दीवाना शायर

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[अगर मुक़द्दस हक़ दुनिया की मुतजस्सिस निगाहों से ओझल कर दिया जाये तो रहमत हो उस दीवाने पर जो इंसानी दिमाग़ पर सुनहरा ख़्वाब तारी कर दे।]
(हकीम गोर्की)

मैं आहों का ब्योपारी हूँ,
लहू की शायरी मेरा काम है, [...]

ख़ुदा की क़सम

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उधर से मुसलमान और इधर से हिंदू अभी तक आ जा रहे थे। कैम्पों के कैंप भरे पड़े थे। जिनमें ज़रब-उल-मिस्ल के मुताबिक़ तिल धरने के लिए वाक़ई कोई जगह नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद उनमें ठूंसे जा रहे थे। ग़ल्ला नाकाफ़ी है। हिफ़्ज़ान-ए-सेहत का कोई इंतज़ाम नहीं। बीमारियां फैल रही हैं। इसका होश किसको था। एक इफ़रात-ओ-तफ़रीत का आलम था।
सन् अड़तालीस का आग़ाज़ था। ग़ालिबन मार्च का महीना। इधर और उधर दोनों तरफ़ रज़ाकारों के ज़रिए से “मग़्विया” औरतों और बच्चों की बरामदगी का मुस्तहसन काम शुरू हो चुका था। सैंकड़ों मर्द, औरतें, लड़के और लड़कियां इस कार-ए-ख़ैर में हिस्सा ले रही थीं। मैं जब उनको सरगर्म-ए-अ’मल देखता तो मुझे बड़ी तअ’ज्जुब-ख़ेज़ मसर्रत हासिल होती, या’नी ख़ुद इंसान इंसान की बुराईयों के आसार मिटाने की कोशिश में मसरूफ़ था। जो इस्मतें लुट चुकी थीं, उनको मज़ीद लूट खसूट से बचाना चाहता था। किस लिए?

इसलिए कि उसका दामन मज़ीद धब्बों और दाग़ों से आलूदा न हो? इसलिए कि वो जल्दी जल्दी अपनी ख़ून से लिथड़ी हुई उंगलियां चाट ले और हम अपने हमजिंसों के साथ दस्तरख़्वान पर बैठ कर रोटी खाए? इसलिए कि वो इंसानियत का सुई धागा लेकर जब तक दूसरे आँखें बंद किए हैं, इस्मतों के चाक रफ़ू कर दे?
कुछ समझ में नहीं आता था... लेकिन उन रज़ाकारों की जद्द-ओ-जहद फिर भी क़ाबिल-ए-क़द्र मालूम होती थी। [...]

लालटेन

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मेरा क़ियाम “बटोत” में गो मुख़्तसर था। लेकिन गूनागूं रुहानी मसर्रतों से पुर। मैंने उसकी सेहत अफ़्ज़ा मुक़ाम में जितने दिन गुज़ारे हैं उनके हर लम्हे की याद मेरे ज़ेहन का एक जुज़्व बन के रह गई है जो भुलाये न भूलेगी... क्या दिन थे! बार-बार मेरे दिल की गहराईयों से ये आवाज़ बलंद होती है और मैं कई कई घंटे इसके ज़ेर-ए-असर बेखु़द-ओ-मदहोश रहता हूँ। किसी ने ठीक कहा है कि इंसान अपनी गुज़श्ता ज़िंदगी के खंडरों पर मुस्तक़बिल की दीवारें उस्तुवार करता है। इन दिनों मैं भी यही कर रहा हूँ या’नी बीते हुए अय्याम की याद को अपनी मुज़्महिल रगों में ज़िंदगी बख़्श इंजेक्शन के तौर पर इस्तेमाल कर रहा हूँ।
जो कल हुआ था उसे अगर आज देखा जाये तो उसके और हमारे दरमियान सदियों का फ़ासला नज़र आएगा और जो कल होना ही है उसके मुतअ’ल्लिक़ हम कुछ नहीं जानते और न जान सकते हैं। आज से पूरे चार महीने की तरफ़ देखा जाये तो बटोत में मेरी ज़िंदगी एक अफ़साना मालूम होती है। ऐसा अफ़साना जिसका मसविदा साफ़ न किया गया हो।

इस खोई हुई चीज़ को हासिल करना दूसरे इंसानों की तरह मेरे बस में भी नहीं। जब में इस्तक़बाल के आईना में अपनी आने वाली ज़िंदगी का अ’क्स देखना चाहता हूँ तो इसमें मुझे हाल ही की तस्वीर नज़र आती है और कभी कभी इस तस्वीर के पस-ए-मंज़र में माज़ी के धुँदले नुक़ूश नज़र आ जाते हैं। इनमें बा’ज़ नक़्श इस क़दर तीखे और शोख़ रंग हैं कि शायद ही उन्हें ज़माने का हाथ मुकम्मल तौर पर मिटा सके।
ज़िंदगी के इस खोए हुए टुकड़े को मैं इस वक़्त ज़माने के हाथ में देख रहा हूँ जो शरीर बच्चे की तरह मुझे बार बार उसकी झलक दिखा कर अपनी पीठ पीछे छुपा लेता है... और मैं इस खेल ही से ख़ुश हूँ। इसी को ग़नीमत समझता हूँ। [...]

पाँच दिन

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जम्मू तवी के रास्ते कश्मीर जाइए तो कुद के आगे एक छोटा सा पहाड़ी गांव बटोत आता है। बड़ी पुरफ़िज़ा जगह है। यहां दिक़ के मरीज़ों के लिए एक छोटा सा सिनेटोरियम है। यूं तो आज से आठ नौ बरस पहले बटोत में पूरे तीन महीने गुज़ार चुका हूँ, और इस सेहत अफ़ज़ा मुक़ाम से मेरी जवानी का एक नापुख़्ता रुमान भी वाबस्ता है मगर इस कहानी से मेरी किसी भी कमज़ोरी का तअ’ल्लुक़ नहीं।
छः सात महीने हुए मुझे बटोत में अपने एक दोस्त की बीवी को देखने के लिए जाना पड़ा जो वहां सिनेटोरियम में ज़िंदगी के आख़िरी सांस ले रही थी। मेरे वहां पहुंचते ही एक मरीज़ चल बसा और बेचारी पदमा के सांस जो पहले ही उखड़े हुए थे और भी ग़ैर यक़ीनी होगए। मैं नहीं कह सकता वजह क्या थी लेकिन मेरा ख़याल है कि महज़ इत्तफ़ाक़ था कि चार रोज़ के अंदर अंदर इस छोटे से सिनेटोरियम में तीन मरीज़ ऊपर तले मर गए।

जूंही कोई बिस्तर ख़ाली होता या तीमारदारी करते करते थके हुए इंसानों की थकी हुई चीख़ पुकार सुनाई देती, सारे सिनेटोरियम पर एक अजीब क़िस्म की ख़ाकसतरी उदासी छा जाती और वो मरीज़ जो उम्मीद के पतले धागे के साथ चिमटे होते थे, यास की अथाह गहराइयों में डूब जाते।
मेरे दोस्त की बीवी पदमा तो बिल्कुल दमबख़ुद हो जाती। उसके पतले होंटों पर मौत की ज़रदियाँ काँपने लगतीं और उसकी गहरी आँखों में एक निहायत ही रहम अंगेज़ इस्तफ़सार पैदा हो जाता। सब से आगे एक ख़ौफ़ज़दा “क्यों?” और उसके पीछे बहुत से डरपोक “नहीं।” [...]

इज़्ज़त के लिए

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चवन्नी लाल ने अपनी मोटर साईकल स्टाल के साथ रोकी और गद्दी पर बैठे बैठे सुबह के ताज़ा अख़बारों की सुर्ख़ियों पर नज़र डाली। साईकल रुकते ही स्टाल पर बैठे हुए दोनों मुलाज़िमों ने उसे नमस्ते कही थी। जिसका जवाब चवन्नी लाल ने अपने सर की ख़फ़ीफ़ जुंबिश से दे दिया था।
सुर्ख़ियों पर सरसरी नज़र डाल कर चवन्नी लाल ने बंधे हुए एक बंडल की तरफ़ हाथ बढ़ाया जो उसे फ़ौरन दे दिया गया। इसके बाद उसने अपनी बी.एस.ए मोटर साईकल का इंजन स्टार्ट किया और ये जा वो जा।

मॉडर्न न्यूज़ एजेंसी क़ायम हुए पूरे चार बरस हो चले थे। चवन्नी लाल उसका मालिक था। लेकिन इन चार बरसों में वो एक दिन भी स्टाल पर नहीं बैठा था। वो हर रोज़ सुबह अपनी मोटर साईकल पर आता, मुलाज़िमों की नमस्ते का जवाब सर की ख़फ़ीफ़ जुंबिश से देता। ताज़ा अख़बारों की सुर्खियां एक नज़र देखता हाथ बढ़ा कर बंधा हुआ बंडल लेता और चला जाता।
चवन्नी लाल का स्टाल मामूली स्टाल नहीं था। हालाँकि अमृतसर में लोगों को अंग्रेज़ी और अमरीकी रिसालों और पर्चों से कोई इतनी दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन मॉडर्न न्यूज़ एजेंसी हर अच्छा अंग्रेज़ी और अमरीकी रिसाला मंगवाती थी बल्कि यूं कहना चाहिए कि चवन्नी लाल मंगवाता था। हालाँकि उसे पढ़ने-वड़ने का बिल्कुल शौक़ नहीं था। [...]

फुंदने

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कोठी से मुल्हक़ा वसीअ’-ओ-अ’रीज़ बाग़ में झाड़ियों के पीछे एक बिल्ली ने बच्चे दिए थे, जो बिल्ला खा गया था। फिर एक कुतिया ने बच्चे दिए थे जो बड़े बड़े हो गए थे और दिन-रात कोठी के अंदर बाहर भौंकते और गंदगी बिखेरते रहते थे। उनको ज़हर दे दिया गया... एक एक कर के सब मर गए थे। उनकी माँ भी... उनका बाप मालूम नहीं कहाँ था। वो होता तो उसकी मौत भी यक़ीनी थी।
जाने कितने बरस गुज़र चुके थे। कोठी से मुल्हक़ा बाग़ की झाड़ियां सैंकड़ों हज़ारों मर्तबा कतरी-ब्योंती, काटी-छांटी जा चुकी थीं। कई बिल्लियों और कुत्तियों ने उनके पीछे बच्चे दिए थे जिनका नाम-ओ-निशान भी न रहा था। उसकी अक्सर बद आदत मुर्ग़ियां वहाँ अंडे दे दिया करती थीं जिन को हर सुबह उठा कर वो अंदर ले जाती थी।

उसी बाग़ में किसी आदमी ने उनकी नौजवान मुलाज़िमा को बड़ी बेदर्दी से क़त्ल कर दिया था। उसके गले में उसका फुंदनों वाला सुर्ख़ रेशमी इज़ार-बंद जो उसने दो रोज़ पहले फेरी वाले से आठ आने में ख़रीदा था, फंसा हुआ था। इस ज़ोर से क़ातिल ने पेच दिए थे कि उसकी आँखें बाहर निकल आई थीं।
उसको देख कर उसको इतना तेज़ बुख़ार चढ़ा था कि बेहोश हो गई थी और शायद अभी तक बेहोश थी। लेकिन नहीं, ऐसा क्योंकर हो सकता था, इसलिए कि इस क़त्ल के देर बाद मुर्ग़ियों ने अंडे, न ही बिल्लियों ने बच्चे दिए थे और एक शादी हुई थी... कुतिया थी जिसके गले में लाल दुपट्टा था। मुकेशी... झिलमिल झिलमिल करता। उसकी आँखें बाहर निकली हुई नहीं थीं, अंदर धंसी हुई थीं। [...]

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