बेग़रज़ मोहसिन

Shayari By

सावन का महीना था, रेवती रानी ने पांव में मेहंदी रचाई, मांग चोटी सँवारी और तब अपनी बूढ़ी सास से जाकर बोली, अम्मां जी आज मैं मेला देखने जाऊँगी।
रेवती पण्डित चिंता मन की बीवी थी। पंडित जी ने सरस्वती की पूजा में ज़्यादा नफ़ा न देखकर लक्ष्मी देवी की मुजावरी करनी शुरू की थी, लेन-देन का कारोबार करते थे। मगर और महाजनों के ख़िलाफ़ ख़ास ख़ास हालतों के सिवा 25 फ़ीसदी से ज़्यादा सूद लेना मुनासिब न समझते थे।

रेवती की सास एक बच्चे को गोद में लिए खटोले पर बैठी थीं। बहू की बात सुनकर बोलीं,
भीग जाओगी तो बच्चे को ज़ुकाम हो जाएगा। [...]

नमक का दारोग़ा

Shayari By

(1)
जब नमक का महकमा क़ाएम हुआ और एक ख़ुदा-दाद नेमत से फ़ायदा उठाने की आम मुमानिअत कर दी गई तो लोग दरवाज़ा-ए-सद्र बंद पा कर रौज़न और शिगाफ़ की फ़िक्र करने लगे।

चारों तरफ़ ख़यानत, ग़बन और तहरीस का बाज़ार गर्म था। पटवार-गिरी का मुअज़्ज़ज़ और पुर-मुनफ़अत ओहदा छोड़-छोड़ कर लोग सीग़ा-ए-नमक की बर्क़-अन्दाज़ी करते थे। और इस महकमे का दारोग़ा वकीलों के लिए भी रश्क का बाइस था।
ये वो ज़माना था। जब अंग्रेज़ी ता'लीम और ईसाइयत मुतरादिफ़ अल्फ़ाज़ थे। फ़ारसी की ता'लीम सनद-ए-इफ़्तिख़ार थी। लोग हुस्न और इश्क़ की कहानियाँ पढ़-पढ़ कर आला-तरीन मदारिज-ए-ज़िंदगी के क़ाबिल हो जाते थे, मुंशी बंसीधर ने भी ज़ुलेख़ा की दास्तान ख़त्म की और मजनूँ और फ़रहाद के क़िस्सा-ए-ग़म को दरियाफ़्त अमरीका या जंग-ए-नील से अ'ज़ीम-तर वाक़िआ' ख़याल करते हुए रोज़गार की तलाश में निकले। उनके बाप एक जहाँ-दीदा बुज़ुर्ग थे, समझाने लगे। बेटा घर की हालत ज़रा देख रहे हो। क़र्ज़े से गर्दनें दबी हुई हैं। लड़कियाँ हैं, वो गंगा-जमुना की तरह बढ़ती चली आ रही हैं, मैं कगारे का दरख़्त हूँ, न मालूम कब गिर पड़ूँ, तुम ही घर के मालिक-ओ-मुख़्तार हो। मशाहिरे और ओहदे का मुतलक़ ख़याल न करना, ये तो पीर का मज़ार है, निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए, ऐसा काम ढूँढ़ो जहाँ कुछ बालाई रक़म की आमद हो। माहवार मुशाहरा पूर्णमाशी का चाँद है। जो एक दिन दिखाई देता है और फिर घटते-घटते ग़ायब हो जाता है, बालाई रक़म पानी का बहता हुआ सोता है, जिससे प्यास हमेशा बुझती रहती है। मुशाहरा इंसान देता है इसीलिए उसमें बरकत नहीं होती, बालाई रक़म ग़ैब से मिलती है इसीलिए उसमें बरकत होती है। और तुम ख़ुद आलिम-ओ-फ़ाज़िल हो, तुम्हें क्या समझाऊँ ये मुआ'मला बहुत कुछ ज़मीर और क़याफ़े की पहचान पर मुनहसिर है, इंसान को देखो, मौक़ा देखो और ख़ूब ग़ौर से काम लो। ग़रज़-मंद के साथ हमेशा बे-रहमी और बे-रुख़ी कर सकते हो लेकिन बे-ग़रज़ से मुआ'मला करना मुश्किल काम है। इन बातों को गिरह बाँध लो, ये मेरी सारी ज़िंदगी की कमाई हैं।” [...]

घास वाली

Shayari By

(1)
मुलिया हरी हरी घास का गट्ठा लेकर लौटी तो उसका गेहुवाँ रंग कुछ सुर्ख़ हो गया था और बड़ी बड़ी मख़मूर आँखें कुछ सहमी हुईं थीं। महाबीर ने पूछा, क्या है मुलिया? आज कैसा जी है। मुलिया ने कुछ जवाब न दिया। उसकी आँखें डबडबा गईं और मुँह फेर लिया।

महाबीर ने क़रीब आकर पूछा, क्या हुआ है? बताती क्यों नहीं? किसी ने कुछ कहा है? अम्माँ ने डाँटा है? क्यों इतनी उदास है?
मुलिया ने सिसक कर कहा, कुछ नहीं, हुआ क्या है। अच्छी तो हूँ। [...]

रियासत का दीवान

Shayari By

मिस्टर मेहता उन बद-नसीबों में से थे जो अपने आक़ा को ख़ुश नहीं रख सकते। वो दिल से अपना काम करते थे बड़ी यकसूई और ज़िम्मेदारी के साथ और ये भूल जाते थे कि वो काम के तो नौकर हैं ही अपने आक़ा के नौकर भी हैं। जब उनके दूसरे भाई दरबार में बैठे ख़ुश-गप्पियाँ करते वो दफ़्तर में बैठे काग़ज़ों से सर मारते और उसका नतीजा था कि जो आक़ा परवर थे उनकी तरक़्कियां होती थीं। इनाम-ओ-इकराम पाते थे और ये हज़रत जो फ़र्ज़ परवर थे, रांदा दरगाह समझे जाते थे और किसी न किसी इल्ज़ाम में निकाल लिए जाते थे, ज़िंदगी में तल्ख़ तजुर्बे उन्हें कई बार हुए थे। इसलिए जब अब की राजा साहिब सत्या ने अपने हाँ एक मुअज़्ज़ज़ ओह्दा दे दिया तो उन्होंने अह्द कर लिया था कि अब मैं भी आक़ा का रुख देखकर काम करूँगा और उनकी मिज़ाजदारी को अपना शिआर बनाऊँगा। लगन के साथ काम करने का फल पा चुका। अब ऐसी ग़लती न करूँगा। दो साल भी न गुज़रे थे कि राजा साहब ने उन्हें अपना दीवान बना लिया। एक मुख़्तार रियासत की दीवानी का क्या कहना। तनख़्वाह तो बहुत कम थी मगर इख़्तियारात ग़ैर महदूद। राजा साहब अपने सैर व शिकार और ऐश व नशात में मसरूफ़ रहते थे सारी ज़िम्मेदारी मिस्टर मेहता पर थी। रियासत के हुक्काम उनके सामने सर-ए-नियाज़ ख़म करते। रूसा नज़राने देते। तजार सज्दे बजा लाते। यहां तक कि रानियां भी उनकी ख़ुशामद करती थीं। राजा साहब भी बदमिज़ाज आदमी थे और बदज़बान भी कभी कभी सख़्त सुस्त कह बैठते। मगर मेहता ने अपना वतीरा बनालिया था। कि सफ़ाई या उज़्र में एक लफ़्ज़ भी मुँह से न निकालते। सब कुछ सर झुका कर सुन लेते। राजा साहब का गु़स्सा फ़रौ हो जाता।
गर्मियों के दिन थे पॉलिटिकल एजेंट का दौरा था, रियासत में उनके ख़ैरमक़्दम की तैयारियां हो रही थीं। राजा साहब ने मिस्टर मेहता को बुला कर कहा, मैं चाहता हूँ कि साहब बहादुर यहां से मेरा कलमा पढ़ते हुए जाएं।

मेहता ने सर उठा कर कहा, कोशिश तो ऐसी ही कर रहा हूँ अन्नदाता।
मैं कोशिश नहीं चाहता, जिसमें नाकामी का पहलू भी शामिल है। क़तई वादा चाहता हूँ। [...]

महालक्ष्मी का पुल

Shayari By

महालक्ष्मी के स्टेशन के उस पार लक्ष्मी जी का एक मंदिर है। उसे लोग रेस कोर्स भी कहते हैं। उस मंदिर में पूजा करने वाले हारते ज़्यादा हैं जीतते बहुत कम हैं। महालक्ष्मी स्टेशन के उस पार एक बहुत बड़ी बदरू है जो इंसानी जिस्मों की ग़लाज़त को अपने मुतअफ़्फ़िन पानियों में घोलती हुई शह्र से बाहर चली जाती है।
मंदिर में इंसान के दिल की ग़लाज़त धुलती है और उस बदरू में इंसान के जिस्म की ग़लाज़त और इन दोनों के बीच में महालक्ष्मी का पुल है। महालक्ष्मी के पुल के ऊपर बाएँ तरफ़ लोहे के जंगले पर छः साड़ियाँ लहरा रही हैं। पुल पर इस तरह हमेशा उस मक़ाम पर चंद साड़ियाँ लहराती रहती हैं। ये साड़ियाँ कोई बहुत क़ीमती नहीं हैं। उनके पहनने वाले भी कोई बहुत ज़्यादा क़ीमती नहीं हैं। ये लोग हर रोज़ उन साड़ियों को धो कर सूखने के लिए डाल देते हैं और रेलवे लाईन के आर पार जाते हुए लोग, महालक्ष्मी स्टेशन पर गाड़ी का इंतिज़ार करते हुए लोग, गाड़ी की खिड़की और दरवाज़ों से झांक कर बाहर देखने वाले लोग अक्सर उन साड़ियों को हवा में झूलता हुआ देखते हैं।

वो उनके मुख़्तलिफ़ रंग देखते हैं। भूरा, गहरा भूरा, मटमैला नीला, क़िरमज़ी भूरा, गंदा सुर्ख़ किनारा गहरा नीला और लाल, वो लोग अक्सर उन्ही रंगों को फ़िज़ा में फैले हुए देखते हैं। एक लम्हे के लिए। दूसरे लम्हे में गाड़ी पुल के नीचे से गुज़र जाती है।
उन साड़ियों के रंग अब जाज़िब-ए-नज़र नहीं रहे। किसी ज़माने में मुम्किन है जब ये नई ख़रीदी गई हों, उनके रंग ख़ूबसूरत और चमकते हुए हों, मगर अब नहीं हैं। मुतवातिर धोए जाने से उनके रंगों की आब-ओ-ताब मर चुकी है और अब ये साड़ियाँ अपने फीके सीठे रोज़मर्रा के अंदाज़ को लिए बड़ी बे-दिली से जंगले पर पड़ी नज़र आती हैं। [...]

आह-ए-बेकस

Shayari By

मुंशी राम सेवक भवें चढ़ाए हुए घर से निकले और बोले, ऐसी ज़िंदगी से तो मौत बेहतर।
मौत की दस्त दराज़ियों का सारा ज़माना शाकी है। अगर इन्सान का बस चलता तो मौत का वुजूद ही न रहता, मगर फ़िलवाक़े मौत को जितनी दावतें दी जाती हैं उन्हें क़ुबूल करने की फ़ुर्सत ही नहीं। अगर उसे इतनी फ़ुर्सत होती तो आज ज़माना वीरान नज़र आता।

मुंशी राम सेवक मौज़ा चांद-पुर के एक मुमताज़ रईस थे और रुअसा के औसाफ़-ए-हमीदा से बहरावर वसीला मआश इतना ही वसीअ था जितनी इन्सान की हिमाक़तें और कमज़ोरियाँ यही उनकी इमलाक और मौरूसी जायदाद थी। वो रोज़ अदालत मुंसफ़ी के अहाते में नीम के दरख़्त के नीचे काग़ज़ात का बस्ता खोले एक शिकस्ता हाल चौकी पर बैठे नज़र आते थे और गो उन्हें किसी ने इजलास में क़ानूनी बहस या मुक़द्दमे की पैरवी करते नहीं देखा, मगर उर्फ़-ए-आम में वो मुख़्तार साहब मशहूर थे। तूफ़ान आए, पानी बरसे, ओले गिरें। मगर मुख़्तार साहब किसी नामुराद दिल की तरह वहीं जमे रहते थे। वो कचहरी चलते थे तो दहक़ानियों का एक जुलूस सा नज़र आता। चारों तरफ़ से उन पर अक़ीदत व एहतराम की निगाहें पड़तीं और अतराफ़ में मशहूर था कि उनकी ज़बान पर सरस्वती हैं।
उसे वकालत कहो या मुख़्तार कारी मगर ये सिर्फ़ ख़ानदानी या एज़ाज़ी पेशा था। आमदनी की सूरतें यहां मफ़क़ूद थीं। नुक़रई सिक्कों का तो ज़िक्र ही क्या कभी कभी मिसी सिक्के भी आज़ादी से आने में तअम्मुल करते थे। [...]

Don't have an account? Sign up

Forgot your password?

Error message here!

Error message here!

Hide Error message here!

Error message here!

OR
OR

Lost your password? Please enter your email address. You will receive a link to create a new password.

Error message here!

Back to log-in

Close