बिजली पहलवान

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बिजली पहलवान के मुतअ’ल्लिक़ बहुत से क़िस्से मशहूर हैं। कहते हैं कि वो बर्क़-रफ़्तार था। बिजली की मानिंद अपने दुश्मनों पर गिरता था और उन्हें भस्म कर देता था, लेकिन जब मैंने उसे मुग़ल बाज़ार में देखा तो वो मुझे बेज़रर कद्दू के मानिंद नज़र आया। बड़ा फुसफुस सा, तोंद बाहर निकली हुई, बंद बंद ढीले, गाल लटके हुए, अलबत्ता उसका रंग सुर्ख़-ओ-सफ़ेद था।
वो मुग़ल बाज़ार में एक बज़्ज़ाज़ की दुकान पर आलती पालती मारे बैठा था। मैंने उसको ग़ौर से देखा, मुझे उसमें कोई गुंडापन नज़र न आया, हालाँकि उसके मुतअ’ल्लिक़ मशहूर यही था कि हिंदुओं का वो सबसे बड़ा गुंडा है।

वो गुंडा हो ही नहीं सकता था, इसलिए कि उसके ख़द्द-ओ-ख़ाल उसकी नफ़ी करते थे। मैं थोड़ी देर सामने वाली किताबों की दुकान के पास खड़ा उसको देखता रहा। इतने में एक मुसलमान औरत जो बड़ी मुफ़लिस दिखाई देती थी, बज़्ज़ाज़ की दुकान के पास पहुंची। बिजली पहलवान से उसने कहा, “मुझे बिजली पहलवान से मिलना है”
बिजली पहलवान ने हाथ जोड़ कर उसे परनाम किया, “माता, मैं ही बिजली पहलवान हूँ।” [...]

क़ादिरा क़साई

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ईदन बाई आगरे वाली छोटी ईद को पैदा हुई थी, यही वजह है कि उसकी माँ ज़ुहरा जान ने उसका नाम इसी मुनासिबत से ईदन रखा। ज़ुहरा जान अपने वक़्त की बहुत मशहूर गाने वाली थी, बड़ी दूर दूर से रईस उसका मुजरा सुनने के लिए आते थे।
कहा जाता है कि मेरठ के एक ताजिर अब्दुल्लाह से जो लाखों में खेलता था, उसे मुहब्बत हो गई, उस ने चुनांचे इसी जज़्बे के मातहत अपना पेशा छोड़ दिया। अब्दुल्लाह बहुत मुतअस्सिर हुआ और उस की माहवार तनख़्वाह मुक़र्रर कर दी,कोई तीन सौ के क़रीब। हफ़्ते में तीन मर्तबा उसके पास आता, रात ठहरता, सुबह सवेरे वहाँ से रवाना हो जाता।

जो शख़्स ज़ुहरा जान को जानते हैं और आगरे के रहने वाले हैं उनका ये बयान है कि उसका चाहने वाला एक बढ़ई था मगर वो उसे मुँह नहीं लगाती थी। वो बेचारा ज़रूरत से ज़्यादा मेहनत-ओ-मशक़्क़त करता और तीन चार महीने के बाद रुपये जमा कर के ज़ुहरा जान के पास जाता मगर वो उसे धुतकार देती।
आख़िर एक रोज़ उस बढ़ई को ज़ुहरा जान से मुफ़स्सल गुफ़्तुगू करने का मौक़ा मिल ही गया। पहले तो वो कोई बात न कर सका, इसलिए कि उस पर अपनी महबूबा के हुस्न का रो’ब तारी था लेकिन उसने थोड़ी देर के बाद जुरअत से काम लिया और उससे कहा, “ज़ुहरा जान, मैं ग़रीब आदमी हूँ, मुझे मालूम है कि बड़े बड़े धन वाले तुम्हारे पास आते हैं और तुम्हारी हर अदा पर सैंकड़ों रुपये निछावर करते हैं लेकिन तुम्हें शायद ये बात मालूम नहीं कि ग़रीब की मुहब्बत धन दौलत वालों के लाखों रूपयों से बड़ी होती है। मैं तुमसे मुहब्बत करता हूँ, मालूम नहीं क्यों?” [...]

रिश्वत

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अहमद दीन खाते पीते आदमी का लड़का था। अपने हम उम्र लड़कों में सबसे ज़्यादा ख़ुशपोश माना जाता था, लेकिन एक वक़्त ऐसा भी आया कि वो बिल्कुल ख़स्ता हाल हो गया।
उसने बी.ए किया और अच्छी पोज़ीशन हासिल की। वो बहुत ख़ुश था, उस के वालिद ख़ान बहादुर अताउल्लाह का इरादा था कि उसे आला ता’लीम के लिए विलायत भेजेंगे। पासपोर्ट ले लिया गया था, सूट वग़ैरा भी बनवा लिए गए थे कि अचानक ख़ान बहादुर अताउल्लाह ने जो बहुत शरीफ़ आदमी थे, किसी दोस्त के कहने पर सट्टा खेलना शुरू कर दिया।

शुरू में उन्हें इस खेल में काफ़ी मुनाफ़ा हुआ। वो ख़ुश थे कि चलो मेरे बेटे की आला ता’लीम का ख़र्च ही निकल आया, मगर लालच बुरी बला है। उन्होंने ये समझा कि उनकी पुश्त पर चौगुनी है, जीतते ही चले जाऐंगे।
उनका वो दोस्त जिसने उनको इस रास्ते पर लगाया था बार बार उनसे कहता था,“ख़ान साहब, माशा-अल्लाह आप क़िस्मत के धनी हैं, मिट्टी में भी हाथ डालें तो सोना बन जाये।” [...]

चोरी

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स्कूल के तीन चार लड़के अलाव के गिर्द हलक़ा बना कर बैठ गए और उस बूढ़े आदमी से जो टाट पर बैठा अपने उस्तख़्वानी हाथ तापने की ख़ातिर अलाव की तरफ़ बढ़ाए था, कहने लगे, “बाबा जी, कोई कहानी सुनाईए?”
मर्द-ए-मुअ’म्मर ने जो ग़ालिबन किसी गहरी सोच में ग़र्क़ था, अपना भारी सर उठाया जो गर्दन की लाग़री की वजह से नीचे को झुका हुआ था। “कहानी!... मैं ख़ुद एक कहानी हूँ मगर... इसके बाद के अलफ़ाज़ उसने अपने पोपले मुँह ही में बड़बड़ाए... शायद वो इस जुमले को लड़कों के सामने अदा करना नहीं चाहता था जिनकी समझ इस क़ाबिल न थी कि वो फ़लसफ़ियाना निकात हल कर सके।

लकड़ी के टुकड़े एक शोर के साथ जल जल कर आतिशीं शिकम को पुर कर रहे थे। शोलों की उन्नाबी रोशनी लड़कों के मासूम चेहरों पर एक अ’जीब अंदाज़ में रक़्स कर रही थी। नन्ही नन्ही चिनगारियां सपेद राख की नक़ाब उलट उलट कर हैरत में सर बलंद शोलों का मुँह तक रही थीं।
बूढ़े आदमी ने अलाव की रोशनी में से लड़कों की तरफ़ निगाहें उठा कर कहा, “कहानी... हर रोज़ कहानी!... कल सुनाऊंगा।” [...]

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