कीमिया-गर

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हकीम मसीह तुर्किस्तान से अपनी बूढ़ी माँ को साथ ले कर हिन्दुस्तान आए थे, दिल्ली पहुंचे तो उन्हें हुक्म मिला कि जौनपुर की तरफ़ कुछ और नौ-वारिद तुर्की ख़ानदानों के साथ एक बड़े गांव में जिसका ख़ालिदपुर नाम रखा गया था, मुसलमान आबादी की बुनियाद डाली। हकीम मसीह ने हुक्म की तामील की और ख़ालिदपुर में जा बसे। रफ़्ता-रफ़्ता दूसरे ख़ानदान भी आ गए और मुसलमानों की एक मुस्तक़िल आबादी हो गई। हकीम मसीह ने दुनिया के तक़रीबन तमाम मशहूर तबीबों की शागिर्दी की थी और अपने फ़न में माहिर थे। इसलिए ये कोई तअज्जुब की बात न थी कि वो थोड़े दिनों में आस-पास मशहूर हो गए और तुर्किस्तान में उनके ख़ानदान ने जो कुछ खोया था हो हिन्दुस्तान में उन्हें मिलने लगा। उनकी माँ ने एक तुर्की रईस की बेटी से उनकी शादी भी करा दी जिससे उन्हें शराफ़त और सरमायादारी का तमग़ा मिल गया।
हकीम मसीह निहायत हसीन, ख़ुश-मिज़ाज और शाइस्ता आदमी थे। दुनिया की मुसीबतें उनकी तबीयत में तुर्शी या तल्ख़ी नहीं पैदा कर सकी थीं, वो ऊंच-नीच देख चुके थे, ख़ुद हमदर्दी की तलाश में रह चुके थे और अब हर एक से अच्छा सुलूक करने पर तैयार थे। तजुर्बे ने उन्हें इन्सान की फ़ित्रत के भेद बता दिये थे। उन्हें मालूम था कि मुहब्बत से बात करने का क्या असर होता है, मरीज़ को दवा से कितना फ़ायदा पहुंचता है और तबीब के अख़लाक़ से कितना। उनका बरताव बीमारों और तीमारदार के साथ ऐसा था कि लोग महज़ उनकी तवज्जो को काफ़ी समझते थे लेकिन वो मर्ज़ की तश्ख़ीस भी बहुत सोच-समझ कर करते थे और दवायें निहायत एहतियात से अक्सर अपने सामने तैयार कराते थे। यहां तक कि उनकी नाकामी की वजह इलावा तक़दीर के और कोई नहीं समझी जाती थी।

लेकिन हकीम मसीह बावजूद अपनी हरदिल-अज़ीज़ी और शोहरत के अपनी ज़िंदगी से मुत्मइन न थे, कुछ अपने वतन की याद बेचैन करती थी, कुछ हिन्दुस्तान की फ़िज़ा मगर सबसे ज़्यादा उन्हें ये ख़याल सताता था कि अब वो दुनिया जितनी देखनी थी देख चुके हैं क्यों कि हिन्दुस्तान से वापस जाना मुम्किन नहीं और वो यहीं मरेंगे और यहीं दफ़न होंगे। उनका दिल हर क़िस्म के तअस्सुब से पाक था। लेकिन फिर भी वो हिंदुओं को न अपने जैसे आदमी समझ सकते थे न हिन्दुस्तान को अपने वतन जैसा मुल्क। उन पर कुछ असर उनकी बीवी और उनके ससुराल का भी था। ये लोग किसी मजलिस को बग़ैर अपने मुल्क की याद में नौहा-ख़्वानी किए नहीं बर्ख़ास्त करते थे और बग़ैर हिंदू क़ौम और हिंदू मज़हब पर लानत भेजे किसी मसअले पर गुफ़्तगू नहीं कर सकते थे। हकीम मसीह को हिंदूओं से इस क़दर साबिक़ा पड़ता था, और हिंदू उनकी इस क़दर इज़्ज़त, उनसे इस क़दर मोहब्बत करते थे कि उनका अपनी ससुराल वालों का हम-ख़याल होना नामुम्किन हो जाता, लेकिन उन लोगों के तअस्सुब का इतना असर तो ज़रूर हुआ कि हकीम मसीह न हिंदुओं में इस तरह घुल-मिल सके जैसा कि उनकी फ़ित्रत का तक़ाज़ा था और न हिन्दुस्तान के ज़मीन-ओ-आसमान को अपना वतन बना सके, इज़्ज़त और शोहरत हासिल करने पर भी उनको इसका अरमान रह गया कि एक दम भर के लिए भी तबीयत में सुकून पैदा कर सकें, वो अपनी ज़िंदगी को मुस्तक़िल या अपने घर को घर समझ सकें।
यूँ ही दिन गुज़रते गए, हकीम मसीह की माँ का इंतिक़ाल हो गया और वो मुसलमानों के क़ब्रिस्तान में दफ़न हुईं जो आबादी के साथ रफ़्ता-रफ़्ता बढ़ रहा था लेकिन हकीम मसीह को किसी तरह से यक़ीन न आ सका कि हिन्दुस्तान में उनकी नस्ल ने जड़ पकड़ ली है, और उनकी रुहानी बेचैनी उन्हें परेशान करती रही। [...]

पाँच दिन

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जम्मू तवी के रास्ते कश्मीर जाइए तो कुद के आगे एक छोटा सा पहाड़ी गांव बटोत आता है। बड़ी पुरफ़िज़ा जगह है। यहां दिक़ के मरीज़ों के लिए एक छोटा सा सिनेटोरियम है। यूं तो आज से आठ नौ बरस पहले बटोत में पूरे तीन महीने गुज़ार चुका हूँ, और इस सेहत अफ़ज़ा मुक़ाम से मेरी जवानी का एक नापुख़्ता रुमान भी वाबस्ता है मगर इस कहानी से मेरी किसी भी कमज़ोरी का तअ’ल्लुक़ नहीं।
छः सात महीने हुए मुझे बटोत में अपने एक दोस्त की बीवी को देखने के लिए जाना पड़ा जो वहां सिनेटोरियम में ज़िंदगी के आख़िरी सांस ले रही थी। मेरे वहां पहुंचते ही एक मरीज़ चल बसा और बेचारी पदमा के सांस जो पहले ही उखड़े हुए थे और भी ग़ैर यक़ीनी होगए। मैं नहीं कह सकता वजह क्या थी लेकिन मेरा ख़याल है कि महज़ इत्तफ़ाक़ था कि चार रोज़ के अंदर अंदर इस छोटे से सिनेटोरियम में तीन मरीज़ ऊपर तले मर गए।

जूंही कोई बिस्तर ख़ाली होता या तीमारदारी करते करते थके हुए इंसानों की थकी हुई चीख़ पुकार सुनाई देती, सारे सिनेटोरियम पर एक अजीब क़िस्म की ख़ाकसतरी उदासी छा जाती और वो मरीज़ जो उम्मीद के पतले धागे के साथ चिमटे होते थे, यास की अथाह गहराइयों में डूब जाते।
मेरे दोस्त की बीवी पदमा तो बिल्कुल दमबख़ुद हो जाती। उसके पतले होंटों पर मौत की ज़रदियाँ काँपने लगतीं और उसकी गहरी आँखों में एक निहायत ही रहम अंगेज़ इस्तफ़सार पैदा हो जाता। सब से आगे एक ख़ौफ़ज़दा “क्यों?” और उसके पीछे बहुत से डरपोक “नहीं।” [...]

बीमार

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अजब बात है कि जब भी किसी लड़की या औरत ने मुझे ख़त लिखा भाई से मुख़ातिब किया और बे रब्त तहरीर में इस बात का ज़रूर ज़िक्र किया कि वो शदीद तौर पर अलील है। मेरी तसानीफ़ की बहुत तारीफ़ें कीं। ज़मीन-ओ-आसमान के कुलाबे मिला दिए।
मेरी समझ में नहीं आता था कि ये लड़कियां और औरतें जो मुझे ख़त लिखती हैं बीमार क्यों होती हैं। शायद इसलिए कि मैं ख़ुद अक्सर बीमार रहता हूँ। या कोई और वजह होगी, जो इसके सिवा और कोई नहीं हो सकती कि वो मेरी हमदर्दी चाहती हैं।

मैं ऐसी लड़कियों और औरतों के ख़ुतूत का उमूमन जवाब नहीं दिया करता, लेकिन बा'ज़ औक़ात दे भी दिया करता हूँ, आख़िर इंसान हूँ। ख़त अगर बहुत ही दर्दनाक हो तो उसका जवाब देना इंसानी फ़राइज़ में शामिल हो जाता है।
पिछले दिनों मुझे एक ख़त मौसूल हुआ, जो काफ़ी लंबा था। उसमें भी एक ख़ातून ने जिसका नाम मैं ज़ाहिर नहीं करना चाहता ये लिखा था कि वो मेरी तहरीरों की शैदाई है लेकिन एक अर्से से बीमार है। उसका ख़ाविंद भी दाइम-उल-मरीज़ है। उसने अपना ख़याल ज़ाहिर किया था कि जो बीमारी उसे लगी है उसके ख़ाविंद की वजह से है। [...]

ख़ालिद मियां

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मुमताज़ ने सुबह सवेरे उठ कर हस्ब-ए-मामूल तीनों कमरे में झाड़ू दी। कोने खद्दरों से सिगरेटों के टुकड़े, माचिस की जली हुई तीलियां और इसी तरह की और चीज़ें ढूंढ ढूंढ कर निकालीं। जब तीनों कमरे अच्छी तरह साफ़ हो गए तो उसने इत्मिनान का सांस लिया। उसकी बीवी बाहर सहन में सो रही थी। बच्चा पँगोड़े में था।
मुमताज़ हर सुबह सवेरे उठ कर सिर्फ़ इसलिए ख़ुद तीनों कमरों में झाड़ू देता था कि उसका लड़का ख़ालिद अब चलता फिरता था और आम बच्चों के मानिंद, हर चीज़ जो उसके सामने आए, उठा कर मुँह में डाल लेता था।

मुमताज़ हर रोज़ तीनों कमरे बड़े एहतियात से साफ़ करता मगर उसको हैरत होती जब ख़ालिद फ़र्श पर उसे अपने छोटे छोटे नाखुनों की मदद से कोई न कोई चीज़ उठा लेता। फ़र्श का पलस्तर कई जगह उखड़ा हुआ था। जहां कूड़े-करकट के छोटे छोटे ज़र्रे फंस जाते थे। मुमताज़ अपनी तरफ़ से पूरी सफ़ाई करता मगर कुछ न कुछ बाक़ी रह जाता जो उसका पलौठी का बेटा ख़ालिद जिसकी उम्र अभी एक बरस की नहीं हुई थी, उठा कर अपने मुँह में डाल लेता।
मुमताज़ को सफ़ाई का ख़ब्त हो गया था। अगर वो ख़ालिद को कोई चीज़ फ़र्श पर से उठा कर अपने मुँह में डालते देखता तो वो ख़ुद को उसका मुल्ज़िम समझता। अपने आपको दिल ही दिल में कोसता कि उसने क्यों बद एहतियाती की। ख़ालिद से उसको प्यार ही नहीं इश्क़ था, लेकिन अजीब बात है कि जूं जूं ख़ालिद की पहली सालगिरह का दिन नज़दीक आता था, उसका ये वहम यक़ीन की सूरत इख़्तियार करता जाता था कि उसका बेटा एक साल का होने से पहले पहले मर जाएगा। [...]

बाँझ

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मेरी और उसकी मुलाक़ात आज से ठीक दो बरस पहले अपोलोबंदर पर हुई। शाम का वक़्त था, सूरज की आख़िरी किरनें समुंदर की उन दराज़ लहरों के पीछे ग़ायब हो चुकी थी जो साहिल के बेंच पर बैठ कर देखने से मोटे कपड़े की तहें मालूम होती थीं। मैं गेट आफ़ इंडिया के उस तरफ़ पहला बेंच छोड़ कर जिस पर एक आदमी चम्पी वाले से अपने सर की मालिश करा रहा था, दूसरे बेंच पर बैठा था और हद्द-ए-नज़र तक फैले हुए समुंदर को देख रहा था।
दूर बहुत दूर जहां समुंदर और आसमान घुल मिल रहे थे। बड़ी बड़ी लहरें आहिस्ता आहिस्ता उठ रही थीं और ऐसा मालूम होता था कि बहुत बड़ा गदले रंग का क़ालीन है जिसे इधर से उधर समेटा जा रहा है।

साहिल के सब क़ुमक़ुमे रोशन थे जिनका अक्स किनारे के लर्ज़ां पानी पर कपकपाती हुई मोटी लकीरों की सूरत में जगह जगह रेंग रहा था। मेरे पास पथरीली दीवार के नीचे कई कश्तियों के लिपटे हुए बादबान और बांस हौले-हौले हरकत कर रहे थे। समुंदर की लहरें और तमाशाइयों की आवाज़ एक गुनगुनाहट बन कर फ़िज़ा में घुली हुई थी। कभी कभी किसी आने या जाने वाली मोटर के हॉर्न की आवाज़ बुलंद होती और यूं मालूम होता कि बड़ी दिलचस्प कहानी सुनने के दौरान में किसी ने ज़ोर से “हूँ” की है।
ऐसे माहौल में सिगरेट पीने का बहुत मज़ा आता है। मैंने जेब में हाथ डाल कर सिगरेट की डिबिया निकाली, मगर माचिस न मिली। जाने कहाँ भूल आया था। सिगरेट की डिबिया वापस जेब में रखने ही वाला था कि पास से किसी ने कहा, “माचिस लीजिएगा।” [...]

बेगू

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तसल्लियां और दिलासे बेकार हैं। लोहे और सोने के ये मुरक्कब में छटांकों फांक चुका हूँ। कौन सी दवा है जो मेरे हलक़ से नहीं उतारी गई। मैं आपके अख़लाक़ का ममनून हूँ मगर डाक्टर साहब मेरी मौत यक़ीनी है। आप कैसे कह रहे हैं कि मैं दिक़ का मरीज़ नहीं। क्या मैं हर रोज़ ख़ून नहीं थूकता?
आप यही कहेंगे कि मेरे गले और दाँतों की ख़राबी का नतीजा है मगर मैं सब कुछ जानता हूँ। मेरे दोनों फेफड़े ख़ाना-ए-ज़ंबूर की तरह मुशब्बक हो चुके हैं। आपके इंजेक्शन मुझे दुबारा ज़िंदगी नहीं बख़्श सकते। देखिए, मैं इस वक़्त आपसे बातें कर रहा हूँ। मगर सीने पर एक वज़नी इंजन दौड़ता हुआ महसूस कर रहा हूँ। मालूम होता है कि मैं एक तारीक गढ़े में उतर रहा हूँ... क़ब्र भी तो एक तारीक गढ़ा है।

आप मेरी तरफ़ इस तरह न देखिए डाक्टर साहब, मुझे इस चीज़ का कामिल एहसास है कि आप अपने हस्पताल में किसी मरीज़ का मरना पसंद नहीं करते मगर जो चीज़ अटल है वो होके रहेगी। आप ऐसा कीजिए कि मुझे यहां से रुख़सत कर दीजिए। मेरी टांगों में तीन-चार मील चलने की क़ुव्वत अभी बाक़ी है। किसी क़रीब के गांव में चला जाऊंगा और... मगर मैं तो रो रहा हूँ। नहीं नहीं। डाक्टर साहब यक़ीन कीजिए। मैं मौत से ख़ाइफ़ नहीं। ये मेरे जज़्बात हैं, जो आँसूओं की शक्ल में बाहर निकल रहे हैं।
आह! आप क्या जानें। इस मदक़ूक़ के सीने से क्या कुछ बाहर निकलने को मचल रहा है। मैं अपने अंजाम से बाख़बर हूँ। आज से पाँच बरस पहले भी मैं इस वहशतनाक अंजाम से बाख़बर था। जानता था और अच्छी तरह जानता था कि कुछ अर्सा के बाद मेरी ज़िंदगी की दौड़ ख़त्म हो जाएगी। [...]

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