हज-ए-अक्बर

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1
मुंशी साबिर हुसैन की आमदनी कम थी और ख़र्च ज़्यादा। अपने बच्चे के लिए दाया रखना गवारा नहीं कर सकते थे। लेकिन एक तो बच्चे की सेहत की फ़िक्र और दूसरे अपने बराबर वालों से हेटे बन कर रहने की ज़िल्लत इस ख़र्च को बर्दाश्त करने पर मजबूर करती थी। बच्चा दाया को बहुत चाहता था। हर दम उसके गले का हार बना रहता। इस वजह से दाया और भी ज़रूरी मालूम होती थी। मगर शायद सबसे बड़ा सबब ये था कि वो मुरव्वत के बाइस दाया को जवाब देने की जुर्अत न कर सकते थे। बुढ़िया उनके यहाँ तीन साल से नौकर थी। उसने उनके इकलौते बच्चे की परवरिश की थी। अपना काम दिल-ओ-जान से करती थी। उसे निकालने का कोई हीला न था और ख़्वाह मख़्वाह खच्चड़ निकालना साबिर जैसे हलीम शख़्स के लिए ग़ैर मुम्किन था। मगर शाकिरा इस मुआ’मले में अपने शौहर से मुत्तफ़िक़ न थी उसे शक था कि दाया हमको लूटे लेती है। जब दाया बाज़ार से लौटती तो वह दहलीज़ में छुपी रहती कि देखूँ आटा छुपा कर तो नहीं रख देती। लकड़ी तो नहीं छुपा देती। उसकी लाई हुई चीज़ को घंटों देखती, पछताती, बार-बार पूछती इतना ही क्यूँ? क्या भाव है? क्या इतना महंगा हो गया? दाया कभी तो उन बद-गुमानियों का जवाब मुलाइमत से देती। लेकिन जब बेगम ज़्यादा तेज़ हो जातीं, तो वह भी कड़ी पड़ जाती थी। क़समें खाती। सफ़ाई की शहादतें पेश करती। तर्दीद और हुज्जत में घंटों लग जाते। क़रीब क़रीब रोज़ाना यही कैफ़ियत रहती थी और रोज़ ये ड्रामा दाया की ख़फ़ीफ़ सी अश्क रेज़ी के बाद ख़त्म हो जाता था। दाया का इतनी सख़्तियाँ झेल कर पड़े रहना शाकिरा के शुकूक की आब रेज़ी करता था। उसे कभी यक़ीन न आता था कि ये बुढ़िया महज़ बच्चे की मोहब्बत से पड़ी हुई है। वो दाया को ऐसे लतीफ़ जज़्बे का अह्ल नहीं समझती थी।

2
इत्तिफ़ाक़ से एक रोज़ दाया को बाज़ार से लौटने में ज़रा देर हो गई। वहाँ दो कुंजड़िनों में बड़े जोश-ओ-ख़रोश से मुनाज़िरा था। उनका मुसव्विर तर्ज़-ए-अदा। उनका इश्तिआ’ल अंगेज़ इस्तिदलाल। उनकी मुतशक्किल तज़हीक। उनकी रौशन शहादतें और मुनव्वर रिवायतें उनकी तअ’रीज़ और तर्दीद सब बेमिसाल थीं। ज़हर के दो दरिया थे। या दो शो’ले जो दोनों तरफ़ से उमड कर बाहम गुथ गए थे। क्या रवानी थी। गोया कूज़े में दरिया भरा हुआ। उनका जोश-ए-इज़हार एक दूसरे के बयानात को सुनने की इजाज़त न देता था। उनके अलफ़ाज़ की ऐसी रंगीनी तख़य्युल की ऐसी नौइयत। उस्लूब की ऐसी जिद्दत। मज़ामीन की ऐसी आमद। तशबीहात की ऐसी मौज़ूनियत। और फ़िक्र की ऐसी परवाज़ पर ऐसा कौन सा शायर है जो रश्क न करता। सिफ़त ये थी कि इस मुबाहिसे में तल्ख़ी या दिल आज़ारी का शाइबा भी न था। दोनों बुलबुलें अपने अपने तरानों में मह्व थीं। उनकी मतानत, उनका ज़ब्त, उनका इत्मिनान-ए-क़ल्ब हैरत-अंगेज़ था उनके ज़र्फ़-ए-दिल में इससे कहीं ज़्यादा कहने की और ब-दरजहा ज़्यादा सुनने की गुंजाइश मालूम होती थी। अल-ग़रज़ ये ख़ालिस दिमाग़ी, ज़ेह्नी मुनाज़िरा था। अपने अपने कमालात के इज़हार के लिए, एक ख़ालिस ज़ोर आज़माई थी अपने अपने करतब और फ़न के जौहर दिखाने के लिए। [...]

बर्मी लड़की

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ज्ञान की शूटिंग थी इसलिए किफ़ायत जल्दी सो गया। फ़्लैट में और कोई नहीं था, बीवी-बच्चे रावलपिंडी चले गए थे। हमसायों से उसे कोई दिलचस्पी नहीं थी। यूं भी बंबई में लोगों को अपने हमसायों से कोई सरोकार नहीं होता। किफ़ायत ने अकेले ब्रांडी के चार पैग पिए। खाना खाया, नौकरों को रुख़सत किया और दरवाज़ा बंद करके सो गया।
रात के पाँच बजे के क़रीब किफ़ायत के ख़ुमारआलूद कानों को धक की आवाज़ सुनाई दी। उसने आँखें खोलीं। नीचे बाज़ार में एक ट्रेन दनदनाती हुई गुज़री। चंद लम्हात के बाद दरवाज़े पर बड़े ज़ोरों की दस्तक हुई। किफ़ायत उठा, पलंग पर उतरा तो उसके नंगे पैर टखनों तक पानी में चले गए। उसको सख़्त हैरत हुई कि कमरे में इतना पानी कहाँ से आया और बाहर कोरिडोर में उससे भी ज़्यादा पानी था। दरवाज़े पर दस्तक जारी थी, उसने पानी के मुतअ’ल्लिक़ सोचना छोड़ा और दरवाज़ा खोला।

ज्ञान ने ज़ोर से कहा, “ये क्या है?”
किफ़ायत ने जवाब दिया, “पानी।” [...]

दूदा पहलवान

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स्कूल में पढ़ता था तो शहर का हसीन तरीन लड़का मुतसव्वर होता था। उस पर बड़े बड़े अमरद परस्तों के दरमियान बड़ी ख़ूँख़्वार लड़ाईयां हुईं। एक दो इसी सिलसिले में मारे भी गए।
वो वाक़ई हसीन था। बड़े मालदार घराने का चश्म-ओ-चराग़ था, इसलिए उसको किसी चीज़ की कमी नहीं थी। मगर जिस मैदान वो कूद पड़ा था उसको एक मुहाफ़िज़ की ज़रूरत थी जो वक़्त पर उसके काम आसके। शहर में यूं तो सैंकड़ों बदमाश और गुंडे मौजूद थे जो हसीन-ओ-जमील सलाहू के एक इशारे पर कट मरने को तैयार थे, मगर दूदे पहलवान में एक निराली बात थी। वो बहुत मुफ़लिस था, बहुत बद-मिज़ाज और अख्खड़ तबीयत का था, मगर इसके बावजूद उसमें ऐसा बांकपन था कि सलाहू ने उसको देखते ही पसंद कर लिया और उनकी दोस्ती हो गई।

सलाहू को दूदे पहलवान की रिफ़ाक़त से बहुत फ़ायदे हुए। शहर के दूसरे गुंडे जो सलाहू के रास्ते में रुकावटें पैदा करने का मूजिब होसकते थे, दूदे की वजह से ख़ामोश रहे। स्कूल से निकल कर सलाहू कॉलेज में दाख़िल हुआ तो उसने और पर पुर्जे़ निकाले और थोड़े ही अ’र्से में उसकी सरगर्मीयां नया रुख़ इख़्तियार कर गईं। इसके बाद ख़ुदा का करना ऐसा हुआ कि सलाहू का बाप मर गया। अब वो उस की तमाम जायदाद, इम्लाक का वाहिद मालिक था। पहले तो उसने नक़दी पर हाथ साफ़ किया। फिर मकान गिरवी रखने शुरू किए।
जब दो मकान बिक गए तो हीरा मंडी की तमाम तवाइफ़ें सलाहू के नाम से वाक़िफ़ थीं। मालूम नहीं उसमें कहाँ तक सदाक़त है लेकिन लोग कहते हैं कि हीरा मंडी में बूढ़ी नाइकाएं अपनी जवान बेटियों को सलाहू की नज़रों से छुपा छुपा कर रखती थीं। मबादा वो उसके हुस्न के चक्कर में फंस जाएं। लेकिन इन एहतियाती तदाबीर के बावजूद जैसा कि सुनने में आया है, कई कुंवारी तवाइफ़ ज़ादियाँ उसके इश्क़ में गिरफ़्तार हुईं और उल्टे रस्ते पर चल कर अपनी ज़िंदगी के सुनहरे अय्याम उसके तलव्वुन की नज़र कर बैठीं। [...]

हज-ए-अक्बर

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मुंशी साबिर हुसैन की आमदनी कम थी और ख़र्च ज़्यादा। अपने बच्चे के लिए दाया रखना गवारा नहीं कर सकते थे। लेकिन एक तो बच्चे की सेहत की फ़िक्र और दूसरे अपने बराबर वालों से हेटे बन कर रहने की ज़िल्लत इस ख़र्च को बर्दाश्त करने पर मजबूर करती थी। बच्चा दाया को बहुत चाहता था। हर दम उसके गले का हार बना रहता। इस वजह से दाया और भी ज़रूरी मालूम होती थी। मगर शायद सबसे बड़ा सबब ये था कि वो मुरव्वत के बाइस दाया को जवाब देने की जुर्अत न कर सकते थे। बुढ़िया उनके यहाँ तीन साल से नौकर थी। उसने उनके इकलौते बच्चे की परवरिश की थी। अपना काम दिल-ओ-जान से करती थी। उसे निकालने का कोई हीला न था और ख़्वाह मख़्वाह खच्चड़ निकालना साबिर जैसे हलीम शख़्स के लिए ग़ैर मुम्किन था। मगर शाकिरा इस मुआ’मले में अपने शौहर से मुत्तफ़िक़ न थी उसे शक था कि दाया हमको लूटे लेती है। जब दाया बाज़ार से लौटती तो वह दहलीज़ में छुपी रहती कि देखूँ आटा छुपा कर तो नहीं रख देती। लकड़ी तो नहीं छुपा देती। उसकी लाई हुई चीज़ को घंटों देखती, पछताती, बार-बार पूछती इतना ही क्यूँ? क्या भाव है? क्या इतना महंगा हो गया? दाया कभी तो उन बद-गुमानियों का जवाब मुलाइमत से देती। लेकिन जब बेगम ज़्यादा तेज़ हो जातीं, तो वह भी कड़ी पड़ जाती थी। क़समें खाती। सफ़ाई की शहादतें पेश करती। तर्दीद और हुज्जत में घंटों लग जाते। क़रीब क़रीब रोज़ाना यही कैफ़ियत रहती थी और रोज़ ये ड्रामा दाया की ख़फ़ीफ़ सी अश्क रेज़ी के बाद ख़त्म हो जाता था। दाया का इतनी सख़्तियाँ झेल कर पड़े रहना शाकिरा के शुकूक की आब रेज़ी करता था। उसे कभी यक़ीन न आता था कि ये बुढ़िया महज़ बच्चे की मोहब्बत से पड़ी हुई है। वो दाया को ऐसे लतीफ़ जज़्बे का अह्ल नहीं समझती थी।

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इत्तिफ़ाक़ से एक रोज़ दाया को बाज़ार से लौटने में ज़रा देर हो गई। वहाँ दो कुंजड़िनों में बड़े जोश-ओ-ख़रोश से मुनाज़िरा था। उनका मुसव्विर तर्ज़-ए-अदा। उनका इश्तिआ’ल अंगेज़ इस्तिदलाल। उनकी मुतशक्किल तज़हीक। उनकी रौशन शहादतें और मुनव्वर रिवायतें उनकी तअ’रीज़ और तर्दीद सब बेमिसाल थीं। ज़हर के दो दरिया थे। या दो शो’ले जो दोनों तरफ़ से उमड कर बाहम गुथ गए थे। क्या रवानी थी। गोया कूज़े में दरिया भरा हुआ। उनका जोश-ए-इज़हार एक दूसरे के बयानात को सुनने की इजाज़त न देता था। उनके अलफ़ाज़ की ऐसी रंगीनी तख़य्युल की ऐसी नौइयत। उस्लूब की ऐसी जिद्दत। मज़ामीन की ऐसी आमद। तशबीहात की ऐसी मौज़ूनियत। और फ़िक्र की ऐसी परवाज़ पर ऐसा कौन सा शायर है जो रश्क न करता। सिफ़त ये थी कि इस मुबाहिसे में तल्ख़ी या दिल आज़ारी का शाइबा भी न था। दोनों बुलबुलें अपने अपने तरानों में मह्व थीं। उनकी मतानत, उनका ज़ब्त, उनका इत्मिनान-ए-क़ल्ब हैरत-अंगेज़ था उनके ज़र्फ़-ए-दिल में इससे कहीं ज़्यादा कहने की और ब-दरजहा ज़्यादा सुनने की गुंजाइश मालूम होती थी। अल-ग़रज़ ये ख़ालिस दिमाग़ी, ज़ेह्नी मुनाज़िरा था। अपने अपने कमालात के इज़हार के लिए, एक ख़ालिस ज़ोर आज़माई थी अपने अपने करतब और फ़न के जौहर दिखाने के लिए। [...]

कोट पतलून

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नाज़िम जब बांद्रा में मुंतक़िल हुआ तो उसे ख़ुशक़िस्मती से किराए वाली बिल्डिंग में तीन कमरे मिल गए। इस बिल्डिंग में जो बंबई की ज़बान में चाली कहलाती है, निचले दर्जे के लोग रहते थे। छोटी छोटी (बंबई की ज़बान में) खोलियाँ यानी कोठड़ियां थीं जिनमें ये लोग अपनी ज़िंदगी जूं-तूं बसर कर रहे थे।
नाज़िम को एक फ़िल्म कंपनी में बहैसियत मुंशी यानी मुकालमा निगार मुलाज़मत मिल गई थी। चूँकि कंपनी नई क़ायम हुई थी इसलिए उसे छः-सात महीनों तक ढाई सौ रुपये माहवार तनख़्वाह मिलने का पूरा तयक़्क़ुन था, चुनांचे उसने इस यक़ीन की बिना पर ये अय्याशी की डोंगरी की ग़लीज़ खोली से उठ कर बांद्रा की किराए वाली बिल्डिंग में तीन कमरे ले लिए।

ये तीन कमरे ज़्यादा बड़े नहीं थे, लेकिन इस बिल्डिंग के रहने वालों के ख़याल के मुताबिक़ बड़े थे, कि उन्हें कोई सेठ ही ले सकता था। वैसे नाज़िम का पहनावा भी अब अच्छा था क्योंकि फ़िल्म कंपनी में माक़ूल मुशाहरे पर मुलाज़मत मिलते ही उसने कुर्ता-पायजामा तर्क कर के कोट-पतलून पहनना शुरू करदी थी।
नाज़िम बहुत ख़ुश था। तीन कमरे उसके और उसकी नई ब्याहता बीवी के लिए काफ़ी थे। मगर जब उसे पता चला कि गुसलखाना सारी बिल्डिंग में सिर्फ़ एक है तो उसे बहुत कोफ़्त हुई, डोंगरी में तो इससे ज़्यादा दिक़्क़त थी कि वहां के वाहिद गुसलखाना में नहाने वाले कम-अज़-कम पाँच सौ आदमी थे और उसको चूँकि वो सुबह ज़रा देर से उठने का आदी था, नहाने का मौक़ा ही नहीं मिलता था। यहां शायद इसलिए कि लोग नहाने से घबराते थे या रात पाली (नाइट ड्यूटी)करने के बाद दिन भर सोए रहते इसलिए उसे ग़ुसल के सिलसिले में ज़्यादा तकलीफ़ नहीं होती थी। [...]

बर्मी लड़की

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ज्ञान की शूटिंग थी इसलिए किफ़ायत जल्दी सो गया। फ़्लैट में और कोई नहीं था, बीवी-बच्चे रावलपिंडी चले गए थे। हमसायों से उसे कोई दिलचस्पी नहीं थी। यूं भी बंबई में लोगों को अपने हमसायों से कोई सरोकार नहीं होता। किफ़ायत ने अकेले ब्रांडी के चार पैग पिए। खाना खाया, नौकरों को रुख़सत किया और दरवाज़ा बंद करके सो गया।
रात के पाँच बजे के क़रीब किफ़ायत के ख़ुमारआलूद कानों को धक की आवाज़ सुनाई दी। उसने आँखें खोलीं। नीचे बाज़ार में एक ट्रेन दनदनाती हुई गुज़री। चंद लम्हात के बाद दरवाज़े पर बड़े ज़ोरों की दस्तक हुई। किफ़ायत उठा, पलंग पर उतरा तो उसके नंगे पैर टखनों तक पानी में चले गए। उसको सख़्त हैरत हुई कि कमरे में इतना पानी कहाँ से आया और बाहर कोरिडोर में उससे भी ज़्यादा पानी था। दरवाज़े पर दस्तक जारी थी, उसने पानी के मुतअ’ल्लिक़ सोचना छोड़ा और दरवाज़ा खोला।

ज्ञान ने ज़ोर से कहा, “ये क्या है?”
किफ़ायत ने जवाब दिया, “पानी।” [...]

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