परवाज़ के बाद

Shayari By

जैसे कहीं ख़्वाब में जिंजर राजर्ज़ या डायना डरबिन की आवाज़ में ‘सान फ्रेंडोवैली’ का नग़्मा गाया जा रहा हो और फिर एकदम से आँख खुल जाए, या’नी वो कुछ ऐसा सा था जैसे माईकल एंजलो ने एक तस्वीर को उकताकर यूँही छोड़ दिया होगा और ख़ुद किसी ज़्यादा दिलचस्प मॉडल की तरफ़ मुतवज्जेह हो गया हो, लेकिन फिर भी उसकी संजीदा सी हँसी कह रही थी कि भई मैं ऐसा हूँ कि दुनिया के सारे मुसव्विर और सारे संग-तराश अपनी पूरी कोशिश के बा-वजूद मुझ जैसा शाहकार नहीं बना सकते। चुपके-चुपके मुस्कुराए जाओ बे-वक़ूफ़ो! शायद तुम्हें बा’द में अफ़सोस करना पड़े।
ओ सीफ़ो... ओ साइकी... ओ हेलेन... ऐ हमारे नए रेफ्रीजरेटर...।

गर्मी ज़ियादा होती जा रही थी। पाम के पत्तों पर जो माली ने ऊपर से पानी गिराया था तो गर्द कहीं-कहीं से धुल गई थी और कहीं-कहीं उसी तरह बाक़ी थी। और भीगती हुई रात कोशिश कर रही थी कि कुछ रोमैंटिक सी बन जाए। वो बर्फ़ीली लड़की, जो हमेशा सफ़ेद ग़रारे और सफ़ेद दुपट्टे में अपने आपको सबसे बुलंद और अलग सा महसूस करवाने पर मजबूर करती थी, बहुत ख़ामोशी से हक्सले की एक बेहद लग़्व किताब ‘प्वाईंट काउंटर प्वाईंट’ पढ़े जा रही थी जिसके एक लफ़्ज़ का मतलब भी उसकी समझ में न ठुंस सका था।
वो लैम्प की सफ़ेद रौशनी में इतनी ज़र्द और ग़म-गीं नज़र आ रही थी जैसे उसके बरगंडी कुइटेक्स की सारी शीशियाँ फ़र्श पर गिर के टूट गई हों या उसके फ़ीडो को सख़्त ज़ुकाम हो गया हो... और लग रहा था जैसे एक छोटे से ग्लेशियर पर आफ़ताब की किरनें बिखर रही हैं। [...]

पर्वाज़ के बाद

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जैसे कहीं ख़्वाब में जिंजर राजर्ज़िया डायना डरबन की आवाज़ में ‘सान फ्रेंडोवैली’ का नग्मा गाया जा रहा हो और फिर एकदम से आँख खुल जाये,या’नी वह कुछ ऐसा सा था जैसे माईकल एंजलो ने एक तस्वीर को उकताकर यूँही छोड़ दिया होगा और ख़ुद किसी ज़्यादा दिलचस्प मॉडल की तरफ़ मुतवज्जे हो गया हो, लेकिन फिर भी उसकी संजीदा सी हंसी कह रही थी कि भई मैं ऐसा हूँ कि दुनिया के सारे मुसव्विर और सारे संग तराश अपनी पूरी कोशिश के बावजूद मुझ जैसा शाहकार नहीं बना सकते। चुपके-चुपके मुस्कुराए जाओ बेवक़ुफ़ो! शायद तुम्हें बाद में अफ़सोस करना पड़े।
ओसिफ़ो...ओ साइकी...ओ हेलेन...ऐ हमारे नये रेफ्रीजरेटर...

गर्मी ज़्यादा होती जा रही थी। पाम के पत्तों पर जो माली ने ऊपर से पानी गिराया था तो गर्द कहीं-कहीं से धुल गई थी और कहीं-कहीं उसी तरह बाक़ी थी। और भीगती हुई रात कोशिश कर रही थी कि कुछ रोमैंटिक सी बन जाये। वो बर्फ़ीली लड़की, जो हमेशा सफ़ेद ग़रारे और सफ़ेद दुपट्टे में अपने आपको सबसे बुलंद और अलग सा महसूस करवाने पर मजबूर करती थी, बहुत ख़ामोशी से हक्सले की एक बेहद लग्व किताब ‘प्वाईंट काउंटर प्वाईंट’ पढ़े जा रही थी जिसके एक लफ़्ज़ का मतलब भी उसकी समझ में न ठुंस सका था।
वो लैम्प की सफ़ेद रोशनी में इतनी ज़र्द और ग़मगीं नज़र आ रही थी जैसे उसके बरगंडी कुइटेक्स की सारी शीशियां फ़र्श पर गिर के टूट गई हों या उस के फ़ीडो को सख़्त ज़ुकाम हो गया हो....और लग रहा था जैसे एक छोटे से ग्लेशियर पर आफ़ताब की किरनें बिखर रही हैं। [...]

साढ़े तीन आने

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“मैंने क़त्ल क्यों किया। एक इंसान के ख़ून में अपने हाथ क्यों रंगे, ये एक लंबी दास्तान है । जब तक मैं उसके तमाम अ’वाक़िब ओ अ’वातिफ़ से आपको आगाह नहीं करूंगा, आपको कुछ पता नहीं चलेगा... मगर उस वक़्त आप लोगों की गुफ़्तगु का मौज़ू जुर्म और सज़ा है। इंसान और जेल है... चूँकि मैं जेल में रह चुका हूँ, इसलिए मेरी राय नादुरुस्त नहीं हो सकती।
“मुझे मंटो साहब से पूरा इत्तफ़ाक़ है कि जेल, मुजरिम की इस्लाह नहीं कर सकती। मगर ये हक़ीक़त इतनी बार दुहराई जा चुकी है कि उसपर ज़ोर देने से आदमी को यूं महसूस होता है जैसे वो किसी महफ़िल में हज़ार बार सुनाया हुआ लतीफ़ा बयान कर रहा है... और ये लतीफ़ा नहीं कि इस हक़ीक़त को जानते पहचानते हुए भी हज़ारहा जेलख़ाने मौजूद हैं।

हथकड़ियां हैं और वो नंग-ए-इंसानियत बेड़ियाँ… मैं क़ानून का ये ज़ेवर पहन चुका हूँ।”
ये कह कर रिज़वी ने मेरी तरफ़ देखा और मुस्कुराया। उसके मोटे मोटे हब्शियों के से होंट अ’जीब अंदाज़ में फड़के। उसकी छोटी छोटी मख़मूर आँखें, जो क़ातिल की आँखें लगी थीं चमकीं। हम सब चौंक पड़े थे। जब उसने यकायक हमारी गुफ़्तगु में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। [...]

खुदकुशी का इक़दाम

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इक़बाल के ख़िलाफ़ ये इल्ज़ाम था कि उसने अपनी जान को अपने हाथों हलाक करने की कोशिश की, गो वो इसमें नाकाम रहा। जब वो अदालत में पहली मर्तबा पेश किया गया तो उसका चेहरा हल्दी की तरह ज़र्द था। ऐसा मालूम होता था कि मौत से मुडभेड़ होते वक़्त उसकी रगों में तमाम ख़ून ख़ुश्क हो कर रह गया है जिसकी वजह से उसकी तमाम ताक़त सल्ब हो गई है।
इक़बाल की उम्र बीस-बाईस बरस के क़रीब होगी मगर मुरझाए हुए चेहरे पर खूंडी हुई ज़र्दी ने उसकी उम्र में दस साल का इज़ाफ़ा कर दिया था और जब वो अपनी कमर के पीछे हाथ रखता तो ऐसा मालूम होता कि वो वाक़ई बूढ़ा है। सुना गया है कि जब शबाब के ऐवान में ग़ुर्बत दाख़िल होती है तो ताज़गी भाग जाया करती है। उसके फटे पुराने और मैले कुचैले कपड़ों से ये अयाँ था कि वो ग़ुर्बत का शिकार है और ग़ालिबन हद से बढ़ी हुई मुफ़लिसी ही ने उसे अपनी प्यारी जान को हलाक करने पर मजबूर किया था।

उसका क़द काफ़ी लंबा था जो काँधों पर ज़रा आगे की तरफ़ झुका हुआ था। इस झुकाओ में उसके वज़नी सर को भी दख़ल था जिस पर सख़्त और मोटे बाल, जेलख़ाने के स्याह और खुरदरे कम्बल का नमूना पेश कर रहे थे। आँखें अंदर को धंसी हुई थीं जो बहुत गहरी और अथाह मालूम होती थीं।
झुकी हुई निगाहों से ये पता चलता था कि वो अदालत के संगीन फ़र्श की मौजूदगी को ग़ैर यक़ीनी समझ रहा है और ये मानने से इनकार कर रहा है कि वो ज़िंदा है। नाक पतली और तीखी, उसके माथे पर थोड़ा सा चिकना मैल जमा हुआ था जिसको देख कर ज़ंग-आलूद तलवार का तसव्वुर आँखों में फिर जाता था। पतले पतले होंट जो किनारों पर एक लकीर बन कर रह गए थे, आपस में सिले हुए मालूम होते थे। शायद उसने उनको इसलिए भींच रखा था कि वो अपने सीने की आग और धुएं को बाहर निकालना नहीं चाहता था। [...]

क़र्ज़ की पीते थे...

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एक जगह महफ़िल जमी थी। मिर्ज़ा ग़ालिब वहां से उकता कर उठे, बाहर हवादार मौजूद था। उसमें बैठे और अपने घर का रुख़ किया। हवादार से उतर कर जब दीवानख़ाने में दाख़िल हुए तो क्या देखते हैं कि मथुरादास महाजन बैठा है।
ग़ालिब ने अंदर दाख़िल होते ही कहा, “अख़ाह! मथुरा दास! भई तुम आज बड़े वक़्त पर आए... मैं तुम्हें बुलवाने ही वाला था!”

मथुरा दास ने ठेट महाजनों के से अंदाज़ में कहा, “हुज़ूर रूपों को बहुत दिन हो गए। फ़क़त दो क़िस्त आपने भिजवाए थे... उसके बाद पाँच महीने हो गए, एक पैसा भी आपने न दिया।”
असद उल्लाह ख़ान ग़ालिब मुस्कुराए, “भई मथुरादास, देने को मैं सब दे दूंगा। गले-गले पानी दूंगा... दो-एक जायदाद अभी मेरी बाक़ी है।” [...]

रत्ती, माशा, तोला

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ज़ीनत अपने कॉलिज की ज़ीनत थी। बड़ी ज़ेरक, बड़ी ज़हीन और बड़े अच्छे ख़द-ओ-ख़ाल की सेहतमंद नौजवान लड़की। जिस तबीयत की वो मालिक थी उसके पेश-ए-नज़र उसकी हम-जमाअ’त लड़कियों को कभी ख़्याल भी न आया था कि वो इतनी मिक़दार पसंद औरत बन जाएगी।
वैसे वो जानती थीं कि चाय की प्याली में सिर्फ़ एक चम्मच शकर डालनी है, ज़्यादा डाल दी जाये तो पीने से इनकार कर देती है। क़मीस अगर आधा इंच बड़ी या छोटी सिल जाये तो कभी नहीं पहनेगी। लेकिन उन्हें ये मालूम नहीं था कि शादी के बाद वो अपने ख़ाविंद से भी नपी-तुली मुहब्बत करेगी।

ज़ीनत से एक लड़के को मुहब्बत हो गई। वो उसके घर के क़रीब ही रहता था, बल्कि यूं कहिए कि उसका और ज़ीनत का मकान आमने सामने था। एक दिन उस लड़के ने जिसका नाम जमाल था उसे कोठे पर अपने बाल ख़ुश्क करते देखा तो वो सर-ता-पा मुहब्बत के शर्बत में शराबोर हो गया।
ज़ीनत वक़्त की पाबंद थी, सुबह ठीक छः बजे उठती। अपनी बहन के दो बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करती। इसके बाद ख़ुद नहाती और सर पर तौलिया लपेट कर ऊपर कोठे पर चली जाती और अपने बाल जो उसके टखनों तक आते थे, सुखाती कंघी करती और नीचे चली जाती। जूड़ा वो अपने कमरे में करती थी। [...]

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