डार्लिंग

Shayari By

ये उन दिनों का वाक़िया है। जब मशरिक़ी और मग़रिबी पंजाब में क़तल-ओ-ग़ारतगरी और लूट मार का बाज़ार गर्म था। कई दिन से मूसलाधार बारिश होरही थी। वो आग जो इंजनों से न बुझ सकी थी। इस बारिश ने चंद घंटों ही में ठंडी करदी थी। लेकिन जानों पर बाक़ायदा हमले हो रहे थे और जवान लड़कीयों की इस्मत बदस्तूर ग़ैर महफ़ूज़ थी। हट्टे कट्टे नौजवान लड़कों की टोलियां बाहर निकलती थीं और इधर उधर छापे मार कर डरी डुबकी और सहमी हुई लड़कीयां उठा कर ले जाती थीं।
किसी के घर पर छापा मारना और उस के साकिनों को क़तल करके एक जवान लड़की को कांधे पर डाल कर ले जाना बज़ाहिर बहुत ही आसान काम मालूम होता है लेकिन “स” का बयान है कि ये महज़ लोगों का ख़्याल है। क्योंकि उसे तो अपनी जान पर खेल जाना पड़ा था।

इस से पहले कि मैं आप को “स” का बयान करदा वाक़िया सुनाऊं। मुनासिब मालूम होता है कि उस से आप को मुतआरिफ़ क़रादूं। स एक मामूली जिस्मानी और ज़हनी साख़्त का आदमी है। मुफ़्त के माल से उस को उतनी ही दिलचस्पी है जितनी आम इंसानों को होती है। लेकिन माल-ए-मुफ़्त से इस का सुलूक दिल-ए-बेरहम का सा नहीं था। फिर भी वो एक अजीब-ओ-ग़रीब ट्रेजडी का बाइस बन गया। जिस का इल्म उसे बहुत देर में हुआ।
स्कूल में “स” औसत दर्जे का तालिब-ए-इल्म था। हर खेल में हिस्सा लेता था। लेकिन खेलते खेलते जब नौबत लड़ाई तक जा पहुंची थी तो “स” इस में सब से पेश पेश होता। खेल में वो हर क़िस्म के ओछे हथियार इस्तिमाल कर जाता था। लेकिन लड़ाई के मौक़ा पर इस ने हमेशा ईमानदारी से काम लिया। [...]

पढ़े कलिमा

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ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह... आप मुसलमान हैं यक़ीन करें, मैं जो कुछ कहूंगा, सच कहूंगा।
पाकिस्तान का इस मुआ’मले से कोई तअ’ल्लुक़ नहीं। क़ाइद-ए-आज़म जिन्ना के लिए मैं जान देने के लिए तैयार हूँ। लेकिन मैं सच कहता हूँ इस मुआ’मले से पाकिस्तान का कोई तअ’ल्लुक़ नहीं। आप इतनी जल्दी न कीजिए... मानता हूँ। इन दिनों हुल्लड़ के ज़माने में आपको फ़ुर्सत नहीं, लेकिन आप ख़ुदा के लिए मेरी पूरी बात तो सुन लीजिए... मैंने तुकाराम को ज़रूर मारा है, और जैसा कि आप कहते हैं तेज़ छुरी से उसका पेट चाक किया है, मगर इसलिए नहीं कि वो हिंदू था। अब आप पूछेंगे कि तुमने इसलिए नहीं मारा तो फिर किस लिए मारा... लीजिए, मैं सारी दास्तान ही आपको सुना देता हूँ।

पढ़िए कलमा, ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह... किस काफ़िर को मालूम था कि मैं इस लफ़ड़े में फंस जाऊंगा। पिछले हिंदू-मुस्लिम फ़साद में मैंने तीन हिंदू मारे थे। लेकिन आप यक़ीन मानिए वो मारना कुछ और है, और ये मारना कुछ और है। ख़ैर, आप सुनिए कि हुआ क्या, मैंने इस तुकाराम को क्यों मारा।
क्यों साहब औरत ज़ात के मुतअ’ल्लिक़ आप का क्या ख़याल है... मैं समझता हूँ, बुज़ुर्गों ने ठीक कहा है... इसके चलित्तरों से ख़ुदा ही बचाए... फांसी से बच गया तो देखिए कानों को हाथ लगाता हूँ, फिर कभी किसी औरत के नज़दीक नहीं जाऊंगा, लेकिन साहब औरत भी अकेली सज़ावार नहीं। मर्द साले भी कम नहीं होते। बस, किसी औरत को देखा और रेशा ख़तमी होगए। ख़ुदा को जान देनी है इंस्पेक्टर साहब! रुकमा को देख कर मेरा भी यही हाल हुआ था। [...]

परी

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कश्मीरी गेट दिल्ली के एक फ़्लैट में अनवर की मुलाक़ात परवेज़ से हुई। वो क़तअ’न मुतअस्सिर न हुआ। परवेज़ निहायत ही बेजान चीज़ थी। अनवर ने जब उसकी तरफ़ देखा और उसको आदाब अ’र्ज़ कहा तो उसने सोचा, “ये क्या है, औरत है या मूली?”
परवेज़ इतनी सफ़ेद थी कि उसकी सफ़ेदी बेजान सी हो गई थी जिस तरह मूली ठंडी होती है, उस तरह उसका सफ़ेद रंग भी ठंडा था। कमर में हल्का सा ख़म था जैसा कि अक्सर मूलियों में होता है। अनवर ने जब उसको देखा तो उसने सब्ज़ दुपट्टा ओढ़ा हुआ था। ग़ालिबन यही वजह है कि उसको परवेज़ हूबहू मूली नज़र आई जिसके साथ सब्ज़ पत्ते लगे हों।

अनवर से हाथ मिला कर परवेज़ अपने नन्हे से कुत्ते को गोद में लेकर कुर्सी पर बैठ गई। उसके सुर्ख़ी लगे होंटों पर जो उसके सफ़ेद ठंडे चेहरे पर एक दहकता हुआ अंगारा सा लगते थे। ज़ईफ़ सी मुस्कुराहट पैदा हुई। कुत्ते के बालों में अपनी लंबी लंबी उंगलियों से कंघी करते हुए उसने दीवार के साथ लटकती हुई अनवर के दोस्त जमील की तस्वीर की तरफ़ देखते हुए कहा, “आपसे मिल कर बहुत ख़ुशी हुई।”
अनवर को उसके साथ मिल कर क़तअ’न ख़ुशी नहीं हुई थी। रंज भी नहीं हुआ। अगर वो सोचता तो यक़ीनी तौर पर अपने सही रद्द-ए-अ’मल को बयान न कर सका। दरअसल परवेज़ से मिल कर वो फ़ैसला नहीं कर सका था कि वो एक लड़की से मिला है या उसकी मुलाक़ात किसी लड़के से हुई है। या सर्दीयों में क्रिकेट के मैच देखते हुए उसने एक मूली ख़रीद ली है। [...]

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