ख़ाली बोतलें, ख़ाली डिब्बे

Shayari By

ये हैरत मुझे अब भी है कि ख़ास तौर पर ख़ाली बोतलों और डिब्बों से मुजर्रद मर्दों को इतनी दिलचस्पी क्यों होती है? मुजर्रद मर्दों से मेरी मुराद उन मर्दों से है जिनको आमतौर पर शादी से कोई दिलचस्पी नहीं होती।
यूं तो इस क़िस्म के मर्द उमूमन सनकी और अजीब-ओ-ग़रीब आदात के मालिक होते हैं, लेकिन ये बात समझ में नहीं आती कि उन्हें ख़ाली बोतलों और डिब्बों से क्यों इतना प्यार होता है...? परिंदे और जानवर अक्सर उन लोगों के पालतू होते हैं। ये मैलान समझ में आ सकता है कि तन्हाई में उनका कोई तो मूनिस होना चाहिए, लेकिन ख़ाली बोतलें और ख़ाली डिब्बे उन की क्या ग़मगुसारी कर सकते हैं?

सनक और अजीब-ओ-ग़रीब आदात का जवाज़ ढूंढना कोई मुश्किल नहीं कि फ़ितरत की ख़िलाफ़वरज़ी ऐसे बिगाड़ पैदा कर सकती है, लेकिन उसकी नफ़सियाती बारीकियों में जाना अलबत्ता बहुत मुश्किल है।
मेरे एक अज़ीज़ हैं। उम्र आपकी इस वक़्त पचास के क़रीब क़रीब है। आपको कबूतर और कुत्ते पालने का शौक़ है और इसमें कोई अजीब-ओ-ग़रीब-पन नहीं लेकिन आपको ये मरज़ है कि बाज़ार से हर रोज़ दूध की बालाई ख़रीद कर लाते हैं। चूल्हे पर रख कर उसका रोग़न निकालते हैं और उस रोग़न में अपने लिए अलाहिदा सालन तैयार करते हैं। उनका ख़याल है कि इस तरह ख़ालिस घी तैयार होता है। [...]

काली शलवार

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दिल्ली आने से पहले वो अंबाला छावनी में थी जहां कई गोरे उसके गाहक थे। उन गोरों से मिलने-जुलने के बाइस वो अंग्रेज़ी के दस पंद्रह जुमले सीख गई थी, उनको वो आम गुफ़्तगु में इस्तेमाल नहीं करती थी लेकिन जब वो दिल्ली में आई और उसका कारोबार न चला तो एक रोज़ उसने अपनी पड़ोसन तमंचा जान से कहा, “दिस लैफ़... वेरी बैड।” यानी ये ज़िंदगी बहुत बुरी है जबकि खाने ही को नहीं मिलता।
अंबाला छावनी में उसका धंदा बहुत अच्छी तरह चलता था। छावनी के गोरे शराब पी कर उसके पास आजाते थे और वो तीन-चार घंटों ही में आठ-दस गोरों को निमटा कर बीस-तीस रुपये पैदा कर लिया करती थी। ये गोरे, उसके हम वतनों के मुक़ाबले में बहुत अच्छे थे। इसमें कोई शक नहीं कि वो ऐसी ज़बान बोलते थे जिसका मतलब सुल्ताना की समझ में नहीं आता था मगर उनकी ज़बान से ये लाइल्मी उसके हक़ में बहुत अच्छी साबित होती थी। अगर वो उससे कुछ रिआयत चाहते तो वो सर हिला कर कह दिया करती थी, “साहिब, हमारी समझ में तुम्हारी बात नहीं आता।”

और अगर वो उससे ज़रूरत से ज़्यादा छेड़छाड़ करते तो वो उनको अपनी ज़बान में गालियां देना शुरू करदेती थी। वो हैरत में उसके मुँह की तरफ़ देखते तो वो उनसे कहती, “साहिब, तुम एक दम उल्लु का पट्ठा है। हरामज़ादा है... समझा।” ये कहते वक़्त वो अपने लहजे में सख़्ती पैदा न करती बल्कि बड़े प्यार के साथ उनसे बातें करती। ये गोरे हंस देते और हंसते वक़्त वो सुल्ताना को बिल्कुल उल्लू के पट्ठे दिखाई देते।
मगर यहां दिल्ली में वो जब से आई थी एक गोरा भी उसके यहां नहीं आया था। तीन महीने उसको हिंदुस्तान के इस शहर में रहते होगए थे जहां उसने सुना था कि बड़े लॉट साहब रहते हैं, जो गर्मियों में शिमले चले जाते हैं, मगर सिर्फ़ छः आदमी उसके पास आए थे। सिर्फ़ छः, यानी महीने में दो और उन छः ग्राहकों से उसने ख़ुदा झूट न बुलवाए तो साढ़े अठारह रुपये वसूल किए थे। तीन रुपये से ज़्यादा पर कोई मानता ही नहीं था। [...]

ख़ाली बोतलें, ख़ाली डिब्बे

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ये हैरत मुझे अब भी है कि ख़ास तौर पर ख़ाली बोतलों और डिब्बों से मुजर्रद मर्दों को इतनी दिलचस्पी क्यों होती है? मुजर्रद मर्दों से मेरी मुराद उन मर्दों से है जिनको आमतौर पर शादी से कोई दिलचस्पी नहीं होती।
यूं तो इस क़िस्म के मर्द उमूमन सनकी और अजीब-ओ-ग़रीब आदात के मालिक होते हैं, लेकिन ये बात समझ में नहीं आती कि उन्हें ख़ाली बोतलों और डिब्बों से क्यों इतना प्यार होता है?... परिंदे और जानवर अक्सर उन लोगों के पालतू होते हैं। ये मैलान समझ में आ सकता है कि तन्हाई में उनका कोई तो मूनिस होना चाहिए, लेकिन ख़ाली बोतलें और ख़ाली डिब्बे उन की क्या ग़मगुसारी कर सकते हैं?

सनक और अजीब-ओ-ग़रीब आदात का जवाज़ ढूंढना कोई मुश्किल नहीं कि फ़ितरत की ख़िलाफ़वरज़ी ऐसे बिगाड़ पैदा कर सकती है, लेकिन उसकी नफ़सियाती बारीकियों में जाना अलबत्ता बहुत मुश्किल है।
मेरे एक अज़ीज़ हैं। उम्र आपकी इस वक़्त पचास के क़रीब क़रीब है। आपको कबूतर और कुत्ते पालने का शौक़ है और इसमें कोई अजीब-ओ-ग़रीब-पन नहीं लेकिन आपको ये मरज़ है कि बाज़ार से हर रोज़ दूध की बालाई ख़रीद कर लाते हैं। चूल्हे पर रख कर उसका रोग़न निकालते हैं और उस रोग़न में अपने लिए अलाहिदा सालन तैयार करते हैं। उनका ख़याल है कि इस तरह ख़ालिस घी तैयार होता है। [...]

मलबे का ढेर

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कामिनी के ब्याह को अभी एक साल भी न हुआ था कि उसका पति दिल के आ’रिज़े की वजह से मर गया और अपनी सारी जायदाद उसके लिए छोड़ गया। कामिनी को बहुत सदमा पहुंचा, इसलिए कि वो जवानी ही में बेवा हो गई थी। उसकी माँ अ’र्सा हुआ उसके बाप को दाग़-ए-मुफ़ारक़त दे गई थी। अगर वो ज़िंदा होती तो कामिनी उसके पास जा कर ख़ूब रोती ताकि उसे दम दिलासा मिले, लेकिन उसे मजबूरन अपने बाप के पास जाना पड़ा जो काठियावाड़ में बहुत बड़ा कारोबारी आदमी था।
जब वो अपने पुराने घर में दाख़िल हुई तो सेठ घनशाम दास बाहर बरामदे में टहल रहे थे। ग़ालिबन अपने कारोबार के मुतअ’ल्लिक़ सोच रहे थे। जब कामिनी उनके पास आई तो वो हैरान से हो कर रह गए।

“कामिनी!”
कामिनी की आँखों से आँसू छलक पड़े, वो अपने पिता से लिपट गई और ज़ार-ओ-क़तार रोने लगी। सेठ घनशाम दास ने उसको पुचकारा और पूछा, “क्या बात है?” [...]

मंज़ूर

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जब उसे हस्पताल में दाख़िल किया गया तो उसकी हालत बहुत ख़राब थी। पहली रात उसे ऑक्सीजन पर रखा गया। जो नर्स ड्यूटी पर थी, उसका ख़याल था कि ये नया मरीज़ सुबह से पहले पहले मर जाएगा। उसकी नब्ज़ की रफ़्तार ग़ैर यक़ीनी थी। कभी ज़ोर ज़ोर से फड़फड़ाती और कभी लंबे लंबे वक़्फ़ों के बाद चलती थी।
पसीने में उस का बदन शराबोर था, एक लहज़े के लिए भी उसे चैन नहीं मिलता था। कभी इस करवट लेटता, कभी उस करवट। जब घबराहट बहुत ज़्यादा बढ़ जाती तो उठ कर बैठ जाता और लंबे लंबे सांस लेने लगता। रंग उसका हल्दी की गांठ की तरह ज़र्द था, आँखें अंदर धंसी हुईं। नाक का बांसा बर्फ़ की डली, सारे बदन पर रअ’शा था।

सारी रात उसने बड़े शदीद कर्ब में काटी। ऑक्सीजन बराबर दी जा रही थी, सुबह हुई तो उसे किसी क़दर इफ़ाक़ा हुआ और वो निढाल हो कर सो गया।
उस के दो तीन अ’ज़ीज़ आए। कुछ देर बैठे रहे और चले गए। डॉक्टरों ने उन्हें बता दिया था कि मरीज़ को दिल का आ’रज़ा है जिसे “कोरोनरी थरम्बोसिस” कहते हैं। ये बहुत मोहलिक होता है। [...]

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