... दो आने में!”
बा'ज़ औक़ात ये घंटियां बजाने वाले ज़बरदस्ती लोगों को अंदर धकेल देते थे। बाहर कुर्सीयों पर चम्पी कराने वाले बैठे होते थे जिनकी खोपड़ियों की मरम्मत बड़े साइंटिफ़िक तरीक़े पर की जाती थी।
मालिश अच्छी चीज़ है
लेकिन मेरी समझ में नहीं आता कि बंबई के रहने वाले इसके इतने गिरवीदा क्यूँ हैं। दिन को और रात को


हर वक़्त उन्हें तेल मालिश की ज़रूरत महसूस होती। आप अगर चाहें तो रात के तीन बजे बड़ी आसानी से तेल मालिशिया बुला सकते हैं। यूँ भी सारी रात
आप ख़्वाह बंबई के किसी कोने में हों
ये आवाज़ आप यक़ीनन सुनते रहेंगे। “पी... पी... पी...”
ये ‘पी’ चम्पी का मुख़फ़्फ़फ़ है।


फ़ारस रोड यूँ तो एक सड़क का नाम है लेकिन दरअस्ल ये उस पूरे इलाक़े से मंसूब है जहां बेसवाएँ बस्ती हैं। ये बहुत बड़ा इलाक़ा है। इसमें कई गलियां हैं जिनके मुख़्तलिफ़ नाम हैं
लेकिन सहूलत के तौर पर इसकी हर गली को फ़ारस रोड या सफ़ेद गली कहा जाता है। इसमें सैंकड़ों जंगला लगी दुकानें हैं जिनमें मुख़्तलिफ़ रंग-ओ-सिन की औरतें बैठ कर अपना जिस्म बेचती हैं। मुख़्तलिफ़ दामों पर
आठ आने से आठ रुपये तक
आठ रुपये से सौ रुपये तक... हर दाम की औरत आपको इस इलाक़े में मिल सकती है।


यहूदी
पंजाबी
मरहटी
कश्मीरी


गुजराती
बंगाली
ऐंग्लो इंडियन
फ़्रांसीसी


चीनी
जापानी ग़र्ज़ ये कि हर क़िस्म की औरत आपको यहां से दस्तियाब हो सकती है... ये औरतें कैसी होती हैं... माफ़ कीजिएगा
इसके मुतअल्लिक़ आप मुझसे कुछ न पूछिए... बस औरतें होती हैं और उनको गाहक मिल ही जाते हैं।
इस इलाक़े में बहुत से चीनी भी आबाद हैं। मालूम नहीं ये क्या कारोबार करते हैं


मगर रहते इसी इलाक़े में हैं। बा'ज़ तो रेस्तोराँ चलाते हैं जिनके बाहर बोर्डों पर ऊपर नीचे कीड़े मकोड़ों की शक्ल में कुछ लिखा होता है... मालूम नहीं क्या?
इस इलाक़े में बिजनेस मैन और हर क़ौम के लोग आबाद हैं। एक गली है जिसका नाम अरब सेन है। वहां के लोग उसे अरब गली कहते हैं। उस ज़माने में जिसकी मैं बात कर रहा हूँ
उस गली में ग़ालिबन बीस-पच्चीस अरब रहते थे जो ख़ुद को मोतियों के व्यापारी कहते थे। बाक़ी आबादी पंजाबियों और रामपुरियों पर मुश्तमिल थी।
उस गली में मुझे एक कमरा मिल गया था जिसमें सूरज की रोशनी का दाख़िला बंद था


हर वक़्त बिजली का बल्ब रोशन रहता था। उसका किराया साढे़ नौ रुपये माहवार था।
आपका अगर बंबई में क़याम नहीं रहा तो शायद आप मुश्किल से यक़ीन करें कि वहां किसी को किसी और से सरोकार नहीं होता। अगर आप अपनी खोली में मर रहे हैं तो आपको कोई नहीं पूछेगा। आपके पड़ोस में क़त्ल हो जाये
मजाल है जो आपको उसकी ख़बर हो जाये। मगर वहां अरब गली में सिर्फ़ एक शख़्स ऐसा था जिसको अड़ोस-पड़ोस के हर शख़्स से दिलचस्पी थी।
उसका नाम मम्मद भाई था। मम्मद भाई रामपुर का रहने वाला था। अव्वल दर्जे का फकेत


गतके और बनोट के फ़न में यकता। मैं जब अरब गली में आया तो होटलों में उसका नाम अक्सर सुनने में आया
लेकिन एक अर्से तक उससे मुलाक़ात न हो सकी।
मैं सुब्ह-सवेरे अपनी खोली से निकल जाता था और बहुत रात गए लौटता था। लेकिन मुझे मम्मद भाई से मिलने का बहुत इश्तियाक़ था क्यूँकि उसके मुतअल्लिक़ अरब गली में बेशुमार दास्तानें मशहूर थीं कि बीस-पच्चीस आदमी अगर लाठियों से मुसल्लह हो कर उस पर टूट पड़ें तो वो उसका बाल तक बाका नहीं कर सकते।
एक मिनट के अंदर-अंदर वो सबको चित कर देता है और ये कि उस जैसा छुरी मार सारी बंबई में नहीं मिल सकता। ऐसे छुरी मारता है कि जिसके लगती है उसे पता भी नहीं चलता। सौ क़दम बगै़र एहसास के चलता रहता है और आख़िर एक दम ढेर हो जाता है। लोग कहते हैं कि ये उसके हाथ की सफ़ाई है।


उसके हाथ की सफ़ाई देखने का मुझे इश्तियाक़ नहीं था लेकिन यूँ उसके मुतअल्लिक़ और बातें सुन सुन कर मेरे दिल में ये ख़्वाहिश ज़रूर पैदा हो चुकी थी कि मैं उसे देखूँ। उससे बातें न करूँ लेकिन क़रीब से देख लूँ कि वो कैसा है।
उस तमाम इलाक़े पर उसकी शख़्सियत छाई हुई थी। वो बहुत बड़ा दादा यानी बदमाश था। लेकिन उसके बावजूद लोग कहते थे कि उसने किसी की बहू-बेटी की तरफ़ आँख उठा कर भी नहीं देखा। लंगोट का बहुत पक्का है। ग़रीबों के दुख दर्द का शरीक है। अरब गली... सिर्फ़ अरब गली ही नहीं
आस पास जितनी गलियाँ थीं
उनमें जितनी नादार औरतें थी


सब मम्मद भाई को जानती थीं क्यूँकि वो अक्सर उनकी माली इमदाद करता रहता था। लेकिन वो ख़ुद उनके पास कभी नहीं जाता था। अपने किसी ख़ुर्द-साल शागिर्द को भेज देता था और उनकी ख़ैरियत दरयाफ़्त कर लिया करता था।
मुझे मालूम नहीं उसकी आमदनी के क्या ज़राए थे। अच्छा खाता था
अच्छा पहनता था। उसके पास एक छोटा सा ताँगा था जिसमें बड़ा तंदुरुस्त टट्टू जुता होता था
उसको वो ख़ुद चलाता था। साथ दो या तीन शागिर्द होते थे


बड़े बाअदब... भिंडी बाज़ार का एक चक्कर लगाया किसी दरगाह में हो कर वो उस तांगे में वापस अरब गली आ जाता था और किसी ईरानी के होटल में बैठ कर अपने शागिर्दों के साथ गतके और बनोट की बातों में मसरूफ़ हो जाता था।
मेरी खोली के साथ ही एक और खोली थी जिसमें मारवाड़ का एक मुसलमान रक्कास रहता था। उसने मुझे मम्मद भाई की सैंकड़ों कहानियां सुनाईं। उसने मुझे बताया कि मम्मद भाई एक लाख रुपये का आदमी है। उसको एक मर्तबा हैज़ा हो गया था। मम्मद भाई को पता चला तो उसने फ़ारस रोड के तमाम डाक्टर उसकी खोली में इकट्ठे कर दिए और उनसे कहा
“देखो
अगर आशिक़ हुसैन को कुछ हो गया तो मैं सब का सफ़ाया कर दूँगा।”


आशिक़ हुसैन ने बड़े अक़ीदतमंदाना लहजे में मुझसे कहा
“मंटो साहब! मम्मद भाई फ़रिश्ता है... फ़रिश्ता... जब उसने डाक्टरों को धमकी दी तो वो सब काँपने लगे। ऐसा लग के इलाज किया कि मैं दो दिन में ठीक ठाक हो गया।”
मम्मद भाई के मुतअल्लिक़ मैं अरब गली के गंदे और वाहियात रेस्तोरानों में और भी बहुत कुछ सुन चुका था। एक शख़्स ने जो ग़ालिबन उसका शागिर्द था और ख़ुद को बहुत बड़ा फकेत समझता था
मुझसे ये कहा था कि मम्मद दादा अपने नेफ़े में एक ऐसा आबदार ख़ंजर उड़स के रखता है जो उस्तुरे की तरह शेव भी कर सकता है और ये ख़ंजर नियाम में नहीं होता


खुला रहता है। बिल्कुल नंगा
और वो भी उसके पेट के साथ। उसकी नोक इतनी तीखी है कि अगर बातें करते हुए
झुकते हुए उससे ज़रा सी ग़लती हो जाये तो मम्मद भाई का एक दम काम तमाम हो के रह जाये।
ज़ाहिर है कि उसको देखने और उससे मिलने का इश्तियाक़ दिन ब दिन मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में बढ़ता गया। मालूम नहीं मैंने अपने तसव्वुर में उसकी शक्ल-ओ-सूरत का क्या नक़्शा तैयार किया था


बहरहाल इतनी मुद्दत के बाद मुझे सिर्फ़ इतना याद है कि मैं एक क़वी हैकल इंसान को अपनी आँखों के सामने देखता था जिसका नाम मम्मद भाई था। उस क़िस्म का आदमी जौहर को लैस साइकलों पर इश्तिहार के तौर पर दिया जाता है।
मैं सुबह सवेरे अपने काम पर निकल जाता था और रात को दस बजे के क़रीब खाने-वाने से फ़ारिग़ हो कर वापस आ कर फ़ौरन सो जाता था। इस दौरान में मम्मद भाई से कैसे मुलाक़ात हो सकती थी। मैंने कई मर्तबा सोचा कि काम पर न जाऊं और सारा दिन अरब गली में गुज़ार कर मम्मद भाई को देखने की कोशिश करूं
मगर अफ़्सोस कि मैं ऐसा न कर सका इसलिए कि मेरी मुलाज़िमत ही बड़ी वाहियात क़िस्म की थी।
मम्मद भाई से मुलाक़ात करने की सोच ही रहा था कि अचानक एंफ्लूएंज़ा ने मुझ पर ज़बरदस्त हमला किया। ऐसा हमला कि मैं बौखला गया। ख़तरा था कि ये बिगड़ कर निमोनिया में तबदील हो जाएगा


क्यूँकि अरब गली के एक डाक्टर ने यही कहा था।
मैं बिल्कुल तन-ए-तनहा था। मेरे साथ जो एक आदमी रहता था
उसको पूना में नौकरी मिल गई थी
इसलिए उसकी रिफ़ाक़त भी नसीब नहीं थी। मैं बुख़ार में फुंका जा रहा था। इस क़दर प्यास थी कि जो पानी खोली में रखा था


वो मेरे लिए ना-काफ़ी था और दोस्त-यार कोई पास नहीं था जो मेरी देख भाल करता।
मैं बहुत सख़्त जान हूँ
देख-भाल की मुझे उमूमन ज़रूरत महसूस नहीं हुआ करती। मगर मालूम नहीं कि वो किस क़िस्म का बुख़ार था। एंफ्लूएंज़ा था
मलेरिया था या और क्या था। लेकिन उसने मेरी रीढ़ की हड्डी तोड़ दी। मैं बिलबिलाने लगा। मेरे दिल में पहली मर्तबा ख़्वाहिश पैदा हुई कि मेरे पास कोई हो जो मुझे दिलासा दे। दिलासा न दे तो कम-अज़-कम एक सेकेंड के लिए अपनी शक्ल दिखा के चला जाये ताकि मुझे ये ख़ुशगवार एहसास हो कि मुझे पूछने वाला भी कोई है।


दो दिन तक मैं बिस्तर में पड़ा तकलीफ़ भरी करवटें लेता रहा
मगर कोई न आया... आना भी किसे था... मेरी जान-पहचान के आदमी ही कितने थे... दो-तीन या चार... और वो इतनी दूर रहते थे कि उनको मेरी मौत का इल्म भी नहीं हो सकता था... और फिर यहां बंबई में कौन किसको पूछता है... कोई मरे या जिए... उनकी बला से।
मेरी बहुत बुरी हालत थी। आशिक़ हुसैन डांसर की बीवी बीमार थी इसलिए वो अपने वतन जा चुका था। ये मुझे होटल के छोकरे ने बताया था। अब मैं किसको बुलाता... बड़ी निढाल हालत में था और सोच रहा था कि ख़ुद नीचे उतरूँ और किसी डाक्टर के पास जाऊं कि दरवाज़े पर दस्तक हुई।
मैं ने ख़याल किया कि होटल का छोकरा जिसे बंबई की ज़बान में बाहर वाला कहते हैं


होगा। बड़ी मरियल आवाज़ में कहा
“आ जाओ!”
दरवाज़ा खुला और एक छरेरे बदन का आदमी
जिसकी मूंछें मुझे सबसे पहले दिखाई दीं


अंदर दाख़िल हुआ।
उसकी मूंछें ही सब कुछ थीं। मेरा मतलब ये है कि अगर उसकी मूंछें न होतीं तो बहुत मुम्किन है कि वो कुछ भी न होता। उसकी मूंछों ही से ऐसा मालूम होता था कि उसके सारे वजूद को ज़िंदगी बख़्श रखी है।
वो अंदर आया और अपनी क़ैसर विलियम जैसी मूंछों को एक उंगली से ठीक करते हुए मेरी खाट के क़रीब आया। उसके पीछे पीछे तीन-चार आदमी थे
अजीब-ओ-ग़रीब वज़ा क़ता के। मैं बहुत हैरान था कि ये कौन हैं और मेरे पास क्यूँ आए हैं।


क़ैसर विलियम जैसी मूंछों और छरेरे बदन वाले ने मुझसे बड़ी नर्म-ओ-नाज़ुक आवाज़ में कहा
“वमटो साहब! आपने हद कर दी। साला मुझे इत्तिला क्यूँ न दी?” मंटो का वमटो बन जाना मेरे लिए कोई नई बात नहीं थी। इसके अलावा मैं इस मूड में भी नहीं था कि मैं उसकी इस्लाह करता। मैंने अपनी नहीफ़ आवाज़ में उसकी मूंछों से सिर्फ़ इतना कहा
“आप कौन हैं?”
उसने मुख़्तसर सा जवाब दिया


“मम्मद भाई!”
मैं उठ कर बैठ गया
“मम्मद भाई... तो... तो आप मम्मद भाई हैं... मशहूर दादा!”
मैंने ये कह तो दिया। लेकिन फ़ौरन मुझे अपने बेंडेपन का एहसास हुआ और रुक गया। मम्मद भाई ने छोटी उंगली से अपनी मूंछों के करख़्त बाल ज़रा ऊपर किए और मुस्कुराया


“हाँ वमटो भाई... मैं मम्मद हूँ... यहां का मशहूर दादा... मुझे बाहर वाले से मालूम हुआ कि तुम बीमार हो... साला ये भी कोई बात है कि तुमने मुझे ख़बर न की। मम्मद भाई का मस्तक फिर जाता है
जब कोई ऐसी बात होती है।”
मैं जवाब में कुछ कहने वाला था कि उसने अपने साथियों में से एक से मुख़ातिब हो कर कहा
“अरे... क्या नाम है तेरा... जा भाग के जा


और क्या नाम है उस डाक्टर का... समझ गए न उससे कह कि मम्मद भाई तुझे बुलाता है... एक दम जल्दी आ... एक दम सब काम छोड़ दे और जल्दी आ... और देख साले से कहना
सब दवाएं लेता आए।”
मम्मद भाई ने जिसको हुक्म दिया था
वो एक दम चला गया। मैं सोच रहा था। मैं उसको देख रहा था... वो तमाम दास्तानें मेरे बुख़ार आलूद दिमाग़ में चल फिर रही थीं। जो मैं उसके मुतअल्लिक़ लोगों से सुन चुका था... लेकिन गड-मड सूरत में। क्यूँकि बार बार उसको देखने की वजह से उसकी मूंछें सब पर छा जाती थीं।


बड़ी ख़ौफ़नाक
मगर बड़ी ख़ूबसूरत मूंछें थीं। लेकिन ऐसा महसूस होता था कि उस चेहरे को जिसके ख़द-ओ-ख़ाल बड़े मुलायम और नर्म-ओ-नाज़क हैं
सिर्फ़ ख़ौफ़नाक बनाने के लिए ये मूंछें रखी गई हैं। मैंने अपने बुख़ार आलूद दिमाग़ में ये सोचा कि ये शख़्स दरहक़ीक़त इतना ख़ौफ़नाक नहीं जितना उसने ख़ुद को ज़ाहिर कर रखा है।
खोली में कुर्सी नहीं। मैंने मम्मद भाई से कहा वो मेरी चारपाई पर बैठ जाये। मगर उसने इनकार कर दिया और बड़े रूखे से लहजे में कहा


ठीक है... हम खड़े रहेंगे।”

फिर उसने टहलते हुए हालाँकि उस खोली में उस अय्याशी की कोई गुंजाइश नहीं थी
कुर्ते का दामन उठा कर पाजामे के नेफ़े से एक ख़ंजर निकाला... मैं समझा चांदी का है। इस क़दर लश्क रहा था कि मैं आपसे क्या कहूं। ये ख़ंजर निकाल कर पहले उसने अपनी कलाई पर फेरा। जो बाल उसकी ज़द में आए


सब साफ़ हो गए। उसने इस पर अपने इत्मिनान का इज़हार किया और नाख़ुन तराशने लगा।
उसकी आमद ही से मेरा बुख़ार कई दर्जे नीचे उतर गया था। मैंने अब किसी क़दर होशमंद हालत में उससे कहा
“मम्मद भाई... ये छुरी तुम इस तरह अपने... नेफ़े में यानी बिल्कुल अपने पेट के साथ रखते हो इतनी तेज़ है
क्या तुम्हें ख़ौफ़ महसूस नहीं होता?”


मम्मद ने ख़ंजर से अपने नाख़ुन की एक क़ाश बड़ी सफ़ाई से उड़ाते हुए जवाब दिया
“वमटो भाई... ये छुरी दूसरों के लिए है। ये अच्छी तरह जानती है। साली
अपनी चीज़ है
मुझे नुक़्सान कैसे पहुंचाएगी?”


छुरी से जो रिश्ता उसने क़ायम किया था वो कुछ ऐसा ही था जैसे कोई माँ या बाप कहे कि ये मेरा बेटा है
या बेटी है। उसका हाथ मुझ पर कैसे उठ सकता है।
डॉक्टर आ गया... उसका नाम पिंटू था और मैं वमटो... उसने मम्मद भाई को अपने क्रिस्चियन अंदाज़ में सलाम किया और पूछा कि मुआमला क्या है। जो मुआमला था
वो मम्मद भाई ने बयान कर दिया। मुख़्तसर


लेकिन कड़े अल्फ़ाज़ में
जिनमें तहक्कुम था कि देखो अगर तुमने वमटो भाई का इलाज अच्छी तरह न किया तो तुम्हारी ख़ैर नहीं।
डॉक्टर पिंटू ने फ़रमांबर्दार लड़के की तरह अपना काम किया। मेरी नब्ज़ देखी... स्टेथिस्कोप लगा मेरे सीने और पीठ का मुआइना किया
ब्लड प्रेशर देखा। मुझ से मेरी बीमारी की तमाम तफ़्सील पूछी। इसके बाद उसने मुझसे नहीं


मम्मद भाई से कहा
“कोई फ़िक्र की बात नहीं है... मलेरिया है... मैं इंजेक्शन लगा देता हूँ।”
मम्मद भाई मुझसे कुछ फ़ासले पर खड़ा था। उसने डॉक्टर पिंटू की बात सुनी और ख़ंजर से अपनी कलाई के बाल उड़ाते हुए कहा
“मैं कुछ नहीं जानता। इंजेक्शन देना है तो दे


लेकिन अगर इसे कुछ हो गया तो...”
डॉक्टर पिंटू काँप गया
“नहीं मम्मद भाई... सब ठीक हो जाएगा।”
मम्मद भाई ने ख़ंजर अपने नेफ़े में उड़स लिया


“तो ठीक है।”
“तो मैं इंजेक्शन लगाता हूँ।” डॉक्टर ने अपना बैग खोला और सिरिंज निकाली... “ठहरो... ठहरो...”
मम्मद भाई घबरा गया था। डाक्टर ने सिरिंज फ़ौरन बैग में वापस रख दी और मिमयाते हुए मम्मद भाई से मुख़ातिब हुआ। “क्यों?”
“बस... मैं किसी के सुई लगते नहीं देख सकता।” ये कह कर वो खोली से बाहर चला गया। उसके साथ ही उसके साथी भी चले गए।


डॉक्टर पिंटू ने मेरे कुनैन का इंजेक्शन का लगाया। बड़े सलीक़े से
वर्ना मलेरिया का ये इंजेक्शन बड़ा तक्लीफ़दह होता है। जब वो फ़ारिग़ हुआ तो मैंने उससे फ़ीस पूछी
“उसने कहा दस रुपये!” मैं तकिए के नीचे से अपना बटूवा निकाल रहा था कि मम्मद भाई अंदर आ गया। उस वक़्त मैं दस रुपये का नोट डॉक्टर पिंटू को दे रहा था।
मम्मद भाई ने ग़ज़ब आलूद निगाहों से मुझे और डाक्टर को देखा और गरज कर कहा


“ये क्या हो रहा है?”
मैं ने कहा
“फ़ीस दे रहा हूँ।”
मम्मद भाई डाक्टर पिंटू से मुख़ातिब हुआ


“साले ये फ़ीस कैसी ले रहे हो?”
डॉक्टर पिंटू बौखला गया
“मैं कब ले रहा हूँ... ये दे रहे थे!”
“साला... हमसे फ़ीस लेते हो... वापस करो ये नोट!” मम्मद भाई के लहजे में उसके ख़ंजर ऐसी तेज़ी थी।


डाक्टर पिंटो ने मुझे नोट वापस कर दिया और बैग बंद कर के मम्मद भाई से माज़रत तलब करते हुए चला गया।
मम्मद भाई ने एक उंगली से अपनी कांटों ऐसी मूंछों को ताव दिया और मुस्कुराया
“वमटो भाई... ये भी कोई बात है कि इस इलाक़े का डाक्टर तुमसे फीस ले... तुम्हारी कसम
अपनी मूंछें मुंडवा देता अगर इस साले ने फ़ीस ली होती... यहां सब तुम्हारे ग़ुलाम हैं।”


थोड़े से तवक्कुफ़ के बाद मैंने उससे पूछा
“मम्मद भाई! तुम मुझे कैसे जानते हो?”
मम्मद भाई की मूंछें थरथराईं
“मम्मद भाई किसे नहीं जानता... हम यहाँ के बादशाह हैं प्यारे... अपनी रिआया का ख़याल रखते हैं। हमारी सी आई डी है। वो हमें बताती रहती है... कौन आया है


कौन गया है
कौन अच्छी हालत में है
कौन बुरी हालत में... तुम्हारे मुतअल्लिक़ हम सब कुछ जानते हैं।”
मैंने अज़राह-ए-तफ़न्नुन पूछा


“क्या जानते हैं आप?”
“साला... हम क्या नहीं जानते... तुम अमृतसर का रहने वाला है... कश्मीरी है... यहां अख़बारों में काम करता है... तुमने बिसमिल्लाह होटल के दस रुपये देने हैं
इसीलिए तुम उधर से नहीं गुज़रते। भिंडी बाज़ार में एक पान वाला तुम्हारी जान को रोता है। उससे तुम बीस रुपये दस आने के सिगरेट लेकर फूंक चुके हो।”
मैं पानी पानी हो गया।


मम्मद भाई ने अपनी करख़्त मूंछों पर एक उंगली फेरी और मुस्कुरा कर कहा
“वमटो भाई! कुछ फ़िक्र न करो। तुम्हारे सब क़र्ज़ चुका दिए गए हैं। अब तुम नए सिरे से मुआमला शुरू कर सकते हो। मैंने उन सालों से कह दिया है कि ख़बरदार! अगर वमटो भाई को तुम ने तंग किया... और मम्मद भाई तुमसे कहता है कि इंशाअल्लाह कोई तुम्हें तंग नहीं करेगा।”
मेरी समझ में नहीं आता था कि उससे क्या कहूं। बीमार था
कुनैन का टीका लग चुका था। जिसके बाइस कानों में शाएं शाएं हो रही थी। इसके अलावा मैं उसके ख़ुलूस के नीचे इतना दब चुका था कि अगर मुझे कोई निकालने की कोशिश करता तो उसे बहुत मेहनत करनी पड़ती... मैं सिर्फ़ इतना कह सका


“मम्मद भाई! ख़ुदा तुम्हें ज़िंदा रखे... तुम ख़ुश रहो।”
मम्मद भाई ने अपनी मूंछों के बाल ज़रा ऊपर किए और कुछ कहे बगै़र चला गया।
डाक्टर पिंटू हर रोज़ सुब्ह शाम आता रहा। मैंने उससे कई मर्तबा फ़ीस का ज़िक्र किया मगर उसने कानों को हाथ लगा कर कहा
“नहीं


मिस्टर मंटो! मम्मद भाई का मुआमला है मैं एक डेढ़िया भी नहीं ले सकता।”
मैंने सोचा ये मम्मद भाई कोई बहुत बड़ा आदमी है। यानी ख़ौफ़नाक क़िस्म का जिससे डॉक्टर पिंटू जो बड़ा ख़सीस क़िस्म का आदमी है
डरता है और मुझसे फ़ीस लेने की जुरअत नहीं करता। हालाँकि वो अपनी जेब से इंजेक्शनों पर ख़र्च कर रहा है।
बीमारी के दौरान में मम्मद भाई भी बिला नागा आता रहा। कभी सुब्ह आता


कभी शाम को
अपने छः सात शागिर्दों के साथ और मुझे हर मुम्किन तरीक़े से ढारस देता था कि मामूली मलेरिया है
तुम डाक्टर पिंटू के इलाज से इंशाअल्लाह बहुत जल्द ठीक हो जाओगे।
पंद्रह रोज़ के बाद मैं ठीक ठाक हो गया। इस दौरान में मम्मद भाई के हर ख़द-ओ-ख़ाल को अच्छी तरह देख चुका था।


जैसा कि मैं इससे पेशतर कह चुका हूँ
वो छरेरे बदन का आदमी था। उम्र यही पच्चीस-तीस के दरमियान होगी। पतली पतली बांहें
टांगें भी ऐसी ही थीं। हाथ बला के फुर्तीले थे। उनसे जब वो छोटा तेज़ धार चाक़ू किसी दुश्मन पर फेंकता था तो वो सीधा उसके दिल में खुबता था। ये मुझे अरब के गली ने बताया था।
उसके मुतअल्लिक़ बेशुमार बातें मशहूर थीं


उसने किसी को क़त्ल किया था
मैं उसके मुतअल्लिक़ वसूक़ से कुछ नहीं कह सकता। छुरी मार वो अव्वल दर्जे का था। बनोट और गतके का माहिर। यूं सब कहते थे कि वो सैंकड़ों क़त्ल कर चुका है
मगर मैं ये अब भी मानने को तैयार नहीं।
लेकिन जब मैं उसके ख़ंजर के मुतअल्लिक़ सोचता हूँ तो मेरे तन-बदन पर झुरझुरी सी तारी हो जाती है। ये ख़ौफ़नाक हथियार वो क्यूँ हर वक़्त अपनी शलवार के नेफ़े में उड़से रहता है।


मैं जब अच्छा हो गया तो एक दिन अरब गली के एक थर्ड क्लास चीनी रेस्तोराँ में उससे मेरी मुलाक़ात हुई। वो अपना वही ख़ौफ़नाक ख़ंजर निकाल कर अपने नाख़ुन काट रहा था। मैंने उससे पूछा
“मम्मद भाई... आज कल बंदूक़-पिस्तौल का ज़माना है... तुम ये ख़ंजर क्यूँ लिए फिरते हो?”
मम्मद भाई ने अपनी करख़्त मूंछों पर एक उंगली फेरी और कहा
“वमटो भाई! बंदूक़-पिस्तौल में कोई मज़ा नहीं। उन्हें कोई बच्चा भी चला सकता। घोड़ा दबाया और ठाह... उसमें क्या मज़ा है... ये चीज़... ये ख़ंजर... ये छुरी... ये चाक़ू... मज़ा आता है ना


ख़ुदा की क़सम... ये वो है...तुम क्या कहा करते हो... हाँ... आर्ट.. इसमें आर्ट होता है मेरी जान... जिसको चाक़ू या छुरी चलाने का आर्ट न आता हो वो एक दम कंडम है।
“पिस्तौल क्या है... खिलौना है जो नुक़्सान पहुंचा सकता है... पर उसमें क्या लुत्फ़ आता है... कुछ भी नहीं... तुम ये ख़ंजर देखो... इसकी तेज़ धार देखो।” ये कहते हुए उसने अंगूठे पर लब लगाया और उसकी धार पर फेरा। “इससे कोई धमाका नहीं होता... बस
यूँ पेट के अंदर दाख़िल कर दो... इस सफ़ाई से कि उस साले को मालूम तक न हो... बंदूक़
पिस्तौल सब बकवास है।”


मम्मद भाई से अब हर रोज़ किसी न किसी वक़्त मुलाक़ात हो जाती थी। मैं उसका ममनून-ए-एहसान था... लेकिन जब मैं उसका ज़िक्र किया करता तो वो नाराज़ हो जाता। कहता था कि मैंने तुम पर कोई एहसान नहीं किया
ये तो मेरा फ़र्ज़ था।
जब मैंने कुछ तफ़्तीश की तो मुझे मालूम हुआ कि फ़ारस रोड के इलाक़े का वो एक क़िस्म का हाकिम है। ऐसा हाकिम जो हर शख़्स की ख़बरगीरी करता था। कोई बीमार हो
किसी के कोई तकलीफ़ हो


मम्मद भाई उसके पास पहुंच जाता था और ये उसकी सी आई डी का काम था जो उसको हर चीज़ से बाख़बर रखती थी।
वो दादा था यानी एक ख़तरनाक ग़ुंडा। लेकिन मेरी समझ में अब भी नहीं आता कि वो किस लिहाज़ से ग़ुंडा था। ख़ुदा वाहिद शाहिद है कि मैंने उसमें कोई ग़ुंडापन नहीं देखा। एक सिर्फ़ उसकी मूंछें थीं जो उसको हैबतनाक बनाए रखती थीं। लेकिन उसको उनसे प्यार था। वो उनकी इस तरह परवरिश करता था जिस तरह कोई अपने बच्चे की करे।
उसकी मूंछों का एक एक बाल खड़ा था
जैसे ख़ार-पुश्त का... मुझे किसी ने बताया कि मम्मद भाई हर रोज़ अपनी मूंछों को बालाई खिलाता है। जब खाना खाता है तो सालन भरी उंगलियों से अपनी मूंछें ज़रूर मरोड़ता है कि बुज़ुर्गों के कहने के मुताबिक़ यूँ बालों में ताक़त आती है।


मैं उससे पेशतर ग़ालिबन कई मर्तबा कह चुका हूँ कि उसकी मूंछें बड़ी ख़ौफ़नाक थीं। दरअस्ल मूंछों का नाम ही मम्मद भाई था... या उस ख़ंजर का जो उसकी तंग घेरे की शलवार के नेफ़े में हर वक़्त मौजूद रहता था। मुझे उन दोनों चीज़ों से डर लगता था
न मालूम क्यों?
मम्मद भाई यूँ तो उस इलाक़े का बहुत बड़ा दादा था
लेकिन वो सबका हमदर्द था। मालूम नहीं उसकी आमदनी के क्या ज़राए थे


पर वो हर हाजतमंद की बरवक़्त मदद करता था। उस इलाक़े की तमाम रंडियाँ उसको अपना पीर मानती थी। चूँकि वो एक माना हुआ ग़ुंडा था
इसलिए लाज़िम था कि उसका तअल्लुक़ वहां की किसी तवाइफ़ से होता
मगर मुझे मालूम हुआ कि इस क़िस्म के सिलसिले से उसका दूर का भी तअल्लुक़ नहीं रहा था।
मेरी उसकी बड़ी दोस्ती हो गई थी। अनपढ़ था


लेकिन जाने क्यूँ वो मेरी इतनी इज़्ज़त करता था कि अरब गली के तमाम आदमी रश्क करते थे। एक दिन सुब्ह-सवेरे
दफ़्तर जाते वक़्त मैंने चीनी के होटल में किसी से सुना कि मम्मद भाई गिरफ़्तार कर लिया गया है।
मुझे बहुत ताज्जुब हुआ
इसलिए कि तमाम थाने वाले उसके दोस्त थे। क्या वजह हो सकती थी... मैंने उसके आदमी से पूछा कि क्या बात हुई जो मम्मद भाई गिरफ़्तार हो गया। उसने मुझसे कहा कि इसी अरब गली में एक औरत रहती है


जिसका नाम शीरीं बाई है। उसकी एक जवान लड़की है
उसको कल एक आदमी ने ख़राब कर दिया। यानी उसकी इस्मतदरी कर दी। शीरीं बाई रोती हुई मम्मद भाई के पास आई और उससे कहा तुम यहाँ के दादा हो। मेरी बेटी से फ़लाँ आदमी ने ये बुरा किया है... ला'नत है तुम पर कि तुम घर में बैठे हो।
मम्मद भाई ने ये मोटी गाली उस बुढ़िया को दी और कहा
“तुम चाहती क्या हो?” उसने कहा


“मैं चाहती हूँ कि तुम उस हरामज़ादे का पेट चाक कर दो।”
मम्मद भाई उस वक़्त होटल में सेस पाव के साथ क़ीमा खा रहा था। ये सुन कर उसने अपने नेफ़े में से ख़ंजर निकाला। उसपर अंगूठा फेर कर उसकी धार देखी और बुढ़िया से कहा
“जा... तेरा काम हो जाएगा।”
और उसका काम हो गया... दूसरे मअनों में जिस आदमी ने उस बुढ़िया की लड़की की इस्मतदरी की थी


आध घंटे के अंदर अंदर उसका काम तमाम हो गया।
मम्मद भाई गिरफ़्तार तो हो गया था
मगर उसने काम इतनी होशियारी और चाबुक-दस्ती से किया था कि उसके ख़िलाफ़ कोई शहादत नहीं थी। इसके अलावा अगर कोई ऐनी शाहिद मौजूद भी होता तो वो कभी अदालत में बयान न देता। नतीजा ये हुआ कि उसको ज़मानत पर रिहा कर दिया गया।
दो दिन हवालात में रहा था


मगर उसको वहां कोई तकलीफ़ न थी। पुलिस के सिपाही
इन्सपेक्टर
सब इन्सपेक्टर सब उसको जानते थे। लेकिन जब वो ज़मानत पर रिहा हो कर बाहर आया तो मैंने महसूस किया कि उसे अपनी ज़िंदगी का सबसे बड़ा धचका पहुंचा है। उसकी मूंछें जो ख़ौफ़नाक तौर पर ऊपर को उठी होती थीं अब किसी क़दर झुकी हुई थीं।
चीनी के होटल में उससे मेरी मुलाक़ात हुई। उसके कपड़े जो हमेशा उजले होते थे


मैले थे। मैंने उससे क़त्ल के मुतअल्लिक़ कोई बात न की लेकिन उसने ख़ुद कहा
“वमटो साहब! मुझे इस बात का अफ़सोस है कि साला देर से मरा... छुरी मारने में मुझसे ग़लती हो गई
हाथ टेढ़ा पड़ा... लेकिन वो भी उस साले का क़ुसूर था... एक दम मुड़ गया और इस वजह से सारा मुआमला कंडम हो गया... लेकिन मर गया... ज़रा तकलीफ़ के साथ
जिसका मुझे अफ़्सोस है।”


आप ख़ुद सोच सकते हैं कि मेरा रद्द-ए-अमल क्या होगा। यानी उसको अफ़सोस था कि वो उसे ब-तरीक़-ए-अहसन क़त्ल न कर सका
और ये कि मरने में उसे ज़रा तकलीफ़ हुई है।
मुक़द्दमा चलना था... और मम्मद भाई उससे बहुत घबराता था। उसने अपनी ज़िंदगी में अदालत की शक्ल कभी नहीं देखी थी। मालूम नहीं उसने इससे पहले भी क़त्ल किए थे कि नहीं लेकिन जहाँ तक मेरी मा'लूमात का ता'ल्लुक़ नहीं वो मजिस्ट्रेट
वकील और गवाह के मुतअल्लिक़ कुछ नहीं जानता था


इसलिए कि उसका साबक़ा उन लोगों से कभी पड़ा नहीं था।
वो बहुत फ़िक्रमंद था। पुलिस ने जब केस पेश करना चाहा और तारीख़ मुक़र्रर हो गई तो मम्मद भाई बहुत परेशान हो गया। अदालत में मजिस्ट्रेट के सामने कैसे हाज़िर हुआ जाता है
इसके मुतअल्लिक़ उसको क़तअन मालूम नहीं था। बार बार वो अपनी करख़्त मूंछों पर उंगलियां फेरता और मुझसे कहता था
“वमटो साहिब! मैं मर जाऊंगा पर कोर्ट नहीं जाऊंगा... साली


मालूम नहीं कैसी जगह है।”
अरब गली में उसके कई दोस्त थे। उन्होंने उसको ढारस दी कि मुआमला संगीन नहीं है। कोई गवाह मौजूद नहीं
एक सिर्फ़ उसकी मूंछें हैं जो मजिस्ट्रेट के दिल में उसके ख़िलाफ़ यक़ीनी तौर पर कोई मुख़ालिफ़ जज़्बा पैदा कर सकती हैं।
जैसा कि मैं इससे पेशतर कह चुका हूँ कि उसकी सिर्फ़ मूंछें ही थीं जो उसको ख़ौफ़नाक बनाती थीं... अगर ये न होतीं तो वो हरगिज़ हरगिज़ दादा दिखाई न देता।


उसने बहुत ग़ौर किया। उसकी ज़मानत थाने ही में हो गई थी। अब उसे अदालत में पेश होना था। मजिस्ट्रेट से वो बहुत घबराता था। ईरानी के होटल में जब मेरी मुलाक़ात हुई तो मैंने महसूस किया कि वो बहुत परेशान है। उसको अपनी मूंछों के मुतअल्लिक़ बड़ी फ़िक्र थी। वो सोचता था कि उनके साथ अगर वो अदालत में पेश हुआ तो बहुत मुम्किन है उसको सज़ा हो जाये।
आप समझते हैं कि ये कहानी है
मगर ये वाक़िया है कि वो बहुत परेशान था। उसके तमाम शागिर्द हैरान थे
इसलिए कि वो कभी हैरान-ओ-परेशान नहीं हुआ था। उसको मूंछों की फ़िक्र थी क्यूँकि उसके बा'ज़ क़रीबी दोस्तों ने उससे कहा था


“मम्मद भाई... कोर्ट में जाना है तो इन मूंछों के साथ कभी न जाना... मजिस्ट्रेट तुमको अंदर कर देगा।”
और वो सोचता था... हर वक़्त सोचता था कि उसकी मूंछों ने उस आदमी को क़त्ल किया है या उसने... लेकिन किसी नतीजे पर पहुंच नहीं सकता था। उसने अपना ख़ंजर मालूम नहीं जो पहली मर्तबा ख़ून आशना था या इससे पहले कई मर्तबा हो चुका था
अपने नेफ़े से निकाला और होटल के बाहर गली में फेंक दिया। मैंने हैरत भरे लहजे में उस से पूछा
“मम्मद भाई... ये क्या?”


“कुछ नहीं वमटो भाई
बहुत घोटाला हो गया है। कोर्ट में जाना है... यार दोस्त कहते हैं कि तुम्हारी मूंछें देख कर वो ज़रूर तुमको सज़ा देगा... अब बोलो
मैं क्या करूं?”
मैं क्या बोल सकता था। मैंने उसकी मूंछों की तरफ़ देखा जो वाक़ई बड़ी ख़ौफ़नाक थीं। मैंने उससे सिर्फ़ इतना कहा


“मम्मद भाई! बात तो ठीक है... तुम्हारी मूंछें मजिस्ट्रेट के फ़ैसले पर ज़रूर असर अंदाज़ होंगी... सच पूछो तो जो कुछ होगा
तुम्हारे ख़िलाफ़ नहीं... मूंछों के ख़िलाफ़ होगा।”
“तो मैं मुंडवा दूँ?” मम्मद भाई ने अपनी चहेती मूंछों पर बड़े प्यार से उंगली फेरी।
मैंने उससे पूछा


“तुम्हारा क्या ख़याल है?”
“मेरा ख़याल है जो कुछ भी हो
वो तुम न पूछो... लेकिन यहाँ हर शख़्स का यही ख़याल है कि मैं इन्हें मुंडवा दूँ ताकि वो साला मजिस्ट्रेट मेहरबान हो जाये
तो मुंडवा दूँ वमटो भाई?”


मैंने कुछ तवक्कुफ़ के बाद उससे कहा
“हाँ
अगर तुम मुनासिब समझते हो तो मुंडवा दो... अदालत का सवाल है और तुम्हारी मूंछें वाक़ई बड़ी ख़ौफ़नाक हैं।”
दूसरे दिन मम्मद भाई ने अपनी मूंछें... अपनी जान से अज़ीज़ मूंछें मुंडवा डालीं। क्यूँकि उसकी इज़्ज़त ख़तरे में थी... लेकिन सिर्फ़ दूसरे के मशवरे पर।


मिस्टर एफ़.एच. टैग की अदालत में उसका मुक़द्दमा पेश हुआ। मूंछों के बगै़र मम्मद भाई पेश हुआ। मैं भी वहां मौजूद था। उसके ख़िलाफ़ कोई शहादत मौजूद नहीं थी
लेकिन मजिस्ट्रेट साहब ने उसको ख़तरनाक गुंडा क़रार देते हुए तड़ी पार यानी सूबा बदर कर दिया। उसको सिर्फ़ एक दिन मिला था जिसमें उसे अपना तमाम हिसाब किताब तय कर के बंबई छोड़ देना था।
अदालत से बाहर निकल कर उसने मुझ से कोई बात न की। उसकी छोटी-बड़ी उंगलियां बार बार बालाई होंट की तरफ़ बढ़ती थीं... मगर वहां कोई बाल ही नहीं था।
शाम को जब उसे बंबई छोड़कर कहीं और जाना था


मेरी उसकी मुलाक़ात ईरानी के होटल में हुई। उसके दस-बीस शागिर्द आस-पास कुर्सीयों पर बैठे चाय पी रहे थे। जब मैं उससे मिला तो उसने मुझ से कोई बात न की... मूंछों के बगै़र वो बहुत शरीफ़ आदमी दिखाई दे रहा था। लेकिन मैंने महसूस किया कि वो बहुत मग़्मूम है।
उसके पास कुर्सी पर बैठ कर मैंने उससे कहा
“क्या बात है मम्मद भाई?”
उसने जवाब में एक बहुत बड़ी गाली ख़ुदा मालूम किसको दी और कहा


“साला
अब मम्मद भाई ही नहीं रहा।”
मुझे मालूम था कि वो सूबा बदर किया जा चुका है। “कोई बात नहीं मम्मद भाई! यहाँ नहीं तो किसी और जगह सही!”
उसने तमाम जगहों को बेशुमार गालियां दीं


“साला... अपुन को ये ग़म नहीं... यहाँ रहें या किसी और जगह रहें... ये साला मूंछें क्यूँ मुंडवाईं?”
फिर उसने उन लोगों को जिन्होंने उसको मूंछें मुंडवाने का मशवरा दिया था
एक करोड़ गालियां दीं और कहा
“साला अगर मुझे तड़ी पार ही होना था तो मूंछों के साथ

- सआदत-हसन-मंटो


جولائی ۴۴ء کی ایک ابر آلود سہ پہر جب وادیوں اور مکانوں کی سرخ چھتوں پر گہرا نیلا کہرا چھایا ہوا تھا اور پہاڑ کی چوٹیوں پر تیرتے ہوئے بادل برآمدوں کے شیشوں سے ٹکڑا رہے تھے۔ سوائے کے ایک لاؤنج میں، تاش کھیلنے والوں کے مجمع سے ذرا پرے ایک میز کے گرد وہ پانچوں چپ چاپ بیٹھے تھے۔
وہ پانچوں۔۔۔ ان پورنا پر بھاکر، ناہید انور امام،راج کمار آسمان پور، لفٹنٹ کرنل دستور، رستم جہانگیر اور ڈون کارلو۔ اگر اس وقت راون لُکر کا کوئی ذہین اور مستعد رپورٹر اپنے کالموں میں ان کا مفصل تذکرہ کرتا تو وہ کچھ اس طرح ہوتا، ’’ان پورنا پربھاکر، برجیشور راؤ پر بھاکر، ارجن گڑھ کے فنانس منسٹر کی دل کش بیوی گہرے سبز رنگ کے میسور جارجٹ کی ساری میں ملبوس تھیں جو ان کی سبز آنکھوں کے ساتھ خوب ’جا‘ رہی تھی۔ ان کا کشمیری کام کا اور کوٹ سفید رنگ کا تھا جو انہوں نے اپنے شانوں پر ڈال رکھا تھا۔ ان کے خوب صورت کانوں میں کندن کےمگر جھلکورے کھارہے تھے۔ جن کی وجہ سے ان کی چمپئی رنگت دمک رہی تھی۔ ناہید انور امام گہرے نارنجی بڑے پائنچوں کے پاجامے اور طلائی کا رچوب کی سیاہ شال میں ہمیشہ کی طرح بے حد اسمارٹ لگ رہی تھیں۔ راج کمار روی شنکر سیاہ شیروانی اور سفید چوڑی دار پاجامے میں اسمارٹ معلوم ہوتا تھا کہیں ڈنر میں جانے کے لیے تیار ہوکر آئے ہیں۔ کرنل جہانگیر براؤن رنگ کی شیپ اسکن جیکٹ میں ملبوس بے فکری سے سگار کا دھواں اڑاتے غیر معمولی طور پر وجیہ اور شاندار نظر آتے تھے۔ مس انور امام کا بے حد مختصر اور انتہائی خوش اخلاق سفید کتا بھی بہت اسمارٹ لگ رہا تھا۔‘‘
برابر کی میزوں پر زور وشور سے برج ہورہا تھا۔ اور ان پانچوں کے سامنے رکھا ہوا قہوہ ٹھنڈا ہوتا جارہا تھا۔ وہ غالباً ایک دوسرے سے اکتائے ہوئے کافی دیر سے خاموش بیٹھے تھے۔ تین دن سے برابر بارش ہورہی تھی۔ نہ کہیں باہر جایا جاسکتا تھا نہ کسی ان ڈور قسم کے مشغلے یا موسیقی میں جی لگتا تھا۔ سب کی متفقہ رائے تھی کہ سیزن حد سے زیادہ ڈل ہوتا جارہا ہے۔ جنگ کی وجہ سے رنک بند کردیا گیا تھا۔ اور اس میں فوجیوں کے لیے کینٹین بن گئی تھی۔ سڑکوں پر ہوٹلوں اور دوکانوں میں ہر جگہ ہر تیسرا آدمی وردی میں ملبوس نظر آتا تھا۔ اپنے ساتھیوں میں سے بہت سے واپس جاچکے تھے۔ جنوبی ہند اور یوپی والے جون ہی سے اترنے لگے تھے۔ دلی اور پنجاب کے لوگوں نے اب آنا شروع کیا تھا۔
ان پورنا پر بھاکر دل ہی دل میں اس دھن کو یاد کرنے کی کوشش کررہی تھی جو اس نے پچھلی شام فی فی سے پیانو پر سنی تھی۔ ناہید انور امام کرسی کے کشن سے سر ٹیکے کھڑکی سے باہر نیچے کی طرف دیکھ رہی تھی، جہاں کورٹ یارڈ کے پختہ فرش پر اکاد کا آدمی آجارہے تھے۔ دونوں طرف کے ونگز کے برآمدوں میں بیرے کشتیاں اٹھائے سائے کی طرح ادھر ادھر پھر رہے تھے۔ کرنل جہانگیر جو ایران،مصر، انگلستان اور جانے کہاں کہاں گھوم کر اسی مہینے ہندوستان واپس لوٹے تھے، پچھلے پندرہ دن میں اپنی سیروں کے سارے قصے سناکر ختم کرچکے تھے اور اب مکمل قناعت،اطمینان اور سکون کے ساتھ بیٹھے سگار کا دھواں اڑا رہے تھے۔ راج کمار روی کو اجمیر والے عظیم پریم راگی کی قوالی اور فرانسیسی شرابوں کا شوق تھا۔ فی الحال دونوں چیزیں وہاں دستیاب نہ ہوسکتی تھیں۔ اس لیے انہیں اس وقت خیال آرہا تھا کہ اگر وہ اپنی راج کماری اندرا ہی سے صلح کرلیتے تو برا نہ تھا۔ لیکن وہ محض ایک اوسط درجے کے تعلقہ دار تھے اور راج کماری راجپوتانہ کی ان سے دس گنی بڑی ریاست کی لڑکی تھی اور ان سے قطعی مرعوب نہیں ہوتی تھی۔ اور سال بھر اپنے میکے میں رہتی تھی۔


برجیشور راؤپر بھاکر اسی وقت چہل قدمی کرکے واپس آیا تھا اور لاؤنج کے نصف دائرے کے دوسرے سرے پر اپنے چند دوستوں کے ساتھ گولف اور اسٹاک ایکسچینج پر تبادلہ خیال میں مصروف تھا۔ قریب کی ایک میز پر انعام محمود سپر نٹنڈنٹ پولیس جو عنقریب ڈی آئی، جی ہونے والے تھے برج کھیلتے کھیلتے سوچ رہے تھے کہ اگر وہ سیاہ آنکھوں اور گھنگھریالے بالوں والی پرتگالی لڑکی فی فی جس نے کل رات پیانو بجایا تھا، کم از کم آج ہی کی سرد اور غیر دل چسپ شام ان سے ملاقات کرسکتی تو بہت غنیمت تھا۔ اس سلسلے میں مزید ڈپلومیٹک گفتگو کی غرض سے راج کمار روی کی کرسی کی طرف جھک کر انہوں نے آہستہ سے کچھ کہا۔ راج کماری روی نے بے تعلقی سے سرہلایا۔ گویا بھئی ہم سادھو سنگ آدمی ہمیں موہ مایا کے اس چکر سے کیا۔ کرنل جہانگیر نے سگار کی راکھ جھٹک کر ذرا بلند آواز سے پکارا، ’’برجیش چلو کم از کم بلیرڈ ہی کھیلیں۔‘‘
’’روی کو لے جاؤ۔۔۔ ہم بے حد ضروری مسائل حل کررہے ہیں۔‘‘برجیش نے وہیں بیٹھے بیٹھے جواب دیا اور پھر اپنی باتوں میں اس انہماک سے مصروف ہوگیا گویا اگر اس نے دوسری طرف ذراسی بھی توجہ کی تو ٹاٹا اور سپلا کے شیرز کی قیمتیں فوراً گرجائیں گی۔

’’ان پورنا رانی،دیکھو تو تمہارا شوہر کس قدر زبردست بوریت کا ثبوت دے رہا ہے‘‘ کرنل جہانگیر نے اکتا کر شکایت کی۔


’’بھئی اللہ۔۔۔ برجیش گڈو ہئی اتنابور۔ جائیے آپ لوگ جاکر کھیلیے ہم تو اب بیگم ارجمند کے ساتھ چائے پینے جارہے ہیں۔‘‘ ناہید نے اٹھتے ہوئے کہا۔
’’ناہید بیگم تمہیں کنور رانی صاحبہ سے جو تازہ ترین خبریں معلوم ہوں، ہمیں رات کے کھانے پر ضرور بتانا۔‘‘ راج کمار روی بھی اٹھتے ہوئے بولے۔
’’قطعی‘‘ناہید اپنی نقرئی آواز میں تھوڑا سا ہنسی پھر وہ دونوں اپنے اوور کوٹ اور شال سنبھالتی وسط کے ہال کے بڑے زینے کی طرف چلی گئیں۔
’’فی فی۔۔۔ فی فی۔۔۔ کیا نام ہے واللہ! گویا جلترنگ بج رہی ہے۔‘‘ انعام محمود نے چند لمحوں تک ڈون کار لوکو کرسی پر سے اتر کے اپنے چھوٹے چھوٹے سفید قدموں سے اپنی مالکہ کے پیچھے پیچھے بھاگتا دیکھتے رہنے کے بعد اب ذرا اونچی آواز میں اپنی رائے کا اظہار کیا۔


’’بہت تیز ہوتے جارہے ہو بھائی جان۔ ذرا نیچے سے آنے دو اپنی بیگم کو کان کھنچوائے جائیں گے تمہارے۔‘‘ کرنل جہانگیر نے ڈانٹ پلائی۔
’’خواتین کہاں گئی ہیں؟‘‘ انعام محمود نے پوچھا۔
’’بیگم ارجمند کے کمروں کی طرف۔‘‘
’’رانی بلیر سنگھ بھی ہوں گی وہاں؟‘‘


’’یقینا‘‘
’’نفرت ہے مجھے اس بڑھیا سے۔‘‘انعام محمود پھر تاش کی طرف متوجہ ہوگیے۔ شام کی چائے کے بعد سب پھر لاؤنج میں جمع ہوئے اور سوچا جانے لگا۔ کہ اب کیا کیا جائے۔
’’کاش خورشید ہی آجاتا۔‘‘ راج کمار روی نے خواہش ظاہر کی۔
’’خورشید۔۔۔ واقعی۔۔۔ جانے آج کل کہاں ہوگا۔‘‘کرنل جہانگیر نے کہا۔ اور پھر سب مل کر بے حد دلچسپی سے کسی ایسے شخص کے متعلق باتیں کرنے لگے جسے خواتین بالکل نہیں جانتی تھیں۔ اکتا کر ناہید نے مسوری ٹائمز کا تازہ پرچہ اٹھالیا اور اس کے ورق پلٹنے لگی۔


سب ذلیل فلم دکھائے جارہے ہیں۔ روبرٹ ٹیلر۔ اس سے مجھے نفرت ہے۔ ڈور تھی لیمور میرے اعصاب پر آجاتی ہے۔ کیتھرین ہپ برن روز بروز زیادہ بد شکل ہوتی جارہی، یہ ہیک منیز میں کسی روسی نام کا کیبرے ہورہا ہے۔ وہ بھی سخت خرافات ہوگا۔۔۔‘‘ راج کمار روی نے ناہید کی کرسی کے پیچھے سے پرچے کے صفحات پر جھانکتے ہوئے کہا، ’’لہٰذا بہترین پروگرام یہی ہے کہ شریفوں کی طرح گھر میں بیٹھ کر قہوہ پیا جائے۔‘‘
’’اور ان پورنا رانی سے پیانو سنا جائے۔‘‘کرنل جہانگیر نے جلدی سے صاحبزادہ ارجمند کی تجویز میں اضافہ کر دیا۔ سب ان کی رائے سے اتفاق ظاہر کرکے ان پورنا کو دیکھنے لگے جو اپنی شیریں ترین مسکراہٹ بکھیرتی اسی وقت بیگم ارجمند کے ساتھ ان کی میز کی طرف آئی تھی۔ وہ سب لاؤنج سے نکل کر نشست کے بڑے کمرے میں آگیے۔
’’اب ان پورنا رانی کو پکڑو۔‘‘کسی نے برابر کے کمرے میں زینے پر سے اترتے ہوئے آواز دی۔
’’جادو جگاتی ہے اپنی انگلیوں سے لڑکی۔‘‘ کنور رانی بلیر سنگھ نے ویکس سونگھتے ہوئے اپنی بزرگانہ بلندی پر سے ان پورنا کی تعریف کی اور پھر رومال میں ناک ٹھونس کر ایک صوفے پر بیٹھ گئیں۔


’’ناہید بیٹا، تمہیں شاید زکام ہوگیا ہوگا؟‘‘ ان پورنا جب پیانو پر سے اٹھ آئی تو صاحبزادہ ارجمند نے ناہید کو مخاطب کیا۔
’’ارے نہیں رجو بھیا۔۔۔ کیا گائیں ہم؟‘‘ ناہید نے ہنستے ہوئے چاروں طرف نظر ڈال کر دریافت کیا۔
باہر بارش شروع ہوچکی تھی۔ خنکی بڑھتی جارہی تھی۔جب ناہید اپنی نقرئی آواز میں ’’نندیا لاگی میں سوئے گئی گوئیاں‘‘ الاپ رہی تھی اس وقت ان پورنا کو اپنی نٹنگ سنبھالتے ہوئے دفعتاً خیال آیا۔۔۔ زندگی کم از کم اتنی ناگوار نہیں جتنی سمجھی جاتی ہے۔ اس نے محسوس کیا جیسے پر خطر طوفانوں اور تند رو آندھیوں سے محفوظ ایک چھوٹے سے گرم اور روشن کمرے میں آگ کے سامنے بیٹھے چوکو لیٹ پیتے پیتے ہی عمر بیتی جارہی ہے۔ کیا بچپنا ہے۔ اسے اپنے اس تخیل پر ہنسی آگئی۔ تان پورے کے تار اور پیانو کے پردے چھیڑتے ہوئے اسے ہمیشہ چاندنی رات اور کنول کے پھولوں کا خیال آجاتا تھا۔ اور اس سمے ہوٹل کی نچلی منزل کے چاروں طرف کیاریوں میں لہلہاتے سفید پھول جولائی کی بارش میں نکھر رہے تھے۔ چاند کبھی کبھی بادلوں میں سے نکل کر دریچے میں جھانک لیتا تھااور پھر چھپ جاتا تھا۔ اور ایسا لگ رہا تھا جیسے فضاؤں سے پگھلی ہوئی موسیقی برس رہی ہے۔
سچ مچ موسیقی کے بغیر اس روکھی پھیکی اجاڑ زندگی میں کیا رہ جاتا۔ درگا اور پوروی اور ماروا اور بہار۔ پیو پل نہ لاگیں موری انکھیاں۔۔۔ اور تان پورے کے چاروں تاروں کی گمبھیر گونج میں جیسے ہستی کی ساری تڑپ،سارا درد سمٹ آتا ہے۔ اور گھنگھروؤں کی جھنکار میں اور منی پوری کی لچک، بھرت ناٹیم کی گونج اور گرج اور کتھک کی چوٹ اور دھمک میں۔۔۔ اور جب بھیگی رات کے گہرے سناٹے میں کہیں اور گتار بجتا ہو تو کتنا اچھا لگتا ہے۔ ان پورنا نے سوچا۔ اس خوب صورت آرام دہ دنیا میں جو لوگ دکھی ہیں انہیں سب کو رات کے کھانے کے بعد ’’نندیا لاگی میں سوئے گئی گوئیاں‘‘ الاپنا چاہئے۔


ان پورنا نے نٹنگ کرتے کرتے کشن پر سر رکھ کر آنکھیں بند کرلیں۔ اسے ناہید کا یہ گیت بہت پسندتھا جو وہ اس وقت گار رہی تھی۔ اسے ناہید کے وہ سارے پوربی گیت پسند تھے جو اس نے اکثر سنائے تھے۔ آہ۔۔۔ موسیقی۔۔۔ موسیقی۔۔۔ برجیش اکثر مذاقاً کہا کرتا تھا کہ جس طرح قصے کہانیوں کی پریوں اور شہزادیوں کی جان کسی بیگن، سرخ مرچ یا طوطے میں بند ہوتی ہے، اسی طرح ان پورنا کی جان اس کے تان پورے میں بند ہے۔ جب وہ پیانو بجاتی تھی تو برجیش اپنے کمرے کا دروازہ اندر سے بند کرکے کلکتے کے کلایو اسٹریٹ کی تجارتی خبریں پڑھتا تھا یا آرام سے کرسی پر لیٹے لیٹے سوجاتا تھا اور ناہید خوف زدہ ہو کر کہتی ہائے اللہ کیسا ٹپکل قسم کا شوہر ہے!لیکن اس کے باوجود وہ دونوں ایک دوسرے پر جان دیتے تھے۔
برجیش نے ان پورنا کوچھ سات سال قبل پہلی بار مہا بلیشور میں دیکھا تھا۔ اور اس کے صرف ایک ماہ بعد ہی ان پورنا کو اپنے نام کے آگے سے شیرالےہٹا دینا پڑا تھا۔ وہ دونوں سال کا زیادہ حصہ ریاست کے صدر مقام پر راجپوتانہ میں گزارتے تھے۔ جاڑوں میں کبھی کبھی اپنے عزیزوں سے ملنے پونا یا بمبئی چلے جاتے اور گرمیوں میں شمالی ہند کے پہاڑوں پر آجاتے۔ اب کی مرتبہ انہوں نے طے کیا تھا کہ اگلے سال وہ دونوں کشمیر جائیں گے جو ان پورنا نے اب تک نہیں دیکھا تھا۔ اسے نینی تال کی جھیل میں رقصاں روشنیاں پسند تھیں اور مسوری کی بے پناہ رنگینیاں اور چہل پہل۔ شملہ بہت غیر دلچسپ اور بہت سرکاری تھا۔ زیادہ سے زیادہ تفریح کرلی، جاکر بے وقوفوں کی طرح’’اسکینڈل پوائنٹ‘‘ پر بیٹھ گیے یا ڈے وی کو چلے گیے۔ ان پورنا کو مسوری پسند تھی اور اپنا شوہر اور اپنے دونوں بچے اور اپنے مخلص اور دلچسپ دوستوں کا حلقہ جو ہر سال وسیع تر ہوتا جاتا تھا۔ اسے اس صوبے کی سب چیزیں بہت اچھی معلوم ہوتی تھیں۔ یہاں کے لوگوں کا کلچر ،ان کا باتیں کرنے کا خوب صورت انداز، ان کے شاندار اور تصویروں ایسے لباس ،ان کے رنگ برنگے غرارے اور سیاہ شیروانیاں، ان کے مشاعرے، ان کی کلاسیکل موسیقی۔
جب موسم بہت غیر دل چسپ ہوجاتا یا بارش کی وجہ سے وہ ناہید کے گھر تک نہ جاسکتی تو اپنے کمرے میں بچوں کے لیے نٹنگ کرتی، یا برآمدے میں بیٹھ کر اپنی ہمسایہ بیگم ارجمند سے باتیں کرتی۔ اس کے دونوں بچے پچھلے سال سے کین ویل ہاؤس میں پڑھ رہے تھے۔ بڑا لڑکا بالکل برجیش جیسا تھا۔ سنجیدہ، کم سخن، لیکن اپنی بات منوانے والا۔ بچی ان پورنا کی طرح تھی۔ شیریں تبسم اور سبز آنکھوں والی۔ چار سال کی عمر میں کتھک ناچ ایسا ناچتی تھی کہ بس دیکھا کیجئے۔ یہ ان پورنا کا محبوب مشغلہ تھا کہ آرام کرسی پر لیٹ کر میرؔا کی آئندہ زندگی کے لیے پروگرام بنائے اور اس نے سوچا تھا کہ اگلے سال وہ اسے شمبھو مہاراج کے پاس لکھنؤ لے جائے گی۔
ناہید اپنا گیت ختم کرچکی تھی اور خوب زور زور سے تالیاں بجائی جارہی تھیں۔ باہر بارش تھم گئی تھی اور رات کا اندھیرا بڑھتا جارہا تھا۔ڈنر کے بعد سب پھر وہاں جمع ہوگیےاور وہ کمرہ باتوں اور قہقہوں کے شور سے جاگ اٹھا۔ سب دیواروں کے قریب بکھرے ہوئے صوفوں پر بیٹھ کر قہوہ،سگریٹ، پائپ اور دوسری اپنی اپنی پسند کی چیزیں پینے میں مصروف ہوگیے۔ مختلف قسم کی باتیں شروع ہوئیں۔ جنگ کی صورت حال، سوسائٹی کے تازہ ترین اسکنڈلز، ٹینس اور کرکٹ کے متعلق پیشین گوئیاں، بھتنے روحیں، قسمت کی لکیریں۔


’’بھئی ہم کو تو اب نیند آرہی ہے ہم جاتے ہیں۔ شب بخیر‘‘ برجیش اپنی چائے کی پیالی ختم کرکے اٹھ کھڑا ہوا۔
’’بیٹھو ابھی کیا بد مذاقی ہے‘‘کرنل جہانگیر نے ڈانٹا۔
’’بے چاری ان پورنا۔۔۔ہائے ہائے۔۔۔ ایسی شاعرانہ، آرٹسٹک مزاج کی لڑکی اور کیسے روکھے پھیکے آدمی سے پالا پڑا ہے۔‘‘ بیگم ارجمند نے ذرا دور دریچے کے نزدیک رکھے ہوئے صوفے پر بیٹھے ہوئے آہستہ سے کہا۔
’’آہ۔ یہ ہمارے ہندوستان کی بے جوڑ شادیاں۔‘‘ کنور رانی بلبیر سنگھ نے ناک پر سے رومال ہٹاکر سماج کی دگرگوں حالت پر ایک مختصر سی آہ بھری اور پھر ویپکس سونگھنے لگیں۔ بیگم ارجمند اور کنور رانی بلبیر سنگھ سارے دن اپنے ونگ میں اپنے کمروں کے آگے برآمدے میں بیٹھی بیٹھی مسوری بھرکے اسکنڈلز ڈائریکٹ کرتی رہتیں۔ سوائے کی دوسری منزل سے دنیا کا ایک جنرل طائرانہ جائزہ لے کر واقعات عالم پر تبصرہ اور آخری فیصلہ صادر کیا جاتا تھا۔ رفعت آرا اپنے بہنوئی سے شادی کرنے والی ہے۔ آمنہ طلاق لے رہی ہے۔ نسیم نے ہندو سے شادی کرلی۔ میجر ارشاد تیسری بار عشق میں مبتلا ہوگیا ہے۔ یہ ناہید جو مستقل بیمار رہنے لگی ہے، اس کی وجہ یہ ہے کہ اسے قطعی اس کنگ جارج میڈیکل کالج والے خوبصورت ڈاکٹر سے عشق ہوگیا ہے۔ جو بیگم حمیداللہ کا بھانجا ہے۔ وغیرہ وغیرہ۔ دوستوں نے بیگم ارجمند کے بر آمدے کا نام ’’اوبزرویشن پوسٹ نمبر ون‘‘ رکھ چھوڑا تھا۔ ’’اوبزرویشن پوسٹ نمبر ٹو‘‘ ہیک مینزکی پچھلی گیلری تھی۔


اور پھر دفعتاً اپنی اپنی باتیں چھوڑ کر سب کرنل جہانگیر کی طرف بے حد دلچسپی سے متوجہ ہوگیے،جو تھوڑی دیر سے فی فی کا ہاتھ دیکھنے میں مشغول تھے۔ فی فی گوا کے پرتگالی حاکم اعلیٰ کی سیاہ آنکھوں اور سیاہ بالوں والی لڑکی تھی۔ جو چند روز قبل اپنے والدین کے ہمراہ بمبئی سے آئی تھی اور آتے ہی اپنے اخلاق اور اپنی موسیقی کی وجہ سے بے حدہر دلعزیز ہوگئی تھی۔ سب اپنے اپنے ہاتھ دکھانے لگے۔ بھوتوں اور روحوں کے قصے چھڑ گیے۔ باتوں باتوں میں کرنل جہانگیر نے دعویٰ کیا کہ وہ اسی وقت جس کی چاہوروح بلا دیں گے۔

اور پھر سب کے ہاتھ ایک نیا مشغلہ آگیا۔ اب موسم کے ’ڈل‘ ہونے کی شکایت نہ کی جاتی۔ جب بارش ہوتی یا برج میں جی نہ لگتا تو سب کرنل جہانگیر کے سٹنگ روم میں جمع ہوجاتے۔ برج کی میز پر انگریزی کے حروف تہجی الگ الگ کاغذ کے ٹکڑوں پر لکھ کر ایک دائرے میں پھیلا دیے جاتے۔ بیچ میں ایک گلاس الٹا الٹا رکھ دیا جاتا۔ سب چاروں طرف چپ چاپ بیٹھ جاتے۔ گلاس پر دو انگلیاں ٹکادی جاتیں اور پھروہ گلاس خود بخود اچھلتا ہوا مختلف حروف پر جا رکتاا اور ان حروف کوجمع کر کے روحوں کا پیغام حاصل کیا جاتا ۔ اس میں بڑے مزے کے لطیفے ہوتے۔ بعض دفعہ غلط روحیں آجاتیں اور خوب ڈانٹ پھٹکار سنا کر واپس جاتیں۔
شہنشاہ اشوک ہمیشہ بڑی مستعدی سے آجاتے۔ جاتے وقت روح سے درخواست کی جاتی کہ اب فلاں کو بھیج دیجئے گا۔ جین ہار لو اور لیزلی ہاورڈ کو کئی بار بلایا گیا۔ پنڈت موتی لال نہرو نے آکر ایک مرتبہ بتایا کہ اگلے دو تین سال کے اندر اندر ان کا بیٹا ہندوستان کا حاکم اعلیٰ بن جائے گا۔ روحوں کی پیشین گوئیاں بعض دفعہ بالکل صحیح نکلتیں۔ ان سے سیاسیات پر کم شادی اور رومان پر زیادہ سوالات کیے جاتے۔ لڑکیاں خوب خوب جھینپتیں۔ بہت دلچسپی سے وقت گزرتا۔ کرنل جہانگیر انتالیس چالیس کے رہے ہوں گے لیکن اب تک کنوارے تھے اور مسئلہ تناسخ کے بے حد قائل۔ انہیں دنیا میں صرف تین چیزوں سے دلچسپی تھی۔۔۔ باغبانی، روحانیات اور نرگس۔ پونا میں ان کی ایک بھتیجی تھی۔ جسے وہ بہت چاہتے تھے اور اکثر اس کا ذکر کیا کرتے تھے اور بیگم ارجمند نے یہ طے کیا تھا کہ یہ نرگس ان کی بھتیجی و تیجی قطعی نہیں ہے۔


وہ خواتین کی سوسائٹی میں بے حد مقبول تھے۔ انہوں نے ژند اوستا اور ایران کے صوفی شعراء اور جرمن فلسفیوں کا بھی مطالعہ کیا تھا۔ کئی سال یورپ میں گزارے تھے۔ پیرس میں روحوں کے scancesمیں شامل رہ چکے تھے۔ اور سب ملا کر بے حد دلچسپ شخص تھے۔
ایک روز ڈنر کے بعد سب لوگ حسب معمول پھر نشست کے کمرے میں آگیے۔ ان پورنانٹنگ میں مشغول تھی۔ انعام محمودفی فی کے آگے پیچھے پھر رہے تھے۔ ناہید ڈون کارلو سے سوجانے کے لیے کہہ رہی تھی۔ لیکن وہ آنکھیں پھیلائے بیٹھا سب کی باتیں سن رہا تھا۔ برجیش ایک کونے میں ایک آئی ۔سی۔ ایس صاحب بہادر سے ہندوستانی ریاستوں کی سیاست پر الجھ رہا تھا۔ پیانو کے قریب ایک اسٹول پر رانی کرم پور تلاری کا منظور نظر مظہر الدین بیٹھا پائپ کا دھواں اڑا رہا تھا۔ مظہر الدین بہتر سے بہتر سوٹ پہنتا، اعلیٰ سے اعلیٰ ہوٹلوں میں ٹھہرتااور بڑے ٹھاٹھ سے رہتا، پونٹیک سے کم بات نہ کرتا اور سب جانتے تھے کہ کہ یہ بڑے ٹھاٹھ کس طرح ہوتے ہیں اور ان کے لیے اتنا بے تحاشا روپیہ کہاں سے آتا ہے۔ اس کی شکل اچھی خاصی تھی۔ ذہن کے معاملہ میں یوں ہی، لیکن بات کرنے میں بہت تیز ۔ پہلے وہ ادھیڑ عمر کی بیگم فرقان الدولہ کا منظور نظر تھا۔ اب کچھ عرصے سے رانی کرم پور تلاری کے ساتھ دکھائی دیتا تھا۔
بیگم ارجمند اور ان پورنا وغیرہ اس سے بہت کم بات کرتی تھیں۔ لیکن ان کے شوہروں کی سوسائٹی میں وہ کافی مقبول تھا۔ پائپ کی راکھ جھٹک کر اس نے ان پورنا سے پوچھا، ’’مسز پر بھاکر آپ کو مسئلہ تناسخ سے دلچسپی ہے؟ ‘‘
’’میں نے کبھی اس طرف خیال نہیں کیا۔ کیوں کیا آپ کو بھی۔۔۔ روحانیت سے شغف پیدا ہوگیا؟ ‘‘ ان پورنا کو بادل ناخواستہ لیکن اخلاقاً کیوں کہ وہ مظہر الدین کے قریب بیٹھی تھی، اس سے باتوں کا سلسلہ شروع کرنا پڑا۔’’کرنل جہانگیر تولگتا ہے اس مرتبہ ہم سب کو بالکل سنیاسی بنا کر چھوڑیں گے۔ آج کل جسے دیکھئے اپنی اپنی شکار اور اسٹاک ایکسچینج کی باتیں چھوڑ کر روحوں سے الجھ رہا ہے۔‘‘ مظہر الدین نے کہا۔ کرنل جہانگیر نے اس کی بات سن لی۔ وہ بولے، ’’ان پورنا رانی کہیں ایسا نہ ہو کہ ایک روز ہم سب اس مایا جال کو تج کر جٹائیں بڑھائے دو تارہ بجاتے سامنے ہمالیہ کی اونچی چوٹیوں کی طرف رخ کرتے نظر آئیں۔‘‘


’’اگرمیری بیوی بھی اپنا تان پورہ اٹھا کر بنوں کو نکل گئی تو میں تمہیں جان سے مار ڈالوں گا کرنل۔‘‘ برجیش نے اپنے مخصوص انتہائی غیر دلچسپ طریقے سے کہا۔ ’’چپ رہو یار۔ تم اپنے بازار کے بھاؤ اور گولف سے الجھتے رہو۔ یہ مسائل تصوف ہیں بھائی جان۔‘‘ صاحبزادہ ارجمند نے ڈانٹ پلائی۔ برجیش ایک خشک سی ہنسی ہنسا اورپھر نہایت مستعدی سے ان صاحب بہادر کو ارجن گڈھ اسٹیٹ کی پالیسی سمجھانے میں مصروف ہوگیا جو غالباً اگلے مہینے سے وہاں کے ریزیڈنٹ بننے والے تھے۔ پھر قہوہ کے دور کے ساتھ زور شور سے گرما اور آواگون کی بحث چھڑ گئی۔ کرنل جہانگیرکی باتیں بہت دل چسپ ہوتی تھی۔ مثلاً اس وقت انہوں نے ناہید سے کہا کہ پچھلے جنم میں وہ پرتھوی راج تھے اورناہیدان کی کوئی بہت قریبی عزیز تھی۔
’’غالباً سنجو گتا؟‘‘ کسی نے پوچھا۔ سب ہنسنے لگے پھر مزے مزے کی قیاس آرائیاں شروع ہوئیں۔ کون کون پچھلے جنم میں کیا کیا رہا ہوگا۔ ’’کرنل پچھلے جنم میں ناہید کی شادی کس سے ہوئی تھی؟ ‘‘ بیگم ارجمند نے انتہائی دلچسپی سے اپنی سیاہ آنکھیں پھیلا کر پوچھا۔ ’’کوئی جون پور کا کن کٹا قاضی رہا ہوگا‘‘راج کمار روی بولے۔ بڑا زبردست قہقہہ پڑا۔ ناہیدکی نسبت پچھلی کرسمس میں کسی پولس افسر سے ہوئی تھی اور سب دوستوں نے مل کر اسے مبارکباد کا تار بھیجا تھا۔۔۔جس میں صرف یہ جملہ تھا،’’سیاّں بھئے کوتوال اب ڈر کا ہے کا۔‘‘
کرنل جہانگیر ان پور نا کا ہاتھ دیکھنے میں مصروف تھے۔ اورپھر یک لخت کرنل جہانگیر نے بے حد سنجیدہ لہجہ میں اور بڑی مدھم آواز سے آہستہ آہستہ کہا،’’ان پورنا رانی تمہیں یاد آتا ہے کسی نے تم سے کبھی کہا تھا ۔۔۔جب چاندنی راتوں میں کنول کے پھول کھلتے ہوں گے اور بہار کی آمد کے ساتھ ساتھ ہمالیہ کی برف پگھل کر گنگا کے پانیوں میں مل رہی ہوگی۔ اس وقت میں تم سے دوبارہ ملوں گا۔ یاد رہے۔‘‘
ان پورنا حیرت زدہ سی اپنی پلکیں جھپکاتی کرنل کو دیکھنے لگی۔ کمرے میں دفعتاً بڑا حساس سکوت طاری ہوگیا۔کرنل نے اس کا چھوٹا سا ہاتھ کشن پر رکھ کر پھر کہنا شروع کیا، ’’یاد کرو۔۔۔ اس کا نام کمل اندر تھا۔ پچھلے جنم میں تم اس کی رانی تھیں۔ چاندنی راتوں میں اپنے راج محل کی سیڑھیوں پر جو گنگا میں اترتی تھیں۔ وہ وینا بجاتا تھا اور تم سنتی تھیں، تم ناچتی تھیں اور وہ دیکھتا تھا۔ پھر تمہاری شادی کے کچھ عرصہ کے بعد ہی وہ ایک جنگ میں مارا گیااور تمہاری قسمت کی لکیریں کہتی ہیں کہ تم اس جنم میں اس سے ضرور ملوگی۔ ایسا ضرور ہوگا۔ ستارے یہی چاہتےہیں۔ کرنل رک کر اپنی پیشانی سے پسینہ پوچھنے لگا۔سب بت بنے اس کی آواز سن رہے تھے، جو لگ رہا تھا، رات کے اس سناٹے میں کہیں بہت دور سے آرہی ہے ان پورنا اسی طرح پلکیں جھپکاتی رہی۔ بیگم ارجمند کی آنکھیں پھیلی کی پھیلی رہ گئیں۔


’’اوہ کرنل ہاؤفنٹاسٹک۔۔۔‘‘ ناہید نے چند لمحوں بعد اس خاموشی کو توڑا پھر رفتہ رفتہ قہقہے اور باتیں شروع ہوگئیں۔ کرنل کی پیشین گوئی سب کے خیال میں متفقہ طور پر شام کا بہترین لطیفہ تھا۔
برجیش نے آئی۔ سی۔ ایس صاحب بہادر سے گفتگو ختم کرنے کے بعد اپنے کونے سے ان پورنا کو آواز دی،’’چلوبھئی اب چلیں سخت نیند آرہی ہے۔‘‘ پھر سب اٹھ کھڑے ہوئے اور ایک دوسرے کو شب بخیر کہہ کہہ کر اپنے اپنے کمروں کی طرف جانے لگے۔ تھوڑی دیر بعد نشست کا کمرہ بالکل خالی ہوگیا۔اور سب سے آخر میں،ان سب باتوں پر اچھی طرح غور و خوض کرتا ہوا ڈون کارلو اپنی کرسی پر سے نیچے کودا اور ایک طویل مطمئن انگڑائی لینے کے بعد چھوٹے چھوٹے قدموں سے باہرکے زینے کی سیڑھیاں چھلانگتا نیچے کورٹ یارڈ میں پہنچ گیا۔ جہاں اپنے گھر جانے کے لیے ناہید رکشا میں سوار ہو رہی تھی۔
موسم روز بروز زیادہ غیر دل چسپ ہوتا جارہا تھا۔ مرد دن بھر لاؤنج میں برج کھیلتے ،اَن پورنا بچوں کو لے کر ٹہلنے چلی جاتی یا اپنے سٹنگ روم میں میرا کو طبلے کے ساتھ کتھک کے قدم رکھنا سکھاتی رہتی۔ جب وہ تان پورے کے تار چھیڑتی تو دفعتاً اسے محسوس ہوتا کوئی اس سے کہہ رہا ہے میں تم سے دوبارہ ملوں گا۔۔۔ میں تم سے دوبارہ ملوں گا۔۔۔ ستارے یہی چاہتے ہیں۔۔۔ ستارے یہی۔۔۔ کیا حماقت۔۔۔ گدھے پن کی حد ہے۔ اسے غصہ آجاتا۔ پھر ہنسی آتی۔ اس قسم کے باولے پن کی باتوں کا وہ خودمذاق اڑایا کرتی تھی۔۔۔ان پورنا۔۔۔ ان پورنا۔۔۔ اتنی موربڈ ہوتی جارہی ہے۔ ان پورنا جس کے شیریں قہقہے سوسائٹی کی جان تھے۔
’’کرنل کم از کم روحیں ہی بلادو۔ بہت دنوں سے مہاراجہ اشوک سے گپ نہیں کی۔‘‘ ناہید نے بے حداکتا کر ایک روز کرنل جہانگیر سے کہا۔ وہ سب ’’اونٹ کی پیٹھ‘‘ سے واپس آرہے تھے۔ ’’خدا کے لیے اب یہ حماقت کا بکھیڑانہ پھیلانا۔ میرے اعصاب پرآجاتی ہیں تمہاری یہ روحوں سے ملاقاتیں۔‘‘ بیگم ارجمند نے ڈانٹا۔


’’کرنل واقعی تم کمال کے آدمی ہو۔ اچھا میرے ہاتھ کے امپریشن کا تم نے مطالعہ نہیں کیا؟ ‘‘ ناہید نے بیگم ارجمند کی بات کو سنی ان سنی کرتے ہوئے کہا۔
’’ان نصیبوں پہ کیا اختر شناس۔۔۔‘‘ کرنل نے کچھ سوچتے ہوئے بڑی رنجیدہ آواز میں کہا اور چپ ہوگیے۔
’’کیوں کرنل تمہیں کیا دکھ ہے؟‘‘ ناہید نے ’’تمہیں‘‘پر زور ڈال کر پوچھا۔
’’دکھ ۔۔۔؟ شش۔۔۔ شش۔ بچے دکھوں کی باتیں نہیں کیا کرتے۔‘‘ وہ لائبریری کی سڑک پر سیڑھیوں تک پہنچ چکے تھے۔



اس روز کنورانی بلیر سنگھ نے اپنی ’’اوبزرویشن پوسٹ نمبر ون‘‘پر سے پیشین گوئی کی،’’ دیکھ لینا۔۔۔ ان پورنا اس مرتبہ ضرور کوئی نہ کوئی آفت بلائے گی۔ یہ اس دل جلے کرنل نے ایسا شگوفہ چھوڑا ہے۔ اور برجیش کیسا بے تعلق رہتا ہے اور یہ ہندوستانی ریاستوں کے حکام۔۔۔ تم نہیں جانتیں مائی ڈیر۔۔۔ ان لوگوں کی کیا زندگیاں ہوتی ہیں کیا مورلز ہوتے ہیں۔۔۔ جبھی تو دیکھو برجیش اس کم عمری میں اتنی جلدی فنانس منسٹر کے عہدے پر پہنچ گیا۔‘‘
’’دنیا نہ جانے کدھر جارہی ہے‘‘ بیگم ارجمند نے ان کے خیال کی تائید کی۔
اور پھر آخر ایک روز راجکماری نے چائے کے وقت سب کو بتایا کہ ’’وہ‘‘ واقعی آرہا ہے۔ سب اپنی اپنی جگہ سے تقریباً ایک ایک فٹ اچھل پڑے۔ کئی دن سے کسی شخص کا مستقل تذکرہ ہو رہا تھا۔ کئی پارٹیاں اور پکنکیں ایک خاص مدت کے لیے ملتوی کی جارہی تھیں۔ طرح طرح کی قیاس آرائیاں ہو رہی تھیں۔ ’’دیکھ لینا وہ ضرور اس دفعہ شادی کر لے گا۔۔۔قطعی نہیں۔۔۔وہ شادی کرنے والا ٹائپ ہی نہیں۔۔۔بھئی موسیقی کی پارٹیوں کا اس کے بغیر لطف ہی نہیں۔ ارے میاں انعام محمودفی فی کی طرف سے باخبر رہنا، وہ آرہا ہے۔ بھئی ڈاکٹر خان کو اطلاع کر کے ایمبولینس کاریں منگوا لی جائیں۔ نجانے کتنی بے چاریاں قتل ہوں گی کتنی زخمی۔‘‘


’’آخر یہ کون ڈون ژوان صاحب ہیں جنہوں نے اپنی آمد سے پہلے ہی اتنا تہلکہ مچا رکھا ہے‘‘ ناہید نے اکتا کر پوچھا۔
’’ڈون ژوان۔۔۔! قسم سے ناہید بیگم خوب نام رکھا تم نے۔ ’’وہ‘‘ ہے در اصل خورشید احمد۔ پچھلے کئی سال سے اپنا ہوائی بیڑہ لے کر سمندر پار گیا ہوا تھا۔ اسی سال واپس آیا ہےاور اتوار کی شام کو یہاں پہنچ رہا ہے۔ باقی حالات آپ خود پردہ سیمیں پر ملاحظہ فرمائیے گا۔‘‘ راج کمار روی نے کہا۔
اسی روز سے بارش شروع ہوگئی اور اپنی امی کی طبیعت خراب ہوجانے کی وجہ سے ناہید کئی روز تک ان پورنا اور دوسرے دوستوں سے ملنے کے لیے سوائے نہ آسکی۔دوسرے دن شام کو بالآخر ’’وہ‘‘ آگیا ۔ اس کے ساتھ اس کے دو دوست اور تھے جو اس کے ہوائی بیڑے سے تعلق رکھتے تھے۔چائے کے بعد ڈائننگ ہال کی سیڑھیاں طے کر کے وہ بلیرڈ روم کی طرف جارہا تھااور اس وقت ان پورنا نے اسے دوسری بار دیکھا۔ کیوں کہ وہ کمل اندر تھا۔ ان پورنا کے دل میں کسی نے چپکے سے کہا۔ اس وقت تک ان پورنا کا اس سے باقاعدہ تعارف نہیں کرایا گیا تھا۔ اس لیے ڈائننگ ہال کے زینے پر سے اتر کے گیلری کی جانب جاتی ہوئی ان پورنا پر ایک نظر ڈالتے ہوئے اسے پہچانے بغیر بلیرڈ روم میں داخل ہوگیا۔ جہاں سب دوست جمع تھے۔
تھوڑی دیر بعد نشست کے بڑے کمرے میں واپس آکر ان پورنا آکر ایک بڑے صوفے پر گر گئی۔ اس نے دیوار پر لگے ہوئے بڑے آئینے میں اپنی لپ اسٹک ٹھیک کرنی چاہی۔ اس نے پیانو پر ایک نیا نغمہ نکالنے کا ارادہ کیا لیکن وہ کشنوں پر سر رکھے اسی طرح پڑی رہی۔ بالکل خالی الذہن۔ اتنے میں وسط کے ہال کے زینے پر سے اتر کر مسز پد منی اچاریہ اندر آئیں۔ اس نے سوچا کہ وہ ان سے میراؔ کے ’’ پل اوور‘‘ کے لیے وہ نمونہ مانگ لے جو وہ صبح بن رہی تھی۔ مگر مسز اچاریہ اسے ایک ہلکا سا ’’ ہلو‘‘ کہنے کے بعد آئینے میں اپنے بال ٹھیک کر کے باہر چلی گئیں اور وہ ۔۔۔ اس نے کچھ نہ کہا۔ کمرے کی کھڑکیوں میں سے باہر لاؤنج میں بیٹھے ہوئے لوگ حسب معمول برج کھیلتے نظر آرہے تھے۔ اس نے آنکھوں پر ہاتھ رکھ لیے۔ پھر اندھیرا پڑے بلیرڈ روم سے واپس آکر برجیش برآمدے میں سے گزرا اور وہ اس کے ساتھ اپنے کمروں کی طرف چلی گئی۔


دوسرے روز صبح جب وہ اپنے کمرے سے نکل کر ونگ کے برآمدے میں سے گزرتی زینے کی سمت جارہی تھی۔ وہ زینے کی مختصر سیڑھیوں کے اختتام پر کلوک روم کے قریب کھڑا سگریٹ جلاتا نظر آیا۔ جب وہ اس کے پاس سے گزری تو اس نے آگے آکر بے حد اخلاق سے آداب عرض کہا، غالباً پچھلی شام بلیرڈ روم میں ان پورنا سے اس کا غائبانہ تعارف کرا دیا گیا تھا۔
’’میں خورشید ہوں۔ خورشید احمد۔‘‘
’’آداب۔ برجیش کے دوستوں میں سے میں نے صرف آپ کو اب تک نہیں دیکھا۔‘‘
’’جی ہاں جب میں ہندوستان سے باہر گیا تھا۔ اس وقت تک برجیش نے شادی نہیں کی تھی۔‘‘



اور تب ان پورنا سے کوئی چپکے سے بولا ۔ اس سے کہو تم غلط کہتے ہو، تم خورشید احمد قطعی نہیں ہو۔ تم بالکل صفا کمل اندر ہو۔ پورن ماشی کی چاندنی میں نکھرتے سفید شگوفوں اور دنیا کے گیتوں والے کمل اندر۔ کنول کے پھول کے دیوتا۔ فوراً اسے اپنے اس بچپنے پر ہنسی آگئی۔ اس بے موقع ہنسی کو ایک انتہائی خوش اخلاقی کی مسکراہٹ میں تبدیل کرتے ہوئے اس نے۔۔۔
’’اچھا آئیے نیچے چلیں۔ ہمارا انتظار کیا جارہا ہوگا۔‘‘
چائے پیتے پیتے کنور رانی بلیر سنگھ نے بڑی بزرگانہ شفقت سے خورشید سے پوچھا، ’’بھیا تم کا کرت ہو؟‘‘ انہیں یہ معلوم کر کے بڑی خوشی ہوئی تھی کہ وہ بھی ہردوئی کے اسی حصے کا ہے جس طرف ان کا تعلقہ تھا۔


’’فی الحال تو بمبار طیارے اڑاتا ہوں۔ لڑائی کے بعد نوکری نہیں ملی تو مرغیوں کی تجارت کیا کروں گا۔ بڑی مفید چیز ہوتی ہے۔ پولٹری فارمنگ۔۔۔‘‘
’’شادی اب تک کیوں نہیں کی؟ ‘‘بیگم ارجمند نے اس کی بات کاٹ دی۔
’’وہ وجہ در اصل یہ ہوئی بیگم ارجمند کہ کوئی لڑکی مجھ سے شادی کرنے کے لیے تیار ہی نہیں ہوتی۔ اور جن لڑکیوں سے میں ملا وہ یا توجلد بازی میں آکر پہلے ہی شادی کرچکی تھیں یا کسی اور کے عشق میں مبتلا ہوگئی تھیں یا عنقریب ہونے والی تھیں۔ اس کے علاوہ بیگم ارجمند میرے پاس اتنے پیسے بھی نہیں بچتے کہ ایک بلی بھی پال سکوں۔‘‘
جب خواتین بیگم انور امام یعنی ناہید کی امی کی مزاج پرسی کے لیے رکشاؤں میں سوار ہو گئیں تو راج کمار روی نے پوچھا، ’’ خورشید میاں تم بہت اترا رہے ہو ۔لیکن تمہارے اس تازہ ترین عشق کا کیا ہوا جس کا ذکر اپنے خطوط میں کر کے تم نے بور کردیا تھا۔ ‘‘


’’چل رہا ہے ‘‘اس نے اس بے فکری سے جواب دیا گویا موٹر ہے جو ٹھیک کام دے رہی ہے۔
اور بہت سی دل چسپ اور انوکھی باتوں کے علاوہ اس نے طے کیا تھا کہ اگر کوئی لڑکی اسے سچ مچ پسند آگئی تو وہ فی الفور اس سے شادی کرلے گا۔ چاہے وہ کتنی ہی کالی بھجنگی ایسی کیوں نہ ہو۔ ویسے وہ کیپ فٹ کے اصول کو مد نظر رکھتے ہوئے گاہے بگاہے غم دل میں مبتلا ہوجایا کرتا تھا۔
لیکن پچھلے دنوں والا واقعہ خاصی سنجیدہ شکل اختیار کرتا جارہا تھا۔ اسی مارچ کے ایک غیر دلچسپ سے اتوار کو جب کہ اس کی میس کے سارے ساتھی یا سو رہے تھے یا اپنے اپنے گھروں کو خط لکھنے میں مصروف تھےاور کینٹین میں کام کرنے والی ساری لڑکیاں اوف ڈیوٹی تھیں اور مطلع سخت ابر آلود تھا۔ اور کسی کی سمجھ میں نہیں آرہا تھا کہ کیا کیا جائے۔ اس وقت اس نے فوراً اس لڑکی سے عشق کرنے کا فیصلہ کر لیا تھا جس کی تصویر اسی روز نئے listner میں دیکھی تھی۔ وہ ایک خاصی خوش شکل لڑکی تھی اور شمالی ہند کی کسی نشرگاہ سے دوپہر کوانگریزی موسیقی کے ریکارڈوں کا اناؤنسمنٹ کرتی تھی۔ چنانچہ بے حد اہتمام سے اسی وقت ایک ریڈیو فین کی حیثیت سے اسے ایک خط لکھا گیا۔
آپ کے ریکارڈوں کا انتخاب بے حد نفیس ہوتا ہے اور اپنی نقرئی آواز میں جب آپ فرمائشی ریکارڈوں کے ساتھ ساتھ سننے والوں کو ایک دوسرے کے پیغامات نشر کرتی ہیں،انہیں سننے کے بعد سے صورت حال یہ ہے کہ ہم میں سے ایک کو رات بھر نیند نہیں آتی، دوسرے کو اختلاج قلب کا عارضہ ہوگیا ہے، تیسرے کو اعصابی شکایت اور باقی سب کو ابھی دل و دماغ کے جتنے امراض تحقیق ہونے باقی ہیں وہ سب لاحق ہونے والے ہیں۔ اور پرسوں رات کے ڈرامے میں جوآپ کینڈیڈ بنی تھیں تو چاروں طرف اتنے حادثات وقوع پذیر ہوئے کہ ہمیں ریڈیو بند کر کے ایمبولنس کار منگوانی پڑی۔ پھر ایک دوست صاحب خاص طور پر سفر کر کے اس لڑکی کو دیکھنے گیےاور تقریباً نیم جاں واپس آئے۔ پھر ایک صاحب سے جو اسی نشرگاہ کے ایس ڈی کے دوست تھے،معلوم ہوا کہ بڑی بددماغ لڑکی ہے۔ کسی کو لفٹ نہیں دیتی۔ اسٹوڈیوز میں اپنے کام سے کام رکھتی ہے اور سب اس سے ڈرتے ہیں۔ پھر اس کو مختلف ناموں سے دس پندرہ خط لکھے گیے۔


عرصے کے بعد اس کا جواب آیا۔ خط میں بڑا فیشن ایبل پتہ درج تھا جو بڑی رومینٹک بات لگی اور نہایت مختصر سا خط جو یہ معلوم کر کے خوشی ہوئی کہ آپ لوگوں کو ہمارے پروگرام پسند آتے ہیں، سے شروع ہو کر امید ہے کہ آپ سب بخیریت ہوں گے، پر ختم ہوگیا۔ اس کے بعدپھر دوتین خط لکھے گیے۔ سب کا جواب غائب۔ آخر میں خورشیدکے مسوری آنے سے چند روز قبل اسی لڑکی کا ان سارے خطوں کے جواب میں ایک اور مختصر خط ملا تھا۔ جس پر اور بھی زیادہ فیشن ایبل اور افسانوی پتہ درج تھا۔ فیئری لینڈونسنٹ ہل ، مسوری۔ اور اب جب سے خورشید اور اس کے دونوں دوست مسوری پہنچے تھے۔ یہی فکر کی جارہی تھی کہ اس فیئری لینڈ کو تلاش کیا جائے۔ اگلی صبح اپنے سوائے والے دوستوں کو بتائے بغیر پہلا کام انہوں نے یہ کیا کہ ونسنٹ ہل کی طرف چل پڑے۔ بہت اونچی چڑھائی کے بعد ایک خوب صورت دو منزلہ کوٹھی نظر آئی جس کے پھاٹک پر ایک سنگ مرمر کے ٹکڑے پر فیئری لینڈ لکھا تھا۔
آگے بڑھے تو پہلے ایک بل ڈاگ اندر سے نکلا۔ پھر دوسرا پھر تیسرا۔ آخر میں ایک چھوٹا سا سفید کتا باہر آیا جو پیسٹری کھا رہا تھا۔ تینوں پہلے کتوں نے مل کر بھونکنا شروع کیا۔ چوتھا کتا یقینا زیادہ خوش اخلاق تھا۔ وہ چپ چاپ پیسٹری کے ڈبے میں مصروف رہا۔ سب کے بعد ایک لڑکی باہر آئی اور ان سب کتوں کو گھسیٹ کر اندر لے گئی کیوں کہ باہر خنکی زیادہ تھی اور کتوں کو انفلوئنزا ہوجانے کا اندیشہ تھا۔ ابھی انہوں نے یہ طے نہیں کیا تھا کہ آگے جائیں یا واپس چلیں کہ موڑ پر سے کنور رانی بلیر سنگھ کی رکشا آتی نظر آئی۔ سوالات کی زد سے بچنے کے لیے وہ جلدی سے پیچھے چلے گیے۔
’’چنانچہ پیسٹری کھاتا ہے‘‘خاموشی سے چلتے ہوئے کپور تھلہ ہاؤس کی سڑک پر واپس پہنچ کر ایک دوست نے بے حد غور و فکر کے بعد کہا۔
’’باقی کے تینوں بھی اگر یہی شوق کریں تو نہیں بھونکیں گے۔‘‘ دوسرے نے کہا۔


’’قطعی نہیں بھونکیں گے۔‘‘خورشید نے اس کی رائے سے اتفاق کیا۔
شام کو جب خورشید راج کمار رویؔ اور برجیش کے ساتھ مال پر ٹہلنے نکلا تو دفعتاً اسے یاد آگیا کہ بے حد ضروری خریداری کرنا ہے۔ ’’ تم لوگ حمید اللہ سے مل آؤ ہم ابھی آتے ہیں۔ ‘‘ راجکمار روی اور برجیش کے آگے جانے کے بعد وہ اپنے دونوں دوستوں کے ساتھ منزلیں مارتا کلہڑی تک پہنچ گیا۔ لیکن کیک پیسٹری کی دوکان کہیں نظر نہ آئی۔ آخر جب وہ بالکل نا امید ہو کر واپس لوٹ رہے تھے تو خورشید کی نظر سڑک کی ڈھلوان کے اختتام پر ایک چھوٹی سی دوکان پر پڑ گئی جس پر بہت بڑا بورڈ لگا تھا۔ ’’رائل کنفکشنری۔‘‘ ایک صاحب دوکان کے باہر کرسی پر بیٹھے ہمدرد صحت پڑھ رہے تھے۔
’’کیوں صاحب آپ کیک پیسٹری بیچتے ہیں؟‘‘
’’جی نہیں۔۔۔ کیا آپ کا خیال ہے میں نے تفریحاً دوکان کھولی ہے۔‘‘


’’ارے میرا مطلب ہے۔۔۔ ‘‘
’’مطلب کیا صاحب!کیا میں یہاں محض تفریحاً بیٹھا ہوں یا یہ جو کھڑکی سجی ہے اسے صرف دیکھ دیکھ کر خوش ہوتا ہوں۔ یا انہیں محض سونگھتا ہوں۔ آخر سمجھتے کیا ہیں آپ؟ کہتے ہیں کہ۔۔۔‘‘
’’کیا چاہئے صاحب۔۔۔؟‘‘اندر سے جلدی سے ایک لڑکا نکلا۔
شام کو وہ سب ہیک مینز کے ایک نسبتاً خاموش گوشے میں جمع چائے پی رہے تھے۔ ’’آہ۔۔۔ فقط ایک جھلک اس کی دیکھی ہے لیکن کیا نفیس ناک ہے کہ گلابی سی اور مختصر جو غالباً سردی کی وجہ سے نم رہتی ہےاور آنکھیں چمکیلی اور شوخ اور نرگسی اور لمبے لمبے ریشمی بال اور آہ وہ کان چھوٹے چھوٹے بالکل پرستش کے قابل۔۔۔‘‘ خورشید نے بہت دیر خاموش رہنے کے بعد بے حد رنجیدہ لہجہ میں کہا۔


’’کہاں دیکھی تھی یار جلدی بتاؤ‘‘انعام محمود نے کان کھڑے کیے۔
’’ آہ۔۔۔ وہ دنیا کا بہترین کتا ہے۔ کیوں کہ دنیا کی خوب صورت ترین لڑکی کا کتاہے اور ۔۔۔ ‘‘
یک لخت خورشید کو وہ دوبارہ نظر آگیا۔ وہ ذرا دور پر دیوار کے قریب ایک صوفے پر بیٹھا تھا۔ اتنا نفیس خلیق کتا جو اگر نہ بھونکتا تو پتہ بھی نہ چلتا کہ کتا ہے۔ بالکل سفید فرکا بڑا سا پرس معلوم ہوتا تھا۔ اور ڈؤن کارلو کو اپنے سامنے رکھی ہوئی طشتری میں پلم کیک کے ٹکڑے کھاتے کھاتے دفعتاً خیال آیا کہ گیلری کے پرے نیلے رنگ کے یونیفارم میں ملبوس اس انسان کو وہ صبح دیکھ چکا ہے۔ اس نے کیک ختم کر کے ایک طویل انگڑائی لی اور اس انسان سے گفتگو کرنے کے ارادے سے صوفے پر سے کود کر چھوٹے چھوٹے قدم رکھتا گیلری کی طرف چلا۔
اس کی مالکہ اسی گیلری کی دوسری جانب اپنے بھائیوں اور بہنوئی کے ساتھ چائے پی رہی تھی۔ اور حالاں کہ ’’ انڈین ٹی‘‘ کے اشتہار سے پتہ چلتا ہے کہ اس چائے کو پینے کے بعد آپ کو دنیا میں کسی چیز کی ضرورت محسوس نہیں ہوتی۔ لیکن اس وقت اس نے محسوس کیا کہ وہ نوجوان جو تھوڑی دیر قبل ’’ارجمند ز کراؤڈ‘‘ کے ساتھ ہال میں داخل ہوا تھا یقینا ایسا تھا کہ اگر پچھلی کرسمس میں اس کی نسبت علی ریاض اے ۔ ایس۔ پی۔ سے نہ ہوگئی ہوتی اور یہ نووارد آدمی اگر اس میں دل چسپی لینا چاہتا تو قطعی مضائقہ نہ تھا۔


’’ہلو ناہید بیگم۔۔۔ تم اتنے دنوں کہاں چھپی رہیں۔ ادھر آؤ۔۔۔ تمہیں خورشید سے ملوائیں جسے تم نے ڈون ژوان کا خطاب دیا تھا۔‘‘ راجکمار روی نے اس کی میزکے قریب آکر کہا۔
رات کو جب وہ سب ہیک منیز سے واپس آرہے تھے تو ناہید نے خورشید کے اس دوست کو دیکھ کر جو رائل کنفکشنری سے واپسی سے اب تک بے حد اہتمام سے پیسٹری کا ڈبہ اٹھائے پھر رہا تھا۔ اپنی آنکھیں پھیلاتے ہوئے خورشید سے پوچھا،’’آپ لوگوں کو پیسٹری کا اتنا شوق ہے کہ اس کے ڈبے ساتھ لیے گھومتے ہیں؟‘‘
اگلی صبح بڑی خوش گوار تھی۔ مینہ رات بھر برس کر اب کھل گیا تھا۔ راستوں کے رنگ برنگے سنگ ریزے بارش کے پانی میں دھل دھلا کر خوب چمک رہے تھے۔ فضا میں پھولوں کی مہک اور گیلی مٹی کی سوندھی خوشبو پھیلی ہوئی تھی۔ زندگی بڑی تروتازہ اور نکھری ہوئی معلوم ہوتی تھی۔ ان پورنا میرا کو لے کر ٹہلتی ہوئے نچلی دیوار تک آگئی۔ جہاں چند رکشائیں اور موٹریں کھڑی تھیں۔ لائبریری والی سڑک کی سیڑھیاں چڑھ کر وہ ہوٹل کی طرف نظر آیا۔ قریب پہنچ کر اس نے اپنی دل آویز مسکراہٹ کے ساتھ آداب عرض کہا،’’جے کرو بی بی انکل کو جے نہیں کی تم نے ۔‘‘ ان پورنا نے اس کے سلام کا جواب دیتے ہوئے میرا کوڈانٹا۔ میرا نے بے حد پیارے طریقے سے اپنے ننھے منے ہاتھ جوڑ دیے، خورشید نے جھک کر اسے اٹھا لیا۔ پھر اسے آیا کے سپرد کردینے کے بعد وہ دونوں باتیں کرتے ہوئے ہوٹل کی جانب آگیے۔ برجیش کے برآمدے میں پکنک کا پروگرام بنایا جارہا تھا۔ سب خورشید کے منتظر تھے۔
ایسا لگتا تھا جیسے سب میں جان پڑ گئی ہے۔ جو لوگ موسم کی غیر دل چسپی کی شکایت کرتے رہتے تھے، اب ان کا ہر لمحہ نت نئے پروگرام بنانے میں صرف ہوتا۔ ہر وقت پیانو اور وائلن بجتا ،فیری لینڈ جاکر ناہید سے ڈھولک کے پوربی گیت سنے جاتے۔ برساتیوں ،ٹوکریوں اور چھتریوں سے لد پھند کر وہ سب دور دور نکل جاتے۔ ایک روز پکنک پر جاتے ہوئے رائل کنفکشنری پر بھی دھاوا بولا گیا۔ برجیش بھی اب کلا یواسٹریٹ کی خبریں پڑھنے کی بجائے ان تفریحوں میں حصہ لینے لگا۔ دنیا یک لخت بڑی پر مسرت بڑی روشن اور بڑی خوش گوار جگہ بن گئی تھی۔


جس گھر میں خورشید اپنے ایک دور کے عزیز کے یہاں ٹھہرا تھا، وہ نہایت عجیب و غریب اور بے حد دل چسپ جگہ تھی۔ اوپر کی منزل میں جو سڑک کی سطح کے برابر تھی گھوڑے رہتے تھے جو سڑک پر سے سیدھے اپنے اصطبل میں پہنچ جاتے، جو ڈرائنگ روم کے عین اوپر تھا۔ درمیانی منزل میں مرغیاں، کتے، بلیاں، بچے اور لڑکیاں رہتی تھیں۔ نچلی منزل میں جس کی سیڑھیاں کھڈ میں اترتی تھیں، خورشید کو ٹھہرایا گیا تھا۔ گھوڑے شاید الارم لگا کر سوتے تھے۔ صبح سویرے ہی وہ جاگ جاتے اور تیسری منزل کی کھڑکیوں سے نیچے جھانکنے میں مصروف ہوجاتے۔ خورشید کا جی چاہتا تھا کہ زور سے کچھ اس قسم کا گیت الاپے۔۔۔ یہ کون اٹھا اور گھوڑوں کو اٹھایا۔۔۔ پھر دوسری منزل پر مرغیاں، کتے، بلیاں، بچے اور لڑکیاں اپنے اپنے پسندیدہ اسٹائل سے جاگنا شروع کرتیں اور قیامت کا شور مچتا۔ اسی کے ساتھ ساتھ خورشید کے دونوں دوست غسل خانوں میں گھس کر اپنا صبح کا قومی ترانہ شروع کردیتے۔۔۔ یہ کون آج آیا سویرے سویرے ۔۔۔پھر لڑکیاں گھوڑوں پر سواری کے لیے جاتیں۔ لیکن سواری کرنی کسی کو بھی نہیں آتی تھی۔ اس لیے سڑکوں پر روز شہسواری کے بعض نہایت نادر نظارے دیکھنے میں آتے۔۔۔ پھر ایک روز لڑکیوں کی شہسواری سکھانے کا بے اتنہا خوش گوار فرض خورشید کے سپرد کیا گیا۔ وہ اسی دن اپنا سامان لے کر سوائے بھاگ آیا۔
اسٹینڈرڈ میں سالانہ مشاعرہ تھا۔ محفل ختم ہونے کے بعد سب باہر نکل آئے تھے۔ بڑا بے پناہ مجمع تھا۔ بھوپال کی الٹرافیشن ایبل لڑکیاں، حیدرآباد کے جاگیردار، رام پور کے رئیس، نئی دہلی اور لکھنؤ کے ہندوستانی صاحب لوگ سب کے ہونٹوں پر جگرؔ کی تازہ غزل کے اشعار تھے،
لاکھ آفتاب پاس سے ہو کر گزر گیے
بیٹھے ہم انتظار سحر دیکھتے رہے


زینے کی سیڑھیاں طے کر کے وہ سارے دوست بھی نیچے سڑک پر آگئے۔ مشاعرے کے دوران میں خورشید ان پورنا کو شعروں کے مشکل الفاظ کے معنی بتاتا رہا اور ان پورنا نے طے کر لیا کہ وہ ناہید سے قطعی طور پر اردو پڑھنا شروع کر دے گی۔ اردو دنیا کی خوب صورت ترین اور شیریں ترین زبان تھی اور لکھنؤ والوں کا لب و لہجہ، لکھنؤ جو خورشید کا وطن تھا، ان پورنا کالکھنؤ دیکھنے کا اشیاق زیادہ ہوگیا۔ وہاں کے ہرے بھرے باغ، سایہ دار خوب صورت سڑکیں، شان دار عمارتیں،مہذب لوگ جہاں کے تانگے والے اور سبزی فروش بھی اس قدر تہذیب سے اور ایسی نفیس زبان میں گفتگو کرتے تھے کہ بس سنا کیجئے اور پھر وہاں کا موسیقی کامیرس کالج ، وہاں کا کتھک ناچ ۔خورشید نے وائلن میرس کالج میں سیکھا تھا۔ برجیش کہتا تھا جس طرح ان پورنا رانی کی جان تان پورے کے تاروں میں رہتی ہے اسی طرح خورشید کی جان اس کے وائلن کیس میں بند ہے۔ مسلمان لڑکے عام طور پر زیادہ خوب صورت ہوتے ہیں۔ ناہید کی ساری غیر مسلم سہیلیاں اس سے اکثر کہا کرتی تھیں۔ خورشید بھی بہت خوب صورت تھا۔ برجیش اورکرنل جہانگیر اور راج کمار روی ان سب سے زیادہ دل کش اور شان دار۔
اور اس وقت جب کہ مشاعرے کے بعد وہ سب ٹہلتے ہوئے اسٹینڈرڈ سے واپس آرہے تھے، مال کی ریلنگ کے ساتھ ساتھ چلتے ہوئے دفعتاً خورشید نے مڑ کر ان پورنا سے کہا، ’’زندگی بڑی خوش گوار ہے نا ان پورنا رانی، ہے نا؟‘‘ پھر وہ بے فکری سے سیٹی بجا کر ڈؤن کارلو کو بلانے لگا جو ناہید کے پیچھے پیچھے بھاگ رہا تھاوہ اور ان پورنا آگے جاتے ہوئے مجمع سے ذرا فاصلہ پر سڑک کے کنارے چل رہے تھے۔ آسمان پر ستارے جگمگا اٹھے تھے اور پہاڑوں کی چوٹیوں پر سے ٹھنڈی ہوا کے جھونکے آرہے تھے۔
’’تم زندگی سے بالکل مطمئن ہو خورشید احمد ؟‘‘ان پورنا نے تھوڑی دیر تک اس کے ساتھ چلتے رہنے کے بعد پوچھا۔
’’بالکل۔۔۔ مجھ سے زیادہ بے فکر شخص کون ہوگا۔۔۔ان پورنا رانی! میں جس کی زندگی کا واحد مصرف کھیلنا اور خوش رہنا ہے۔ جب میں اپنا طیارہ لے کر فضا کی بلندیوں پر پہنچتا ہوں، اس وقت مجھے اچھی طرح معلوم ہوتا ہے کہ میں موت سے ملاقات کرنے کی غرض سے جارہا ہوں۔ موت مجھے کسی لمحے بھی زندگی سے چھین سکتی ہے، لیکن زندگی اب تک میرے لیے خوب مکمل اور بھرپور رہی ہے۔ میرے پیچھے اس خوب صورت دنیا میں صرف میرے دوست رہ جائیں گے جو کبھی کبھی ایسی ہی خوشگوار راتوں میں مجھے یاد کر لیا کریں گے۔‘‘ ان پورنا کا جی چاہا کہ وہ چلا کر کہے۔۔۔ تم غلط کہتے ہو کمل اندر! اگر تم مرو گے تو تمہارے لیے ایک روح عمربھرروئے گی کہ تم نے اس سے دوبارہ ملنے کا وعدہ کیا۔ لیکن نہ مل سکے۔


اور پھر اپنی اوبزرویشن پوسٹ پر بیٹھے بیٹھے بیگم ارجمند اور کنور رانی صاحبہ نے طے کیا کہ بہت اچھا لڑکا ہے۔ کھاتے پیتے گھرانے کا۔ نیک سیرت،شکیل، برسر روزگار اور اب تک یوں ہی کنوارا گھوم رہ

- قرۃالعین-حیدر


मुझे सन् याद नहीं रहा लेकिन वही दिन थे। जब अमृतसर में हर तरफ़ “इन्क़लाब ज़िंदाबाद” के नारे गूंजते थे। उन नारों में
मुझे अच्छी तरह याद है
एक अ’जीब क़िस्म का जोश था... एक जवानी... एक अ’जीब क़िस्म की जवानी। बिल्कुल अमृतसर की गुजरियों की सी जो सर पर ऊपलों के टोकरे उठाए बाज़ारों को जैसे काटती हुई चलती हैं... ख़ूब दिन थे। फ़िज़ा में जो जलियांवाला बाग़ के ख़ूनीं हादिसे का उदास ख़ौफ़ समोया रहता था। उस वक़्त बिल्कुल मफ़क़ूद था। अब उसकी जगह एक बेख़ौफ तड़प ने ले ली थी। एक अंधाधुंद जस्त ने जो अपनी मंज़िल से नावाक़िफ़ थी।
लोग नारे लगाते थे


जलूस निकालते थे और सैंकड़ों की ता’दाद में धड़ाधड़ क़ैद हो रहे थे। गिरफ़्तार होना एक दिलचस्प शग़ल बिन गया था। सुबह क़ैद हुए
शाम छोड़ दिए गए। मुक़द्दमा चला
चंद महीनों की क़ैद हुई
वापस आए


एक नारा लगाया
फिर क़ैद हो गए।
ज़िंदगी से भरपूर दिन थे। एक नन्हा सा बुलबुला फटने पर भी एक बहुत बड़ा भंवर बन जाता था। किसी ने चौक में खड़े हो कर तक़रीर की और कहा
हड़ताल होनी चाहिए


चलिए जी हड़ताल हो गई... एक लहर उठी कि हर शख़्स को खादी पहननी चाहिए ताकि लंका शाइर के सारे कारख़ाने बंद हो जाएं... बिदेशी कपड़ों का बायकॉट शुरू हो गया और हर चौक में अलाव जलने लगे। लोग जोश में आकर खड़े खड़े वहीं कपड़े उतारते और अलाव में फेंकते जाते
कोई औरत अपने मकान के शहनशीन से अपनी नापसंदीदा साड़ी उछालती तो हुजूम तालियां पीट पीट कर अपने हाथ लाल कर लेता।
मुझे याद है कोतवाली के सामने टाउन हाल के पास एक अलाव जल रहा था... शेख़ू ने जो मेरा हम-जमाअ’त था
जोश में आकर अपना रेशमी कोट उतारा और बिदेशी कपड़ों की चिता में डाल दिया। तालियों का समुंदर बहने लगा क्योंकि शेख़ू एक बहुत बड़े “टोडी बच्चे” का लड़का था। उस ग़रीब का जोश और भी ज़्यादा बढ़ गया। अपनी बोस्की की क़मीज़ उतार वो भी शो’लों की नज़र करदी


लेकिन बाद में ख़याल आया कि उसके साथ सोने के बटन थे।
मैं शेख़ू का मज़ाक़ नहीं उड़ाता
मेरा हाल भी उन दिनों बहुत दिगरगूं था। जी चाहता था कि कहीं से पिस्तौल हाथ में आजाए तो एक दहशत पसंद पार्टी बनाई जाये। बाप गर्वनमेंट का पेंशनख़्वार था। इसका मुझे कभी ख़याल न आया। बस दिल-ओ-दिमाग़ में एक अ’जीब क़िस्म की खुद बुद रहती थी। बिल्कुल वैसी ही जैसी फ्लाश खेलने के दौरान में रहा करती है।
स्कूल से तो मुझे वैसे ही दिलचस्पी नहीं थी मगर उन दिनों तो ख़ासतौर पर मुझे पढ़ाई से नफ़रत हो गई थी... घर से किताबें लेकर निकलता और जलियांवाला बाग़ चला जाता। स्कूल का वक़्त ख़त्म होने तक वहां की सरगर्मियां देखता रहता या किसी दरख़्त के साये तले बैठ कर दूर मकानों की खिड़कियों में औरतों को देखता और सोचता कि ज़रूर उनमें से किसी को मुझसे इश्क़ हो जाएगा... ये ख़याल दिमाग़ में क्यों आता। इसके मुतअ’ल्लिक़ मैं कुछ कह नहीं सकता।


जलियांवाला बाग़ में ख़ूब रौनक़ थी। चारों तरफ़ तंबू और क़नातें फैली हुई थीं
जो ख़ेमा सब से बड़ा था
उसमें हर दूसरे तीसरे रोज़ एक डिक्टेटर बनाके बिठा दिया जाता था। जिसको तमाम वालंटियर सलामी देते थे। दो-तीन रोज़ या ज़्यादा से ज़्यादा दस-पंद्रह रोज़ तक ये डिक्टेटर खादी पोश औरतों और मर्दों की नमस्कारें एक मस्नूई संजीदगी के साथ वसूल करता। शहर के बनियों से लंगर ख़ाने के लिए आटा-चावल इकट्ठा करता और दही की लस्सी पी पी कर जो ख़ुदा मालूम जलियांवाला बाग़ में क्यों इस क़दर आम थी
एक दिन अचानक गिरफ़्तार हो जाता और किसी क़ैदख़ाने में चला जाता।


मेरा एक पुराना हम-जमाअ’त था। शहज़ादा ग़ुलाम अली
उससे मेरी दोस्ती का अंदाज़ा आपको इन बातों से हो सकता है कि हम इकट्ठे दो दफ़ा मैट्रिक के इम्तहान में फ़ेल हो चुके थे और एक दफ़ा हम दोनों घर से भाग कर बंबई गए। ख़याल था कि रूस जाऐंगे मगर पैसे ख़त्म होने पर जब फुटपाथों पर सोना पड़ा तो घर ख़त लिखे
माफियां मांगीं और वापस चले आए।
शहज़ादा ग़ुलाम अली ख़ूबसूरत जवान था। लंबा क़द


गोरा रंग जो कश्मीरियों का होता है। तीखी नाक
खलंडरी आँखें
चाल-ढाल में एक ख़ास शान थी जिसमें पेशावर ग़ुंडों की कजकुलाही की हल्की सी झलक भी थी।
जब वो मेरे साथ पढ़ता था तो शहज़ादा नहीं था


लेकिन जब शहर में इन्क़लाबी सरगर्मियों ने ज़ोर पकड़ा और उसने दस-पंद्रह जलसों और जलूसों में हिस्सा लिया तो नारों गेंदे के हारों
जोशीले गीतों और लेडी वालंटियर्ज़ से आज़ादाना गुफ़्तुगूओं ने उसे एक नीम रस इन्क़लाबी बना दिया। एक रोज़ उस ने पहली तक़रीर की। दूसरे रोज़ मैंने अख़बार देखे तो मालूम हुआ कि ग़ुलाम अली शहज़ादा बन गया है।
शहज़ादा बनते ही ग़ुलाम अली सारे अमृतसर में मशहूर हो गया। छोटा सा शहर है
वहां नेक नाम होते या बदनाम होते देर नहीं लगती। यूं तो अमृतसरी आम आदमीयों के मुआ’मले में बहुत हर्फ़गीर हैं। या’नी हर शख़्स दूसरों के ऐ’ब टटोलने और किरदारों में सुराख़ ढ़ूढ़ने की कोशिश करता रहता है। लेकिन सियासी और मज़हबी लीडरों के मुआ’मले में अमृतसरी बहुत चश्मपोशी से काम लेते हैं।


उनको दरअसल हर वक़्त एक तक़रीर या तहरीक की ज़रूरत रहती है। आप उन्हें नीली पोश बता दीजिए या स्याह पोश
एक ही लीडर चोले बदल बदल कर अमृतसर में काफ़ी देर तक ज़िंदा रह सकता है। लेकिन वो ज़माना कुछ और था। तमाम बड़े बड़े लीडर जेलों में थे और उनकी गद्दियां ख़ाली थीं। उस वक़्त लोगों को लीडरों की कोई इतनी ज़्यादा ज़रूरत न थी। लेकिन वो तहरीक जो कि शुरू हुई थी उसको अलबत्ता ऐसे आदमीयों की अशद ज़रूरत थी जो एक दो रोज़ खादी पहन कर जलियांवाला बाग़ के बड़े तंबू में बैठें। एक तक़रीर करें और गिरफ़्तार हो जाएं।
उन दिनों यूरोप में नई नई डिक्टेटरशिप शुरू हुई थी। हिटलर और मसोलीनी का बहुत इश्तिहार हो रहा था। ग़ालिबन इस असर के मातहत कांग्रस पार्टी ने डिक्टेटर बनाने शुरू कर दिए थे। जब शहज़ादा ग़ुलाम अली की बारी आई तो उससे पहले चालीस डिक्टेटर गिरफ़्तार हो चुके थे।
जूं ही मालूम हुआ कि इस तरह ग़ुलाम अली डिक्टेटर बन गया है तो में फ़ौरन जलियांवाला बाग़ में पहुंचा। बड़े ख़ेमे के बाहर वालंटियरों का पहरा था। मगर ग़ुलाम अली ने जब मुझे अंदर से देखा तो बुला लिया। ज़मीन पर एक गदेला था


जिस पर खादी की चांदनी बिछी थी। उस पर गाव तकियों का सहारा लिए शहज़ादा ग़ुलाम अली चंद खादीपोश बनियों से गुफ़्तुगू कर रहा था जो ग़ालिबन तरकारियों के मुतअ’ल्लिक़ थी। चंद मिनटों ही में उसने ये बातचीत ख़त्म की और चंद रज़ाकारों को अहकाम दे कर वह मेरी तरफ़ मुतवज्जा हुआ। उसकी ये ग़ैरमामूली संजीदगी देख कर मेरे गुदगुदी सी हो रही थी। जब रज़ाकार चले गए तो मैं हंस पड़ा।
“सुना बे शहज़ादे।”
मैं देर तक उससे मज़ाक़ करता रहा लेकिन मैंने महसूस किया कि ग़ुलाम अली में तबदीली पैदा हो गई है। ऐसी तबदीली जिससे वो बाख़बर है। चुनांचे उसने कई बार मुझसे यही कहा
“नहीं सआदत


मज़ाक़ न उड़ाओ। मैं जानता हूँ मेरा सर छोटा और ये इज़्ज़त जो मुझे मिली है बड़ी है... लेकिन मैं ये खुली टोपी ही पहने रहना चाहता हूँ।”
कुछ देर के बाद उसने मुझे दही की लस्सी का एक बहुत बड़ा गिलास पिलाया और मैं उससे ये वादा करके घर चला गया कि शाम को उसकी तक़रीर सुनने के लिए ज़रूर आऊँगा।
शाम को जलियांवाला बाग़ खचाखच भरा था। मैं चूँकि जल्दी आया था
इसलिए मुझे प्लेटफार्म के पास ही जगह मिल गई। ग़ुलाम अली तालियों के शोर के साथ नुमूदार हुआ... सफ़ेद बेदाग़ खादी के कपड़े पहने वो ख़ूबसूरत और पुरकशिश दिखाई दे रहा था। वो कजकुलाही की झलक जिसका मैं इस से पहले ज़िक्र कर चुका हूँ। उसकी इस कशिश में इज़ाफ़ा कर रही थी।


तक़रीबन एक घंटे तक वो बोलता रहा। इस दौरान में कई बारे रोंगटे खड़े हुए और एक दो दफ़ा तो मेरे जिस्म में बड़ी शिद्दत से ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि मैं बम की तरह फट जाऊं। उस वक़्त मैंने शायद यही ख़याल किया था कि यूं फट जाने से हिंदुस्तान आज़ाद हो जाएगा।
ख़ुदा मालूम कितने बरस गुज़र चुके हैं। बहते हुए एहसासात और वाक़ियात की नोक-पलक जो उस वक़्त थी
अब पूरी सेहत से बयान करना बहुत मुश्किल है। लेकिन ये कहानी लिखते हुए मैं जब ग़ुलाम अली की तक़रीर का तसव्वुर करता हूँ तो मुझे सिर्फ़ एक जवानी बोलती दिखाई देती है
जो सियासत से बिल्कुल पाक थी। उसमें एक ऐसे नौजवान की पुरख़ुलूस बेबाकी थी जो एक दम किसी राह चलती औरत को पकड़ले और कहे


“देखो मैं तुम्हें चाहता हूँ।” और दूसरे लम्हे क़ानून के पंजे में गिरफ़्तार हो जाये।
उस तक़रीर के बाद मुझे कई तक़रीरें सुनने का इत्तेफ़ाक़ हुआ है। मगर वो ख़ाम दीवानगी
वो सरफिरी जवानी
वो अल्हड़ जज़्बा


वो बेरेश-ओ-बुरूत ललकार जो मैंने शहज़ादा ग़ुलाम अली की आवाज़ में सुनी। अब उसकी हल्की सी गूंज भी मुझे कभी सुनाई नहीं दी। अब जो तक़रीरें सुनने में आती हैं
वो ठंडी संजीदगी
बूढ़ी सियासत और शायराना होशमन्दी में लिपटी होती हैं।
उस वक़्त दरअसल दोनों पार्टीयां खामकार थीं। हुकूमत भी और रिआ’या भी। दोनों नताइज से बेपर्वा


एक दूसरे से दस्त-ओ-गरीबां थे। हुकूमत क़ैद की अहमियत समझे बग़ैर लोगों को क़ैद कर रही थी और जो क़ैद होते थे
उनको भी क़ैदख़ानों में जाने से पहले क़ैद का मक़सद मालूम नहीं होता था।
एक धांदली थी मगर इस धांदली में एक आतिशीं इंतशार था। लोग शो’लों की तरह भड़कते थे
बुझते थे


फिर भड़कते थे। चुनांचे इस भड़कने और बुझने
बुझने और भड़कने ने गु़लामी की ख़्वाबीदा उदास और जमाइयों भरी फ़िज़ा में गर्म इर्तिआ’श पैदा कर दिया था।
शहज़ादा ग़ुलाम अली ने तक़रीर ख़त्म की तो सारा जलियांवाला बाग़ तालियों और नारों का दहकता हुआ अलाव बन गया। उसका चेहरा दमक रहा था। जब मैं उससे अलग जा कर मिला और मुबारकबाद देने के लिए उसका हाथ अपने हाथ में दबाया तो वो काँप रहा था। ये गर्म कपकपाहट उसके चमकीले चेहरे से भी नुमायां थी। वो किसी क़दर हांप रहा था। उसकी आँखों में पुरजोश जज़्बात की दमक के इलावा मुझे एक थकी हुई तलाश नज़र आई। वो किसी को ढूंढ रही थीं। एक दम उसने अपना हाथ मेरे हाथ से अलाहिदा किया और सामने चमेली की झाड़ी की तरफ़ बढ़ा।
वहां एक लड़की खड़ी थी। खादी की बेदाग़ साड़ी में मलबूस।


दूसरे रोज़ मुझे मालूम हुआ कि शहज़ादा ग़ुलाम अली इ’श्क़ में गिरफ़्तार है। वो उस लड़की से जिसे मैंने चमेली की झाड़ी के पास बाअदब खड़ी देखा था। मोहब्बत कर रहा था। ये मोहब्बत यकतरफ़ा नहीं थी क्योंकि निगार को भी उससे वालिहाना लगाव था।
निगार जैसा कि नाम से ज़ाहिर है एक मुसलमान लड़की थी। यतीम! ज़नाना हस्पताल में नर्स थी और शायद पहली मुसलमान लड़की थी जिसने अमृतसर में बेपर्दा होकर कांग्रेस की तहरीक में हिस्सा लिया।
कुछ खादी के लिबास ने कुछ कांग्रस की सरगर्मियों में हिस्सा लेने के बाइ’स और कुछ हस्पताल की फ़िज़ा ने निगार की इस्लामी ख़ू को
उस तीखी चीज़ को जो मुसलमान औरत की फ़ित्रत में नुमायां होती है थोड़ा सा घुसा दिया था जिससे वो ज़रा मुलाइम हो गई थी।


वो हसीन नहीं थी लेकिन अपनी जगह निस्वानियत का एक निहायत ही दीदा-चश्म मुनफ़रिद नमूना था। इन्किसार
ता’ज़ीम और परस्तिश का वो मिला-जुला जज़्बा जो आदर्श हिंदू औरत का ख़ास्सा है निगार में उसकी ख़फ़ीफ़ सी आमेज़िश ने एक रूह परवर रंग पैदा कर दिया था। उस वक़्त तो शायद ये कभी मेरे ज़ेहन में न आता। मगर ये लिखते वक़्त मैं निगार का तसव्वुर करता हूँ तो वो मुझे नमाज़ और आरती का दिलफ़रेब मजमूआ दिखाई देती है।
शहज़ादा ग़ुलाम अली की वो परस्तिश करती थी और वो भी उस पर दिल-ओ-जान से फ़िदा था। जब निगार के बारे में उससे गुफ़्तुगू हुई तो पता चला कि कांग्रेस तहरीक के दौरान में उन दोनों की मुलाक़ात हुई और थोड़े ही दिनों के मिलाप से वो एक दूसरे के हो गए।
ग़ुलाम अली का इरादा था कि क़ैद होने से पहले पहले वो निगार को अपनी बीवी बना ले। मुझे याद नहीं कि वो ऐसा क्यों करना चाहता था क्योंकि क़ैद से वापस आने पर भी वो उससे शादी कर सकता था। उन दिनों कोई इतनी लंबी क़ैद तो होती नहीं थी। कम से कम तीन महीने और ज़्यादा से ज़्यादा एक बरस। बा’ज़ों को तो पंद्रह-बीस रोज़ के बाद ही रिहा कर दिया जाता था ताकि दूसरे क़ैदियों के लिए जगह बन जाये। बहरहाल वो इस इरादे को निगार पर भी ज़ाहिर कर चुका था और वो बिल्कुल तैयार थी। अब सिर्फ़ दोनों को बाबा जी के पास जा कर उनका आशीर्वाद लेना था।


बाबा जी जैसा कि आप जानते होंगे बहुत ज़बरदस्त हस्ती थी। शहर से बाहर लखपती सर्राफ हरी राम की शानदारी कोठी में वो ठहरे हुए थे। यूं तो वो अक्सर अपने आश्रम में रहते जो उन्होंने पास के एक गांव में बना रखा था
मगर जब कभी अमृतसर आते तो हरी राम सर्राफ ही की कोठी में उतरते और उनके आते ही ये कोठी बाबा जी के शैदाइयों के लिए मुक़द्दस जगह बन जाती।
सारा दिन दर्शन करने वालों का तांता बंधा रहता। दिन ढले वो कोठी से बाहर कुछ फ़ासले पर आम के पेड़ों के झुंड में एक चोबी तख़्त पर बैठ कर लोगों को आम दर्शन देते
अपने आश्रम के लिए चंदा इकट्ठा करते। आख़िर में भजन वग़ैरा सुन कर हर रोज़ शाम को ये जलसा उनके हुक्म से बर्ख़ास्त हो जाता।


बाबा जी बहुत परहेज़गार
ख़ुदातरस
आ’लिम और ज़हीन आदमी थे। यही वजह है कि हिंदू
मुसलमान


सिख और अछूत सब उनके गर्वीदा थे और उन्हें अपना इमाम मानते थे।
सियासत से गो बाबाजी को बज़ाहिर कोई दिलचस्पी नहीं थी मगर ये एक खुला हुआ राज़ है कि पंजाब की हर सियासी तहरीक उन्ही के इशारे पर शुरू हुई और उन्ही के इशारे पर ख़त्म हुई।
गर्वनमेंट की निगाहों में वो एक उक़्दा-ए-ला-यनहल थे
एक सियासी चीसतां जिसे सरकार-ए-आलिया के बड़े बड़े मुदब्बिर भी न हल कर सकते थे। बाबा जी के पतले पतले होंटों की एक हल्की सी मुस्कुराहट के हज़ार मा’नी निकाले जाते थे मगर जब वो ख़ुद इस मुस्कुराहट का बिल्कुल ही नया मतलब वाज़ेह करते तो मरऊ’ब अ’वाम और ज़्यादा मरऊ’ब हो जाते।


ये जो अमृतसर में सिविल नाफ़रमानी की तहरीक जारी थी और लोग धड़ा धड़ क़ैद हो रहे थे। इसके अ’क़्ब में जैसा कि ज़ाहिर है बाबा जी ही का असर कारफ़रमा था। हर शाम लोगों को आम दर्शन देते वक़्त वो सारे पंजाब की तहरीक-ए-आज़ादी और गर्वनमेंट की नित नई सख़्तगीरियों के मुतअ’ल्लिक़ अपने पोपले मुँह से एक छोटा सा... एक मासूम सा जुमला निकाल दिया करते थे
जिसे फ़ौरन ही बड़े बड़े लीडर अपने गले में तावीज़ बना कर डाल लेते थे।
लोगों का बयान है कि उनकी आँखों में एक मक़नातीसी क़ुव्वत थी
उनकी आवाज़ में एक जादू था और उनका ठंडा दिमाग़... उनका वो मुस्कुराता होता दिमाग़ जिसको गंदी से गंदी गाली और ज़हरीली से ज़हरीली तन्ज़ भी एक लहज़े के हज़ारवें हिस्से के लिए बरहम नहीं कर सकती थी। हरीफ़ों के लिए बहुत ही उलझन का बाइ’स था।


अमृतसर में बाबा जी के सैंकड़ों जुलूस निकल चुके थे मगर जाने क्या बात है कि मैंने और तमाम लीडरों को देखा। एक सिर्फ़ उन ही को मैंने दूर से देखा न नज़दीक से। इसीलिए जब ग़ुलाम अली ने मुझसे उनके दर्शन करने और उनसे शादी की इजाज़त लेने के मुतअ’ल्लिक़ बातचीत की तो मैंने उस से कहा कि जब वो दोनों जाएं तो मुझे भी साथ लेते जाएं।
दूसरे ही रोज़ ग़ुलाम अली ने तांगे का इंतिज़ाम किया और हम सुबह सवेरे लाला हरी राम सर्राफ़ की आलीशान कोठी में पहुंच गए।
बाबा जी ग़ुसल और सुबह की दुआ से फ़ारिग़ हो कर एक ख़ूबसूरत पंडितानी से क़ौमी गीत सुन रहे थे। चीनी की बेदाग़ सफ़ेद टाइलों वाले फ़र्श पर आप खजूर के पत्तों की चटाई पर बैठे थे। गाव तकिया उनके पास ही पड़ा था
मगर उन्होंने उसका सहारा नहीं लिया था।


कमरे में सिवाए एक चटाई के जिसके ऊपर बाबा जी बैठे थे और फ़र्नीचर वग़ैरा नहीं था। एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक सफ़ेद टायलें चमक रही थीं। उनकी चमक ने क़ौमी गीत गाने वाली पंडितानी के हल्के पियाज़ी चेहरे को और भी ज़्यादा हसीन बना दिया था।
बाबा जी गो सत्तर बेहत्तर बरस के बुढढे थे मगर उनका जिस्म (वो सिर्फ़ गेरुवे रंग का छोटा सा तहमद बांधे थे) उम्र की झुर्रियों से बेनियाज़ था। जिल्द में एक अ’जीब क़िस्म की मलाहत थी। मुझे बाद में मालूम हुआ कि वो हर रोज़ अश्नान से पहले रोगन ज़ैतून अपने जिस्म पर मलवाते हैं।
शहज़ादा ग़ुलाम अली की तरफ़ देख कर वह मुस्कुराए
मुझे भी एक नज़र देखा और हम तीनों की बंदगी का जवाब उसी मुस्कुराहट को ज़रा तवील करके दिया और इशारा किया कि हम बैठ जाएं।


मैं अब ये तस्वीर अपने सामने लाता हूँ तो शऊर की ऐनक से ये मुझे दिलचस्प होने के इलावा बहुत ही फ़िक्रख़ेज़ दिखाई देती है। खजूर की चटाई पर एक नीम बरहना मुअ’म्मर जोगियों का आसन लगाए बैठा है। उसकी बैठक है
उसके गंजे सर से
उसकी अधखुली आँखों से
उसके साँवले मुलाइम जिस्म से


उसके चेहरे के हर ख़त से एक पुरसुकून इत्मिनान
एक बेफ़िक्र तयक़्क़ुन मुतरश्शेह था कि जिस मुक़ाम पर दुनिया ने उसे बिठा दिया है। अब बड़े से बड़ा ज़लज़ला भी उसे वहां से नहीं गिरा सकता।
उससे कुछ दूर वादी-ए-कश्मीर की एक नौख़ेज़ कली
झुकी हुई


कुछ उस बुज़ुर्ग की क़ुरबत के एहतिराम से
कुछ क़ौमी गीत के असर से कुछ अपनी शदीद जवानी से जो उसकी खुरदुरी सफ़ेद साड़ी से निकल कर क़ौमी गीत के इलावा अपनी जवानी का गीत भी गाना चाहती थी
जो उस बुज़ुर्ग की क़ुरबत का एहतराम करने के साथ साथ किसी ऐसी तंदुरुस्त और जवान हस्ती की भी ता’ज़ीम करने की ख़्वाहिशमंद थी जो उसकी नर्म कलाई पकड़ कर ज़िंदगी के दहकते हुए अलाव में कूद पड़े।
उसके हल्के प्याज़ी चेहरे से


उसकी बड़ी बड़ी स्याह मुतहर्रिक आँखों से
उसके खादी के खुरदरे ब्लाउज़ में ढके हुए मुतलातिम सीने से
उस मुअम्मर जोगी के ठोस तयक़्क़ुन और संगीन इत्मिनान के तक़ाबुल में एक ख़ामोश सदा थी कि आओ
जिस मुक़ाम पर मैं इस वक़्त हूँ


वहां से खींच कर मुझे या तो नीचे गिरा दो या इससे भी ऊपर ले जाओ।
उस तरफ़ हट कर हम तीन बैठे थे। मैं
निगार और शहज़ादा ग़ुलाम अली... मैं बिल्कुल चुग़द बना बैठा था। बाबा जी की शख़्सियत से भी मुतास्सिर था और इस पंडितानी के बेदाग हुस्न से भी। फ़र्श की चमकीली टाइलों ने भी मुझे मरऊ’ब किया था। कभी सोचता था कि ऐसी टाइलों वाली एक कोठी मुझे मिल जाये तो कितना अच्छा हो। फिर सोचता था कि ये पंडितानी मुझे और कुछ न करने दे
एक सिर्फ़ मुझे अपनी आँखें चूम लेने दे।


उसके तसव्वुर से बदन में थरथरी पैदा होती तो झट अपनी नौकरानी का ख़याल आता जिससे ताज़ा ताज़ा मुझे कुछ वो हुआ था। जी में आता कि इन सब को
यहां छोड़कर सीधा घर जाऊं... शायद नज़र बचा कर उसे ऊपर ग़ुसलख़ाने तक ले जाने में कामयाब हो सकूं
मगर जब बाबा जी पर नज़र पड़ती और कानों में क़ौमी गीत के पुरजोश अल्फ़ाज़ गूंजते तो एक दूसरी थरथरी बदन में पैदा होती और मैं सोचता कि कहीं से पिस्तौल हाथ आजाए तो सिविल लाईन में जा कर अंग्रेज़ों को मारना शुरू कर दूँ।
इस चुग़द के पास निगार और ग़ुलाम अली बैठे थे। दो मोहब्बत करने वाले दिल


जो तन्हा मोहब्बत में धड़कते धड़कते अब शायद कुछ उकता गए थे और जल्दी एक दूसरे में मोहब्बत के दूसरे रंग देखने के लिए मुदग़म होना चाहते थे। दूसरे अल्फ़ाज़ में वो बाबा जी से
अपने मुसल्लिमा सियासी रहनुमा से शादी की इजाज़त लेने आए थे और जैसा कि ज़ाहिर है उन दोनों के दिमाग़ में उस वक़्त क़ौमी गीत के बजाय उनकी अपनी ज़िंदगी का हसीनतरीन मगर अनसुना नग़्मा गूंज रहा था।
गीत ख़त्म हुआ। बाबा जी ने बड़े मुशफ़िक़ाना अंदाज़ से पंडितानी को हाथ के इशारे से आशीर्वाद दिया और मुस्कुराते हुए निगार और ग़ुलाम अली की तरफ़ मुतवज्जा हुए। मुझे भी उन्होंने एक नज़र देख लिया।
ग़ुलाम अली शायद तआ’रुफ़ के लिए अपना और निगार का नाम बताने वाला था मगर बाबा जी का हाफ़िज़ा बला का था। उन्होंने फ़ौरन ही अपनी मीठी आवाज़ में कहा


“शहज़ादे अभी तक तुम गिरफ़्तार नहीं हुए?”
ग़ुलाम अली ने हाथ जोड़ कर कहा
“जी नहीं।”
बाबा जी ने क़लमदान से एक पेंसिल निकाली और उससे खेलते हुए कहने लगे


“मगर मैं तो समझता हूँ
तुम गिरफ़्तार हो चुके हो।”
ग़ुलाम अली इसका मतलब न समझ सका। लेकिन बाबा जी ने फ़ौरन ही पंडितानी की तरफ़ देखा और निगार की तरफ़ इशारा करके कहा
“निगार ने हमारे शहज़ादे को गिरफ़्तार कर लिया है।”


निगार मह्जूब सी हो गई। ग़ुलाम अली का मुँह फरत-ए-हैरत से खुला का खुला रह गया और पंडितानी के प्याज़ी चेहरे पर एक दुआइया चमक सी आई। उसने निगार और ग़ुलाम अली को कुछ इस तरह देखा जैसे ये कह रही है
“बहुत अच्छा हुआ।”
बाबा जी एक बार फिर पंडितानी की तरफ़ मुतवज्जा हुए
“ये बच्चे मुझसे शादी की इजाज़त लेने आए हैं... तुम कब शादी कर रही हो कमल?”


तो उस पंडितानी का नाम कमल था। बाबा जी के अचानक सवाल से वो बौखला गई। उसका प्याज़ी चेहरा सुर्ख़ हो गया। काँपती हुई आवाज़ में उसने जवाब दिया
“मैं तो आपके आश्रम में जा रही हूँ।”
एक हल्की सी आह भी उन अल्फ़ाज़ में लिपट कर बाहर आई
जिसे बाबा जी के होशियार दिमाग़ ने फ़ौरन नोट किया। वो उसकी तरफ़ देख कर जोगियाना अंदाज़ में मुस्कुराए और ग़ुलाम अली और निगार से मुख़ातिब हो कर कहने लगे


“तो तुम दोनों फ़ैसला कर चुके हो।”
दोनों ने दबी ज़बान में जवाब दिया
“जी हाँ।”
बाबा जी ने अपनी सियासत भरी आँखों से उनको देखा


“इंसान जब फ़ैसले करता है तो कभी कभी उनको तबदील कर दिया करता है।”
पहली दफ़ा बाबा जी की बारोब मौजूदगी में ग़ुलाम अली ने उन्हें उसकी अल्हड़ और बेबाक जवानी ने कहा
“ये फ़ैसला अगर किसी वजह से तबदील हो जाये तो भी अपनी जगह पर अटल रहेगा।”
बाबा जी ने आँखें बंद करलीं और जिरह के अंदाज़ में पूछा


“क्यों?”
हैरत है कि ग़ुलाम अली बिल्कुल न घबराया। शायद इस दफ़ा निगार से जो उसे पुरख़ुलूस मोहब्बत थी वो बोल उठी
“बाबा जी हमने हिंदुस्तान को आज़ादी दिलाने का जो फ़ैसला किया है
वक़्त की मजबूरियां उसे तबदील करती रहीं। मगर जो फ़ैसला है वो तो अटल है।”


बाबा जी ने जैसा कि मेरा अब ख़याल है कि इस मौज़ू पर बहस करना मुनासिब ख़याल न किया चुनांचे वो मुस्कुरा दिए.. उस मुस्कुराहट का मतलब भी उनकी तमाम मुस्कुराहटों की तरह हर शख़्स ने बिल्कुल अलग अलग समझा। अगर बाबा जी से पूछा जाता तो मुझे यक़ीन है कि वो इसका मतलब हम सबसे बिल्कुल मुख़्तलिफ़ बयान करते।
ख़ैर... इस हज़ार पहलू मुस्कुराहट को अपने पतले होंटों पर ज़रा और फैलाते हुए उन्होंने निगार से कहा
“निगार तुम हमारे आश्रम में आ जाओ... शहज़ादा तो थोड़े दिनों में क़ैद हो जाएगा।”
निगार ने बड़े धीमे लहजे में जवाब


“जी अच्छा।”
इसके बाद बाबा जी ने शादी का मौज़ू बदल कर जलियांवाला बाग़ कैंप की सरगर्मियों का हाल पूछना शुरू कर दिया। बहुत देर तक ग़ुलाम अली
निगार और कमल गिरफ़्तारियों
रिहाइयों


दूध
लस्सी और तरकारियों के मुतअ’ल्लिक़ बातें करते रहे और जो मैं बिल्कुल चुग़द बना बैठा था। ये सोच रहा था कि बाबा जी ने शादी की इजाज़त देने में क्यों इतनी मीन-मेख़ की है। क्या वो ग़ुलाम अली और निगार की मोहब्बत को शक की नज़रों से देखते हैं? क्या उन्हें ग़ुलाम अली के ख़ुलूस पर शुबहा है?
निगार को उन्हों ने क्या आश्रम में आने की इसलिए दा’वत दी कि वहां रह कर वो अपने क़ैद होने वाले शौहर का ग़म भूल जाएगी? लेकिन बाबा जी के इस सवाल पर “कमल तुम कब शादी कर रही हो।” कमल ने क्यों कहा था कि मैं तो आपके आश्रम में जा रही हूँ?
आश्रम में क्या मर्द-औरत शादी नहीं करते? मेरा ज़ेहन अ’जब मख़मसे में गिरफ़्तार था। मगर इधर ये गुफ़्तुगू हो रही थी कि लेडी वालंटियर्ज़ क्या पाँच सौ रज़ाकारों के लिए चपातियां वक़्त पर तैयार कर लेती हैं? चूल्हे कितने हैं और तवे कितने बड़े हैं? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि एक बहुत बड़ा चूल्हा बना लिया जाये और उस पर इतना बड़ा तवा रखा जाये कि छः औरतें एक ही वक़्त में रोटियां पका सकें?


मैं ये सोच रहा था कि पंडितानी कमल क्या आश्रम में जा कर बाबाजी को बस क़ौमी गीत और भजन ही सुनाया करेगी। मैंने आश्रम के मर्द वालंटियर देखे थे। गो वो सबके सब वहां के क़वाइद के मुताबिक़ हर रोज़ अश्नान करते थे
सुबह उठकर दांतुन करते थे
बाहर खुली हवा में रहते थे। भजन गाते थे। मगर उनके कपड़ों से पसीने की बू फिर भी आती थी
उनमें अक्सर के दाँत बदबूदार थे और वो जो खुली फ़िज़ा में रहने से इंसान पर एक हश्शाश-बश्शाश निखार आता है


उनमें बिल्कुल मफ़क़ूद था।
झुके झुके से
दबे दबे से... ज़र्द चेहरे
धंसी हुई आँखें


मरऊ’ब जिस्म... गाय के निचुड़े हुए थनों की तरह बेहिस और बेजान... मैं इन आश्रम वालों को जलियांवाला बाग़ में कई बार देख चुका था। अब मैं ये सोच रहा था कि क्या यही मर्द जिनसे घास की बू आती है
इस पंडितानी को जो दूध
शहद और ज़ाफ़रान की बनी है
अपनी कीचड़ भरी आँखों से घूरेंगे। क्या यही मर्द जिनका मुँह इस क़दर मुतअ’फ़्फ़िन होता है


इस लोबान की महक में लिपटी हुई औरत से गुफ़्तुगू करेंगे?
लेकिन फिर मैंने सोचा कि नहीं हिंदुस्तान की आज़ादी शायद इन चीज़ों से बालातर है। मैं इन शायद को अपनी तमाम हुब्बुलवतनी और जज़्बा-ए-आज़ादी के बावजूद न समझ सका क्योंकि मुझे निगार का ख़याल आया जो बिल्कुल मेरे क़रीब बैठी थी और बाबा जी को बता रही थी कि शलजम बहुत देर में गलते हैं... कहाँ शलजम और कहाँ शादी जिसके लिए वो और ग़ुलाम अली इजाज़त लेने आए थे।
मैं निगार और आश्रम के मुतअ’ल्लिक़ सोचने लगा। आश्रम मैंने देखा नहीं था। मगर मुझे ऐसी जगहों से जिनको आश्रम
विद्याला


जमातख़ाना
तकिया
या दर्सगाह कहा जाये हमेशा से नफ़रत है। जाने क्यों?
मैंने कई अंध विद्यालों और अनाथ आश्रमों के लड़कों और उनके मुंतिज़मों को देखा है। सड़क में क़तार बांध कर चलते और भीक मांगते हुए। मैंने जमात ख़ाने और दर्सगाहें देखी हैं। टखनों से ऊंचा शरई पाएजामा


बचपन ही में माथे पर महराब
जो बड़े हैं उनके चेहरे पर घनी दाढ़ी... जो नौख़ेज़ हैं उनके गालों और ठुड्डी पर निहायत ही बदनुमा मोटे और महीन बाल... नमाज़ पढ़ते जा रहे हैं लेकिन हर एक के चेहरे पर हैवानियत... एक अधूरी हैवानियत मुसल्ले पर बैठी नज़र आती है।
निगार औरत थी। मुसलमान
हिंदू


सिख या ईसाई औरत नहीं... वो सिर्फ़ औरत थी
नहीं औरत की दुआ थी जो अपने चाहने वाले के लिए या जिसे वो ख़ुद चाहती है सिदक़-ए-दिल से मांगती है।
मेरी समझ में नहीं आता था कि ये बाबा जी के आश्रम में जहां हर रोज़ क़वाइद के मुताबिक़ दुआ मांगी जाती है। ये औरत जो ख़ुद एक दुआ है। कैसे अपने हाथ उठा सकेगी।
मैं अब सोचता हूँ तो बाबाजी


निगार
ग़ुलाम अली
वो ख़ूबसूरत पंडितानी और अमृतसर की सारी फ़िज़ा जो तहरीक-ए-आज़ादी के रुमान आफ़रीन कैफ़ में लिपटी हुई थी
एक ख़्वाब सा मालूम होता है। ऐसा ख़्वाब जो एक बार देखने के बाद जी चाहता है आदमी फिर देखे।


बाबा जी का आश्रम मैंने अब भी नहीं देखा मगर जो नफ़रत मुझे इससे पहले थी अब भी है।
वो जगह जहां फ़ित्रत के ख़िलाफ़ उसूल बना कर इंसानों को एक लकीर पर चलाया जाये मेरी नज़रों में कोई वक़अ’त नहीं रखती। आज़ादी हासिल करना बिल्कुल ठीक है! इसके हुसूल के लिए आदमी मर जाये
मैं इसको समझ सकता हूँ
लेकिन इसके लिए अगर उस ग़रीब को तरकारी की तरह ठंडा और बेज़रर बना दिया जाये तो यही मेरी समझ से बिल्कुल बालातर है।


झोंपड़ों में रहना
तन आसानियों से परहेज़ करना
ख़ुदा की हम्द गाना
क़ौमी नारे मारना... ये सब ठीक है मगर ये क्या कि इंसान की उस हिस्स को जिसे तलब-ए-हुस्न कहते हैं आहिस्ता आहिस्ता मुर्दा कर दिया जाये। वो इंसान क्या जिसमें ख़ूबसूरत और हंगामों की तड़प न रहे। ऐसे आश्रमों


मदरसों
विद्यालों और मूलियों के खेत में क्या फ़र्क़ है।
देर तक बाबा जी
ग़ुलाम अली और निगार से जलियांवाला बाग़ की जुमला सरगर्मियों के मुतअ’ल्लिक़ गुफ़्तुगू करते रहे। आख़िर में उन्होंने उस जोड़े को जो कि ज़ाहिर है कि अपने आने का मक़सद भूल नहीं गया था। कहा कि वो दूसरे रोज़ शाम को जलियांवाला बाग़ आयेंगे और उन दोनों को मियां-बीवी बना देंगे।


ग़ुलाम अली और निगार बहुत ख़ुश हुए। इससे बढ़ कर उनकी ख़ुशनसीबी और क्या हो सकती थी कि बाबा जी ख़ुद शादी की रस्म अदा करेंगे। ग़ुलाम अली जैसा कि उसने मुझे बहुत बाद में बताया
इस क़दर ख़ुश हुआ था कि फ़ौरन ही उसे इस बात का एहसास होने लगा था कि शायद जो कुछ उसने सुना है ग़लत है। क्योंकि बाबा जी के मुनहनी हाथों की ख़फ़ीफ़ सी जुंबिश भी एक तारीख़ी हादिसा बन जाती थी।
इतनी बड़ी हस्ती एक मामूली आदमी की ख़ातिर जो महज़ इत्तिफ़ाक़ से कांग्रेस का डिक्टेटर बन गया है। चल के जलियांवाला बाग़ जाये और उसकी शादी में दिलचस्पी ले। ये हिंदुस्तान के तमाम अख़बारों के पहले सफ़े की जली सुर्ख़ी थी।
ग़ुलाम अली का ख़याल था बाबा जी नहीं आयेंगे क्योंकि वो बहुत मसरूफ़ आदमी हैं लेकिन उसका ये ख़याल जिसका इज़हार दरअसल उसने नफ़्सियाती नुक़्त-ए-निगाह से सिर्फ़ इसलिए किया था कि वो ज़रूर आएं


उसकी ख़्वाहिश के मुताबिक़ ग़लत साबित हुआ।
शाम के छः बजे जलियांवाला बाग़ में जब रात की रानी की झाड़ियां अपनी ख़ुशबू के झोंके फैलाने की तैयारियां कर रही थीं और मुतअद्दिद रज़ाकार दूल्हा-दुल्हन के लिए एक छोटा तंबू नस्ब करके उसे चमेली
गेंदे और गुलाब के फूलों से सजा रहे थे। बाबा जी उस क़ौमी गीत गाने वाली पंडितानी
अपने सेक्रेटरी और लाला हरी राम सर्राफ के हमराह लाठी टेकते हुए आए। उसकी आमद की इत्तिला जलियांवाला बाग़ में सिर्फ़ उसी वक़्त पहुंची


जब सदर दरवाज़े पर लाला हरी राम की हरी मोटर रुकी।
मैं भी वहीं था। लेडी वालंटियर्ज़ एक दूसरे तंबू में निगार को दुल्हन बना रही थीं। ग़ुलाम अली ने कोई ख़ास एहतिमाम नहीं किया था। सारा दिन वो शहर के कांग्रेसी बनियों से रज़ाकारों के खाने पीने की ज़रूरियात के मुतअ’ल्लिक़ गुफ़्तुगू करता रहा था। इससे फ़ारिग़ हो कर उसने चंद लम्हात के लिए निगार से तख़लिए में कुछ बातचीत की थी। इसके बाद जैसा कि मैं जानता हूँ
उसने अपने मातहत अफ़िसरों से सिर्फ़ इतना कहा था कि शादी की रस्म अदा होने के साथ ही वो और निगार दोनों झंडा ऊंचा करेंगे।
जब ग़ुलाम अली को बाबा जी की आमद की इत्तिला पहुंची तो वो कुंए के पास खड़ा था। मैं ग़ालिबन उससे ये कह रहा था


“ग़ुलाम अली तुम जानते हो ये कुँआं
जब गोली चलती थी लाशों से लबालब भर गया था... आज सब इसका पानी पीते हैं... इस बाग़ के जितने फूल हैं
इसके पानी ने सींचे हैं। मगर लोग आते हैं और इन्हें तोड़ कर ले जाते हैं... पानी के किसी घूँट में लहू का नमक नहीं होता। फूल की किसी पत्ती में ख़ून की लाली नहीं होती... ये क्या बात है?”
मुझे अच्छी तरह याद है मैंने ये कह कर अपने सामने


उस मकान की खिड़की की तरफ़ देखा जिसमें कहा जाता है कि एक नौ उम्र लड़की बैठी तमाशा देख रही थी और जनरल डायर की गोली का निशाना बन गई थी। उसके सीने से निकले हुए ख़ून की लकीर चूने की उम्र रसीदा दीवार पर धुँदली हो रही थी।
अब ख़ून कुछ इस क़दर अर्ज़ां हो गया कि उसके बहने-बहाने का वो असर ही नहीं होता। मुझे याद है कि जलियांवाला बाग़ के ख़ूनीं हादिसे के छः-सात महीने बाद जब मैं तीसरी या चौथी जमा’त में पढ़ता था
हमारा मास्टर सारी क्लास को एक दफ़ा इस बाग़ में ले गया। उस वक़्त ये बाग़ बाग़ नहीं था। उजाड़
सुनसान और ऊंची नीची ख़ुश्क ज़मीन का एक टुकड़ा था जिसमें हर क़दम पर मिट्टी के छोटे बड़े ढेले ठोकरें खाते थे। मुझे याद है मिट्टी का एक छोटा सा ढेला जिस पर जाने पान की पीक के धब्बे या क्या था


हमारे मास्टर ने उठा लिया था और हमसे कहा था
देखो इस पर अभी तक हमारे शहीदों का ख़ून लग

- सआदत-हसन-मंटो


ट्रेन मग़रिबी जर्मनी की सरहद में दाख़िल हो चुकी थी। हद-ए-नज़र तक लाला के तख़्ते लहलहा रहे थे। देहात की शफ़्फ़ाफ़ सड़कों पर से कारें ज़न्नाटे से गुज़रती जाती थीं। नदियों में बतखें तैर रही थीं। ट्रेन के एक डिब्बे में पाँच मुसाफ़िर चुप-चाप बैठे थे।
एक बूढ़ा जो खिड़की से सर टिकाए बाहर देख रहा था। एक फ़र्बा औ’रत जो शायद उसकी बेटी थी और उसकी तरफ़ से बहुत फ़िक्रमंद नज़र आती थी। ग़ालिबन वो बीमार था। सीट के दूसरे सिरे पर एक ख़ुश शक्ल तवील-उल-क़ामत शख़्स
चालीस साल के लगभग उ’म्र
मुतबस्सिम पुर-सुकून चेहरा एक फ़्रैंच किताब के मुताले’ में मुनहमिक था। मुक़ाबिल की कुर्सी पर एक नौजवान लड़की जो वज़्अ’ क़त्अ’ से अमरीकन मा’लूम होती थी


एक बा-तस्वीर रिसाले की वरक़-गर्दानी कर रही थी और कभी-कभी नज़रें उठा कर सामने वाले पुर-कशिश शख़्स को देख लेती थी। पाँचवें मुसाफ़िर का चेहरा अख़बार से छिपा था। अख़बार किसी अदक़ अजनबी ज़बान में था। शायद नार्देजियन या हंगेरियन
या हो सकता है आईसलैंडिक। इस दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जो आईसलैंडिक में बातें करते हैं। पढ़ते लिखते और शे’र कहते हैं। दुनिया अ’जाइब से ख़ाली नहीं।
अमरीकन-नुमा लड़की ने जो ख़ालिस अमरीकन तजस्सुस से ये जानना चाहती थी कि ये कौन सी ज़बान है
उस ख़ूबसूरत आदमी को अख़बार पढ़ने वाले नौजवान से बातें करते सुना। वो भी किसी अजनबी ज़बान में बोल रहा था। लेकिन वो ज़बान ज़रा मानूस सी मा’लूम हुई। लड़की ने क़यास किया कि ये शख़्स ईरानी या तुर्क है। वो अपने शहर टोरांटो में चंद ईरानी तलबा’ से मिल चुकी थी। चलो ये तो पता चल गया कि ये फ़ैबूलस गाय (fabulous guy) पर्शियन है। (उसने अंग्रेज़ी में सोचा। मैं आपको उर्दू में बता रही हूँ क्योंकि अफ़साना ब-ज़बान-ए-उर्दू है।)


अचानक बूढ़े ने जो अंग्रेज़ था
आहिस्ता से कहा
“दुनिया वाक़ई’ ख़ासी ख़ूबसूरत है।”
ये एक क़तई बर्तानवी अंडर-स्टेटमेंट था। लड़की को मा’लूम था कि दुनिया बे-इंतिहा ख़ूबसूरत है। बूढ़े की बेटी कैनेडियन लड़की को देखकर ख़फ़ीफ़ सी उदासी से मुस्कुराई। बाप की टांगों पर कम्बल फैला कर मादराना शफ़क़त से कहा


“डैड। अब आराम करो।”
उसने जवाब दिया
“ऐडना। मैं ये मनाज़िर देखना चाहता हूँ।”
उसकी बेटी ने रसान से कहा


“अच्छा इसके बा’द ज़रा सो जाओ।”
इसके बा’द वो आकर कैनेडियन लड़की के पास बैठ गई। गो अंग्रेज़ थी मगर शायद अपना दुख बाँटना चाहती थी।
“मेरा नाम ऐडना हंट है। ये मेरे वालिद हैं प्रोफ़ैसर चाल्स हंट।”
उसने आहिस्ता से कहा।


“तमारा फील्डिंग टोरांटो। कैनेडा।”
“कैंब्रिज। इंगलैंड। डैड वहाँ पीटर हाऊस में रियाज़ी पढ़ाते थे।”
“बीमार हैं?”
“सर्तान... और उन्हें बता दिया गया है।”


ऐडना ने सरगोशी में जवाब दिया।
“ओह। आई ऐम सो सौरी।”
तमारा फील्डिंग ने कहा। ख़ामोशी छा गई। किसी अजनबी के ज़ाती अलम में दफ़अ’तन दाख़िल हो जाने से बड़ी ख़जालत होती है।
“अगर तुमको ये मा’लूम हो जाए।”


ऐडना ने आहिस्ता-आहिस्ता कहा
“कि ये दुनिया बहुत जल्द फ़ुलाँ मुद्दत के बा’द और हमेशा के लिए छोड़नी है तो जाने कैसा लगता होगा।”
“इस मुआ’मले में इंसान को बहुत साबिर और फ़लसफ़ी हो जाना चाहिए”
तमारा ने कहा और ख़फ़ीफ़ सी हँसी।


“हालाँकि ये भी बेकार है।”
“आप ठीक कहती हैं जैसे मैं इस वक़्त ख़ुद साबिर और फ़लसफ़ी बनने की कोशिश कर रही हूँ।”
तमारा ने कहा।
ऐडना ने सवालिया नज़रों से उसे देखा गो ब-हैसियत एक वज़्अ-दार अंग्रेज़ ख़ातून वो किसी से ज़ाती सवाल करना न चाहती थी।


इस बे-तकल्लुफ़ कैनेडियन लड़की ने बात जारी रखी।
“मैं जर्मनी आना न चाहती थी। इस मुल्क से बहुत ख़ौफ़नाक यादें वाबस्ता हैं। मेरी वालिदा के दो मामूँ एक ख़ाला उनके बच्चे। सब के सब। मेरी मम्मी आज भी किसी फ़ैक्ट्री की चिमनी से धुआँ निकलता देखती हैं तो मुँह फेर लेती हैं।”
“ओह!”
“हालाँकि ये मेरी पैदाइश से बहुत पहले के वाक़िआ’त हैं।”


“ओह। मैं तुम्हारे क्रिस्चन नाम से समझी तुम रूसी-नज़ाद हो। हालाँकि तुम्हारा ख़ानदानी नाम ख़ालिस ऐंग्लो-सैक्सन है।”
“मेरे नाना रूसी थे। मेरे वालिद का असल नाम डेवीड ग्रीनबर्ग था। कैनेडा जाकर तअस्सुब से बचने के लिए बदल कर फील्डिंग कर लिया लेकिन मैं...”
उसने ज़रा जोश से कहा
“मैं अपने बाप की तरह बुज़दिल नहीं। मैं अपना पूरा नाम इस तरह लिखती हूँ। तमारा ग्रीनबर्ग फील्डिंग।”


“वाक़ई?”
बर्तानवी ख़ातून ने कहा
“कितनी दिलचस्प बात है।”
“औलाद-ए-आदम का शजरा बहुत गुंजलक है”


तमारा ने ग़ैर-इरादी तौर पर ज़रा ऊंची आवाज़ में कहा। क्योंकि वो इस वज्ह से हमेशा मुतहय्यर रहती थी। सामने वाले दिल-कश आदमी ने उसका फ़िक़रा सुना और सर उठा कर उसे देखा और मुस्कुराया। गोया कहता हो
“मैं तुम्हारी बात समझता हूँ।”
लड़की दिल ही दिल में उसकी मशकूर हुई और उसे देखकर ख़ुद भी मुसकुराई
अब ग़ालिबन मैं इस अजनबी पर आ’शिक़ होती जा रही हूँ।


बर्तानवी ख़ातून ने भी ये अंदाज़ा लगा लिया कि वो दोनों एक दूसरे को दिलचस्पी से देख रहे हैं। एक जगह पर दो इंसान एक दूसरे की तरफ़ खिंचें तो समझ लीजिए कि इस अंडर-करंट को हाज़िरीन फ़ौरन महसूस कर लेंगे। क्यों कि औलाद-ए-आदम की बाहम कशिश का अ’जब घपला है।
बूढ़ा प्रोफ़ैसर आँखें खोल कर फिर खिड़की के बाहर देखने लगा।
“मेरे नाना... जब करीमिया से भागे इन्क़िलाब के वक़्त तो अपने साथ सिर्फ़ क़ुरआन लेकर भागे थे।”
तमारा ने आहिस्ता से कहा।


“कोरान...?”
ऐडना ने तअ’ज्जुब से दुहराया
“हाँ। वो मोज़्लिम थे और मेरी नानी मम्मी को बताती थीं
वो अक्सर कहा करते थे कि क़ुरआन में लिखा है


दुनिया बहुत ख़ूबसूरत है। इस में ख़ुशी से रहो और दूसरों को भी ख़ुश रहने दो। और शायद मोज़्लिम प्रौफ़ेट ने कहा था कि इससे बेहतर दुनिया नहीं हो सकती।”
सिगरेट सुलगाने के लिए तमारा ने हस्ब-ए-मा’मूल लाइटर की तलाश में बैग खंगालना शुरू’ किया।
ईरानी-नुमा शख़्स ने फ़ौरन आगे झुक कर अपना लाइटर जलाया। फिर इजाज़त चाह कर तमारा के पास बैठ गया।
ऐडना हंट दूसरी तरफ़ सरक गई। ईरानी-नुमा शख़्स खिड़की के बाहर गुज़रते हुए सुहाने मंज़र देखने में महव हो गया। तमारा ने उससे आहिस्ता से कहा


“ये बुज़ुर्ग सर्तान में मुब्तिला हैं। जिन लोगों को ये मा’लूम हो जाता है कि चंद रोज़ बा’द दुनिया से जाने वाले हैं उन्हें जाने कैसा लगता होगा। ये ख़याल कि हम बहुत जल्द मा’दूम हो जाएँगे। ये दुनिया फिर कभी नज़र न आएगी।”
ईरानी नुमा शख़्स दर्द-मंदी से मुस्कुराया
“जिस इंसान को ये मा’लूम हो कि वो अ’न-क़रीब मौत के मुँह में जाने वाला है। वो सख़्त दिल हो जाता है।”
“वाक़ई?”


हम-सफ़र ने अपना नाम बताया। दक़तूर शरीफ़यान। तबरेज़ यूनीवर्सिटी। शो’बा-ए-तारीख़। कार्ड दिया। उस पर नाम के बहुत से नीले हुरूफ़ छपे थे। लड़की ने बशाशत से दरियाफ़्त किया
“एन.आई.क्यू. या’नी नो आई.क्यू?”
“नुसरतउद्दीन इमाम क़ुली।”
लड़की ने अपना नाम बताने की ज़रूरत न समझी। उसे मा’लूम था कि ये इस नुसरतउद्दीन इमाम क़ुली से उसकी पहली और आख़िरी मुलाक़ात हरगिज़ नहीं है।


एक क़स्बे के स्टेशन पर ट्रेन रुकी। अख़बार पढ़ने वाला लड़का उसी जगह सुरअ’त से उतर गया। दक़तूर शरीफ़यान भी लपक कर बाहर गए। बारिश शुरू’ हो चुकी थी। दरख़्त और फूल और घास पानी में जगमगा रहे थे। इक्का-दुक्का मुसाफ़िर बरसातियाँ ओढ़े प्लेटफार्म पर चुप-चाप खड़े थे। चंद लम्हों बा’द ईरानी प्रोफ़ैसर लंबे-लंबे डग भरता कम्पार्टमेंट में वापिस आया। उसके हाथ में लाला के गुल-दस्ते थे जो उसने बड़े अख़्लाक़ से झुक कर दोनों ख़वातीन को पेश किए और अपनी जगह पर बैठ गया।
आध घंटा गुज़र गया। बूढ़ा सो चुका था। दूसरे कोने में उसकी फ़र्बा बेटी अपनी बाँहों पर सर रखकर ऊँघ रही थी। दफ़अ’तन ईरानी दक़तूर ने कैनेडियन लड़की से कहा
“तमारा ख़ानम। कहाँ तक मेरे साथ रहोगी?”
वो इस सवाल का मतलब समझी और उसे आज तक किसी ने तमारा ख़ानम कह कर मुख़ातिब न किया था। दर-अस्ल वो अपने घर और कॉलेज में टिम कहलाती थी। कहाँ ना-मा’क़ूल टिम और कहाँ तमारा ख़ानम। जैसे सरोद बज रहा हो या उ’मर ख़य्याम का मिसरा। तमारा ख़ानम की ईरान से वाक़फ़ियत महज़ ऐडवर्ड फ़िटनर जेरल्ड तक महदूद थी। उसने उसी कैफ़ियत में कहा


“जहाँ तक मुम्किन हो।”
बहर-हाल वो दोनों एक ही जगह जा रहे थे। तमारा ने ईरानी प्रोफ़ैसर के सूटकेस पर चिपका हुआ लेबल पढ़ लिया था।
“तुम वहाँ पढ़ने जा रही हो या सैर करने?”
“पढ़ने। बायो-कैमिस्ट्री। मुझे एक स्कालरशिप मिला है। तुम ज़ाहिर है पढ़ाने जा रहे होगे।”


“सिर्फ़ चंद रोज़ के लिए। मेरी दानिश-गाह ने एक ज़रूरी काम से भेजा है।”
ट्रेन क़रून-ए-वुस्ता के एक ख़्वाबीदा यूनीवर्सिटी टाउन में दाख़िल हुई।
दूसरे रोज़ वो वा’दे के मुताबिक़ एक कैफ़ेटेरिया में मिले। काउंटर से खाना लेने के बा’द एक दरीचे वाली मेज़ पर जा बैठे। दरीचे के ऐ’न नीचे ख़ुश-मंज़र नदी बह रही थी। दूसरे किनारे पर एक काई-आलूद गोथिक गिरजा खड़ा था। सियाह गाऊन पहने अंडर-ग्रैजूएट नदी के पुल पर से गुज़र थे।
“बड़ा ख़ूबसूरत शहर है।”


तमारा ने बे-साख़्ता कहा।
हालाँकि वो जर्मनी की किसी चीज़ की ता’रीफ़ करना न चाहती थी। दक़तूर नुसरतउद्दीन एक पर मज़ाक़ और ख़ुश-दिल शख़्स था। वो इधर-उधर की बातें कर के उसे हँसाता रहा। तमारा ने उसे ये बताने की ज़रूरत न समझी कि वो जर्मनी से क्यों मुतनफ़्फ़िर थी। अचानक नुसरतउद्दीन ने ख़ालिस तहरानी लहजे में उससे कहा

“ख़ानम जून”


“हूँ...? जून का मतलब?”
“ज़िंदगी!”
“वंडरफुल। यानी मैं तुम्हारी ज़िंदगी हूँ!”
उसने बे-पर्वाई से हाथ हिलाया


“हाहा! मेरी ज़िंदगी! सुनो ख़ानम जून। एक दिलचस्प बात बताऊँ। तुम मुझे बिल्कुल मेरी दादी जैसी लगती हो।”
“बहुत ख़ूब। आपसे ज़ियादा बा-अख़्लाक़ शख़्स पूरे यूरोप में न होगा। एक चौबीस साला लड़की को आप अपनी दादी बनाए दे रहे हैं!”
“वल्लाह... किसी रोज़ तुम्हें उनकी तस्वीर दिखलाऊँगा।”
दूसरी शाम वो उसके होस्टल के कमरे में आया। तमारा अब तक अपने सूटकेस बंद कर के सामान तर्तीब से नहीं जमा सकी थी। सारे कमरे में चीज़ें बिखरी हुई थीं।


“बहुत फूहड़ लड़की हो। कोई समझदार आदमी तुमसे शादी न करेगा।”
उसने आतिश-दान के सामने चमड़े की आराम-कुर्सी पर बैठते हुए कहा।
तमारा ने जल्दी-जल्दी कुछ सामान उठा कर एक तरफ़ रखा।
“लोग-बाग मुझसे अभी से जलने लगे हैं कि मैंने आते ही कैम्पस की सबसे ख़ूबसूरत लड़की छांट ली।”


“छांट ली! अ’रब शुयूख़ की तरह आप भी हरम रखते हैं!”
तमारा ने मसनूई’ ग़ुस्से से कहा।
वो ज़ोर से हँसा और कुर्सी की पुश्त पर सर टिका दिया। दरीचे के बाहर सनोबर के पत्ते सरसराए।
“वो भी अ’जीब अय्याश बुज़दिल ज़ालिम क़ौम है।”


तमारा ने मज़ीद इज़हार-ए-ख़याल किया और एक अलमारी का पट ज़ोर से बंद कर दिया। अलमारी के क़द-ए-आदम आईने में प्रोफ़ैसर का दिल-नवाज़ प्रोफ़ाइल नज़र आया और उस पर मज़ीद आ’शिक़ हुई।
“तुम बिल्कुल ठीक कहती हो। ख़ानम जून। हम ईरानियों की भी अरबों से कभी नहीं पटी। हम तो उन्हें कॉकरोच खाने वाला कहते हैं।”
नुसरत ने मुस्कुरा कर पाइप जलाया।
“कॉकरोच खाते हैं?”


तमारा ने हैरत से पूछा और मुँह बनाया
“वहशी
बदो
मशरिक़ी


मुआ’फ़ करना। मेरा मतलब है तुम तो उनसे बहुत मुख़्तलिफ़ हो। ईरानी तो मिडल ईस्ट के फ़्रैंच मैन कहलाते हैं।”
उसने ज़रा ख़जालत से इज़ाफ़ा किया।
“दुरुस्त। मुतशक्किरम। मुतशक्किरम!”
“तर्जुमा करो।”


“जी
थैंक्स।”
उसने नाक में बोलने वाले अमरीकन लहजे में कहा।
वो ख़ूब खिलखिला कर हँसी।


“तुम बहुत अच्छे अदाकार हो। कम से कम टीवी स्टार तो बन सकते हो।”
“वाक़ई? बहुत जल्द तुम मुझे टीवी स्क्रीन पर देख लोगी।”
“क्या तुमने कभी ऐक्टिंग की है?”
“बहुत। कॉलेज में हमेशा रोमियो ये ख़ाकसार ही बना करता था और फ़रहाद।”


“फ़रहाद कौन?”
“थे एक साहिब। आग़ा फ़रहाद बेग।”
उसने निज़ामी के चंद अशआ’र पढ़े। उनका तर्जुमा किया। फिर प्रोफ़ैसर वाले अंदाज़ में जैसे क्लास को पढ़ाता हो
उस रास्ते का नक़्शा समझाया जिधर से आरमीनिया की शहज़ादी शीरीं उसके अपने वतन आज़रबाईजान से गुज़रती ख़ुसरव के दार-उल-सल्तनत पहुँची थी। बाद-अज़ाँ कोह-ए-बे-सुतूँ का जुग़राफ़िया उस कैनेडियन दानिश-जू को ज़हन-नशीं कराया।


हफ़्ते की शाम को पहली बार दक़तूर शरीफ़यान की क़याम-गाह पर उसके हमराह गई। कैम्पस से ख़ासी दूर सनोबरों के झुरमुट में छिपी एक पुरानी इ’मारत की दूसरी मंज़िल पर उसका दो कमरों का अपार्टमेंट था। कमरे में दाख़िल हो कर नुसरतउद्दीन ने लैम्प जलाया। तमारा ने कोट उतार कर कुर्सी पर रखते हुए चारों तरफ़ देखा। फ़ारसी किताबें और रिसाले सारे में बे-तरतीबी से फैले हुए थे।
तमारा को मा’लूम था अब वो हज़ारों बार दुहराया हुआ ड्रामा दुहराया जाएगा। वो रेडियो-ग्राम पर रिकार्ड लगाएगा। फिर उससे पूछेगा उसे कौन सी शराब पसंद है। ऐ’न उस वक़्त सारे मग़रिब के अनगिनत कमरों में यही ड्रामा खेला जा रहा होगा। और वो इस ड्रामे में इस आदमी के साथ हिस्सा लेते हुए नाख़ुश न थी। नुसरत ने क़ीमती फ़्रांसीसी शराब और दो गिलास साईड बोर्ड से निकाले और सोफ़े की तरफ़ आया। फिर उसने झुक कर कहा
“तमारा ख़ानम अब वक़्त आ गया है कि तुमको अपनी दादी मिलवाऊँ।”
वो सुर्ख़ हो गई


“मा’लूम है हमारे यहाँ मग़रिब में इस जुमले के क्या मअ’नी होते हैं?”
“मा’लूम है।”
उसने ज़रा बे-पर्वाई से कहा। लेकिन उसके लहजे की ख़फ़ीफ़ सी बे-पर्वाई को तमारा ने शिद्दत से महसूस किया। अब नुसरतउद्दीन ने अलमारी में से एक छोटा सा एल्बम निकाला और एक वरक़ उलट कर उसे पेश किया। एक बेहद हसीन लड़की पिछली सदी के ख़ावर-मियाना की पोशाक में मलबूस एक फ़्रैंच वज़्अ’ की कुर्सी पर बैठी थी। पस-ए-मंज़र में संगतरे के दरख़्त थे
“दादी अम्माँ। और ये। हमारा संगतरों का बाग़ था।”


तमारा ने देखा दादी में उससे बहुत हल्की सी मुशाबहत ज़रूर मौजूद थी उसने दूसरा सफ़्हा पलटना चाहा। नुसरतउद्दीन ने फ़ौरन बड़ी मुलाइम से एल्बम उसके हाथ से ले लिया
“तमारा ख़ानम वक़्त ज़ाए’ न करो। वक़्त बहुत कम है।”
तमारा ने सैंडिल उतार कर पाँव सोफ़े पर रख लिए वो उसके क़रीब बैठ गया। उसके पाँव पर हाथ रखकर बोला
“इतने नाज़ुक छोटे-छोटे पैर। तुम ज़रूर किसी शाही ख़ानदान से हो।”


“हूँ तो सही शायद।”
“कौन सा? हर मेजिस्टी आ’ला हज़रत तुम्हारे वालिद या चचा या दादा उस वक़्त स्विटज़रलैंड के कौन से क़स्बे में पनाह-गुज़ीं हैं?”
“मेरे वालिद टोरांटो में एक गारमेन्ट फ़ैक्ट्री के मालिक हैं।”
तमारा ने नहीं देखा कि एक हल्का सा साया दक़तूर शरीफ़यान के चेहरे पर से गुज़र गया।


“लेकिन मेरे नाना ग़ालिबन ख़वानीन करीमिया के ख़ानदान से तअ’ल्लुक़ रखते थे।”
“ओहो। ख़वानीन करीमिया... हाजी सलीम गिराई। क़रादौलत गिराई। जानी बेग गिराई। महमूद गिराई कौन से गिराई?”
“नुसरत मुझे मा’लूम है तुम तारीख़ के उस्ताद हो। रो’ब मत झाड़ो। मुझे पता नहीं कौन से गिराई। मैंने तो ये नाम भी इस वक़्त तुमसे सुने हैं।”
“और मौसूफ़ तुम्हारे नाना बालश्वेक इन्क़िलाब से भाग कर पैरिस आए।”


“हाँ। वही पुरानी कहानी। पैरिस आए और एक रेस्तोराँ में नौकर हो गए और रेस्तोराँ के मालिक की ख़ूबसूरत लड़की रोज़लीन से शादी कर ली। और रोज़लीन के अब्बा बहुत ख़फ़ा हुए क्योंकि उनकी दूसरी लड़कियों ने यहाँ जर्मनी में अपने हम मज़हबों से ब्याह किए थे।”
वो दफ़अ’तन चुप हो गई। अब उसके चेहरे पर से एक हल्का सा साया गुज़रा जिसे नुसरतउद्दीन इमाम क़ुली ने देखा।
चंद लम्हों बा’द तमारा ने फिर कहना शुरू’ किया। रोज़लीन के वालिद वाक़ई’ बहुत ख़फ़ा थे। जब रोज़लीन उनसे फ़ख़्रिया कहतीं कि उन्होंने एक रूसी शहज़ादे से शादी की है तो वो गरज कर जवाब देते आजकल हर चपड़-क़नात
कोचवान साईस


ख़ाकरूब जो रूस से भाग कर यहाँ आ रहा है
अपने आपको ड्यूक और काऊंट से कम नहीं बताता। तुम्हारा तातारी ख़ाविंद भी करीमिया के किसी ख़ान का चोबदार रहा होगा। नाना बेचारे का तीन साल बा’द ही इंतिक़ाल हो गया। दर-अस्ल शायद जिला-वतनी का अलम उन्हें खा गया।”
अब शरीफ़यान के चेहरे पर से एक और साया गुज़रा जिसे तमारा ने नहीं देखा।
“मेरी मम्मी उनकी इकलौती औलाद थीं। दूसरी जंग-ए-अ’ज़ीम के ज़माने में मम्मी ने एक पोलिश रिफ्यूजी से शादी कर ली। वो दोनों आज़ाद फ़्रांसीसी फ़ौज में इकट्ठे लड़े थे। जंग के बा’द वो फ़्रांस से हिजरत कर के अमरीका आ गए। जब मैं पैदा हुई तो मम्मी ने मेरा नाम अपनी एक नादीदा मरहूमा फूफी के नाम पर तमारा रखा। वो फूफी रूसी ख़ाना-जंगी में मारी गई थीं। हमारे ख़ानदान में नुसरतउद्दीन ऐसा लगता है कि हर नस्ल ने दोनों तरफ़ सिवाए ख़ौफ़नाक क़िस्म की अम्वात के कुछ नहीं देखा।”


“हाँ बा’ज़ ख़ानदान और बा’ज़ नस्लें ऐसी भी होती हैं...”
नुसरतउद्दीन ने आहिस्ता से कहा। फिर पूछा
“फ़िलहाल तुम्हारी क़ौमियत क्या है?”
“कैनेडियन।”


ईरानी प्रोफ़ैसर ने शराब गिलासों में उंडेली और मुस्कुरा कर कहा
“तुम्हारे नाना और मेरी दादी के नाम।”
उन्होंने गिलास टकराए।
दूसरा हफ़्ता। सूरज ग़ुरूब हो रहा था। वो दोनों एक रेस्तोराँ की तरफ़ जाते हुए बाज़ार में से गुज़रे। अचानक वो खिलौनों की एक दूकान के सामने ठिटक गया और खिड़कियों में सजी गुड़ियों को बड़े प्यार से देखने लगा।


“तुम्हारे बहुत सारे भांजे भतीजे हैं नुसरतउद्दीन?”
तमारा ने दरियाफ़्त किया।
वो उसकी तरफ़ मुड़ा और सादगी से कहा
“मेरे पाँच अदद बच्चे और एक अ’दद उनकी माँ मेरी महबूब बीवी है। मेरी सबसे बड़ी लड़की अठारह साल की है। उसकी शादी होने वाली है। और उसका मंगेतर। मेरे बड़े भाई का लड़का। वो दर-अस्ल टेस्ट पायलट है। इसलिए कुछ पता नहीं। बहुत ख़तरनाक ज़िंदगी है उस बेचारे की।”


वो एक दम ख़ामोश हो गया।
उस वक़्त तमारा को मा’लूम हुआ जब किसी पर फ़ालिज गिरता हो तो कैसा लगता होगा... उसने आहिस्ता से ख़ुद्दार आवाज़ में जिससे ज़ाहिर न हो कि शाकी है
कहा
“तुमने कभी बताया नहीं।”


“तुमने कभी पूछा नहीं।”
उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया। अचानक तमारा ने उसे पहली बार देखा। वो एक संगी इंसान था। कोह-ए-बे-सुतून के पत्थरों से तरशा हुआ मुजस्समा।
एक हफ़्ता और गुज़र गया। तमारा उससे उसी तरह मिला की वो उसे मग़रिब की permissive सोसाइटी की एक आवारा लड़की समझता है तो समझा करे। वो तो उस पर सच्चे दिल से आ’शिक़ थी। उस पर जान देती थी। एक रात नदी के किनारे बेंच पर बैठे हुए नुसरतउद्दीन ने तमारा से कहा
“हलो ख़्वांद ख़ातून।”


“कौन?”
“अलाउद्दीन कैकुबाद दुवुम की मलिका।”
कभी वो उसे तर्कान ख़ातून कह कर पुकारता। मलिक शाह सलजूक़ी की बेगम। कभी उसे शहज़ादी साक़ी बेग कहता
“क्योंकि तुम्हारे अंदर कम-अज़-कम पंद्रह फ़ीसद तातारी ख़ून तो है ही। और सुनो। फ़र्ज़ करो...”


नदी के किनारे उसी रात उसने कहा
“अगर तुम्हारे नाना करीमिया ही में रह गए होते। वहीं किसी ख़ान-ज़ादी से शादी कर ली होती और तुम्हारी अम्माँ फ़र्ज़ करो हमारे किसी ओग़्लो पाशा से ब्याह कर तबरेज़ आ जातीं तो तुम मेरी गुलचहर ख़ानम हो सकती थीं।”
दफ़अ’तन वो फूट-फूटकर रोने लगी। तारीख़। नस्ल। ख़ून। किसका क्या क़ुसूर है? वो बहुत बे-रहम था। नुसरतउद्दीन उसके रोने से मुतअ’ल्लिक़ न घबराया। नर्मी से कहा
“चलो बी-बी जून। घर चलें।”


“घर?”
उसने सर उठाकर कहा
“मेरा घर कहाँ है?”
“तुम्हारा घर टोरोंटो में है। तुमने कभी मुझसे नहीं पूछा कि मेरा घर कहाँ है।”


नुसरतउद्दीन ने ज़रा तल्ख़ी से कहा।
वो रोती रही लेकिन अचानक दिल में उम्मीद की मद्धम सी शम्अ’ रौशन हुई। ये ज़रूर अपनी बीवी से नाख़ुश है। उसकी अज़दवाजी ज़िंदगी पुर-सुकून नहीं। इसी वज्ह से कह रहा है
“मेरा घर कहाँ है?”
उन तमाम मग़रिबी लड़कियों की तरह जो मशरिक़ी नौजवानों से मुआ’शक़े के दौरान उनकी ज़बान सीखने की कोशिश करती हैं


तमारा बड़े इश्तियाक़ से फ़ारसी के चंद फ़िक़रे याद करने में मसरूफ़ थी। एक रोज़ कैफ़ेटेरिया में उसने कहा
“आग़ा इसके सिवा कोई चारा नहीं कि जब हम बूढ़े हो जाएँ तब मिलें।”
“हाँ इसके सिवा कोई चारा नहीं।”
“आज से बीस साल बा’द जब तुम मूर्खों की किसी कान्फ़्रैंस की सदारत के लिए मौंट्रियाल आओ। या यू


एन. में ईरानी सफ़ीर हो कर न्यूयार्क पहुँचो।”
“और तुम किसी अमरीकन करोड़पति की फ़र्बा बेवा हो।”
“हाँ। और टेफ़्नी में हमारी अचानक मुड़भेड़ हो जाए। जहाँ तुम अपनी नवासी की मंगनी की अँगूठी ख़रीदने आए हो। और तुम सोचो मैंने इस बूढ़ी मोटी औ’रत को पहले कहीं देखा है। फ़ारसी में बूढ़ी औ’रत को क्या कहते हैं?”
“पीरा-ज़न।”


“और अ’रबी में?”
“मुझे अ’रबी नहीं आती। तुर्की और फ़्रैंच में अलबत्ता बता सकता हूँ।”
“सुनो नुसरतउद्दीन। एक बात सुनो। आज सुब्ह मैंने एक अ’जीब ख़ौफ़नाक वा’दा अपने आपसे किया है।”
“क्या?”


“जब में उस अमरीकन करोड़-पति से शादी करूँगी...”
“जो ब-वज्ह-उल-सर तुम्हें जल्द बेवा कर जाएगा।”
“हाँ। लेकिन उससे क़ब्ल एक-बार। सिर्फ़ एक-बार। तुम जहाँ कहीं भी होगे। तबरेज़। अस्फ़हान। शीराज़। मैं वहाँ पहुँच कर अपने उस ना-मा’क़ूल शौहर के साथ ज़रूर बे-वफ़ाई करूँगी। ज़रूर बिल-ज़रूर।”
नुसरत ने शफ़क़त से उसके सर पर हाथ फेरा


“बा’ज़ मर्तबा तुम मुझे अपनी दादी की तस्वीर मा’लूम होती हो। बा’ज़ दफ़ा मेरी लड़की की। वो भी तुम्हारी तरह
तुम्हारी तरह अपने इब्न-ए-अ’म को इस शिद्दत से चाहती है।”
वो फिर मलूल नज़र आया।
“आग़ा! तुम मुझे भी अपनी बिंत-ए-अ’म समझो।”


“तुम मेरी बिंत-ए-अ’म हो तो सही।”
“क्योंकि हम सब औलाद-ए-आदम हैं। है ना?”
“औलाद-ए-आदम। औलाद-ए-इबराहीम। आल-ए-याफ़िस। आल-ए-इसहाक़। आल-ए-इस्माईल। मैं इंसान के शजरा-ए-नसब के इस घपले पर मज़ीद रोशनी डाल सकता था तमारा ख़ानम लेकिन अब खाना शुरू’ करो।”
वो रेस्तोराँ की दीवार पर लगे हुए आईने में उसका प्रोफ़ाइल देखने लगी और बोली


“मैंने आज तक ऐसी ख़ूबसूरत नाक नहीं देखी।”
“मैंने भी नहीं देखी।”
शरीफ़यान ने कहा।
“आग़ा! तुम में नर्गिसियत भी है?”


तमारा ने पूछा।
“है”
वो शरारत से मुस्कुराया।
उस वक़्त अचानक तमारा को एक क़दीम फ़्रांसीसी दुआ’ याद आई जो ब्रिटनी के माही-गीर समंदर में अपनी कश्ती ले जाने से पहले पढ़ते थे।


अ’रब-ए-अ’ज़ीम। मेरी हिफ़ाज़त करना
मेरी नाव इतनी सी है
और तेरा समंदर इतना बड़ा है
उसने दिल में दुहराया



अ’रब-ए-अ’ज़ीम। इसकी हिफ़ाज़त करना
इसकी नाव इतनी छोटी सी है
और तेरा समंदर...


“आग़ा। एक बात बताओ।”
“हूँ।”
“तुमने आज का अख़बार पढ़ा? तुम्हारे मुल्क के बहुत से दानिश-जू और दानिश्वर शहनशाह के ख़िलाफ़ हैं। उन्होंने बर्लिन में कल बड़ा भारी जलूस निकाला।”
“पढ़ा।”


“तुम तो जिला-वतन ईरानी नहीं हो?”
“नहीं। मेरा सियासत से कोई तअ’ल्लुक़ नहीं। तमारा ख़ानम मैं लड़के पढ़ाता हूँ।”
“अच्छा। शुक्र है। देखो
किसी ख़तरे में न पड़ना। हर तरफ़ आजकल दुनिया में ख़तरा ही ख़तरा है। अपना ख़याल रखो।”


“अच्छा।”
इस रात वो हस्ब-ए-मा’मूल नदी के किनारे बैठे थे।
तमारा ने कहा
“जब हम अपने-अपने देस वापिस जाएँगे मैं कितनी बातें याद करूँगी। तुमको ख़ैर मेरा ख़याल भी न आएगा। तुम मशरिक़ी लोगों की आ’दत है। यूरोप अमरीका आकर लड़कियों के साथ तफ़रीह की और वापिस चले गए। बताओ मेरा ख़याल कभी आएगा?”


वो मुस्कुरा कर चुप-चाप पाइप पीता रहा।
“तुम नुसरतउद्दीन इमाम क़ुली मेरा दिल रखने के लिए इतना भी नहीं कह सकते कि कम-अज़-कम साल के साल एक अ’दद न्यूयर्ज़ कार्ड ही भेज दिया करोगे। अब तक मेरा पता भी नोट बुक में नहीं लिखा।”
उसने नुसरत के कोट की जेब से नोट बुक ढूंढ कर निकाली। टी का सफ़ा पलट कर अपना नाम और पता लिखा और बोली



“वा’दा करो। यहाँ से जाकर मुझे ख़त लिखोगे?”
“मैं ग़लत वा’दे कभी नहीं करता।”
वो उठ खड़ी हुई और ज़रा ख़फ़गी से आगे-आगे चलने लगी। नुसरत ने चुपके से जेब में से नोट बुक निकाली। वो सफ़्हा अ’लैहिदा किया जिस पर तमारा ने अपना पता लिखा था। बारीक-बारीक पुर्ज़े कर के उनकी गोली बनाई और नदी में फेंक दी।
सुब्ह-सवेरे छः बजे तमारा की आँख खुल गई। उसने तकिए से ज़रा सा सर उठा कर दरीचे के बाहर देखा। सुब्ह की रोशनी नुक़रई पानी की मानिंद सनोबरों पर फैल रही थी। चंद लम्हों बा’द उसने आँखें बंद कीं और फिर सो गई। सवा आठ के क़रीब जब वो बिस्तर से उठी


नुसरत मेज़ पर नाश्ता चुनने में मसरूफ़ हो गया था।
फ़ोन की घंटी बजी। तमारा ने करवट बदल कर काहिली से हाथ बढ़ाया। टेलीफ़ोन पलंग के सिरहाने किताबों के अंबार पर रखा था। उसने ज़रा सा सरक कर रिसीवर उठाया और “उल्लू” कहे बग़ैर नुसरत को इशारे से बुलाया। वो लपक कर आया और रिसीवर हाथ में लेकर किसी से फ़्रैंच में बातें करने लगा। गुफ़्तगू ख़त्म करने के बा’द नुसरत ने झुक कर उससे कहा
“ख़ानम जून। अब उठो।”
उसने सुस्ती से क्लाक पर नज़र डाली और मिनट की सूई को आहिस्ता-आहिस्ता फिसलते देखती रही। नुसरत बावर्चीख़ाने में गया। क़हवे की कश्ती लाकर गोल मेज़ पर रखी। तमारा को आवाज़ दी और दरीचे के क़रीब खड़े हो कर क़हवा पीने में मसरूफ़ हो गया। उसके एक हाथ में तोस था और दूसरे में प्याली। और वो ज़रा जल्दी-जल्दी तोस खाता जा रहा था। सफ़ेद जाली के पर्दे के मुक़ाबिल उसके प्रोफ़ाइल ने बेहद ग़ज़ब ढाया। तमारा छलांग लगा कर पलंग से उत्तरी और उसके क़रीब जाकर बड़े लाड से कहा


“आज इतनी जल्दी क्या है। तुम हमेशा देर से काम पर जाते हो।”
“साढ़े नौ बजे वाइस चांसलर से अप्वाइंटमेंट है।”
उसने क्लाक पर नज़र डाल कर जवाब दिया। “झटपट तैयार हो कर नाश्ता कर लो। तुम्हें रास्ते में उतारता जाऊँगा।”
ठीक पौने नौ पर वो दोनों इ’मारत से बाहर निकले। सनोबरों के झुंड में से गुज़रते सड़क की तरफ़ रवाना हो गए। रात बारिश हुई थी और बड़ी सुहानी हवा चल रही थी। घास में खिले ज़र्द फूलों की वुसअ’त में लहरें सी उठ रही थीं। वो दस मिनट तक सड़क के किनारे टैक्सी के इंतिज़ार में खड़े रहे। इतने में एक बस आती नज़र आई। नुसरत ने आँखें चुंधिया कर उसका नंबर पढ़ा और तमारा से बोला


“ये तुम्हारे होस्टल की तरफ़ नहीं जाती। तुम दूसरी बस में चली जाना मैं इसे पकड़ता हूँ।” उसने हाथ उठा कर बस रोकी। तमारा की तरफ़ पलट कर कहा
“ख़ुदा-हाफ़िज़” और लपक कर बस में सवार हो गया।
शाम को क्लास से वापिस आकर तमारा ने हस्ब-ए-मा’मूल उसे फ़ोन किया। घंटी बजी वो शायद अब तक वापिस न आया था।
दूसरी सुब्ह इतवार था। वो काफ़ी देर में सो कर उठी। उसकी जर्मन रुममेट बाहर जा चुकी थी। उसने उठकर हस्ब-ए-मा’मूल दरवाज़े के नीचे पड़े हुए संडे ऐडिशन उठाए। सबसे ऊपर वाले अख़बार की शह-सुर्ख़ी में वो ख़ौफ़नाक ख़बर छपी थी। उसकी तस्वीर भी शाए’ हुई थी। वो दक़तूर नुसरतउद्दीन इमाम क़ुली शरीफ़यान प्रोफ़ैसर-ए-तारीख़-ए-दानिश-गाह-ए-तबरेज़ नहीं था। वो ईरानी भी नहीं था। लेकिन अख़बार में उसका जो नाम छपा था वो भी ग़ालिबन उसका अस्ल नाम न था। उसके साथ दूसरी तस्वीर उस दुबले-पतले नौजवान की थी जो ट्रेन में सारा वक़्त अख़बार पढ़ता रहा था और ख़ामोशी से एक क़स्बे के स्टेशन पर उतर गया था।


नज़दीक के एक शहर के एयरपोर्ट में एक तय्यारे पर दस्ती बमों और मशीन-गनों से हमला करते हुए वो तीन मारे गए थे। नुसरतउद्दीन ने हमला करने के बा’द सबसे पहले दस्ती बम से ख़ुद को हलाक किया था। हँसी ख़ुशी अपनी मर्ज़ी से हमेशा के लिए मा’दूम हो गया था।
वो दिन-भर नीम-ग़शी के आ’लम में पलंग पर पड़ी रही। मुतवातिर और मुसलसल उसके दिमाग़ में तरह-तरह की तस्वीरें घूमती रहीं। जैसे इंसान को सरसाम या हाई ब्लड प्रैशर के हमले के दौरान अनोखे नज़्ज़ारे दिखलाई पड़ते हैं। रंग बिरंगे मोतियों की झालरें। समंदर
बे-तुकी शक्लें
आग और आवाज़ें। वो clareaudience का शिकार भी हो चुकी थी। क्योंकि उसके कान में साफ़ आवाज़ें इस तरह आया कीं जैसे कोई बराबर बैठा बातें कर रहा हो। और ट्रेन की गड़गड़ाहट। मैंने तुम्हारी बात सुनी थी। जिस शख़्स को ये मा’लूम हो कि अ’न-क़रीब मौत के मुँह में जाने वाला है वो सख़्त दिल हो जाता है। ये हमारा संगतरों का बाग़ था। तुमने कभी मुझसे न पूछा मेरा घर कहाँ है।


वंडरफुल। मैं तुम्हारी ज़िंदगी हाहा। मेरी ज़िंदगी। जान-ए-मन। चलो वक़्त नहीं है। वक़्त बहुत कम है। क़रबून। वक़्त ज़ाए’ न करो। मेरी लड़की का मंगेतर। बहुत ख़तरनाक ज़िंदगी है उस बेचारे की। मुझे अ’रबी नहीं आती है। हलो तर्कान ख़ातून। मैं ग़लत वा’दे कभी नहीं करता। ऐसे वा’दे कभी नहीं करता जो निभा न सकूँ। तुम मेरी बिंत-ए-अ’म हो तो सही। आल-ए-इसहाक़। आल-ए-इस्माईल। मैं बनी-आदम के शजरे के इस घपले पर मज़ीद रोशनी डाल सकता हूँ। लेकिन तमारा ख़ानम खाना शुरू’ करो। देखो नुसरत ख़तरे में न पड़ना। हर तरफ़ दुनिया में ख़तरा ही ख़तरा है। अपना ख़याल रखो। अच्छा रखूँगा। शहज़ादी बेग।
अंधेरा पड़े पाला उसकी रुम मेट कमरे में आई। रोशनी जला कर तमारा की तरफ़ देखे बग़ैर बे-ध्यानी से मैकानिकी अंदाज़ में हाथ बढ़ा कर टेलीविज़न का स्विच आन किया और गुनगुनाती हुई बालकनी में चली गई। तमारा करवट बदल कर फटी-फटी आँखों से बर्फ़ीली नीली स्क्रीन देखने लगी।
कुछ देर बा’द न्यूज़रील शुरू’ हुई। अचानक उसका क्लोज़-अप सामने आया। आधा चेहरा। आधा दस्ती बम से उड़ चुका था। सिर्फ़ प्रोफ़ाइल बाक़ी था। दिमाग़ भी उड़ चुका था। एयरपोर्ट के चमकीले शफ़्फ़ाफ़ फ़र्श पर उसका भेजा बिखरा पड़ा था। और अंतड़ियाँ। सियाह जमा हुआ ख़ून। कटा हुआ हाथ। कारतूस की पेटी। गोश्त और हड्डियों का मुख़्तसर-सा मलग़ूबा। तुम बहुत अच्छे अदाकार हो। कम-अज़-कम टीवी स्टार तो बन सकते हो। वाक़ई? जल्द तुम मुझे टीवी स्क्रीन पर देख लोगी।
कैमरा पीछे हटा। लाला का एक गुलदस्ता जो भगदड़ में किसी मुसाफ़िर के हाथ से छुट कर गिर गया था। बराबर में। नुसरतउद्दीन का कटा हुआ हाथ लाला के फूल उसके ख़ून में लत-पत। फिर उसका आधा चेहरा। फिर गोश्त का मलग़ूबा। उस मलग़ूबे को इतने क़रीब देखकर तमारा को उबकाई सी आई। वो चकरा कर उठी और ग़ुस्ल-ख़ाने की तरफ़ भागना चाहा। उसकी हैबत-ज़दा चीख़ सुनकर पाला उसकी रुम मेट बालकनी से लपकी हुई आई। तमारा ने देखा पाला का चेहरा नीला और सफ़ेद था। पाला ने फ़ौरन टेलीविज़न बंद किया और उसे फ़र्श पर से उठाने के लिए झुकी।


पाला के सर पर सफ़ेद स्कार्फ़ बंधा था। जैसे नर्स ऑप्रेशन टेबल पर सर्तान के मरीज़ को लिटाती हो। या उसे एक ट्राली पर बिठाकर गैस चैंबर के अंदर ले जाया जा रहा था। और बराबर की भट्टी में इंसान ज़िंदा जलाए जा रहे थे उनका सियाह धुआँ चिमनियों में से निकल कर आसमान की नीलाहट में घुलता जा था।
अब वो एक नीले हाल में थी। दीवारें
फ़र्श
छत बर्फ़ की तरह नीली और सर्द। कमरे के बा’द कमरे। गैलरियाँ। सब नीले। एक कमरे में सफ़ेद आतिश-दान के पास एक नीले चेहरे वाली औ’रत खड़ी थी। शक्ल से सैंटर्ल यूरोपियन मा’लूम होती थी। पूरा सरापा ऐसा नीला जैसे रंगीन तस्वीर का नीला प्रूफ़ जो अभी प्रैस से तैयार हो कर न निकला हो। एक और हाल। उसके वस्त में क़ालीन बाफ़ी का करघा। करघे पर अधबुना क़ालीन। उस पर “शजर-ए-हयात” का अधूरा नमूना।


“ये शजर-ए-हयात क्या चीज़ है नुसरतउद्दीन?”
“मिडल ईस्ट के क़ालीनों का मोतीफ़ ख़ानम जून।”
करघे की दूसरी तरफ़ सर पर रूमाल बाँधे दो मिडल इस्टर्न औ’रतें। फिर बहुत से प

- क़ुर्रतुलऐन-हैदर


हर तीसरे दिन
सह-पहर के वक़्त एक बेहद दुबला पुतला बूढ़ा
घुसे और जगह-जगह से चमकते हुए सियाह कोट पतलून में मलबूस
सियाह गोल टोपी ओढ़े


पतली कमानी वाली छोटे-छोटे शीशों की ऐ’नक लगाए
हाथ में छड़ी लिए बरसाती में दाख़िल होता और छड़ी को आहिस्ता-आहिस्ता बजरी पर खटखटाता। फ़क़ीरा बाहर आकर बाजी को आवाज़ देता
“बिटिया। चलिए। साइमन आ गए।”
बूढ़ा बाहर ही से बाग़ की सड़क का चक्कर काट कर पहलू के बरामदे में पहुँचता। एक कोने में जाकर और जेब में से मैला सा रूमाल निकाल कर झुकता


फिर आहिस्ता से पुकारता
“रेशम... रेशम... रेशम...”
रेशम दौड़ती हुई आती। बाजी बड़े आर्टिस्टिक अंदाज़ में सरोद कंधे से लगाए बरामदे में नुमूदार होतीं। तख़्त पर बैठ कर सरोद का सुर्ख़ बनारसी ग़िलाफ़ उतारतीं और सबक़ शुरू’ जाता।
बारिश के बा’द जब बाग़ भीगा-भीगा सा होता और एक अनोखी सी ताज़गी और ख़ुशबू फ़िज़ा में तैरती तो बूढ़े को वापिस जाते वक़्त घास पर गिरी कोई ख़ूबानी मिल जाती। वो उसे उठा कर जेब में रख लेता। रेशम उसके पीछे-पीछे चलती। अक्सर रेशम शिकार की तलाश में झाड़ियों के अंदर ग़ायब हो जाती या किसी दरख़्त पर चढ़ जाती तो बूढ़ा सर उठा कर एक लम्हे के लिए दरख़्त की हिलती हुई शाख़ को देखता और फिर सर झुका कर फाटक से बाहर चला जाता। तीसरे रोज़ सह-पहर को फिर उसी तरह बजरी पर छड़ी खटखटाने की आवाज़ आती। ये मा’मूल बहुत दिनों से जारी था।


जब से पड़ोस में मिसिज़ जोग माया चटर्जी कलकत्ते से आन कर रही थीं
इस मुहल्ले के बासियों को बड़ा सख़्त एहसास हुआ था कि उनकी ज़िंदगियों में कल्चर की बहुत कमी है। मौसीक़ी की हद तक उन सब के “गोल कमरों” में एक-एक ग्रामोफ़ोन रखा था। (अभी रेडियो आ’म नहीं हुए थे।) फ़्रेजडियर status symbol नहीं बना था। टेप रिकार्ड ईजाद नहीं हुए थे और समाजी रुत्बे की अ’लामात अभी सिर्फ़ कोठी
कार और बैरे पर मुश्तमिल थीं लेकिन जब मिसिज़ जोग माया चटर्जी के वहाँ सुब्ह शाम हारमोनियम की आवाज़ें बुलंद होने लगीं तो सर्वे आफ़ इंडिया के आ’ला अफ़्सर की बीवी मिसिज़ गोस्वामी ने महकमा-ए-जंगलात के आ’ला अफ़्सर की बीवी मिसिज़ फ़ारूक़ी से कहा... “बहन जी। हम लोग तो बहुत ही बैकवर्ड रह गए। इन बंगालियों को देखिए
हर चीज़ में आगे-आगे...”


“और मैंने तो यहाँ तक सुना है कि इन लोगों में जब तक लड़की गाना बजाना न सीख ले उसका ब्याह नहीं होता”
मिल्ट्री एकेडेमी के आ’ला अफ़्सर की बीवी मिसिज़ जसवंत सिंह ने इज़हार-ए-ख़याल किया।
“हम मुसलमानों में तो गाना बजाना मा’यूब समझा जाता है
मगर आजकल ज़माना दूसरा है। मैंने तो “उन” से कह दिया है। मैं अपनी हमीदा को हारमोनियम ज़रूर सिखाऊँगी।”


मिसिज़ फ़ारूक़ी ने जवाब दिया।
और इस तरह रफ़्ता-रफ़्ता डालन वाला में आर्ट और कल्चर की हवा चल पड़ी। डाक्टर सिन्हा की लड़की ने नाच सीखना भी शुरू’ कर दिया
हफ़्ते में तीन बार एक मनहनी से डांस मास्टर उसके घर आते
उँगलियों में सुलगती हुई बीड़ी थामे


मुँह से अ’जीब-अ’जीब आवाज़ें निकालते जो “जी जी कत्ता तूम तरंग तका तन तन” वग़ैरह अलफ़ाज़ पर मुश्तमिल होतीं। वो तबला बजाते रहते और ऊषा सिन्हा के पाँव
तोड़ों की चक-फेरियाँ लेते-लेते घुँघरूओं की चोट से हो जाते।
पड़ोस के एक नौजवान रईस सरदार अमरजीत सिंह ने वाइलन पर हाथ साफ़ करना शुरू’ किया। सरदार अमरजीत सिंह के वालिद ने डच ईस्ट इंडीज़ के दार-उल-सल्तनत बटाविया में जो अब
जम्हूरिया इंडोनेशिया का दार-उल-सल्तनत जकार्ता कहलाता है


बिज़नेस कर के बहुत दौलत जमा’ की थी। सरदार अमरजीत सिंह एक शौक़ीन मिज़ाज रईस थे। जब वो ग्रामोफ़ोन पर बड़े इन्हिमाक से बब्बू का रिकार्ड

ख़िज़ाँ ने आके चमन को देना उजाड़ देना है
मिरी खिली हुई कलियों को लूट लेना है


बार-बार न बजाते तो दरीचे में खड़े हो कर वाइलन के तारों पर इसी इन्हिमाक से गज़ रगड़ा करते। वर्ना फेरी वाले बज़्ज़ाज़ों से रंग-बिरंगी छींटों की जारजत अपने साफ़ों के लिए ख़रीदते रहते
और ये बढ़िया-बढ़िया साफ़े बांध कर और दाढ़ी पर सियाह पट्टी नफ़ासत से चढ़ा कर मिसिज़ फ़लक नाज़ मरवारीद ख़ाँ से मुलाक़ात के लिए चले जाते और अपनी ज़ौजा सरदारनी बी-बी चरणजीत कौर से कह जाते कि वाइलन सीखने जा रहे हैं।
इसी ज़माने में बाजी को सरोद का शौक़ पैदा हुआ।
वो मौसम-ए-सर्मा गूना-गूँ वाक़िआ’त से पुर गुज़रा था। सबसे पहले तो रेशम की टांग ज़ख़्मी हुई। फिर मौत के कुँए में मोटर साईकल चलाने वाली मिस ज़ुहरा डर्बी ने आकर परेड ग्रांऊड पर अपने झंडे गाड़े। डायना बेक्ट क़त्ताला-ए-आ’लम हसीना लंदन कहलाई। डाक्टर मिस ज़ुबैदा सिद्दीक़ी को रात को दो बजे गधे की जसामत का कुत्ता नज़र आया। मिस्टर पीटर राबर्ट सरदार ख़ाँ हमारी ज़िंदगियों से ग़ायब हो गए। नेगस ने ख़ुदकुशी कर ली और फ़क़ीरा की भावज गौरय्या चिड़िया बन गई। चूँकि ये सब निहायत अहम वाक़िआ’त थे लिहाज़ा मैं सिलसिलेवार इनका तज़किरा करती हूँ।


मेरी बहुत ख़ूबसूरत और प्यारी रिहाना बाजी ने
जो मेरी चचाज़ाद बहन थीं
इसी साल बी.ए. पास किया था और वो अलीगढ़ से चंद माह के लिए हमारे यहाँ आई हुई थीं। एक सुहानी सुब्ह बाजी सामने के बरामदे में खड़ी डाक्टर हौन की बीवी से बातों में मसरूफ़ थीं कि अचानक बरसाती की बजरी पर हल्की सी खट-खट हुई और एक नहीफ़ और मनहनी से बूढ़े ने बड़ी धीमी और मुलाइम आवाज़ में कहा
“मैंने सुना है यहाँ कोई लेडी सरोद सीखना चाहती हैं।”


बाजी के सवालात पर उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा कि उनकी माहाना फ़ीस पाँच रुपये है और वो हफ़्ते में तीन बार एक घंटा सबक़ देंगे। वो कर्ज़न रोड पर पादरी स्काट की ख़ाली कोठी के शागिर्द पेशे में रहते हैं। उनके बीवी बच्चे सब मर चुके हैं और बरसों से उनका ज़रीआ’-ए-मआ’श सरोद है जिसके ज़रीए’ वो आठ दस रुपये महीना कमा लेते हैं।
“लेकिन इस ख़्वाबीदा शहर में सरोद सीखने वाले ही कितने होंगे।”
बाजी ने पूछा। उन्होंने उसी धीमी आवाज़ में कहा
“कभी-कभी दो एक तालिब-ए-इ’ल्म मिल जाते हैं।” (इसके इ’लावा उन्होंने अपने मुतअ’ल्लिक़ कुछ नहीं बतलाया।) वो इंतिहाई ख़ुद्दार इंसान मा’लूम होते थे


उनका नाम साइमन था।
पीर के रोज़ वो ट्यूशन के लिए आ गए। बाजी पिछले लॉन पर धूप में बैठी थीं।
“मिस्टर साइमन को यहीं भेज दो”
उन्होंने फ़क़ीरा से कहा। बाजी की तरफ़ जाने के लिए फ़क़ीरा ने उनको अंदर बुलाया। उस रोज़ बड़ी सर्दी थी और मैं अपने कमरे में बैठी किसी सटर-पटर में महव थी। मेरे कमरे में से गुज़रते हुए ज़रा ठिटक कर साइमन ने चारों तरफ़ देखा। आतिश-दान में आग लहक रही थी। एक लहज़े के लिए उनके क़दम आतिश-दान की सिम्त बढ़े और उन्होंने आग की तरफ़ हथेलियाँ फैलाईं। मगर फिर जल्दी से फ़क़ीरा के पीछे-पीछे बाहर चले गए।


रेशम ने उनसे बहुत जल्द दोस्ती कर ली। ये बड़े तअ’ज्जुब की बात थी। क्योंकि रेशम बे-इंतिहा मग़रूर
अक्ल-खुरी और अपने सियामी हुस्न पर हद से ज़ियादा नाज़ाँ थी। और बहुत कम लोगों को ख़ातिर में लाती थी। ज़ियादा-तर वो अपनी साटन के रेशमी झालरदार ग़िलाफ़ वाली टोकरी के गदेलों पर आराम करती रहती और खाने के वक़्त बड़ी मक्कारी से आँखें बंद कर के मेज़ के नीचे बैठ जाती।
“इसकी सारी ख़ासियतें वैम्प (vamp) औरतों की सी हैं”
बाजी कहतीं।


“औ’रत की ख़ासियत बिल्ली की ऐसी होती है
चुमकारो तो पंजे निकाल लेगी
बेरुख़ी बरतूँ तो ख़ुशामद शुरू’ कर देगी।”
“और आदमी लोगों की ख़ासियत कैसी होती है बाजी?”


मैं पूछती
बाजी हँसने लगतीं और कहतीं
“ये अभी मुझे मा’लूम नहीं।”
बाजी चेहरे पर दिल-फ़रेब और मुतमइन मुस्कुराहट लिए बाग़ में बैठी मुज़फ़्फ़र भाई के बेहद दिलचस्प ख़त पढ़ा करतीं


जो उनके नाम हर पाँचवें दिन बंबई से आते थे। जहाँ मुज़फ़्फ़र भाई इंजीनियरिंग पढ़ रहे थे। मुज़फ़्फ़र भाई मेरे और बाजी के चचाज़ाद भाई थे और बाजी से उनकी शादी तय हो चुकी थी। जितनी देर वो बाग़ में बैठतीं
ग़फ़ूर बेगम उनके नज़दीक घास पर पानदान खोले बैठी रहतीं। जब बाजी अंदर चली जातीं तो ग़फ़ूर बेगम शागिर्द पेशे की तरफ़ जाकर फ़क़ीरा भावज से बातें करने लगतीं या फिर अपनी नमाज़ की चौकी पर बैठतीं।
ग़फ़ूर बेगम बाजी की बेहद वफ़ादार अन्ना थीं। उनके शौहर ने
जिनकी अलीगढ़ में मेरिस रोड के चौराहे पर साईकलों की दुकान थी


पिछले बरस एक नौजवान लड़की से निकाह कर लिया था
और तब से ग़फ़ूर बेगम अपना ज़ियादा वक़्त नमाज़-रोज़े में गुज़ारती थीं।
साइमन के आते ही रेशम दबे-पाँव चलती हुई आकर खुर-खुर करने लगती और वो फ़ौरन जेब से रूमाल निकाल कर उसे कुछ खाने को देते। शाम के वक़्त जब फ़क़ीरा उनके लिए चाय की कश्ती लेकर बरामदे में जाता तो वो आधी चाय तश्तरी में डाल कर फ़र्श पर रख देते और रेशम फ़ौरन तश्तरी चाट जाती और फ़क़ीरा बड़बड़ाता
“हमारे हाथ से तो रानी साहिब दूध पीने में भी नख़रे करती हैं।”


फ़क़ीरा एक हँसमुख गढ़वाली नौजवान था। दो साल क़ब्ल वो चीथडों में मलबूस
नहर की मुंडेर पर बैठा
ऊन और सिलाइयों से मोज़रे बुन रहा था। जो पहाड़ियों का आ’म दस्तूर है
तो सुख नंदन ख़ानसामाँ ने उससे पूछा था


“क्यूँ-बे नौकरी करेगा?”
और उसने खिलखिला कर हँसते हुए जवाब दिया था। “महीनों से भूकों मर रहा हूँ क्यों नहीं करूँगा?”
तब से वो हमारे यहाँ “ऊपर का काम कर रहा था
और एक रोज़ उसने इत्तिला दी थी कि उसके दोनों बड़े भाईयों की मिट्टी हो गई है और वो अपनी भावज को लेने गढ़वाल जा रहा है। और चंद दिनों बा’द उसकी भावज जलधरा पहाड़ों से आकर शागिर्द पेशे में बस गई थी।


जलधरा अधेड़ उ’म्र की एक गोरी-चिट्टी औ’रत थी
जिसके माथे
ठोढ़ी और कलाइयों पर नीले रंग के नक़्श-ओ-निगार गुदे हुए थे। वो नाक में सोने की लौंग और बड़ा सा बुलाक़ और कानों के बड़े-बड़े सुराख़ों में लाख के फूल पहनती थी और उसके गले में मलिका विक्टोरिया के रूपों की माला भी पड़ी थी। ये तीन गहने उसके तीनों मुशतर्का शौहरों की वाहिद जायदाद थे। उसके दोनों मुतवफ़्फ़ी शौहर मरते दम तक यात्रियों का सामान ढोते रहे थे और इत्तिफ़ाक़ से इकट्ठे ही एक पहाड़ी से गिर कर मर गए थे।
जलधरा बड़े मीठे लहजे में बात करती थी और हर वक़्त स्वेटर बुनती रहती थी। उसे कंठ माला का पुराना मरज़ था। फ़क़ीरा उसके इ’लाज-मुआ’लिजे के लिए फ़िक्रमंद रहता था और उससे बेहद मुहब्बत करता था। जलधरा की आ’मद पर बाक़ी नौकरों की बीवियों ने आपस में चे-मी-गोइयाँ की थीं...


“ये पहाड़ियों के हाँ कैसा बुरा रिवाज है एक लुगाई के दो-दो तीन-तीन ख़ाविंद...” और जब जलधरा का तज़किरा दोपहर को खाने की मेज़ पर हुआ था तो बाजी ने फ़ौरन द्रौपदी का हवाला दिया था और कहा था पहाड़ों में पोलीएंड्री का रिवाज महा-भारत के ज़माने से चला आता है और मुल्क के बहुत से हिस्सों का समाजी इर्तिक़ा एक ख़ास स्टेज पर पहुँच कर वहीं मुंजमिद हो चुका है और पहाड़ी इ’लाक़े भी इन्ही पसमांदा हिस्सों में से हैं।
बाजी ने ये भी कहा कि पोलीएंड्री
जिसे उर्दू में “चंद शौहरी” कहते हैं
मादराना निज़ाम की यादगार है। और मुआ’शरे ने जब मादराना निज़ाम से पिदरी निज़ाम की तरफ़ तरक़्क़ी की तो इंसान भी कसीर-उल-अज़दवाजी की तरफ़ चला गया। और मादराना निज़ाम से भी पहले


हज़ारों साल क़ब्ल
तीन चार भाईयों के बजाए क़बीलों के पूरे-पूरे गिरोह एक ही औ’रत के साथ रहते थे और वेदों में इन क़बाइल का ज़िक्र मौजूद है। मैं मुँह खोले ये सब सुनती रही। बाजी बहुत काबिल थीं। बी.ए. में उन्हें फ़र्स्ट डिवीज़न मिला था और सारी अलीगढ़ यूनीवर्सिटी में अव्वल रही थीं।
एक रोज़ मैं अपनी छोटी सी साईकल पर अपनी सहेलियों के हाँ जा रही थी। रेशम मेरे पीछे-पीछे भागती आ रही थी। इस ख़याल से कि वो सड़क पर आने वाली मोटरों से कुचल न जाए। मैं साईकल से उतरी
उसे ख़ूब डाँट कर सड़क पर से उठाया और बाड़ पर से अहाते के अंदर फेंक दिया और पैडल पर ज़ोर से पाँव मार कर तेज़ी से आगे निकल गई। लेकिन रेशम अहाते में कूदने के बजाए बाड़ के अंदर लगे हुए तेज़ नोकीले कांटों वाले तारों में उलझ गई। उसकी एक रान बुरी तरह ज़ख़्मी हुई। वो लहू-लुहान हो गई और उसने ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाना शुरू’ किया और उसी तरह तार से लटकी चीख़ती और कराहती रही। बहुत देर बा’द जब फ़क़ीरा उधर से गुज़रा जो झाड़ियों से मिर्चें और टमाटर तोड़ने उस तरफ़ आया था


तो उसने बड़ी मुश्किल से रेशम को बाड़ में से निकाला और अंदर ले गया।
जब मैं कमला और विमला के घर से लौटी तो देखा कि सब के चेहरे उतरे हुए हैं।
“तुम्हारी रेशम मर रही है”
बाजी ने कहा। उनकी आँखों में आँसू थे।


“कमबख़्त जाने किस तरह जा कर बाड़ के तारों में उलझ गई। जने इस क़दर अहमक़ क्यों है? चिड़ियों की लालच में वहाँ जा घुसी होगी। अब बुरी तरह चिल्ला रही है। अभी डाक्टर साहब मरहम पट्टी कर के गए हैं।”
मेरा दिल दहल गया। रेशम की इस ना-क़ाबिल-ए-बर्दाश्त तकलीफ़ की ज़िम्मेदार मैं थी। उसकी तकलीफ़ और मुम्किन मौत के सदमे के साथ इंतिहाई शदीद एहसास-ए-जुर्म ने मुझे सरासीमा कर दिया और मैं जा कर घर के पिछवाड़े घने दरख़्तों में छिप गई ताकि दुनिया की नज़रों से ओझल हो जाऊँ। कुछ फ़ासले पर खट-खट बुढ़िया की शक्ल वाली मिसिज़ वार ब्रूक के घर में से वायरलैस की आवाज़ आ रही थी। दूर शागिर्द पेशे के सामने फ़क़ीरा की भावज घास पर बैठी ग़फ़ूर बेगम से बातें कर रही थी। पिछले बरामदे में बाजी अब मुज़फ़्फ़र भाई को ख़त लिखने में महव हो चुकी थीं। बाजी की आ’दत थी कि दिन-भर में कोई भी ख़ास बात होती थी तो वो फ़ौरन मुज़फ़्फ़र भाई को तवील सा ख़त लिखती थीं। रेशम पट्टियों से बंधी उनके नज़दीक अपनी टोकरी में पड़ी थी।
सारी दुनिया पुर-सुकून थी
सिर्फ़ मैं एक रु-पोश मुजरिम की तरह ऊंची-ऊंची घास में खड़ी सोच रही थी कि अब क्या करूँ। आख़िर मैं आहिस्ता-आहिस्ता अपने वालिद के कमरे की तरफ़ गई और दरीचे में से अंदर झाँका। वालिद आराम-कुर्सी पर बैठे कुछ पढ़ रहे थे। मैं अंदर गई और कुर्सी के पीछे जाकर खड़ी हो गई।


“क्या बात है?”
बी-बी मेरी सिसकी की आवाज़ पर उन्होंने चौंक कर मुझे देखा।
“रेशम को... रेशम को हमने बाड़ में फेंक दिया था।”
“आपने फेंक दिया था?”


“हम... हम कमला-विमला के हाँ जाने की जल्दी में थे। वो इतना मना’ करने के बावुजूद पीछे-पीछे आ रही थी। हमने उसे जल्दी से बाग़ के अंदर फेंक दिया।”
इतना कह कर मैंने ज़ार-ओ-क़तार रोना शुरू’ कर दिया। रोने के बा’द दिल हल्का हुआ और जुर्म का थोड़ा सा प्रायश्चित भी हो गया
मगर रेशम की तकलीफ़ किसी तरह कम न हुई। शाम को साइमन सबक़ सिखाने के बा’द देर तक उसके पास बैठे उससे बातें करते रहे।
रेशम की रोज़ाना मरहम पट्टी होती थी और हफ़्ते में एक दफ़ा उसे “घोड़ा हस्पताल” भेजा जाता था। उसकी रान पर से उसके घने और लंबे-लंबे सुरमई बाल मूंड दिए गए थे और ज़ख़्म की गहरी सुर्ख़ लकीरें दूर तक खिंची हुई थीं। काफ़ी दिनों के बा’द उसके ज़ख़्म भरे और उसने लंगड़ा कर चलना शुरू’ कर दिया। एक महीने बा’द वो आहिस्ता-आहिस्ता लंगड़ाती हुई साइमन को पहुँचाने फाटक तक गई और जब फ़क़ीरा बाज़ार से उसके लिए छिछड़े लेकर आता तो वो उसी तरह लंगड़ाती हुई कोने में रखे हुए अपने बर्तन तक भी जाने लगी।


एक रोज़ सुब्ह के वक़्त मिस्टर जॉर्ज बैकेट बाड़ पर नुमूदार हुए और ज़रा झिजकते हुए उन्होंने मुझे अपनी तरफ़ बुलाया।
“रेशम की तबीअ’त अब कैसी है?”
उन्होंने दरियाफ़्त किया।
“मुझे मिस्टर साइमन ने बताया था कि वो बहुत ज़ख़्मी हो गई थी।”


मिस्टर जॉर्ज बैकेट ने पहली बार इस मुहल्ले में किसी से बात की थी। मैंने रेशम की ख़ैरियत दरियाफ़्त करने के लिए उनका शुक्रिया अदा किया। और वो अपने चारख़ाना कोट की फटी हुई जेबों में अंगूठे ठूँस कर आगे चले गए।
मिस्टर जॉर्ज बैकेट एक बेहद फ़ाक़ा-ज़दा ऐंग्लो इंडियन थे और पिलपिली साहब कहलाते थे। वो सड़क के सिरे पर एक ख़स्ता-हाल काई-आलूद काटेज में रहते थे और बाल्टी उठा कर सुब्ह को म्यूंसिपल्टी के नल पर ख़ुद पानी भरने जाया करते थे। उनकी एक लड़की थी जिसका नाम डायना था। वो परेड ग्रांऊड पर एक अंग्रेज़ी सिनेमा हाल में टिकट बेचती थी और ख़ुश-रंग फ़्राक पहने अक्सर सामने से साईकल पर गुज़रा करती थी
उसके पास सिर्फ़ चार फ़्राक थे जिन्हें वो धो-धो कर और बदल-बदल कर पहना करती थी और मिसिज़ गोस्वामी
मिसिज़ फ़ारूक़ी और मिसिज़ जसवंत सिंह का कहना था कि “सिनेमा हाल की नौकरी के उसे सिर्फ़ पच्चीस रूपल्ली मिलते हैं और कैसे ठाट के कपड़े पहनती है। उसे गोरे पैसे देते हैं।” लेकिन गोरे अगर उसे पैसे देते थे (ये मेरी समझ में न आता था कि उसे गोरे क्यों पैसे देते थे) तो उसका बूढ़ा बाप नल पर पानी भरने क्यों जाता था।


ये पैंशन-याफ़्ता मुतमव्विल अंग्रेज़ों का मुहल्ला था जो पुर-फ़िज़ा ख़ूबसूरत कोठियों में ख़ामोशी से रहते थे। उनके इंतिहाई नफ़ासत से सजे हुए कमरों और बरामदों में लंदन इलस्ट्रेटेड न्यूज़
टेटलर
कन्ट्री लाईफ़ और पंच के अंबार मेज़ों पर रखे थे। और टाईम्स और डेली टेलीग्राफ़ के पुलिंदे समंदरी डाक से उनके नाम आते थे। उनकी बीवियाँ रोज़ाना सुब्ह को अपने-अपने “रुम” मैं बैठ कर बड़े एहतिमाम से “होम” ख़त लिखती थीं। और उनके “गोल कमरों मैं उनके बेटों की तस्वीरें रुपहले फ्रेमों में सजी थीं जो मशरिक़ी अफ़्रीक़ा और जुनूब मशरिक़ी एशिया में सल्तनत-ए-बर्तानिया के आफ़ताब को मज़ीद चमकाने में मसरूफ़ थे। ये लोग मुद्दतों से इस मुल्क में रहते आ रहे थे मगर “हाय” और “अब्दुल छोटा हाज़िरी मांगता” से ज़ियादा अलफ़ाज़ न जानते थे। ये इ’ज़्ज़त-पसंद अंग्रेज़ दिन-भर बाग़बानी या बर्ड वाचिंग (bird watching) या टिकट जमा’ करने में मसरूफ़ रहते थे।
ये बड़े अ’जीब लोग थे। मिस्टर हार्ड कासल तिब्बती ज़बान और रस्म-ओ-रिवाज के माहिर थे। मिस्टर ग्रीन आसाम के खासी क़बाइल पर अथार्टी थे। कर्नल वाइटहैड जो शुमाली मग़रिबी सरहद के मा’रकों में अपनी एक टांग खो चुके थे और लकड़ी की टांग लगाते थे


ख़ुश-हाल ख़ाँ खटक पर उ’बूर रखते थे। मेजर शेल्टन एसटीस मैन में शिकार के मुतअ’ल्लिक़ मज़ामीन लिखा करते थे। और मिस्टर मार्च मैन को शतरंज का ख़ब्त था। मिस ड्रिंकवाटर प्लांचट पर रूहें बुलाती थीं और मिसिज़ वार बुरोक तस्वीरें बनाती थीं।
मिसिज़ वार बुरोक एक ब्रीगेडियर की बेवा थीं और हमारे पिछवाड़े रहती थीं। उनकी बूढ़ी फौनिस कुँवारी बहन भी उनके साथ रहती थीं। उन दोनों की शक्लें लंबी चोंच वाले परिंदों की ऐसी थीं। और ये दोनों अपने तवील-ओ-अ’रीज़ ड्राइंगरूम के किसी कोने में बैठी आबी रंगों से हल्की-फुल्की तस्वीरें बनाया करती थीं। वो दोनों इतनी मुख़्तसर सी थीं कि फूलदार ग़िलाफ़ों से ढके हुए फ़र्नीचर और दूसरे साज़-ओ-सामान के जंगल में खो जाती थीं और पहली नज़र में बड़ी मुश्किल से नज़र आती थीं।
डालन वाला की एक कोठी में “इंग्लिश स्टोर्ज़” था। जिसका मालिक एक पारसी था। मुहल्ले की सारी अंग्रेज़ और नेटो बीवियाँ यहाँ आकर ख़रीदारी करती थीं और स्कैंडल और ख़बरों का एक दूसरे से तबादला करती थीं।
इस ख़ुश-हाल और मुतमइन अंग्रेज़ी मुहल्ले के वाहिद मुफ़लिस और ऐंग्लो इंडियन बासी बुझी-बुझी नीली आँखों वाले मिस्टर जॉर्ज बैकेट थे। मगर वो बड़ी आन-बान वाले ऐंग्लो इंडियन थे और ख़ुद को पक्का अंग्रेज़ समझते थे


इंग्लिस्तान “होम” कहते थे और चंद साल उधर जब शहंशाह जॉर्ज पंजुम के इंतिक़ाल पर कोलागढ़ में स्लो मार्च पर बड़ी भारी परेड हुई थी और गोरों के बैंड ने मौत का नग़्मा बजाया था तो मिस्टर जॉर्ज बैकेट भी बाज़ू पर सियाह मातमी पट्टी बांध कर कोलागढ़ गए थे और अंग्रेज़ों के मजमे’ में बैठे थे और उनकी लड़की डायना रोज़ ने अपने सुनहरे बालों और ख़ूबसूरत चेहरे को सियाह हैट और सियाह जाली से छुपाया था। और मिस्टर बैकेट बहुत दिनों तक सियाह मातमी पट्टी बाज़ू पर बाँधे रहे थे।
लेकिन बच्चे बहुत बे-रहम होते हैं। डालन वाला के सारे हिन्दुस्तानी बच्चे मिस्टर जॉर्ज बैकेट को न सिर्फ़ पिलपिली साहब कहते थे बल्कि कमला और विमला के बड़े भाई स्वर्ण ने जो एक पंद्रह साला लड़का था और डौन पब्लिक स्कूल में पढ़ता था। मिस्टर बैकेट की लड़की डायना को चिढ़ाने की एक और तरकीब निकाली थी।
कमला और विमला के वालिद एक बेहद दिलचस्प और ख़ुश-मिज़ाज इंसान थे। उन्होंने एक बहुत ही अनोखा अंग्रेज़ी रिकार्ड 1928 में इंग्लिस्तान से ख़रीदा था। ये एक इंतिहाई बे-तुका गीत था जिसका ऐंग्लो इंडियन उर्दू तर्जुमा भी साथ-साथ इसी धन में गाया गया था। न जाने किस मनचले अंग्रेज़ ने उसे तस्नीफ़ किया था। ये रिकार्ड अब स्वर्ण के क़ब्ज़े में था। और जब डायना साईकल पर उनके घर के सामने से गुज़रती तो स्वर्ण ग्रामोफ़ोन दरीचे में रखकर उसके भोंपू का रुख़ सड़क की तरफ़ कर देता और सूई रिकार्ड पर रखकर छिप जाता। मुंदरजा-ज़ैल बुलंद-पाया रूह-परवर गीत की आवाज़ बुलंद होती...
there was a rich merchant in london did stay.


who had for his daughter an uncommon liking?
her name it was diana
she was sixteen years old



and had a large fortune in silver and gold.
एक-बार एक सौदागर शहर लंदन में था
जिसकी एक बेटी नाम डायना उसका
नाम उसका डायना सोलह बरस का उ’म्र


जिसके पास बहुत कपड़ा चांदी और सोना
as diana was walking in the garden one day.
her father came to her and thus did he say:
go dress yourself up in gorgeous array



for you will have a husband both gallant and gay.
एक दिन जब डायना बाग़ीचा में थी
बाप आया बोला बेटी


जाओ कपड़ा पहनो हो सफ़ा
क्यों कि मैं तिरे वास्ते एक ख़ाविंद लाया
o father
dear father i’ve made up my mind



to marry at present
i don’t feel inclined.
and all my large fortune every day adore



if you let live me single a year or two more.
अरे रे मोरा बाप तब बोली बेटी
शादी का इरादा मैं नाहीं करती


अगर एक दो बरस तकलीफ़ नाहीं देव
आ आ अरे दौलत मैं छोड़ दूँ
then gave the father a gallant reply:
if you don”t be this young man”s bride



i”ll leave all your fortune to the fearest of things

and you should reap the benefit of single thing.


तब बाप बोला अरे बच्चा बेटी
उस शख़्स की जोरू तू नाहीं होती
माल और अस्बाब तेरा कुर्की कर दियूँ
और एक कच्ची दमड़ी भी तुझे दियूँ


as wilikins was walking in the garden one day

he found his dear diana lying dead on the way.
a cup so fearful that lay by her side.


and wilikins doth fainteth with a cry in his eye
एक दिन जब विलकिन हवा खाने को गया
डायना का मुर्दा एक कोने में पाया
एक बादशाह पियाला उसके कमर पर पड़ा


और एक चिट्ठी जिसमें लिखा
“ज़हर पी के मरा”
जैसे ही रिकार्ड बजना शुरू’ होता
बेचारी डायना साईकल की रफ़्तार तेज़ कर देती और अपने सुनहरे बाल झटक कर ज़न्नाटे से आगे निकल जाती।


इस मौसम-ए-सर्मा का दूसरा अहम वाक़िआ’ परेड ग्रांऊड में “दी ग्रेट ईस्ट इंडियन सर्कस ऐंड कार्निवल” की आ’मद था। उसके इश्तिहार लंगूरों और मसख़रों के लंबे जलूस के ज़रीए’ बाँटे गए थे। जिन पर लिखा था
“बीसवीं सदी का हैरत-नाक तमाशा
शेर दिल हसीना मिस ज़हर डर्बी
मौत के कुँए में


आज शब को...”
सबसे पहले फ़क़ीरा सर्कस देखकर लौटा। वो अपनी भावज को भी खेल दिखाने ले गया था। और सुब्ह को उसने इत्तिला दी थी... “बेगम साहिब... बड़ी बिटिया... बी-बी... ज़नानी डेथ आफ़ वैल में ऐसे फटफटी चलाती है कि बस क्या बताऊँ... औ’रत है कि शेर की बच्ची... हरे राम... हरे राम...”
दूसरे दिन स्कूल में कमला विमला ने मुझे बताया कि मिस ज़ुहरा डर्बी एक निहायत सनसनी-खेज़ ख़ातून है। और वो दोनों भी उसके दिलेराना कमालात ब-चश्म-ए-ख़ुद देखकर आई हैं।
चूँकि मैं सर्कसों पर पहले ही से आ’शिक़ थी लिहाज़ा जल्द-अज़-जल्द बाजी के साथ परेड ग्रांऊड पहुँची। वहाँ तंबू के बाहर एक ऊंचे चोबी प्लेटफार्म पर एक मोटर साईकल घड़घड़ा रही थी और उसके पास मिस ज़ुहरा डर्बी कुर्सी पर फ़रोकश थी। उसने नीले रंग की चमकदार साटन का उस क़त्अ’ का लिबास पहन रखा था


जो मिस नादिया ने हंटर वाली फ़िल्म में पहना था। उसने चेहरे पर बहुत सा गुलाबी पाउडर लगा रखा था जो बिजली की रोशनी में नीला मा’लूम हो रहा था। और होंट ख़ूब गहरे सुर्ख़ रंगे हुए थे। उसके बराबर में एक बेहद ख़ौफ़नाक
बड़ी-बड़ी मूंछों वाला आदमी उसी तरह की रंग-बिरंगी “बिर्जीस” पहने
लंबे-लंबे पट्टे सजाए और गले में बड़ा सा सुर्ख़ आदमी रूमाल बाँधे बैठा था। मिस ज़ुहरा डर्बी के चेहरे पर बड़ी उकताहट थी और वो बड़ी बे-लुत्फ़ी से सिगरेट के कश लगा रही थी।
इसके बा’द वो दोनों मौत के कुँए में दाख़िल हुए जिसकी तह में एक और मोटर साईकल रखी थी। ख़ौफ़नाक आदमी मोटर साईकल पर चढ़ा और मिस ज़ुहरा डर्बी सामने उसकी बाँहों में बैठ गई। और ख़ौफ़नाक आदमी ने कुँए के चक्कर लगाए। फिर वो उतर गया और मिस ज़ुहरा डर्बी ने तालियों के शोर में मोटर साईकल पर तन्हा कुँए के चक्कर लगाए और ऊपर आकर दोनों हाथ छोड़ दिए। और मोटर साईकल की तेज़-रफ़्तार की वज्ह से मौत का कुँआ ज़ोर-ज़ोर से हिलने लगा और मैं मिस ज़ुहरा डर्बी की इस हैरत-अंगेज़ बहादुरी को मस्हूर हो कर देखती रही। खेल के बा’द वो दुबारा उसी तरह चबूतरे पर जा बैठी और बे-तअ’ल्लुक़ी से सिगरेट पीना शुरू’ कर दिया। गोया कोई बात नहीं।


ये वाक़िआ’ था कि मिस ज़ुहरा डर्बी जापानी छतरी सँभाल कर तार पर चलने वाली मेमों और शेर के पिंजरे में जाने वाली और ऊंचे-ऊंचे तारों और झूलों पर कमालात दिखाने वाली लड़कियों से भी ज़ियादा बहादुर थी। पिछले बरस वहाँ “अ’ज़ीमुश्शान ऑल इंडिया दंगल” आया था
जिसमें मिस हमीदा बानो पहलवान ने ऐ’लान किया था कि जो मर्द पहलवान उन्हें हरा देगा वो उससे शादी कर लेंगी। लेकिन ब-क़ौल फ़क़ीरा कोई माई का लाल उस शेर की बच्ची को न हरा सका था और उसी दंगल में प्रोफ़ैसर ताराबाई ने भी बड़ी ज़बरदस्त कुश्ती लड़ी थी और उन दोनों पहलवान ख़वातीन की तस्वीरें इश्तिहारों में छपी थीं जिनमें वो बनियान और नेकरें पहने ढेरों तमगे लगाए बड़ी शान-ओ-शौकत से कैमरे को घूर रही थीं...।
ये कौन पुर-असरार हस्तियाँ होती हैं जो तार पर चलती हैं और मौत के कुँए में मोटर साईकल चलाती हैं और अखाड़े में कुश्ती लड़ती हैं। मैंने सबसे पूछा लेकिन किसी को भी उनके मुतअ’ल्लिक़ कुछ न मा’लूम था।
“दी ग्रेट ईस्ट इंडियन सर्कस” अभी तमाशे ही दिखा रहा था कि एक रोज़ फ़क़ीरा पलटन बाज़ार से सौदा लेकर लौटा तो उसने एक बड़ी तहलका-ख़ेज़ ख़बर सुनाई कि मिस ज़ुहरा डर्बी के उ’श्शाक़


मास्टर गुलक़ंद और मास्टर मुछन्दर के दरमियान चक्कू चल गया। मास्टर मुछन्दर ने मिस ज़ुहरा डर्बी को भी चक्कू से घायल कर दिया और वो हस्पताल में पड़ी हैं और इससे भी तहलका-ख़ेज़ ख़बर
जो फ़क़ीरा ने चंद दिन बा’द म्यूंसिपल्टी के नल पर सुनी
ये थी कि पिलपिली साहिब की मसीह ने सर्कस में नौकरी कर ली।
“डायना बैकेट ने...?”


बाजी ने दुहराया।
“जी हाँ बड़ी बिटिया... पिलपिली साहिब की मसीह
सुना है कहती है कि उससे अपने बाप की ग़रीबी और तकलीफ़ अब नहीं देखी जाती और दुनिया वाले तो यूँ भी तंग करते हैं। ओडियन सिनेमा में उसे पच्चीस रुपये मिलते थे। सर्कस में पछत्तर रुपये मिलेंगे... ये तो सच है। वो ग़रीब तो बहुत थी बड़ी बिटिया...”
“और गोरे जो उसको पैसे देते थे?”


मैंने पूछा। ग़फ़ूर बेगम ने मुझे घूर कर देखा और कहा
“जाओ। भाग जाओ यहाँ से।”
लिहाज़ा मैं भाग गई और बाहर जाकर रेशम की टोकरी के पास बैठ के डायना बैकेट की बहादुरी के मुतअ’ल्लिक़ ग़ौर करने लगी।
अब की बार जब लंगूरों और मसख़रों ने सर्कस के इश्तिहार बाँटे तो उन पर छपा था


“सर्कस के आ’शिक़ों को मुज़्दा परी-जमाल यूरोपियन दोशीज़ा के हैरत-अंगेज़ कमालात क़त्ताला-ए-आ’लम
हसीना लंदन मिस डायना रोज़ मौत के कुँए में आज शब को।”
इन्ही दिनों सिनेमा का चर्चा हुआ। यूँ तो सिनेमा के इश्तिहार अ’र्से से लकड़ी के ठेलों पर चिपके सामने से गुज़रा करते थे। “साल-ए-रवाँ की बेहतरीन फ़िल्म “चैलेंज” जिसमें मिस सरदार अख़्तर काम करती हैं। परेड के सामने
प्लेडियम सिनेमा में


आज शब को।”
और... “साल-ए-रवाँ की बेहतरीन फ़िल्म “दिल्ली ऐक्सप्रैस” जिसमें मिस सरदार अख़्तर काम करती हैं परेड के सामने
राक्सी सिनेमा में आज शब को।”
और मुझे बड़ी परेशानी होती थी कि मिस सरदार अख़्तर दोनों जगहों पर ब-यक-वक़्त किस तरह “काम” करेंगी। लेकिन क़िस्मत ने एक दम यूँ पल्टा खाया कि बाजी और उनकी सहेलियों के साथ यके-बा’द-दीगरे तीन फ़िल्म देखने को मिलीं...।


“अछूत कन्या” जिसके लिए मिसिज़ जोग माया चटर्जी ने बताया कि हमारे देश में बहुत ज़बरदस्त समाजी इन्क़िलाब आ गया है और गुरुदेव टैगोर की भांजी देव यक्का रानी अब फिल्मों में काम करती हैं और “जीवन लता” जिसमें सीता देवी नाज़ुक-नाज़ुक छोटी सी आवाज़ में गातीं... “मोहे प्रेम के झूले झुला दे कोई...” और “जीवन प्रभात” जिसे बाजी बड़े ज़ौक़-ओ-शौक़ से इसलिए देखने गईं कि उसमें ख़ुरशीद आपा “काम” कर रही थीं
जो अब रेनुका देवी कहलाती थी
जो इस ज़बरदस्त समाजी इन्क़िलाब का सबूत था।
मिसिज़ जोग माया चटर्जी की बशारत के मुताबिक़ हिन्दोस्तान जिनके दरवाज़े पर खड़ा था और तभी मिसिज़ जोग माया चटर्जी की लड़कियों ने हारमोनियम पर फ़िल्मी गाने “निकालने” शुरू’ कर दिए। “बांके बिहारी भूल न जाना... पीतम प्यारी प्रीत निभाना...” और... “चोर चुरावे माल ख़ज़ाना


पिया नैनों की निन्दिया चुराए।” और... “तुम और मैं और मुन्ना प्यारा... घरवा होगा स्वर्ग हमारा...”
ग़फ़ूर बेगम काम करते-करते इन आवाज़ों पर कान धरने के बा’द कमर हाथ पर रखकर कहतीं
“बड़े बूढ़े सच कह गए थे। क़ुर्ब-ए-क़यामत के आसार यही हैं कि गाय मेंगनां खाएगी और कुँवारियाँ अपने मुँह से बर माँगेंगी।”
इतने में मनोरमा चटर्जी की सुरीली आवाज़ बुलंद होती... “मोहे प्रेम के झूले झुला दे कोई।”


“बे-हयाई तेरा आसरा...”
ग़फ़ूर बेगम काँप कर फ़रियाद करतीं और स्लीपर पाँव में डाल कर सटर-पटर करती अपने काम काज में मसरूफ़ हो जातीं।
इन्ही दिनों फ़क़ीरा भी अपनी भावज को ये सारी फिल्में सैकेंड शो में दिखा लाया। मगर जिस रात जलधरा “चंडीदास” फ़िल्म देखकर लौटी
तो उसे बड़ा सख़्त बुख़ार चढ़ गया


और डाक्टर हौन ने सुब्ह को आकर उसे देखा और कहा कि उसका मरज़ तशवीश-नाक सूरत इख़्तियार कर चुका है। अब वो रोज़ ताँगे में लेट कर हस्पताल जाती और वापिस आकर धूप में घास पर कम्बल बिछा कर लेटी रहती। कुछ दिनों में उसकी हालत ज़रा बेहतर हो गई। और सुख नंदन ख़ानसामाँ की बीवी धनकलिया उससे ज़रा फ़ासले पर बैठ कर उसका दिल बहलाने के लिए पूरबी गीत गाया करती और उसे छेड़ छेड़कर अलापती... “नाज-ओ-अदा से सर्म-ओ-हया से बाले सय्याँ से सरमाए गई मैं तो...”
और ग़फ़ूर बेगम जब जलधरा की ख़ैरियत पूछने जातीं तो वो मुस्कुरा कर कहती
“अन्ना जी... मेरा तो समय आ गया। अब थोड़े दिनों में प्रान निकल जाएँगे...”
अब ग़फ़ूर बेगम उसका दिल रखने के लिए कहतीं


“अरी तू अभी बहुत जिएगी... और ए जलधरिया... ज़रा ये तो बता कि तूने फ़क़ीरा निगोड़े पर क्या जादू कर रखा है... ज़रा मुझे भी वो मंत्र बता दे
मुझ बद-बख़्ती को तो अपने घर वाले को राम करने का एक भी नुस्ख़ा न मिला... तू ही कोई टोटका बता दे। सुना है पहाड़ों पर जादू टोने बहुत होते हैं... फ़क़ीरा भी कैसा तेरा कलमा पढ़ता है... अरी तू तो उसकी माँ के बराबर है...!”
और वो बड़ी अदा से हँस को जवाब देती...
“अन्ना जी। क्या तुमने सुना नहीं पुराने चावल कैसे होते हैं?”


“पुराने चावल...?”
मैं दुहराती और ग़फ़ूर बेगम ज़रा घबरा कर मुझे देखतीं और जल्दी से कहतीं...
“बी-बी आप यहाँ क्या कर रही हैं? जाईए बड़ी बिटिया आपको बुला रही हैं।”
लिहाज़ा मैं सर झुकाए बजरी की रंग-बिरंगी कंकरियाँ जूतों की नोक से ठुकराती-ठुकराती बाजी की तरफ़ चली जाती। मगर वो फ़लसफ़े की मोटी सी किताब के मुताले’ में या मुज़फ़्फ़र भाई का ख़त पढ़ने या उसका जवाब लिखने में मुसतग़रिक़ होतीं और मुझे कहीं और जान

- क़ुर्रतुलऐन-हैदर


(1)
मैंने शाहिदा से कहा
तो मैं जा के अब कुंजियाँ ले आऊँ।
शाहिदा ने कहा


आख़िर तू क्यों अपनी शादी के लिए इतनी तड़प रही है? अच्छा जा।
मैं हँसती हुई चली गई। कमरे से बाहर निकली। दोपहर का वक़्त था और सन्नाटा छाया हुआ था। अम्माँ जान अपने कमरे में सो रही थीं और एक ख़ादिमा पंखा झल रही थी। मैं चुपके से बराबर वाले कमरे में पहुंची और मसहरी के तकिया के नीचे से कुंजी का गुच्छा लिया। सीधी कमरे पर वापस आई और शाहिदा से कहा
जल्दी चलो।
हम दोनों ने चुपके से चलते हुए कि कहीं कोई पैर की आहट न सुन ले ज़ीने की राह ली और अब्बा जान वाली छत पर दाख़िल हुई। वहां भी हस्ब-ए-तवक़्क़ो सन्नाटा पाया। सबसे पहले दौड़ कर मैंने दरवाज़ा बंद कर दिया जो बाहर ज़ीने से आने जाने के लिए था। उसके बाद ये दरवाज़ा भी बंद कर दिया जिससे हम दोनों दाख़िल हुए थे। सीधी अब्बा जान के कमरे में पहुंच कर उनकी अलमारी का ताला खोला। क्या देखती हूँ कि सामने बीच के तख़्ता पर तमाम ख़ुतूत और तस्वीरें रखी हैं।


वो देख! वो देख!
वो अच्छा है
शाहिदा ने कहा।
नहीं शुरू से देखो... इधर से। ये कह कर मैंने शुरू का बंडल खोला और उसमें से तस्वीर निकाली। ये एक प्रोफ़ेसर साहिब की तस्वीर थी जिनकी उम्र पैंतीस साल की होगी। ये निहायत ही उम्दा सूट पहने बड़ी शान से कुर्सी का तकिया पकड़े खड़े थे। कुर्सी पर उनका पाँच साल का बच्चा बैठा था। उनकी पहली बीवी मर चुकी थीं। अब मुझसे शादी करना चाहते थे। नाम और पता वग़ैरा सब तस्वीर की पुश्त पर मौजूद था।


ये ले ! शाहिदा ने कहा
पहली ही बिसमिल्लाह ग़लत।
मैंने तस्वीर को देखते हुए कहा
क्यों? क्या ये बुरा है ?


कम्बख़्त ये दूहा जो है
बहन इससे भूल के भी मत कीजियो। तू तो अपनी तरह कोई कँवारा ढूंढ। अरी ज़रा इस लौंडे को देख! अगर न तेरा ये नाक में दम कर दे और नथनों में तीर डाल दे तो मेरा नाम पलट कर रख दीजियो। देखती नहीं कि बस की गाँठ कितना शरीर है और फिर रातों को तेरी सौत ख़्वाब में अलग आकर गला दबाएगी।
तो तू पागल हो गई है। मैंने कहा
शाहिदा ढंग की बातें कर।


शाहिदा हंसते हुए बोली
मेरी बला से। कल की करती तो आज कर ले
मेरी दानिस्त में तो इस प्रोफ़ेसर को भी कोई ऐसी ही मिले तो ठीक रहे जो दो तीन मूज़ी बच्चे जहेज़ में लाए। और वो उसके छोकरे को मारते मारते अतू कर दें। चल रख उस को... दूसरी देख।
पहली तस्वीर पर ये रिमार्कस पास किए गए और इसको जूं का तूं रखकर दूसरी तस्वीर उठाई और शाहिदा से पूछा


ये कैसा है ?
शाहिदा ग़ौर से देखकर बोली
वैसे तो ठीक है मगर ज़रा काला है। कौन से दर्जे में पढ़ता है?
मैंने तस्वीर देख-भाल कर कहा


बी.ए. में पढ़ता है। काला तो ऐसा नहीं है।
शाहिदा ने कहा
हूँ! ये आख़िर तुझे क्या हो गया है
जिसे देखती है उसपे आशिक़ हुई जाती है। न काला देखती है न गोरा


न बूढ्ढा देखती है न जवान! मैंने ज़ोर से शाहिदा के चुटकी लेकर कहा।कम्बख़्त मैंने तुझे इसलिए बुलाया था कि तू मुझे तंग करे! ग़ौर से देख।
ग़ौर से तस्वीर देखकर और कुछ सोच कर शाहिदा बोली
न बहन ये हरगिज़ ठीक नहीं
मैं तो कह चुकी


आइन्दा तू जाने।
मैंने कहा
ख़त तो देख बड़े रईस का लड़का है। ये तस्वीर एक तालिब-इल्म की थी जो टेनिस का बल्ला लिये बैठा था। दो तीन तमगे लगाए हुए था और दो तीन जीते हुए कप सामने मेज़ पर रखे हुए थे।
शाहिदा बोली


वैसे तो लड़का बड़ा अच्छा है। उम्र में तेरे जोड़ का है। मगर अभी पढ़ता है और तेरा भी शौकत का सा हाल होगा कि दस रुपये माहवार जेब ख़र्च और खाने और कपड़े पर नौकर हो जाएगी और दिन रात सास ननदों की जूतीयां
ये तो झगड़ा है।
मैंने कहा
बी.ए. में पढ़ता है


साल दो साल में नौकर हो जाएगा।
टेनिस का जमादार हो रहा है
तू देख लीजियो दो तीन दफ़ा फ़ेल होगा और सास ननदें भी कहेंगी कि बीवी पढ़ने नहीं देती
और फिर दौड़ने धूपने का शौक़ीन


तुझे रपटा मारेगा। वैसे तो लड़का अच्छा है
सूरत भी भोली-भाली है और ऐसा है कि जब शरारत करे
उठा कर ताक़ पर बिठा दिया। मगर न बाबा में राय न दूँगी।
उस तस्वीर को भी रख दिया और अब दूसरा बंडल खोला और एक और तस्वीर निकली।


आख़ाह! ये मुआ पान का ग़ुलाम कहाँ से आया। शाहिदा ने हंसकर कहा
देख तो कम्बख़्त की डाढ़ी कैसी है और फिर मूँछें उसने ऐसी कतरवाई हैं कि जैसे सींग कटा कर बछड़ों में मिल जाये !
मैं भी हँसने लगी। ये एक मुअज़्ज़िज़ रईस आनरेरी मजिस्ट्रेट थे और उनकी उम्र भी ज़्यादा न थी। मगर मुझको ये ज़र्रा भर पसंद न आए।
ग़ौर से शाहिदा ने तस्वीर देखकर पहले तो उनकी नक़ल बनाई और फिर कहने लगी


ऐसे को भला कौन लड़की देगा? ना मालूम उसके कितनी लड़कियां और बीवियां होंगी। फेंक इसे।
ये तस्वीर भी रख दी गई और दूसरा बंडल खोल कर एक और तस्वीर ली। ये तो गबरू जवान है ? इससे तो फ़ौरन कर ले
शाहिदा तस्वीर देखकर बोली
ये है कौन! ज़रा देख।


मैंने देखकर बताया कि डाक्टर है।
बस-बस
ये ठीक
ख़ूब तेरी नब्ज़ टटोल टटोल के रोज़ थर्मामीटर लगाएगा। सूरत शक्ल ठीक है। शाहिदा ने हंसकर कहा


मेरा मियां भी ऐसा ही हट्टा कट्टा मोटा ताज़ा है।
मैंने हंसकर कहा
कम्बख़्त आख़िर तू ऐसी बातें कहाँ से सीख आई है
क्या तू ने अपने मियां को देखा है?


देखा तो नहीं मगर सुना है कि बहुत अच्छा है।
भद्दा सा होगा। शाहिदा ने चीं बचीं हो कर कहा
इतना तो मैं जानती हूँ कि जो कहीं तू उसे देख ले तो शायद लट्टू ही हो जाये।
मैंने अब डाक्टर साहिब की तस्वीर को ग़ौर से देखा और नुक्ता-चीनी शुरू की। ना इसलिए कि मुझे ये नापसंद थे


बल्कि महज़ इसलिए कि कुछ राय ज़नी हो सके। चुनांचे मैंने कहा
उनकी नाक ज़रा मोटी है।
सब ठीक है। शाहिदा ने कहा
ज़रा उस का ख़त देख।


मैंने देखा कि सिर्फ़ दो ख़त हैं। पढ़ने से मालूम हुआ कि उनकी पहली बीवी मौजूद हैं मगर पागल हो गई हैं।
फेंक फेंक उसे कम्बख़्त को फेंक। शाहिदा ने जल कर कहा
झूटा है कम्बख़्त कल को तुझे भी पागलख़ाना में डाल के तीसरी को तकेगा।
डाक्टर साहिब भी नामंज़ूर कर दिए गए और फिर एक और तस्वीर उठाई।


शाहिदा ने और मैंने ग़ौर से इस तस्वीर को देखा। ये तस्वीर एक नौ उम्र और ख़ूबसूरत जवान की थी। शाहिदा ने पसंद करते हुए कहा
ये तो ऐसा है कि मेरी भी राल टपकती पड़ रही है। देख तो कितना ख़ूबसूरत जवान है। बस इससे तू आँख मीच के कर ले और इसे गले का हार बना लीजियो।
हम दोनों ने ग़ौर से उस तस्वीर को देखा
हर तरह दोनों ने पसंद किया और पास कर दिया। शाहिदा ने इसके ख़त को देखने को कहा। ख़त जो पढ़ा तो मालूम हुआ कि ये हज़रत विलाएत में पढ़ते हैं।


अरे तौबा तौबा
छोड़ उसे। शाहिदा ने कहा।
मैंने कहा
क्यों। आख़िर कोई वजह?


वजह ये कि भला उसे वहां मेमें छोड़ेंगी। अजब नहीं कि एक-आध को साथ ले आए।
मैंने कहा
वाह इस से क्या होता है। अहमद भाई को देखो
पाँच साल विलाएत में रहे तो क्या हो गया।


शाहिदा तेज़ी से बोली
बड़े अहमद भाई अहमद भाई
रजिस्टर लेकर वहां की भावजों के नाम लिखना शुरू करेगी तो उम्र ख़त्म हो जाएगी और रजिस्टर तैयार न होगा। मैं तो ऐसा जुआ न खेलूं और न किसी को सलाह दूं। ये उधार का सा मुआमला ठीक नहीं।
ये तस्वीर भी नापसंद कर के रख दी गई और इसके बाद एक और निकाली। शाहिदा ने तस्वीर देकर कहा


ये तो अल्लाह रखे इस क़दर बारीक हैं कि सूई के नाका में से निकल जाऐंगे। इलावा उसके कोई आंधी बगूला आया तो ये उड़ उड़ा जाऐंगे और तू रांड हो जाएगी।
इसी तरह दो तीन तस्वीरें और देखी गईं कि असल तस्वीर आई और मेरे मुँह से निकल गया
अख़ाह।
मुझे दे। देखूं


देखूं। कह कर शाहिदा ने तस्वीर ले ली।
हम दोनों ने ग़ौर से इसको देखा। ये एक बड़ी सी तस्वीर थी। एक तो वो ख़ुद ही तस्वीर था और फिर इस क़दर साफ़ और उम्दा खींची हुई कि बाल बाल का अक्स मौजूद था। शाहिदा ने हंसकर कहा
उसे मत छोड़ियो। ऐसे में तो मैं दो कर लूं। ये आख़िर है कौन?
तस्वीर को उलट कर देखा जैसे दस्तख़त ऊपर थे ऐसे ही पुश्त पर थे मगर शहर का नाम लिखा हुआ था और बग़ैर ख़ुतूत के देखे हुए मुझे मालूम हो गया कि किसकी तस्वीर है। मैंने शाहिदा से कहा


ये वही है जिसका मैंने तुझसे उस रोज़ ज़िक्र किया था।
अच्छा ये बैरिस्टर साहिब हैं। शाहिदा ने पसंदीदगी के लहजे में कहा
सूरत शक्ल तो ख़ूब है
मगर इनकी कुछ चलती भी है या नहीं?


मैंने कहा
अभी क्या चलती होगी। अभी आए हुए दिन ही कितने हुए हैं।
तो फिर हवा खाते होंगे। शाहिदा ने हंसते हुए कहा
ख़ैर तू इस से ज़रूर कर ले। ख़ूब तुझे मोटरों पर सैर कराएगा


सिनेमा और थेटर दिखाएगा और जलसों में नचाएगा।
मैंने कहा
कुछ ग़रीब थोड़ी हैं। अभी तो बाप के सर खाते हैं।
शाहिदा ने चौंक कर कहा


अरी बात तो सुन।
मैंने कहा
क्यों।
शाहिदा बोली


सूरत शक्ल भी अच्छी है। ख़ूब गोरा चिट्टा है। बल्कि तुझसे भी अच्छा है और उम्र भी ठीक है। मगर ये तो बता कि कहीं कोई मेम-वेम तो नहीं पकड़ लाया है।
मैंने कहा
मुझे क्या मालूम। लेकिन अगर कोई साथ होती तो शादी क्यों करते।
ठीक ठीक। शाहिदा ने सर हिला कर कहा


बस अल्लाह का नाम लेकर फाँस
मैंने ख़त उठाए और शाहिदा दूसरी तस्वीरें देखने लगी। मैं ख़त पढ़ रही थी और वो हर एक तस्वीर का मुँह चिड़ा रही थी। मैंने ख़ुश हो कर उसको चुपके चुपके ख़त को कुछ हिस्सा सुनाया। शाहिदा सुनकर बोली
इल-लल्लाह! मैंने और आगे पढ़ा तो कहने लगी
वो मारा। ग़रज़ ख़त का सारा मज़मून सुनाया।


शाहिदा ने ख़त सुनकर कहा कि
ये तो सब मुआमला फिट है और चूल बैठ गई है। अब तू गुड़ तक़सीम कर दे।
फिर हम दोनों ने इस तस्वीर को ग़ौर से देखा। दोनों ने रह-रह कर पसंद किया। ये एक नौउम्र बैरिस्टर थे और ग़ैर-मामूली तौर पर ख़ूबसूरत मालूम होते थे और नाक नक़्शा सब बेऐब था। शाहिदा रह-रह कर तारीफ़ कर रही थी। डाढ़ी मूँछें सब साफ़ थीं और एक धारीदार सूट पहने हुए थे। हाथ में कोई किताब थी।
मैंने बैरिस्टर साहिब के दूसरे ख़त पढ़े


और मुझको कुल हालात मालूम हो गए। मालूम हुआ है कि बैरिस्टर साहिब बड़े अच्छे और रईस घराने के हैं और शादी का मुआमला तय हो गया है। आख़िरी ख़त से पता चलता था कि सिर्फ़ शादी की तारीख़ के मुआमले में कुछ तसफ़ीया होना बाक़ी है।
मैंने चाहा कि और दूसरे ख़त पढ़ूं और ख़सूसन आनरेरी मजिस्ट्रेट साहिब का मगर शाहिदा ने कहा
अब दूसरे ख़त न पढ़ने दूँगी। बस यही ठीक है। मैंने कहा
उनके ज़िक्र की भनक एक मर्तबा सुन चुकी हूँ। आख़िर देख तो लेने दे कि मुआमलात कहाँ तक पहुंच चुके हैं।


शाहिदा ने झटक कर कहा
चल रहने दे उस मूज़ी का ज़िक्र तक न कर
मैंने बहुत कुछ कोशिश की मगर उसने एक न सुनी। क़िस्सा मुख़्तसर जल्दी जल्दी सब चीज़ें जूं की तूं रख दीं
और अलमारी बंद कर के मैंने मर्दाना ज़ीना का दरवाज़ा खोला और शाहिदा के साथ चुपके से जैसे आई थी वैसे ही वापस हुई। जहां से कुंजी ली थी


इसी तरह रख दी। शाहिदा से देर तक बैरिस्टर साहिब की बातें होती रहीं। शाहिदा को मैंने इसीलिए बुलाया था। शाम को वो अपने घर चली गई मगर इतना कहती गई कि ख़ाला जान की बातों से भी पता चलता है कि तेरी शादी अब बिल्कुल तय हो गई और तू बहुत जल्द लटकाई जाएगी।
(2)
इस बात को महीना भर से ज़ाइद गुज़र चुका था। कभी तो अब्बा जान और अम्माँ जान की बातें चुपके से सुनकर उनके दिल का हाल मालूम करती थी और कभी ऊपर जा कर अलमारी से ख़ुतूत निकाल कर पढ़ती थी।
मैं दिल ही दिल में ख़ुश थी कि मुझसे ज़्यादा ख़ुशक़िस्मत भला कौन होगी कि यकलख़्त मालूम हुआ कि मुआमला तय हो कर बिगड़ रहा है।


आख़िरी ख़त से मालूम हुआ कि बैरिस्टर साहिब के वालिद साहिब चाहते हैं कि बस फ़ौरन ही निकाह और रुख़्सती सब हो जाये और अम्माँ जान कहती कि मैं पहले सिर्फ़ निस्बत की रस्म अदा करूँगी और फिर पूरे साल भर बाद निकाह और रुख़्सती करूँगी क्योंकि मेरा जहेज़ वग़ैरा कहती थीं कि इत्मिनान से तैयार करना है और फिर कहती थीं कि मेरी एक ही औलाद है। मैं तो देख-भाल के करूँगी। अगर लड़का ठीक न हुआ तो मंगनी तोड़ भी सकूँगी। ये सब बातें में चुपके से सुन चुकी थी। इधर तो ये ख़्यालात
उधर बैरिस्टर साहिब के वालिद साहिब को बेहद जल्दी थी। वो कहते थे कि अगर आप जल्दी नहीं कर सकते तो हम दूसरी जगह कर लेंगे। जहां सब मुआमलात तय हो चुके हैं। मुझे ये नहीं मालूम हो सका कि अब्बा जान ने इसका क्या जवाब दिया
और मैं तक में लगी हुई थी कि कोई मेरे दिल से पूछे कि मेरा क्या हाल हुआ। जब एक रोज़ चुपके से मैंने अब्बा जान और अम्माँ जान का तसफ़ीया सुन लिया। तय हो कर लिखा जा चुका था की अगर आपको ऐसी ही जल्दी है कि आप दूसरी जगह शादी किए लेते हैं तो बिसमिल्लाह। हमको लड़की भारी नहीं है
ये ख़त लिख दिया गया और फिर उन कम्बख़्त मजिस्ट्रेट की बात हुई कि मैं वहां झोंकी जाऊँगी। न मालूम ये आनरेरी मजिस्ट्रेट मुझको क्यों सख़्त नापसंद थे कि कुछ उनकी उम्र भी ऐसी न थी। मगर शाहिदा ने कुछ उनका हुल्या यानी डाढ़ी वग़ैरा कुछ ऐसा बना बना कर बयान किया कि मेरे दिल में उनके लिए ज़र्रा भर जगह न थी। मैं घंटों अपने कमरे में पड़ी सोचती रही।


इस बात को हफ़्ता भर भी न गुज़रा था कि मैंने एक रोज़ उसी तरह चुपके से अलमारी खोल कर बैरिस्टर साहिब के वालिद का एक ताज़ा ख़त पढ़ा। ऐसा मालूम होता था कि उन्होंने ये ख़त शायद अब्बा जान के आख़िरी ख़त मिलने से पहले लिखा था कि बैरिस्टर साहिब को ख़ुद किसी दूसरी जगह जाना है और रास्ता में यहां होते हुए जाऐंगे और अगर आपको शराइत मंज़ूर हुईं तो निस्बत भी क़रार दे दी जाएगी। उसी रोज़ उस ख़त का जवाब भी मैंने सुन लिया। उन्होंने लिख दिया था कि लड़के को तो मैं ख़ुद भी देखना चाहता था
ख़ाना बे-तकल्लुफ़ है। जब जी चाहे भेज दीजिए मगर उस का ख़याल दिल से निकाल दीजिए कि साल भर से पहले शादी कर दी जाए-अमाँ जान ने भी इस जवाब को पसंद किया और फिर उन्ही आनरेरी मजिस्ट्रेट साहिब के तज़किरा से मेरे कानों की तवाज़ो की गई।
इन सब बातों से मेरा ऐसा जी घबराया कि अम्माँ जान से मैंने शाहिदा के घर जाने की इजाज़त ली और ये सोच कर गई कि तीन चार रोज़ न आऊँगी।
शाहिदा के हाँ जो पहुंची तो उसने देखते ही मालूम कर लिया कि कुछ मुआमला दिगरगूं है। कहने लगी कि


क्या तेरे बैरिस्टर ने किसी और को घर में डाल लिया?
मैं इसका भला क्या जवाब देती। तमाम क़िस्सा शुरू से आख़ीर तक सुना दिया कि किस तरह वो जल्दी कर रहे हैं और चाहते हैं कि जल्द से जल्द शादी हो जाये। मगर अम्माँ जान राज़ी नहीं होतीं। ये सब सुनकर और मुझको रंजीदा देखकर वो शरीर बोली
ख़ूब! चट मंगनी पट ब्याह भला ऐसा कौन करेगा। मगर एक बात है। मैंने कहा
वो क्या?


वो बोली
वो तेरे लिए फड़क रहा है और ये फ़ाल अच्छी है।
मैंने जल कर कहा
ये तू फ़ाल निकाल रही है और मज़ाक़ कर रही है।


फिर क्या करूँ? शाहिदा ने कहा
(क्योंकि वाक़ई वो बेचारी कर ही क्या सकती है।)
मैंने कहा
कोई मश्वरा दो


सलाह दो
दोनों मिलकर सोचें।
पागल नहीं तू। शाहिदा ने मेरी बेवक़ूफ़ी पर कहा
दीवानी हुई है


मैं सलाह क्या दूं?
अच्छा मुझे पता बता दे। मैं बैरिस्टर साहिब को लिख भेजूँ कि इधर तू इस छोकरी पर निसार हो रहा है और उधर ये तेरे पीछे दीवानी हो रही है
आ के तुझे भगा ले जाये।
ख़ुदा की मार तेरे ऊपर और तेरी सलाह के ऊपर। मैंने कहा


क्या मैं इसीलिए आई थी? मैं जाती हूँ। ये कह कर मैं उठने लगी।
तेरे बैरिस्टर की ऐसी तैसी। शाहिदा ने हाथ पकड़ कर कहा
जाती कहाँ है शादी न ब्याह
मियां का रोना रोती है। तुझे क्या? कोई न कोई माँ का जाया आकर तुझे ले ही जाएगा। चल दूसरी बातें कर।


ये कह कर शाहिदा ने मुझे बिठा लिया और मैं भी हँसने लगी। दूसरी बातें होने लगीं। मगर यहां मेरे दिल को लगी हुई थी और परेशान भी थी। घूम फिर कर वही बातें होने लगीं। शाहिदा ने जो कुछ हमदर्दी मुम्किन थी वो की और दुआ मांगी और फिर आनरेरी मजिस्ट्रेट को ख़ूब कोसा। इसके इलावा वो बेचारी कर ही क्या सकती थी। ख़ुद नमाज़ के बाद दुआ मांगने का वादा किया और मुझसे भी कहा कि नमाज़ के बाद रोज़ाना दुआ मांगा कर। इससे ज़्यादा न वो कुछ कर सकती थी और न मैं।
मैं घर से कुछ ऐसी बेज़ार थी कि दो मर्तबा आदमी लेने आया और न गई। चौथे रोज़ मैंने शाहिदा से कहा कि
अब शायद ख़त का जवाब आ गया होगा और मैं खाना खा के ऐसे वक़्त जाऊँगी कि सब सोते हों ताकि बग़ैर इंतिज़ार किए हुए मुझे ख़त देखने का मौक़ा मिल जाये।
चलते वक़्त मैं ऐसे जा रही थी जैसे कोई शख़्स अपनी क़िस्मत का फ़ैसला सुनने के लिए जा रहा हो। मेरी हालत अजीब उम्मीद-ओ-बहम की थी। न मालूम उस ख़त में बैरिस्टर साहिब के वालिद ने इनकार क्या होगा या मंज़ूर कर लिया होगा कि हम साल भर बाद शादी पर रज़ामंद हैं। ये मैं बार-बार सोच रही थी। चलते वक़्त मैंने अपनी प्यारी सहेली के गले में हाथ डाल कर ज़ोर से दबाया। न मालूम क्यों मेरी आँखें नम हो गईं। शाहिदा ने मज़ाक़ को रुख़्सत करते हुए कहा


बहन ख़ुदा तुझे उस मूज़ी से बचाए। तू दुआ मांग अच्छा। मैंने चुपके से कहा
अच्छा।
(3)
शाहिदा के यहां से जो आई तो हस्ब-ए-तवक़्क़ो घर में सन्नाटा पाया। अम्माँ-जान सो रही थीं और अब्बा जान कचहरी जा चुके थे। मैंने चुपके से झांक कर इधर उधर देखा। कोई न था। आहिस्ता से दरवाज़ा बंद किया और दौड़ कर मर्दाना ज़ीने का दरवाज़ा भी बंद कर दिया और सीधी कमरे में पहुंची। वहां पहुंची तो शश्दर रह गई।


क्या देखती हूँ कि एक बड़ा सा चमड़े का ट्रंक खुला पड़ा है और पास की कुर्सी पर और ट्रंक में कपड़ों के ऊपर मुख़्तलिफ़ चीज़ों की एक दुकान सी लगी हुई है। मैंने दिल में कहा कि आख़िर ये कौन है
जो इस तरह सामान छोड़कर डाल गया है। क्या बताऊं मेरे सामने कैसी दुकान लगी हुई और क्या-क्या चीज़ें रखी थीं कि मैं सब भूल गई और उन्हें देखने लगी। तरह तरह की डिबियां और विलायती बक्स थे जो मैंने कभी न देखे थे। मैंने सबसे पेशतर झट से एक सुनहरा गोल डिब्बा उठा लिया। मैं उसको तारीफ़ की निगाह से देख रही थी। ये गिनी के सोने का डिब्बा था और उस पर सच्ची सीप का नफ़ीस काम हुआ था। ऊदी ऊदी कुन्दन की झलक भी थी। ढकना तो देखने ही से ताल्लुक़ रखता था। उस में मोती जड़े हुए थे और कई क़तारें नन्हे नन्हे समुंदरी घोंघों की इस ख़ूबसूरती से सोने में जड़ी हुई थीं कि मैं दंग रह गई। मैंने उसे खोल कर देखा तो एक छोटा सा पाउडर लगाने का पफ़ रखा हुआ था और उसके अंदर सुर्ख़-रंग का पाउडर रखा हुआ था। मैंने पफ़ निकाल कर उस के नर्म-नर्म रोएँ देखे जिन पर ग़ुबार की तरह पाउडर के महीन ज़र्रे गोया नाच रहे थे। ये देखने के लिए ये कितना नर्म है
मैंने उसको अपने गाल पर आहिस्ता-आहिस्ता फिराया और फिर उसको वापस उसी तरह रख दिया। मुझे ख़्याल भी न आया कि मरे गाल पर सुर्ख़ पाउडर जम गया। मैंने डिब्बा को रखा ही था कि मेरी नज़र एक थैली पर पड़ी। यह सब्ज़ मख़मल की थैली थी। जिस पर सुनहरी काम में मुख़्तलिफ़ तस्वीरें बनी हुई थीं। मैंने उसको उठाया तो मेरे ताज्जुब की कोई इंतिहा न रही। क्योंकि दरअसल ये विलायती रबड़ की थैली थी
जो मख़मल से भी ज़्यादा ख़ूबसूरत और नर्म थी


मैंने ग़ौर से सुनहरी काम को देखा। खोल कर जो देखा तो अंदर दो चांदी के बालों में करने के ब्रश थे और एक उन ही के जोड़ का कंघा था। मैंने उसको भी रख दिया और छोटी ख़ूबसूरत डिबियों को देखा। किसी में सेफ़्टी पिन था
किसी में ख़ूबसूरत सा बरोच था और किसी में फूल था। ग़रज़ तरह तरह के बरोच और ब्लाउज़ पिन वग़ैरा थे। दो तीन डिबियां उनमें ऐसी थीं जो अजीब शक्ल थीं। मसलन एक बिल्कुल किताब की तरह थी और एक क्रिकेट के बल्ले की तरह थी। उनमें बा'ज़ ऐसी भी थीं जो मुझसे किसी तरह भी न खुलीं। इलावा उनके सिगरेट केस
दिया-सलाई का बक्स वग़ैरा वग़ैरा। सब ऐसी कि बस उनको देखा ही करे।
मैं उनको देख ही रही थी कि एक मख़मल के डिब्बे का कोना ट्रंक में रेशमी रुमालों में मुझे दबा हुआ नज़र आया। मैंने उसको निकाला। खोल कर देखा तो अंदर बहुत से छोटे-छोटे नाख़ुन काटने और घिसने के औज़ार रखे हुए थे और ढकने में एक छोटा सा आईना लगा हुआ था। मैंने उसको जूं का तूं उसी जगह रखा तो मेरे हाथ एक और मख़मल का डिब्बा लगा। उसको जो मैंने निकाल कर खोला तो उसके अंदर से सब्ज़-रंग का एक फ़ाउंटेनपेन निकला। जिस पर सोने की जाली का ख़ौल चढ़ा हुआ था। मैंने उसको भी रख दिया। इधर-उधर देखने लगी कि एक छोटी से सुनहरी रंग की डिबिया पर नज़र पड़ी। उसको मैंने खोलना चाहा। मगर वो कम्बख़्त न खुलना थी न खुली। मैं इस को खोल ही रही थी कि एक लकड़ी के बक्स का कोना नज़र पड़ा। मैंने उसको फ़ौरन ट्रंक से निकाल कर देखा। ये एक भारी सा ख़ूबसूरत बक्स था। उसको जो मैंने खोला तो मैं दंग रह गई। उसके अंदर से एक साफ़-शफ़्फ़ाफ़ बिलौर का इत्रदान निकला जो कोई बालिशत भर लंबा और इसी मुनासबत से चौड़ा था। मैंने उसको निकाल कर ग़ौर से देखा और लकड़ी का बक्स जिसमें ये बंद था


अलग रख दिया
अजीब चीज़ थी। उसके अंदर की तमाम चीज़ें बाहर से नज़र आ रही थीं। उसके अंदर चौबीस छोटी छोटी इतर की क़लमें रखी हुई थीं। जिनके ख़ुशनुमा रंग रोशनी में बिलौर में से गुज़र कर अजीब बहार दिखा रहे थे। मैं उसको चारों तरफ़ से देखती रही और फिर खोलना चाहा। जहां-जहां भी जो बटन नज़र आए मैंने दबाए मगर ये न खुला। मैं उसको देख रही थी कि मेरी नज़र किसी तस्वीर के कोने पर पड़ी जो ट्रंक में ज़रा नीचे को रखी थी। मैंने तस्वीर को खींच कर निकाला कि उसके साथ साथ एक मख़मल की डिबिया रुमालों और टाइयों में लुढ़कती हुई चली आई और खुल गई।
क्या देखती हूँ कि उस में एक ख़ूबसूरत अँगूठी जगमग-जगमग कर रही है। फ़ौरन तस्वीर को छोड़कर मैंने उस डिबिया को उठाया और अँगूठी को निकाल कर देखा। बीच में उसके एक नीलगूं रंग था और इर्द-गिर्द सफ़ेद सफ़ेद हीरे जड़े थे। जिन पर निगाह न जमती थी। मैंने इस ख़ूबसूरत अँगूठी को ग़ौर से देखा और अपनी उंगलियों में डालना शुरू किया। किसी में तंग थी तो किसी में ढीली। मगर सीधे हाथ की छंगुली के पास वाली उंगली में मैंने उस को ज़ोर देकर किसी न किसी तरह तमाम पहन तो लिया और फिर हाथ ऊंचा कर के उसके नगीनों की दमक देखने लगी। मैं उसे देख-भाल कर डिबिया में रखने के लिए उतारने लगी तो मालूम हुआ कि फंस गई है। मेरे बाएं हाथ में वो बिल्लौर का इत्रदान बदस्तूर मौजूद था और मैं उसको रखने ही को हुई ताकि उंगली में फंसी हुई अँगूठी को उतारुं कि इका एकी मेरी नज़र उस तस्वीर पर पड़ी जो सामने रखी थी और जिसको मैं सबसे पेशतर देखना चाहती थी। उस पर हवा सा बारीक काग़ज़ था जिसकी सफ़ेदी में से तस्वीर के रंग झलक रहे थे। मैं इत्रदान तो रखना भूल गई और फ़ौरन ही सीधे हाथ से तस्वीर को उठा लिया और काग़ज़ हटा कर जो देखा तो मालूम हुआ कि ये सब सामान बैरिस्टर साहिब का है कि ये उन्ही की तस्वीर थी। ये किसी विलायती दुकान की बनी हुई थी और रंगीन थी। मैं बड़े ग़ौर से देख रही थी और दिल में कह रही थी कि अगर ये सही है तो वाक़ई बैरिस्टर साहिब ग़ैरमामूली तौर पर ख़ूबसूरत आदमी हैं। चेहरे का रंग हल्का गुलाबी था। स्याह बाल थे और आड़ी मांग निकली हुई थी। चेहरा
आँख


नाक
ग़रज़ हर चीज़ इस सफ़ाई से अपने रंग में मौजूद थी कि मैं सोच रही थी कि मैं ज़्यादा ख़ूबसूरत हूँ या ये। कोट की धारियाँ होशयार मुसव्विर ने अपने असली रंग में इस ख़ूबी से दिखाई थीं कि हर एक डोरा अपने रंग में साफ़ नज़र आ रहा था।
मैं उस तस्वीर को देखने में बिल्कुल मह्व थी कि देखते देखते हवा की रमक़ से वो कम्बख़्त बारीक सा काग़ज़ देखने में मुतहम्मिल होने लगा। मैंने तस्वीर को झटक कर अलग किया क्योंकि बायां हाथ घिरा हुआ था। उस में वही बिल्लौर का इत्रदान था फिर उसी तरह काग़ज़ उड़ कर आया और तस्वीर को ढक दिया। मैंने झटक कर अलग करना चाहा। मगर वो चिपक सा गया और अलैहदा न हुआ। तो मैंने मुँह से फूँका और जब भी वो न हटा तो मैंने उंह कर के बाएं हाथ की उंगली से जो काग़ज़ को हटाया तो वो बिललौर का इत्रदान भारी तो था ही हाथ से फिसल कर छूट पड़ा और छन से पुख़्ता फ़र्श पर गिर कर खेल खेल हो गया।
मैं धक से हो गई और चेहरा फ़क़ हो गया। तस्वीर को एक तरफ़ फेंक के एक दम से शिकस्ता इत्रदान के टुकड़े उठा कर मिलाने लगी कि एक नर्म आवाज़ बिल्कुल क़रीब से आई


तकलीफ़ न कीजिए
आप ही का था। आँख उठा कर जो देखा तो जीती-जागती असली तस्वीर बैरिस्टर साहिब की सामने खड़ी है! ताज्जुब! इस ताज्जुब ने मुझे सकते में डाल दिया कि इलाही ये किधर से आ गए। दो तीन सेकंड तो कुछ समझ में न आया कि क्या करूँ कि एक दम से मैंने टूटे हुए गुलदान के टुकड़े फेंक दिए और दोनों हाथों से मुँह छुपा कर झट से दरवाज़ा की आड़ में हो गई।
(4)
मेरी हालत भी उस वक़्त अजीब क़ाबिल-ए-रहम थी। बल्लियों दिल उछल रहा था ये पहला मौक़ा था जो मैं किसी नामुहरम और ग़ैर शख़्स के साथ इस तरह एक तन्हाई के मुक़ाम पर थी। इस पर तुर्रा ये कि ऐन चोरी करते पकड़ी गई। सारा ट्रंक कुरेद कुरेद कर फेंक दिया था और फिर इत्रदान तोड़ डाला और निहायत ही बेतकल्लुफ़ी से अँगूठी पहन रखी थी।


ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की नीचे थी। सारे बदन में एक सनसनी और रअशा सा था कि ज़रा होश बजा हुए तो फ़ौरन अँगूठी का ख़्याल आया। जल्दी जल्दी उसे उतारने लगी। तरह तरह से घुमाया। तरह तरह से उंगली को दबाया और अँगूठी को खींचा। मगर जल्दी में वो और भी न उतरी। जितनी देर लग रही थी
उतना ही और घबरा रही थी। पल पल भारी था
और मैं काँपते हुए हाथों से हर तरह अँगूठी उतारने को कोशिश कर रही थी। मगर वो न उतरती थी। ग़ुस्से में मैंने उंगली मरोड़ डाली। मगर क्या होता था। ग़रज़ मैं बेतरह अँगूठी उतारने की कोशिश कर रही थी कि इतने में बैरिस्टर साहिब ने कहा
शुक्र है कि अँगूठी आपको पसंद तो आ गई।


ये सुनकर मेरे तन-बदन में पसीना आ गया और मैं गोया कट मरी। मैंने दिल में कहा कि मैं मुँह छुपा कर जो भागी तो शायद अँगूठी उन्होंने देख ली। और वाक़िया भी दरअसल यही था। इस जुमले ने मेरे ऊपर गोया सितम ढाया। मैंने सुनकर और भी जल्दी जल्दी उसको उतारने की कोशिश की मगर वो अँगूठी कम्बख़्त ऐसी फंसी थी कि उतरने का नाम ही न लेती थी। मेरा दिल इंजन की तरह चल रहा था और मैं कटी जा रही थी और हैरान थी कि क्योंकर इस नामुराद अँगूठी को उतारुं।
इतने में बैरिस्टर साहिब आड़ से ही बोले
उसमें से अगर और कोई चीज़ पसंद हो तो वो भी ले लीजिए। मैंने ये सुनकर अपनी उंगली मरोड़ तो डाली कि ये ले तेरी ये सज़ा है
मगर भला इससे किया होता था? ग़रज़ मैं हैरान और ज़च होने के इलावा मारे शर्म के पानी पानी हुई जाती थी।


इतने में बैरिस्टर साहिब फिर बोले
चूँकि ये महज़ इत्तिफ़ाक़ की बात है कि मुझे अपनी मंसूबा बीवी से बातें करने का बल्कि मुलाक़ात करने का मौक़ा मिल गया है लिहाज़ा मैं इस ज़रीं मौक़े को किसी तरह हाथ से नहीं खो सकता।
ये कह कर वो दरवाज़े से निकल कर सामने आ खड़े हुए और मैं गोया घिर गई। मैं शर्म-ओ-हया से पानी पानी हो गई और मैंने सर झुका कर अपना मुँह दोनों हाथों से छिपा कर कोन में मोड़ लिया। किवाड़ में घुसी जाती थी। मेरी ये हालत-ए-ज़ार देखकर शायद बैरिस्टर साहिब ख़ुद शर्मा गए और उन्होंने कहा
मैं गुस्ताख़ी की माफ़ी चाहता हूँ मगर... ये कह कर सामने मसहरी से चादर खींच कर मेरे ऊपर डाल दी और ख़ुद कमरे से बाहर जा कर कहने लगे


आप मेहरबानी फ़रमा कर मसहरी पर बैठ जाईए और इत्मिनान रखिए कि मैं अंदर न आऊँगा। बशर्तिके आप मेरी चंद बातों के जवाब दें।
मैंने उसको ग़नीमत जाना और मसहरी पर चादर लपेट कर बैठ गई कि बैरिस्टर साहिब ने कहा
आप मेरी गुस्ताख़ी से ख़फ़ा तो नहीं हुईं?
मैं बदस्तूर ख़ामोश अँगूठी उतारने की कोशिश में लगी रही और कुछ न बोली बल्कि और तेज़ी से कोशिश करने लगी ताकि अँगूठी जल्द उतर जाये।


इतने में बैरिस्टर साहिब बोले
बोलिए साहिब जल्दी बोलिए। मैं फिर ख़ामोश रही तो उन्होंने कहा
आप जवाब नहीं देतीं तो फिर मैं हाज़िर होता हूँ।
मैं घबरा गई और मजबूरन मैंने दबी आवाज़ से कहा! जी नहीं


मैं बराबर अँगूठी उतारने की कोशिश में मशग़ूल थी।
बैरिस्टर साहिब ने कहा
शुक्रिया। ये अँगूठी आपको बहुत पसंद है?
या अल्लाह


मैंने तंग हो कर कहा
मुझे मौत दे। ये सुनकर मैं दरअसल दीवानावार उंगली को नोचने लगी। क्या कहूं मेरा क्या हाल था। मेरा बस न था कि उंगली काट कर फेंक दूं। मैंने उसका कुछ जवाब न दिया कि इतने में बैरिस्टर ने फिर तक़ाज़ा किया। मैं अपने आपको कोस रही थी और दिल में कह रही थी कि भला उसका क्या जवाब दूं। अगर कहती हूँ कि पसंद है तो शर्म आती है और अगर नापसंद कहती हूँ तो भला किस मुँह से कहूं। क्योंकि अंदेशा था कि कहीं वो ये न कहदें कि नापसंद है। तो फिर पहनी क्यों? मैं चुप रही और फिर कुछ न बोली।
इतने में बैरिस्टर साहिब ने कहा
शुक्र है इत्रदान तो आपको ऐसा पसंद आया कि आपने उसको बरत कर ख़त्म भी कर दिया। और गोया मेरी मेहनत वसूल हो गई


मगर अँगूठी के बारे में आप अपनी ज़बान से और कुछ कह दें ताकि मैं समझूं कि इसके भी दाम वसूल हो गए।
मैं ये सुनकर अब मारे ग़ुस्से और शर्म के रोने के क़रीब हो गई थी और तमाम ग़ुस्सा उंगली पर उतार रही थी
गोया उसने इत्रदान तोड़ा था। मैं इत्रदान तोड़ने पर सख़्त शर्मिंदा थी और मेरी ज़बान से कुछ भी न निकलता था।
जब मैं कुछ न बोली तो बैरिस्टर साहिब ने कहा


आप जवाब नहीं देतीं लिहाज़ा में हाज़िर होता हूँ।
मैं घबरा गई कि कहीं आ न जाएं और मैंने जल्दी से कहा
भला इस बात का मैं क्या जवाब दूं। मैं सख़्त शर्मिंदा हूँ कि आपका इत्रदान...
बात काट कर बैरिस्टर साहिब ने कहा


ख़ूब! वो इत्रदान तो आपका ही था। आपने तोड़ डाला
ख़ूब किया। मेरा ख़्याल है कि अँगूठी भी आपको पसंद है जो ख़ुशक़िस्मती से आपकी उंगली में बिल्कुल ठीक आई है और आप उसको अब तक अज़ राह-ए-इनायत पहने हुई हैं।
मैं अब क्या बताऊं कि ये सुनकर मेरा क्या हाल हुआ
मैं ने दिल में कहा


ख़ूब अँगूठी ठीक आई और ख़ूब पहने हुए हूँ। अँगूठी न हुई गले की फांसी हो गई। जो ऐसी ठीक आई कि उतरने का नाम ही नहीं लेती। मैंने दिल में ये भी सोचा कि अगर ये कम्बख़्त मेरी उंगली में न फंस गई होती तो काहे को मैं बेहया बनती और उन्हें ये कहने का मौक़ा मिलता कि आप पहने हुए हैं। ख़ुदा ही जानता है कि इस नामुराद अँगूठी को उतारने के लिए क्या-क्या जतन कर चुकी हूँ
और बराबर कर रही थी। मगर वो तो ऐसी फंसी थी कि उतरने का नाम ही न लेती थी। मैं फिर ख़ामोश रही और कुछ न बोली। मगर अँगूठी उतारने की बराबर कोशिश कर रही थी।
बैरिस्टर साहिब ने मेरी ख़ामोशी पर कहा
आप फिर जवाब से पहलू-तही कर रही हैं। पसंद है या नापसंद। इन दो जुमलों में से एक कह दीजिए।


मैंने फिर ग़ुस्से में उंगली को नोच डाला और क़िस्सा ख़त्म करने के लिए एक और ही लफ़्ज़ कह दिया
अच्छी है।
जी नहीं। बैरिस्टर साहिब ने कहा
अच्छी है और आपको पसंद नहीं तो किस काम की। इलावा इसके अच्छी तो ख़ुद दुकानदार ने कह कर दी थी


और मैं ये पूछता भी नहीं
आप बताईए कि आपको पसंद है या नापसंद
वर्ना फिर हाज़िर होने की इजाज़त दीजिए।
मैंने दिल में कहा ये क़तई घुस आएँगे और फिर झक मार कर कहना ही पड़ेगा


लिहाज़ा कह दिया
पसंद है। ये कह कर में दाँत पीस कर फिर उंगली नोचने लगी।
शुक्रिया। बैरिस्टर साहिब ने कहा
सद शुक्रिया। और अब आप जा सकती हैं। लेकिन एक अर्ज़ है और वो ये कि ये अँगूठी तो बेशक आपकी है और शायद आप उसको पहन कर उतारना भी नहीं चाहती हैं। लेकिन मुझको मजबूरन आपसे दरख़ास्त करना पड़ रही है कि शाम को मुझको चूँकि और चीज़ों के साथ उसको रस्मन भिजवाना है लिहाज़ा अगर ना

- मिर्ज़ा-अज़ीम-बेग़-चुग़ताई


ये उस ज़माने का ज़िक्र है जब इस जंग का नाम-ओ-निशान भी नहीं था। ग़ालिबन आठ नौ बरस पहले की बात है जब ज़िंदगी में हंगामे बड़े सलीक़े से आते थे। आज कल की तरह नहीं कि बेहंगम तरीक़े पर पै-दर-पै हादिसे बरपा हो रहे हैं
किसी ठोस वजह के बग़ैर।
उस वक़्त मैं चालीस रुपया माहवार पर एक फ़िल्म कंपनी में मुलाज़िम था और मेरी ज़िंदगी बड़े हमवार तरीक़े पर उफ़्तां-ओ-ख़ेज़ां गुज़र रही थी। या’नी सुबह दस बजे स्टूडियो गए। नियाज़ मोहम्मद विलेन की बिल्लियों को दो पैसे का दूध पिलाया। चालू फ़िल्म के लिए चालू क़िस्म के मकालमे लिखे। बंगाली ऐक्ट्रस से जो उस ज़माने में बुलबुल-ए-बंगाल कहलाती थी
थोड़ी देर मज़ाक़ किया और दादा गोरे की जो इस अह्द का सबसे बड़ा फ़िल्म डायरेक्टर था


थोड़ी सी ख़ुशामद की और घर चले आए।
जैसा कि मैं अ’र्ज़ कर चुका हूँ
ज़िंदगी बड़े हमवार तरीक़े पर उफ़्तां-ओ-ख़ेज़ां गुज़र रही थी स्टूडियो का मालिक “हुरमुज़ जी फ्रॉम जी” जो मोटे मोटे लाल गालों वाला मौजी क़िस्म का ईरानी था
एक अधेड़ उम्र की ख़ोजा ऐक्ट्रस की मोहब्बत में गिरफ़्तार था।


हर नौ-वारिद लड़की के पिस्तान टटोल कर देखना उसका शग़ल था। कलकत्ता के बू बाज़ार की एक मुसलमान रंडी थी जो अपने डायरेक्टर
साउंड रिकार्डिस्ट और स्टोरी राईटर तीनों से ब-यक-वक़्त इश्क़ लड़ा रही थी। उस इश्क़ का दर अस्ल मतलब ये था कि न तीनों का इलतिफ़ात उसके लिए ख़ासतौर पर महफ़ूज़ रहे।
“बन की सुंदरी” की शूटिंग चल रही थी। नयाज़ मोहम्मद विलेन की जंगली बिल्लियों को जो उसने ख़ुदा मालूम स्टूडियो के लोगों पर क्या असर पैदा करने के लिए पाल रखी थीं। दो पैसे का दूध पिला कर मैं हर रोज़ उस “बन की सुंदरी” के लिए एक ग़ैर मानूस ज़बान में मकालमे लिखा करता था।
उस फ़िल्म की कहानी क्या थी


प्लाट कैसा था
इसका इल्म जैसा कि ज़ाहिर है
मुझे बिल्कुल नहीं था क्योंकि मैं उस ज़माने में एक मुंशी था जिसका काम सिर्फ़ हुक्म मिलने पर जो कुछ कहा जाये
ग़लत सलत उर्दू में जो डायरेक्टर साहब की समझ में आ जाए


पेंसिल से एक काग़ज़ पर लिख कर देना होता था।
ख़ैर “बन की सुंदरी” की शूटिंग चल रही थी और ये अफ़वाह गर्म थी कि “वैम्प” का पार्ट अदा करने के लिए एक नया चेहरा सेठ हुर्मुज़ जी फ्रॉम जी कहीं से ला रहे हैं। हीरो का पार्ट राजकिशोर को दिया गया था।
राजकिशोर रावलपिंडी का एक ख़ुश शक्ल और सेहत मंद नौजवान था। उसके जिस्म के मुतअ’ल्लिक़ लोगों का ये ख़याल था कि बहुत मर्दाना और सुडौल है। मैंने कई मर्तबा उसके मुतअ’ल्लिक़ ग़ौर किया मगर मुझे उसके जिस्म में जो यक़ीनन कसरती और मुतनासिब था
कोई कशिश नज़र न आई। मगर उसकी वजह ये भी हो सकती है कि मैं बहुत ही दुबला और मरियल क़िस्म का इंसान हूँ और अपने हम जिंसों के मुतअ’ल्लिक़ सोचने का आदी हूँ।


मुझे राजकिशोर से नफ़रत नहीं थी
इसलिए कि मैंने अपनी उम्र में शाज़-ओ-नादिर ही किसी इंसान से नफ़रत की है
मगर वो मुझे कुछ ज़्यादा पसंद नहीं था। इसकी वजह मैं आहिस्ता आहिस्ता आप से बयान करूंगा।
राजकिशोर की ज़बान उसका लब-ओ-लहजा जो ठेट रावलपिंडी का था


मुझे बेहद पसंद था। मेरा ख़याल है कि पंजाबी ज़बान में अगर कहीं ख़ूबसूरत क़िस्म की शीरीनी मिलती है तो रावलपिंडी की ज़बान ही में आपको मिल सकती है। इस शहर की ज़बान में एक अ’जीब क़िस्म की मर्दाना निसाइयत है जिसमें ब-यक-वक़्त मिठास और घुलावट है।
अगर रावलपिंडी की कोई औरत आपसे बात करे तो ऐसा लगता है कि लज़ीज़ आम का रस आपके मुँह में चुवाया जा रहा है। मगर मैं आमों की नहीं राजकिशोर की बात कर रहा हूँ जो मुझे आम से बहुत कम अ’ज़ीज़ था।
राजकिशोर जैसा कि मैं अ’र्ज़ कर चुका हूँ एक ख़ुश शक्ल और सेहतमंद नौजवान था। यहां तक बात ख़त्म हो जाती तो मुझे कोई ए’तराज़ न होता मगर मुसीबत ये है कि उसे या’नी किशोर को ख़ुद अपनी सेहत और अपने ख़ुश शक्ल होने का एहसास था। ऐसा एहसास जो कम अज़ कम मेरे लिए नाक़ाबिल-ए-क़बूल था।
सेहतमंद होना बड़ी अच्छी चीज़ है मगर दूसरों पर अपनी सेहत को बीमारी बना कर आ’इद करना बिल्कुल दूसरी चीज़ है। राजकिशोर को यही मर्ज़ लाहक़ था कि वो अपनी सेहत अपनी तंदुरुस्ती


अपने मुतनासिब और सुडौल आ’ज़ा की ग़ैर ज़रूरी नुमाइश के ज़रिये हमेशा दूसरे लोगों को जो उस से कम सेहतमंद थे
मरऊब करने की कोशिश में मसरूफ़ रहता था।
इसमें कोई शक नहीं कि मैं दाइमी मरीज़ हूँ
कमज़ोर हूँ


मेरे एक फेफड़े में हवा खींचने की ताक़त बहुत कम है मगर ख़ुदा वाहिद शाहिद है कि मैंने आज तक इस कमज़ोरी का कभी प्रोपेगंडा नहीं किया
हालाँकि मुझे इसका पूरी तरह इल्म है कि इंसान अपनी कमज़ोरियों से उसी तरह फ़ायदा उठा सकता है जिस तरह कि अपनी ताक़तों से उठा सकता है मगर ईमान है कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए।
ख़ूबसूरती मेरे नज़दीक वो ख़ूबसूरती है जिसकी दूसरे बुलंद आवाज़ में नहीं बल्कि दिल ही दिल में तारीफ़ करें।
मैं उस सेहत को बीमारी समझता हूँ जो निगाहों के साथ पत्थर बन कर टकराती रहे। राजकिशोर में वो तमाम ख़ूबसूरतियाँ मौजूद थीं जो एक नौजवान मर्द में होनी चाहिऐं। मगर अफ़सोस है कि उसे उन ख़ूबसूरतियों का निहायत ही भोंडा मुज़ाहिरा करने की आदत थी।


आपसे बात कर रहा है और अपने एक बाज़ू के पट्ठे अकड़ा रहा है
और ख़ुद ही दाद दे रहा है। निहायत ही अहम गुफ़्तुगू हो रही है या’नी स्वराज का मसला छिड़ा है और वो अपने खादी के कुर्ते के बटन खोल कर अपने सीने की चौड़ाई का अंदाज़ा कर रहा है।
मैंने खादी के कुरते का ज़िक्र किया तो मुझे याद आया कि राजकिशोर पक्का कांग्रेसी था
हो सकता है वो इसी वजह से खादी के कपड़े पहनता हो


मगर मेरे दिल में हमेशा इस बात की खटक रही है कि उसे अपने वतन से इतना प्यार नहीं था जितना कि उसे अपनी ज़ात से था।
बहुत लोगों का ख़याल था कि राजकिशोर के मुतअ’ल्लिक़ जो मैंने राय क़ायम की है
सरासर ग़लत है इसलिए कि स्टूडियो और स्टूडियो के बाहर हर शख़्स उसका मद्दाह था। उसके जिस्म का
उसके ख़यालात का


उसकी सादगी का
उसकी ज़बान का जो ख़ास रावलपिंडी की थी और मुझे भी पसंद थी।
दूसरे एक्टरों की तरह वो अलग-थलग रहने का आदी नहीं था। कांग्रेस पार्टी का कोई जलसा हो तो राजकिशोर को आप वहां ज़रूर पाएंगे... कोई अदबी मीटिंग हो रही है तो राजकिशोर वहां ज़रूर पहुंचेगा। अपनी मसरूफ़ ज़िंदगी में से वो अपने हमसायों और मामूली जान पहचान के लोगों के दुख दर्द में शरीक होने के लिए भी वक़्त निकाल लिया करता था।
सब फ़िल्म प्रोडयूसर उसकी इज़्ज़त करते थे क्योंकि उसके कैरेक्टर की पाकीज़गी का बहुत शोहरा था। फ़िल्म प्रोडयूसरों को छोड़िए


पब्लिक को भी इस बात का अच्छी तरह इल्म था कि राजकिशोर एक बहुत बुलंद किरदार का मालिक है।
फ़िल्मी दुनिया में रह कर किसी शख़्स का गुनाह के धब्बों से पाक रहना बहुत बड़ी बात है
यूं तो राजकिशोर एक कामयाब हीरो था मगर उसकी ख़ूबी ने उसे एक बहुत ही ऊंचे रुतबे पर पहुंचा दिया था।
नागपाड़े में जब शाम को पान वाले की दुकान पर बैठता था तो अक्सर ऐक्टर एक्ट्रसों की बातें हुआ करती थीं। क़रीब क़रीब हर ऐक्टर और ऐक्ट्रस के मुतअ’ल्लिक़ कोई न कोई स्कैंडल मशहूर था मगर राजकिशोर का जब भी ज़िक्र आता


शामलाल पनवाड़ी बड़े फ़ख़्रिया लहजे में कहा करता
“मंटो साहब! राज भाई ही ऐसा ऐक्टर है जो लंगोट का पक्का है।”
मालूम नहीं शामलाल उसे राज भाई कैसे कहने लगा था। उसके मुतअ’ल्लिक़ मुझे इतनी ज़्यादा हैरत नहीं थी
इसलिए कि राज भाई की मामूली से मामूली बात भी एक कारनामा बन कर लोगों तक पहुंच जाती थी।


मसलन बाहर के लोगों को उसकी आमदनी का पूरा हिसाब मालूम था। अपने वालिद को माहवार ख़र्च क्या देता है
यतीमख़ानों के लिए कितना चंदा देता है
उसका अपना जेब ख़र्च क्या है
ये सब बातें लोगों को इस तरह मालूम थीं जैसे उन्हें अज़बर याद कराई गई हैं।


शामलाल ने एक रोज़ मुझे बताया कि राज भाई का अपनी सौतेली माँ के साथ बहुत ही अच्छा सुलूक है। उस ज़माने में जब आमदनी का कोई ज़रिया नहीं था
बाप और उसकी नई बीवी उसे तरह तरह के दुख देते थे। मगर मर्हबा है राज भाई का कि उसने अपना फ़र्ज़ पूरा किया और उनको सर आँखों पर जगह दी। अब दोनों छप्पर खटों पर बैठे राज करते हैं। हर रोज़ सुबह-सवेरे राज अपनी सौतेली माँ के पास जाता है और उसके चरण छूता है। बाप के सामने हाथ जोड़ के खड़ा हो जाता है और जो हुक्म मिले
फ़ौरन बजा लाता है।
आप बुरा न मानिएगा


मुझे राजकिशोर की तारीफ़-ओ-तौसीफ़ सुन कर हमेशा उलझन सी होती है
ख़ुदा जाने क्यों?
मैं जैसा कि पहले अ’र्ज़ कर चुका हूँ
मुझे उससे हाशा-ओ-कल्ला नफ़रत नहीं थी। उसने मुझे कभी ऐसा मौक़ा नहीं दिया था


और फिर उस ज़माने में जब मुंशियों की कोई इज़्ज़त-ओ-वक़अ’त ही नहीं थी वो मेरे साथ घंटों बातें किया करता था। मैं नहीं कह सकता
क्या वजह थी
लेकिन ईमान की बात है कि मेरे दिल-ओ-दिमाग़ के किसी अंधेरे कोने में ये शक बिजली की तरह कौंद जाता कि राज बन रहा है... राज की ज़िंदगी बिल्कुल मस्नूई है। मगर मुसीबत ये है कि मेरा कोई हमख़याल नहीं था। लोग देवताओं की तरह उसकी पूजा करते थे और मैं दिल ही दिल में उससे कुढ़ता था।
राज की बीवी थी


राज के चार बच्चे थे
वो अच्छा ख़ाविंद और अच्छा बाप था। उसकी ज़िंदगी पर से चादर का कोई कोना भी अगर हटा कर देखा जाता तो आपको कोई तारीक चीज़ नज़र न आती। ये सब कुछ था
मगर इसके होते हुए भी मेरे दिल में शक की गुदगुदी होती ही रहती थी।
ख़ुदा की क़सम मैं ने कई दफ़ा अपने आपको ला’नत मलामत की कि तुम बड़े ही वाहियात हो कि ऐसे अच्छे इंसान को जिसे सारी दुनिया अच्छा कहती है और जिसके मुतअ’ल्लिक़ तुम्हें कोई शिकायत भी नहीं


क्यों बेकार शक की नज़रों से देखते हो। अगर एक आदमी अपना सुडौल बदन बार बार देखता है तो ये कौन सी बुरी बात है। तुम्हारा बदन भी अगर ऐसा ही ख़ूबसूरत होता तो बहुत मुम्किन है कि तुम भी यही हरकत करते।
कुछ भी हो
मगर मैं अपने दिल-ओ-दिमाग़ को कभी आमादा न कर सका कि वो राजकिशोर को उसी नज़र से देखे जिससे दूसरे देखते हैं। यही वजह है कि मैं दौरान-ए-गुफ़्तुगू में अक्सर उससे उलझ जाया करता था। मेरे मिज़ाज के ख़िलाफ़ कोई बात की और मैं हाथ धो कर उसके पीछे पड़ गया लेकिन ऐसी चिपक़लिशों के बाद हमेशा उसके चेहरे पर मुस्कुराहट और मेरे हलक़ में एक नाक़ाबिल-ए-बयान तल्ख़ी रही
मुझे इससे और भी ज़्यादा उलझन होती थी।


इसमें कोई शक नहीं कि उसकी ज़िंदगी में कोई स्कैंडल नहीं था। अपनी बीवी के सिवा किसी दूसरी औरत का मैला या उजला दामन उससे वाबस्ता नहीं था। मैं ये भी तस्लीम करता हूँ कि वो सब एक्ट्रसों को बहन कह कर पुकारता था और वो भी उसे जवाब में भाई कहती थीं। मगर मेरे दिल ने हमेशा मेरे दिमाग़ से यही सवाल किया कि ये रिश्ता क़ायम करने की ऐसी अशद ज़रूरत ही क्या है।
बहन-भाई का रिश्ता कुछ और है मगर किसी औरत को अपनी बहन कहना इस अंदाज़ से जैसे ये बोर्ड लगाया जा रहा है कि सड़क बंद है या यहां पेशाब करना मना है
बिल्कुल दूसरी बात है।
अगर तुम किसी औरत से जिंसी रिश्ता क़ायम नहीं करना चाहते तो इसका ऐ’लान करने की ज़रूरत ही क्या है। अगर तुम्हारे दिल में तुम्हारी बीवी के सिवा और किसी औरत का ख़याल दाख़िल नहीं हो सकता तो इसका इश्तिहार देने की क्या ज़रूरत है। यही और इसी क़िस्म की दूसरी बातें चूँकि मेरी समझ में नहीं आती थीं


इसलिए मुझे अ’जीब क़िस्म की उलझन होती थी।
ख़ैर!
“बन की सुंदरी” की शूटिंग चल रही थी। स्टूडियो में ख़ासी चहल पहल थी। हर रोज़ एक्स्ट्रा लड़कियां आती थीं जिनके साथ हमारा दिन हंसी-मज़ाक़ में गुज़र जाता था।
एक रोज़ नियाज़ मोहम्मद विलेन के कमरे में मेकअप मास्टर जिसे हम उस्ताद कहते थे


ये ख़बर ले कर आया कि वैम्प के रोल के लिए जो नई लड़की आने वाली थी
आ गई है और बहुत जल्द उसका काम शुरू हो जाएगा।
उस वक़्त चाय का दौर चल रहा था
कुछ उसकी हरारत थी


कुछ इस ख़बर ने हमको गर्मा दिया। स्टूडियो में एक नई लड़की का दाख़िला हमेशा एक ख़ुशगवार हादिसा हुआ करता है
चुनांचे हम सब नियाज़ मोहम्मद विलेन के कमरे से निकल कर बाहर चले आए ताकि उसका दीदार किया जाये।
शाम के वक़्त जब सेठ हुर्मुज़ जी फ्रॉम जी ऑफ़िस से निकल कर ईसा तबलची की चांदी की डिबिया से दो ख़ुशबूदार तंबाकू वाले पान अपने चौड़े कल्ले में दबा कर बिलियर्ड खेलने के कमरे का रुख़ कर रहे थे कि हमें वो लड़की नज़र आई।
साँवले रंग की थी


बस मैं सिर्फ़ इतना ही देख सका क्योंकि वो जल्दी जल्दी सेठ के साथ हाथ मिला कर स्टूडियो की मोटर में बैठ कर चली गई... कुछ देर के बाद मुझे नियाज़ मोहम्मद ने बताया कि उस औरत के होंट मोटे थे। वो ग़ालिबन सिर्फ़ होंट ही देख सका था। उस्ताद जिसने शायद इतनी झलक भी न देखी थी
सर हिला कर बोला
“हूँह... कंडम...” या’नी बकवास है।
चार-पाँच रोज़ गुज़र गए मगर ये नई लड़की स्टूडियो में न आई। पांचवें या छट्ठे रोज़ जब मैं गुलाब के होटल से चाय पी कर निकल रहा था


अचानक मेरी और उसकी मुडभेड़ होगई।
मैं हमेशा औरतों को चोर आँख से देखने का आदी हूँ। अगर कोई औरत एक दम मेरे सामने आजाए तो मुझे उसका कुछ भी नज़र नहीं आता। चूँकि ग़ैर मुतवक़्क़े तौर पर मेरी उसकी मुडभेड़ हुई थी
इस लिए मैं उसकी शक्ल-ओ-शबाहत के मुतअ’ल्लिक़ कोई अंदाज़ा न कर सका
अलबत्ता पांव मैंने ज़रूर देखे जिनमें नई वज़ा के स्लीपर थे।


लेबोरेटरी से स्टूडियो तक जो रविश जाती है
उस पर मालिकों ने बजरी बिछा रखी है। उस बजरी में बेशुमार गोल गोल बट्टियां हैं जिनपर से जूता बार बार फिसलता है। चूँकि उसके पांव में खुले स्लीपर थे
इसलिए चलने में उसे कुछ ज़्यादा तकलीफ़ महसूस हो रही थी।
उस मुलाक़ात के बाद आहिस्ता आहिस्ता मिस नीलम से मेरी दोस्ती होगई। स्टूडियो के लोगों को तो ख़ैर इसका इल्म नहीं था मगर उसके साथ मेरे तअ’ल्लुक़ात बहुत ही बेतकल्लुफ़ थे। उसका असली नाम राधा था।


मैंने जब एक बार उससे पूछा कि तुमने इतना प्यारा नाम क्यों छोड़ दिया तो उसने जवाब दिया
“यूंही।” मगर फिर कुछ देर के बाद कहा
“ये नाम इतना प्यारा है कि फ़िल्म में इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।”
आप शायद ख़याल करें कि राधा मज़हबी ख़याल की औरत थी। जी नहीं


उसे मज़हब और उसके तवह्हुमात से दूर का भी वास्ता नहीं था। लेकिन जिस तरह मैं हर नई तहरीर शुरू करने से पहले काग़ज़ पर बिसमिल्लाह के आ’दाद ज़रूर लिखता हूँ
उसी तरह शायद उसे भी ग़ैर-इरादी तौर पर राधा के नाम से बेहद प्यार था।
चूँकि वो चाहती थी कि उसे राधा न कहा जाये
इसलिए मैं आगे चल कर उसे नीलम ही कहूंगा।


नीलम बनारस की एक तवाइफ़ज़ादी थी। वहीं का लब-ओ-लहजा जो कानों को बहुत भला मालूम होता था। मेरा नाम सआदत है मगर वो मुझे हमेशा सादिक़ ही कहा करती थी। एक दिन मैंने उससे कहा
“नीलम! मैं जानता हूँ तुम मुझे सआदत कह सकती हो
फिर मेरी समझ में नहीं आता कि तुम अपनी इस्लाह क्यों नहीं करतीं।” ये सुन कर उसके साँवले होंटों पर जो बहुत ही पतले थे एक ख़फ़ीफ़ सी मुस्कुराहट नुमूदार हुई और उसने जवाब दिया
“जो ग़लती मुझसे एक बार हो जाये


मैं उसे ठीक करने की कोशिश नहीं करती।”
मेरा ख़याल है बहुत कम लोगों को मालूम है कि वो औरत जिसे स्टूडियो के तमाम लोग एक मामूली ऐक्ट्रस समझते थे
अ’जीब-ओ-ग़रीब क़िस्म की इन्फ़िरादियत की मालिक थी। उसमें दूसरी एक्ट्रसों का सा ओछापन बिल्कुल नहीं था। उसकी संजीदगी जिसे स्टूडियो का हर शख़्स अपनी ऐनक से ग़लत रंग में देखता था
बहुत प्यारी चीज़ थी।


उसके साँवले चेहरे पर जिसकी जिल्द बहुत ही साफ़ और हमवार थी
ये संजीदगी
ये मलीह मतानत मौज़ूं-ओ-मुनासिब ग़ाज़ा बन गई थी। इसमें कोई शक नहीं कि इससे उसकी आँखों में उसके पतले होंटों के कोनों में
ग़म की बेमालूम तल्ख़ियां घुल गई थीं मगर ये वाक़िया है कि उस चीज़ ने उसे दूसरी औरतों से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ कर दिया था।


मैं उस वक़्त भी हैरान था और अब भी वैसा ही हैरान हूँ कि नीलम को “बन की सुंदरी” में वैम्प के रोल के लिए क्यों मुंतख़ब किया गया? इसलिए कि उसमें तेज़ी-ओ-तर्रारी नाम को भी नहीं थी।
जब वो पहली मर्तबा अपना वाहियात पार्ट अदा करने के लिए तंग चोली पहन कर सेट पर आई तो मेरी निगाहों को बहुत सदमा पहुंचा। वो दूसरों का रद्द-ए-अ’मल फ़ौरन ताड़ जाया करती थी। चुनांचे मुझे देखते ही उसने कहा
“डायरेक्टर साहब कह रहे थे कि तुम्हारा पार्ट चूँकि शरीफ़ औरत का नहीं है
इसलिए तुम्हें इस क़िस्म का लिबास दिया गया है। मैंने उनसे कहा


अगर ये लिबास है तो मैं आपके साथ नंगी चलने के लिए तैयार हूँ।”
मैंने उससे पूछा
“डायरेक्टर साहब ने ये सुन कर क्या कहा?”
नीलम के पतले होंटों पर एक ख़फ़ीफ़ सी पुरअसरार मुस्कुराहट नुमूदार हुई


“उन्होंने तसव्वुर में मुझे नंगी देखना शुरू कर दिया... ये लोग भी कितने अहमक़ हैं। या’नी इस लिबास में मुझे देख कर बेचारे तसव्वुर पर ज़ोर डालने की ज़रूरत ही क्या थी!”
ज़हीन क़ारी के लिए नीलम का इतना तआ’रुफ़ ही काफ़ी है। अब मैं उन वाक़ियात की तरफ़ आता हूँ जिनकी मदद से मैं ये कहानी मुकम्मल करना चाहता हूँ।
बंबई में जून के महीने से बारिश शुरू हो जाती है और सितंबर के वस्त तक जारी रहती है। पहले दो ढाई महीनों में इस क़दर पानी बरसता है कि स्टूडियो में काम नहीं हो सकता। “बन की सुंदरी” की शूटिंग अप्रैल के अवाख़िर में शुरू हुई थी। जब पहली बारिश हुई तो हम अपना तीसरा सेट मुकम्मल कर रहे थे। एक छोटा सा सीन बाक़ी रह गया था जिसमें कोई मुकालमा नहीं था
इसलिए बारिश में भी हमने अपना काम जारी रखा। मगर जब ये काम ख़त्म हो गया तो हम एक अर्से के लिए बेकार हो गए।


इस दौरान में स्टूडियो के लोगों को एक दूसरे के साथ मिल कर बैठने का बहुत मौक़ा मिलता है। मैं तक़रीबन सारा दिन गुलाब के होटल में बैठा चाय पीता रहता था। जो आदमी भी अंदर आता था तो सारे का सारा भीगा होता था या आधा... बाहर की सब मक्खियां पनाह लेने के लिए अंदर जमा होगई थीं। इस क़दर ग़लीज़ फ़िज़ा थी कि अलअमां।
एक कुर्सी पर चाय निचोड़ने का कपड़ा पड़ा है
दूसरी पर प्याज़ काटने की बदबूदार छुरी पड़ी झक मार रही है। गुलाब साहब पास खड़े हैं और अपने मास ख़ौरा लगे दाँतों तले बंबई की उर्दू चबा रहे हैं
“तुम उधर जाने को नहीं सकता... हम उधर से जाके आता... बहुत लफ़ड़ा होगा... हाँ... बड़ा वांदा हो जाएंगा।”


उस होटल में जिसकी छत कोरोगेटेड स्टील की थी
सेठ हुर्मुज़ जी फ्रॉम जी
उनके साले एडल जी और हीरोइनों के सिवा सबलोग आते थे। नियाज़ मोहम्मद को तो दिन में कई मर्तबा यहां आना पड़ता था क्योंकि वो चुन्नी मुन्नी नाम की दो बिल्लियां पाल रहा था।
राजकिशोर दिन में एक चक्कर लगा जाता था। जूंही वो अपने लंबे क़द और कसरती बदन के साथ दहलीज़ पर नुमूदार होता


मेरे सिवा होटल में बैठे हुए तमाम लोगों की आँखें तमतमा उठतीं। एक्स्ट्रा लड़के उठ उठ कर राज भाई को कुर्सी पेश करते और जब वो उनमें से किसी की पेश की हुई कुर्सी पर बैठ जाता तो सारे परवानों की मानिंद उसके गिर्द जमा हो जाते।
इसके बाद दो क़िस्म की बातें सुनने में आतीं। एक्स्ट्रा लड़कों की ज़बान पर पुरानी फिल्मों में राज भाई के काम की तारीफ़ की
और ख़ुद राजकिशोर की ज़बान पर उसके स्कूल छोड़कर कॉलिज और कॉलिज छोड़कर फ़िल्मी दुनिया में दाख़िल होने की तारीख़... चूँकि मुझे ये सब बातें ज़बानी याद हो चुकी थीं इसलिए जूंही राजकिशोर होटल में दाख़िल होता मैं उससे अलैक सलैक करने के बाद बाहर निकल जाता।
एक रोज़ जब बारिश थमी हुई थी और हुर्मुज़ जी फ्रॉम जी का अलसेशियन कुत्ता नियाज़ मोहम्मद की दो बिल्लियों से डर कर गुलाब के होटल की तरफ़ दुम दबाये भागा आ रहा था। मैंने मौलसिरी के दरख़्त के नीचे बने हुए गोल चबूतरे पर नीलम और राजकिशोर को बातें करते हुए देखा।


राजकिशोर खड़ा हस्ब-ए-आदत हौले-हौले झूल रहा था
जिसका मतलब ये था कि वो अपने ख़याल के मुताबिक़ निहायत ही दिलचस्प बातें कर रहा है। मुझे याद नहीं कि नीलम से राजकिशोर का तआ’रुफ़ कब और किस तरह हुआ था
मगर नीलम तो उसे फ़िल्मी दुनिया में दाख़िल होने से पहले ही अच्छी तरह जानती थी और शायद एक दो मर्तबा उसने मुझसे बर-सबील-ए-तज़्किरा उसके मुतनासिब और ख़ूबसूरत जिस्म की तारीफ़ भी की थी।
मैं गुलाब के होटल से निकल कर रिकार्डिंग रुम के छज्जे तक पहुंचा तो राजकिशोर ने अपने चौड़े कांधे पर से खादी का थैला एक झटके के साथ उतारा और उसे खोल कर एक मोटी कापी बाहर निकाली। मैं समझ गया... ये राजकिशोर की डायरी थी।


हर रोज़ तमाम कामों से फ़ारिग़ हो कर अपनी सौतेली माँ का आशीरवाद ले कर राजकिशोर सोने से पहले डायरी लिखने का आदी है। यूं तो उसे पंजाबी ज़बान बहुत अ’ज़ीज़ है मगर ये रोज़नामचा अंग्रेज़ी में लिखता है जिसमें कहीं टैगोर के नाज़ुक स्टाइल की और कहीं गांधी के सियासी तर्ज़ की झलक नज़र आती है... उसकी तहरीर पर शेक्सपियर के ड्रामों का असर भी काफ़ी है। मगर मुझे इस मुरक्कब में लिखने वाले का ख़ुलूस कभी नज़र नहीं आया।
अगर ये डायरी आपको कभी मिल जाये तो आपको राजकिशोर की ज़िंदगी के दस-पंद्रह बरसों का हाल मालूम हो सकता है। उसने कितने रुपये चंदे में दिए
कितने ग़रीबों को खाना खिलाया
कितने जलसों में शिरकत की


क्या पहना
क्या उतारा... और अगर मेरा क़ियाफ़ा दुरुस्त है तो आपको उस डायरी के किसी वर्क़ पर मेरे नाम के साथ पैंतीस रुपये भी नज़र आजाऐंगे जो मैंने उससे एक बार क़र्ज़ लिए थे और इस ख़याल से अभी तक वापस नहीं किए कि वो अपनी डायरी में उनकी वापसी का ज़िक्र कभी नहीं करेगा।
ख़ैर... नीलम को वो उस डायरी के चंद औराक़ पढ़ कर सुना रहा था। मैंने दूर ही से उसके ख़ूबसूरत होंटों की जुंबिश से मालूम कर लिया कि वो शेक्सपियरन अंदाज़ में प्रभु की हम्द बयान कर रहा है।
नीलम


मौलसिरी के दरख़्त के नीचे गोल सीमेंट लगे चबूतरे पर ख़ामोश बैठी थी। उसके चेहरे की मलीह मतानत पर राजकिशोर के अल्फ़ाज़ कोई असर पैदा नहीं कर रहे थे।
वो राजकिशोर की उभरी हुई छाती की तरफ़ देख रही थी। उसके कुर्ते के बटन खुले थे
और सफ़ेद बदन पर उसकी छाती के काले बाल बहुत ही ख़ूबसूरत मालूम होते थे।
स्टूडियो में चारों तरफ़ हर चीज़ धुली हुई थी। नियाज़ मोहम्मद की दो बिल्लियां भी आम तौर पर ग़लीज़ रहा करती थीं


उस रोज़ बहुत साफ़ सुथरी दिखाई दे रही थीं। दोनों सामने बेंच पर लेटी नर्म नर्म पंजों से अपना मुँह धो रही थीं। नीलम जॉर्जट की बेदाग़ सफ़ेद साड़ी में मलबूस थी। ब्लाउज़ सफ़ेद लिनन का था जो उसकी सांवली और सुडौल बांहों के साथ एक निहायत ही ख़ुशगवार और मद्धम सा तज़ाद पैदा कर रहा था।
“नीलम इतनी मुख़्तलिफ़ क्यों दिखाई दे रही है?”
एक लहज़े के लिए ये सवाल मेरे दिमाग़ में पैदा हुआ और एक दम उसकी और मेरी आँखें चार हुईं तो मुझे उसकी निगाह के इज़्तिराब में अपने सवाल का जवाब मिल गया। नीलम मोहब्बत में गिरफ़्तार हो चुकी थी।
उसने हाथ के इशारे से मुझे बुलाया। थोड़ी देर इधर उधर की बातें हुईं


जब राजकिशोर चला गया तो उसने मुझसे कहा
“आज आप मेरे साथ चलिएगा!”
शाम को छः बजे मैं नीलम के मकान पर था। जूंही हम अंदर दाख़िल हुए उसने अपना बैग सोफे पर फेंका और मुझसे नज़र मिलाए बग़ैर कहा
“आपने जो कुछ सोचा है ग़लत है।”


मैं उसका मतलब समझ गया। चुनांचे मैंने जवाब दिया
“तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि मैंने क्या सोचा था?”
उसके पतले होंटों पर ख़फ़ीफ़ सी मुस्कुराहट पैदा हुई।
“इसलिए कि हम दोनों ने एक ही बात सोची थी... आपने शायद बाद में ग़ौर नहीं किया। मगर मैं बहुत सोच-बिचार के बाद इस नतीजे पर पहुंची हूँ कि हम दोनों ग़लत थे।”


“अगर मैं कहूं कि हम दोनों सही थे।”
उसने सोफे पर बैठते हुए कहा
“तो हम दोनों बेवक़ूफ़ हैं।”ये कह कर फ़ौरन ही उसके चेहरे की संजीदगी और ज़्यादा सँवला गई
“सादिक़ ये कैसे हो सकता है। मैं बच्ची हूँ जो मुझे अपने दिल का हाल मालूम नहीं... तुम्हारे ख़्याल के मुताबिक़ मेरी उम्र क्या होगी?”


“बाईस बरस।”
“बिल्कुल दुरुस्त... लेकिन तुम नहीं जानते कि दस बरस की उम्र में मुझे मोहब्बत के मा’नी मालूम थे... मा’नी क्या हुए जी... ख़ुदा की क़सम मैं मोहब्बत करती थी। दस से लेकर सोलह बरस तक मैं एक ख़तरनाक मोहब्बत में गिरफ़्तार रही हूँ। मेरे दिल में अब क्या ख़ाक किसी की मोहब्बत पैदा होगी?”
ये कह कर उसने मेरे मुंजमिद चेहरे की तरफ़ देखा और मुज़्तरिब हो कर कहा
“तुम कभी नहीं मानोगे


मैं तुम्हारे सामने अपना दिल निकाल कर रख दूं
फिर भी तुम यक़ीन नहीं करोगे
मैं तुम्हें अच्छी तरह जानती हूँ... भई ख़ुदा की क़सम
वो मर जाये जो तुम से झूट बोले... मेरे दिल में अब किसी की मोहब्बत पैदा नहीं हो सकती


लेकिन इतना ज़रूर है कि...” ये कहते कहते वो एक दम रुक गई।
मैंने उससे कुछ न कहा क्योंकि वो गहरे फ़िक्र में ग़र्क़ हो गई थी। शायद वो सोच रही थी कि “इतना ज़रूर” क्या है?
थोड़ी देर के बाद उसके पतले होंटों पर वही ख़फ़ीफ़ पुरअसरार मुस्कुराहट नुमूदार हुई जिससे उसके चेहरे की संजीदगी में थोड़ी सी आ’लिमाना शरारत पैदा हो जाती थी। सोफे पर से एक झटके के साथ उठकर उसने कहना शुरू किया
“मैं इतना ज़रूर कह सकती हूँ कि ये मोहब्बत नहीं है और कोई बला हो तो मैं कह नहीं सकती


सादिक़ मैं तुम्हें यक़ीन दिलाती हूँ।”
मैंने फ़ौरन ही कहा
“या’नी तुम अपने आपको यक़ीन दिलाती हो।”
वो जल गई


“तुम बहुत कमीने हो... कहने का एक ढंग होता है। आख़िर तुम्हें यक़ीन दिलाने की मुझे ज़रूरत ही क्या पड़ी है? मैं अपने आपको यक़ीन दिला रही हूँ
मगर मुसीबत ये है कि आ नहीं रहा... क्या तुम मेरी मदद नहीं कर सकते?”
ये कह कर वो मेरे पास बैठ गई और अपने दाहिने हाथ की छंगुलिया पकड़ कर मुझसे पूछने लगी
“राजकिशोर के मुतअ’ल्लिक़ तुम्हारा क्या ख़याल है... मेरा मतलब है तुम्हारे ख़याल के मुताबिक़ राजकिशोर में वो कौन सी चीज़ है जो मुझे पसंद आई है।” छंगुलिया छोड़ कर उसने एक एक कर के दूसरी उंगलियां पकड़नी शुरू कीं।


“मुझे उसकी बातें पसंद नहीं... मुझे उसकी ऐक्टिंग पसंद नहीं। मुझे उसकी डायरी पसंद नहीं
जाने क्या ख़ुराफ़ात सुना रहा था।”
ख़ुद ही तंग आकर वो उठ खड़ी हुई
“समझ में नहीं आता मुझे क्या हो गया है। बस सिर्फ़ ये जी चाहता है कि एक हंगामा हो। बिल्लियों की लड़ाई की तरह शोर मचे


धूल उड़े... और मैं पसीना पसीना हो जाऊं।” फिर एक दम वो मेरी तरफ़ पलटी
“सादिक़... तुम्हारा क्या ख़याल है... मैं कैसी औरत हूँ?”
मैंने मुस्कुरा कर जवाब दिया
“बिल्लियां और औरतें मेरी समझ से हमेशा बालातर रही हैं।”


उसने एक दम पूछा
“क्यों?”
मैंने थोड़ी देर सोच कर जवाब दिया
“हमारे घर में एक बिल्ली रहती थी। साल में एक मर्तबा उस पर रोने के दौरे पड़ते थे... उसका रोना-धोना सुन कर कहीं से एक बिल्ला आ जाया करता था। फिर उन दोनों में इस क़दर लड़ाई और ख़ून ख़राबा होता कि अलअमां... मगर उसके बाद वो ख़ाला बिल्ली चार बच्चों की माँ बन जाया करती थी।”


नीलम का जैसे मुँह का ज़ायक़ा ख़राब हो गया
“थू... तुम कितने गंदे हो।” फिर थोड़ी देर बाद इलायची से मुँह का ज़ायक़ा दुरुस्त करने के बाद उसने कहा
“मुझे औलाद से नफ़रत है। ख़ैर
हटाओ जी इस क़िस्से को।”


ये कह कर नीलम ने पानदान खोल कर अपनी पतली पतली उंगलियों से मेरे लिए पान लगाना शुरू कर दिया। चांदी की छोटी छोटी कुल्हियों से उसने बड़ी नफ़ासत से चमची के साथ चूना और कथ्था निकाल कर रगें निकाले हुए पान पर फैलाया और गिलौरी बना कर मुझे दी
“सादिक़! तुम्हारा क्या ख़्याल है?”
ये कह कर वो ख़ाली-उज़-ज़ेहन हो गई।
मैंने पूछा


“किस बारे में?”
उसने सरौते से भुनी हुई छालिया काटते हुए कहा
“उस बकवास के बारे में जो ख़्वाह-मख़्वाह शुरू हो गई है... ये बकवास नहीं तो क्या है
या’नी मेरी समझ में कुछ आता ही नहीं... ख़ुद ही फाड़ती हूँ


ख़ुद ही रफू करती हूँ। अगर ये बकवास इसी तरह जारी रहे तो जाने क्या होगा.... तुम जानते हो मैं बहुत ज़बरदस्त औरत हूँ।”
“ज़बरदस्त से तुम्हारी क्या मुराद है?”
नीलम के पतले होंटों पर वही ख़फ़ीफ़ पुरअसरार मुस्कुराहट पैदा हुई
“तुम बड़े बेशर्म हो। सब कुछ समझते हो मगर महीन-महीन चुटकियां ले कर मुझे उकसाओगे ज़रूर।” ये कहते हुए उसकी आँखों की सफेदी गुलाबी रंगत इख़्तियार कर गई।


“तुम समझते क्यों नहीं कि मैं बहुत गर्म मिज़ाज की औरत हूँ।” ये कह कर वो उठ खड़ी हुई
“अब तुम जाओ
मैं नहाना चाहती हूँ।”
मैं चला गया।


उसके बाद नीलम ने बहुत दिनों तक राजकिशोर के बारे में मुझसे कुछ न कहा। मगर इस दौरान में हम दोनों एक दूसरे के ख़यालात से वाक़िफ़ थे। जो कुछ वो सोचती थी
मुझे मालूम हो जाता था और जो कुछ मैं सोचता था उसे मालूम हो जाता था। कई रोज़ तक यही ख़ामोश तबादला जारी रहा।
एक दिन डायरेक्टर कृपलानी जो “बन की सुंदरी” बना रहा था
हीरोइन की रिहर्सल सुन रहा था। हम सब म्यूज़िक रुम में जमा थे। नीलम एक कुर्सी पर बैठी अपने पांव की जुंबिश से हौले-हौले ताल दे रही थी। एक बाज़ारी क़िस्म का गाना मगर धुन अच्छी थी। जब रिहर्सल ख़त्म हुई तो राजकिशोर कांधे पर खादी का थैला रखे कमरे में दाख़िल हुआ।


डायरेक्टर कृपलानी
म्यूज़िक डायरेक्टर घोष
साउंड रिकार्डिस्ट पी ए एन मोघा... इन सबको फ़र्दन फ़र्दन उसने अंग्रेज़ी में आदाब किया। हीरोइन मिस ईदन बाई को हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और कहा
“ईदन बहन! कल मैंने आपको क्राफर्ड मार्किट में देखा। मैं आपकी भाभी के लिए मौसंबियाँ ख़रीद रहा था कि आपकी मोटर नज़र आई।”


झूलते झूलते उसकी नज़र नीलम पर पड़ी जो प्यानो के पास एक पस्त-क़द की कुर्सी में धंसी हुई थी। एक दम उसके हाथ नमस्कार के लिए उठे
ये देखते ही नीलम उठ खड़ी हुई
“राज साहब! मुझे बहन न कहिएगा।”
नीलम ने ये बात कुछ इस अंदाज़ से कही कि म्यूज़िक रुम में बैठे हुए सब आदमी एक लहज़े के लिए मब्हूत हो गए। राजकिशोर खिसयाना सा हो गया और सिर्फ़ इस क़दर कह सका


“क्यों?”
नीलम जवाब दिए बग़ैर बाहर निकल गई।
तीसरे रोज़ मैं नागपाड़े में सह-पहर के वक़्त शाम लाल पनवाड़ी की दुकान पर गया तो वहां इसी वाक़े के मुतअ’ल्लिक़ चेमि-गोईयां होरही थीं... शाम लाल बड़े फ़ख़्रिया लहजे में कह रहा था
“साली का अपना मन मैला होगा... वर्ना राज भाई किसी को बहन कहे


और वो बुरा माने... कुछ भी हो
उसकी मुराद कभी पूरी नहीं होगी। राज भाई लंगोट का बहुत पक्का है।”
राज भाई के लंगोट से मैं बहुत तंग आ गया था। मगर मैंने शाम लाल से कुछ न कहा और ख़ामोश बैठा उसकी और उसके दोस्त ग्राहकों की बातें सुनता रहा जिनमें मुबालग़ा ज़्यादा और असलियत कम थी।
स्टूडियो में हर शख़्स को म्यूज़िक रुम के इस हादिसे का इल्म था


और तीन रोज़ से गुफ़्तुगू का मौज़ू बस यही चीज़ थी कि राजकिशोर को मिस नीलम ने क्यों एक दम बहन कहने से मना किया। मैंने राजकिशोर की ज़बानी इस बारे में कुछ न सुना मगर उसके एक दोस्त से मालूम हुआ कि उसने अपनी डायरी में उस पर निहायत पर दिलचस्प तब्सिरा लिखा है और प्रार्थना की है कि मिस नीलम का दिल-ओ-दिमाग़ पाक-ओ-साफ़ हो जाये।
उस हादिसे के बाद कई दिन गुज़र गए मगर कोई क़ाबिल-ए-ज़िकर बात वक़ूअ-पज़ीर न हुई।
नीलम पहले से कुछ ज़्यादा संजीदा हो गई थी और राजकिशोर के कुर्ते के बटन अब हर वक़्ते खुले रहते थे जिसमें से उसकी सफ़ेद और उभरी हुई छाती के काले बाल बाहर झांकते रहते थे।
चूँकि एक दो रोज़ से बारिश थमी हुई थी और “बन की सुंदरी” का चौथे सेट का रंग ख़ुश्क हो गया था


इसलिए डायरेक्टर ने नोटिस बोर्ड पर शूटिंग का ऐ’लान

- सआदत-हसन-मंटो


अबे ओ राम लाल
ठहर तो सही। हम भी आ रहे हैं।

दो आदमी हाथों में डंडे लिए नशे में चूर झूमते आ रहे थे


राम लाल जो आगे-आगे चल रहा था
डंडा सँभालता हुआ उनकी तरफ़ मुड़ा
जो अब मस्ती से गले लग रहे थे। हवा बंद थी और गर्मी से दम घुटा जाता था। वो सब ताड़ी ख़ाना से लौट रहे थे।



अबे समझता क्या है। ऐसा डंडा रसीद करूँगा कि सिर फट जाए।

ओहो! ठहर तू। बदल पैतरा। बच...



अँधेरे में मुझे उनकी सूरतें तो न दिखाई दीं लेकिन हड्डी पर लकड़ी के बजने की आवाज़ आई। उनकी आवाज़ें बुलंद हुईं और फिर धीमी हो गईं। सड़क के दोनों तरफ़ मर्द और औरतें चारपाइयों पर पड़े सो रहे थे। मेरी निगाह टाँगों
छातियों और सोए हुए चेहरों पर पड़ी। क़िस्मत के क़ैदी मर्द और औरतें साथ सोते
सड़क पर ही बच्चे पैदा होते और इंसान मर जाते थे।



मैं नुक्कड़ पर मुड़ा। सामने मेरा आली शान मकान सियाह दरख़्तों की आड़ में ख़ामोश खड़ा था। उसके अंदर मैं बमों और गोला बारी से महफ़ूज़ ज़िंदगी बसर करता हूँ। क़रीब ही सड़क के मोड़ पर पिलाओ नाम का शराब ख़ाना है। जब बारिश होती है तो मैं उसके अंदर अपनी कोफ़्त शराब से दूर करने चला जाता हूँ। चौड़ी सियाह सड़क आईना की तरह चमकती है और पानी में दुकानों और मकानों के अक्स उसकी सत्ह पर खिड़कियों और दीवारों का गुमान पैदा कर देते हैं। जब मैं रात स्टेशन से वापस आता हूँ तो नुक्कड़ वाली दुकान एक जहाज़ की तरह सड़क के पानी पर चलती हुई मालूम होती है और उसकी नोक मेरे ख़्यालात के चप्पुओं से हिलती है। सर्दी से मैं अपने हाथ गर्म कोट की जेब में घुसा लेता हूँ और शाने सिकोड़े काँपता हुआ पटरी पर तेज़-तेज़ चलने लगता हूँ। बूँदें मेरी सियाह टोपी पर ज़ोर-ज़ोर से गिरती हैं और हल्की-हल्की फुवार मेरी ऐनक पर पड़ने लगती है। अंधी नगरी के सबब कुछ दिखाई नहीं देता। एक कार मेरे जहाज़ को काटती हुई गुज़र जाती है और उसकी मद्धम रौशनियों के अक्स से सड़क जगमगा उठती है। मैं पिलाओ में दाख़िल हो जाता हूँ। कमरा धुएँ और पसीने और शराब की बू से भरा हुआ है। ऐनक पर भाप जम जाने की वजह से हर चीज़ धुँधली नज़र आने लगी। मैं ऐनक को साफ़ करने के लिए उतार लेता हूँ।

सामने एनी एक लंबी मेज़ के पीछे खड़ी लकड़ी के पीपों में से मशीन से खींच-खींच कर शराब के ग्लास पीने वालों की तरफ़ बढ़ा रही है। उसके जिस्म पर सिवाय हड्डियों के अब कुछ बाक़ी नहीं। उसके सर पे सफ़ेद बाल हैं लेकिन कमर अभी तक एक सर्व की तरह सीधी है। उसकी आँखों से रूशनासी के तौर और उसके होंटों से ख़ैर-मक़दम का तबस्सुम टपक रहा है। लेकिन दस बजते ही वो चिल्लाना शुरू करेगी
ख़त्म करो भाई


ख़त्म करो। ये आख़िरी दौर है। चलो ख़त्म करो।

मगर हँसी और मज़ाक़ और शोर उसी तरह क़ायम रहेगा। वो उसी तरह कल से शराब खींचती रहेगी और उसकी आवाज़ मेरे कानों में रात को ख़्वाबों में गूँजेगी
ख़त्म करो


ख़त्म करो
ये आख़िरी दौर है। मुझे तेरी आवाज़ से सख़्त नफ़रत है
एनी। क्या तू ज़रा भी अपना लहजा नहीं बदल सकती? तेरी आवाज़ तो अपने तीसरे शौहर की क़ब्र में भी उसका दिल हिला देती होगी। क्या तुझे याद है वो अपना शौहर जो शराब की मस्ती में राही-ए-मुल्क-ए-बक़ा हुआ? अगर तो अपने टूटे हुए हारमोनियम की आवाज़ में उस पर न चिल्लाती तो शायद वो आज तक ज़िंदा होता। लेकिन तू तो मर्दों पर हुकूमत करने को पैदा हुई थी
शेरों को सधाने के लिए।



कैसा बुरा मौसम है। नैनियट ने मेज़ के पीछे वाले दरवाज़े से निकल कर कहा और एक शोख़ी भरी मुस्कुराहट उसके होंटों पर खेल गई। मैं बोला
तौबा। तौबा। ये औरत एक देवनी मा'लूम होती है। इसका क़द लंबा है और बदन पर सियाह कपड़े हैं
छाती पर एक सुर्ख़ गुलाब चमक रहा है और कानों में झूटे बुंदे।



अच्छे तो हो? उसने मोहब्बत भरे लहजे में मेरे कान के क़रीब आ कर कहा
हाँ। तुम सुनाओ।



तुम्हारी दुआ है। लेकिन ये तो कहो आज यहाँ कैसे बैठे हो? तुम तो हमेशा अपने मख़सूस कोने ही में बैठा करते थे।

मैंने मुड़ कर आतिश-दान की तरफ़ देखा। वहाँ हडसन बैठा हुआ था। हडसन पेशे का दर्ज़ी है
जिस्म का तोंदल और सर का तामड़ा। वो एक और महल्ले में रहता है लेकिन उसका मा'मूल है कि हर रात को दो ग्लास कड़वी के पीने पिलाओ में ज़रूर आता है। आँधी जाए


मेंह जाए लेकिन उसका यहाँ आना नहीं जाता। एक ज़माने में उसको एनी से मोहब्बत थी और उसके तीनों शौहर यके-बाद-दीगरे मैदान-ए-इश्क़ में हडसन को पीछे छोड़ते चले गए। लेकिन उसकी वज़ाअ'दारी देखिए कि अभी तक पुरानी रविश के मुताबिक़ उसी पाबंदी से यहाँ आता है
मगर एनी उसकी तरफ़ निगाह उठा के भी नहीं देखती।

हडसन बड़े कड़वे मिज़ाज़ का आदमी है। न जाने क्यों उसको मुझसे इस बात पर चिढ़ हो गई है कि मैं हमेशा उसी कोने में बैठता हूँ। एक रात वो बोला


क्यों जी
तुम हमेशा यहीं बैठते हो।

तो क्या तुम्हारा देना आता है? मैंने कहा


अगर तुम्हारा जी चाहे तो तुम बैठ जाया करो।

और तुम अपनी कुर्सी औरतों को भी नहीं देते।



देखो मियाँ! मैंने कहा
इस सदी के तीस साल बीत गए चालीसवाँ लगा है। अब रिक़्क़त-आमोज़ निसवानियत के दिन गए।

ताहम तुम्हें यहाँ बैठने का कोई हक़ नहीं।



अगर तुम्हें ये कोना इतना ही पसंद है तो शौक़ से बैठा करो। लेकिन तुम तो एनी ही के क़रीब बैठना चाहते हो।

यही बात है तो देखा जाएगा। उसने दांत पीस कर कहा और मुझे ग़ज़ब से देखा... और मैंने हडसन की तरफ़ इशारा किया।



तुमने उसकी भी भली फ़िक्र की। नैनियट ने कहा
वो तो पागल है। उसने तुम्हें अपनी तस्वीरें भी ज़रूर दिखाई होंगी?



उससे कहीं ऐसी भी ग़लती हो सकती थी?

और हम दोनों मिल कर हँसने लगे।



उसी रोज़ का वाक़िया है। मैं खड़ा कुभड़े से बातें कर रहा था कि हडसन ने मेरे कोहनी मारी। जब मैंने उसकी कोई परवाह न की तो उसने मुझे दोबारा टहोका। मैं उसकी तरफ़ मुड़ा


हेलो।



गुड ईवनिंग वो मुस्कुरा के बोला
कैसा मिज़ाज़ है?



आपकी नवाज़िश है। और ये कह के मैं फिर कुभड़े की तरफ़ मुख़ातिब हो गया। हडसन ने फिर कोहनी मारी। मैं ग़ुस्से से उसकी तरफ़ मुड़ा। वो अपनी जेब में कुछ टटोल रहा था।

तुमने ये भी देखी है? और उसने मेरी तरफ़ एक सड़ी सी तस्वीर बढ़ा दी। तीन मिटे-मिटे आदमी कुर्सियों पर बैठे थे और उनमें से एक हडसन था।



ये जंग-ए-अज़ीम में खींची थी
समझे
जब मैं सार्जेंट था। ये कह कर वो हँसा और ख़ुशी से उसकी बाँछें खिल गईं। मैंने कहा
तो अब क्यों नहीं भरती हो जाते?



अब तो मेरी उम्र अस्सी साल की है। ये कह कर उसने एक आह भरी।

तुम्हारी उम्र तो बहुत कम मा'लूम होती है। तुम बड़ी आसानी से भरती हो जाओगे। आज-कल सिपाहियों की बहुत कमी है। उसके बाद मैंने मुँह मोड़ लिया। हडसन ने बुरा सा मुँह बनाया और अपने बराबर वाले को जंग-ए-अज़ीम में अपनी बहादुरी के क़िस्सा सुनाने लगा। लोगों को चीरता-फाड़ता मैं अपने कोने की तरफ़ गया और कॉर्नेस पर ग्लास रख के एक पाँव दिवार से लगा इस इंतिज़ार में खड़ा हो गया कि कोई कुर्सी ख़ाली करे तो बैठूँ।



तो तुम मेरे कोने में आ ही गए? मैंने हडसन से कहा। उसने बत्तीसी दिखाई और एक क़हक़हा लगाया। आज वो ज़रा ख़ुश-ख़ुश मा'लूम होता था। वो इसरार करने लगा कि बेंच पर बैठ जाओ। मुझे बेंच पर बैठने से सख़्त नफ़रत थी
लेकिन जब वो न माना तो मैं बैठ ही गया। वो भी कुर्सी छोड़ कर मेरे पास आन बैठा।



आज इत्तिफ़ाक़ से मेरी एक दोस्त से मुडभेड़ हो गई। हडसन लगा कहने
वो बड़ा फ़लसफ़ी है
समझे
तो मैंने कहा कि भई तुम बड़े फ़िलॉस्फ़र बनते हो


हमें भी एक बात बताओ। उसने कहा अच्छा। मैंने पूछा कि दुनिया कैसे अपनी जगह क़ायम है?

क्या मतलब? मैंने कहा।



क्या मतलब? जो कुछ मैंने कहा। यानी चाँद
तारे
सूरज और ज़मीन सब अपने-अपने काम में मशग़ूल हैं। आख़िर वो क्या ताक़त है जो इनको अपना फ़र्ज़ पूरा करने पर मजबूर करती है... वो तो कोई मा'क़ूल जवाब दे न सका। तुम बताओ कि कौन-सी चीज़ इन सब सितारों को अपनी जगह क़ायम रखती है।



बहस करने को मेरा जी न चाहता था इसलिए मैंने जवाब दिया
ख़ुदा।

नहीं


ग़लत।

तो फिर क्या चीज़ है? मैंने पूछा।



मैं तो ख़ुद तुमसे पूछ रहा हूँ।

तो फिर यगानगत सब तारों और सारे आलम को अपनी जगह क़ायम रखती है।



ग़लत उसने जमा कर कहा
मा'लूम होता है तुमने बस घास ही खोदी है।

तो फिर तुम ही बताओ ना?



अच्छा लो मैं बताए देता हूँ। ये सब तारे जो आसमान में जग-मग जग-मग करते हैं
ये चाँद जिसकी रक़्साँ किरनें ठंडक पहुँचाती हैं
वो सूरज जो अपनी रौशनी से दुनिया को गर्मी और उजाला बख़्शता है


ये ख़ूबसूरत ज़मीन जिस पर हम सब बसते हैं
इन सबको एक अजीब-ओ-ग़रीब और लाजवाब ताक़त अपनी-अपनी जगह क़ायम रखती है और ये ताक़त बिजली है।

मैं बे-साख़्ता हँस पड़ा। हडसन ग़ुस्से से चिल्लाने लगा


तो तुम्हें यक़ीन नहीं आया? तुम इस बात को नहीं मानते कि बिजली वो ताक़त है जो इन सब सितारों को यकजा रखती है? क्या तुम्हें ये भी मा'लूम नहीं कि तुम कैसे पैदा हुए?

बहुत महज़ूज़ हो कर मैंने कहा
नहीं।



अच्छा तो मैं बताए देता हूँ। तुम्हारे बाप ने तुम्हारी माँ के पेट में बिजली डाली
समझे और फिर तुम पैदा हुए...



मैं ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा और ख़्याल किया कि शायद हडसन ने आज मा'मूल से ज़्यादा पी ली है। वो अपनी बिजली के राग अलापता रहा यहाँ तक कि मैं आजिज़ आ गया और एक दम से खड़ा हो घर की तरफ़ चल दिया। मुझे इस अजीब-ओ-ग़रीब नज़रिये और इसके हामी पर हँसी आ रही थी। फिर ख़्याल आया कि वो अपनी अंदुरूनी दुनिया के हाथों क़ैद है और ये सोचते-सोचते मैं तन्हाई और कोफ़्त के समुंद्र में डूब गया।

मेरे कमरे किताबों
अलमारियों और कुर्सियों से भरे हुए हैं। मैं अक्सर कोफ़्त से यहाँ टहलता हूँ


तन्हाई मुझे खाने लगती है और मैं बेज़ार हो जाता हूँ। मेरा मकान
उसके बड़े-बड़े कमरे और सलाख़ों-दार खिड़कियाँ एक क़ैदख़ाना मा'लूम होती हैं। मैं खिड़कियों से झाँकता हूँ। मेरी निगाह कुशादा मैदानों
मर्ग-ज़ारों और पहाड़ों पर पड़ती है। रात को आसमान तारों से भर जाता है और उसकी वुसअत की कोई थाह नहीं मिलती। ज़िंदगी आसमान की तरह आज़ाद है। लेकिन ज़िंदगी की उफ़ुक़ से दूर और दुनियाएँ हैं और सितारों से परे और भी जहाँ हैं जो इन सितारों और इस दुनिया से कहीं ज़्यादा ख़ुशनुमा और रंगीन हैं। मेरी हड्डियाँ और जिस्म
मेरे ख़्यालात भी इस क़ैदख़ाने की सलाख़ें हैं जिस को हम ज़िंदगी कहते हैं। लेकिन मैं अपने जिस्मानी रूप से आज़ाद नहीं हो सकता


उसी तरह जैसे मेरा जिस्म इस मकान के क़ैदख़ाने से आज़ादी हासिल नहीं कर सकता। अपने कमरों की चहार दीवारी में अपने तख़य्युल के अंदर में भी उसी तरह चक्कर लगाता हूँ जैसे चिड़िया घर के पिंजरों में रीछ।

कभी-कभी में तन्हाई से पागल होजाता हूँ और सलाख़ों को पकड़ कर दर्द से चीख़ने लगता हूँ और मेरी फटी हुई आवाज़ में ग़ुलामी और उस रूह की तकलीफ़ों का नग़मा सुनाई देता है जो सदियों से आज़ादी के लिए जान तोड़ कोशिश कर रही है। जब लोग मेरी चीख़ सुनते हैं तो तमाशा देखने को इकट्ठे हो जाते हैं। वो भी सलाख़ें पकड़ लेते हैं और मेरी नक़्ल करते हैं। उनका मुँह चिढ़ाना मेरे दिल में एक तीर की तरह लगता है और मेरा दिमाग़ इंसान के लिए नफ़रत से भर जाता है। अगर मैं अपने पिंजरे से निकल सकता तो इनको एक-एक करके मार डालता और इनके खोखले सीनों पर फ़त्ह के जज़्बे में चढ़ बैठता। काश कि मैं सिर्फ़ एक ही दफ़ा इंसान को बता सकता कि वो अज़हद ज़लील है और उसकी रूह कमीनी और सड़ाँदी। पहले तो वो आदमी को एक पिंजरे में बन्द कर देता है और फिर इस बुज़दिलाना हरकत पर ख़ुश होता है।



क़फ़स के बाहर वो आज़ाद है (नहीं आज़ाद नहीं बल्कि अपनी ही बनाई हुई ज़ंज़ीरों में जकड़ा हुआ है जैसे साए जकड़े हुए होते हैं) और बाहर से एक बुज़दिल की तरह मूँगफली दिखाता है और मेरी तड़पन और भूक पा ख़ुश होता है। लेकिन अक्सर जब वो मूँगफली दिखाता है और मैं उसे लपकने को अपना मुँह खोलता हूँ तो वो सिर्फ़ एक कंकरी फेंक देता है। मैं ग़ुस्से से चीख़ उठता हूँ लेकिन मेरी कोई भी नहीं सुनता। मगर वो जो मेरी रूह को ईज़ा पहुँचाते हैं
मेरे दर्द पर ख़ुशी से तालियाँ बजाते और मेरे ज़ख़्मों पर नमक छिड़क के ख़ुश होते हैं। उन्हें क्या मा'लूम कि मुझ पा क्या गुज़रती है
वो क्या जानें कि रूह किसे कहते हैं
वो शायद अपनी सफ़ेद चमड़ी पर ग़ुरूर करता है और मुझे इस लिए ईज़ा पहुँचाता है कि मैं काला हूँ और मेरे जिस्म पर लम्बे-लम्बे बाल हैं। लेकिन मेरा ही जी जानता है कि मुझे इससे कितनी नफ़रत है।



हर रोज़ एक शख़्स दूर से मेरे पिंजरे में ग़िज़ा रख देता है। वो नज़दीक आने से शायद इसलिए डरता है कि मैं कहीं उसका गला न घोंट दूँ। कभी-कभी वो मुझसे बातें भी कर लेता है
लेकिन सलाख़ों के बाहर से। अक्सर वो अच्छी तरह पेश आता है और मेरी आज़ादी और रिहाई का तज़किरा करता है। ऐसे मौक़ों पर वो अच्छा मा'लूम होता है और मैं हिमालय की बर्फ़ानी चोटियों
चीड़ के जंगलों और शहद के छत्तों के ख़्वाब देखने लगता हूँ। उसने जब पहली बार मुझसे शफ़क़त से बातें कीं तो मेरी ख़ुशी की कोई इंतिहा न रही।



कैसा है तू
अबे काले ग़ुलाम
रात को ख़ूब सोया? हाँ? शाबाश।



मैंने इज्ज़-ओ-मोहब्बत से उसकी तरफ़ देखा और ख़ुशी के मारे अपना मुँह खोल दिया।

अच्छा अगर मैं तुझको आज़ाद कर दूँ तो कैसा हो?



मैं ख़ुशी के मारे फूला न समाता था और वज्द से छाती पीटने लगा।

लेकिन तू आज़ादी ले कर करेगा क्या? मैं तुझको खाना देता हूँ


तेरा घर साफ़ रखता हूँ। ज़रा इन बंदरों को तो देख। तूने कभी इस बात पर भी ग़ौर किया है कि वो सर्दी में सिकुड़ते और बारिश में भीगते हैं? दिन को ग़िज़ा की तलाश में मारे-मारे फिरते हैं। रात को जहाँ कहीं जगह मिल गई बसेरा ले लिया। इनकी ज़िंदगी वबाल है। अगर तू भी आज़ाद होता तो इनकी तरह मारा-मारा फिरता। क्यों बे-ग़ुलाम
यही बात है ना?

मेरा दिल बैठ गया और मैंने एक आह भरी।



अरे जा भी
मैं तो मज़ाक़ कर रहा था
तू बुरा मान गया। मैं सच-मुच तुझे रिहा कर दूँगा।



ख़ुशी की कैफ़ियत फिर लौट आई और मैं उसके लिए जान तक क़ुर्बान करने को तैयार था। मगर ऐसे वा'दे तो उसने बारहा किए हैं और अब तो उस का एतबार तक उठ गया है। वो तो कह के भूल जाता है
लेकिन मैं अपने क़फ़स में नहीं भूलता और ख़ुशी और आज़ादी के ख़्वाब देखने लगता हूँ
उस वक़्त कि जब कि मैं अपनी ज़िंदगी का ख़ुद मालिक हूँगा। अब तो वो जब कभी मुझसे बातें करता है तो मेरे दिल में नफ़रत भर आती है और कोई भी इसकी आग को नहीं बुझा सकता लेकिन मैं उसके हाथों क़ैद हूँ और सब्र-ओ-मजबूरी के अलावा कुछ और चारा नहीं।



इस ज़ुल्म और तशद्दुद से मैं इस क़दर मजबूर हो जाता हूँ कि अपने मकान की खिड़कियों की सलाख़ों को पकड़ कर कराहने लगता हूँ। सिर्फ़ उसी तरह दुनिया के मुँह चिड़ाने और जग-हँसाई से निजात मिल सकती है और मेरे दिल को क़दरे सुकून होता है। मगर जब मेरा ग़ुस्सा कम हो जाता है तो कोफ़्त अपने पंजों में जकड़ लेती है और मैं अपने कमरों और मकान की काल-कोठरी में टहलने लगता हूँ और जब इससे भी आजिज़ आ जाता हूँ तो कुर्सियों पर बैठ के घंटों टूटे हुए फ़र्श या दीवारों को घूरा करता हूँ। कोफ़्त से आजिज़ आ कर एक रात मैं बाहर आया। जाड़ों का मौसम था और सड़कों पर बर्फ़ पड़ी हुई थी। यकायक मुझे क्लेरा का ख़्याल आ गया और उससे मिलने की निय्यत से स्टेशन की तरफ़ चल दिया।

जब मैंने घंटी बजाई तो नौकरानी ने दरवाज़ा खोला और मुझे देख कर इस तरह मुस्कुराई जैसे उसको इल्म था कि मैं किस लिए आता हूँ। उसकी हँसी में एक मुरझाई हुई बुढ़िया की वो ख़ुशी थी जो एक नौजवान मर्द और औरत के इकट्ठा होने के ख़्याल से पैदा हो जाती है। फिर उसके चेहरे पर एक और ही कैफ़ियत नुमायाँ हुई और उसने मुझे शिकायत की नज़र से इस तरह देखा जैसे उसकी नीलगूँ आँखें कह रही हों


तुम कितने ख़राब इंसान हो। एक लड़की को इतनी देर तक इंतिज़ार करवा दिया। उसके जज़्बा-ए-निसवानियत को ठेस पहुँची थी
इस जज़्बे को जिसके सबब जिंस एक लाजवाब और रूमानी शय मालूम होने लगती है और उसने भर्राई हुई आवाज़ से कहा




तुमने बड़ी देर लगा दी।

हाँ
ज़रा देर हो गई। वैसे तो ख़ैरियत है?



वो फिर हँसने लगी और सीढ़ियों पर चढ़ते वक़्त मेरी कमर पर एक मा'नी-ख़ेज़ तरीक़े से धप रसीद किया।

मैंने क्लेरा के कमरे का दरवाज़ा खोला। रेडियो पर कोई चीख़-चीख़ कर हिज़्यानी लहजे में तक़रीर कर रहा था। आतिश-दान में गैस की आग जल रही थी और एक कुर्सी पे सियाह टोपी रखी थी जिस पर सुनहरी फूल टँका हुआ था। नीले रंग की कुर्सियाँ और तकिये और सुर्ख़ क़ालीन बिजली की रौशनी में उदास-उदास मा'लूम हो रहे थे। और क्लेरा का कहीं पता न था। मुझे एक कोने से सिसकियों की आवाज़ आई। झाँक के जो देखा तो क्लेरा पलंग पर औंधी पड़ी रो रही थी। ये बात मुझे सख़्त नागवार हुई। माना कि मुझे देर हो गई लेकिन इस रोने के क्या मा'नी थे? मुझे उससे इश्क़ तो था नहीं।



क्या बात हुई? मैंने पूछा
रोती क्यों हो?



थोड़ी देर तक तो वो सुब्कियाँ लेती रही फिर डबडबाई हुई आँखों से शिकायत करने लगी।

तुम कभी वक़्त पर नहीं आते। रोज़-रोज़ देर करते हो। तुम्हें मेरी ज़रा भी चाह नहीं।



मैं बोला
देर ज़रूर हो गई
इसकी माफ़ी चाहता हूँ। लेकिन आख़िर इस तरह क्यों पड़ी हो?



तबियत ख़राब है। ये कह कर वो आँसू पोंछती हुई उठ बैठी और अपना हाल बयान करने लगी।

वो बातें कर रही थी लेकिन मेरे दिल में तरह-तरह के ख़्याल आ रहे थे। मेरी कोफ़्त कम न हुई थी। इसमें शक नहीं कि अव्वल तो वो हव्वा की औलाद थी और फिर औरत
लेकिन वो मुझसे क्या चाहती थी? उसका ख़्याल था कि मुझको अपने क़ब्ज़े में कर लेगी लेकिन उसको ये न मा'लूम था कि मुझ पर किसी का भी जादू नहीं चल सकता। वो अपनी ही जगह पर रह जाएगी और मैं दूसरी औरतों की तरफ़ दूसरी दुनियाओं में बढ़ जाऊँगा। मेरे लिए औरत महज़ एक खिलौना है


ऐसा ही बहलावा जैसे बाज़ीगर का तमाशा। जिस तरह बच्चे का दिल एक खिलौने से भर कर दूसरे खेलों में लग जाता है उसी तरह मैं भी एक ही बला में गिरफ़्तार होना नहीं चाहता। औरत एक सय्याद है और मर्द की रूह और जिस्म दोनों पर क़ब्ज़ा करना चाहती है। मैं अपने ख़्याल में खोया हुआ था। इस बात से उसके जज़्बा-ए-ख़ुद-नुमाई को इसलिए ठेस लगी कि मैं उसकी तरफ़ मुतवज्जेह न था।

छत मुझसे ज़्यादा दिलचस्प मा'लूम होती है। वो जल के बोली।



तुम भी कैसी बातें करती हो। मैं तुम्हारी बातें ग़ौर से सुन रहा हूँ।

तुम हमेशा यही करते हो। उसके इन अलफ़ाज़ में जलन का एहसास था।



मैं कितनी ही कोशिश क्यों न करूँ तुमको जान न पाऊँगी।

तुम ठीक कहती हो। मैं अपने आपको एक मुअम्मा मा'लूम होता हूँ। मैं बड़ा ख़ुद्दार हूँ।



हाँ तुम मग़रूर हो। औरतों ने तुम्हारा दिमाग़ ख़राब कर दिया है। मगर तुम इतने बुरे तो नहीं हो। तुम अपने आप में छिपे रहते हो
मैं निकालने की कोशिश करूँगी।

वो अपने को महज़ धोका दे रही थी। वो तो क्या मुझे निजात दिलाती मैं ख़ुद अपने से हार मान चुका हूँ। एक औरत ने मुझे अपने अंदर पनाह लेने पर मजबूर कर दिया था और अब मुझे कोई नहीं निकाल सकता।



अब तो ये मुमकिन नहीं
मैंने कहा
अपने तहफ़्फ़ुज़ के लिए क़िला बनाया था


ख़ुद ही मैंने इस क़ैदख़ाने की दीवारें खड़ी की थीं। अब मैं न तो इनको ढा ही सकता हूँ और न आज़ादी हासिल कर सकता हूँ।

मुझे उसकी आँखों में एक लम्हे के लिए परेशानी की झलक दिखाई दी। फिर उसने मुझे अपनी आग़ोश में ले लिया। न उसने मुँह से एक लफ़्ज़ निकाला न मैंने कुछ कहा। वो मुझे तस्कीन देना चाहती थी
इस बात का एहसास पैदा करा रही थी और मुझे अपनी हिफ़ाज़त में रखना चाहती थी। मुझे उस पर तरस आने लगा और अपनी हालत पर भी अफ़सोस हुआ।



मुझे अफ़सोस इस बात का है कि तुम्हारी मुलाक़ात ग़लत आदमी से हुई।

नहीं। ठीक आदमी से। और ये कह कर उसने मुझे ज़ोर से भींच लिया। मैं उसकी पीठ को थपकने लगा


उसने अपनी बाँहें ढीली कर दीं। लेकिन फिर उसने मुझे सीने से चिमटा लिया और मोहब्बत से कहा
मेरी जान! और बड़ी नर्मी और शफ़क़त से मुझे इस तरह झुलाने लगी जैसे मैं एक नन्हा बच्चा था
वो मामता भरी माँ और उसकी आग़ोश एक झूला जिस में आराम की नींद सो सकता था और दुनिया को भुला कर सब ख़ौफ़-ओ-ख़तर से निजात पा लेता।



बड़ी देर के बाद उसने मुझको जाने दिया। जब मैं स्टेशन पहुँचा तो बारह बज चुके थे और आख़िरी रेल छूट रही थी। मैं जब रेल से उतर के बाहर आया तो चौधवीं रात का चाँद ढले हुए आसमान पर चमक रहा था और उसकी रौशनी में सड़कें सफ़ेद बुर्राक़ बर्फ़ की रज़ाई ओढ़े पड़ी थीं। दरख़्तों के साए एक अजीब कैफ़ियत पैदा कर रहे थे और चाँदनी में बर्फ़ एक ख़्वाब की तरह ग़ैर हक़ीक़ी और ता'ज्जुब-ख़ेज़ मा'लूम होती थी। दासताने उतार कर मैंने ये देखने को बर्फ़ हाथ में उठाई कि कहीं रोई के गाले तो ज़मीन पर इसलिए नहीं बिछा दिये गए हैं कि इसको गर्म रखें। लेकिन वो मेरे हाथ की गर्मी से पिघल गई। मैं और उठाने को झुका। मेरे पैरों तले वो चर-मर कर के टूटी। मैंने जूते की नोक से ठोकर मारी। क्या वो सख़्त थी या नर्म? एक शख़्स जो पास से गुज़र रहा था
मुड़ के देखने लगा कि मैं कहीं पागल तो नहीं हूँ। फिर ये सोचता हुआ कि शायद कोई ख़ब्ती है
चला गया। मैं भी ताज़ी हवा के घूँट लेता हुआ आगे बढ़ा। दूर-दूर जिस तरफ़ भी निगाह उठती थी
हर चीज़ एक ख़्वाब की तरह अनोखी और ख़ूबसूरत मा'लूम हो रही थी।



मकान के दाएं तरफ़ क़ब्रिस्तान है। इसके अंदर क़ब्रें हैं
लेकिन क़ैदियों का अब नाम-ओ-निशान भी बाक़ी नहीं। सिर्फ़ पत्थर और तारीक कोठरियाँ ज़िंदगी की ना-पायदारी और दुनिया की बे-सबाती की याद दिलाने को अभी तक मौजूद हैं।



पुश्त पर डरावना और भयानक जंगल है। उसमें अजीब-अजीब आवाज़ें और ख़्वाब छिपे हुए हैं। अक्सर शेरों के दहाड़ने की आवाज़ आती है और शाम को लाखों कव्वे काँय-काँय करके आसमान सर पर उठा लेते हैं। मगर उसके अंदर आज़ादी और इस ला-मुतनाही क़ैद ख़ाने से रिहाई की उम्मीद भी झलकती है। एक दिन मैं भी उसमें क़दम रखूँगा। लेकिन अगर ये भी क़ैद-ख़ाना साबित हुआ तो फिर मैं किधर जाऊँगा? यहाँ कम से कम आज़ादी की उम्मीद तो है। जंगल में शायद ये भी न हो। ये ख़्यालात मुझे अक्सर परेशान किया करते हैं।

एक रात मैं उस बरामदे में सो रहा था जो जंगल से मुल्हिक़ है। कोई आधी रात गए ऊपर की मंज़िल पर किवाड़ों के धड़-धड़ाने की आवाज़ से मेरी आँख खुल गई। मैंने सोचा शायद नौकर किवाड़ बंद करने भूल गए और आँधी चल रही है। मैं लेट गया
लेकिन धड़-धड़ कम न हुई। मैं फिर उठ बैठा। उसी वक़्त ऊपर किसी के चलने की आवाज़ आई। मैंने अपने दिल में कहा कि जौन होगा। वो अक्सर मिलने आ जाता है।



जौन ईस्ट इंडिया कम्पनी का सिपाही है और 1857 में मारा गया। मैं उससे पहली मर्तबा एक पार्टी में मिला था। उस पार्टी में कुछ लड़के-लड़कियाँ
मुसन्निफ़ और मुसव्विर और चेकोस्लोवाकिया के दो-एक गोशे मौजूद थे। जौन ख़ुद बहुत सादा-लौह
नर्म-दिल और ख़ामोश तबियत था। वो एक छोटे से कमरे में रहता था और मक्खन-डबल रोटी पर गुज़ारा करता था। कभी-कभी हम चीनी खाना खाते और पकेडेली में घूमते। हम दोनों ने लंदन की गलियों की ख़ाक छानी है और दुकानों में काम करने वाली लड़कियों और तवायफ़ों के थके हुए पज़मुर्दा चेहरों का मुतालेआ किया है


या लेस्टर स्ट्रीट में छोटे-छोटे गंदे लौंडों का। वो आहिस्ता-आहिस्ता अटक-अटक कर नर्मी से बातें करता था। उसके चेहरे पर बच्चों की सी मासूमियत थी। उसकी परवरिश दूध और शहद पर हुई थी।

जौन
किस बेवक़ूफ़ ने तुमको इस बात की सलाह दी कि फ़ौज में भरती हो कर इस दर्द-अंगेज़ मुल्क में आओ? तुम्हें तो चाहिए था कि वहीं रहते और दोस्तों को चाय पिलाया करते।



इसके बाद ही उसे मुक़ाबले पर आना पड़ा। जैसे ही वो रेज़ीडेन्सी की दिवार फाँद के मैदान में आया तो उसका सामना एक हिन्दुस्तानी सिपाही से हुआ। वो निशाना लेने को झुका। सिपाही जिसकी चढ़ी हुई डाढ़ी और लाल-लाल आँखें ख़ौफ़नाक मा'लूम होती थीं
बड़ा नर्म-दिल था और उसने जौन पर रहम खाया। जैसे ही जौन ने घुटना टेक के शिस्त ली
सिपाही बोला




क़िब्ला गोरे सँभल कर
कहीं तुम्हारी गोरी-गोरी टाँग मैली न हो जाए। और फिर तारीकी थी। जौन


तुम्हारी टाँग कहीं मैली तो नहीं हो गई...? दरवाज़ा खुला हुआ था। लकड़ी की सीढ़ियों पर खटपट करता हुआ मैं ऊपर चढ़ा। बिल्ली खिड़की में बैठी थी
आतिश-दान में गैस की आग जल रही थी
लेकिन कमरे में इंसान का नाम-ओ-निशान ही न था। गर्म-कोट उतार के मैं अंदर दाख़िल हुआ। लकड़ी की आराम कुर्सी प मेगी बैठी थी। उसका चेहरा सुता हुआ
बाल सुर्ख़


उंगलियाँ सिगरेट से लाल और दिल मुलायम था।

हेलो मेगी
तुम भी हो? और सब कहाँ हैं?



शराब ख़ाना गए हुए हैं। उसने भारी आवाज़ से बग़ैर होंट हिलाए हुए कहा। उसके ज़र्द दाँत चमक रहे थे और उसकी आँखें कहीं दूर परे देख रही थीं।

मेगी ख़ामोश बैठी रही। उसके ख़्यालात अफ़्रीक़ा या मिस्र की सैर कर रहे थे और वहाँ मर्दों के ख़्वाब देख रही थी जिनको आशिक़ बनाने की तमन्ना उसके दिल में थी मगर पूरी न हो सकती थी। वो साकित बैठी सिगरेट पीती रही। मैं भी ख़्यालों की दुनिया में खो गया। मेरी आँखें गोगाँ की तस्वीर पर पड़ीं और चल के कॉर्नेस पर घड़ी पर ठहरीं और मेगी के चेहरे पे आ कर रुक गईं। उसके चेहरे पर हड्डियाँ ही हड्डियाँ


बाल पके हुए भुट्टे की तरह सुर्ख़ और सख़्त हैं
होंट इलायची के पत्तों की तरह बारीक और दाँत बड़े-बड़े और ज़र्द हैं। मुझे ऐसा मा'लूम हुआ कि मैं हड्डियों के ढेर को देख रहा हूँ। यकायक मुझे ख़्याल आया कि मेगी तो एक हवाई हमले में काम आ गई थी और मैंने कहा




मेगी तुम तो एक हवाई हमले में काम आ गई थीं।

हल्की सी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर दौड़ गई। उसकी आवाज़ कहीं दूर से एक ढोल की तरह आई
हाँ


मैं मर तो गई थी।

हाय बेचारी मेगी। क्या ज़ख़्मों से बहुत तकलीफ़ हुई?



हाँ शुरू-शुरू में
बस ख़फ़ीफ़ सी और फिर तो कुछ मा'लूम भी नहीं हुआ।

अच्छा ये तो बताओ तुम्हें वो आशिक़ भी मिले या नहीं?



मुस्कुराहट उसके होंटों पर फिर खेलने लगी और बढ़ते-बढ़ते सारे चेहरे पर फैल गई।

हाँ सबके सब मिल गए।



तो अब तो ख़ुश हो
मेगी? वो अच्छे हैं ना?



वो फिर कहीं दूर देखने लगी। उसके चेहरे पर संजीदगी और मतानत आ गई। मेगी सोच में पड़ गई।

जो सच पूछो तो मायूस-कुन निकले। मेरे अपने दिमाग़
मेरे तख़य्युल में वो बहुत अच्छे थे


लेकिन हक़ीक़त में गोश्त और हड्डियों के ढंचर निकले।

हाँ मैंने कहा
वो चीज़ जो तख़य्युल में बस्ती है


उससे ब-दरजहा ख़ुशनुमा और लाजवाब होती है जिस को इन्सान छू सकता है और महसूस कर सकता है
लेकिन मुझे ये सुन कर बहुत ही अफ़सोस हुआ कि तुम ख़ुश नहीं हो।

उसकी आँखों में ऐसा तरस झलक उठा जो इंसान अपने लिए ख़ुद महसूस करता है। वो आग की तरफ़ घूरने लगी और मुझसे और दुनिया से बहुत दूर अपने ख़्याल में खो गई। लेकिन अब ग़ुब्बारे आसमान पर चढ़ चुके थे। सड़क सुनसान थी और शह्र पर सन्नाटा छा चला था। ईस्ट एंड के रहने वाले अँधेरे के सबब घरों को चल दिए थे। सिर्फ़ दो-एक ही अपनी-अपनी माशूक़ाओं की कमरों में हाथ डाले कहीं-कहीं कोनों में खड़े थे या बंद दुकानों के दरवाज़ों में खड़े प्यार कर रहे थे। शफ़क़ आसमान पर फूली हुई थी।



अच्छा मेगी
मैं अब चल दिया। ज़रा टहलने को जी चाहता है।



और मैं भी शराब-ख़ाने में उन सबके साथ एक ग्लास पियूँगी। ख़ुदा हाफ़िज़।

ख़ुदा हाफ़िज़
मेगी।



मकान के बाएँ तरफ़ हिमालय की बर्फ़ानी चोटियाँ आसमान से बातें करती हैं। शफ़क़ उनको सुर्ख़
गुलाबी और नारंजी रंगों में रंग देती है। उनके दामन में दरिया-ए-व्यास का ज़मर्रुदी पानी एक सुरीला नग़मा गाता
चट्टानों


दरख़्त और रेत के छोटे-छोटे ख़ुशनुमा जज़ीरे बनाता
पहाड़ों
बर्फ़ और मैदानों की क़ैद से आज़ादी हासिल करने और समुंद्र की मुहब्बत-भरी आग़ोश में अपने रंजों को भुलाने की तमन्ना में बहता हुआ चला जाता है।



सामने देव बन है और उसके परे पहाड़ की चोटी पर बिजली के देवता पर साल में एक दफ़ा बिजली कड़कती है और बादल गरजते हैं। मंदिर में एक के बाद दो सात कमरे हैं। सातवें कमरे में पुजारी का लड़का आँखों पे पट्टी बाँधे बैठा एक पत्थर की हिफ़ाज़त करता है। जब बिजली कड़क के पत्थर पर गिरेगी तो उसके हज़ार-हा टुकड़े हो जाएँगे। लेकिन पुजारी का लड़का उनको समेट कर इकट्ठा कर लेगा और वो फिर जुड़ जाएँगे।

पहाड़ियों के अंदर एक दर्रा है। उसके दोनों तरफ़ ढालों पर चीड़ के ख़ुशबू-दार दरख़्त उगे हुए हैं और एक रास्ता बल खाता हुआ ख़ामोश अनजान में खो जाता है। मेरे क़दम दर्रे की तरफ़ उठते हैं। पहाड़ियों के बीच से निकल कर एक सूखी हुई गुमनाम नदी वादी में बहती है। एक पन-चक्की के बराबर पहाड़ के दामन में सात खेत हैं। दिन-भर उनमें मर्द और औरतें धान बो रहे थे। सबसे नीचे के खेत से शुरू करके वो सबसे ऊपर के खेत तक पहुँच चुके थे। मैंने सोचा कि वो अब भी धान बो रहे होंगे लेकिन ऊपर का खेत पानी से भरा हुआ है और छ: औरतें और एक मर्द घुटनों-घुटनों कीचड़ में खड़े हैं। मा'लूम होता है कि जंग पर आमादा हैं। यकायक मर्द एक औरत पे झपटा और उसे कमर पर उठा कर पानी में फेंक दिया। औरतें मिल कर उसकी तरफ़ बढ़ीं लेकिन वो उनसे एक-एक करके मुक़ाबला करता रहा। ये खेल बड़ी देर तक जारी रहा। वो उनको मअ कपड़ों के पानी में ग़ोते देता और वो कुछ न बोलतीं। मैं खड़ा हुआ जिंस और बोने के मौसम की इस रस्म का तमाशा देखता रहा।



जब मैं टहल के वापस आया तो क्या देखता हूँ कि उन सब ने मैले कपड़े उतार के सफ़ेद कपड़े पहन लिए हैं। फिर वादी मौसीक़ी की आवाज़ से गूँजने लगी। बहुत से मर्द और औरतें इस तरह नमूदार हो गये जैसे कि सब पहाड़ से निकल आए हों। वो जुलूस बना कर एक पगडंडी से पहाड़ पर चढ़ने लगे। ढोल
मजीरों और बांसुरियों की आवाज़ फ़िज़ा में फैल गई और राग एक वहशियाना वज्द से भरा नाच का राग था। रगों में ख़ून इस तरह रुकता और फिर बहने लगता था जैसे जवानी में महबूबा की एक झलक देख लेने पर दिल की हरकत।

जुलूस बल खाता हुआ एक झोंपड़ी के सामने चबूतरे पर रुक गया। जब सब बैठ गए तो मौसीक़ी फिर अठखेलियाँ करने लगी और एक मर्द हाथ फैला के कूल्हे मटका-मटका कर इस तरह नाचने लगा जैसे जंगल में मोर जज़्बे में मस्त। फिर और लोग भी नाच रंग में शरीक हो गये और गाने बजाने की आवाज़ पहाड़ों की चोटियों से टकराने लगी। लेकिन अब साए लम्बे हो चले और रात की आमद है और मैं भी अपने क़ैद-ख़ाने की तरफ़ रवाना हो गया।



रास्ते में लीला का मकान पड़ा और मैं उससे मिलने ठहर गया। उसके कमरे में एक ख़ास निसवानी बू रची हुई थी और मेज़ों पर काग़ज़ और किताबें फैली थीं। मैं बैठा ही था कि वो ख़ुद दौड़ती हुई बरामदे में से नमुदार हुई। वो एक सादी सफ़ेद रंग की साड़ी

- अहमद-अली