फिर ये हंगामा...

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“मज़हब दरअसल बड़ी चीज़ है। तकलीफ़ में, मुसीबत में, नाकामी के मौक़ा पर, जब हमारी अक़्ल काम नहीं करती और हमारे हवास मुख़्तल होते हैं, जब हम एक ज़ख़्मी जानवर की तरह चारों तरफ़ डरी हुई बेबसाना नज़रें दौड़ाते हैं, उस वक़्त वो कौन सी ताक़त है जो हमारे डूबते हुए दिल को सहारा देती है? मज़हब! और मज़हब की जड़ ईमान है। ख़ौफ़ और ईमान।
मज़हब की ता’रीफ़ लफ़्ज़ों में नहीं की जा सकती। उसे हम अक़्ल के ज़ोर से नहीं समझ सकते। ये एक अंदरूनी कैफ़ीयत है...”

“क्या कहा? अंदरूनी कैफ़ीयत?”
“ये कोई हँसने की बात नहीं, मज़हब एक आसमानी ज़िया है जिसके पर्तो में हम कायनात का जलवा देखते हैं। ये एक अंदरूनी...” [...]

दुलारी

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गो कि बचपन से वो इस घर में रही और पली, मगर सोलवहीं सत्हवींर बरस में थी कि आख़िर-ए-कार लौंडी भाग गई। उसके माँ-बाप का पता नहीं था। उसकी सारी दुनिया यही घर था और उसके घर वाले। शेख़ नाज़िम अली साहिब ख़ुशहाल आदमी थे, घराने में माशाअल्लाह कई बेटे और बेटियां भी थीं। बेगम साहिबा भी ब-क़ैद-ए-हयात थीं और ज़नाना में उनका पूरा राज था। दुलारी ख़ास उनकी लौंडी थी। घर में नौकरानियां और मामाएँ आतीं। महीने दो महीने , साल दो साल काम करतीं उसके बाद ज़रा सी बात पर झगड़ कर नौकरी छोड़ देतीं और चली जातीं मगर दुलारी के लिए हमेशा एक ही ठिकाना था। उससे घर वाले काफ़ी मेहरबानी से पेश आते। ऊंचे दर्जे के लोग हमेशा अपने से नीचे तबक़े वालों का ख़्याल रखते हैं। दुलारी को खाने और कपड़े की शिकायत न थी। दूसरी नौकरानियों के मुक़ाबले में उस की हालत अच्छी ही थी। मगर बावजूद इसके कभी- कभी जब किसी मामा से और उससे झगड़ा होता तो वो ये तंज़ हमेशा सुनती मैं तेरी तरह कोई लौंडी थोड़ी हूँ। इसका दुलारी के पास कोई जवाब न होता।
उसका बचपन बेफ़िक्री में गुज़रा। उसका रुत्बा घर की बी बीवी से तो क्या नौकरानियों से भी पस्त था। वो पैदा ही उस दर्जे में हुई थी। ये तो सब ख़ुदा का किया धरा है, वही जिसे चाहता है इज़्ज़त देता है जिसे चाहता है ज़लील करता है, इसका रोना किया? दुलारी को अपनी पस्ती की कोई शिकायत न थी। मगर जब उस की उम्र का वो ज़माना आया जब लड़कपन का ख़त्म और जवानी की आमद होती है और दिल की गहरी और अँधेरी बेचैनियां ज़िंदगी को कभी तल्ख़ और कभी मीठी बनाती हैं तो वो अक्सर रंजीदा सी रहने लगी। लेकिन ये एक अंदरूनी कैफ़ीयत थी जिसकी उसे ना तो वजह मालूम थी ना दवा। छोटी साहबज़ादी हसीना बेगम और दुलारी दोनों क़रीब क़रीब हमसिन थीं और साथ खेलतीं। मगर जूँ-जूँ उनका सन बढ़ता था तूं तूं दोनों के दरमियाँ फ़ासिला ज़्यादा होता जाता। साहबज़ादी क्यों कि शरीफ़ थीं उनका वक़्त पढ़ने लिखने, सीने पिरोने, में सर्फ होने लगा। दुलारी कमरों की ख़ाक साफ़ करती, झूटे बर्तन धोती, घड़ों में पानी भर्ती। वो ख़ूबसूरत थी। कुशादा चेहरा, लंबे- लंबे हाथ पैर, भरा जिस्म, मगर आम तौर से उस के कपड़े मैले कुचैले होते और उसके बदन से बू आती। त्योहार के दिनों अलबत्ता वो अपने रखाऊँ कपड़े निकाल कर पहनती और सिंगार करती, या अगर कभी शाज़-ओ-नादिर उसे बेगम साहिबा या साहबज़ादियों के साथ कहीं जाना होता तब भी उसे साफ़ कपड़े पहनना होते।

शब-ए-बरात थी। दुलारी गुड़िया बनी थी। ज़नाने के सेहन में आतिशबाज़ी छूट रही थी। सब घर वाले नौकर-चाकर खड़े तमाशा देखते। बच्चे गुल्ल मचा रहे थे। बड़े साहबज़ादे काज़िम भी मौजूद थे जिनका सिन बीस-इक्कीस बरस का था। ये अपनी कॉलेज की ता’लीम ख़त्म ही करने वाले थे। बेगम साहिबा उन्हें बहुत चाहती थीं मगर ये हमेशा घरवालों से बेज़ार रहते और उन्हें तंगख़याल और जाहिल समझते। जब छुट्टीयों में घर आते तो उनको बहस ही करते गुज़र जाती, ये अक्सर पुरानी रस्मों के ख़िलाफ़ थे मगर इज़हार-ए- नाराज़ी करके सब कुछ बर्दाश्त कर लेते। इससे ज़्यादा कुछ करने के लिए तैयार नहीं थे।
उन्हें प्यास लगी, और उन्होंने अपनी माँ के कंधे पर सर रखकर कहा, “अम्मी जान प्यास लगी है”। [...]

जवाँ-मर्दी

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वो मेरी बीवी जा रही, मगर उसके लबों पर इस मुस्कुराहट का नाम तक नहीं जैसा कि लोगों ने मेरी तस्कीने क़ल्ब के लिए मुझसे कहा था। बस हड्डीयों का एक ढांचा है। उसकी भयानक सूरत से ज़ाहिर होता है कि वो एक मुह्लिक बीमारी का शिकार है और मौत का ख़ौफ़ उस पर तारी है। उस की आँखों में मेरे लिए अब लुत्फ़ और प्यार की जगह बेगानगी और नफ़रत है, मैं मुस्तहिक़ ही इसका था। इस नफ़रत की वजह, वो नाज़ाईदा बच्चा है जिसका सर उसके कुल्हे की हड्डीयों में अब तक फंसा दिखाई देता है जिसकी वजह से उसकी जान गई। ये भला किसे ख़्याल हो सकता था कि मेरी बीवी को मरते वक़्त मुझसे नफ़रत होगी। मैंने उसको तक्लीफ़ और मौत से बचाने के लिए कौन सी बात उठा रखी थी, मगर नहीं। मैं ही उस की मौत का बाइ’स हुआ मैंने ही उसको दर्द और दुख पहुंचाया, मर्दों की जहालत और हिमाक़त की कोई इंतिहा नहीं। मगर ये भी कहना सही नहीं कि मैं जहालतऔर हिमाक़त का शिकार था। हाँ ये सरासर ग़लत है। दरअसल मैं ग़रूर के पंजे में गिरफ़्तार था जिसका मुझे ए’तिराफ़है।
हमारी शादी ऐसी उ’म्र में हुई थी जब हम में एक दूसरे के जज़्बात समझने की सलाहियत तक न थी। लेकिन बाद में जो हादिसा पेश आया उसका इल्ज़ाम मैं क़िस्मत, या ऐसे हालात पर जिन पर मुझे कोई क़ाबू न था, नहीं रखना चाहता।

मुझे अपनी बीवी से कभी मुहब्बत नहीं हुई और होती भी कैसे? हम दो मुख़्तलिफ़ दायरा ज़िंदगी में गर्दां थे। मेरी बीवी पुराने ज़माने की तंग-ओ-तारीक गलियों में और मैं नए ज़माने की साफ़ और चौड़ी पक्की सड़कों पर। लेकिन जब मैं दूसरे मुल्कों में गया और उससे कई बरस तक जुदा रहा तो कभी कभी मेरा दिल उसके लिए बेचैन होता था। वो अपने छोटे से मुस्तहकम पुराने क़िले में थी, और मैं ज़िंदगी की दवा दोश फ़ुज़ूल और बेफ़ैज़ इ’श्क़-बाज़ी से तंग आकर कभी कभी इस पाक-ओ-बावफ़ा औरत का ख़्वाब देखा करता था जो बिला किसी मुआ’वज़े के मुझ पर से सब कुछ निसार करने के लिए तैयार थी। जब मेरी ये कैफ़ियत होती... तो बेताबी के साथ मुझे उससे मिलने की ख्वाहिश होती। एक दफ़ा’ मुझ पर ऐसी ही कैफ़ियत तारी थी कि मुझे उसका एक ख़त मिला। मैं बेक़रार हो गया और फ़ौरन छः हज़ार मील के फ़ासले से वतन की तरफ़ चल पड़ा। उसने ख़त में लिखा था,
“मैंने अभी तकिये के नीचे से आपका ख़त निकाल कर पढ़ा। बहुत मुख़्तसर है। ग़ालिबन आप अपने में मशग़ूल होंगे, मगर ख़ैर मुझे इसकी कोई शिकायत नहीं, बस आपकी मुझे ख़ैरित मा’लूम होती रहे और आप अच्छे रहें और ख़ुश रहें, मेरे लिए यही काफ़ी है। जब से मैं बीमार हूँ सिवाए इसके कि आपको याद करूँ और उन अ’जीब अ’जीब चीज़ों और नए नए लोगों का ख़्याल करूँ जिनसे आप वहां मिलते होंगे मुझे और काम नहीं, मुझसे चला नहीं जाता इस वजह से पलंग पर पड़ी पड़ी तरह तरह के ख़्याल किया करती हूँ। कभी तो इस में लुत्फ़ आता है और कभी इससे सख़्त तक्लीफ़ होती है, जब लोग मेरी सेहत के बारे में गुफ़्तगु करते हैं और मुझसे इज़हार-ए-हमदर्दी करते हैं और ये नसीहत करते हैं तो मुझे बड़ी कोफ़्त होती है, ये लोग ये तक नहीं समझते कि मुझे क्या रोग है। उन्हें सिर्फ अपनी तस्कीने क़ल्ब के लिए मेरी हालत पर रहम आता है। अपने वालिदैन पर भी बार हूँ, वो अपने जी में ख़्याल करते होंगे कि बावजूद मेरी शादी हो जाने के मैं ऐसी बदनसीब हूँ कि उनके गले पड़ी हूँ। इसका नतीजा ये है कि मैं हरवक़त इस कोशिश में रहती हूँ कि बहुत ज़्यादा मायूसी और रंज का इज़हार न करूँ और मेरे वालिदैन ऐसी कोशिश करते हैं जिससे ये ज़ाहिर होता है कि उन्हें मेरी बीमारी की वजह से बड़ा तरद्दुद और फ़िक्र है। ग़रज़ दोनों तरफ़ बनावट ही बनावट है। मैं आपसे किसी बात की शिकायत करना नहीं चाहती और न आपके काम में हारिज होना चाहती हूँ। आप मुझे भूल न जाएं और कभी कभी ख़त लिख दिया करें, मेरे लिए यही बहुत है बल्कि कभी कभी तो मुझे ये ख़्याल होता है कि आपका मुझसे दूर ही रहना बेहतर है। मुझे डर इस बात का है कि जैसे बीमारी के बाद से यहां मैं क़रीब क़रीब सबसे ना-आशना सी हो गई हूँ वैसे ही मैं कहीं आपको भी न खो बैठूँ। दिन रात मेरी बुरी हालत देखकर कहीं आपका दिल भी मेरी तरफ़ से न हट जाये। वहां से तो आप महज़ इस का तसव्वुर कर सकते हैं और मैं आपको अपना वो कामिल दमसाज़ तसव्वुर कर सकती हूँ जिसकी मेरे दिल को तमन्ना है।” [...]

जन्नत की बशारत

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लखनऊ इस ज़वाल की हालत में भी उलूम इस्लामिया का मर्कज़ है। मुतअद्दिद अरबी मदारिस आजकल के पुर-आशोब ज़माने में शम्मा हिदायत रोशन किए हुए हैं। हिन्दोस्तान के हर गोशे से हरारत ईमानी रखने वाले क़ुलूब यहां आकर तहसील इल्म-ए- दीन करते हैं और इस्लाम की अज़मत क़ायम रखने में मुऐय्यन होते हैं। बदक़िस्मती से वो दो फ़िरक़े जिनके मदारिस लखनऊ में हैं एक दूसरे को जहन्नुमी समझते हैं। मगर अगर हम अपनी आँखों से इस फ़िर्काबंदी की ऐनक उतार दें और ठंडे दिल से इन दोनों गिरोह के असातिज़ाऔर तलबा पर नज़र डालें तो हम इन सब के चेहरों पर इस ईमानी नूर की झलक पाएँगे जिससे उनके दिल और दिमाग़ मुनव्वर हैं। उनके लबेत कुरते और क़बाएँ, उनकी कफ़श और स्लीपर, उनकी दो पल्ली टोपियां, उनका घुटा हुआ गोल सर और उनकी मुतबर्रिक दाढ़ियाँ जिनके एक एक बाल को हूरें अपनी आँखों से मलेंगी, इन सबसे उनका तक़द्दुस और ज़ोहद टपकता है। मौलवी मुहम्मद दाऊद साहिब बरसों से एक मदरसे में दर्स देते हैं और अपनी ज़हानत के लिए मशहूर थे। इबादत गुज़ारी का ये आलम था कि माह-ए- मुबारक रमज़ान में रात की रात, तिलावत-ओ- नमाज़ ख़्वानी में गुज़र जाती थी और उन्हें ख़बर तक ना होती। दूसरे दिन जब दौरान दर्स में नींद का ग़लबा होता था तो तालिब-इल्म समझते थे कि मौलाना पर-कैफ़ रुहानी तारी है और ख़ामोशी से उठकर चले जाते।
रमज़ान का मुबारक महीना हर मुस्लमान के लिए रहमते इलाही है। अली उल-ख़ुसूस जब रमज़ान मई और जून के लंबे दिन और तप्ती हुई धूप के साथ साथ पड़े। ज़ाहिर है कि इन्सान जिस क़दर ज़्यादा तकलीफ़ बर्दाश्त करता है उसी क़दर ज़्यादा सवाब का मुस्तहिक़ होता है। इन शदीद गर्मी के दिनों में अल्लाह का हर नेक बंदा मिस्ल एक बिफरे हुए शेर के होता है जो राह-ए- ख़ुदा मैं जिहाद करता हो। उस का ख़ुश्क चेहरा और उसकी धंसी हुई आँखें पुकार पुकार कर कहती हैं कि: ए वो गिरोह जो ईमान नहीं लाते और ए वो बदनसीबो! जिनके ईमान डगमगा रहे हैं, देखो! हमारी सूरत देखो! और शर्मिंदा हो। तुम्हारे दिलों पर, तुम्हारी समाअत पर और तुम्हारी बसारत पर अल्लाह पाक ने मुहर लगादी है, मगर वो जिनके दिल ख़ौफ़-ए- ख़ुदा से थर्रा रहे हैं, इस तरह उस की फ़र्मांबरदारी करते हैं।

यूं तो माह-ए- मुबारक का हर दिन और हर रात इबादत के लिए है मगर सबसे ज़्यादा फ़ज़ीलत शब-ए- क़द्र की है। इस रात को बारगाह ख़ुदावंदी के दरवाज़े इजाबत-ए- दुआ के लिए खोल दिए जाते हैं, गाया गारों की तौबा क़बूल कर ली जाती है और मोमिनीन बेहद-ओ- हिसाब सवाब लौटे हैं।
ख़ुशनसीब हैं वो बंदे जो इस शब मसऊद को नमाज़ ख़्वानी और तिलावते क़ुरआन-ए- मजीद में बसर करते हैं। मौलवी दाऊद साहिब कभी ऐसे अच्छे मौक़ों पर कोताही ना करते थे। इन्सान हर हर लम्हा और साअत में ना मालूम कितने गुनाहों का मतरतकब होता है अच्छे बुरे हज़ारों ख़्याल दिमाग़ से गुज़रते हैं। क़ियामत के होलनाक दिन जब हर शख़्स के गुनाह और सवाब तौले जाऐंगे और रत्ती रत्ती का हिसाब देना होगा तो क्या मालूम क्या नतीजा हो। इसलिए बेहतर यही है कि जितना ज़्यादा सवाब मुम्किन हो हासिल कर लिया जाये। [...]

गर्मियों की एक रात

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मुंशी बरकत अली इशा की नमाज़ पढ़ कर चहलक़दमी करते हुए अमीनाबाद पार्क तक चले आए। गरमियों की रात, हवा बंद थी। शर्बत की छोटी छोटी दुकानों के पास लोग खड़े बातें कर रहे थे। लौंडे चीख़ चीख़ कर अख़बार बेच रहे थे, बेले के हार वाले हर भले मानुस के पीछे हार लेकर लपकते। चौराहे पर ताँगा और यक्का वालों की लगातार पुकार जारी थी।
“चौक! एक सवारी चौक! मियां चौक पहुंचा दूं!”

“ए हुज़ूर कोई ताँगा वांगा चाहिए?”
“हार बेले के! गजरे मोतिए के!” [...]

दिल्ली की सैर

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“अच्छी बहन हमें भी तो आने दो,” ये आवाज़ दालान में से आई, और साथ ही एक लड़की कुरते के दामन से हाथ पोंछती हुई कमरे में दाख़िल हुई।
मलिका बेगम ही पहली थीं जो अपनी सब मिलने वालियों में पहले-पहल रेल में बैठी थीं। और वो भी फरीदाबाद से चल कर दिल्ली एक रोज़ के लिए आई थीं मुहल्ले वालियाँ तक उनकी दास्तान सफ़र सुनने के लिए मौजूद थीं।

“ए है आना है तो आओ! मेरा मुँह तो बिल्कुल थक गया। अल्लाह झूट ना बुलवाए तो सैंकड़ों ही बार तो सुना चुकी हूँ। यहां से रेल में बैठ कर दिल्ली पहुंची और वहां उनके मिलने वाले कोई निगोड़े स्टेशन मास्टर मिल गए। मुझे अस्बाब के पास छोड़ ये रफूचक्कर हुए और मैं अस्बाब पर चढ़ी बुर्क़े में लिपटी बैठी रही। एक तो कम्बख़्त बुर्क़ा, दूसरे मरदुवे। मर्द तो वैसे ही ख़राब होते हैं, और अगर किसी औरत को इस तरह बैठे देख लें तो और चक्कर पर चक्कर लगाते हैं। पान खाने तक नौबत न आई। कोई कम्बख़्त खाँसे, कोई आवाज़े कसे, और मेरा डर के मारे दम निकला जाये, और भूक वो ग़ज़ब की लगी हुई कि ख़ुदा की पनाह! दिल्ली का स्टेशन क्या है बुआ क़िला भी इतनी बड़ा न होगा। जहां तक निगाह जाती थी स्टेशन ही स्टेशन नज़र आता था और रेल की पटरियाँ, इंजन और माल गाड़ियां। सबसे ज़्यादा मुझे उन काले काले मर्दों से डर लगा जो इंजन में रहते हैं”।
“इंजन में कौन रहते हैं?” किसी ने बात काट कर पूछा। [...]

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