मूसलाधार बारिश हो रही थी और वो अपने कमरे में बैठा जल-थल देख रहा था... बाहर बहुत बड़ा लॉन था, जिसमें दो दरख़्त थे। उनके सब्ज़ पत्ते बारिश में नहा रहे थे। उसको महसूस हुआ कि वो पानी की इस यूरिश से ख़ुश होकर नाच रहे हैं। उधर टेलीफ़ोन का एक खंबा गड़ा था, उसके फ़्लैट के ऐन सामने। ये भी बड़ा मसरूर नज़र आता था, हालाँकि उसकी मसर्रत की कोई वजह मालूम नहीं होती थी। इस बेजान शय को भला मसरूर क्या होना था लेकिन तनवीर ने जोकि बहुत मग़्मूम था, यही महसूस किया कि उसके आस-पास जो भी शय है, ख़ुशी से नाच-गा रही है। सावन गुज़र चुका था और बारान-ए-रहमत नहीं हुई थी। लोगों ने मस्जिदों में इकट्ठे होकर दुआएं मांगीं, मगर कोई नतीजा बरामद न हुआ। बादल आते और जाते रहे, मगर उनके थनों से पानी का एक क़तरा भी न टपका। आख़िर एक दिन अचानक काले काले बादल आसमान पर घिर आए और छाजों पानी बरसने लगा। तनवीर को बादलों और बारिशों से कोई दिलचस्पी नहीं थी... उसकी ज़िंदगी चटियल मैदान बन चुकी थी जिसके मुँह में पानी का एक क़तरा भी किसी ने न टपकाया हो।
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