(1) जब नमक का महकमा क़ाएम हुआ और एक ख़ुदा-दाद नेमत से फ़ायदा उठाने की आम मुमानिअत कर दी गई तो लोग दरवाज़ा-ए-सद्र बंद पा कर रौज़न और शिगाफ़ की फ़िक्र करने लगे। चारों तरफ़ ख़यानत, ग़बन और तहरीस का बाज़ार गर्म था। पटवार-गिरी का मुअज़्ज़ज़ और पुर-मुनफ़अत ओहदा छोड़-छोड़ कर लोग सीग़ा-ए-नमक की बर्क़-अन्दाज़ी करते थे। और इस महकमे का दारोग़ा वकीलों के लिए भी रश्क का बाइस था। ये वो ज़माना था। जब अंग्रेज़ी ता'लीम और ईसाइयत मुतरादिफ़ अल्फ़ाज़ थे। फ़ारसी की ता'लीम सनद-ए-इफ़्तिख़ार थी। लोग हुस्न और इश्क़ की कहानियाँ पढ़-पढ़ कर आला-तरीन मदारिज-ए-ज़िंदगी के क़ाबिल हो जाते थे, मुंशी बंसीधर ने भी ज़ुलेख़ा की दास्तान ख़त्म की और मजनूँ और फ़रहाद के क़िस्सा-ए-ग़म को दरियाफ़्त अमरीका या जंग-ए-नील से अ'ज़ीम-तर वाक़िआ' ख़याल करते हुए रोज़गार की तलाश में निकले। उनके बाप एक जहाँ-दीदा बुज़ुर्ग थे, समझाने लगे। बेटा घर की हालत ज़रा देख रहे हो। क़र्ज़े से गर्दनें दबी हुई हैं। लड़कियाँ हैं, वो गंगा-जमुना की तरह बढ़ती चली आ रही हैं, मैं कगारे का दरख़्त हूँ, न मालूम कब गिर पड़ूँ, तुम ही घर के मालिक-ओ-मुख़्तार हो। मशाहिरे और ओहदे का मुतलक़ ख़याल न करना, ये तो पीर का मज़ार है, निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए, ऐसा काम ढूँढ़ो जहाँ कुछ बालाई रक़म की आमद हो। माहवार मुशाहरा पूर्णमाशी का चाँद है। जो एक दिन दिखाई देता है और फिर घटते-घटते ग़ायब हो जाता है, बालाई रक़म पानी का बहता हुआ सोता है, जिससे प्यास हमेशा बुझती रहती है। मुशाहरा इंसान देता है इसीलिए उसमें बरकत नहीं होती, बालाई रक़म ग़ैब से मिलती है इसीलिए उसमें बरकत होती है। और तुम ख़ुद आलिम-ओ-फ़ाज़िल हो, तुम्हें क्या समझाऊँ ये मुआ'मला बहुत कुछ ज़मीर और क़याफ़े की पहचान पर मुनहसिर है, इंसान को देखो, मौक़ा देखो और ख़ूब ग़ौर से काम लो। ग़रज़-मंद के साथ हमेशा बे-रहमी और बे-रुख़ी कर सकते हो लेकिन बे-ग़रज़ से मुआ'मला करना मुश्किल काम है। इन बातों को गिरह बाँध लो, ये मेरी सारी ज़िंदगी की कमाई हैं।”
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