आह-ए-बेकस

Shayari By

मुंशी राम सेवक भवें चढ़ाए हुए घर से निकले और बोले, ऐसी ज़िंदगी से तो मौत बेहतर।
मौत की दस्त दराज़ियों का सारा ज़माना शाकी है। अगर इन्सान का बस चलता तो मौत का वुजूद ही न रहता, मगर फ़िलवाक़े मौत को जितनी दावतें दी जाती हैं उन्हें क़ुबूल करने की फ़ुर्सत ही नहीं। अगर उसे इतनी फ़ुर्सत होती तो आज ज़माना वीरान नज़र आता।

मुंशी राम सेवक मौज़ा चांद-पुर के एक मुमताज़ रईस थे और रुअसा के औसाफ़-ए-हमीदा से बहरावर वसीला मआश इतना ही वसीअ था जितनी इन्सान की हिमाक़तें और कमज़ोरियाँ यही उनकी इमलाक और मौरूसी जायदाद थी। वो रोज़ अदालत मुंसफ़ी के अहाते में नीम के दरख़्त के नीचे काग़ज़ात का बस्ता खोले एक शिकस्ता हाल चौकी पर बैठे नज़र आते थे और गो उन्हें किसी ने इजलास में क़ानूनी बहस या मुक़द्दमे की पैरवी करते नहीं देखा, मगर उर्फ़-ए-आम में वो मुख़्तार साहब मशहूर थे। तूफ़ान आए, पानी बरसे, ओले गिरें। मगर मुख़्तार साहब किसी नामुराद दिल की तरह वहीं जमे रहते थे। वो कचहरी चलते थे तो दहक़ानियों का एक जुलूस सा नज़र आता। चारों तरफ़ से उन पर अक़ीदत व एहतराम की निगाहें पड़तीं और अतराफ़ में मशहूर था कि उनकी ज़बान पर सरस्वती हैं।
उसे वकालत कहो या मुख़्तार कारी मगर ये सिर्फ़ ख़ानदानी या एज़ाज़ी पेशा था। आमदनी की सूरतें यहां मफ़क़ूद थीं। नुक़रई सिक्कों का तो ज़िक्र ही क्या कभी कभी मिसी सिक्के भी आज़ादी से आने में तअम्मुल करते थे। [...]

आह-ए-बेकस

Shayari By

मुंशी राम सेवक भवें चढ़ाए हुए घर से निकले और बोले, "ऐसी ज़िंदगी से तो मौत बेहतर।"
मौत की दस्त दराज़ियों का सारा ज़माना शाकी है। अगर इन्सान का बस चलता तो मौत का वुजूद ही न रहता, मगर फ़िलवाक़े मौत को जितनी दावतें दी जाती हैं उन्हें क़ुबूल करने की फ़ुर्सत ही नहीं। अगर उसे इतनी फ़ुर्सत होती तो आज ज़माना वीरान नज़र आता।

मुंशी राम सेवक मौज़ा चांद-पुर के एक मुमताज़ रईस थे और रुअसा के औसाफ़-ए-हमीदा से बहरावर वसीला मआश इतना ही वसीअ था जितनी इन्सान की हिमाक़तें और कमज़ोरियाँ यही उनकी इमलाक और मौरूसी जायदाद थी। वो रोज़ अदालत मुंसफ़ी के अहाते में नीम के दरख़्त के नीचे काग़ज़ात का बस्ता खोले एक शिकस्ता हाल चौकी पर बैठे नज़र आते थे और गो उन्हें किसी ने इजलास में क़ानूनी बहस या मुक़द्दमे की पैरवी करते नहीं देखा, मगर उर्फ़-ए-आम में वो मुख़्तार साहब मशहूर थे। तूफ़ान आए, पानी बरसे, ओले गिरें। मगर मुख़्तार साहब किसी नामुराद दिल की तरह वहीं जमे रहते थे। वो कचहरी चलते थे तो दहक़ानियों का एक जुलूस सा नज़र आता। चारों तरफ़ से उन पर अक़ीदत व एहतराम की निगाहें पड़तीं और अतराफ़ में मशहूर था कि उनकी ज़बान पर सरस्वती हैं।
उसे वकालत कहो या मुख़्तार कारी मगर ये सिर्फ़ ख़ानदानी या एज़ाज़ी पेशा था। आमदनी की सूरतें यहां मफ़क़ूद थीं। नुक़रई सिक्कों का तो ज़िक्र ही क्या कभी कभी मिसी सिक्के भी आज़ादी से आने में तअम्मुल करते थे। [...]

Don't have an account? Sign up

Forgot your password?

Error message here!

Error message here!

Hide Error message here!

Error message here!

OR
OR

Lost your password? Please enter your email address. You will receive a link to create a new password.

Error message here!

Back to log-in

Close