जब पहली बार मैंने उन्हें देखा तो वो रहमान भाई के पहले मंज़िले की खिड़की में बैठी लंबी-लंबी गालियाँ और कोसने दे रही थीं। ये खिड़की हमारे सहन में खुलती थी और कानूनन उसे बंद रखा जाता था क्योंकि पर्दे वाली बीबियों का सामना होने का डर था। रहमान भाई रंडियों के जमादार थे, कोई शादी ब्याह, ख़तना, बिस्मिल्लाह की रस्म होती, रहमान भाई औने-पौने उन रंडियों को बुला देते और ग़रीब के घर में भी वहीद जान, मुशतरी बाई और अनवरी कहरवा नाच जातीं। मगर महल्ले-टोले की लड़कियाँ-बालियाँ उनकी नज़र में अपनी सगी माँ-बहनें थीं। उनके छोटे भाई बुन्दू और गेंदा आए दिन ताक-झाँक के सिलसिले में सर फुटव्वल किया करते थे, वैसे रहमान भाई महल्ले की नज़रों में कोई अच्छी हैसियत नहीं रखते थे। उन्होंने अपनी बीवी की ज़िंदगी ही में अपनी साली से जोड़-तोड़ कर लिया था। उस यतीम साली का सिवाए उस बहन के और कोई मरा-जीता न था। बहन के हाँ पड़ी थी। उसके बच्चे पालती थी। बस दूध पिलाने की कसर थी। बाक़ी सारा गू-मूत वही करती थी। और फिर किसी नक चढ़ी ने उसे बहन के बच्चे के मुँह में एक दिन छाती देते देख लिया। भांडा फूट गया और पता चला कि बच्चों में आधे बिल्कुल 'ख़ाला' की सूरत पे हैं। घर में रहमान की दुल्हन चाहे बहन की दुर्गत बनाती हों पर कभी पंचों में इक़रार न किया। यही कहा करती थीं, “जो कुँवारी को कहेगा, उसके दीदे घुटनों के आगे आएगा।” हाँ बर की तलाश में हर दम सूखा करती थीं, पर उस कीड़े भरे कबाब को बर कहाँ जुड़ता? एक आँख में ये बड़ी कौड़ी सी फली थी। पैर भी एक ज़रा छोटा था। कूल्हा दबा कर चलती थी। सारे महल्ले से एक अजीब तरह का बायकॉट हो चुका था। लोग रहमान भाई से काम पड़ता तो धौंस जमा कर कह देते, महल्ले में रहने की इजाज़त दे रखी थी। यही क्या कम इनायत थी। रहमान भाई उसी को अपनी इज़्ज़त अफ़ज़ाई समझते थे।
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