मौज दीन

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रात की तारीकी में सेंट्रल जेल के दो वार्डन बंदूक़ लिए चार क़ैदियों को दरिया की तरफ़ लिए जा रहे थे जिनके हाथ में कुदालें और बेलचे थे। पुल पर पहुंच कर उन्होंने गारद के सिपाही से डिबिया ले कर लालटेन जलाई और तेज़ तेज़ क़दम बढ़ाते दरिया की तरफ़ चल दिए।
किनारे पर पहुंच कर उन्होंने बारहदरी की बग़ल में कुदालें और बेलचे फेंके और लालटेन की मद्धम रौशनी में इस तरह तलाश शुरू की जैसे वो किसी मदफ़ून खज़ाने की खोज में आए हैं। एक क़ैदी ने लालटेन थामे वार्डन को दारोगा जी के नाम से मुख़ातिब करते हुए कहा, “दारोगा जी! ये जगह मुझे बहुत पसंद है अगर हुक्म हो तो खुदाई शुरू कर दें।”

“देखना ज़मीन नीचे से पथरीली न हो, वर्ना सारी रात खुदाई में गुज़र जाएगी। कमबख़्त को मरना भी रात ही को था।” वार्डन ने तहक्कुमाना और बेज़ारी के लहजे में कहा।
क़ैदियों ने कुदालें और बेलचे उठाए और खोदना शुरू किया। वार्डन बेज़ारी के मूड में बैठे सिगरेट पी रहे थे। क़ैदी ज़मीन खोदने में हमातन मसरूफ़ थे। रफ़्ता रफ़्ता ज़मीन पर ख़ुदी हुई मिट्टी का ढेर लग गया और वार्डन ने क़रीब आ कर क़ब्र का मुआ’इना किया। ज़मीन चूँकि पथरीली नहीं थी इसलिए वो बड़े इतमिनान के साथ क़रीब ही एक पत्थर पर बैठा सिगरेट पीने लगा जिसे लगाने के लिए उसने लालटेन मंगाई। [...]

नमक का दारोग़ा

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(1)
जब नमक का महकमा क़ाएम हुआ और एक ख़ुदा-दाद नेमत से फ़ायदा उठाने की आम मुमानिअत कर दी गई तो लोग दरवाज़ा-ए-सद्र बंद पा कर रौज़न और शिगाफ़ की फ़िक्र करने लगे।

चारों तरफ़ ख़यानत, ग़बन और तहरीस का बाज़ार गर्म था। पटवार-गिरी का मुअज़्ज़ज़ और पुर-मुनफ़अत ओहदा छोड़-छोड़ कर लोग सीग़ा-ए-नमक की बर्क़-अन्दाज़ी करते थे। और इस महकमे का दारोग़ा वकीलों के लिए भी रश्क का बाइस था।
ये वो ज़माना था। जब अंग्रेज़ी ता'लीम और ईसाइयत मुतरादिफ़ अल्फ़ाज़ थे। फ़ारसी की ता'लीम सनद-ए-इफ़्तिख़ार थी। लोग हुस्न और इश्क़ की कहानियाँ पढ़-पढ़ कर आला-तरीन मदारिज-ए-ज़िंदगी के क़ाबिल हो जाते थे, मुंशी बंसीधर ने भी ज़ुलेख़ा की दास्तान ख़त्म की और मजनूँ और फ़रहाद के क़िस्सा-ए-ग़म को दरियाफ़्त अमरीका या जंग-ए-नील से अ'ज़ीम-तर वाक़िआ' ख़याल करते हुए रोज़गार की तलाश में निकले। उनके बाप एक जहाँ-दीदा बुज़ुर्ग थे, समझाने लगे। बेटा घर की हालत ज़रा देख रहे हो। क़र्ज़े से गर्दनें दबी हुई हैं। लड़कियाँ हैं, वो गंगा-जमुना की तरह बढ़ती चली आ रही हैं, मैं कगारे का दरख़्त हूँ, न मालूम कब गिर पड़ूँ, तुम ही घर के मालिक-ओ-मुख़्तार हो। मशाहिरे और ओहदे का मुतलक़ ख़याल न करना, ये तो पीर का मज़ार है, निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए, ऐसा काम ढूँढ़ो जहाँ कुछ बालाई रक़म की आमद हो। माहवार मुशाहरा पूर्णमाशी का चाँद है। जो एक दिन दिखाई देता है और फिर घटते-घटते ग़ायब हो जाता है, बालाई रक़म पानी का बहता हुआ सोता है, जिससे प्यास हमेशा बुझती रहती है। मुशाहरा इंसान देता है इसीलिए उसमें बरकत नहीं होती, बालाई रक़म ग़ैब से मिलती है इसीलिए उसमें बरकत होती है। और तुम ख़ुद आलिम-ओ-फ़ाज़िल हो, तुम्हें क्या समझाऊँ ये मुआ'मला बहुत कुछ ज़मीर और क़याफ़े की पहचान पर मुनहसिर है, इंसान को देखो, मौक़ा देखो और ख़ूब ग़ौर से काम लो। ग़रज़-मंद के साथ हमेशा बे-रहमी और बे-रुख़ी कर सकते हो लेकिन बे-ग़रज़ से मुआ'मला करना मुश्किल काम है। इन बातों को गिरह बाँध लो, ये मेरी सारी ज़िंदगी की कमाई हैं।” [...]

फुंदने

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कोठी से मुल्हक़ा वसीअ’-ओ-अ’रीज़ बाग़ में झाड़ियों के पीछे एक बिल्ली ने बच्चे दिए थे, जो बिल्ला खा गया था। फिर एक कुतिया ने बच्चे दिए थे जो बड़े बड़े हो गए थे और दिन-रात कोठी के अंदर बाहर भौंकते और गंदगी बिखेरते रहते थे। उनको ज़हर दे दिया गया... एक एक कर के सब मर गए थे। उनकी माँ भी... उनका बाप मालूम नहीं कहाँ था। वो होता तो उसकी मौत भी यक़ीनी थी।
जाने कितने बरस गुज़र चुके थे। कोठी से मुल्हक़ा बाग़ की झाड़ियां सैंकड़ों हज़ारों मर्तबा कतरी-ब्योंती, काटी-छांटी जा चुकी थीं। कई बिल्लियों और कुत्तियों ने उनके पीछे बच्चे दिए थे जिनका नाम-ओ-निशान भी न रहा था। उसकी अक्सर बद आदत मुर्ग़ियां वहाँ अंडे दे दिया करती थीं जिन को हर सुबह उठा कर वो अंदर ले जाती थी।

उसी बाग़ में किसी आदमी ने उनकी नौजवान मुलाज़िमा को बड़ी बेदर्दी से क़त्ल कर दिया था। उसके गले में उसका फुंदनों वाला सुर्ख़ रेशमी इज़ार-बंद जो उसने दो रोज़ पहले फेरी वाले से आठ आने में ख़रीदा था, फंसा हुआ था। इस ज़ोर से क़ातिल ने पेच दिए थे कि उसकी आँखें बाहर निकल आई थीं।
उसको देख कर उसको इतना तेज़ बुख़ार चढ़ा था कि बेहोश हो गई थी और शायद अभी तक बेहोश थी। लेकिन नहीं, ऐसा क्योंकर हो सकता था, इसलिए कि इस क़त्ल के देर बाद मुर्ग़ियों ने अंडे, न ही बिल्लियों ने बच्चे दिए थे और एक शादी हुई थी... कुतिया थी जिसके गले में लाल दुपट्टा था। मुकेशी... झिलमिल झिलमिल करता। उसकी आँखें बाहर निकली हुई नहीं थीं, अंदर धंसी हुई थीं। [...]

फूजा हराम दा

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हाऊस में हरामियों की बातें शुरू हुईं तो ये सिलसिला बहुत देर तक जारी रहा। हर एक ने कम अज़ कम एक हरामी के मुतअ’ल्लिक़ अपने तास्सुरात बयान किए जिससे उसको अपनी ज़िंदगी में वास्ता पड़ चुका था। कोई जालंधर का था। कोई लुधियाने का और कोई लाहौर का। मगर सबके सब स्कूल या कॉलेज की ज़िंदगी के मुतअ’ल्लिक़ थे।
मेहर फ़िरोज़ साहब सबसे आख़िर में बोले। आप ने कि... अमृतसर में शायद ही कोई ऐसा आदमी हो जो फूजे हरामदे के नाम से नावाक़िफ़ हो। यूं तो इस शहर में और भी कई हरामज़ादे थे मगर उसके पल्ले के नहीं थे। वो नंबर एक हरामज़ादा था। स्कूल में उसने तमाम मास्टरों का नाक में दम कर रखा था। हेडमास्टर जिसको देखते ही बड़े बड़े शैतान लड़कों का पेशाब ख़ता हो जाता, फूजे से बहुत घबराता था, इसलिए कि उस पर उनके मशहूर बेद का कोई असर नहीं होता था। यही वजह है कि तंग आकर उन्होंने उस को मारना छोड़ दिया था।

ये दसवीं जमात की बात है। एक दिन यार लोगों ने उससे कहा देखो फूजे! अगर तुम कपड़े उतार कर नंग धड़ंग स्कूल का एक चक्कर लगाओ तो हम तुम्हें एक रुपया देंगे। फूजे ने रुपया लेकर कान में अड़सा कपड़े उतार कर बस्ते में बांधे और सबके सामने चलना शुरू कर दिया, जिस क्लास के पास से गुज़रता वो ज़ा’फ़रान ज़ार बन जाता। चलते चलते वो हेडमास्टर साहब के दफ़्तर के पास पहुंच गया। पत्ती उठाई और ग़ड़ाप से अंदर।
मालूम नहीं क्या हुआ, हेडमास्टर साहब सख़्त बौखलाए हुए बाहर निकले और चपड़ासी को बुला कर उससे कहा, “जाओ भाग के जाओ, फूजे हरामदे के घर, वहां से कपड़े लाओ उसके लिए। कहता है, मैं मस्जिद के सक़ावे में नहा रहा था कि मेरे कपड़े कोई चोर उठा कर ले गया।” [...]

मिसेज़ गुल

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मैंने जब उस औरत को पहली मर्तबा देखा तो मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैंने लेमूँ निचोड़ने वाला खटका देखा है। बहुत दुबली-पतली, लेकिन बला की तेज़। उसका सारा जिस्म सिवाए आँखों के इंतहाई ग़ैर निस्वानी था।
ये आँखें बड़ी बड़ी और सुरमई थीं जिनमें शरारत, दग़ाबाज़ी और फ़रेबकारी कूट कूट कर भरी हुई थी। मेरी उसकी मुलाक़ात ऊँची सोसाइटी की एक ख़ातून के घर में हुई जो पचपन बरस की उम्र में एक जवाँ साल मर्द से शादी के मरहले तय कर रही थी।

इस ख़ातून से जिस को मैं अपनी और आपकी सहूलत की ख़ातिर मिसेज़ गुल कहूंगा, मेरे बड़े बे-तकल्लुफ़ मरासिम थे। मुझे उनकी सारी ख़ामियों का इल्म था और उन्हें मेरी चंद का। बहरहाल हम दोनों एक दूसरे से मिलते और घंटों बातें करते रहते। मुझसे उन्हें सिर्फ़ इतनी दिलचस्पी थी कि उन्हें अफ़साने पढ़ने का शौक़ था और मेरे लिखे हुए अफ़साने उनको ख़ासतौर पर पसंद आते थे।
मैंने जब उस औरत को जो सिर्फ़ अपनी आँखों की वजह से औरत कहलाए जाने की मुस्तहिक़ थी मिसेज़ गुल के फ़्लैट में देखा तो मुझे ये डर महसूस हुआ कि वो मेरी ज़िंदगी का सारा रस एक दो बातों ही में निचोड़ लेगी लेकिन थोड़े अ’र्से के बाद ये ख़ौफ़ दूर हो गया और मैंने उससे बातें शुरू कर दीं। [...]

शुग़ल

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(मैक्सिम गोर्की की याद में)
ये पिछले दिनों की बात है जब हम बरसात में सड़कें साफ़ करके अपना पेट पाल रहे थे।

हम में से कुछ किसान थे और कुछ मज़दूरी पेशा, चूँकि पहाड़ी देहातों में रुपये का मुँह देखना बहुत कम नसीब होता है। इसलिए हम सब ख़ुशी से छः आने रोज़ाना पर सारा दिन पत्थर हटाते रहते थे जो बारिशों के ज़ोर से साथ वाली पहाड़ियों से लुढ़क कर सड़क पर आ गिरते थे। पत्थरों को सड़क पर से परे हटाना तो ख़ैर एक मामूली बात थी। हम तो इस उजरत पर उन पहाड़ियों को ढाने पर भी तैयार थे जो हमारे गिर्द-ओ-पेश, स्याह और डरावने देवों की तरह अकड़ी खड़ी थीं।
दरअस्ल हमारे बाज़ू सख़्त से सख़्त मशक़्क़त के आ’दी थे। इसलिए ये काम हमारे लिए बिल्कुल मामूली था। अलबत्ता जब कभी हमें सड़क को चौड़ा करने के लिए पत्थर काटना होते, तो रात को हमें बहुत तकान महसूस होती थी। पुट्ठे अकड़ जाते और सुबह को बेदार होते वक़्त ऐसा महसूस होता कि वो तमाम पत्थर जिन्हें हम गुज़श्ता रोज़ काटते और फोड़ते रहे हैं, हमारे जिस्मों पर बोझ डाले हुए हैं मगर ऐसा कभी कभी होता था। [...]

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