अनार कली

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नाम उसका सलीम था मगर उसके यार-दोस्त उसे शहज़ादा सलीम कहते थे। ग़ालिबन इसलिए कि उसके ख़द-ओ-ख़ाल मुग़लई थे, ख़ूबसूरत था। चाल ढ़ाल से रऊनत टपकती थी।
उसका बाप पी.डब्ल्यू.डी. के दफ़्तर में मुलाज़िम था। तनख़्वाह ज़्यादा से ज़्यादा सौ रुपये होगी मगर बड़े ठाट से रहता, ज़ाहिर है कि रिश्वत खाता था। यही वजह है कि सलीम अच्छे से अच्छा कपड़ा पहनता जेब ख़र्च भी उसको काफ़ी मिलता इसलिए कि वो अपने वालिदैन का इकलौता लड़का था।

जब कॉलिज में था तो कई लड़कियां उसपर जान छड़कतीं थीं मगर वो बेएतिनाई बरतता, आख़िर उस की आँख एक शोख़-ओ-शंग लड़की जिसका नाम सीमा था, लड़ गई। सलीम ने उससे राह-ओ-रस्म पैदा करना चाहा। उसे यक़ीन था कि वो उसकी इलतफ़ात हासिल कर लेगा। नहीं, वो तो यहां तक समझता था कि सीमा उसके क़दमों पर गिर पड़ेगी और उसकी ममनून-ओ-मुतशक़्क़िर होगी कि उस ने मुहब्बत की निगाहों से उसे देखा।
एक दिन कॉलिज में सलीम ने सीमा से पहली बार मुख़ातिब हो कर कहा, “आप किताबों का इतना बोझ उठाए हुई हैं, लाईए मुझे दे दीजिए। मेरा ताँगा बाहर मौजूद है, आपको और इस बोझ को आप के घर तक पहुंचा दूँगा।” [...]

आह-ए-बेकस

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मुंशी राम सेवक भवें चढ़ाए हुए घर से निकले और बोले, "ऐसी ज़िंदगी से तो मौत बेहतर।"
मौत की दस्त दराज़ियों का सारा ज़माना शाकी है। अगर इन्सान का बस चलता तो मौत का वुजूद ही न रहता, मगर फ़िलवाक़े मौत को जितनी दावतें दी जाती हैं उन्हें क़ुबूल करने की फ़ुर्सत ही नहीं। अगर उसे इतनी फ़ुर्सत होती तो आज ज़माना वीरान नज़र आता।

मुंशी राम सेवक मौज़ा चांद-पुर के एक मुमताज़ रईस थे और रुअसा के औसाफ़-ए-हमीदा से बहरावर वसीला मआश इतना ही वसीअ था जितनी इन्सान की हिमाक़तें और कमज़ोरियाँ यही उनकी इमलाक और मौरूसी जायदाद थी। वो रोज़ अदालत मुंसफ़ी के अहाते में नीम के दरख़्त के नीचे काग़ज़ात का बस्ता खोले एक शिकस्ता हाल चौकी पर बैठे नज़र आते थे और गो उन्हें किसी ने इजलास में क़ानूनी बहस या मुक़द्दमे की पैरवी करते नहीं देखा, मगर उर्फ़-ए-आम में वो मुख़्तार साहब मशहूर थे। तूफ़ान आए, पानी बरसे, ओले गिरें। मगर मुख़्तार साहब किसी नामुराद दिल की तरह वहीं जमे रहते थे। वो कचहरी चलते थे तो दहक़ानियों का एक जुलूस सा नज़र आता। चारों तरफ़ से उन पर अक़ीदत व एहतराम की निगाहें पड़तीं और अतराफ़ में मशहूर था कि उनकी ज़बान पर सरस्वती हैं।
उसे वकालत कहो या मुख़्तार कारी मगर ये सिर्फ़ ख़ानदानी या एज़ाज़ी पेशा था। आमदनी की सूरतें यहां मफ़क़ूद थीं। नुक़रई सिक्कों का तो ज़िक्र ही क्या कभी कभी मिसी सिक्के भी आज़ादी से आने में तअम्मुल करते थे। [...]

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