ख़ान बहादुर मोहम्मद असलम ख़ान के घर में ख़ुशियां खेलती थीं, और सही मा’नों में खेलती थीं। उनकी दो लड़कियां थीं, एक लड़का। अगर बड़ी लड़की की उम्र तेरह बरस की होगी तो छोटी की यही ग्यारह साढ़े ग्यारह और जो लड़का था गो सबसे छोटा मगर क़द काठ के लिहाज़ से वो अपनी बड़ी बहनों के बराबर मालूम होता था। तीनों की उम्र जैसा कि ज़ाहिर है उस दौर से गुज़र रही थी जब कि हर आस पास की चीज़ खिलौना मालूम होती है। हादसे भी यूं आते हैं, जैसे रबड़ के उड़ते हुए गुब्बारे। उनसे भी खेलने को जी चाहता है। ख़ान बहादुर मोहम्मद असलम का घर ख़ुशियों का घर था। उसमें सब से बड़ी तीन ख़ुशियां, उसकी औलाद थीं, फ़रीदा, सईदा और नजीब। ये तीनों स्कूल जाते थे, जैसे खेल के मैदान में जाते हैं। हंसी ख़ुशी जाते थे, हंसी ख़ुशी वापस आते थे और इम्तहान यूं पास करते थे जैसे खेल में कोई एक दूसरे से बाज़ी ले जाये। कभी फ़रीदा फ़र्स्ट आती थी, कभी नजीब और कभी सईदा। ख़ान बहादुर मोहम्मद असलम बच्चों से मुतमइन, रिटायर्ड ज़िंदगी बसर कर रहे थे। उन्होंने महकमा-ए-ज़राअत में बत्तीस बरस नौकरी की थी। मामूली ओ’हदा से बढ़ते बढ़ते वो बलंद-तरीन मक़ाम पर पहुंच गए। इस दौरान में उन्होंने बड़ी मेहनत की थी, दिन-रात दफ़्तरी काम किए थे, अब वो सुस्ता रहे थे। अपने कमरे में किताबें ले कर पड़े रहते और उनके मुताले में मसरूफ़ रहते। फ़रीदा, सईदा और नजीब कभी कभी माँ का कोई पैग़ाम ले कर आते तो वो उसका जवाब भिजवा देते।
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