मोना लिसा

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परियों की सर-ज़मीन को एक रास्ता जाता है शाह बलूत और सनोबर के जंगलों में से गुज़रता हुआ जहाँ रुपहली नद्दियों के किनारे चेरी और बादाम के सायों में ख़ूबसूरत चरवाहे छोटी-छोटी बाँसुरियों पर ख़्वाबों के नग़्मे अलापते हैं। ये सुनहरे चाँद की वादी है। never never।and के मग़रूर और ख़ूबसूरत शहज़ादे। पीटर पैन का मुल्क जहाँ हमेशा सारी बातें अच्छी-अच्छी हुआ करती हैं। आइसक्रीम की बर्फ़ पड़ती है। चॉकलेट और प्लम केक के मकानों में रहा जाता है। मोटरें पैट्रोल के बजाए चाय से चलती हैं। बग़ैर पढ़े डिग्रियाँ मिल जाती हैं।
और कहानियों के इस मुल्क को जाने वाले रास्ते के किनारे-किनारे बहुत से साइन पोस्ट खड़े हैं जिन पर लिखा है, “सिर्फ़ मोटरों के लिए”

“ये आम रास्ता नहीं”, और शाम के अँधरे में ज़न्नाटे से आती हुई कारों की तेज़ रौशनी में नर्गिस के फूलों की छोटी सी पहाड़ी में से झाँकते हुए ये अल्फ़ाज़ जगमगा उठते हैं, “प्लीज़ आहिस्ता चलाइए... शुक्रिया!”
और बहार की शगुफ़्ता और रौशन दोपहरों में सुनहरे बालों वाली कर्ली लौक्स, सिंड्रेला और स्नो-वाईट छोटी-छोटी फूलों की टोकरियाँ लेकर इस रास्ते पर चेरी के शगूफ़े और सितारा-ए-सहरी की कलियाँ जमा’ करने आया करती थीं। [...]

ब्लाउज़

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कुछ दिनों से मोमिन बहुत बेक़रार था। उसको ऐसा महसूस होता था कि उसका वजूद कच्चा फोड़ा सा बन गया था। काम करते वक़्त, बातें करते हुए हत्ता कि सोचने पर भी उसे एक अजीब क़िस्म का दर्द महसूस होता था। ऐसा दर्द जिसको वो बयान भी करना चाहता तो न कर सकता।
बा'ज़ औक़ात बैठे बैठे वो एक दम चौंक पड़ता। धुन्दले धुन्दले ख़यालात जो आम हालतों में बेआवाज़ बुलबुलों की तरह पैदा हो कर मिट जाया करते हैं। मोमिन के दिमाग़ में बड़े शोर के साथ पैदा होते और शोर ही के साथ फटते थे। इसके इलावा उसके दिल-ओ-दिमाग़ के नर्म-ओ-नाज़ुक पर्दों पर हर वक़्त जैसे ख़ारदार पांव वाली च्यूंटियां सी रेंगती थीं।

एक अजीब क़िस्म का खिंचाव उसके आज़ा में पैदा हो गया था जिसके बाइस उसे बहुत तकलीफ़ होती थी। इस तकलीफ़ की शिद्दत जब बढ़ जाती तो उसके जी में आता कि अपने आपको एक बड़े हावन में डाल दे और किसी से कहे, “मुझे कूटना शुरू कर दो।”
बावर्चीख़ाने में गर्म मसाला कूटते वक़्त जब लोहे से लोहा टकराता और धमकों से छत में एक गूंज सी दौड़ जाती तो मोमिन के नंगे पैरों को ये लरज़िश बहुत भली मालूम होती थी। पैरों के ज़रिये से ये लरज़िश उसकी तनी हुई पिंडलियों और रानों में दौड़ती हुई उसके दिल तक पहुंच जाती, जो तेज़ हवा में रखे हुए दिये की तरह काँपना शुरू कर देता। [...]

जिला-वतन

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सुंदर लाला। सजे दुलाला। नाचे सिरी हरी कीर्तन में...
नाचे सिरी हरी कीर्तन में...

नाचे...
चौखट पर उकड़ूँ बैठी राम-रखी निहायत इनहिमाक से चावल साफ़ कर रही थी। उसके गाने की आवाज़ देर तक नीचे ग़मों वाली सुनसान गली में गूँजा की। फिर डॉक्टर आफ़ताब राय सद्र-ए-आ'ला के चबूतरे की ओर से बड़े फाटक की सिम्त आते दिखलाई पड़े। [...]

शतरंज की बाज़ी

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(1)
नवाब वाजिद अली शाह का ज़माना था। लखनऊ ऐश-ओ-इशरत के रंग में डूबा हुआ था। छोटे बड़े अमीर-ओ-ग़रीब सब रंग-रलियाँ मना रहे थे, कहीं निशात की महफ़िलें आरास्ता थीं। कोई अफ़यून की पीनक के मज़े लेता था। ज़िंदगी के हर एक शोबे में रिंदी-ओ-मस्ती का ज़ोर था। उमूर-ए-सियासत में, शेर-ओ-सुख़न में, तर्ज़-ए-मुआशरत में, सनअत-ओ-हिरफ़त में, तिजारत-ओ-तबादला में, सभी जगह नफ़्स-परस्ती की दुहाई थी। अराकीन-ए-सल्तनत मय-ख़ोरी के ग़ुलाम हो रहे थे। शोरा बोसा-ओ-कनार में मस्त, अहल-ए-हर्फ़ा कलाबत्तू और चिकन बनाने में, अहल-ए-सैफ़ तीतर-बाज़ी में, अहल-ए-रोज़गार सुर्मा-ओ-मिस्सी, इत्र-ओ-तेल की ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त का दिलदादा।

ग़रज़ सारा मुल्क नफ़्स-परवरी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। सबकी आँखों में साग़र-ओ-जाम का नशा छाया हुआ था। दुनिया में क्या हो रहा है... इल्म-ओ-हिकमत किन-किन ईजादों में मसरूफ़ है... बहर-ओ-बर पर मग़रिबी अक़्वाम किस तरह हावी होती जाती हैं... इसकी किसी को ख़बर न थी। बटेर लड़ रहे हैं, तीतरों में पालियाँ हो रही थीं, कहीं चौसर हो रही है। पौ-बारा का शोर मचा हुआ है, कहीं शतरंज के मारके छिड़े हुए हैं। फ़ौजें ज़ेरो-ज़बर हो रही हैं।
नवाब का हाल इससे बदतर था। वहाँ गत्तों और तालों की ईजाद होती थी। ख़ित्ता-ए-नफ़्स के लिए नए लटके नए नए नुस्ख़े सोचे जाते थे। यहाँ तक कि फ़क़्र ख़ैरात के पैसे पाते तो रोटियाँ ख़रीदने की बजाय मदक और चण्डू के मज़े लेते थे। रईस-ज़ादे हाज़िर जवाबी और बज़ला-संजी की ता'लीम हासिल करने के लिए अरबाब-ए-निशात से क़लम-बंद करते थे। फ़िक्र को जौलाँ, अक़्ल को रसा और ज़हन को तेज़ करने के लिए शतरंज कीमिया समझा जाता था। अब भी इस क़ौम के लोग कहीं कहीं मौजूद हैं। जो इस दलील को बड़े शद्द-ओ-मद से पेश करते हैं। इसलिए अगर मिर्ज़ा सज्जाद अली और मीर रौशन अपनी ज़िंदगी का बेश्तर हिस्सा अक़्ल को तेज़ करने में सर्फ़ किया करते थे। तो किसी ज़ी-फ़हम को एतिराज़ करने का मौक़ा न था। हाँ जेहला उन्हें जो चाहें समझें। [...]

पेशावर एक्सप्रेस

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जब मैं पेशावर से चली, तो मैंने छकाछक इत्मीनान का साँस लिया। मेरे डिब्बों में ज़्यादा-तर हिंदू लोग बैठे हुए थे। ये लोग पेशावर से होते हुए मरदान से, कोहाट से, चारसद्दा से, ख़ैबर से, लंडी कोतल से, बन्नूँ, नौशेरा से, मानसहरा से आए थे और पाकिस्तान में जान-ओ-माल को महफ़ूज़ न पाकर हिन्दुस्तान का रुख़ कर रहे थे।
स्टेशन पर ज़बरदस्त पहरा था और फ़ौज वाले बड़ी चौकसी से काम कर रहे थे। इन लोगों को जो पाकिस्तान में पनाह-गुज़ीं और हिन्दुस्तान में शरणार्थी कहलाते थे उस वक़्त तक चैन का साँस न आया जब तक मैंने पंजाब की रूमान-ख़ेज़ सर-ज़मीन की तरफ़ क़दम न बढ़ाए। ये लोग शक्ल-ओ-सूरत से बिल्कुल पठान मा'लूम होते थे, गोरे चिट्टे मज़बूत हाथ पाँव, सिर पर कुलाह और लुंगी, और जिस्म पर क़मीज़ और शलवार, ये लोग पश्तो में बात करते थे और कभी-कभी निहायत करख़्त क़िस्म की पंजाबी में बात करते थे।

उनकी हिफ़ाज़त के लिए हर डिब्बे में दो सिपाही बंदूक़ें लेकर खड़े थे। वजीहा बलोच सिपाही अपनी पगड़ियों के उक़ब मोर के छत्तर की तरह ख़ूबसूरत तुर्रे लगाए हुए, हाथ में जदीद राइफ़लें लिए हुए उन पठानों और उनके बीवी बच्चों की तरफ़ मुस्कुरा-मुस्कुरा कर देख रहे थे जो एक तारीख़ी ख़ौफ़ और शर के ज़ेर-ए-असर उस सर-ज़मीन से भागे जा रहे थे। जहाँ वो हज़ारों साल से रहते चले आए थे। जिसकी संगलाख़ सर-ज़मीन से उन्होंने तवानाई हासिल की थी, जिसके बर्फ़ाब चश्मों से उन्होंने पानी पिया था। आज ये वतन यक-लख़्त बेगाना हो गया था और उसने अपने मेहरबान सीने के किवाड़ उन पर बंद कर दिए थे और वो एक नए देस के तपते हुए मैदानों का तसव्वुर दिल में लिए बा-दिल-ए-ना-ख़्वासता वहाँ से रुख़्सत हो रहे थे।
इस अम्र की मसर्रत ज़रूर थी कि उनकी जानें बच गई थीं। उनका बहुत सा माल-ओ-मता'अ और उनकी बहुओं, बेटियों, माओं और बीवियों की आबरू महफ़ूज़ थी लेकिन उनका दिल रो रहा था और आँखें सरहद के पथरीले सीने पर यूँ गड़ी हुई थीं गोया उसे चीर कर अंदर घुस जाना चाहती हैं और उसके शफ़क़त भरे ममता के फ़व्वारे से पूछना चाहती हैं, बोल माँ आज किस जुर्म की पादाश में तूने अपने बेटों को घर से निकाल दिया है। [...]

आवारा-गर्द

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पिछले साल, एक रोज़ शाम के वक़्त दरवाज़े की घंटी बजी। मैं बाहर गयी। एक लंबा तड़ंगा यूरोपीयन लड़का कैनवस का थैला कंधे पर उठाये सामने खड़ा था। दूसरा बंडल उसने हाथ में सँभाल रखा था और पैरों में ख़ाकआलूद पेशावरी चप्पल थे। मुझे देखकर उसने अपनी दोनों एड़ियाँ ज़रा सी जोड़ कर सर ख़म किया। मेरा नाम पूछा और एक लिफ़ाफ़ा थमा दिया। “आपके मामूं ने ये ख़त दिया है।” उसने कहा।
“अंदर आ जाओ।” मैंने उससे कहा और ज़रा अचंभे से ख़त पर नज़र डाली। ये अल्लन मामूं का ख़त था और उन्होंने लिखा था... “हम लोग कराची से हैदराबाद सिंध वापस जा रहे थे। ठठ की माकली हिल पर क़ब्रों के दरमियान इस लड़के को बैठा देखा। इसने अँगूठा उठाकर लिफ़्ट की फ़र्माइश की और हम इसे घर ले आये। ये दुनिया के सफ़र पर निकला है और अब हिन्दोस्तान जा रहा है। ओटो बहुत प्यारा लड़का है मैंने इसे हिन्दोस्तान में अ’ज़ीज़ों के नाम ख़त दे दिये हैं। और उनके पास ठहरेगा। तुम भी इस की मेज़बानी करो।”

नोट: इसके पास पैसे तक़रीबन बिल्कुल नहीं हैं।
लड़के ने कमरे में आकर थैले फ़र्श पर रख दिये और अब आँखें चुंधिया कर दीवारों पर लगी हुई तस्वीरें देख रहा था। इतने ऊंचे क़द के साथ उसका बच्चों का सा चेहरा था, जिस पर हल्की हल्की सुनहरी दाढ़ी मूंछ बहुत अजीब सी लग रही थी। [...]

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