एक जगह महफ़िल जमी थी। मिर्ज़ा ग़ालिब वहां से उकता कर उठे, बाहर हवादार मौजूद था। उसमें बैठे और अपने घर का रुख़ किया। हवादार से उतर कर जब दीवानख़ाने में दाख़िल हुए तो क्या देखते हैं कि मथुरादास महाजन बैठा है। ग़ालिब ने अंदर दाख़िल होते ही कहा, “अख़ाह! मथुरा दास! भई तुम आज बड़े वक़्त पर आए... मैं तुम्हें बुलवाने ही वाला था!” मथुरा दास ने ठेट महाजनों के से अंदाज़ में कहा, “हुज़ूर रूपों को बहुत दिन हो गए। फ़क़त दो क़िस्त आपने भिजवाए थे... उसके बाद पाँच महीने हो गए, एक पैसा भी आपने न दिया।” असद उल्लाह ख़ान ग़ालिब मुस्कुराए, “भई मथुरादास, देने को मैं सब दे दूंगा। गले-गले पानी दूंगा... दो-एक जायदाद अभी मेरी बाक़ी है।”
[...]