वक़ार महल का साया

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वक़ार महल की छतें गिर चुकी हैं लेकिन दीवारें जूं की तूं खड़ी हैं। जिन्हें तोड़ने के लिए बीसियों जवान मज़दूर कई एक साल से कुदाल चलाने में मसरूफ़ हैं।
वक़ार महल न्यू कॉलोनी के मर्कज़ में वाक़्य है न्यू कॉलोनी के किसी हिस्से से देखिए। खिड़की से सर निकालिए, रोशन दान से झांकिए। टियर्स से नज़र दोड़ाईए। हर सूरत में वक़ार महल सामने आ खड़ा होता है। मज़बूत, वीरान, बोझल, रोबदार, डरावना सर-बुलंद, खोखला। अज़ीम।

ऐसा मालूम होता है कि सारी न्यू कॉलोनी आसेब-ज़दा हो और वक़ार महल आसीब हो।
नौजवान देखते हैं तो दिलों में ग़ुस्सा उभरता है। न्यू कॉलोनी के चेहरे का फोड़ा। रिसती बस्ती कॉलोनी में आसारे-ए-क़दीमा। चेहरे नफ़रत से बिगड़ जाते हैं, हटाओ उसे। लेकिन वो महल से अपनी निगाहें हटा नहीं सकते। [...]

बुर्क़े

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ज़हीर जब थर्ड ईयर में दाख़िल हुआ तो उसने महसूस किया कि उसे इश्क़ हो गया है और इश्क़ भी बहुत अशद क़िस्म का जिसमें अक्सर इंसान अपनी जान से भी हाथ धो बैठता है।
वो कॉलिज से ख़ुश ख़ुश वापस आया कि थर्ड ईयर में ये उसका पहला दिन था। जूंही वो अपने घर में दाख़िल होने लगा, उसने एक बुर्क़ापोश लड़की देखी जो टांगे में से उतर रही थी। उसने टांगे में से उतरती हुई हज़ारहा लड़कियां देखी थीं, मगर वो लड़की जिसके हाथ में चंद किताबें थीं, सीधी उसके दिल में उतर गई।

लड़की ने टांगे वाले को किराया अदा किया और ज़हीर के साथ वाले मकान में चली गई। ज़हीर ने सोचना शुरू कर दिया कि इतनी देर वो उसकी मौजूदगी से ग़ाफ़िल कैसे रहा?
असल में ज़हीर आवारा मनिश नौजवान नहीं था, उसको सिर्फ़ अपनी ज़ात से दिलचस्पी थी। सुबह उठे, कॉलिज गए, लेक्चर सुने, घर वापस आए, खाना खाया, थोड़ी देर आराम किया और आमोख़्ता दुहराने में मसरूफ़ हो गए। [...]

सासान-ए-पंजुम

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दूर दूर तक फैले मैदानों में बिखरी हुई इन कोहपैकर संगी इमारतों के बनने में सदीयां लग गई थीं और उनको खन्डर हुए भी सदीयां गुज़र गई थीं। ख़्याल परस्त सय्याह इन खंडरों के चौड़े दरूँ, ऊंचे ज़ीनों और बड़े बड़े ताक़ों को हैरत से देखते और उन ज़मानों का तसव्वुर करते थे जब गुज़शता बादशाहों के ये आसार सही सलामत और वो बादशाह भी ज़िंदा रहे होंगे। इन इमारतों में लगे हुए पत्थर की सिलों पर कुंदा तस्वीरों को ज़्यादा ग़ौर और दिलचस्पी से देखा जाता था। साफ़ ज़ाहिर था कि ये तस्वीरें अपने ज़माने की तारीख़ बयान कर रही हैं। उनमें ताज पोशियों, जंगों, हलाकतों, फ़ातिह बादशाहों के दरबार में शिकस्त ख़ूर्दा बादशाहों की हाज़िरी और दूसरे मौक़ों के मंज़र दिखाए गए थे जिनसे उन पुराने ज़मानों की बहुत सी बातों का कुछ अंदाज़ा होता था और उन इलाक़ों की पुरानी तारीख़ और तमद्दुन के बारे में कुछ ग़ैर यक़ीनी सी मालूमात हासिल होती थीं।
उन्हें खंडरों के पत्थरों पर बहुत से कुतबे भी खुदे हुए थे और सय्याह उनको भी दिलचस्पी से और देर देर तक देखते थे, लेकिन इन तहरीरों को कोई पढ़ नहीं सकता था। देखने में सिर्फ ऐसा मालूम होता था कि किसी ने क़तारों की सूरत में मुख़्तलिफ़ ज़ावियों से तीरों के पैकान बना दिए हैं, लेकिन इस में किसी को कोई शक नहीं था कि पत्थर की सिलों पर पैकानों की ये क़तारें दर असल लंबी लंबी इबारतें हैं जिन्हें अगर पढ़ लिया जाये और समझ भी लिया जाये तो उनकी मदद से उन तस्वीरों को भी अच्छी तरह समझा जा सकता है और बहुत सी ऐसी बातें भी मालूम हो सकती हैं जिनका तस्वीरों से मालूम होना मुम्किन नहीं।

हमारे आलम एक मुद्दत से उन तहरीरों को पढ़ने की कोशिश कर रहे थे और नाकाम हो रहे थे। वो जानते थे कि ये उसी ज़बान की तहरीरें हैं जिसके कुछ नमूने सासान-ए-पंजुम ने फ़राहम किए थे, लेकिन इन नमूनों की मदद से उन कुतबों को पढ़ना मुम्किन ना हुआ इसलिए कि वो नमूने पैकानी तहरीर में नहीं थे, और सासान-ए-पंजुम को गुज़रे हुए ज़माना हो गया था, बल्कि किसी को ये भी मालूम ना था कि वो किस ज़माने में था।
आख़िर एक मुद्दत की काविशों के बाद जब मुर्दा ज़बानों को पढ़ने का फ़न काफ़ी तरक़्क़ी कर गया तो खंडरों की उन्हें तस्वीरों की मदद से और कुछ दूसरे तरीक़ों से हमारे आलिम पैकानों की शक्ल की ये तहरीरें पढ़ने में कामयाब हो गए। और उन तहरीरों की मदद से उन तस्वीरों को भी पूरी तरह समझ लिया गया। इस तरह गोया तहरीरों ने तस्वीरों का एहसान उतार दिया। [...]

नया साल

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कैलेंडर का आख़िरी पत्ता जिस पर मोटे हुरूफ़ में 31 दिसंबर छपा हुआ था, एक लम्हा के अंदर उसकी पतली उंगलियों की गिरफ़्त में था। अब कैलेंडर एक टूंड मुंड दरख़्त सा नज़र आने लगा। जिसकी टहनियों पर से सारे पत्ते ख़िज़ां की फूंकों ने उड़ा दिए हों।
दीवार पर आवेज़ां क्लाक टिक टिक कर रहा था। कैलेंडर का आख़िरी पत्ता जो डेढ़ मुरब्बा इंच काग़ज़ का एक टुकड़ा था, उसकी पतली उंगलियों में यूं काँप रहा था गोया सज़ाए मौत का क़ैदी फांसी के सामने खड़ा है।

क्लाक ने बारह बजाये, पहली ज़र्ब पर उंगलियां मुतहर्रिक हुईं और आख़िरी ज़र्ब पर काग़ज़ का वो टुकड़ा एक नन्ही सी गोली बना दिया गया। उंगलियों ने ये काम बड़ी बेरहमी से किया और जिस शख़्स की ये उंगलियां थीं और भी ज़्यादा बेरहमी से उस गोली को निगल गया।
उसके लबों पर एक तेज़ाबी मुस्कुराहट पैदा हुई और उसने ख़ाली कैलेंडर की तरफ़ फ़ातिहाना नज़रों से देखा और कहा, “मैं तुम्हें खा गया हूँ... बग़ैर चबाए निगल गया हूँ।” [...]

जिस्म और रूह

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मुजीब ने अचानक मुझसे सवाल किया, “क्या तुम उस आदमी को जानते हो?”
गुफ़्तुगू का मौज़ू ये था कि दुनिया में ऐसे कई अश्ख़ास मौजूद हैं जो एक मिनट के अंदर अंदर लाखों और करोड़ों को ज़र्ब दे सकते हैं, इनकी तक़सीम कर सकते हैं। आने-पाई का हिसाब चश्म-ए-ज़दन में आपको बता सकते हैं।

इस गुफ़्तुगू के दौरान में मुग़नी ये कह रहा था, “इंग्लिस्तान में एक आदमी है जो एक नज़र देख लेने के बाद फ़ौरन बता देता है कि इस क़ता ज़मीन का तूल-ओ-अ’र्ज़ क्या है, रक़्बा कितना है? उस ने अपने एक बयान में कहा था कि वो अपनी इस ख़ुदादाद सलाहियत से तंग आ गया है। वो जब भी कहीं बाहर खुले खेतों में निकलता है तो उनकी हरियाली और उनका हुस्न उसकी निगाहों से ओझल हो जाता है और वो इस क़ता-ए-ज़मीन की पैमाइश अपनी आँखों के ज़रिये से शुरू कर देता है।
एक मिनट के अंदर वो अंदाज़ा कर लेता है कि ज़मीन का ये टुकड़ा कितना रक़्बा रखता है, उसकी लंबाई कितनी है, चौड़ाई कितनी है, फिर उसे मजबूरन अपने अंदाज़े का इम्तहान लेना पड़ता है। ‘फ़िटर टेप’ के ज़रिये से उस क़ता-ए-ज़मीन को मापता और वो उसके अंदाज़े के ऐ’न मुताबिक़ निकलता। अगर उसका अंदाज़ा ग़लत होता तो उसे बहुत तस्कीन होती। बा’ज़ औक़ात फ़ातेह अपनी शिकस्त से भी ऐसी लज़्ज़त महसूस करता है जो उसे फ़तह से नहीं मिलती। असल में शिकस्त दूसरी शानदार फ़तह का पेशखे़मा होती है। [...]

मिस्टर मोईनुद्दीन

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मुँह से कभी जुदा न होने वाला सिगार ऐश ट्रे में पड़ा हल्का हल्का धुआँ दे रहा था। पास ही मिस्टर मोईनुद्दीन आराम कुर्सी पर बैठे एक हाथ अपने चौड़े माथे पर रखे कुछ सोच रहे थे, हालाँकि वो इस के आदी नहीं थे। आमदन मा’क़ूल थी। कराची शहर में उनकी मोटरों की दुकान सबसे बड़ी थी। इस के इलावा सोसाइटी के ऊंचे हल्क़ों में उनका बड़ा नाम था। कई क्लबों के मेंबर थे। बड़ी बड़ी पार्टियों में उनकी शिरकत ज़रूरी समझी जाती थी।
साहिब-ए-औलाद थे, लड़का इंग्लिस्तान में ता’लीम हासिल कर रहा था। लड़की बहुत कमसिन थी, लेकिन बड़ी ज़हीन और ख़ूबसूरत। वो इस तरफ़ से भी बिल्कुल मुतमइन थे, लेकिन अपनी बीवी। मगर मुनासिब मालूम होता है कि पहले मिस्टर मोईनुद्दीन की शादी के मुतअ’ल्लिक़ चंद बातें बता दी जाएं।

मिस्टर मोईनुद्दीन के वालिद बंबई में रेशम के बहुत बड़े व्यापारी थे। यूँ तो वो रहने वाले लाहौर के थे मगर कारोबारी सिलसिले के बाइ’स बम्बई ही में मुक़ीम हो गए थे और यही उनका वतन बन गया था। मोईनुद्दीन जो उनका इकलौता बेटा था, ब-ज़ाहिर आशिक़ मिज़ाज नहीं था लेकिन मालूम नहीं वो कैसे और क्यों कर आदम जी बाटली वाली की मोटी मोटी ग़लाफ़ी आँखों वाली लड़की पर फ़रेफ़्ता हो गया। लड़की का नाम ज़ोहरा था, मुईन से मोहब्बत करती थी, मगर शादी में कई मुश्किलात हाएल थीं।
आदम जी बाटली वाला जो मुईन के वालिद का पड़ोसी और दोस्त भी था, बड़े पुराने ख़यालात का बोहरा था। वो अपनी लड़की की शादी अपने ही फ़िरक़े में करना चाहता था। चुनांचे ज़ोहरा और मुईन का मुआ’शक़ा बहुत देर तक बेनतीजा चलता रहा। इस दौरान में मोईनुद्दीन के वालिद का इंतक़ाल हो गया। माँ बहुत पहले मर चुकी थी। [...]

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