नवाब सलीमुल्लाह ख़ान

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नवाब सलीमुल्लाह ख़ां बड़े ठाट के आदमी थे। अपने शहर में उनका शुमार बहुत बड़े रईसों में होता था। मगर वो ओबाश नहीं थे, ना ऐश-परस्त। बड़ी ख़ामोश और संजीदा ज़िंदगी बसर करते थे। गिनती के चंद आदमियों से मिलना और बस वो भी जो उनकी पसंद के हैं।
दावतें आम होती थीं। शराब के दौर भी चलते थे, मगर हद-ए-एतिदाल तक। वो ज़िंदगी के हर शोबे में एतिदाल के क़ाइल थे।

उनकी उम्र पचपन बरस के लगभग थी। जब वो चालीस बरस के थे तो उनकी बीवी दिल के आरिज़े के बाइस इंतिक़ाल कर गई, उनको बहुत सदमा हुआ। मगर मशियत-ए-एज़दी को यही मंज़ूर था। चुनांचे इस सदमे को बर्दाश्त कर लिया।
उनके औलाद नहीं हुई थी... इसलिए वो बिल्कुल अकेले थे... बहुत बड़ी कोठी जिसमें वो रहते थे। चार नौकर थे जो उनकी आसाइश का ख़याल रखते और मेहमानों की तवाज़ो करते। अपनी बीवी की वफ़ात के पंद्रह बरस बाद अचानक उनका दिल अपने वतन से उचाट होगया। उन्होंने अपने चहेते मुलाज़िम मुअज़्ज़म अली को बुलाया और उससे कहा, “देखो, कोई ऐसा एजेंट तलाश करो जो सारी जायदाद मुनासिब दामों पर बिकवा दे।” [...]

शेर आया शेर आया दौड़ना

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ऊंचे टीले पर गडरिए का लड़का खड़ा, दूर घने जंगलों की तरफ़ मुँह किए चिल्ला रहा था, “शेर आया, शेर आया दौड़ना।” बहुत देर तक वो अपना गला फाड़ता रहा। उसकी जवाँ बलंद आवाज़ बहुत देर तक फ़िज़ाओं में गूंजती रही। जब चिल्ला चिल्ला कर उसका हलक़ सूख गया तो बस्ती से दो तीन बुढ्ढे लाठियां टेकते हुए आए और गडरिए के लड़के को कान से पकड़ कर ले गए।
पंचायत बुलाई गई। बस्ती के सारे अ’क़्लमंद जमा हुए और गडरिए के लड़के का मुक़द्दमा शुरू हुआ। फ़र्द-ए-जुर्म ये थी कि उसने ग़लत ख़बर दी और बस्ती के अमन में ख़लल डाला।

लड़के ने कहा, “मेरे बुज़र्ग़ो, तुम ग़लत समझते हो, शेर आया नहीं था लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि वो आ नहीं सकता?”
जवाब मिला, “वो नहीं आ सकता।” [...]

देख कबीरा रोया

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नगर नगर ढिंडोरा पीटा गया कि जो आदमी भीक मांगेगा उसको गिरफ़्तार कर लिया जाये। गिरफ्तारियां शुरू हुईं। लोग ख़ुशियां मनाने लगे कि एक बहुत पुरानी ला’नत दूर हो गई।
कबीर ने ये देखा तो उसकी आँखों में आँसू आ गए। लोगों ने पूछा, “ए जूलाहे तू क्यों रोता है?”

कबीर ने रो कर कहा, “कपड़ा दो चीज़ों से बनता है, ताने और पेटे से। गिरफ़्तारियों का ताना तो शुरू हो गया पर पेट भरने का पेटा कहाँ है?”
एक एम.ए, एल.एल.बी को दो सौ खडियाँ अलॉट हो गईं। कबीर ने ये देखा तो उसकी आँखों में आँसू आगए। एम.ए, एल.एल.बी ने पूछा, “ए जूलाहे के बच्चे तू क्यों रोता है? क्या इसलिए कि मैंने तेरा हक़ ग़स्ब कर लिया है?” [...]

मातमी जलसा

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रात रात में ये ख़बर शहर के इस कोने से उस कोने तक फैल गई कि अतातुर्क कमाल मर गया है। रेडियो की थरथराती हुई ज़बान से ये सनसनी फैलाने वाली ख़बर ईरानी होटलों में सट्टेबाज़ों ने सुनी जो चाय की प्यालियां सामने रखे आने वाले नंबर के बारे में क़ियास दौड़ा रहे थे और वो सब कुछ भूल कर कमाल अतातुर्क की बड़ाई में गुम हो गए।
होटल में सफ़ेद पत्थर वाले मेज़ के पास बैठे हुए एक सटोरी ने अपने साथी से ये ख़बर सुन कर लर्ज़ां आवाज़ में कहा, “मुस्तफ़ा कमाल मर गया!”

उसके साथी के हाथ से चाय की प्याली गिरते गिरते बची, “क्या कहा, मुस्तफ़ा कमाल मर गया!”
इस के बाद दोनों में अतातुर्क कमाल के मुतअ’ल्लिक़ बात-चीत शुरू हो गई। एक ने दूसरे से कहा, “बड़े अफ़सोस की बात है, अब हिंदुस्तान का क्या होगा? मैंने सुना था ये मुस्तफ़ा कमाल यहां पर हमला करने वाला है... हम आज़ाद हो जाते, मुसलमान क़ौम आगे बढ़ जाती, अफ़सोस तक़दीर के साथ किसी की पेश नहीं चलती!” [...]

चोरी

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स्कूल के तीन चार लड़के अलाव के गिर्द हलक़ा बना कर बैठ गए और उस बूढ़े आदमी से जो टाट पर बैठा अपने उस्तख़्वानी हाथ तापने की ख़ातिर अलाव की तरफ़ बढ़ाए था, कहने लगे, “बाबा जी, कोई कहानी सुनाईए?”
मर्द-ए-मुअ’म्मर ने जो ग़ालिबन किसी गहरी सोच में ग़र्क़ था, अपना भारी सर उठाया जो गर्दन की लाग़री की वजह से नीचे को झुका हुआ था। “कहानी!... मैं ख़ुद एक कहानी हूँ मगर... इसके बाद के अलफ़ाज़ उसने अपने पोपले मुँह ही में बड़बड़ाए... शायद वो इस जुमले को लड़कों के सामने अदा करना नहीं चाहता था जिनकी समझ इस क़ाबिल न थी कि वो फ़लसफ़ियाना निकात हल कर सके।

लकड़ी के टुकड़े एक शोर के साथ जल जल कर आतिशीं शिकम को पुर कर रहे थे। शोलों की उन्नाबी रोशनी लड़कों के मासूम चेहरों पर एक अ’जीब अंदाज़ में रक़्स कर रही थी। नन्ही नन्ही चिनगारियां सपेद राख की नक़ाब उलट उलट कर हैरत में सर बलंद शोलों का मुँह तक रही थीं।
बूढ़े आदमी ने अलाव की रोशनी में से लड़कों की तरफ़ निगाहें उठा कर कहा, “कहानी... हर रोज़ कहानी!... कल सुनाऊंगा।” [...]

खुदकुशी का इक़दाम

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इक़बाल के ख़िलाफ़ ये इल्ज़ाम था कि उसने अपनी जान को अपने हाथों हलाक करने की कोशिश की, गो वो इसमें नाकाम रहा। जब वो अदालत में पहली मर्तबा पेश किया गया तो उसका चेहरा हल्दी की तरह ज़र्द था। ऐसा मालूम होता था कि मौत से मुडभेड़ होते वक़्त उसकी रगों में तमाम ख़ून ख़ुश्क हो कर रह गया है जिसकी वजह से उसकी तमाम ताक़त सल्ब हो गई है।
इक़बाल की उम्र बीस-बाईस बरस के क़रीब होगी मगर मुरझाए हुए चेहरे पर खूंडी हुई ज़र्दी ने उसकी उम्र में दस साल का इज़ाफ़ा कर दिया था और जब वो अपनी कमर के पीछे हाथ रखता तो ऐसा मालूम होता कि वो वाक़ई बूढ़ा है। सुना गया है कि जब शबाब के ऐवान में ग़ुर्बत दाख़िल होती है तो ताज़गी भाग जाया करती है। उसके फटे पुराने और मैले कुचैले कपड़ों से ये अयाँ था कि वो ग़ुर्बत का शिकार है और ग़ालिबन हद से बढ़ी हुई मुफ़लिसी ही ने उसे अपनी प्यारी जान को हलाक करने पर मजबूर किया था।

उसका क़द काफ़ी लंबा था जो काँधों पर ज़रा आगे की तरफ़ झुका हुआ था। इस झुकाओ में उसके वज़नी सर को भी दख़ल था जिस पर सख़्त और मोटे बाल, जेलख़ाने के स्याह और खुरदरे कम्बल का नमूना पेश कर रहे थे। आँखें अंदर को धंसी हुई थीं जो बहुत गहरी और अथाह मालूम होती थीं।
झुकी हुई निगाहों से ये पता चलता था कि वो अदालत के संगीन फ़र्श की मौजूदगी को ग़ैर यक़ीनी समझ रहा है और ये मानने से इनकार कर रहा है कि वो ज़िंदा है। नाक पतली और तीखी, उसके माथे पर थोड़ा सा चिकना मैल जमा हुआ था जिसको देख कर ज़ंग-आलूद तलवार का तसव्वुर आँखों में फिर जाता था। पतले पतले होंट जो किनारों पर एक लकीर बन कर रह गए थे, आपस में सिले हुए मालूम होते थे। शायद उसने उनको इसलिए भींच रखा था कि वो अपने सीने की आग और धुएं को बाहर निकालना नहीं चाहता था। [...]

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