जब मैं पेशावर से चली, तो मैंने छकाछक इत्मीनान का साँस लिया। मेरे डिब्बों में ज़्यादा-तर हिंदू लोग बैठे हुए थे। ये लोग पेशावर से होते हुए मरदान से, कोहाट से, चारसद्दा से, ख़ैबर से, लंडी कोतल से, बन्नूँ, नौशेरा से, मानसहरा से आए थे और पाकिस्तान में जान-ओ-माल को महफ़ूज़ न पाकर हिन्दुस्तान का रुख़ कर रहे थे। स्टेशन पर ज़बरदस्त पहरा था और फ़ौज वाले बड़ी चौकसी से काम कर रहे थे। इन लोगों को जो पाकिस्तान में पनाह-गुज़ीं और हिन्दुस्तान में शरणार्थी कहलाते थे उस वक़्त तक चैन का साँस न आया जब तक मैंने पंजाब की रूमान-ख़ेज़ सर-ज़मीन की तरफ़ क़दम न बढ़ाए। ये लोग शक्ल-ओ-सूरत से बिल्कुल पठान मा'लूम होते थे, गोरे चिट्टे मज़बूत हाथ पाँव, सिर पर कुलाह और लुंगी, और जिस्म पर क़मीज़ और शलवार, ये लोग पश्तो में बात करते थे और कभी-कभी निहायत करख़्त क़िस्म की पंजाबी में बात करते थे। उनकी हिफ़ाज़त के लिए हर डिब्बे में दो सिपाही बंदूक़ें लेकर खड़े थे। वजीहा बलोच सिपाही अपनी पगड़ियों के उक़ब मोर के छत्तर की तरह ख़ूबसूरत तुर्रे लगाए हुए, हाथ में जदीद राइफ़लें लिए हुए उन पठानों और उनके बीवी बच्चों की तरफ़ मुस्कुरा-मुस्कुरा कर देख रहे थे जो एक तारीख़ी ख़ौफ़ और शर के ज़ेर-ए-असर उस सर-ज़मीन से भागे जा रहे थे। जहाँ वो हज़ारों साल से रहते चले आए थे। जिसकी संगलाख़ सर-ज़मीन से उन्होंने तवानाई हासिल की थी, जिसके बर्फ़ाब चश्मों से उन्होंने पानी पिया था। आज ये वतन यक-लख़्त बेगाना हो गया था और उसने अपने मेहरबान सीने के किवाड़ उन पर बंद कर दिए थे और वो एक नए देस के तपते हुए मैदानों का तसव्वुर दिल में लिए बा-दिल-ए-ना-ख़्वासता वहाँ से रुख़्सत हो रहे थे। इस अम्र की मसर्रत ज़रूर थी कि उनकी जानें बच गई थीं। उनका बहुत सा माल-ओ-मता'अ और उनकी बहुओं, बेटियों, माओं और बीवियों की आबरू महफ़ूज़ थी लेकिन उनका दिल रो रहा था और आँखें सरहद के पथरीले सीने पर यूँ गड़ी हुई थीं गोया उसे चीर कर अंदर घुस जाना चाहती हैं और उसके शफ़क़त भरे ममता के फ़व्वारे से पूछना चाहती हैं, बोल माँ आज किस जुर्म की पादाश में तूने अपने बेटों को घर से निकाल दिया है।
[...]