मौसम की शरारत

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शाम को सैर के लिए निकला और टहलता टहलता उस सड़क पर हो लिया जो कश्मीर की तरफ़ जाती है। सड़क के चारों तरफ़ चीड़ और देवदार के दरख़्त, ऊंची ऊंची पहाड़ियों के दामन पर काले फीते की तरह फैले हुए थे। कभी कभी हवा के झोंके उस फीते में एक कपकपाहट सी पैदा कर देते।
मेरे दाएं हाथ एक ऊँचा टीला था जिसके ढलवानों में गंदुम के हरे पौदे निहायत ही मद्धम सरसराहट पैदा कर रहे थे। ये सरसराहट कानों पर बहुत भली मालूम होती थी। आँखें बंद कर लो तो यूं मालूम होता कि तसव्वुर के गुदगुदे क़ालीनों पर कई कुंवारियां रेशमी साड़ियां पहने चल फिर रही हैं। इन ढलवानों के बहुत ऊपर चीड़ के ऊंचे दरख़्तों का एक हुजूम था। बाएं तरफ़ सड़क के बहुत नीचे एक छोटा सा मकान था जिसको झाड़ियों ने घेर रखा था, उससे कुछ फ़ासले पर पस्त क़द झोंपड़े थे, जैसे किसी हसीन चेहरे पर तिल।

हवा गीली और पहाड़ी घास की भीनी भीनी बॉस से लदी हुई थी। मुझे इस सैर में एक नाक़ाबिल-ए-बयान लज़्ज़त महसूस हो रही थी।
सामने टीले पर दो बकरियां बड़े प्यार से एक दूसरी को अपने नन्हे-नन्हे सींगों से रेल रही थीं। उन से कुछ फ़ासले पर कुत्ते का एक पिल्ला जो कि जसामत में मेरे बूट के बराबर था। एक भारी भरकम भैंस की टांग से लिपट लिपट कर उसे डराने की कोशिश कर रहा था। वो शायद भौंकता भी था। क्योंकि उसका मुँह बार बार खुलता था। मगर उसकी आवाज़ मेरे कानों तक नहीं पहुंचती थी। [...]

शहज़ादा

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सुधा ख़ूबसूरत थी न बदसूरत, बस मामूली सी लड़की थी। साँवली रंगत, साफ़ सुथरे हाथ पांव, मिज़ाज की ठंडी मगर घरेलू, खाने पकाने में होशियार, सीने-पिरोने में ताक़, पढ़ने-लिखने की शौक़ीन, मगर न ख़ूबसूरत थी न अमीर, न चंचल, दिल को लुभाने वाली कोई बात इस में न थी। बस वो तो एक बेहद शर्मीली सी और ख़ामोश-तबीअत वाली लड़की थी... बचपन ही से अकेली खेला करती, मिट्टी की गुड़ियाँ बनाती और उनसे बातें करती। उन्हें तिनकों की रसोई में बिठा देती और ख़ुद अपने हाथ से खेला करती। जब कोई दूसरी लड़की उसके क़रीब आती तो गुड़ियों से बातें करते-करते चुप हो जाती। जब कोई शरीर बच्चा उस का घरौंदा बिगाड़ देता तो ख़ामोशी से रोने लगती। रो कर ख़ुद ही चुप हो जाती और थोड़ी देर के बाद दूसरा घरौंदा बनाने लगती।
कॉलेज में भी उसकी सहेलियाँ और दोस्त बहुत कम थे। वो शर्मीली तबीयत अभी तक उसके साथ चल रही थी, जैसे उसके माँ-बाप की ग़रीबी ने बढ़ावा दे दिया हो। उसका बाप जीवन राम नाथु मिल वाच मर्चैंट के यहां चाँदनी चौक की दूकान पर तीस साल से सेल्ज़ मैन चला आ रहा था। उसकी हैसियत ऐसी न थी कि वो अपनी बेटी को कॉलेज की तालीम दे सके। उस पर भी जो उसने अपनी बेटी को कॉलेज में भेजा था, महज़ इस ख़्याल से कि शायद इस तरीक़े से उसकी लड़की को कोई अच्छा ख़ाविंद मिल जाएगा। कभी कभी उसके दिल में ये ख़्याल भी आता था, मुम्किन है कॉलेज का कोई अच्छा लड़का ही उसपर आशिक़ हो जाये। मगर जब वो सुधा की सूरत देखता, झुकी हुई गर्दन, सिकुड़ा हुआ सीना, ख़ामोश निगाहें... और उसकी कम गोई का अंदाज़ा करता तो एक आह भर कर चुप हो जाता और अपना हुक़्क़ा गुड़ गुड़ाने लगता।

सुधा के लिए तो कोई बर घेर घार कर ही लाना होगा। मगर मुसीबत ये है कि इस तरह के बर बड़ा जहेज़ मांगते थे और उसकी हैसियत ऐसी न थी कि वो बड़ा तो क्या छोटा सा भी जहेज़ दे सके। ज़हन के बहाव में बहते बहते उसने ये भी सोचा कि आजकल मुहब्बत की शादी बड़ी सस्ती रहती है। अब मालिक राम की बेटी गोपी को ही देखो, बाप हेल्थ मिनिस्ट्री में तीसरे दर्जे का क्लर्क है मगर बेटी ने एक लखपती ठेकेदार से शादी कर ली है जो उसके साथ कॉलेज में पढ़ता था। बाप क्वार्टरों में रहता है। मगर लड़की एयर कंडीशंड मोटरकार में बैठ कर अपने मैके वालों से मिलने आती है। हाँ, मगर गोपी तो बहुत ख़ूबसूरत है और हमारी सुधा तो बस ऐसी है जैसे उस की माँ...
उसके लिए तो किसी बर को घेरना ही पड़ेगा जिस तरह सुधा की माँ और उसके रिश्ते वालों ने मुझे घेरा था। [...]

बाँझ

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मेरी और उसकी मुलाक़ात आज से ठीक दो बरस पहले अपोलोबंदर पर हुई। शाम का वक़्त था, सूरज की आख़िरी किरनें समुंदर की उन दराज़ लहरों के पीछे ग़ायब हो चुकी थी जो साहिल के बेंच पर बैठ कर देखने से मोटे कपड़े की तहें मालूम होती थीं। मैं गेट आफ़ इंडिया के उस तरफ़ पहला बेंच छोड़ कर जिस पर एक आदमी चम्पी वाले से अपने सर की मालिश करा रहा था, दूसरे बेंच पर बैठा था और हद्द-ए-नज़र तक फैले हुए समुंदर को देख रहा था।
दूर बहुत दूर जहां समुंदर और आसमान घुल मिल रहे थे। बड़ी बड़ी लहरें आहिस्ता आहिस्ता उठ रही थीं और ऐसा मालूम होता था कि बहुत बड़ा गदले रंग का क़ालीन है जिसे इधर से उधर समेटा जा रहा है।

साहिल के सब क़ुमक़ुमे रोशन थे जिनका अक्स किनारे के लर्ज़ां पानी पर कपकपाती हुई मोटी लकीरों की सूरत में जगह जगह रेंग रहा था। मेरे पास पथरीली दीवार के नीचे कई कश्तियों के लिपटे हुए बादबान और बांस हौले-हौले हरकत कर रहे थे। समुंदर की लहरें और तमाशाइयों की आवाज़ एक गुनगुनाहट बन कर फ़िज़ा में घुली हुई थी। कभी कभी किसी आने या जाने वाली मोटर के हॉर्न की आवाज़ बुलंद होती और यूं मालूम होता कि बड़ी दिलचस्प कहानी सुनने के दौरान में किसी ने ज़ोर से “हूँ” की है।
ऐसे माहौल में सिगरेट पीने का बहुत मज़ा आता है। मैंने जेब में हाथ डाल कर सिगरेट की डिबिया निकाली, मगर माचिस न मिली। जाने कहाँ भूल आया था। सिगरेट की डिबिया वापस जेब में रखने ही वाला था कि पास से किसी ने कहा, “माचिस लीजिएगा।” [...]

सितारों से आगे

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करतार सिंह ने ऊंची आवाज़ में एक और गीत गाना शुरू कर दिया। वो बहुत देर से माहिया अलाप रहा था जिसको सुनते सुनते हमीदा करतार सिंह की पंकज जैसी तानों से, उसकी ख़ूबसूरत दाढ़ी से, सारी काइनात से अब इस शिद्दत के साथ बेज़ार हो चुकी थी कि उसे ख़ौफ़ हो चला था कि कहीं वो सचमुच इस ख़्वाह मख़्वाह की नफ़रत-व-बेज़ारी का ऐलान न कर बैठे और कामरेड करतार ऐसा स्वीट है फ़ौरन बुरा मान जाएगा। आज के बीच में अगर वो शामिल न होता तो बाक़ी के साथी तो इस क़दर संजीदगी के मूड में थे कि हमीदा ज़िंदगी से उकता कर ख़ुदकुशी कर जाती। करतार सिंह गुड्डू ग्रामोफोन तक साथ उठा लाया था। मलिका पुखराज का एक रिकार्ड तो कैंप ही में टूट चुका था, लेकिन ख़ैर।
हमीदा अपनी सुर्ख़ किनारे वाली सारी के आंचल को शानों के गिर्द बहुत एहतियात से लपेट कर ज़रा और ऊपर को हो के बैठ गई जैसे कॉमरेड करतार सिंह के माहिया को बेहद दिलचस्पी से सुन रही है लेकिन न मालूम कैसी उल्टी पलटी उलझी उलझी बे-तुकी बातें उस वक़्त उसके दिमाग़ में घुसी आ रही थीं। वो जाग सोज़-ए-इश्क़ जाग वाला बेचारा रिकार्ड शकुंतला ने तोड़ दिया था।

ओफ्फोह भई। बैलगाड़ी के हिचकोलों से उसके सर में हल्का हल्का दर्द होने लगा और अभी कितने बहुत से काम करने को पड़े थे। पूरे गाँव को हैजे़ के टीके लगाने को पड़े थे। तौबा! कामरेड सबीहुद्दीन के घूंगरियाले बालों के सर के नीचे रखे हुए दवाओं के बक्स में से निकल के दवाओं की तेज़ बू सीधी उसके दिमाग़ में पहुँच रही थी और उसे मुस्तक़िल तौर पर याद दिलाए जा रही थी कि ज़िंदगी वाक़ई बहुत तल्ख़ और नागवार है एक घिसा हुआ, बेकार और फ़ालतू सा रिकार्ड जिसमें से सूई की ठेस लगते ही वही मद्धम और लरज़ती हुई तानें बुलंद हो जाती थीं जो नग़्मे की लहरों में क़ैद रहते रहते दिखा चुकी थीं। अगर इस रिकार्ड को, जो मुद्दतों से रेडियो ग्राम के निचले ख़ाने में ताज़ा तरीन एलबम के नीचे दबा पड़ा था, ज़ोर से ज़मीन पर पटख़ दिया जाता तो हमीदा ख़ुशी से नाच उठी। कितनी बहुत सी ऐसी चीज़ें थीं जो वो चाहती थी कि दुनिया में न होतीं तो कैसा मज़ा रहता और उस वक़्त तो ऐसा लगा जैसे सचमुच उसने i dream i dwell in marble halls. वाले घिसे हुए रिकार्ड को फ़र्श पर पटख़ के टुकड़े टुकड़े कर दिया है और झुक कर उसकी किरचें चुनते हुए उसे बहुत ही लुत्फ़ आ रहा है। उन्नाबी मुज़ैक के इस फ़र्श पर, जिस पर एक दफ़ा एक हल्के फुल्के 'fox tort' में बहते हुए उसने सोचा था कि बस ज़िंदगी सिमट सिमटा के इस चमकीली सतह, उन ज़र्द पर्दों की रुमान आफ़रीन सलवटों और दीवारों में से झाँकती हुई इन मद्धम बर्क़ी रोशनियों के ख़्वाब-आवर धुँन्द्धलके में समा गई है, ये तपिश अंगेज़ जाज़ यूँ ही बजता रहेगा, अंधेरे कोनों में रखे हुए स्याही माइल सब्ज़ फ़र्न की डालियाँ हवा के हल्के हल्के झोंकों में इस तरह हिचकोले खाती रहेंगी और रेडियोग्राम पर हमेशा पोलका और रम्बा के नए नए रिकार्ड लगते जाएँगे। ये थोड़ा ही मुम्किन है कि जो बातें उसे क़तई पसंद नहीं वो बस होती ही चली जाएँ, रिकार्ड घिसते जाएँ और टूटते जाएँ। लेकिन ये रेकॉर्डों का फ़लसफ़ा किया है आख़िर? हमीदा को हंसी आ गई। उसने जल्दी से करतार सिंह की तरफ़ देखा। कहीं वो ये न समझ ले कि वो उसके गाने पर हंस रही है।
कामरेड करतार गाए जा रहा था। वस वस वे ढोलना उफ़! ये पंजाबी के बा'ज़ अलफ़ाज़ किस क़दर भोंडे होते हैं। हमीदा एक ही तरीक़े से बैठे बैठे देखा के बाँस के सहारे आगे की तरफ़ झुक गई। बहती हुई हवा में उसका सुर्ख़ आंचल फटफटाए जा रहा था। [...]

मौत का राज़

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इस बे-रब्त ओ ना-हमवार ज़मीन के शुमाल की तरफ़ नबाताती टीलों के दामन में, मैं ने गंदुम की बत्तीसवीं फ़सल लगाई थी और सरतानी सूरज की हयात कश-ए-तमाज़त में पकती हुई बालियों को देख कर मैं ख़ुश हो रहा था। गंदुम का एक एक दाना पहाड़ी दीमक के बराबर था। एक ख़ोशे को मसल कर मैं ने एक दाना निकाला। वो किनारों की तरफ़ से बाहर को क़दरे पिचका हुआ था। उस की दरमियानी लकीर कुछ गहरी थी, ये इस बात का सुबूत था कि गंदुम अच्छी है। उस में ख़ुर्दनी माद्दा ज़्यादा है और गोरखपुर की मंडी में इस साल इस की फ़रोख़्त नफ़ा-बख़्श होगी।
मेरे ख़यालात कुछ यकसूई इख़्तियार कर रहे थे। उस वक़्त ज़िंदों में से मेरे नज़्दीक कोई न था। आप पूछ सकते हैं कि अगर ज़िंदों में से कोई तुम्हारे नज़दीक न था तो क्या मुर्दों की याद तुम्हारे वीरान-ख़ाना-ए-दिल को आबाद कर रही थी?.... मेरा जवाब इस्बात में है। मैं आप से एक और बात भी इसरार से मनवाना चाहता हूँ, और वो ये है कि मैं मुर्दों का तसव्वुर ही नहीं कर रहा था, बल्कि उन को अपने सामने, पीछे, दाएँ और बाएँ कथा कली अंदाज़ से रक़्स करते, हंसते और ख़ौफ़ से काँपते हुए देख रहा था। जिस तरह आपकी दाढ़ी का बाल बाल मुझे अलाहदा नज़र आता है और आप की तमाज़त-ज़दा आँखों के सुर्ख़ डोरे देख रहा हूँ, उसी तरह मैं उन्हें देख रहा था। उन में से किसी का चेहरा जमवी मोतिया की उस कली की मानिंद, जिस का चेहरा सुब्ह के वक़्त काश्मीरी बहार की शबनम ने धो दिया हो, शगुफ़्ता हो कर चमक रहा था और किसी के चेहरे पर झुर्रियाँ और गहरी गहरी लकीरें थीं। शायद वो किसी नतीजा ख़ेज़ तजुर्बा ज़िंदगी की निशानियाँ थीं।

न वो गंदुम के खेत के किनारों पर खेल रहे थे, न ही बत्तीस साला शीशम, जिस के घने साया-दार फैलाव के नीचे मैं आलती पालती मारे बैठा था, अपने हल्के हल्के पाँव को नचा रहे थे, बल्कि वो ख़ुद मेरे जिस्म के अंदर थे.... हाएं! आप हैरान क्यूँ खड़े हैं। आप पूछते हैं कि मैं कहाँ था?... सुनिए तो.... मैं जिस्म की उस हालत में था, जिसे इन्हिमाक की आख़िरी मंज़िल कहना चाहिए। मैं ख़ुद अपने जिस्म से अलाहदा हो कर उसे यूँ देख रहा था, जिस तरह पुरानी हिकायतों का शहज़ादा किसी ऊंचे और नबाताती टीले पर खड़ा दूर से उस शहज़ादी के महल का उठते हुए धुएं के वजूद से अंदाज़ा लगाए, जिसने अपनी शादी मशरूत रक्खी हो।
वो रक़्साँ, ख़ंदाँ, लर्ज़ां लोग मेरे बुज़ुर्ग थे.... बच्चा अपने वालदैन की तस्वीर होता है। मेरा बाप अपने बाप की तस्वीर था। इसलिए मैं अपने दादा की तस्वीर भी हो सकता हूँ और यूँ इर्तिक़ाई मनाज़िल तय करने की वजह से अपने बुज़्रगान-ए-सल्फ़ की, अगर साफ़ नहीं तो धुँदली सी तस्वीर ज़रूर हूँ.... हिंदुस्तानी तहज़ीब दो नस्लों से शुरू है। एक द्राविड़ और दूसरी आर्या। मैं आर्या नस्ल से हूँ। मेरा दराज़ क़द, सफ़ेद रंग, सियाह चश्म, हस्सास ख़ुश-बाश और क़दरे वहम परस्त होना, इस बात का सबूत है.... ये बात मालूम करने की मेरी ज़बरदस्त ख़्वाहिश थी कि मौत का राज़ क्या है। मरते वक़्त मरने वाले पर क्या क्या अमल ज़ुहूर पज़ीर होता है। मुझे ये यक़ीन दिलाया जा चुका था, कि माद्दा और रूह ला-फ़ानी हैं। ऐसी हालत में अगर वो मौत के अमल में अपनी हैयत बदलते हैं, तो उस वक़्त उनकी क्या हालत होती है... आख़िर मरने वाले गए कहाँ? वो जा भी कहाँ सकते हैं, सिवाए इस बात के कि वो कोई दूसरी शक्ल इख़्तियार कर लें, जिसे हम लोग आवा गवन कहते हैं। क्यूँ कि मुख़्तलिफ़ हईयात में ज़ुहूर पज़ीर होने के बाद फिर उस ज़र्रे को जिससे हम पैदा हुए हैं, आदमी की शक्ल दी जाती है। [...]

शहज़ादा

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सुधा ख़ूबसूरत थी न बदसूरत, बस मामूली सी लड़की थी। साँवली रंगत, साफ़ सुथरे हाथ पांव, मिज़ाज की ठंडी मगर घरेलू, खाने पकाने में होशियार, सीने-पिरोने में ताक़, पढ़ने-लिखने की शौक़ीन, मगर न ख़ूबसूरत थी न अमीर, न चंचल, दिल को लुभाने वाली कोई बात इस में न थी। बस वो तो एक बेहद शर्मीली सी और ख़ामोश-तबीअत वाली लड़की थी... बचपन ही से अकेली खेला करती, मिट्टी की गुड़ियाँ बनाती और उनसे बातें करती। उन्हें तिनकों की रसोई में बिठा देती और ख़ुद अपने हाथ से खेला करती। जब कोई दूसरी लड़की उसके क़रीब आती तो गुड़ियों से बातें करते-करते चुप हो जाती। जब कोई शरीर बच्चा उस का घरौंदा बिगाड़ देता तो ख़ामोशी से रोने लगती। रो कर ख़ुद ही चुप हो जाती और थोड़ी देर के बाद दूसरा घरौंदा बनाने लगती।
कॉलेज में भी उसकी सहेलियाँ और दोस्त बहुत कम थे। वो शर्मीली तबीयत अभी तक उसके साथ चल रही थी, जैसे उसके माँ-बाप की ग़रीबी ने बढ़ावा दे दिया हो। उसका बाप जीवन राम नाथु मिल वाच मर्चैंट के यहां चाँदनी चौक की दूकान पर तीस साल से सेल्ज़ मैन चला आ रहा था। उसकी हैसियत ऐसी न थी कि वो अपनी बेटी को कॉलेज की तालीम दे सके। उस पर भी जो उसने अपनी बेटी को कॉलेज में भेजा था, महज़ इस ख़्याल से कि शायद इस तरीक़े से उसकी लड़की को कोई अच्छा ख़ाविंद मिल जाएगा। कभी कभी उसके दिल में ये ख़्याल भी आता था, मुम्किन है कॉलेज का कोई अच्छा लड़का ही उसपर आशिक़ हो जाये। मगर जब वो सुधा की सूरत देखता, झुकी हुई गर्दन, सिकुड़ा हुआ सीना, ख़ामोश निगाहें...और उसकी कम गोई का अंदाज़ा करता तो एक आह भर कर चुप हो जाता और अपना हुक़्क़ा गुड़ गुड़ाने लगता।

सुधा के लिए तो कोई बर घेर घार कर ही लाना होगा। मगर मुसीबत ये है कि इस तरह के बर बड़ा जहेज़ मांगते थे और उसकी हैसियत ऐसी न थी कि वो बड़ा तो क्या छोटा सा भी जहेज़ दे सके। ज़हन के बहाव में बहते बहते उसने ये भी सोचा कि आजकल मुहब्बत की शादी बड़ी सस्ती रहती है। अब मालिक राम की बेटी गोपी को ही देखो, बाप हेल्थ मिनिस्ट्री में तीसरे दर्जे का क्लर्क है मगर बेटी ने एक लखपती ठेकेदार से शादी कर ली है जो उसके साथ कॉलेज में पढ़ता था। बाप क्वार्टरों में रहता है। मगर लड़की एयर कंडीशंड मोटरकार में बैठ कर अपने मैके वालों से मिलने आती है। हाँ, मगर गोपी तो बहुत ख़ूबसूरत है और हमारी सुधा तो बस ऐसी है जैसे उस की माँ...
उसके लिए तो किसी बर को घेरना ही पड़ेगा जिस तरह सुधा की माँ और उसके रिश्ते वालों ने मुझे घेरा था। [...]

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