इस बे-रब्त ओ ना-हमवार ज़मीन के शुमाल की तरफ़ नबाताती टीलों के दामन में, मैं ने गंदुम की बत्तीसवीं फ़सल लगाई थी और सरतानी सूरज की हयात कश-ए-तमाज़त में पकती हुई बालियों को देख कर मैं ख़ुश हो रहा था। गंदुम का एक एक दाना पहाड़ी दीमक के बराबर था। एक ख़ोशे को मसल कर मैं ने एक दाना निकाला। वो किनारों की तरफ़ से बाहर को क़दरे पिचका हुआ था। उस की दरमियानी लकीर कुछ गहरी थी, ये इस बात का सुबूत था कि गंदुम अच्छी है। उस में ख़ुर्दनी माद्दा ज़्यादा है और गोरखपुर की मंडी में इस साल इस की फ़रोख़्त नफ़ा-बख़्श होगी। मेरे ख़यालात कुछ यकसूई इख़्तियार कर रहे थे। उस वक़्त ज़िंदों में से मेरे नज़्दीक कोई न था। आप पूछ सकते हैं कि अगर ज़िंदों में से कोई तुम्हारे नज़दीक न था तो क्या मुर्दों की याद तुम्हारे वीरान-ख़ाना-ए-दिल को आबाद कर रही थी?.... मेरा जवाब इस्बात में है। मैं आप से एक और बात भी इसरार से मनवाना चाहता हूँ, और वो ये है कि मैं मुर्दों का तसव्वुर ही नहीं कर रहा था, बल्कि उन को अपने सामने, पीछे, दाएँ और बाएँ कथा कली अंदाज़ से रक़्स करते, हंसते और ख़ौफ़ से काँपते हुए देख रहा था। जिस तरह आपकी दाढ़ी का बाल बाल मुझे अलाहदा नज़र आता है और आप की तमाज़त-ज़दा आँखों के सुर्ख़ डोरे देख रहा हूँ, उसी तरह मैं उन्हें देख रहा था। उन में से किसी का चेहरा जमवी मोतिया की उस कली की मानिंद, जिस का चेहरा सुब्ह के वक़्त काश्मीरी बहार की शबनम ने धो दिया हो, शगुफ़्ता हो कर चमक रहा था और किसी के चेहरे पर झुर्रियाँ और गहरी गहरी लकीरें थीं। शायद वो किसी नतीजा ख़ेज़ तजुर्बा ज़िंदगी की निशानियाँ थीं। न वो गंदुम के खेत के किनारों पर खेल रहे थे, न ही बत्तीस साला शीशम, जिस के घने साया-दार फैलाव के नीचे मैं आलती पालती मारे बैठा था, अपने हल्के हल्के पाँव को नचा रहे थे, बल्कि वो ख़ुद मेरे जिस्म के अंदर थे.... हाएं! आप हैरान क्यूँ खड़े हैं। आप पूछते हैं कि मैं कहाँ था?... सुनिए तो.... मैं जिस्म की उस हालत में था, जिसे इन्हिमाक की आख़िरी मंज़िल कहना चाहिए। मैं ख़ुद अपने जिस्म से अलाहदा हो कर उसे यूँ देख रहा था, जिस तरह पुरानी हिकायतों का शहज़ादा किसी ऊंचे और नबाताती टीले पर खड़ा दूर से उस शहज़ादी के महल का उठते हुए धुएं के वजूद से अंदाज़ा लगाए, जिसने अपनी शादी मशरूत रक्खी हो। वो रक़्साँ, ख़ंदाँ, लर्ज़ां लोग मेरे बुज़ुर्ग थे.... बच्चा अपने वालदैन की तस्वीर होता है। मेरा बाप अपने बाप की तस्वीर था। इसलिए मैं अपने दादा की तस्वीर भी हो सकता हूँ और यूँ इर्तिक़ाई मनाज़िल तय करने की वजह से अपने बुज़्रगान-ए-सल्फ़ की, अगर साफ़ नहीं तो धुँदली सी तस्वीर ज़रूर हूँ.... हिंदुस्तानी तहज़ीब दो नस्लों से शुरू है। एक द्राविड़ और दूसरी आर्या। मैं आर्या नस्ल से हूँ। मेरा दराज़ क़द, सफ़ेद रंग, सियाह चश्म, हस्सास ख़ुश-बाश और क़दरे वहम परस्त होना, इस बात का सबूत है.... ये बात मालूम करने की मेरी ज़बरदस्त ख़्वाहिश थी कि मौत का राज़ क्या है। मरते वक़्त मरने वाले पर क्या क्या अमल ज़ुहूर पज़ीर होता है। मुझे ये यक़ीन दिलाया जा चुका था, कि माद्दा और रूह ला-फ़ानी हैं। ऐसी हालत में अगर वो मौत के अमल में अपनी हैयत बदलते हैं, तो उस वक़्त उनकी क्या हालत होती है... आख़िर मरने वाले गए कहाँ? वो जा भी कहाँ सकते हैं, सिवाए इस बात के कि वो कोई दूसरी शक्ल इख़्तियार कर लें, जिसे हम लोग आवा गवन कहते हैं। क्यूँ कि मुख़्तलिफ़ हईयात में ज़ुहूर पज़ीर होने के बाद फिर उस ज़र्रे को जिससे हम पैदा हुए हैं, आदमी की शक्ल दी जाती है।
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