आज मैं आपको अपनी एक पुरलुत्फ़ हिमाक़त का क़िस्सा सुनाता हूँ। कर्फ्यू के दिन थे या’नी उस ज़माने में जब बम्बई में फ़िरक़ावाराना फ़साद शुरू हो चुके थे। हर रोज़ सुबह-सवेरे जब अख़बार आता तो मालूम होता कि मुतअ’द्दिद हिंदुओं और मुसलमानों की जानें ज़ाए हो चुकी हैं। मेरी बीवी अपनी बहन की शादी के सिलसिले में लाहौर जा चुकी थी। घर बिलकुल सूना सूना था, उसे घर तो नहीं कहना चाहिए क्योंकि सिर्फ़ दो कमरे थे एक गुस्लख़ाना जिसमें सफ़ेद चमकीली टायलें लगी थीं, उससे कुछ और हट कर एक अंधेरा सा बावर्चीख़ाना और बस। जब मेरी बीवी घर में थी तो दो नौकर थे। दोनों भाई कम-उम्र थे। इनमें से जो छोटा था, वो मुझे क़तअ’न पसंद नहीं था, इसलिए कि वो अपनी उम्र से कहीं ज़्यादा चालाक और मक्कार था चुनांचे मैंने मौक़े से फ़ायदा उठाते हुए उसे निकाल बाहर किया और उसकी जगह एक और लड़का मुलाज़िम रख लिया जिसका नाम इफ़्तख़ार था।
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