बीवी कैसी होना चाहिए

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मुझसे सवाल किया गया कि बीबी कैसी होना चाहिए, मैं कहता हूँ कि कोई बुरी बीबी मुझको दिखादे तो मैं इस सवाल का जवाब दूँ। मेरे ख़्याल में बीबी ख़ुदा की नेअमत है और ख़ुदा की नेअमत कभी बुरी नहीं होती। बीवी की वजह से घर में रोशनी सी फैली रहती है। चराग़ के नीचे ज़रा सा अंधेरा भी होता है, जैसा कि मैं एक मर्तबा पहले भी कह चुका हूँ, अगर कोई नादान मर्द ज़री सी तारीकी से घबराकर चराग़ की शिकायत करे तो अंधेरा ही तो है। मैं इसका भी दावेदार हूँ कि मैंने आज तक कोई बदसूरत औरत भी नहीं देखी। आँखें रखता हूँ और दुनिया देखती है, अगर कहीं होती तो आख़िर मैं न देखता।
इसका सबूत ये भी है कि बदसूरत से बदसूरत जो कही जा सकती है उसका भी चाहने वाला कोई न कोई निकल आता है। फिर अगर वो बदसूरत थी तो ये परस्तिश करने वाला कहाँ से पैदा हो गया। इस लैला का मजनूं कहाँ से आगया, नहीं साहब औरत बदसूरत नहीं होती, ये मेरा ईमान है और यही ईमान हर शख़्स का होना चाहिए। असल वजह ये है कि औरत में उम्दा तर्शे हुए हीरे की तरह हज़ारों पहल होते हैं और हर पहल में आफ़ताब एक नए रंग से मेहमान होता है। ये मुम्किन है कि कोई पहल किसी (ख़ास शख़्स) की आँख में ज़रूरत से ज़्यादा चकाचौंध पैदा कर दे, और वो पसंद न करे तो इससे बीबी की बुराई कहाँ से साबित हुई।

एक पुराने यूनानी ड्रामा नवीस ने लिखा है कि पहले मर्द और औरतें इस तरह होते थे कि दोनों की पीठ एक दूसरे से जुड़ी होती थी और ये लोग रास्ता इस तरह चलते थे कि पहले चारों हाथ ज़मीन पर लगे और दोनों सर नीचे आगए। और चारों पाँव सर की जगह हवा में रहे। इस तरह के बाद पल्टा खाया और चारों पाँव के बल खड़े होगए और इस तरह आगे बढ़ते गए। ज़ाहिर बात है कि ऐसी हालत में ये लोग रास्ता बहुत तेज़ चलते थे और चूँकि दो दो आदमी मिले हुए थे इसलिए उनकी क़ुव्वतें भी दोगुनी थीं। देवताओं ने उनकी शोरा पुश्ती की वजह से मश्वरा किया कि क्या करना चाहिए, आख़िरकार ये सलाह ठहरी कि ये बीच से अलैहदा कर दिए जाएं ताकि उनकी क़ुव्वतें आधी रह जाएं और उनके चढ़ावे दोगुने होजाएं। चुनांचे ऐसा ही किया गया, तब से हर औरत और हर मर्द अपना अपना जोड़ा ढूँढते फिरते हैं, जिनको मिल जाता है वो ख़ुश रहते हैं, जिनको बदक़िस्मती से न मिला वो ग़रीब औरत को दुख देते हैं।
किसी को बेज़बान निम्मो ही बीवी पसंद है, किसी को ऐसी औरत अच्छी लगती है जिसकी ज़बान हर वक़्त कतरनी की तरह चलती रहे, अगर ख़ुशक़िस्मती से वही क़दीम जोड़ा मिल गया तो दोनों ख़ुश हैं, नहीं तो बीबी ग़रीब को बुरा कहते हैं, आख़िर उस ग़रीब का जोड़ा भी तो बिछुड़ गया है मगर उसकी कोई बात भी नहीं पूछता। ये ख़्याल ग़लत है कि सिर्फ़ अच्छों ही अच्छे का साथ मज़ेदार होता है। अगर तालमेल हुआ और प्रगत मिल गई तो जिन लोगों को हम अपने ज़ोम नाक़िस में बुरा समझते हैं उनकी भी ज़िंदगी लुत्फ़ की गुज़रती है। आपने सुना नहीं, [...]

बदतमीज़ी

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“मेरी समझ में नहीं आता कि आप को कैसे समझाऊं।”
“जब कोई बात समझ में न आए तो उसको समझाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।”

“आप तो बस हर बात पर गला घोंट देते हैं... आपने ये तो पूछ लिया होता कि मैं आप से क्या कहना चाहती हूँ।”
“इसके पूछने की ज़रूरत ही क्या थी... बस फ़क़त लड़ाई मोल लेना चाहती हो।” [...]

अक़्ल दाढ़

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“आप मुँह सुजाये क्यों बैठे हैं?”
“भई दाँत में दर्द हो रहा है... तुम तो ख़्वाह-मख़्वाह...”

“ख़्वाह-मख़्वाह क्या... आपके दाँत में कभी दर्द हो ही नहीं सकता।”
“वो कैसे?” [...]

बीमार

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अजब बात है कि जब भी किसी लड़की या औरत ने मुझे ख़त लिखा भाई से मुख़ातिब किया और बे रब्त तहरीर में इस बात का ज़रूर ज़िक्र किया कि वो शदीद तौर पर अलील है। मेरी तसानीफ़ की बहुत तारीफ़ें कीं। ज़मीन-ओ-आसमान के कुलाबे मिला दिए।
मेरी समझ में नहीं आता था कि ये लड़कियां और औरतें जो मुझे ख़त लिखती हैं बीमार क्यों होती हैं। शायद इसलिए कि मैं ख़ुद अक्सर बीमार रहता हूँ। या कोई और वजह होगी, जो इसके सिवा और कोई नहीं हो सकती कि वो मेरी हमदर्दी चाहती हैं।

मैं ऐसी लड़कियों और औरतों के ख़ुतूत का उमूमन जवाब नहीं दिया करता, लेकिन बा'ज़ औक़ात दे भी दिया करता हूँ, आख़िर इंसान हूँ। ख़त अगर बहुत ही दर्दनाक हो तो उसका जवाब देना इंसानी फ़राइज़ में शामिल हो जाता है।
पिछले दिनों मुझे एक ख़त मौसूल हुआ, जो काफ़ी लंबा था। उसमें भी एक ख़ातून ने जिसका नाम मैं ज़ाहिर नहीं करना चाहता ये लिखा था कि वो मेरी तहरीरों की शैदाई है लेकिन एक अर्से से बीमार है। उसका ख़ाविंद भी दाइम-उल-मरीज़ है। उसने अपना ख़याल ज़ाहिर किया था कि जो बीमारी उसे लगी है उसके ख़ाविंद की वजह से है। [...]

ख़ालिद मियां

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मुमताज़ ने सुबह सवेरे उठ कर हस्ब-ए-मामूल तीनों कमरे में झाड़ू दी। कोने खद्दरों से सिगरेटों के टुकड़े, माचिस की जली हुई तीलियां और इसी तरह की और चीज़ें ढूंढ ढूंढ कर निकालीं। जब तीनों कमरे अच्छी तरह साफ़ हो गए तो उसने इत्मिनान का सांस लिया। उसकी बीवी बाहर सहन में सो रही थी। बच्चा पँगोड़े में था।
मुमताज़ हर सुबह सवेरे उठ कर सिर्फ़ इसलिए ख़ुद तीनों कमरों में झाड़ू देता था कि उसका लड़का ख़ालिद अब चलता फिरता था और आम बच्चों के मानिंद, हर चीज़ जो उसके सामने आए, उठा कर मुँह में डाल लेता था।

मुमताज़ हर रोज़ तीनों कमरे बड़े एहतियात से साफ़ करता मगर उसको हैरत होती जब ख़ालिद फ़र्श पर उसे अपने छोटे छोटे नाखुनों की मदद से कोई न कोई चीज़ उठा लेता। फ़र्श का पलस्तर कई जगह उखड़ा हुआ था। जहां कूड़े-करकट के छोटे छोटे ज़र्रे फंस जाते थे। मुमताज़ अपनी तरफ़ से पूरी सफ़ाई करता मगर कुछ न कुछ बाक़ी रह जाता जो उसका पलौठी का बेटा ख़ालिद जिसकी उम्र अभी एक बरस की नहीं हुई थी, उठा कर अपने मुँह में डाल लेता।
मुमताज़ को सफ़ाई का ख़ब्त हो गया था। अगर वो ख़ालिद को कोई चीज़ फ़र्श पर से उठा कर अपने मुँह में डालते देखता तो वो ख़ुद को उसका मुल्ज़िम समझता। अपने आपको दिल ही दिल में कोसता कि उसने क्यों बद एहतियाती की। ख़ालिद से उसको प्यार ही नहीं इश्क़ था, लेकिन अजीब बात है कि जूं जूं ख़ालिद की पहली सालगिरह का दिन नज़दीक आता था, उसका ये वहम यक़ीन की सूरत इख़्तियार करता जाता था कि उसका बेटा एक साल का होने से पहले पहले मर जाएगा। [...]

गुस्लख़ाना

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सदर दरवाज़े के अंदर दाख़िल होते ही सड़ियों के पास एक छोटी सी कोठड़ी है जिस में कभी उपले और लकड़ियां कोइले रखे जाते थे। मगर अब इस में नल लगा कर उस को मर्दाना ग़ुस्लख़ाने में तबदील कर दिया गया है। फ़र्श वग़ैरा मज़बूत बना दिया गया है ताकि मकान की बुनियादों में पानी ना चला जाये। इस में सिर्फ़ एक खिड़की है जो गली की तरफ़ खुलती है। इस में ज़ंग-आलूद सलाखें लगी हुई हैं।
मैं पांचवीं जमात में पढ़ता था जब ये ग़ुस्लख़ाना मेरी ज़िंदगी में दाख़िल हुआ। आप को हैरत होगी कि ग़ुस्लख़ाने इंसानों की ज़िंदगी में क्योंकर दाख़िल हो सकते हैं। ग़ुस्लख़ाना तो ऐसी चीज़ है जिस में आदमी दाख़िल होता है और देर तक दाख़िल रहता है। लेकिन जब आप मेरी कहानी सुन लेंगे तो आप को मालूम हो जाएगा कि ये ग़ुस्लख़ाना वाक़ई मेरी ज़िंदगी में दाख़िल हुआ और इस का एक अहम तरीन जुज़्व बन के रह गया।

यूं तो मैं इस ग़ुस्लख़ाने से उस वक़्त का मुतआरिफ़ हूँ जब इस में उपले वग़ैरा पड़े रहते थे और मेरी बिल्ली ने इस में भीगे हूए चूहों की शक्ल के चार बच्चे दिए थे। उन की आँखें दस बारह रोज़ तक मुंदी रही थीं चुनांचे जब मेरा छोटा भाई पैदा हुआ था। उस की आँखें खुली देख कर मैंने अम्मी जान से कहा था। अम्मी जान मेरी बिल्ली टेडी ने जब बच्चे दिए थे तो उन की आँखें बंद थी इस की क्यों खुली हुई हैं।
यानी में बचपन ही से इस ग़ुस्लख़ाने को जानता हूँ लेकिन ये मेरी ज़िंदगी में उस वक़्त दाख़िल हुआ। जब मैं पांचवीं जमात में पढ़ता था और एक भारी भरकम बस्ता बग़ल में दबा कर हर रोज़ स्कूल जाया करता था। [...]

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