मौज दीन

Shayari By

रात की तारीकी में सेंट्रल जेल के दो वार्डन बंदूक़ लिए चार क़ैदियों को दरिया की तरफ़ लिए जा रहे थे जिनके हाथ में कुदालें और बेलचे थे। पुल पर पहुंच कर उन्होंने गारद के सिपाही से डिबिया ले कर लालटेन जलाई और तेज़ तेज़ क़दम बढ़ाते दरिया की तरफ़ चल दिए।
किनारे पर पहुंच कर उन्होंने बारहदरी की बग़ल में कुदालें और बेलचे फेंके और लालटेन की मद्धम रौशनी में इस तरह तलाश शुरू की जैसे वो किसी मदफ़ून खज़ाने की खोज में आए हैं। एक क़ैदी ने लालटेन थामे वार्डन को दारोगा जी के नाम से मुख़ातिब करते हुए कहा, “दारोगा जी! ये जगह मुझे बहुत पसंद है अगर हुक्म हो तो खुदाई शुरू कर दें।”

“देखना ज़मीन नीचे से पथरीली न हो, वर्ना सारी रात खुदाई में गुज़र जाएगी। कमबख़्त को मरना भी रात ही को था।” वार्डन ने तहक्कुमाना और बेज़ारी के लहजे में कहा।
क़ैदियों ने कुदालें और बेलचे उठाए और खोदना शुरू किया। वार्डन बेज़ारी के मूड में बैठे सिगरेट पी रहे थे। क़ैदी ज़मीन खोदने में हमातन मसरूफ़ थे। रफ़्ता रफ़्ता ज़मीन पर ख़ुदी हुई मिट्टी का ढेर लग गया और वार्डन ने क़रीब आ कर क़ब्र का मुआ’इना किया। ज़मीन चूँकि पथरीली नहीं थी इसलिए वो बड़े इतमिनान के साथ क़रीब ही एक पत्थर पर बैठा सिगरेट पीने लगा जिसे लगाने के लिए उसने लालटेन मंगाई। [...]

फूजा हराम दा

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हाऊस में हरामियों की बातें शुरू हुईं तो ये सिलसिला बहुत देर तक जारी रहा। हर एक ने कम अज़ कम एक हरामी के मुतअ’ल्लिक़ अपने तास्सुरात बयान किए जिससे उसको अपनी ज़िंदगी में वास्ता पड़ चुका था। कोई जालंधर का था। कोई लुधियाने का और कोई लाहौर का। मगर सबके सब स्कूल या कॉलेज की ज़िंदगी के मुतअ’ल्लिक़ थे।
मेहर फ़िरोज़ साहब सबसे आख़िर में बोले। आप ने कि... अमृतसर में शायद ही कोई ऐसा आदमी हो जो फूजे हरामदे के नाम से नावाक़िफ़ हो। यूं तो इस शहर में और भी कई हरामज़ादे थे मगर उसके पल्ले के नहीं थे। वो नंबर एक हरामज़ादा था। स्कूल में उसने तमाम मास्टरों का नाक में दम कर रखा था। हेडमास्टर जिसको देखते ही बड़े बड़े शैतान लड़कों का पेशाब ख़ता हो जाता, फूजे से बहुत घबराता था, इसलिए कि उस पर उनके मशहूर बेद का कोई असर नहीं होता था। यही वजह है कि तंग आकर उन्होंने उस को मारना छोड़ दिया था।

ये दसवीं जमात की बात है। एक दिन यार लोगों ने उससे कहा देखो फूजे! अगर तुम कपड़े उतार कर नंग धड़ंग स्कूल का एक चक्कर लगाओ तो हम तुम्हें एक रुपया देंगे। फूजे ने रुपया लेकर कान में अड़सा कपड़े उतार कर बस्ते में बांधे और सबके सामने चलना शुरू कर दिया, जिस क्लास के पास से गुज़रता वो ज़ा’फ़रान ज़ार बन जाता। चलते चलते वो हेडमास्टर साहब के दफ़्तर के पास पहुंच गया। पत्ती उठाई और ग़ड़ाप से अंदर।
मालूम नहीं क्या हुआ, हेडमास्टर साहब सख़्त बौखलाए हुए बाहर निकले और चपड़ासी को बुला कर उससे कहा, “जाओ भाग के जाओ, फूजे हरामदे के घर, वहां से कपड़े लाओ उसके लिए। कहता है, मैं मस्जिद के सक़ावे में नहा रहा था कि मेरे कपड़े कोई चोर उठा कर ले गया।” [...]

मिलावट

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अमृतसर में अली मोहम्मद की मनियारी की दुकान थी छोटी सी, मगर उसमें हर चीज़ मौजूद थी। उसने कुछ इस क़रीने से सामान रखा था कि ठुंसा ठुंसा दिखाई नहीं देता था।
अमृतसर में दूसरे दुकानदार ब्लैक करते थे मगर अली मोहम्मद वाजिबी नर्ख़ पर अपना माल फ़रोख़्त करता था, यही वजह है कि लोग दूर दूर से उसके पास आते और अपनी ज़रूरत की चीज़ें ख़रीदा करते।

वो मज़हबी क़िस्म का आदमी था, ज़्यादा मुनाफ़ा लेना उसके नज़दीक गुनाह था। अकेली जान थी, उसके लिए जायज़ मुनाफ़ा ही काफ़ी था।
सारा दिन दुकान पर बैठता, गाहकों की भीड़ लगी रहती। उसको बा’ज़ औक़ात अफ़सोस होता जब वो किसी गाहक को सनलाईट साबुन की एक टिकिया न दे सकता या केलिफ़ोरनियन पोपी की बोतल, क्योंकि ये चीज़ें उसे महदूद तादाद में मिलती थीं। [...]

मौज-ए-दीन

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रात की तारीकी में सेंट्रल जेल के दो वार्डन बंदूक़ लिए चार क़ैदियों को दरिया की तरफ़ लिए जा रहे थे जिनके हाथ में कुदालें और बेलचे थे। पुल पर पहुंच कर उन्होंने गारद के सिपाही से डिबिया ले कर लालटेन जलाई और तेज़ तेज़ क़दम बढ़ाते दरिया की तरफ़ चल दिए।
किनारे पर पहुंच कर उन्होंने बारहदरी की बग़ल में कुदालें और बेलचे फेंके और लालटेन की मद्धम रौशनी में इस तरह तलाश शुरू की जैसे वो किसी मदफ़ून खज़ाने की खोज में आए हैं। एक क़ैदी ने लालटेन थामे वार्डन को दारोगा जी के नाम से मुख़ातिब करते हुए कहा, “दारोगा जी! ये जगह मुझे बहुत पसंद है अगर हुक्म हो तो खुदाई शुरू कर दें।”

“देखना ज़मीन नीचे से पथरीली न हो, वर्ना सारी रात खुदाई में गुज़र जाएगी। कमबख़्त को मरना भी रात ही को था।” वार्डन ने तहक्कुमाना और बेज़ारी के लहजे में कहा।
क़ैदियों ने कुदालें और बेलचे उठाए और खोदना शुरू किया। वार्डन बेज़ारी के मूड में बैठे सिगरेट पी रहे थे। क़ैदी ज़मीन खोदने में हमातन मसरूफ़ थे। रफ़्ता रफ़्ता ज़मीन पर ख़ुदी हुई मिट्टी का ढेर लग गया और वार्डन ने क़रीब आ कर क़ब्र का मुआ’इना किया। ज़मीन चूँकि पथरीली नहीं थी इसलिए वो बड़े इतमिनान के साथ क़रीब ही एक पत्थर पर बैठा सिगरेट पीने लगा जिसे लगाने के लिए उसने लालटेन मंगाई। [...]

फूजा हराम दा

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टी हाऊस में हरामियों की बातें शुरू हुईं तो ये सिलसिला बहुत देर तक जारी रहा। हर एक ने कम अज़ कम एक हरामी के मुतअ’ल्लिक़ अपने तास्सुरात बयान किए जिससे उसको अपनी ज़िंदगी में वास्ता पड़ चुका था। कोई जालंधर का था। कोई लुधियाने का और कोई लाहौर का। मगर सबके सब स्कूल या कॉलेज की ज़िंदगी के मुतअ’ल्लिक़ थे।
मेहर फ़िरोज़ साहब सबसे आख़िर में बोले। आप ने कि... अमृतसर में शायद ही कोई ऐसा आदमी हो जो फूजे हरामदे के नाम से नावाक़िफ़ हो। यूं तो इस शहर में और भी कई हरामज़ादे थे मगर उसके पल्ले के नहीं थे। वो नंबर एक हरामज़ादा था। स्कूल में उसने तमाम मास्टरों का नाक में दम कर रखा था। हेडमास्टर जिसको देखते ही बड़े बड़े शैतान लड़कों का पेशाब ख़ता हो जाता, फूजे से बहुत घबराता था, इसलिए कि उस पर उनके मशहूर बेद का कोई असर नहीं होता था। यही वजह है कि तंग आकर उन्होंने उस को मारना छोड़ दिया था।

ये दसवीं जमात की बात है। एक दिन यार लोगों ने उससे कहा देखो फूजे! अगर तुम कपड़े उतार कर नंग धड़ंग स्कूल का एक चक्कर लगाओ तो हम तुम्हें एक रुपया देंगे। फूजे ने रुपया लेकर कान में अड़सा कपड़े उतार कर बस्ते में बांधे और सबके सामने चलना शुरू कर दिया, जिस क्लास के पास से गुज़रता वो ज़ा’फ़रान ज़ार बन जाता। चलते चलते वो हेडमास्टर साहब के दफ़्तर के पास पहुंच गया। पत्ती उठाई और ग़ड़ाप से अंदर।
मालूम नहीं क्या हुआ, हेडमास्टर साहब सख़्त बौखलाए हुए बाहर निकले और चपड़ासी को बुला कर उससे कहा, “जाओ भाग के जाओ, फूजे हरामदे के घर, वहां से कपड़े लाओ उसके लिए। कहता है, मैं मस्जिद के सक़ावे में नहा रहा था कि मेरे कपड़े कोई चोर उठा कर ले गया।” [...]

शादाँ

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ख़ान बहादुर मोहम्मद असलम ख़ान के घर में ख़ुशियां खेलती थीं, और सही मा’नों में खेलती थीं। उनकी दो लड़कियां थीं, एक लड़का। अगर बड़ी लड़की की उम्र तेरह बरस की होगी तो छोटी की यही ग्यारह साढ़े ग्यारह और जो लड़का था गो सबसे छोटा मगर क़द काठ के लिहाज़ से वो अपनी बड़ी बहनों के बराबर मालूम होता था।
तीनों की उम्र जैसा कि ज़ाहिर है उस दौर से गुज़र रही थी जब कि हर आस पास की चीज़ खिलौना मालूम होती है। हादसे भी यूं आते हैं, जैसे रबड़ के उड़ते हुए गुब्बारे। उनसे भी खेलने को जी चाहता है।

ख़ान बहादुर मोहम्मद असलम का घर ख़ुशियों का घर था। उसमें सब से बड़ी तीन ख़ुशियां, उसकी औलाद थीं, फ़रीदा, सईदा और नजीब। ये तीनों स्कूल जाते थे, जैसे खेल के मैदान में जाते हैं। हंसी ख़ुशी जाते थे, हंसी ख़ुशी वापस आते थे और इम्तहान यूं पास करते थे जैसे खेल में कोई एक दूसरे से बाज़ी ले जाये। कभी फ़रीदा फ़र्स्ट आती थी, कभी नजीब और कभी सईदा।
ख़ान बहादुर मोहम्मद असलम बच्चों से मुतमइन, रिटायर्ड ज़िंदगी बसर कर रहे थे। उन्होंने महकमा-ए-ज़राअत में बत्तीस बरस नौकरी की थी। मामूली ओ’हदा से बढ़ते बढ़ते वो बलंद-तरीन मक़ाम पर पहुंच गए। इस दौरान में उन्होंने बड़ी मेहनत की थी, दिन-रात दफ़्तरी काम किए थे, अब वो सुस्ता रहे थे। अपने कमरे में किताबें ले कर पड़े रहते और उनके मुताले में मसरूफ़ रहते। फ़रीदा, सईदा और नजीब कभी कभी माँ का कोई पैग़ाम ले कर आते तो वो उसका जवाब भिजवा देते। [...]

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