जो यूँ बनाए हैं औरत नमाज़ और ख़ुशबू

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जो यूँ बनाए हैं औरत नमाज़ और ख़ुशबू
ख़ुदा के साए हैं औरत नमाज़ और ख़ुशबू

वहाँ की ख़ाक किसी नूर से बनी होगी
जहाँ से आए हैं औरत नमाज़ और ख़ुशबू [...]

तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन

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तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था

यह शे’र इसरार-उल-हक़ मजाज़ के मशहूर अशआर में से एक है। माथे पे आँचल होने के कई मायने हैं। उदाहरण के लिए शर्म व लाज का होना, मूल्यों का रख रखाव होना आदि और भारतीय समाज में इन चीज़ों को नारी का शृंगार समझा जाता है। मगर जब नारी के इस शृंगार को पुरुष सत्तात्मक समाज में नारी की कमज़ोरी समझा जाता है तो नारी का व्यक्तित्व संकट में पड़ जाता है। इसी तथ्य को शायर ने अपने शे’र का विषय बनाया है। शायर नारी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि यद्यपि तुम्हारे माथे पर शर्म व हया का आँचल ख़ूब लगता है मगर उसे अपनी कमज़ोरी मत बना। वक़्त का तक़ाज़ा है कि आप अपने इस आँचल से क्रांति का झंडा बनाएं और इस ध्वज को अपने अधिकारों के लिए उठाएं।
[...]

माँ जी

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माँ जी की पैदाइश का सही साल मालूम न हो सका। जिस ज़माने में लायलपुर का ज़िला नया नया आबाद हो रहा था, पंजाब के हर क़स्बे से ग़रीब-उल-हाल लोग ज़मीन हासिल करने के लिए इस नई कॉलोनी में जोक़-दर-जोक़ खिंचे चले आ रहे थे। उर्फ़-ए-आम में लायलपुर, झंग, सरगोधा वग़ैरा को बार का इलाक़ा कहा जाता था।
उस ज़माने में माँ जी की उम्र दस बारह साल थी। इस हिसाब से उनकी पैदाइश पिछली सदी के आख़िरी दस पंद्रह सालों में किसी वक़्त हुई होगी।

माँ जी का आबाई वतन तहसील रोपड़ ज़िला अंबाला में एक गांव मनीला नामी था। वालदैन के पास चंद एकड़ अराज़ी थी। उन दिनों रोपड़ में दरिया-ए-सतलज से नहर सरहिंद की खुदाई हो रही थी। नाना जी की अराज़ी नहर की खुदाई में ज़म हो गई। रोपड़ में अंग्रेज़ हाकिम के दफ़्तर से ऐसी ज़मीनों के मुआवज़े दिये जाते थे। नाना जी दो तीन बार मुआवज़े की तलाश में शहर गए लेकिन सीधे आदमी थे। कभी इतना भी मालूम न कर सके कि अंग्रेज़ का दफ़्तर कहाँ है और मुआवज़ा वसूल करने के लिए क्या क़दम उठाना चाहिए। अंजाम कार सब्र-व-शुकर कर के बैठ गए और नहर की खुदाई की मज़दूरी करने लगे।
उन्ही दिनों पर्चा लगा कि बार में कॉलोनी खुल गई है और नए आबादकारों को मुफ़्त ज़मीन मिल रही है। नाना जी अपनी बीवी, दो नन्हे बेटों और एक बेटी का कुम्बा साथ लेकर लायलपुर रवाना हो गए। सवारी की तौफ़ीक़ न थी। इसलिए पा-पियादा चल खड़े हुए। [...]

बिच्छू फूपी

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जब पहली बार मैंने उन्हें देखा तो वो रहमान भाई के पहले मंज़िले की खिड़की में बैठी लंबी-लंबी गालियाँ और कोसने दे रही थीं। ये खिड़की हमारे सहन में खुलती थी और कानूनन उसे बंद रखा जाता था क्योंकि पर्दे वाली बीबियों का सामना होने का डर था। रहमान भाई रंडियों के जमादार थे, कोई शादी ब्याह, ख़तना, बिस्मिल्लाह की रस्म होती, रहमान भाई औने-पौने उन रंडियों को बुला देते और ग़रीब के घर में भी वहीद जान, मुशतरी बाई और अनवरी कहरवा नाच जातीं।
मगर महल्ले-टोले की लड़कियाँ-बालियाँ उनकी नज़र में अपनी सगी माँ-बहनें थीं। उनके छोटे भाई बुन्दू और गेंदा आए दिन ताक-झाँक के सिलसिले में सर फुटव्वल किया करते थे, वैसे रहमान भाई महल्ले की नज़रों में कोई अच्छी हैसियत नहीं रखते थे। उन्होंने अपनी बीवी की ज़िंदगी ही में अपनी साली से जोड़-तोड़ कर लिया था। उस यतीम साली का सिवाए उस बहन के और कोई मरा-जीता न था। बहन के हाँ पड़ी थी। उसके बच्चे पालती थी। बस दूध पिलाने की कसर थी। बाक़ी सारा गू-मूत वही करती थी।

और फिर किसी नक चढ़ी ने उसे बहन के बच्चे के मुँह में एक दिन छाती देते देख लिया। भांडा फूट गया और पता चला कि बच्चों में आधे बिल्कुल 'ख़ाला' की सूरत पे हैं। घर में रहमान की दुल्हन चाहे बहन की दुर्गत बनाती हों पर कभी पंचों में इक़रार न किया। यही कहा करती थीं, “जो कुँवारी को कहेगा, उसके दीदे घुटनों के आगे आएगा।” हाँ बर की तलाश में हर दम सूखा करती थीं, पर उस कीड़े भरे कबाब को बर कहाँ जुड़ता? एक आँख में ये बड़ी कौड़ी सी फली थी। पैर भी एक ज़रा छोटा था। कूल्हा दबा कर चलती थी।
सारे महल्ले से एक अजीब तरह का बायकॉट हो चुका था। लोग रहमान भाई से काम पड़ता तो धौंस जमा कर कह देते, महल्ले में रहने की इजाज़त दे रखी थी। यही क्या कम इनायत थी। रहमान भाई उसी को अपनी इज़्ज़त अफ़ज़ाई समझते थे। [...]

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