रिश्वत

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अहमद दीन खाते पीते आदमी का लड़का था। अपने हम उम्र लड़कों में सबसे ज़्यादा ख़ुशपोश माना जाता था, लेकिन एक वक़्त ऐसा भी आया कि वो बिल्कुल ख़स्ता हाल हो गया।
उसने बी.ए किया और अच्छी पोज़ीशन हासिल की। वो बहुत ख़ुश था, उस के वालिद ख़ान बहादुर अताउल्लाह का इरादा था कि उसे आला ता’लीम के लिए विलायत भेजेंगे। पासपोर्ट ले लिया गया था, सूट वग़ैरा भी बनवा लिए गए थे कि अचानक ख़ान बहादुर अताउल्लाह ने जो बहुत शरीफ़ आदमी थे, किसी दोस्त के कहने पर सट्टा खेलना शुरू कर दिया।

शुरू में उन्हें इस खेल में काफ़ी मुनाफ़ा हुआ। वो ख़ुश थे कि चलो मेरे बेटे की आला ता’लीम का ख़र्च ही निकल आया, मगर लालच बुरी बला है। उन्होंने ये समझा कि उनकी पुश्त पर चौगुनी है, जीतते ही चले जाऐंगे।
उनका वो दोस्त जिसने उनको इस रास्ते पर लगाया था बार बार उनसे कहता था,“ख़ान साहब, माशा-अल्लाह आप क़िस्मत के धनी हैं, मिट्टी में भी हाथ डालें तो सोना बन जाये।” [...]

देख कबीरा रोया

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नगर नगर ढिंडोरा पीटा गया कि जो आदमी भीक मांगेगा उसको गिरफ़्तार कर लिया जाये। गिरफ्तारियां शुरू हुईं। लोग ख़ुशियां मनाने लगे कि एक बहुत पुरानी ला’नत दूर हो गई।
कबीर ने ये देखा तो उसकी आँखों में आँसू आ गए। लोगों ने पूछा, “ए जूलाहे तू क्यों रोता है?”

कबीर ने रो कर कहा, “कपड़ा दो चीज़ों से बनता है, ताने और पेटे से। गिरफ़्तारियों का ताना तो शुरू हो गया पर पेट भरने का पेटा कहाँ है?”
एक एम.ए, एल.एल.बी को दो सौ खडियाँ अलॉट हो गईं। कबीर ने ये देखा तो उसकी आँखों में आँसू आगए। एम.ए, एल.एल.बी ने पूछा, “ए जूलाहे के बच्चे तू क्यों रोता है? क्या इसलिए कि मैंने तेरा हक़ ग़स्ब कर लिया है?” [...]

मातमी जलसा

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रात रात में ये ख़बर शहर के इस कोने से उस कोने तक फैल गई कि अतातुर्क कमाल मर गया है। रेडियो की थरथराती हुई ज़बान से ये सनसनी फैलाने वाली ख़बर ईरानी होटलों में सट्टेबाज़ों ने सुनी जो चाय की प्यालियां सामने रखे आने वाले नंबर के बारे में क़ियास दौड़ा रहे थे और वो सब कुछ भूल कर कमाल अतातुर्क की बड़ाई में गुम हो गए।
होटल में सफ़ेद पत्थर वाले मेज़ के पास बैठे हुए एक सटोरी ने अपने साथी से ये ख़बर सुन कर लर्ज़ां आवाज़ में कहा, “मुस्तफ़ा कमाल मर गया!”

उसके साथी के हाथ से चाय की प्याली गिरते गिरते बची, “क्या कहा, मुस्तफ़ा कमाल मर गया!”
इस के बाद दोनों में अतातुर्क कमाल के मुतअ’ल्लिक़ बात-चीत शुरू हो गई। एक ने दूसरे से कहा, “बड़े अफ़सोस की बात है, अब हिंदुस्तान का क्या होगा? मैंने सुना था ये मुस्तफ़ा कमाल यहां पर हमला करने वाला है... हम आज़ाद हो जाते, मुसलमान क़ौम आगे बढ़ जाती, अफ़सोस तक़दीर के साथ किसी की पेश नहीं चलती!” [...]

खुदकुशी का इक़दाम

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इक़बाल के ख़िलाफ़ ये इल्ज़ाम था कि उसने अपनी जान को अपने हाथों हलाक करने की कोशिश की, गो वो इसमें नाकाम रहा। जब वो अदालत में पहली मर्तबा पेश किया गया तो उसका चेहरा हल्दी की तरह ज़र्द था। ऐसा मालूम होता था कि मौत से मुडभेड़ होते वक़्त उसकी रगों में तमाम ख़ून ख़ुश्क हो कर रह गया है जिसकी वजह से उसकी तमाम ताक़त सल्ब हो गई है।
इक़बाल की उम्र बीस-बाईस बरस के क़रीब होगी मगर मुरझाए हुए चेहरे पर खूंडी हुई ज़र्दी ने उसकी उम्र में दस साल का इज़ाफ़ा कर दिया था और जब वो अपनी कमर के पीछे हाथ रखता तो ऐसा मालूम होता कि वो वाक़ई बूढ़ा है। सुना गया है कि जब शबाब के ऐवान में ग़ुर्बत दाख़िल होती है तो ताज़गी भाग जाया करती है। उसके फटे पुराने और मैले कुचैले कपड़ों से ये अयाँ था कि वो ग़ुर्बत का शिकार है और ग़ालिबन हद से बढ़ी हुई मुफ़लिसी ही ने उसे अपनी प्यारी जान को हलाक करने पर मजबूर किया था।

उसका क़द काफ़ी लंबा था जो काँधों पर ज़रा आगे की तरफ़ झुका हुआ था। इस झुकाओ में उसके वज़नी सर को भी दख़ल था जिस पर सख़्त और मोटे बाल, जेलख़ाने के स्याह और खुरदरे कम्बल का नमूना पेश कर रहे थे। आँखें अंदर को धंसी हुई थीं जो बहुत गहरी और अथाह मालूम होती थीं।
झुकी हुई निगाहों से ये पता चलता था कि वो अदालत के संगीन फ़र्श की मौजूदगी को ग़ैर यक़ीनी समझ रहा है और ये मानने से इनकार कर रहा है कि वो ज़िंदा है। नाक पतली और तीखी, उसके माथे पर थोड़ा सा चिकना मैल जमा हुआ था जिसको देख कर ज़ंग-आलूद तलवार का तसव्वुर आँखों में फिर जाता था। पतले पतले होंट जो किनारों पर एक लकीर बन कर रह गए थे, आपस में सिले हुए मालूम होते थे। शायद उसने उनको इसलिए भींच रखा था कि वो अपने सीने की आग और धुएं को बाहर निकालना नहीं चाहता था। [...]

बग़ैर इजाज़त

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नईम टहलता टहलता एक बाग़ के अन्दर चला गया... उसको वहां की फ़ज़ा बहुत पसंद आई। घास के एक तख़्ते पर लेट कर उसने ख़ुद कलामी शुरू कर दी।
“कैसी पुरफ़िज़ा जगह है... हैरत है कि आज तक मेरी नज़रों से ओझल रही, नज़रें... ओझल...”

इतना कह कर वो मुस्कुराया।
नज़र हो तो चीज़ें नज़र भी नहीं आतीं... आह कि नज़र की बेनज़री! देर तक वो घास के इस तख़्ते पर लेटा और ठंडक महसूस करता रहा। लेकिन उसकी ख़ुद कलामी जारी थी... [...]

झूटी कहानी

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कुछ अर्से से अक़ल्लियतें अपने हुक़ूक़ के तहफ़्फ़ुज़ के लिए बेदार हो रही थीं। उनको ख़्वाब-ए-गिरां से जगाने वाली अक्सरियतें थीं जो एक मुद्दत से अपने ज़ाती फ़ायदे के लिए उन पर दबाव डालती रही थीं। इस बेदारी की लहर ने कई अंजुमनें पैदा करदी थीं। होटल के बेरों की अंजुमन, हज्जामों की अंजुमन, क्लर्कों की अंजुमन, अख़बार में काम करने वाले सहाफ़ीयों की अंजुमन। हर अक़ल्लियत अपनी अंजुमन या तो बना चुकी थी या बना रही थी ताकि अपने हुक़ूक़ की हिफ़ाज़त कर सके।
ऐसी हर अंजुमन के क़ियाम पर अख़बारों में तब्सिरे होते थे। अक्सरियत के हिमायती उनकी मुख़ालिफ़त करते थे और अक़ल्लियत के तरफ़दार मुवाफ़िक़त। ग़रज़ कि कुछ अर्से से एक अच्छा ख़ासा हंगामा बरपा था जिससे रौनक़ लगी रहती थी, मगर एक रोज़ जब अख़बारों में ये ख़बर शाये हुई कि मुल्क के दस नंबरिए गुंडों ने अपनी अंजुमन क़ायम की है तो अक्सरियतें और अक़ल्लियतें दोनों सनसनी ज़दा हो गईं।

शुरू शुरू में तो लोगों ने ख़याल किया कि बे पर की उड़ा दी है किसी ने। पर जब बाद में इस अंजुमन ने अपने अग़राज़-ओ-मक़ासिद शाया किए और एक बाक़ायदा मंशूर तर्तीब दिया तो पता चला कि ये कोई मज़ाक़ नहीं। गुंडे और बदमाश वाक़ई ख़ुद को इस अंजुमन के साये तले मुत्तहिद और मुनज़्ज़म करने का पूरा पूरा तहय्या कर चुके हैं।
इस अंजुमन की एक दो मीटिंगें हो चुकी थीं, इनकी रूदाद अख़बारों में शाया हो चुकी थी। लोग पढ़ते और दमबख़ुद हो जाते। बा’ज़ कहते कि बस अब क़ियामत आने में ज़्यादा देर बाक़ी नहीं। [...]

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