हामिद का बच्चा

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लाहौर से बाबू हरगोपाल आए तो हामिद घर का रहा न घाट का। उन्होंने आते ही हामिद से कहा, “लो, भई फ़ौरन एक टैक्सी का बंदोबस्त करो।”
हामिद ने कहा, “आप ज़रा तो आराम कर लीजिए। इतना लंबा सफ़र तय करके यहां आए हैं। थकावट होगी।”

बाबू हरगोपाल अपनी धुन के पक्के थे, “नहीं भाई मुझे थकावट-वकावट कुछ नहीं। मैं यहां सैर की ग़रज़ से आया हूँ। आराम करने नहीं आया। बड़ी मुश्किल से दस दिन निकाले हैं। ये दस दिन तुम मेरे हो। जो मैं कहूंगा तुम्हें मानना होगा। मैं अब के अय्याशी की इंतिहा करदेना चाहता हूँ... सोडा मँगवाओ।”
हामिद ने बहुत मना किया कि देखिए बाबू हरगोपाल सुबह-सवेरे मत शुरू कीजिए मगर वो न माने। बक्स खोल कर जॉनी वॉकर की बोतल निकाली और उसे खोलना शुरू कर दिया। [...]

सितारों से आगे

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करतार सिंह ने ऊंची आवाज़ में एक और गीत गाना शुरू कर दिया। वो बहुत देर से माहिया अलाप रहा था जिसको सुनते सुनते हमीदा करतार सिंह की पंकज जैसी तानों से, उसकी ख़ूबसूरत दाढ़ी से, सारी काइनात से अब इस शिद्दत के साथ बेज़ार हो चुकी थी कि उसे ख़ौफ़ हो चला था कि कहीं वो सचमुच इस ख़्वाह मख़्वाह की नफ़रत-व-बेज़ारी का ऐलान न कर बैठे और कामरेड करतार ऐसा स्वीट है फ़ौरन बुरा मान जाएगा। आज के बीच में अगर वो शामिल न होता तो बाक़ी के साथी तो इस क़दर संजीदगी के मूड में थे कि हमीदा ज़िंदगी से उकता कर ख़ुदकुशी कर जाती। करतार सिंह गुड्डू ग्रामोफोन तक साथ उठा लाया था। मलिका पुखराज का एक रिकार्ड तो कैंप ही में टूट चुका था, लेकिन ख़ैर।
हमीदा अपनी सुर्ख़ किनारे वाली सारी के आंचल को शानों के गिर्द बहुत एहतियात से लपेट कर ज़रा और ऊपर को हो के बैठ गई जैसे कॉमरेड करतार सिंह के माहिया को बेहद दिलचस्पी से सुन रही है लेकिन न मालूम कैसी उल्टी पलटी उलझी उलझी बे-तुकी बातें उस वक़्त उसके दिमाग़ में घुसी आ रही थीं। वो जाग सोज़-ए-इश्क़ जाग वाला बेचारा रिकार्ड शकुंतला ने तोड़ दिया था।

ओफ्फोह भई। बैलगाड़ी के हिचकोलों से उसके सर में हल्का हल्का दर्द होने लगा और अभी कितने बहुत से काम करने को पड़े थे। पूरे गाँव को हैजे़ के टीके लगाने को पड़े थे। तौबा! कामरेड सबीहुद्दीन के घूंगरियाले बालों के सर के नीचे रखे हुए दवाओं के बक्स में से निकल के दवाओं की तेज़ बू सीधी उसके दिमाग़ में पहुँच रही थी और उसे मुस्तक़िल तौर पर याद दिलाए जा रही थी कि ज़िंदगी वाक़ई बहुत तल्ख़ और नागवार है एक घिसा हुआ, बेकार और फ़ालतू सा रिकार्ड जिसमें से सूई की ठेस लगते ही वही मद्धम और लरज़ती हुई तानें बुलंद हो जाती थीं जो नग़्मे की लहरों में क़ैद रहते रहते दिखा चुकी थीं। अगर इस रिकार्ड को, जो मुद्दतों से रेडियो ग्राम के निचले ख़ाने में ताज़ा तरीन एलबम के नीचे दबा पड़ा था, ज़ोर से ज़मीन पर पटख़ दिया जाता तो हमीदा ख़ुशी से नाच उठी। कितनी बहुत सी ऐसी चीज़ें थीं जो वो चाहती थी कि दुनिया में न होतीं तो कैसा मज़ा रहता और उस वक़्त तो ऐसा लगा जैसे सचमुच उसने i dream i dwell in marble halls. वाले घिसे हुए रिकार्ड को फ़र्श पर पटख़ के टुकड़े टुकड़े कर दिया है और झुक कर उसकी किरचें चुनते हुए उसे बहुत ही लुत्फ़ आ रहा है। उन्नाबी मुज़ैक के इस फ़र्श पर, जिस पर एक दफ़ा एक हल्के फुल्के 'fox tort' में बहते हुए उसने सोचा था कि बस ज़िंदगी सिमट सिमटा के इस चमकीली सतह, उन ज़र्द पर्दों की रुमान आफ़रीन सलवटों और दीवारों में से झाँकती हुई इन मद्धम बर्क़ी रोशनियों के ख़्वाब-आवर धुँन्द्धलके में समा गई है, ये तपिश अंगेज़ जाज़ यूँ ही बजता रहेगा, अंधेरे कोनों में रखे हुए स्याही माइल सब्ज़ फ़र्न की डालियाँ हवा के हल्के हल्के झोंकों में इस तरह हिचकोले खाती रहेंगी और रेडियोग्राम पर हमेशा पोलका और रम्बा के नए नए रिकार्ड लगते जाएँगे। ये थोड़ा ही मुम्किन है कि जो बातें उसे क़तई पसंद नहीं वो बस होती ही चली जाएँ, रिकार्ड घिसते जाएँ और टूटते जाएँ। लेकिन ये रेकॉर्डों का फ़लसफ़ा किया है आख़िर? हमीदा को हंसी आ गई। उसने जल्दी से करतार सिंह की तरफ़ देखा। कहीं वो ये न समझ ले कि वो उसके गाने पर हंस रही है।
कामरेड करतार गाए जा रहा था। वस वस वे ढोलना उफ़! ये पंजाबी के बा'ज़ अलफ़ाज़ किस क़दर भोंडे होते हैं। हमीदा एक ही तरीक़े से बैठे बैठे देखा के बाँस के सहारे आगे की तरफ़ झुक गई। बहती हुई हवा में उसका सुर्ख़ आंचल फटफटाए जा रहा था। [...]

जानकी

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पूना में रेसों का मौसम शुरू होने वाला था कि पेशावर से अ’ज़ीज़ ने लिखा कि मैं अपनी एक जान पहचान की औरत जानकी को तुम्हारे पास भेज रहा हूँ, उसको या तो पूना में या बंबई में किसी फ़िल्म कंपनी में मुलाज़मत करा दो। तुम्हारी वाक़फ़ियत काफ़ी है, उम्मीद है तुम्हें ज़्यादा दिक़्क़त नहीं होगी।
वक़्त का तो इतना ज़्यादा सवाल नहीं था लेकिन मुसीबत ये थी कि मैंने ऐसा काम कभी किया ही नहीं था। फ़िल्म कंपनियों में अक्सर वही आदमी औरतें लेकर आते हैं जिन्हें उनकी कमाई खानी होती है। ज़ाहिर है कि मैं बहुत घबराया लेकिन फिर मैंने सोचा, अ’ज़ीज़ इतना पुराना दोस्त है, जाने किस यक़ीन के साथ भेजा है, उसको मायूस नहीं करना चाहिए।

ये सोच कर भी एक गो न तस्कीन हुई कि औरत के लिए, अगर वो जवान हो, हर फ़िल्म कंपनी के दरवाज़े खुले हैं। इतनी तरद्दुद की बात ही क्या है, मेरी मदद के बग़ैर ही उसे किसी न किसी फ़िल्म कंपनी में जगह मिल जाएगी।
ख़त मिलने के चौथे रोज़ वो पूना पहुंच गई। कितना लंबा सफ़र तय करके आई थी, पेशावर से बंबई और बंबई से पूना। प्लेटफार्म पर चूँकि उसको मुझे पहचानना था, इसलिए गाड़ी आने पर मैंने एक सिरे से डिब्बों के पास से गुज़रना शुरू किया। मुझे ज़्यादा दूर न चलना पड़ा क्योंकि सेकंड क्लास के डिब्बे से एक मुतवस्सित क़द की औरत जिसके हाथ में मेरी तस्वीर थी उतरी। [...]

आख़िरी सल्यूट

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ये कश्मीर की लड़ाई भी अजीब-ओ-ग़रीब थी। सूबेदार रब नवाज़ का दिमाग़ ऐसी बंदूक़ बन गया था। जंग का घोड़ा ख़राब हो गया हो।
पिछली बड़ी जंग में वो कई महाज़ों पर लड़ चुका था। मारना और मरना जानता था। छोटे बड़े अफ़सरों की नज़रों में उसकी बड़ी तौक़ीर थी, इसलिए कि वो बड़ा बहादुर, निडर और समझदार सिपाही था। प्लाटून कमांडर मुश्किल काम हमेशा उसे ही सौंपते थे और वो उनसे ओह्दा बरआ होता था। मगर इस लड़ाई का ढंग ही निराला था।

दिल में बड़ा वलवला, बड़ा जोश था। भूक-प्यास से बेपर्वा सिर्फ़ एक ही लगन थी, दुश्मन का सफ़ाया कर देने की, मगर जब उससे सामना होता, तो जानी-पहचानी सूरतें नज़र आतीं। बा'ज़ दोस्त दिखाई देते, बड़े बग़ली क़िस्म के दोस्त, जो पिछली लड़ाई में उसके दोश बदोश, इत्तिहादियों के दुश्मनों से लड़े थे, पर अब जान के प्यासे बने हुए थे।
सूबेदार रब नवाज़ सोचता था कि ये सब ख़्वाब तो नहीं। पिछली बड़ी जंग का ऐलान। भर्ती, क़दर आवर छातियों की पैमाइश, पी टी, चांद मारी और फिर महाज़। उधर से इधर, इधर से उधर, आख़िर जंग का ख़ातमा। [...]

संतर पन्च

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मैं लाहौर के एक स्टूडियो में मुलाज़िम हुआ, जिसका मालिक मेरा बम्बई का दोस्त था। उसने मेरा इस्तक़बाल किया, मैं उसकी गाड़ी में स्टूडियो पहुंचा था। बग़लगीर होने के बाद उसने अपनी शराफ़त भरी मूंछों को जो ग़ालिबन कई दिनों से नातराशीदा थीं, थिरका कर कहा,“क्यों ख़्वाजा! छोड़ दी?”
मैंने जवाब दिया,“छोड़नी पड़ी।”

स्टूडियो का मालिक जो अच्छा फ़िल्म डायरेक्टर भी है (मैं उसे सहूलत की ख़ातिर गीलानी कहूंगा) मुझे अपने ख़ास कमरे में ले गया, इधर उधर की बेशुमार बातें करने के बाद उसने चाय मंगवाई जो निहायत ज़लील थी, ज़बरदस्ती पिलाई, कई सिगरेट इस दौरान ख़ुद फूंके और मुझ से फूंकवाए।
मुझे एक ज़रूरी काम से जाना था, चुनांचे मैंने उससे कहा, “यार, छोड़ो अब चाय की बकवास को, मुझे ये बताओ कि तुमने आज इतने बरसों के बाद कैसे याद कर लिया?” [...]

जान मोहम्मद

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मेरे दोस्त जान मुहम्मद ने, जब मैं बीमार था मेरी बड़ी ख़िदमत की। मैं तीन महीने हस्पताल में रहा। इस दौरान में वो बाक़ायदा शाम को आता रहा बा’ज़ औक़ात जब मेरे नौकर अ’लील होते तो वो रात को भी वहीं ठहरता ताकि मेरी ख़बरगीरी में कोई कोताही न हो।
जान मुहम्मद बहुत मुख़लिस दोस्त है। मैं क़रीब क़रीब बीस रोज़ तक बेहोश रहा था, उस दौरान में वो आता... लेकिन मुझे इसका इ’ल्म नहीं था। जब मुझे होश आया तो मालूम हुआ कि वो बहुत परेशान था, रोता भी था इसलिए कि मेरी हालत बहुत नाज़ुक थी।

जब मैं इस क़ाबिल हो गया कि बातचीत कर सकूं तो उसने मुझसे पूछा, “आपको थकावट तो महसूस नहीं होती।” मेरे आ’ज़ा बिल्कुल मफ़लूज हो चुके थे। मालूम नहीं कितनी देर हो गई थी मुझे बिस्तर पर पड़े हुए। मैंने उससे कहा, “जान मुहम्मद, मेरा अंग अंग दुखता है।”
उसने फ़ौरन मेरी बीवी से कहा, “कल ज़ैतून का तेल मंगवा दीजिए। मैं सुबह आ के मालिश कर दिया करूंगा।” [...]

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