तरक़्क़ी पसंद

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जोगिंदर सिंह के अफ़साने जब मक़बूल होना शुरू हुए तो उसके दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो मशहूर अदीबों और शायरों को अपने घर बुलाए और उनकी दा’वत करे। उसका ख़याल था कि यूं उस की शोहरत और मक़बूलियत और भी ज़्यादा हो जाएगी।
जोगिंदर सिंह बड़ा ख़ुशफ़हम इंसान था। मशहूर अदीबों और शायरों को अपने घर बुलाकर और उनकी ख़ातिर तवाज़ो करने के बाद जब वो अपनी बीवी अमृत कौर के पास बैठता तो कुछ देर के लिए बिल्कुल भूल जाता कि उसका काम डाकखाना में चिट्ठियों की देख भाल करना है। अपनी तीन गज़ी पटियाला फ़ैशन की रंगी हुई पगड़ी उतार कर जब वो एक तरफ़ रख देता तो उसे ऐसा महसूस होता कि उसके लंबे लंबे काले गेसूओं के नीचे जो छोटा सा सर छुपा हुआ है उसमें तरक़्क़ी पसंद अदब कूट कूट कर भरा है।

इस एहसास से उसके दिमाग़ में एक अ’जीब क़िस्म की अहमियत पैदा हो जाती है और वो ये समझता कि दुनिया में जिस क़दर अफ़साना निगार और नॉवेल नवीस मौजूद हैं सबके सब उसके साथ एक निहायत ही लतीफ़ रिश्ते के ज़रिये से मुंसलिक हैं।
अमृत कौर की समझ में ये बात नहीं आती थी कि उसका ख़ाविंद लोगों को मदऊ करने पर उससे हर बार ये क्यों कहा करता है, “अमृत, ये जो आज चाय पर आरहे हैं हिंदुस्तान के बहुत बड़े शायर हैं समझीं, बहुत बड़े शायर। देखो उनकी ख़ातिर तवाज़ो में कोई कसर न रहे।” [...]

बी-ज़मानी बेगम

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ज़मीन शक़ हो रही है। आसमान काँप रहा है। हर तरफ़ धुआँ ही धुआँ है। आग के शोलों में दुनिया उबल रही है। ज़लज़ले पर ज़लज़ले आ रहे हैं। ये क्या हो रहा है?
“तुम्हें मालूम नहीं?”

“नहीं तो।”
“लो सुनो… दुनिया भर को मालूम है।” [...]

उल्लू का पट्ठा

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क़ासिम सुबह सात बजे लिहाफ़ से बाहर निकला और ग़ुसलख़ाने की तरफ चला। रास्ते में, ये इसको ठीक तौर पर मालूम नहीं, सोने वाले कमरे में, सहन में या ग़ुसलख़ाने के अंदर उसके दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो किसी को उल्लु का पट्ठा कहे। बस सिर्फ़ एक बार ग़ुस्से में या तंज़िया अंदाज़ में किसी को उल्लू का पट्ठा कह दे।
क़ासिम के दिल में इससे पहले कई बार बड़ी बड़ी अनोखी ख्वाहिशें पैदा हो चुकी थीं मगर ये ख़्वाहिश सबसे निराली थी। वो बहुत ख़ुश था। रात उसको बड़ी प्यारी नींद आई थी। वो ख़ुद को बहुत तर-ओ-ताज़ा महसूस कर रहा था। लेकिन फिर ये ख़्वाहिश कैसे उसके दिल में दाख़िल होगई। दाँत साफ़ करते वक़्त उसने ज़रूरत से ज़्यादा वक़्त सर्फ़ किया जिस के बाइस उसके मसूड़े छिल गए। दरअसल वो सोचता रहा कि ये अजीब-ओ-ग़रीब ख़्वाहिश क्यों पैदा हुई। मगर वो किसी नतीजे पर न पहुंच सका।

बीवी से वो बहुत ख़ुश था। उनमें कभी लड़ाई न हुई थी, नौकरों पर भी वो नाराज़ नहीं था। इस लिए कि ग़ुलाम मुहम्मद और नबी बख़्श दोनों ख़ामोशी से काम करने वाले मुस्तइद नौकर थे। मौसम भी निहायत ख़ुशगवार था। फरवरी के सुहाने दिन थे जिनमें कुंवारपने की ताज़गी थी। हवा ख़ुनक और हल्की। दिन छोटे न रातें लंबी। नेचर का तवाज़ुन बिल्कुल ठीक था और क़ासिम की सेहत भी ख़ूब थी। समझ में नहीं आता था कि किसी को बग़ैर वजह के उल्लू का पट्ठा कहने की ख़्वाहिश उसके दिल में क्योंकर पैदा होगई।
क़ासिम ने अपनी ज़िंदगी के अट्ठाईस बरसों में मुतअद्दिद लोगों को उल्लु का पट्ठा कहा होगा और बहुत मुम्किन है कि इससे भी कड़े लफ़्ज़ उसने बा’ज़ मौक़ों पर इस्तेमाल किए हों और गंदी गालियां भी दी हों मगर उसे अच्छी तरह याद था कि ऐसे मौक़ों पर ख़्वाहिश बहुत पहले उसके दिल में पैदा नहीं हुई थी मगर अब अचानक तौर पर उसने महसूस किया था कि वो किसी को उल्लु का पट्ठा कहना चाहता है और ये ख़्वाहिश लम्हा-ब-लम्हा शिद्दत इख़्तियार करती चली गई जैसे उस ने अगर किसी को उल्लू का पट्ठा न कहा तो बहुत बड़ा हर्ज हो जाएगा। [...]

किताब का ख़ुलासा

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सर्दियों में अनवर ममटी पर पतंग उड़ा रहा था। उसका छोटा भांजा उसके साथ था। चूँकि अनवर के वालिद कहीं बाहर गए हुए थे और वो देर से वापस आने वाले थे इसलिए वो पूरी आज़ादी और बड़ी बेपर्वाई से पतंग बाज़ी में मशग़ूल था। पेच ढील का था। अनवर बड़े ज़ोरों से अपनी मांग पाई पतंग को डोर पिला रहा था। उसके भांजे ने जिसका छोटा सा दिल धक धक कर रहा था और जिसकी आँखें आसमान पर जमी हुई थीं अनवर से कहा, “मामूं जान खींच के पेटा काट लीजिए।” मगर वो धड़ा धड़ डोर पिलाता रहा।
नीचे खुले कोठे पर अनवर की बहन सहेलियों के साथ धूप सेंक रही थी। सब कशीदाकारी में मसरूफ़ थीं। साथ साथ बातें भी करती जाती थीं। अनवर की बहन शमीम अनवर से दो बरस बड़ी थी। कशीदाकारी और सीने-पिरोने के काम में माहिर। इसीलिए गली की अक्सर लड़कियां उसके पास आती थीं और घंटों बैठी काम सीखती रहती थीं।

एक हिंदू लड़की जिसका नाम बिमला था बहुत दूर से आती थी। उसका घर क़रीबन दो मील परे था लेकिन वो हर रोज़ बड़ी बाक़ायदगी से आती और बड़े इन्हिमाक से कशीदाकारी के नए नए डिज़ाइन सीखा करती थी।
बिमला का बाप स्कूल मास्टर था। बिमला अभी छोटी बच्ची ही थी कि उसकी माँ का देहांत हो गया। बिमला का बाप लाला हरी चरन चाहता तो बड़ी आसानी से दूसरी शादी कर सकता था मगर उसको बिमला का ख़याल था, चुनांचे वो रंडुवा ही रहा और बड़े प्यार मोहब्बत से अपनी बच्ची को पाल पोस कर बड़ा किया। [...]

नया साल

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कैलेंडर का आख़िरी पत्ता जिस पर मोटे हुरूफ़ में 31 दिसंबर छपा हुआ था, एक लम्हा के अंदर उसकी पतली उंगलियों की गिरफ़्त में था। अब कैलेंडर एक टूंड मुंड दरख़्त सा नज़र आने लगा। जिसकी टहनियों पर से सारे पत्ते ख़िज़ां की फूंकों ने उड़ा दिए हों।
दीवार पर आवेज़ां क्लाक टिक टिक कर रहा था। कैलेंडर का आख़िरी पत्ता जो डेढ़ मुरब्बा इंच काग़ज़ का एक टुकड़ा था, उसकी पतली उंगलियों में यूं काँप रहा था गोया सज़ाए मौत का क़ैदी फांसी के सामने खड़ा है।

क्लाक ने बारह बजाये, पहली ज़र्ब पर उंगलियां मुतहर्रिक हुईं और आख़िरी ज़र्ब पर काग़ज़ का वो टुकड़ा एक नन्ही सी गोली बना दिया गया। उंगलियों ने ये काम बड़ी बेरहमी से किया और जिस शख़्स की ये उंगलियां थीं और भी ज़्यादा बेरहमी से उस गोली को निगल गया।
उसके लबों पर एक तेज़ाबी मुस्कुराहट पैदा हुई और उसने ख़ाली कैलेंडर की तरफ़ फ़ातिहाना नज़रों से देखा और कहा, “मैं तुम्हें खा गया हूँ... बग़ैर चबाए निगल गया हूँ।” [...]

तरक़्क़ी पसंद

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जोगिंदर सिंह के अफ़साने जब मक़बूल होना शुरू हुए तो उसके दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो मशहूर अदीबों और शायरों को अपने घर बुलाए और उनकी दा’वत करे। उसका ख़याल था कि यूं उस की शोहरत और मक़बूलियत और भी ज़्यादा हो जाएगी।
जोगिंदर सिंह बड़ा ख़ुशफ़हम इंसान था। मशहूर अदीबों और शायरों को अपने घर बुलाकर और उनकी ख़ातिर तवाज़ो करने के बाद जब वो अपनी बीवी अमृत कौर के पास बैठता तो कुछ देर के लिए बिल्कुल भूल जाता कि उसका काम डाकखाना में चिट्ठियों की देख भाल करना है। अपनी तीन गज़ी पटियाला फ़ैशन की रंगी हुई पगड़ी उतार कर जब वो एक तरफ़ रख देता तो उसे ऐसा महसूस होता कि उसके लंबे लंबे काले गेसूओं के नीचे जो छोटा सा सर छुपा हुआ है उसमें तरक़्क़ी पसंद अदब कूट कूट कर भरा है।

इस एहसास से उसके दिमाग़ में एक अ’जीब क़िस्म की अहमियत पैदा हो जाती है और वो ये समझता कि दुनिया में जिस क़दर अफ़साना निगार और नॉवेल नवीस मौजूद हैं सबके सब उसके साथ एक निहायत ही लतीफ़ रिश्ते के ज़रिये से मुंसलिक हैं।
अमृत कौर की समझ में ये बात नहीं आती थी कि उसका ख़ाविंद लोगों को मदऊ करने पर उससे हर बार ये क्यों कहा करता है, “अमृत, ये जो आज चाय पर आरहे हैं हिंदुस्तान के बहुत बड़े शायर हैं समझीं, बहुत बड़े शायर। देखो उनकी ख़ातिर तवाज़ो में कोई कसर न रहे।” [...]

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