मीठा माशूक़

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अल्लाह बख़्शे मिर्ज़ा साहब का दिमाग़ बज़ला संजियों का ज़ख़ीरा था, ज़बान चुटकुलों की पोट थी। फिर उम्र भी इतनी पाई कि दूसरे के पास इतना सामान हो ही नहीं सकता था। इसके अलावा अंदाज़-ए-बयान कुछ ऐसा था कि सीधी सीधी बात रोज़मर्रा के वाक़ियात जब कहने लगते थे तो दास्तानगो की दास्तानें मात थीं।
न मालूम किस तरह का उलट-फेर लफ़्ज़ों का होता था कि जुमलों में नए नए माअनों की झलक पैदा होजाती थी। फ़िक़्रों में असली मअनी के साथ साथ दूसरे पहलुओं की परछाईयां दिखाई देती थीं जैसे नगीने की छूट पड़ती है। इख्तिसार के बादशाह थे। एक दिन एक शायर साहब कहने लगे मैं तो बहुत कम कहता हूँ। मिर्ज़ा साहब बोले ख़ैर ग़नीमत है। उनका तूल भी ऐसा ही दिल-आवेज़ होता था। किसी ने मिज़ाजे शरीफ़ पूछा, कहने लगे अगर शुक्र नहीं भी है तो शिकायत की मजाल किसको है।

एक क़िस्सा ख़ुद अपने ख़ानदान का बयान करते थे, मगर वो ज़बान कहाँ से लाऊँगा, फ़रमाने लगे कि ग़दर के बाद हमारे एक दाधियाली अज़ीज़ थे। लखनऊ से फ़ासिले पर रहते थे। उनका मुक़द्दमा फ़ाइनांशली में था। रेल उस वक़्त तक निकली नहीं थी। लोग शुक्रम और ऊंट गाड़ियों पर सफ़र करते थे। उमरा कहारों की डाक बिठाकर चलते थे। मुतवस्सित हाल लोग अपने घर की रथ बहलियों पर मा नौकरों चाकरों के आहिस्ता ख़िराम बल्कि मुखराम की चाल चलते थे। उन्हीं हज़रात में मिर्ज़ा साहब के चचा भी थे, ख़ुद बहली पर, और मुसाहिबत में मुख़्तसर रियासत के दीवान मुंशी बख़्त बली काइस्थ जिनके छोटी बड़ी रियासत का होना वैसा ही मुम्किन था जैसे उनकी माश की दाल बे हींग के हो। जिलौ में कारकुन साहब जिनको नायब कह लीजिए, टट्टू पर एक लठ बंद सिपाही और दो नफ़र हमराही, जिनमें एक बड़े मिर्ज़ा साहब का ख़िदमतगार और दूसरा नायब साहब का नीम साईस और नीम ख़िदमतगार और वक़्त-ए-ज़रूरत बावर्ची भी। मेरी गुस्ताख़ी की जसारत माफ़ हो। इस जगह में अपने पढ़ने वालों का इम्तिहान लेना चाहता हूँ, भला बताईए तो इस कहानी का हीरो कौन है। “इतने के बीच मोरी बिंदिया हिरानी।” है, उन्हीं लोगों में मगर तिनके ओट पहाड़ अगरा प बोझ गए तो हम भी क़ाइल हैं।
बहली के साज़-ओ-सामान में बिछौने, लाला की लुटिया, मिर्ज़ा साहब का लोटा, जा-नमाज़, मुख़्तसर सामान मतबख़, एक अदद तवा और एक दो पतीलियां, कुछ दाल मसाले की पोटली बहली के पीछे जाल में, मिसिल मुक़द्दमा की दीवान जी की बग़ल में,मगर लाला साहब और बड़े मिर्ज़ा साहब के दरमियान में और गाड़ीबान के पीछे ये कौन चीज़ रखी है। हज़रत उसको न पूछिए, यही तो क़िस्से की जान है। अगर ये न होती तो कहाँ हम कहाँ आप, ये कहानी, बड़े मिर्ज़ा साहब के ऐसे हज़ारों सफ़र कर गए, हज़ारों सफ़र कर रहे हैं और लाखों सफ़र करेंगे, मगर हर मुसाफ़िर की कहानी थोड़े ही लिखी जा सकती है। दास्तानगो और क़द्रदानों को जमा करने वाली वही है जो बहली के बीचों बीच में बड़ी हिफ़ाज़त से रखी है। ये मिठाई की एक टोकरी है जिसमें कम से कम दस बारह सेर मिठाई होगी। उस पर एक पुरानी चादर सिली हुई है और अंदाज़ से सौग़ात मालूम होती है। [...]

चुग़द

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लड़कों और लड़कियों के मआशिक़ों का ज़िक्र हो रहा था। प्रकाश जो बहुत देर से ख़ामोश बैठा अंदर ही अंदर बहुत शिद्दत से सोच रहा था, एक दम फट पड़ा, सब बकवास है, सौ में से निन्नानवे मआशिक़े निहायत ही भोंडे और लच्चर और बेहूदा तरीक़ों से अमल में आते हैं। एक बाक़ी रह जाता है, उसमें आप अपनी शायरी रख लीजिए या अपनी ज़ेहानत और ज़कावत भर दीजिए... मुझे हैरत है... तुम सब तजुर्बेकार हो। औसत आदमी के मुक़ाबले में ज़्यादा समझदार हो। जो हक़ीक़त है, तुम्हारी आँखों से ओझल भी नहीं।
फिर ये क्या हिमाक़त है कि तुम बराबर इस बात पर ज़ोर दिए जा रहे हो कि औरत को राग़िब करने के लिए नर्म-ओ-नाज़ुक शायरी, हसीन-ओ-जमील शक्ल और ख़ुशवज़ा लिबास, इत्र, लैवेंडर और जाने किस किस ख़ुराफ़ात की ज़रूरत है और मेरी समझ से ये चीज़ तो बिल्कुल बालातर है कि औरत से इश्क़ लड़ाने से पहले तमाम पहलू सोच कर एक स्कीम बनाने की क्या ज़रूरत है।”

चौधरी ने जवाब दिया, “हर काम करने से पहले आदमी को सोचना पड़ता है।”
प्रकाश ने फ़ौरन ही कहा, “मानता हूँ। लेकिन ये इश्क़ लड़ाना मेरे नज़दीक बिल्कुल काम नहीं... ये एक... भई तुम क्यों ग़ौर नहीं करते। कहानी लिखना एक काम है। इसे शुरू करने से पहले सोचना ज़रूरी है लेकिन इश्क़ को आप काम कैसे कह सकते हैं... ये एक... ये एक... ये एक... मेरा मतलब है। इश्क़ मकान बनाना नहीं जो आपको पहले नक़्शा बनवाना पड़े... एक लड़की या औरत अचानक आपके सामने आती है। आपके दिल में कुछ गड़बड़ सी होती है। फिर ये ख़्वाहिश पैदा होती है कि वो साथ लेटी हो। [...]

मुरासिला

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मुकर्रमी! आपके मूक़र अख़बार के ज़रीये में मुताल्लिक़ा हुक्काम को शहर के मग़रिबी इलाक़े की तरफ़ मुतवज्जा कराना चाहता हूँ। मुझे बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि आज जब बड़े पैमाने पर शहर की तौसीअ हो रही है और हर इलाक़े के शहरीयों को जदीद तरीन सहूलतें बहम पहुंचाई जा रही हैं, ये मग़रिबी इलाक़ा बिजली और पानी की लाईनों तक से महरूम है। ऐसा मालूम होता है कि इस शहर की तीन ही सम्तें हैं। हाल ही में जब एक मुद्दत के बाद मेरा इस तरफ़ एक ज़रूरत से जाना हुआ तो मुझको शहर का ये इलाक़ा बिलकुल वैसा ही नज़र आया जैसा मेरे बचपन में था।
(१)

मुझे इस तरफ़ जाने की ज़रूरत नहीं थी, लेकिन अपनी वालिदा की वजह से मजबूर हो गया। बरसों पहले वो बुढ़ापे के सबब चलने फिरने से माज़ूर हो गई थीं, फिर उनकी आँखों की रोशनी भी क़रीब क़रीब जाती रही और ज़हन भी माऊफ़ सा हो गया। माज़ूरी का ज़माना शुरू होने के बाद भी एक अर्से तक वो मुझको दिन रात में तीन चार मर्तबा अपने पास बुला कर कपकपाते हाथों से सर से पैर तक टटोलती थीं। दर असल मेरे पैदा होने के बाद ही से उनको मेरी सेहत ख़राब मालूम होने लगी थी। कभी उन्हें मेरा बदन बहुत ठंडा महसूस होता, कभी बहुत गर्म, कभी मेरी आवाज़ बदली हुई मालूम होती और कभी मेरी आँखों की रंगत में तग़य्युर नज़र आता। हकीमों के एक पुराने ख़ानदान से ताल्लुक़ रखने की वजह से उनको बहुत सी बीमारीयों के नाम और ईलाज ज़बानी याद थे और कुछ-कुछ दिन बाद वो मुझे किसी नए मर्ज़ में मुबतला क़रार देकर उस के ईलाज पुर इसरार करती थीं। उनकी माज़ूरी के इबतिदाई ज़माने में दो तीन बार ऐसा इत्तिफ़ाक़ हुआ कि मैं किसी काम में पड़ कर उनके कमरे में जाना भूल गया, तो वो मालूम नहीं किस तरह ख़ुद को खींचती हुई कमरे के दरवाज़े तक ले आएं। कुछ और ज़माना गुज़रने के बाद जब उनकी रही सही ताक़त भी जवाब दे गई तो एक दिन उनके मुआलिज ने महिज़ ये आज़माने की ख़ातिर कि आया उनके हाथ पैरों में अब भी कुछ सकत बाक़ी है, मुझे दिन-भर उनके पास नहीं जाने दिया और वो ब-ज़ाहिर मुझसे बे-ख़बर रहीं, लेकिन रात गए उनके आहिस्ता-आहिस्ता कराहने की आवाज़ सुनकर जब मैं लपकता हुआ उनके कमरे में पहुंचा तो वो दरवाज़े तक का आधा रास्ता तै कर चुकी थीं। उनका बिस्तर, जो इन्होंने मेरे वालिद के मरने के बाद से ज़मीन पर बिछाना शुरू कर दिया था, उनके साथ घिसटता हुआ चला आया था। देखने में ऐसा मालूम होता था कि बिस्तर ही उनको खींचता हुआ दरवाज़े की तरफ़ लिए जा रहा था। मुझे देखकर इन्होंने कुछ कहने की कोशिश की लेकिन तकान के सबब बेहोश हो गईं और कई दिन तक बेहोश रहीं। उनके मुआलिज ने बार-बार अपनी ग़लती का एतराफ़ और इस आज़माईश पर पछतावे का इज़हार किया, इसलिए कि इस के बाद ही से मेरी वालिदा की बीनाई और ज़हन ने जवाब देना शुरू किया, यहां तक कि रफ़्ता-रफ़्ता उनका वजूद और अदम बराबर हो गया।
उनके मुआलिज को मरे हुए भी एक अरसा गुज़र गया। लेकिन हाल ही में एक रात मेरी आँख खुली तो मैंने देखा कि वो मेरे पायँती ज़मीन पर बैठी हुई हैं और एक हाथ से मेरे बिस्तर को टटोल रही हैं। मैं जल्दी से उठकर बैठ गया। [...]

वक़ार महल का साया

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वक़ार महल की छतें गिर चुकी हैं लेकिन दीवारें जूं की तूं खड़ी हैं। जिन्हें तोड़ने के लिए बीसियों जवान मज़दूर कई एक साल से कुदाल चलाने में मसरूफ़ हैं।
वक़ार महल न्यू कॉलोनी के मर्कज़ में वाक़्य है न्यू कॉलोनी के किसी हिस्से से देखिए। खिड़की से सर निकालिए, रोशन दान से झांकिए। टियर्स से नज़र दोड़ाईए। हर सूरत में वक़ार महल सामने आ खड़ा होता है। मज़बूत, वीरान, बोझल, रोबदार, डरावना सर-बुलंद, खोखला। अज़ीम।

ऐसा मालूम होता है कि सारी न्यू कॉलोनी आसेब-ज़दा हो और वक़ार महल आसीब हो।
नौजवान देखते हैं तो दिलों में ग़ुस्सा उभरता है। न्यू कॉलोनी के चेहरे का फोड़ा। रिसती बस्ती कॉलोनी में आसारे-ए-क़दीमा। चेहरे नफ़रत से बिगड़ जाते हैं, हटाओ उसे। लेकिन वो महल से अपनी निगाहें हटा नहीं सकते। [...]

लालटेन

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मेरा क़ियाम “बटोत” में गो मुख़्तसर था। लेकिन गूनागूं रुहानी मसर्रतों से पुर। मैंने उसकी सेहत अफ़्ज़ा मुक़ाम में जितने दिन गुज़ारे हैं उनके हर लम्हे की याद मेरे ज़ेहन का एक जुज़्व बन के रह गई है जो भुलाये न भूलेगी... क्या दिन थे! बार-बार मेरे दिल की गहराईयों से ये आवाज़ बलंद होती है और मैं कई कई घंटे इसके ज़ेर-ए-असर बेखु़द-ओ-मदहोश रहता हूँ। किसी ने ठीक कहा है कि इंसान अपनी गुज़श्ता ज़िंदगी के खंडरों पर मुस्तक़बिल की दीवारें उस्तुवार करता है। इन दिनों मैं भी यही कर रहा हूँ या’नी बीते हुए अय्याम की याद को अपनी मुज़्महिल रगों में ज़िंदगी बख़्श इंजेक्शन के तौर पर इस्तेमाल कर रहा हूँ।
जो कल हुआ था उसे अगर आज देखा जाये तो उसके और हमारे दरमियान सदियों का फ़ासला नज़र आएगा और जो कल होना ही है उसके मुतअ’ल्लिक़ हम कुछ नहीं जानते और न जान सकते हैं। आज से पूरे चार महीने की तरफ़ देखा जाये तो बटोत में मेरी ज़िंदगी एक अफ़साना मालूम होती है। ऐसा अफ़साना जिसका मसविदा साफ़ न किया गया हो।

इस खोई हुई चीज़ को हासिल करना दूसरे इंसानों की तरह मेरे बस में भी नहीं। जब में इस्तक़बाल के आईना में अपनी आने वाली ज़िंदगी का अ’क्स देखना चाहता हूँ तो इसमें मुझे हाल ही की तस्वीर नज़र आती है और कभी कभी इस तस्वीर के पस-ए-मंज़र में माज़ी के धुँदले नुक़ूश नज़र आ जाते हैं। इनमें बा’ज़ नक़्श इस क़दर तीखे और शोख़ रंग हैं कि शायद ही उन्हें ज़माने का हाथ मुकम्मल तौर पर मिटा सके।
ज़िंदगी के इस खोए हुए टुकड़े को मैं इस वक़्त ज़माने के हाथ में देख रहा हूँ जो शरीर बच्चे की तरह मुझे बार बार उसकी झलक दिखा कर अपनी पीठ पीछे छुपा लेता है... और मैं इस खेल ही से ख़ुश हूँ। इसी को ग़नीमत समझता हूँ। [...]

ईदगाह

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(1)
रमज़ान के पूरे तीस रोज़ों के बाद आज ईद आई। कितनी सुहानी और रंगीन सुब्ह है। बच्चे की तरह पुर-तबस्सुम दरख़्तों पर कुछ अ'जीब हरियावल है। खेतों में कुछ अ'जीब रौनक़ है। आसमान पर कुछ अ'जीब फ़िज़ा है। आज का आफ़ताब देख कितना प्यारा है। गोया दुनिया को ईद की ख़ुशी पर मुबारकबाद दे रहा है। गाँव में कितनी चहल-पहल है। ईदगाह जाने की धूम है। किसी के कुरते में बटन नहीं हैं तो सुई-तागा लेने दौड़े जा रहा है। किसी के जूते सख़्त हो गए हैं। उसे तेल और पानी से नर्म कर रहा है। जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते लौटते दोपहर हो जाएगी। तीन कोस का पैदल रास्ता, फिर सैंकड़ों रिश्ते, क़राबत वालों से मिलना मिलाना। दोपहर से पहले लौटना ग़ैर-मुम्किन है।

लड़के सब से ज़्यादा ख़ुश हैं। किसी ने एक रोज़ा रखा, वो भी दोपहर तक। किसी ने वो भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की ख़ुशी इनका हिस्सा है। रोज़े बड़े-बूढ़ों के लिए होंगे, बच्चों के लिए तो ईद है। रोज़ ईद का नाम रटते थे, आज वो आ गई। अब जल्दी पड़ी हुई है कि ईदगाह क्यूँ नहीं चलते। उन्हें घर की फ़िक़्रों से क्या वास्ता? सेवइयों के लिए घर में दूध और शकर, मेवे हैं या नहीं, इसकी उन्हें क्या फ़िक्र? वो क्या जानें अब्बा क्यूँ बद-हवास गाँव के महाजन चौधरी क़ासिम अली के घर दौड़े जा रहे हैं, उनकी अपनी जेबों में तो क़ारून का ख़ज़ाना रक्खा हुआ है। बार-बार जेब से ख़ज़ाना निकाल कर गिनते हैं। दोस्तों को दिखाते हैं और ख़ुश हो कर रख लेते हैं। इन्हीं दो-चार पैसों में दुनिया की सात नेमतें लाएँगे। खिलौने और मिठाईयाँ और बिगुल और ख़ुदा जाने क्या क्या।
सब से ज़्यादा ख़ुश है हामिद। वो चार साल का ग़रीब ख़ूबसूरत बच्चा है, जिसका बाप पिछले साल हैज़ा की नज़्र हो गया था और माँ न जाने क्यूँ ज़र्द होती-होती एक दिन मर गई। किसी को पता न चला कि बीमारी क्या है। कहती किस से? कौन सुनने वाला था? दिल पर जो गुज़रती थी, सहती थी और जब न सहा गया तो दुनिया से रुख़्सत हो गई। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही ख़ुश है। उसके अब्बा जान बड़ी दूर रुपये कमाने गए थे और बहुत सी थैलियाँ लेकर आएँगे। अम्मी जान अल्लाह मियाँ के घर मिठाई लेने गई हैं। इसलिए ख़ामोश है। हामिद के पाँव में जूते नहीं हैं। सर पर एक पुरानी धुरानी टोपी है जिसका गोटा स्याह हो गया है फिर भी वो ख़ुश है। जब उसके अब्बा जान थैलियाँ और अम्माँ जान नेमतें लेकर आएँगे, तब वो दिल के अरमान निकालेगा। तब देखेगा कि महमूद और मोहसिन आज़र और समी कहाँ से इतने पैसे लाते हैं। दुनिया में मुसीबतों की सारी फ़ौज लेकर आए, उसकी एक निगाह-ए-मासूम उसे पामाल करने के लिए काफ़ी है। [...]

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