वक़्फ़ा

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गुज़ाशतेम-ओ-गगुज़शीतेम-ओ-बूदनी हमा बूद
शुदेम-ओ-शुद सुख़न-ए-मा फ़साना-ए-इतफ़ाल

ये निशान हमारे ख़ानदान में पुश्तों से है। बल्कि जहां से हमारे ख़ानदान का सुराग़ मिलना शुरू होता है वहीं से इसका हमारे ख़ानदान में मौजूद होना भी साबित होता है। इस तरह उस की तारीख़ हमारे ख़ानदान की तारीख़ के साथ साथ चलती है।
हमारे ख़ानदान की तारीख़ बहुत मरबूत और क़रीब क़रीब मुकम्मल है, इसलिए कि मेरेअज्दाद को अपने हालात महफ़ूज़ करने और अपना शिजरा दरुस्त रखने का बड़ा शौक़ रहा है। यही वजह है कि हमारे ख़ानदान की तारीख़ शुरू होने के वक़्त से लेकर आज तक उस का तसलसुल टूटा नहीं है। लेकिन इस तारीख़ में बा’ज़ वक़फ़े ऐसे आते हैं... [...]

वक़ार महल का साया

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वक़ार महल की छतें गिर चुकी हैं लेकिन दीवारें जूं की तूं खड़ी हैं। जिन्हें तोड़ने के लिए बीसियों जवान मज़दूर कई एक साल से कुदाल चलाने में मसरूफ़ हैं।
वक़ार महल न्यू कॉलोनी के मर्कज़ में वाक़्य है न्यू कॉलोनी के किसी हिस्से से देखिए। खिड़की से सर निकालिए, रोशन दान से झांकिए। टियर्स से नज़र दोड़ाईए। हर सूरत में वक़ार महल सामने आ खड़ा होता है। मज़बूत, वीरान, बोझल, रोबदार, डरावना सर-बुलंद, खोखला। अज़ीम।

ऐसा मालूम होता है कि सारी न्यू कॉलोनी आसेब-ज़दा हो और वक़ार महल आसीब हो।
नौजवान देखते हैं तो दिलों में ग़ुस्सा उभरता है। न्यू कॉलोनी के चेहरे का फोड़ा। रिसती बस्ती कॉलोनी में आसारे-ए-क़दीमा। चेहरे नफ़रत से बिगड़ जाते हैं, हटाओ उसे। लेकिन वो महल से अपनी निगाहें हटा नहीं सकते। [...]

सोनोरल

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बुशरा ने जब तीसरी मर्तबा ख़्वाब-आवर दवा सोनोरल की तीन टिकियां खा कर ख़ुदकुशी की कोशिश की तो मैं सोचने लगा कि आख़िर ये सिलसिला क्या है। अगर मरना ही है तो संख्या मौजूद है, अफ़ीम है। इन सुमूम के इलावा और भी ज़हर हैं जो बड़ी आसानी से दस्तयाब हैं। हर बार सोनोरल, ही क्यों खाई जाती है।
इसमें कोई शक नहीं कि ये ख़्वाब-आवर दवा ज़्यादा मिक़दार में खाई जाये तो मौत का बाइस होती है लेकिन बुशरा का तीन मर्तबा सिर्फ़ उसे ही इस्तेमाल करना ज़रूर कोई मानी रखता था। पहले मैंने सोचा चूँकि दो मर्तबा दवा खाने से उसकी मौत वाक़े नहीं हुई इसलिए वो एहतियातन उसे ही इस्तेमाल करती है और उसे अपने इक़दाम-ए-ख़ुदकुशी से जो असर पैदा करना होता है, मौत के इधर-उधर रह कर कर लेती है। लेकिन मैं सोचता था कि वो इधर उधर भी हो सकती थी। ये कोई सौ फ़ीसद महफ़ूज़ तरीक़ा नहीं था।

तीसरी मर्तबा जब उसने बत्तीस गोलियां खाईं तो उसके तीसरे शौहर को जो पी.डब्ल्यू.डी में सब ओवरसियर हैं, सुबह साढ़े छः बजे के क़रीब पता चला कि वो फ़ालिजज़दा भैंस की मानिंद बेहिस-ओ-हरकत पलंग पर पड़ी थी। उसको ये ख़्वाब-आवर दवा खाए ग़ालिबन तीन-चार घंटे हो चुके थे।
सब ओवरसियर साहब सख़्त परेशान और लर्ज़ां मेरे पास आए। मुझे सख़्त हैरत हुई, इसलिए कि बुशरा से शादी करने के बाद वो मुझे क़तअन भूल चुके थे। इससे पहले वो हर रोज़ मेरे पास आते और दोनों इकट्ठे बीअर या विस्की पिया करते थे। [...]

वक़्फ़ा

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गुज़ाशतेम-ओ-गगुज़शीतेम-ओ-बूदनी हमा बूद
शुदेम-ओ-शुद सुख़न-ए-मा फ़साना-ए-इतफ़ाल

ये निशान हमारे ख़ानदान में पुश्तों से है। बल्कि जहां से हमारे ख़ानदान का सुराग़ मिलना शुरू होता है वहीं से इसका हमारे ख़ानदान में मौजूद होना भी साबित होता है। इस तरह उस की तारीख़ हमारे ख़ानदान की तारीख़ के साथ साथ चलती है।
हमारे ख़ानदान की तारीख़ बहुत मरबूत और क़रीब क़रीब मुकम्मल है, इसलिए कि मेरेअज्दाद को अपने हालात महफ़ूज़ करने और अपना शिजरा दरुस्त रखने का बड़ा शौक़ रहा है। यही वजह है कि हमारे ख़ानदान की तारीख़ शुरू होने के वक़्त से लेकर आज तक उस का तसलसुल टूटा नहीं है। लेकिन इस तारीख़ में बा’ज़ वक़फ़े ऐसे आते हैं... [...]

चोरी

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स्कूल के तीन चार लड़के अलाव के गिर्द हलक़ा बना कर बैठ गए और उस बूढ़े आदमी से जो टाट पर बैठा अपने उस्तख़्वानी हाथ तापने की ख़ातिर अलाव की तरफ़ बढ़ाए था, कहने लगे, “बाबा जी, कोई कहानी सुनाईए?”
मर्द-ए-मुअ’म्मर ने जो ग़ालिबन किसी गहरी सोच में ग़र्क़ था, अपना भारी सर उठाया जो गर्दन की लाग़री की वजह से नीचे को झुका हुआ था। “कहानी!... मैं ख़ुद एक कहानी हूँ मगर... इसके बाद के अलफ़ाज़ उसने अपने पोपले मुँह ही में बड़बड़ाए... शायद वो इस जुमले को लड़कों के सामने अदा करना नहीं चाहता था जिनकी समझ इस क़ाबिल न थी कि वो फ़लसफ़ियाना निकात हल कर सके।

लकड़ी के टुकड़े एक शोर के साथ जल जल कर आतिशीं शिकम को पुर कर रहे थे। शोलों की उन्नाबी रोशनी लड़कों के मासूम चेहरों पर एक अ’जीब अंदाज़ में रक़्स कर रही थी। नन्ही नन्ही चिनगारियां सपेद राख की नक़ाब उलट उलट कर हैरत में सर बलंद शोलों का मुँह तक रही थीं।
बूढ़े आदमी ने अलाव की रोशनी में से लड़कों की तरफ़ निगाहें उठा कर कहा, “कहानी... हर रोज़ कहानी!... कल सुनाऊंगा।” [...]

वक़ार महल का साया

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वक़ार महल की छतें गिर चुकी हैं लेकिन दीवारें जूं की तूं खड़ी हैं। जिन्हें तोड़ने के लिए बीसियों जवान मज़दूर कई एक साल से कुदाल चलाने में मसरूफ़ हैं।
वक़ार महल न्यू कॉलोनी के मर्कज़ में वाक़्य है न्यू कॉलोनी के किसी हिस्से से देखिए। खिड़की से सर निकालिए, रोशन दान से झांकिए। टियर्स से नज़र दोड़ाईए। हर सूरत में वक़ार महल सामने आ खड़ा होता है। मज़बूत, वीरान, बोझल, रोबदार, डरावना सर-बुलंद, खोखला। अज़ीम।

ऐसा मालूम होता है कि सारी न्यू कॉलोनी आसेब-ज़दा हो और वक़ार महल आसीब हो।
नौजवान देखते हैं तो दिलों में ग़ुस्सा उभरता है। न्यू कॉलोनी के चेहरे का फोड़ा। रिसती बस्ती कॉलोनी में आसारे-ए-क़दीमा। चेहरे नफ़रत से बिगड़ जाते हैं , हटाओ उसे। लेकिन वो महल से अपनी निगाहें हटा नहीं सकते। [...]

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