बारिश

Shayari By

मूसलाधार बारिश हो रही थी और वो अपने कमरे में बैठा जल-थल देख रहा था... बाहर बहुत बड़ा लॉन था, जिसमें दो दरख़्त थे। उनके सब्ज़ पत्ते बारिश में नहा रहे थे। उसको महसूस हुआ कि वो पानी की इस यूरिश से ख़ुश होकर नाच रहे हैं।
उधर टेलीफ़ोन का एक खंबा गड़ा था, उसके फ़्लैट के ऐन सामने। ये भी बड़ा मसरूर नज़र आता था, हालाँकि उसकी मसर्रत की कोई वजह मालूम नहीं होती थी। इस बेजान शय को भला मसरूर क्या होना था लेकिन तनवीर ने जोकि बहुत मग़्मूम था, यही महसूस किया कि उसके आस-पास जो भी शय है, ख़ुशी से नाच-गा रही है।

सावन गुज़र चुका था और बारान-ए-रहमत नहीं हुई थी। लोगों ने मस्जिदों में इकट्ठे होकर दुआएं मांगीं, मगर कोई नतीजा बरामद न हुआ। बादल आते और जाते रहे, मगर उनके थनों से पानी का एक क़तरा भी न टपका।
आख़िर एक दिन अचानक काले काले बादल आसमान पर घिर आए और छाजों पानी बरसने लगा। तनवीर को बादलों और बारिशों से कोई दिलचस्पी नहीं थी... उसकी ज़िंदगी चटियल मैदान बन चुकी थी जिसके मुँह में पानी का एक क़तरा भी किसी ने न टपकाया हो। [...]

लालटेन

Shayari By

मेरा क़ियाम “बटोत” में गो मुख़्तसर था। लेकिन गूनागूं रुहानी मसर्रतों से पुर। मैंने उसकी सेहत अफ़्ज़ा मुक़ाम में जितने दिन गुज़ारे हैं उनके हर लम्हे की याद मेरे ज़ेहन का एक जुज़्व बन के रह गई है जो भुलाये न भूलेगी... क्या दिन थे! बार-बार मेरे दिल की गहराईयों से ये आवाज़ बलंद होती है और मैं कई कई घंटे इसके ज़ेर-ए-असर बेखु़द-ओ-मदहोश रहता हूँ। किसी ने ठीक कहा है कि इंसान अपनी गुज़श्ता ज़िंदगी के खंडरों पर मुस्तक़बिल की दीवारें उस्तुवार करता है। इन दिनों मैं भी यही कर रहा हूँ या’नी बीते हुए अय्याम की याद को अपनी मुज़्महिल रगों में ज़िंदगी बख़्श इंजेक्शन के तौर पर इस्तेमाल कर रहा हूँ।
जो कल हुआ था उसे अगर आज देखा जाये तो उसके और हमारे दरमियान सदियों का फ़ासला नज़र आएगा और जो कल होना ही है उसके मुतअ’ल्लिक़ हम कुछ नहीं जानते और न जान सकते हैं। आज से पूरे चार महीने की तरफ़ देखा जाये तो बटोत में मेरी ज़िंदगी एक अफ़साना मालूम होती है। ऐसा अफ़साना जिसका मसविदा साफ़ न किया गया हो।

इस खोई हुई चीज़ को हासिल करना दूसरे इंसानों की तरह मेरे बस में भी नहीं। जब में इस्तक़बाल के आईना में अपनी आने वाली ज़िंदगी का अ’क्स देखना चाहता हूँ तो इसमें मुझे हाल ही की तस्वीर नज़र आती है और कभी कभी इस तस्वीर के पस-ए-मंज़र में माज़ी के धुँदले नुक़ूश नज़र आ जाते हैं। इनमें बा’ज़ नक़्श इस क़दर तीखे और शोख़ रंग हैं कि शायद ही उन्हें ज़माने का हाथ मुकम्मल तौर पर मिटा सके।
ज़िंदगी के इस खोए हुए टुकड़े को मैं इस वक़्त ज़माने के हाथ में देख रहा हूँ जो शरीर बच्चे की तरह मुझे बार बार उसकी झलक दिखा कर अपनी पीठ पीछे छुपा लेता है... और मैं इस खेल ही से ख़ुश हूँ। इसी को ग़नीमत समझता हूँ। [...]

दस मिनट बारिश में

Shayari By

अबू बकर रोड शाम के अंधेरे में गुम हो रही है। यूँ दिखाई देता है, जैसे कोई कुशादा सा रास्ता किसी कोयले की कान में जा रहा है... सख़्त बारिश में विरूंटा की बाड़, सफ़रीना का गुलाब, क़ुतुब सय्यद हुसैन मक्की के मज़ार शरीफ़ के खन्डर में, एक खिलते हुए मिश्की रंग की घोड़ी जिसकी पुश्त नम-आलूद हो कर सियाह साटन की तरह दिखाई दे रही है, सब भीग रहे हैं... और राटा भीग रही है!
राटा कौन है? उसे कल्प बृक्ष कह लो या काम धेनु गाय। या उससे बेहतर राटा... राटा है। फिराया लाल की बीवी, एक दस साला काहिल, जाहिल, न-अह्ल छोकरे की माँ। चंद माह हुए तख़्फ़ीफ़ के मौक़े पर ह्यूम पाइप कंपनी वालों ने फिराया लाल को काम से अलग कर दिया। उस वक़्त से उसकी पुर-सुकून ज़िंदगी में क़िस्मत के गर्दबाद पैदा होने लगे। तलाश-ए-मआ'श में न जाने वो कहाँ चल दिया। सुना है कि वो राटा को हमेशा के लिए छोड़ गया है, क्योंकि वो उससे मोहब्बत करती है और जिस शख़्स में मोहब्बत की सी कमज़ोरी हो, वो पा-ए-इस्तिहक़ार से ठुकरा दिया जाता है... मिरचू तेज़ाबी का बयान है कि पोह के एक सर्द, नीले से धुँदलके में उसने फिराया लाल को अपनी ही बिरादरी की एक औरत के साथ-जाते देखा था। वही औरत... कौड़ी, जो अबू बकर रोड के मकानों में से गमले उठाया करती थी।

उन दिनों फिराया लाल बेकार था। बेकार इन्सान के अक़्ल-ओ-फ़िक्र में खून-ए-जिगर पीने या कसरत से मोहब्बत करने के सिवा और कुछ नहीं समाता। बाज़ आदमियों ने फिराया को कोट पुतली में सफ़ें बनाते हुए देखा है। क़रीब ही कौड़ी एक ग़ैर आदमी के साथ मुस्कुरा-मुस्कुरा कर बातें कर रही थी... राटा फिर भी फिराया लाल को दिल से चाहती है। ये मोहब्बत और जुनूँ के अंदाज़ भी कभी छुटते हैं... और राटा भीग रही है!
राटा की घोड़ी अबू बकर रोड पर हमारी कोठी के सामने घूम रही है। वो उसका शब-ए-दीजूर का सा रंग... सिर्फ़ उसके हिनहिनाने और कभी-कभी बिजली के कौंदने से उसके वजूद का इल्म होता है। सुबह से बेचारी को दाना नहीं दिया गया, न ही उसकी मोच वाली टाँग पर हल्दी लगाई गई है। भूक की शिद्दत से बेबस और बिगड़ कर वो आवारा हो रही है। शायद फिराया को ढूँढती होगी। फिराया... जो उसे भी छोड़ कर कौड़ी के साथ चला गया है। कौड़ी जो कोट पुतली में किसी दूसरे मर्द के साथ मुस्कुरा-मुस्कुरा कर बातें कर रही थी। एक वक़्त में एक दिल के अंदर मिश्की घोड़ी रह सकती है या कौड़ी। कौड़ी या राटा... और भूकी मिश्की घोड़ी हिनहिनाती है जैसे कभी सिकन्दर से जुदा होने पर बूस फेल्स हिनहिनाता था। [...]

बाँझ

Shayari By

मेरी और उसकी मुलाक़ात आज से ठीक दो बरस पहले अपोलोबंदर पर हुई। शाम का वक़्त था, सूरज की आख़िरी किरनें समुंदर की उन दराज़ लहरों के पीछे ग़ायब हो चुकी थी जो साहिल के बेंच पर बैठ कर देखने से मोटे कपड़े की तहें मालूम होती थीं। मैं गेट आफ़ इंडिया के उस तरफ़ पहला बेंच छोड़ कर जिस पर एक आदमी चम्पी वाले से अपने सर की मालिश करा रहा था, दूसरे बेंच पर बैठा था और हद्द-ए-नज़र तक फैले हुए समुंदर को देख रहा था।
दूर बहुत दूर जहां समुंदर और आसमान घुल मिल रहे थे। बड़ी बड़ी लहरें आहिस्ता आहिस्ता उठ रही थीं और ऐसा मालूम होता था कि बहुत बड़ा गदले रंग का क़ालीन है जिसे इधर से उधर समेटा जा रहा है।

साहिल के सब क़ुमक़ुमे रोशन थे जिनका अक्स किनारे के लर्ज़ां पानी पर कपकपाती हुई मोटी लकीरों की सूरत में जगह जगह रेंग रहा था। मेरे पास पथरीली दीवार के नीचे कई कश्तियों के लिपटे हुए बादबान और बांस हौले-हौले हरकत कर रहे थे। समुंदर की लहरें और तमाशाइयों की आवाज़ एक गुनगुनाहट बन कर फ़िज़ा में घुली हुई थी। कभी कभी किसी आने या जाने वाली मोटर के हॉर्न की आवाज़ बुलंद होती और यूं मालूम होता कि बड़ी दिलचस्प कहानी सुनने के दौरान में किसी ने ज़ोर से “हूँ” की है।
ऐसे माहौल में सिगरेट पीने का बहुत मज़ा आता है। मैंने जेब में हाथ डाल कर सिगरेट की डिबिया निकाली, मगर माचिस न मिली। जाने कहाँ भूल आया था। सिगरेट की डिबिया वापस जेब में रखने ही वाला था कि पास से किसी ने कहा, “माचिस लीजिएगा।” [...]

दस मिनट बारिश में

Shayari By

अबू बकर रोड शाम के अंधेरे में गुम हो रही है। यूँ दिखाई देता है, जैसे कोई कुशादा सा रास्ता किसी कोयले की कान में जा रहा है... सख़्त बारिश में विरूंटा की बाड़, सफ़रीना का गुलाब, क़ुतुब सय्यद हुसैन मक्की के मज़ार शरीफ़ के खन्डर में, एक खिलते हुए मिश्की रंग की घोड़ी जिसकी पुश्त नम-आलूद हो कर सियाह साटन की तरह दिखाई दे रही है, सब भीग रहे हैं... और राटा भीग रही है!
राटा कौन है? उसे कल्प बृक्ष कह लो या काम धेनु गाय। या उससे बेहतर राटा... राटा है। फिराया लाल की बीवी, एक दस साला काहिल, जाहिल, न-अह्ल छोकरे की माँ। चंद माह हुए तख़्फ़ीफ़ के मौक़े पर ह्यूम पाइप कंपनी वालों ने फिराया लाल को काम से अलग कर दिया। उस वक़्त से उसकी पुर-सुकून ज़िंदगी में क़िस्मत के गर्दबाद पैदा होने लगे। तलाश-ए-मआ'श में न जाने वो कहाँ चल दिया। सुना है कि वो राटा को हमेशा के लिए छोड़ गया है, क्योंकि वो उससे मोहब्बत करती है और जिस शख़्स में मोहब्बत की सी कमज़ोरी हो, वो पा-ए-इस्तिहक़ार से ठुकरा दिया जाता है... मिरचू तेज़ाबी का बयान है कि पोह के एक सर्द, नीले से धुँदलके में उसने फिराया लाल को अपनी ही बिरादरी की एक औरत के साथ-जाते देखा था। वही औरत... कौड़ी, जो अबू बकर रोड के मकानों में से गमले उठाया करती थी।

उन दिनों फिराया लाल बेकार था। बेकार इन्सान के अक़्ल-ओ-फ़िक्र में खून-ए-जिगर पीने या कसरत से मोहब्बत करने के सिवा और कुछ नहीं समाता। बाज़ आदमियों ने फिराया को कोट पुतली में सफ़ें बनाते हुए देखा है। क़रीब ही कौड़ी एक ग़ैर आदमी के साथ मुस्कुरा-मुस्कुरा कर बातें कर रही थी... राटा फिर भी फिराया लाल को दिल से चाहती है। ये मोहब्बत और जुनूँ के अंदाज़ भी कभी छुटते हैं... और राटा भीग रही है!
राटा की घोड़ी अबू बकर रोड पर हमारी कोठी के सामने घूम रही है। वो उसका शब-ए-दीजूर का सा रंग... सिर्फ़ उसके हिनहिनाने और कभी-कभी बिजली के कौंदने से उसके वजूद का इल्म होता है। सुबह से बेचारी को दाना नहीं दिया गया, न ही उसकी मोच वाली टाँग पर हल्दी लगाई गई है। भूक की शिद्दत से बेबस और बिगड़ कर वो आवारा हो रही है। शायद फिराया को ढूँढती होगी। फिराया... जो उसे भी छोड़ कर कौड़ी के साथ चला गया है। कौड़ी जो कोट पुतली में किसी दूसरे मर्द के साथ मुस्कुरा-मुस्कुरा कर बातें कर रही थी। एक वक़्त में एक दिल के अंदर मिश्की घोड़ी रह सकती है या कौड़ी। कौड़ी या राटा... और भूकी मिश्की घोड़ी हिनहिनाती है जैसे कभी सिकन्दर से जुदा होने पर बूस फेल्स हिनहिनाता था। [...]

लालटेन

Shayari By

मेरा क़ियाम “बटोत” में गो मुख़्तसर था। लेकिन गूनागूं रुहानी मसर्रतों से पुर। मैंने उसकी सेहत अफ़्ज़ा मुक़ाम में जितने दिन गुज़ारे हैं उनके हर लम्हे की याद मेरे ज़ेहन का एक जुज़्व बन के रह गई है जो भुलाये न भूलेगी... क्या दिन थे! बार-बार मेरे दिल की गहराईयों से ये आवाज़ बलंद होती है और मैं कई कई घंटे इसके ज़ेर-ए-असर बेखु़द-ओ-मदहोश रहता हूँ। किसी ने ठीक कहा है कि इंसान अपनी गुज़श्ता ज़िंदगी के खंडरों पर मुस्तक़बिल की दीवारें उस्तुवार करता है। इन दिनों मैं भी यही कर रहा हूँ या’नी बीते हुए अय्याम की याद को अपनी मुज़्महिल रगों में ज़िंदगी बख़्श इंजेक्शन के तौर पर इस्तेमाल कर रहा हूँ।
जो कल हुआ था उसे अगर आज देखा जाये तो उसके और हमारे दरमियान सदियों का फ़ासला नज़र आएगा और जो कल होना ही है उसके मुतअ’ल्लिक़ हम कुछ नहीं जानते और न जान सकते हैं। आज से पूरे चार महीने की तरफ़ देखा जाये तो बटोत में मेरी ज़िंदगी एक अफ़साना मालूम होती है। ऐसा अफ़साना जिसका मसविदा साफ़ न किया गया हो।

इस खोई हुई चीज़ को हासिल करना दूसरे इंसानों की तरह मेरे बस में भी नहीं। जब में इस्तक़बाल के आईना में अपनी आने वाली ज़िंदगी का अ’क्स देखना चाहता हूँ तो इसमें मुझे हाल ही की तस्वीर नज़र आती है और कभी कभी इस तस्वीर के पस-ए-मंज़र में माज़ी के धुँदले नुक़ूश नज़र आ जाते हैं। इनमें बा’ज़ नक़्श इस क़दर तीखे और शोख़ रंग हैं कि शायद ही उन्हें ज़माने का हाथ मुकम्मल तौर पर मिटा सके।
ज़िंदगी के इस खोए हुए टुकड़े को मैं इस वक़्त ज़माने के हाथ में देख रहा हूँ जो शरीर बच्चे की तरह मुझे बार बार उसकी झलक दिखा कर अपनी पीठ पीछे छुपा लेता है... और मैं इस खेल ही से ख़ुश हूँ। इसी को ग़नीमत समझता हूँ। [...]

Don't have an account? Sign up

Forgot your password?

Error message here!

Error message here!

Hide Error message here!

Error message here!

OR
OR

Lost your password? Please enter your email address. You will receive a link to create a new password.

Error message here!

Back to log-in

Close