घास वाली

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(1)
मुलिया हरी हरी घास का गट्ठा लेकर लौटी तो उसका गेहुवाँ रंग कुछ सुर्ख़ हो गया था और बड़ी बड़ी मख़मूर आँखें कुछ सहमी हुईं थीं। महाबीर ने पूछा, क्या है मुलिया? आज कैसा जी है। मुलिया ने कुछ जवाब न दिया। उसकी आँखें डबडबा गईं और मुँह फेर लिया।

महाबीर ने क़रीब आकर पूछा, क्या हुआ है? बताती क्यों नहीं? किसी ने कुछ कहा है? अम्माँ ने डाँटा है? क्यों इतनी उदास है?
मुलिया ने सिसक कर कहा, कुछ नहीं, हुआ क्या है। अच्छी तो हूँ। [...]

महालक्ष्मी का पुल

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महालक्ष्मी के स्टेशन के उस पार लक्ष्मी जी का एक मंदिर है। उसे लोग रेस कोर्स भी कहते हैं। उस मंदिर में पूजा करने वाले हारते ज़्यादा हैं जीतते बहुत कम हैं। महालक्ष्मी स्टेशन के उस पार एक बहुत बड़ी बदरू है जो इंसानी जिस्मों की ग़लाज़त को अपने मुतअफ़्फ़िन पानियों में घोलती हुई शह्र से बाहर चली जाती है।
मंदिर में इंसान के दिल की ग़लाज़त धुलती है और उस बदरू में इंसान के जिस्म की ग़लाज़त और इन दोनों के बीच में महालक्ष्मी का पुल है। महालक्ष्मी के पुल के ऊपर बाएँ तरफ़ लोहे के जंगले पर छः साड़ियाँ लहरा रही हैं। पुल पर इस तरह हमेशा उस मक़ाम पर चंद साड़ियाँ लहराती रहती हैं। ये साड़ियाँ कोई बहुत क़ीमती नहीं हैं। उनके पहनने वाले भी कोई बहुत ज़्यादा क़ीमती नहीं हैं। ये लोग हर रोज़ उन साड़ियों को धो कर सूखने के लिए डाल देते हैं और रेलवे लाईन के आर पार जाते हुए लोग, महालक्ष्मी स्टेशन पर गाड़ी का इंतिज़ार करते हुए लोग, गाड़ी की खिड़की और दरवाज़ों से झांक कर बाहर देखने वाले लोग अक्सर उन साड़ियों को हवा में झूलता हुआ देखते हैं।

वो उनके मुख़्तलिफ़ रंग देखते हैं। भूरा, गहरा भूरा, मटमैला नीला, क़िरमज़ी भूरा, गंदा सुर्ख़ किनारा गहरा नीला और लाल, वो लोग अक्सर उन्ही रंगों को फ़िज़ा में फैले हुए देखते हैं। एक लम्हे के लिए। दूसरे लम्हे में गाड़ी पुल के नीचे से गुज़र जाती है।
उन साड़ियों के रंग अब जाज़िब-ए-नज़र नहीं रहे। किसी ज़माने में मुम्किन है जब ये नई ख़रीदी गई हों, उनके रंग ख़ूबसूरत और चमकते हुए हों, मगर अब नहीं हैं। मुतवातिर धोए जाने से उनके रंगों की आब-ओ-ताब मर चुकी है और अब ये साड़ियाँ अपने फीके सीठे रोज़मर्रा के अंदाज़ को लिए बड़ी बे-दिली से जंगले पर पड़ी नज़र आती हैं। [...]

सिर्फ़ एक आवाज़

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सुब्ह का वक़्त था। ठाकुर दर्शन सिंह के घर में एक हंगामा बरपा था। आज रात को चन्द्र गरहन होने वाला था। ठाकुर साहब अपनी बूढ़ी ठकुराइन के साथ गंगा जी जाते थे। इसलिए सारा घर उनकी पुरशोर तैयारी में मसरूफ़ था। एक बहू उनका फटा हुआ कुरता टांक रही थी। दूसरी बहू उनकी पगड़ी लिए सोचती थी कि क्यूँकर इसकी मरम्मत करूँ। दोनों लड़कियां नाशता तैयार करने में मह्व थीं जो ज़्यादा दिलचस्प काम था, और बच्चों ने अपनी आदत के मुवाफ़िक़ एक कोहराम मच रखा था। क्यों कि हर एक आने-जाने के मौक़े पर उनका जोश गिरिया-ए-उमंग पर होता था, जाने के वक़्त साथ जाने के लिए रोते। आने के वक़्त इसलिए रोते कि शीरीनी की तक़्सीम ख़ातिर-ख़्वाह नहीं हुई। बूढ़ी ठकुराइन बच्चों को फुसलाती थीं और बीच बीच में अपनी बहुओं को समझाती थीं, देखो ख़बरदार जब तक आगरा न हो जाएगी घर से बाहर न निकलना। हंसिया, छुरी, कुल्हाड़ी हाथ से मत छूना, समझाए देती हूँ। मानना चाहे न मानना। तुम्हें मेरी बात की कौन परवाह है, मुँह में पानी की बूँद न पड़े। नारायण के घर बिपत पड़ी है जो साधू-भिकारी दरवाज़े पर आजाए, उसे फेरना मत। बहुओं ने सुना और नहीं सुना। वो मना रही थीं कि किसी तरह यहां से टलें। फागुन का महीना है। गाने को तरस गए, आज ख़ूब गाना बजाना होगा।
ठाकुर साहब थे तो बूढ़े। लेकिन ज़ोफ़ का असर दिल तक नहीं पहुंचा था। उन्हें इस बात का घमंड था कि कोई गहन बग़ैर गंगा अश्नान के नहीं छूटा। उनकी इल्मी क़ाबिलिय्यत हैरत अंगेज़ थी। सिर्फ़ पत्रों को देखकर महीनों पहले सूरज गरहन और दूसरी तक़रीबों के दिन बता देते थे। इसलिए गांव वालों की निगाह में उनकी इज़्ज़त अगर पंडितों से ज़्यादा न थी तो कम भी न थी जवानी में कुछ दिनों फ़ौजी मुलाज़िमत भी की थी। उसकी गर्मी अब तक बाक़ी थी। मजाल न थी कि कोई उनकी तरफ़ तीखी आँख से देख सके। एक मज़कूरी चपरासी को ऐसी इल्मी तंबीह की थी जिसकी नज़ीर क़ुर्ब-ओ-जवार के दस पाँच गांव में भी नहीं मिल सकती। हिम्मत और हौसले के कामों में अब भी पेशक़दमी कर जाते थे, किसी काम को मुश्किल बना देना, उनकी हिम्मत को तहरीक देता था। जहां सबकी ज़बानें बंद हो जाएं वहां वो शेरों की तरह गरजते थे। जब खूबी गांव में दारोगा जी तशरीफ़ लाते तो ठाकुर साहब ही का दिल गुर्दा था कि उनसे आँखें मिला कर दू-ब-दू बात कर सकें। आलिमाना मुबाहिसे के मैदान में भी उनके कारनामे कुछ कम न थे। झगड़ालू पण्डित हमेशा उनसे मुँह छुपाया करते थे। ग़रज़ ठाकुर साहब की जिबिल्ली रऊनत और एतिमाद-ओ-नफ़्स उन्हें हर बात में दूल्हा बनने पर मजबूर कर देती थी। हाँ कमज़ोरी इतनी थी कि अपनी आल्हा भी आप ही गा लेते और मज़े ले-ले कर क्योंकि तस्नीफ़ को मुसन्निफ़ ही ख़ूब बयान करता है।

जब दोपहर होते होते ठाकुर और ठकुराइन गांव से चले तो सैंकड़ों आदमी उनके साथ थे और पुख़्ता सड़क पर पहुंचे तो जात्रियों का ऐसा ताँता लगा हुआ था गोया कोई बाज़ार है। ऐसे ऐसे बूढ़े लाठियां टेकते या डोलियों पर सवार चले जाते थे। जिन्हें तकलीफ़ देने की मल्कु-उल-मौत ने भी कोई ज़रूरत न समझी थी। अंधे दूसरों की लकड़ी के सहारे क़दम बढ़ाए आते थे। बाज़ आदमियों ने अपनी बूढ़ी माताओं को पीठ पर लाद लिया था। किसी के सर पर कपड़ों का बुक़चा, किसी के कंधे पर लोटा, डोर किसी के पर, और कितने ही आदमियों ने पैरों पर चीथड़े लपेट लिए थे। जूते कहाँ से लाएंगे। मगर मज़हबी जोश की ये बरकत थी कि मन किसी का मैला न था। सब के चेहरे शगुफ़्ता, हंसते बातें करते सरगर्म रफ़्तार से कुछ औरतें गा रही थीं।
चांद सूरज दोनों के मालिक एक दिना उन्हों पर बनती [...]

भगत राम

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अभी-अभी मेरे बच्चे ने मेरे बाएं हाथ की छंगुलिया को अपने दाँतों तले दाब कर इस ज़ोर का काटा कि मैं चिल्लाए बग़ैर ना रह सका और मैंने गु़स्सो में आकर उसके दो, तीन तमांचे भी जड़ दिए बेचारा उसी वक़्त से एक मासूम पिल्ले की तरह चिल्ला रहा है। ये बच्चे कम्बख़्त देखने में कितने नाज़ुक होते हैं, लेकिन उनके नन्हे-नन्हे हाथों की गिरिफ़्त बड़ी मज़बूत होती है। उनके दाँत यूँ दूध के होते हैं लेकिन काटने में गिलहरियों को भी मात करते हैं। इस बच्चे की मासूम शरारत से मेरे दिल में बचपन का एक वाक़ेआ उभर आया है, अब तक मैं उसे बहुत मामूली वाक़ेआ समझता था और अपनी दानिस्त में, मैं उसे क़त’अन भुला चुका था। लेकिन देखिए ये ला-शऊर का फ़ित्ना भी किस क़दर अजीब है। इसके साए में भी कैसे-कैसे खु़फ़िया अजाइब मस्तूर हैं। बज़ाहिर इतनी सी बात थी कि बचपन में मैंने एक दफ़ा अपने गाँव के एक आदमी ‘भगत रामֺ’ के बाएं हाथ का अँगूठा चबा डाला और उसने मुझे तमांचे मारने के बजाय सेब और आलूचे खिलाए थे। और बज़ाहिर मैं उस वाक़ए को अब तक भूल चुका था, लेकिन ज़रा इस भानमती के पिटारे की बवाल-अज़बियाँ मुलाहिज़ा फ़रमाईए।
ये मामूली सा वाक़िया एक ख़्वाबीदा नाग की तरह ज़हन के पिटारे में दबा है और जूँ ही मेरा बच्चा मेरी छंगुलियां को दाँतों तले दबाता है और मैं उसे पीटता हूँ। ये पच्चीस, तीस साल का सोया हुआ नाग बेदार हो जाता है और फन फैलाकर मेरे ज़हन की चार-दीवारी में लहराने लगता है। अब कोई उसे किस तरह मार भगाए, अब तो दूध पिलाना होगा, ख़ैर तो वो वाक़आ भी सन लीजिए जैसा कि मैं अभी अर्ज़ कर चुका हूँ ये मेरे बचपन का वाक़आ है। जब हम लोग रंगपुर के गाँव में रहते थे। रंगपुर के गाँव तहसील जोड़ी का सदर मुक़ाम है, इसलिए उसकी हैसियत अब तक एक छोटे मोटे क़स्बे की है, लेकिन जिन दिनों हम वहां रहते थे रंगपुर की आबादी बहुत ज़्यादा ना थी। यही कोई ढाई तीन सौ घरों पर मुश्तमिल होगी। जिनमें बेशतर घर ब्राह्मणों और खत्रियों के थे। दस, बारह घर जुलाहों के और कुम्हारों के होंगे। पाँच, छः बढ़ई इतने ही चमार और धोबी। यही सारे गाँव में ले दे के आठ, दस घर मुस्लमानों के होंगे लेकिन उनकी हालत ना-गुफ़्ता सी थी। इसलिए यहाँ तो उनका ज़िक्र करना भी बेकार सा मालूम होता है।

गाँव की बिरादरी के मुखिया लाला काशी राम थे। यूं तो ब्राह्मणी समाज के उसूलों के मुताबिक़ बिरादरी का मुखिया किसी ब्राह्मण ही को होना चाहीए था और फिर ब्राह्मणों की आबादी भी गाँव में सबसे ज़्यादा थी। पर बिरादरी ने लाला काशी राम को जो ज़ात के खत्री थे अपना मुखिया चुना था फिर वो सबसे ज़्यादा लिखे पढ़े थे यानी नए शहर तक पढ़े थे। जो ख़त डाकिया नहीं पढ़ सकता था उसे भी वो अच्छी तरह पढ़ लेते थे। तमक हण्डी, नालिश, सुमन, गवाही, निशानदेही के इलावा नए शहर की बड़ी अदालत की भी कार्रवाई से वो बख़ूबी वाक़िफ़ थे। इसलिए गाँव का हर फ़र्द अपनी मुसीबत में चाहे वो ख़ुद लाला काशी राम की ही पैदा-कर्दा क्यों ना हो, लाला काशी राम ही का सहारा ढूंढता था। और लाला जी ने आज तक अपने किसी मक़रूज़ की मदद करने से इनकार न किया। इसीलिए वो गाँव के मुखिया थे और गाँव के मालिक थे और रंगपुर से बाहर दूर-दूर तक जहाँ तक धान के खेत दिखाई देते थे। लोग उनका जिस गाते थे।
ऐसे शरीफ़ लाला का मँझला भाई था लाला बंशी राम , जो अपने बड़े भाई के हर नेक काम में हाथ बटाता था लेकिन गाँव के लोग उसे इतना अच्छा नहीं समझते थे क्योंकि उसने अपने ब्रहमन धरम को त्याग दिया था और गुरू नानक जी के चलाए हुए पंथ में शामिल हो गया था। उसने अपने घर में एक छोटा सा गुरू-द्वारा भी तामीर किराया था और नए शहर से एक नेक सूरत, नेक तबीय्यत, नेक सीरत ग्रंथी को बुला कर उसे गाँव में सिक्ख मत के प्रचार के लिए मामूर कर दिया था। [...]

सिर्फ़ एक आवाज़

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सुब्ह का वक़्त था। ठाकुर दर्शन सिंह के घर में एक हंगामा बरपा था। आज रात को चन्द्र गरहन होने वाला था। ठाकुर साहब अपनी बूढ़ी ठकुराइन के साथ गंगा जी जाते थे। इसलिए सारा घर उनकी पुरशोर तैयारी में मसरूफ़ था। एक बहू उनका फटा हुआ कुरता टांक रही थी। दूसरी बहू उनकी पगड़ी लिए सोचती थी कि क्यूँकर इसकी मरम्मत करूँ। दोनों लड़कियां नाशता तैयार करने में मह्व थीं जो ज़्यादा दिलचस्प काम था, और बच्चों ने अपनी आदत के मुवाफ़िक़ एक कोहराम मच रखा था। क्यों कि हर एक आने-जाने के मौक़े पर उनका जोश गिरिया-ए-उमंग पर होता था, जाने के वक़्त साथ जाने के लिए रोते। आने के वक़्त इसलिए रोते कि शीरीनी की तक़्सीम ख़ातिर-ख़्वाह नहीं हुई। बूढ़ी ठकुराइन बच्चों को फुसलाती थीं और बीच बीच में अपनी बहुओं को समझाती थीं, देखो ख़बरदार जब तक आगरा न हो जाएगी घर से बाहर न निकलना। हंसिया, छुरी, कुल्हाड़ी हाथ से मत छूना, समझाए देती हूँ। मानना चाहे न मानना। तुम्हें मेरी बात की कौन परवाह है, मुँह में पानी की बूँद न पड़े। नारायण के घर बिपत पड़ी है जो साधू-भिकारी दरवाज़े पर आजाए, उसे फेरना मत। बहुओं ने सुना और नहीं सुना। वो मना रही थीं कि किसी तरह यहां से टलें। फागुन का महीना है। गाने को तरस गए, आज ख़ूब गाना बजाना होगा।
ठाकुर साहब थे तो बूढ़े। लेकिन ज़ोफ़ का असर दिल तक नहीं पहुंचा था। उन्हें इस बात का घमंड था कि कोई गहन बग़ैर गंगा अश्नान के नहीं छूटा। उनकी इल्मी क़ाबिलिय्यत हैरत अंगेज़ थी। सिर्फ़ पत्रों को देखकर महीनों पहले सूरज गरहन और दूसरी तक़रीबों के दिन बता देते थे। इसलिए गांव वालों की निगाह में उनकी इज़्ज़त अगर पंडितों से ज़्यादा न थी तो कम भी न थी जवानी में कुछ दिनों फ़ौजी मुलाज़िमत भी की थी। उसकी गर्मी अब तक बाक़ी थी। मजाल न थी कि कोई उनकी तरफ़ तीखी आँख से देख सके। एक मज़कूरी चपरासी को ऐसी इल्मी तंबीह की थी जिसकी नज़ीर क़ुर्ब-ओ-जवार के दस पाँच गांव में भी नहीं मिल सकती। हिम्मत और हौसले के कामों में अब भी पेशक़दमी कर जाते थे, किसी काम को मुश्किल बना देना, उनकी हिम्मत को तहरीक देता था। जहां सबकी ज़बानें बंद हो जाएं वहां वो शेरों की तरह गरजते थे। जब खूबी गांव में दारोगा जी तशरीफ़ लाते तो ठाकुर साहब ही का दिल गुर्दा था कि उनसे आँखें मिला कर दू-ब-दू बात कर सकें। आलिमाना मुबाहिसे के मैदान में भी उनके कारनामे कुछ कम न थे। झगड़ालू पण्डित हमेशा उनसे मुँह छुपाया करते थे। ग़रज़ ठाकुर साहब की जिबिल्ली रऊनत और एतिमाद-ओ-नफ़्स उन्हें हर बात में दूल्हा बनने पर मजबूर कर देती थी। हाँ कमज़ोरी इतनी थी कि अपनी आल्हा भी आप ही गा लेते और मज़े ले-ले कर क्योंकि तस्नीफ़ को मुसन्निफ़ ही ख़ूब बयान करता है।

जब दोपहर होते होते ठाकुर और ठकुराइन गांव से चले तो सैंकड़ों आदमी उनके साथ थे और पुख़्ता सड़क पर पहुंचे तो जात्रियों का ऐसा ताँता लगा हुआ था गोया कोई बाज़ार है। ऐसे ऐसे बूढ़े लाठियां टेकते या डोलियों पर सवार चले जाते थे। जिन्हें तकलीफ़ देने की मल्कु-उल-मौत ने भी कोई ज़रूरत न समझी थी। अंधे दूसरों की लकड़ी के सहारे क़दम बढ़ाए आते थे। बाज़ आदमियों ने अपनी बूढ़ी माताओं को पीठ पर लाद लिया था। किसी के सर पर कपड़ों का बुक़चा, किसी के कंधे पर लोटा, डोर किसी के पर, और कितने ही आदमियों ने पैरों पर चीथड़े लपेट लिए थे। जूते कहाँ से लाएंगे। मगर मज़हबी जोश की ये बरकत थी कि मन किसी का मैला न था। सब के चेहरे शगुफ़्ता, हंसते बातें करते सरगर्म रफ़्तार से कुछ औरतें गा रही थीं।
चांद सूरज दोनों के मालिक एक दिना उन्हों पर बनती [...]

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मुलिया हरी हरी घास का गट्ठा लेकर लौटी तो उसका गेहुवां रंग कुछ सुर्ख़ हो गया था और बड़ी बड़ी मख़मूर आँखें कुछ सहमी हुईं थीं। महाबीर ने पूछा, "क्या है मुलिया? आज कैसा जी है।" मुलिया ने कुछ जवाब न दिया। उसकी आँखें डबडबा गईं और मुँह फेर लिया।
महाबीर ने क़रीब आकर पूछा, "क्या हुआ है? बताती क्यों नहीं? किसी ने कुछ कहा है? अम्मां ने डाँटा है? क्यों इतनी उदास है?"

मुलिया ने सिसक कर कहा, "कुछ नहीं, हुआ क्या है अच्छी तो हूँ।"
महाबीर ने मुलिया को सर से पांव तक देखकर पूछा, "चुप-चाप रोती रहेगी, बताएगी नहीं।" [...]

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