पहला दिन

Shayari By

आज नई हीरोइन की शूटिंग का पहला दिन था।
मेक-अप रुम में नई हीरोइन सुर्ख़ मख़मल के गद्दे वाले ख़ूबसूरत स्टूल पर बैठी थी और हेड मेक-अप मैन उसके चेहरे का मेक-अप कर रहा था। एक असिस्टेंट उसके दाएँ बाज़ू का मेक-अप कर रहा था, दूसरा असिस्टेंट उसके बाएँ बाज़ू का। तीसरा असिस्टेंट नई हीरोइन के पाँव की आराइश में मसरूफ़ था, एक हेयर ड्रेसर औरत नई हीरोइन के बालों को हौले-हौले खोलने में मसरूफ़ थी। सामने सिंगार मेज़ पर पैरिस, लंदन और हॉलीवुड का सामान-ए-आराइश बिखरा हुआ था।

एक वक़्त वो था जब इस हीरोइन को एक मामूली जापानी लिपस्टिक के लिए हफ़्तों अपने शौहर से लड़ना पड़ता था उस वक़्त उस का शौहर मदन इसी मेक-अप रुम के एक कोने में बैठा हुआ ख़ामोशी से यही सोच-सोच कर मुस्कुरा रहा था कैसी मुश्किल ज़िंदगी थी उन दिनों की...
आज से तीन साल पहले मदन दिल्ली में क्लर्क था। थर्ड डिवीज़न क्लर्क और एक सौ साठ रुपय तनख़्वाह पाता था। नादारी और ग़ुर्बत की ज़िंदगी थी। कोट का कालर फटा है, तो कभी क़मीज़ की आसतीन, तो कभी ब्लाउज़ की पुश्त। आगे-पीछे जिधर से वो दिल्ली की ज़िंदगी को देखता था, उसे वो ज़िंदगी कटी-फटी बोसीदा और तार-तार नज़र आती है। ऐसी ज़िंदगी जिसमें कोई आसमान नहीं होता, कोई फूल नहीं होता, कोई मुस्कुराहट नहीं होती, एक नीम फ़ाक़ा-ज़दा झल्लाई, खिसियाई हुई ज़िंदगी जो एक पुरानी, बदबूदार तिरपाल की तरह दिनों, महीनों और सालों के खूँटों से बंधी हुई हर वक़्त एहसास पर छाई रहती है। मदन इस ज़िंदगी के हर खूंटे को तोड़ देना चाहता था और किसी मौके़ की तलाश में था। [...]

पहला दिन

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आज नई हीरोइन की शूटिंग का पहला दिन था
मेक-अप रुम में नई हीरोइन सुर्ख़ मख़मल के गद्दे वाले ख़ूबसूरत स्टूल पर बैठी थी और हेड मेक-अप मैन उसके चेहरे का मेक-अप कर रहा था। एक असिस्टेंट उसके दाएँ बाज़ू का मेक-अप कर रहा था, दूसरा असिस्टेंट उसके बाएँ बाज़ू का। तीसरा असिस्टेंट नई हीरोइन के पाँव की आराइश में मसरूफ़ था, एक हेयर ड्रेसर औरत नई हीरोइन के बालों को हौले-हौले खोलने में मसरूफ़ थी। सामने सिंगार मेज़ पर पैरिस, लंदन और हॉलीवुड का सामान-ए-आराइश बिखरा हुआ था।

एक वक़्त वो था जब इस हीरोइन को एक मामूली जापानी लिपस्टिक के लिए हफ़्तों अपने शौहर से लड़ना पड़ता था उस वक़्त उस का शौहर मदन इसी मेक-अप रुम के एक कोने में बैठा हुआ ख़ामोशी से यही सोच-सोच कर मुस्कुरा रहा था कैसी मुश्किल ज़िंदगी थी उन दिनों की...
आज से तीन साल पहले मदन दिल्ली में क्लर्क था। थर्ड डिवीज़न क्लर्क और एक सौ साठ रुपय तनख़्वाह पाता था। नादारी और ग़ुर्बत की ज़िंदगी थी। कोट का कालर फटा है, तो कभी क़मीज़ की आसतीन, तो कभी ब्लाउज़ की पुश्त। आगे-पीछे जिधर से वो दिल्ली की ज़िंदगी को देखता था, उसे वो ज़िंदगी कटी-फटी बोसीदा और तार-तार नज़र आती है। ऐसी ज़िंदगी जिसमें कोई आसमान नहीं होता, कोई फूल नहीं होता, कोई मुस्कुराहट नहीं होती, एक नीम फ़ाक़ा-ज़दा झल्लाई, खिसियाई हुई ज़िंदगी जो एक पुरानी, बदबूदार तिरपाल की तरह दिनों, महीनों और सालों के खूँटों से बंधी हुई हर वक़्त एहसास पर छाई रहती है। मदन इस ज़िंदगी के हर खूंटे को तोड़ देना चाहता था और किसी मौके़ की तलाश में था। [...]

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