बर्मी लड़की

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ज्ञान की शूटिंग थी इसलिए किफ़ायत जल्दी सो गया। फ़्लैट में और कोई नहीं था, बीवी-बच्चे रावलपिंडी चले गए थे। हमसायों से उसे कोई दिलचस्पी नहीं थी। यूं भी बंबई में लोगों को अपने हमसायों से कोई सरोकार नहीं होता। किफ़ायत ने अकेले ब्रांडी के चार पैग पिए। खाना खाया, नौकरों को रुख़सत किया और दरवाज़ा बंद करके सो गया।
रात के पाँच बजे के क़रीब किफ़ायत के ख़ुमारआलूद कानों को धक की आवाज़ सुनाई दी। उसने आँखें खोलीं। नीचे बाज़ार में एक ट्रेन दनदनाती हुई गुज़री। चंद लम्हात के बाद दरवाज़े पर बड़े ज़ोरों की दस्तक हुई। किफ़ायत उठा, पलंग पर उतरा तो उसके नंगे पैर टखनों तक पानी में चले गए। उसको सख़्त हैरत हुई कि कमरे में इतना पानी कहाँ से आया और बाहर कोरिडोर में उससे भी ज़्यादा पानी था। दरवाज़े पर दस्तक जारी थी, उसने पानी के मुतअ’ल्लिक़ सोचना छोड़ा और दरवाज़ा खोला।

ज्ञान ने ज़ोर से कहा, “ये क्या है?”
किफ़ायत ने जवाब दिया, “पानी।” [...]

बारिश

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मूसलाधार बारिश हो रही थी और वो अपने कमरे में बैठा जल-थल देख रहा था... बाहर बहुत बड़ा लॉन था, जिसमें दो दरख़्त थे। उनके सब्ज़ पत्ते बारिश में नहा रहे थे। उसको महसूस हुआ कि वो पानी की इस यूरिश से ख़ुश होकर नाच रहे हैं।
उधर टेलीफ़ोन का एक खंबा गड़ा था, उसके फ़्लैट के ऐन सामने। ये भी बड़ा मसरूर नज़र आता था, हालाँकि उसकी मसर्रत की कोई वजह मालूम नहीं होती थी। इस बेजान शय को भला मसरूर क्या होना था लेकिन तनवीर ने जोकि बहुत मग़्मूम था, यही महसूस किया कि उसके आस-पास जो भी शय है, ख़ुशी से नाच-गा रही है।

सावन गुज़र चुका था और बारान-ए-रहमत नहीं हुई थी। लोगों ने मस्जिदों में इकट्ठे होकर दुआएं मांगीं, मगर कोई नतीजा बरामद न हुआ। बादल आते और जाते रहे, मगर उनके थनों से पानी का एक क़तरा भी न टपका।
आख़िर एक दिन अचानक काले काले बादल आसमान पर घिर आए और छाजों पानी बरसने लगा। तनवीर को बादलों और बारिशों से कोई दिलचस्पी नहीं थी... उसकी ज़िंदगी चटियल मैदान बन चुकी थी जिसके मुँह में पानी का एक क़तरा भी किसी ने न टपकाया हो। [...]

कोट पतलून

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नाज़िम जब बांद्रा में मुंतक़िल हुआ तो उसे ख़ुशक़िस्मती से किराए वाली बिल्डिंग में तीन कमरे मिल गए। इस बिल्डिंग में जो बंबई की ज़बान में चाली कहलाती है, निचले दर्जे के लोग रहते थे। छोटी छोटी (बंबई की ज़बान में) खोलियाँ यानी कोठड़ियां थीं जिनमें ये लोग अपनी ज़िंदगी जूं-तूं बसर कर रहे थे।
नाज़िम को एक फ़िल्म कंपनी में बहैसियत मुंशी यानी मुकालमा निगार मुलाज़मत मिल गई थी। चूँकि कंपनी नई क़ायम हुई थी इसलिए उसे छः-सात महीनों तक ढाई सौ रुपये माहवार तनख़्वाह मिलने का पूरा तयक़्क़ुन था, चुनांचे उसने इस यक़ीन की बिना पर ये अय्याशी की डोंगरी की ग़लीज़ खोली से उठ कर बांद्रा की किराए वाली बिल्डिंग में तीन कमरे ले लिए।

ये तीन कमरे ज़्यादा बड़े नहीं थे, लेकिन इस बिल्डिंग के रहने वालों के ख़याल के मुताबिक़ बड़े थे, कि उन्हें कोई सेठ ही ले सकता था। वैसे नाज़िम का पहनावा भी अब अच्छा था क्योंकि फ़िल्म कंपनी में माक़ूल मुशाहरे पर मुलाज़मत मिलते ही उसने कुर्ता-पायजामा तर्क कर के कोट-पतलून पहनना शुरू करदी थी।
नाज़िम बहुत ख़ुश था। तीन कमरे उसके और उसकी नई ब्याहता बीवी के लिए काफ़ी थे। मगर जब उसे पता चला कि गुसलखाना सारी बिल्डिंग में सिर्फ़ एक है तो उसे बहुत कोफ़्त हुई, डोंगरी में तो इससे ज़्यादा दिक़्क़त थी कि वहां के वाहिद गुसलखाना में नहाने वाले कम-अज़-कम पाँच सौ आदमी थे और उसको चूँकि वो सुबह ज़रा देर से उठने का आदी था, नहाने का मौक़ा ही नहीं मिलता था। यहां शायद इसलिए कि लोग नहाने से घबराते थे या रात पाली (नाइट ड्यूटी)करने के बाद दिन भर सोए रहते इसलिए उसे ग़ुसल के सिलसिले में ज़्यादा तकलीफ़ नहीं होती थी। [...]

फातो

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तेज़ बुख़ार की हालत में उसे अपनी छाती पर कोई ठंडी चीज़ रेंगती महसूस हुई। उसके ख़यालात का सिलसिला टूट गया। जब वो मुकम्मल तौर पर बेदार हुआ तो उसका चेहरा बुख़ार की शिद्दत के बाइस तमतमा रहा था। उसने आँखें खोलीं और देखा फातो फ़र्श पर बैठी, पानी में कपड़ा भिगो कर उसके माथे पर लगा रही है।
जब फातो ने उसके माथे से कपड़ा उतारने के लिए हाथ बढ़ाया तो उसने उसे पकड़ लिया और अपने सीने पर रख कर हौले-हौले प्यार से अपना हाथ उस पर फेरना शुरू कर दिया।

उसकी सुर्ख़ आँखें दो अंगारे बन कर देर तक फातो को देखती रहीं। वो इस दहकती हुई टकटकी की ताब न ला सकी और हाथ छुड़ा कर अपने काम में मसरूफ़ हो गई। इस पर वो उठ कर बिस्तर में बैठ गया।
फातो से, जिसका असल नाम फ़ातिमा था, उसको ग़ैर महसूस तौर पर मुहब्बत हो गई थी, हालाँकि वो जानता था कि वो किरदार-ओ-अतवार की अच्छी नहीं... मुहल्ले में जितने लौंडे हैं उससे इश्क़ लड़ा चुके हैं। लेकिन ये सब जानते हुए भी उसको फातो से मुहब्बत होगई थी। [...]

बू

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बरसात के यही दिन थे। खिड़की के बाहर पीपल के पत्ते इसी तरह नहा रहे थे। सागवान के इस स्प्रिंगदार पलंग पर जो अब खिड़की के पास से थोड़ा इधर सरका दिया गया था एक घाटन लौंडिया रणधीर के साथ चिपटी हुई थी।
खिड़की के पास बाहर पीपल के नहाए हुए पत्ते रात के दूधिया अंधेरे में झूमरों की तरह थरथरा रहे थे और शाम के वक़्त जब दिन भर एक अंग्रेज़ी अख़बार की सारी ख़बरें और इश्तिहार पढ़ने के बाद कुछ सुनाने के लिए वो बालकनी में आ खड़ा हुआ था तो उसने उस घाटन लड़की को जो साथ वाले रस्सियों के कारख़ाने में काम करती थी और बारिश से बचने के लिए इमली के पेड़ के नीचे खड़ी थी, खांस खांस कर अपनी तरफ़ मुतवज्जा कर लिया था और उसके बाद हाथ के इशारे से ऊपर बुला लिया था।

वो कई दिन से शदीद क़िस्म की तन्हाई से उकता गया था। जंग के बाइस बंबई की तक़रीबन तमाम क्रिस्चियन छोकरियाँ जो सस्ते दामों मिल जाया करती थीं औरतों की अंग्रेज़ी फ़ौज में भर्ती होगई थीं, उनमें से कई एक ने फोर्ट के इलाक़े में डांस स्कूल खोल लिए थे जहां सिर्फ़ फ़ौजी गोरों को जाने की इजाज़त थी... रणधीर बहुत उदास होगया था।
उसकी अना का सबब तो ये था कि क्रिस्चियन छोकरियां नायाब होगई थीं और दूसरा ये कि फ़ौजी गोरों के मुक़ाबले में कहीं ज़्यादा मुहज़्ज़ब, तालीमयाफ़्ता और ख़ूबसूरत नौजवान उस पर फोर्ट के लगभग तमाम क्लबों के दरवाज़े बंद करदिए थे। उसकी चमड़ी सफ़ेद नहीं थी। [...]

राजू

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सन् इकत्तीस के शुरू होने में सिर्फ़ रात के चंद बरफ़ाए हुए घंटे बाक़ी थे। वो लिहाफ़ में सर्दी की शिद्दत के बाइस काँप रहा था। पतलून और कोट समेत लेटा था, लेकिन इसके बावजूद सर्दी की लहरें उसकी हड्डियों तक पहुंच रही थीं। वो उठ खड़ा हुआ और अपने कमरे की सब्ज़ रोशनी में जो सर्दी में इज़ाफ़ा कर रही थी, ज़ोर ज़ोर से टहलना शुरू कर दिया कि उसका दौरान ख़ून तेज़ हो जाए।
थोड़ी देर यूं चलने फिरने के बाद जब उसके जिस्म के अंदर थोड़ी सी हरारत पैदा होगई तो वो आराम कुर्सी पर बैठ गया और सिगरेट सुलगा कर अपने दिमाग़ को टटोलने लगा। उसका दिमाग़ चूँकि बिल्कुल ख़ाली था, इसलिए उसकी क़ुव्वत-ए-सामेआ बहुत तेज़ थी।

कमरे की सारी खिड़कियां बंद थीं, मगर वो बाहर गली में हवा की मद्धम से मद्धम गुनगुनाहट बड़ी आसानी से सुन सकता था।
इस गुनगुनाहट में उसे इंसानी आवाज़ें सुनाई दीं। एक दबी-दबी चीख़ दिसंबर की आख़िरी रात की ख़ामोशी में चाबुक के ओल की तरह उभरी, फिर किसी की इल्तिजाइया आवाज़ लरज़ी... वो उठ खड़ा हुआ और उसने खिड़की की दराज़ में से बाहर की तरफ़ देखा। [...]

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